हिन्दी साहित्य का इतिहास
प्रकाशक
नागरी प्रचारिणी सभा,
काशी।
मुद्रक
के॰ कृ॰ पावगी,
हितचिंतक प्रेस,
रामघाट, काशी
प्रथम संस्करण का
वक्तव्य
हिंदी-कवियों का एक वृत्त-संग्रह ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने सन् १८८३ ई० में प्रस्तुत किया था। उसके पीछे सन् १८८९ में डाक्टर (अब सर) ग्रियर्सन ने 'माडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर अव नार्दर्न हिंदुस्तान' के नाम से एक वैसा ही बड़ा कवि-वृत्त-संग्रह निकाला। काशी की नागरीप्रचारिणी सभा का ध्यान आरंभ ही में इस बात की ओर गया कि सहस्रों हस्तलिखित-हिंदी-पुस्तके देश के अनेक भागों में राज-पुस्तकालयों तथा लोगों के घरों में अज्ञात पड़ी हैं। अतः सरकार की आर्थिक सहायता से उसने सन् १९०० से पुस्तकों की खोज का काम हाथ में लिया और सन् १९१३ तक अपनी खोज की आठ रिपोर्टों में सैकड़ों अज्ञात कवियों तथा ज्ञात कवियों के अज्ञात ग्रंथों का पता लगाया। सन् १९१३ में इस सारी सामग्री का उपयोग करके मिश्रबंधुओं (श्रीयुत पं० श्यामबिहारी मिश्र आदि) ने अपना बड़ा भारी कवि-वृत्त-संग्रह 'मिश्रबंधु-विनोद' जिसमें वर्त्तमान काल के कवियों और लेखको का भी समावेश किया गया, तीन भागों में प्रकाशित किया।
इधर जब से विश्वविद्यालयों में हिंदी की उच्च शिक्षा का विधान हुआ तब से उसके साहित्य के विचार-शृंखला-बद्ध इतिहास की आवश्यकता का अनुभव छात्र और अध्यापक दोनो कर रहे थे। शिक्षित जनता की जिन जिन प्रवृत्तियों के अनुसार हमारे साहित्य के स्वरूप मे जो जो परिवर्त्तन होते आए हैं, जिन जिन प्रभावों की प्रेरणा से काव्यधारा की भिन्न भिन्न शाखाएँ फूटती रही हैं, उन सब के सम्यक् निरूपण तथा उनकी दृष्टि से किए हुए सुसंगत काल-विभाग के बिना साहित्य के इतिहास का सच्चा अध्ययन कठिन दिखाई पड़ता था। सात आठ सौ वर्षों की संचित ग्रंथराशि सामने लगी हुई थी; पर ऐसी निर्दिष्ट सरणियों की उद्भावना नहीं हुई थी जिनके अनुसार सुगमता से इस प्रभूत सामग्री का वर्गीकरण होता। भिन्न भिन्न शाखायों के हजारों कवियो की केवल
कालक्रम से गुथी उपर्युक्त वृत्तमालाएँ साहित्य के इतिहास के अध्ययन में कहाँ तक सहायता पहुँचा सकती थीं? सारे रचना-काल को केवल आदि, मध्य, पूर्व, उत्तर इत्यादि खंडों मे आँख मूंदकर बाँट देना--यह भी न देखना कि किस खंड के भीतर क्या आता है, क्या नहीं--किसी वृत्त-संग्रह को इतिहास नहीं बना सकता।
पाँच या छः वर्ष हुए, छात्रों के उपयोग के लिये मैंने कुछ संक्षिप्त नोट तैयार किए थे जिनसे परिस्थिति के अनुसार शिक्षित जन-समूह की बदलती हुई प्रवृत्तियों को लक्ष्य करके हिंदी-साहित्य के इतिहास के काल-विभाग और रचना की भिन्न-भिन्न शाखाओं के निरूपण का एक कच्चा ढाँचा खड़ा किया गया था। 'हिंदी शब्द-सागर' समाप्त हो जाने पर उसकी भूमिका के रूप में भाषा और साहित्य का विकास देना भी स्थिर किया गया अतः एक नियत समय के भीतर ही यह इतिहास लिखकर पूरा करना पड़ा। साहित्य का इतिहास लिखने के लिये जितनी अधिक सामग्री मैं जरुरी समझता था उतनी तो उस अवधि के भीतर न इकट्ठी हो सकी, पर जहाँ तक हो सका आवश्यक उपादान सामने रखकर यह कार्य्य पूरा किया।
