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अन्तरप्रान्तीय साहित्यिक आदान-प्रदान के लिये


सम्मेलन मे इतिहास-परिषद् , दर्शन-परिषद् और विज्ञान परिषद् की भी आयोजना की गई थी, पर हमे एक ख़ास जरूरत से २५ की शाम ही को चला थाना पड़ा, और उन परिपदो को कोई रिपोर्ट भी नहीं मिल सकी । यह सम्मेलन का काम था कि कम से-कम पत्रो-पत्रिकाओं के पास तो उनकी रिपार्ट भेज देता ।हमे साहित्य-परिषद् के सभापति श्री बालकृष्णजी 'नवीन' का भाषण पढ़ने को मिला। उसमे जोर हे, प्रवाह हे, जोश है । कवि सम्मेलना की मौजूदा हालत और उसके सुधार के विषय मे आपने जो कुछ कहा, वह सर्वथा मानने योग्य है; पर जहाँ आपने कला को उपयोगिता के बन्धन से आजाद कर दिया, वहीं अापसे हमारा मतभेद है । आखिर कवि किस लिए कविता करता है ? क्या कवि भी श्यामा चिड़िया है, जो प्रकृतिदत्त उल्लास मे अपना मीठा राग सुनाने लगता है ? ऐसा तो नहीं है । श्यामा जगल मे भी गायेगी, कोई सुननेवाला है या नहीं, इसकी उसे परवा नहीं, बल्कि जमघट मे तो उसकी जबान बन्द हो जाती है । उसके पिंजरे पर कपड़े की मोटी तह लपेटकर जब उसे एकान्त के भ्रम मे डाला जाता है, तभी वह जमघट मे चहकती है। कवि तो इसीलिए कविता करता है कि उसने जो अनुभूति पाई है, वह दूसरो का दे, उन्हे अपने दुःख-सुख मे शरीक करे। ऐसा शायद ही कोई पागल कवि होगा, जो निर्जनता मे बैठकर अपनी कविता का आनन्द ले । कभी-कभी वह निर्जनता मे भी अपनी कविता का आनन्द लेता है, इममे सन्देह नहीं; पर इससे उसकी तृप्ति नहीं होती । वह तो अपनो अनुभूतियों को, अपनी व्यथो को लिखेगा, छपायेगा और सुनायेगा । दूसरो को उससे प्रभावित होते देखकर ही उसे उसकी सत्यता का विश्वास होता है । जब तक वह अपने रोने पर दूसरों को रुला न ले, उसे इसका सन्ताष ही कैसे होगा कि वह वहीं रोया, जहाँ उसे रोना चाहिए था । दूसरो का सुन कर अपनी भावनाओ और व्यथाओं की सत्यता जाँचने का यह नशा इतना जबरदस्त होता है कि वह अपनी अनुभूतियों को मुबालगे के साथ बगान करता है, ताकि सुननेवालों पर