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अन्तरप्रान्तीय साहित्यिक आदान-प्रदान के लिए

है। साहित्य भी उसी जलवायु मे पूरी तरह विकास पा सकता है, जब उसमे आदान-प्रदान होता रहे, उसे चारो तरफ से हवा और रोशनी शाजादो के साथ मिलती रहे । प्रान्तीय चारदीवारी के अन्दर साहित्य का जीवन भी पीला, मुर्दा और बे-जान होकर रह जायगा । यही विचार थे, जिन्होने हमे इस परिषद् की बुनियाद डालने को आमादा किया, और यद्यपि अभी हमे वह कामयाबी नही हुई है जिसकी हमने कल्पना की थी पर आशा है कि एक दिन यह परिषद् सच्चे अर्थों मे हिन्दुस्तान का साहित्यिक परिषद् बन जायगा। इस साल तो प्रान्तीय परिषदो से बहत कम लोग आये थे । इसका एक कारण यह हो सकता है कि हमे जल्दी से काम लेना पड़ा । हम पहले से अपना कार्यक्रम निश्चित न कर सके, प्रान्तीय साहित्यकारो को काफी समय पहले कोई सूचना न दी जा सकी। महात्माजी की बीमारी के कारण दो बार तारीखें बदलनी पड़ी। इतने थाडे समय मे जो कुछ हुआ, वहां गनीमत है । हमे गर्व है कि परिषद की बुनियाद महात्माजी के हाथो पडी। अपने जीवन के अन्य विभागो को भॉति साहित्य मे भी, जिसका जोवन से गहरा सम्बन्ध है, उन्हाने लोकवाद का समावेश किया है और गुजराती-साहित्य मे एक खास शैली और स्कूल के आविष्कारक है। आपने बहुत ठीक कहा कि-

'मेरी दृष्टि मे तो साहित्य की कुछ सीमा-मर्यादा होनी चाहिए। मुझे पुस्तको की संख्या बढ़ाने का मोह कभी नही रहा है। प्रत्येक प्रान्त की भाषा मे लिखी और छपी प्रत्येक पुस्तक का परिचय दूसरी सब भाषाओं मे होना मै आवश्यक नहीं मानता । ऐसा प्रयत्न यदि सभव भी हो, तो उसे मै हानिकर समझता हूँ । जो साहित्य एकता का, नीति का, शौर्यादि गुणो का, विज्ञान का पोषक है उसका प्रचार प्रत्येक प्रान्त मे होना आवश्यक और लाभदायक है । भारयीय परिषद् का यही उद्देश्य होना चाहिए कि प्रान्तीय भाषाओ मे जो कुछ ऊँचा उठाने वाला, जीवन देनेवाला, बुद्धि और आत्मा का परिष्कार करने वाला अश है-उसी का हिन्दुस्तानी द्वारा दूसरी भाषाश्रो को परिचय कराया जाय ।'