इस पुस्तक में जिस पद्धति का अनुसरण किया गया है उसका थोड़े में उल्लेख कर देना आवश्यक जान पड़ता है।
पहले काल-विभाग को लीजिए। जिस काल-खंड के भीतर किसी विशेष ढंग की रचनाओं की प्रचुरता दिखाई पड़ी है वह एक अलग काल माना गया है और उसका नामकरण उन्ही रचनाओं के स्वरूप के अनुसार किया गया है । इस प्रकार प्रत्येक काल का एक निर्दिष्ट सामान्य लक्षण बताया जा सकता है। किसी एक ढंग की रचना की प्रचुरता से अभिप्राय यह है कि शेष दूसरे ढंग की रचनाओं में से चाहे किसी (एक) ढंग की रचना को ले वह परिमाण में प्रथम के बराबर न होगी; यह नहीं कि और सब ढंगों की रचनाएँ मिलकर भी उसके बराबर न होगी। जैसे, यदि किसी काल में पाँच ढंग की रचनाएँ १०,५,६,७ और २ के क्रम से मिलती है तो जिस ढंग की रचना की १० पुस्तके हैं उसकी प्रचुरता कही जायगी, यद्यपि शेष और ढंग की सब पुस्तकें मिलकर २० हैं। यह तो हुई पहली बात। दूसरी बात है ग्रंथों की प्रसिद्धि। किसी काल के
भीतर जिस एक ही ढंग के बहुत अधिक ग्रंथ प्रसिद्ध चले आते हैं उस ढंग की रचना उस काल के लक्षण के अंतर्गत मानी जायगी, चाहे और दूसरे-दूसरे ढंग की अप्रसिद्ध और साधारण कोटि की बहुत सी पुस्तके भी इधर-उधर कोनों में पड़ी मिल जाया करे। प्रसिद्धि भी किसी काल की लोक-प्रवृत्ति की प्रतिध्वनि है। सारांश यह कि इन दोनों बातों की ओर ध्यान रखकर काल-विभाग का नामकरण किया है।
आदिकाल का नाम मैंने 'वीरगाथा-काल' रखा है। उक्त काल के भीतर दो प्रकार की रचनाएँ मिलती है--अपभ्रंश की और देशभाषा (बोलचाल) की। अपभ्रंश की पुस्तकों में कई तो जैनो के धर्म-तत्व-निरूपण-सबंधी है जो साहित्य-कोटि में नहीं आतीं और जिनका उल्लेख केवल यह दिखाने के लिये ही किया गया है कि अपभ्रंश भाषा का व्यवहार कब से हो रहा था। साहित्य-कोटि में आनेवाली रचनाओं में कुछ तो भिन्न भिन्न विषयों पर फुटकल दोहे है। जिनके अनुसार उस काल की कोई विशेष प्रवृत्ति निर्धारित नहीं की जा सकती। साहित्यिक पुस्तकें केवल चार हैं---
१ विजयपाल रासो
२ हम्मीर रासो
३ कीर्तिलता
४ कीर्तिपताका
देशभाषा-काव्य की आठ पुस्तकें प्रसिद्ध हैं--
५ खुमान रासो
६ वीसलदेव रासो
७ पृथ्वीराज रासो
८ जयचदं-प्रकाश
९ जयमयंक-जस-चंद्रिका
१० परमाल रासो (आल्हा का मूलरूप)
११ खुसरो की पहेलियाँ आदि
१२ विद्यापति-पदावली
इन्ही बारह पुस्तकों की दृष्टि से 'आदिकाल' का लक्षण-निरूपण और नामकरण हो सकता है। इनमे से अंतिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर शेष सब ग्रंथ वीरगाथात्मक ही हैं। अतः आदिकाल का नाम 'वीरगाथा-काल' ही रखा जा सकता है। जिस सामाजिक या राजनीतिक परिस्थिति की प्रेरणा से वीरगाथाओं की प्रवृत्ति रही है उसका सम्यक् निरूपण पुस्तक में कर दिया गया है।
मिश्रबंधुओं ने इस 'आदिकाल' के भीतर इतनी पुस्तकों की और नामावली दी है---
१ भगवद्गीता
२ वृद्ध नवकार
३ वर्त्तमाल
४ समतसार
५ पत्तलि
६ अनन्य योग
८ रैवतगिरि रासा
९ नेमिनाथ चउपई
१० उवएस-माला (उपदेशमाला)
