की-त्यो कायम है । अनुमान कह रहा है कि प्राविशत आटोनोमो मिलते
ही प्रान्तीयता और भी ज़ोर पकड़ेगी, प्रान्तो मे द्वेष बढेगा, और यह
राष्ट्र-भावना कमजोर पड जायगी। भारतीय परिषद् का उद्देश्य जहाँ
साहित्यिक सगठन, सच्चे साहित्यिक आदर्शों का प्रचार और साहित्यिक
सहयोग था, वहाँ एक उद्देश्य यह भी था कि उस सगठन और सहयोग के
द्वारा हमारी राष्ट्र-भावना भी बलवान् हो । हमारा यह मनोभाव कभी न था
कि इस उद्योग से हम प्रान्तीय साहित्यो की उन्नति और विकास मे बाधा
डाले । जब हमारी मातृभषाएँ अलग हैं, तो साहित्य भी अलग रहेगे।
अगर एक-एक प्रान्त रहकर हम अपना अस्तित्व बनाये रह सकते, तो हमे
इस तरह के उद्योग की जरूरत ही न होती, लेकिन हम यह अनुभव करते
है कि हमारा भविष्य, राष्ट्रीय एकता के हाथ है। उसी पर हमारी जिंदगी
और मौत का दारमदार है । और राष्ट्रीय एकता के कई अंगो मे भाषा
और साहित्य की एकता भी है । इसलिए साहित्यिक एकता के विचार के
साथ एक भाषा का प्रश्न भी अनायास ही बिना बुलाये मेहमान की तरह
आ खड़ा होता है। भाषा के साथ लिपि का प्रश्न भी आ ही जाता
हे । और परिषद् के इस जलसे मे भी ये दोनो प्रश्न आ गये ।
झगड़ा हुआ भाषा पर, यानी साहित्य-परिषद् भाषा के किस रूप का
आश्रय ले । 'हिन्दी' शब्द से उर्दू को उतनी ही चिढ़ है जितनी 'उर्दू' से
हिन्दी को है । और यह भेद केवल नाम का नहीं है । हिन्दी जिस रूप
मे लिखी जा रही है, उसमे संस्कृत के शब्द बेतकल्लुफ आते है। उर्दू
जिस रूप मे लिखी जाती है उसमे फारसी और अरबी के शब्द बेतकल्लुफ
आते है। इन दोनो का बिचला रूप हिन्दुस्तानी है, जिसका दावा है
कि वह साधारण बोल-चाल की ज़बान है, जिसमे किसी भाषा के शब्दों
का त्याग नहीं किया जाता, अगर वह बोल-चाल मे आते हैं । हिन्दी को
'हिन्दुस्तानी' चाहे उतना प्रिय न हो, पर उर्दू को 'हिन्दुस्तानी' के
स्वीकार करने मे कोई बाधा नहीं है क्योकि उसे वह अपनी परिचित-सी
लगती है। मगर परिषद् ने 'हिन्दुस्तानी' को अपना माध्यम बनाना न