इनमें से नं० १ तो पीछे की रचना है, जैसा कि उसकी इस भाषा से स्पष्ट है--
- तेहि दिन कथा कीन मन लाई। हरि के नाम गीत चित आई ।।
- सुमिरौं गुरु गोविंद के पाऊँ। अगम अपार है जाकर नाऊँ।।
जो वीररस की पुरानी परिपाटी के अनुसार कहीं वर्णों का द्वित्व देखकर प्राकृत भाषा और कहीं चौपाई देखकर ही अवधी या बैसवाड़ी समझते हैं, जो भाव को 'थाट' और विचार को 'फीलिंग' कहते हैं वे यदि उद्धृत पद्यों को संवत् १००० के क्या संवत् ५०० के भी बताएँ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पुस्तक की संवत्-सूचक पंक्ति का यह गड़बड़ पाठ ही सावधान करने के लिये काफी है--"सहस्र सो संपूरन जाना।"
अब रहीं शेष नौ पुस्तकें उनमें नं० २, ७, ९ और १० जैनधर्म के तत्व निरूपण पर हैं और साहित्य-कोटि में नहीं आ सकतीं। नं० ६ योग की पुस्तक है। नं० ३ और नं० ४ केवल नोटिस मात्र है; विषयों का कुछ भी विवरण नहीं है। इस प्रकार केवल दो साहित्यिक पुस्तकें बचीं जो वर्णनात्मक (डेस्क्रिप्टिव) हैं-एक में नंद के ज्योनार का वर्णन है, दूसरी में गुजरात के रैवतक पर्वत का। अतः इन पुस्तकों की नामावली से मेरे निश्चय में किसी प्रकार का अतर नहीं पड़ सकता। यदि ये भिन्न भिन्न प्रकार की ९ पुस्तके साहित्यिक भी होती तो भी मेरे नामकरण में कोई बाधा नही डाल सकती थीं; क्योंकि मैने ९ प्रसिद्ध वीरगाथात्मक पुस्तकों का उल्लेख किया है।
एक ही काल और एक ही कोटि की रचना के भीतर जहाँ भिन्न भिन्न प्रकार की परंपराएँ चली हुई पाई गई है वहाँ अलग शाखाएँ करके सामग्री का विभाग किया गया है। जैसे, भक्तिकाल के भीतर पहले तो दो काव्य-धाराएँ-निर्गुण धारा और सगुण धारा—निर्दिष्ट की गई है। फिर प्रत्येक धारा की दो दो शाखाएँ स्पष्ट रूप से लक्षित हुई हैं—निर्गुण धारा की ज्ञानाश्रयी और प्रेममार्गी (सूफी) शाखा तथा सगुण धारा की रामभक्ति और कृष्ण-भक्ति शाखा। इन धाराओं और शाखाओं की प्रतिष्ठा यों ही मनमाने ढंग पर नहीं की गई है। उनकी एक दूसरी से अलग करनेवाली विशेषताएं अच्छी तरह दिखाई भी गई हैं और देखते ही ध्यान में आ भी जायँगी।
रीति-काल के भीतर रीतिबद्ध रचना की जो परंपरा चली है उसका उप-विभाग करने का कोई संगत आधार मुझे नहीं मिला। रचना के स्वरूप आदि में कोई स्पष्ट भेद निरूपित किए बिना विभाग कैसे किया जा सकता है? किसी काल-विस्तार को लेकर यों ही पूर्व और उत्तर नाम देकर दो हिस्से कर डालना ऐतिहासिक विभाग नहीं कहला सकता। जब तक पूर्व और उत्तर के अलग अलग लक्षण न बताए जायँगे तब तक इस प्रकार के विभाग का कोई अर्थ नहीं। इसी प्रकार थोडे थोड़े अंतर पर होनेवाले कुछ प्रसिद्ध कवियों के नाम पर अनेक काल बाँध चलने के पहले यह दिखाना आवश्यक है कि प्रत्येक काल-प्रवर्तक कवि का यह प्रभाव उनके काल में होनेवाले सब कवियों में सामान्य रूप से पाया जाता है। विभाग का कोई पुष्ट आधार होना चाहिए। रीतिबद्ध ग्रंथों की बहुत गहरी छानबीन और सूक्ष्म पर्य्यालोचना करने पर आगे चलकर शायद विभाग का कोई आधार मिल जाय, पर अभी तक मुझे नहीं मिला है।
रीति-काल के संबंध में दो बाते और कहनी हैं। इस काल के कवियों के परिचयात्मक वृत्तो की छानबीन मे मैं अधिक नहीं प्रवृत्त हुआ हूँ, क्योंकि मेरा उद्देश्य अपने साहित्य के इतिहास का एक पक्का और व्यवस्थित ढाँचा खड़ा करना था, न कि कवि-कीर्त्तन करना। अतः कवियों के परिचयात्मक विवरण मैने प्रायः मिश्रबंधु-विनोद से ही लिए हैं। कही कहीं कुछ कवियों के विवरणो में परिवर्द्धन और परिष्कार भी किया है; जैसे, ठाकुर, दीनदयाल गिरि, रामसहाय और रसिक-गोविंद के विवरणों में। यदि कुछ कवियों के नाम छूट गए या किसी कवि की किसी मिली हुई पुस्तक का उल्लेख नहीं हुआ तो इसमें मेरी कोई बड़ी उद्देश्य हानि नहीं हुई। इस काल के भीतर मैने जितने कवि लिए हैं या जितने ग्रंथों के नाम दिए हैं उतने ही जरूरत से ज्यादा मालूम हो रहे हैं।
रीतिकाल या और किसी काल के कवियो की साहित्यिक विशेषता के संबंध में मैने जो संक्षिप्त विचार प्रकट किए हैं वे दिग्दर्शन मात्र के लिये। इतिहास की पुस्तक में किसी कवि की पूरी क्या अधूरी आलोचना भी नहीं आ सकती है किसी कवि की आलोचना लिखनी होगी तो स्वतंत्र प्रबंध या पुस्तक के रूप में लिखूँगा। बहुत प्रसिद्ध कवियों के संबंध में ही थोड़ा विस्तार के साथ लिखना पडा है। पर वहाँ भी विशेष विशेष प्रवृत्तियों का ही निर्धारण किया गया है। यह अवश्य है कि उनमें से कुछ प्रवृत्तियो को मैंने रसोपयोगी और कुछ को बाधक कहा है।
आधुनिक काल में गद्य का आविर्भाव सबसे प्रधान साहित्यिक घटना है। इसलिये उसके प्रसार का वर्णन विशेष विस्तार के साथ करना पडा है। इस थोड़े से काल के बीच हमारे साहित्य के भीतर जितनी अनेकरूपता का विकास हुआ है उतनी अनेकरूपता का विधान कभी नहीं हुआ था। पहले मेरा विचार आधुनिक काल को 'द्वितीय उत्थान' के आरंभ तक लाकर उसके आगे की प्रवृत्तियों का सामान्य और संक्षिप्त उल्लेख करके ही छोड़ देने का था, क्योंकि वर्तमान लेखकों और कवियों के संबंध में कुछ लिखना अपने सिर एक बला मोल लेना ही समझ पड़ता था। पर जी न माना। वर्तमान सहयोगियों तथा उनकी अमूल्य कृतियों का उल्लेख भी थोड़े बहुत विवेचन के साथ डरते डरते किया गया।
वर्तमान काल के अनेक प्रतिभा-संपन्न और प्रभावशाली लेखकों और कवियों के नाम जल्दी में या भूल से छूट गए होंगे| इसके लिये उनसे-तथा उनसे भी अधिक उनकी कृतियों से विशेष रूप में परिचित महानुभावों से क्षमा की प्रार्थना है। जैसा पहले कहा जा चुका है, यह पुस्तक जल्दी में तैयार करनी पड़ी है इससे इसका जो रूप मैं रखना चाहता था वह भी इसे पूरा पूरा नहीं प्राप्त हो सका है। कवियों और लेखकों के नामोल्लेख के संबंध में एक बात का निवेदन और है। इस पुस्तक का उद्देश्य संग्रह नहीं था| इससे आधुनिक काल के अंतर्गत सामान्य लक्षणों और प्रवृत्तियों के वर्णन की ओर ही अधिक ध्यान दिया गया है, अगले संस्करण में इस काल का प्रसार कुछ और अधिक हो सकता है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि हिंदी-साहित्य का यह इतिहास 'हिंदी-शब्दसागर' की भूमिका के रूप में 'हिंदी-साहित्य का विकास' के नाम से सन् १९२९ के जनवरी महीने में निकल चुका है। इस अलग पुस्तकाकार संस्करण में बहुत सी बातें बढ़ाई गई हैं---विशेषतः आदि और अंत में। आदि काल के भीतर अपभ्रंश की रचनाए भी ले ली गई हैं क्योंकि वे सदा से 'भाषा-काव्य' के अंतर्गत ही मानी जाती रही हैं। कवि परंपरा के बीच प्रचलित जनश्रुति कई ऐसे प्राचीन भाषा काव्यों के नाम गिनाती चली आई है जो अपभ्रंश में हैं--जैसे, कुमारपालचरित और शार्ङ्गधर-कृत हम्मीररासो। 'हम्मीररासो' का पता नहीं है। पर 'प्राकृत पिंगल सूत्र' उलटते-पुलटते मुझे हम्मीर के युद्धो के वर्णन- वाले कई बहुत ही ओजस्वी पद्य, छंदों के उदाहरण में, मिले। मुझे पूर्ण निश्चय हो गया है कि ये पद्य शार्ङ्गधर के प्रसिद्ध 'हम्मीररासो' के ही हैं।
आधुनिक काल के अंत में वर्तमान काल की कुछ विशेष प्रवृत्तियों के वर्णन को थोड़ा और पल्लवित इसलिये करना पड़ा, जिसमें उन प्रवृत्तियों के मूल का ठीक ठीक पता केवल हिंदी पढ़ने वालों को भी हो जाय और वे धोखे में न रहकर स्वतंत्र विचार में समर्थ हों।
मिश्रबंधुओं के प्रकांड कवित्त-संग्रह 'मिश्रबंधु-विनोद' का उल्लेख हो चुका है। 'रीतिकाल' के कवियों के परिचय लिखने में मैंने प्रायः उक्त ग्रंथ से ही विवरण लिए हैं अतः आधुनिक शिष्टता के अनुसार उसके उत्साही और परिश्रमी संकलन-कर्त्ताओ को धन्यवाद देना मैं बहुत जरूरी समझता हूँ। हिंदी पुस्तकों की खोज की रिपोर्ट भी मुझे समय समय पर-विशेषतः संदेह के स्थल आने पर--उलटनी पड़ी है। राय साहब बाबू श्यामसुंदरदास बी० ए० की 'हिंदी-कोविद्-रत्नमाला', श्रीयुक्त पं० रामनरेश त्रिपाठी की 'कविता-कौमुदी' तथा श्रीवियोगीहरि जी के 'ब्रजमाधुरी सार' से भी बहुत कुछ सामग्री मिली है, अतः उक्त तीनो महानुभावों के प्रति मै अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। 'आधुनिक काल' के प्रारंभिक प्रकरण लिखते समय जिस कठिनता का सामना करना पड़ा उसमें मेरे बड़े पुराने मित्र पं० केदारनाथ पाठक ही काम आए। पर न आज तक मैंने उन्हें किसी बात के लिये धन्यवाद दिया है, न अब देने की हिम्मत कर सकता हूँ। 'धन्यवाद' को वे "आजकल की एक बदमाशी" समझते हैं।
इस कार्य में मुझसे जो भूलें हुई हैं उनके सुधार की, जो त्रुटियाँ रह गई हैं उनकी पूर्ति की और जो अपराध बन पड़े है उनकी क्षमा की पूरी आशा करके ही मैं अपने श्रम से कुछ संतोष-लाभ कर सकता हूँ।
काशी | रामचंद्र शुक्ल |
आषाढ शुक्ल ५, १९८६ |
संशोधित और प्रवर्द्धित संस्करण के संबंध में
कई संस्करणों के उपरांत इस पुस्तक के परिमार्जन का पहला अवसर मिला, इससे इसमें कुछ आवश्यक संशोधन के अतिरिक्त बहुत सी बातें बढ़ानी पड़ी ।
'आदिकाल' के भीतर वज्रयानी सिद्धों और नाथपंथी योगियों की परंपराओं का कुछ विस्तार के साथ वर्णन यह दिखाने के लिये करना पड़ा कि कबीर द्वारा प्रवर्तित निर्गुण संत-मत के प्रचार के लिये किस प्रकार उन्होंने पहले से रास्ता तैयार कर दिया था। दूसरा उद्देश्य यह स्पष्ट करने का भी था कि सिद्ध और योगियों की रचनाएँ साहित्य-कोटि में नहीं आतीं और योग-धारा काव्य या साहित्य की कोई धारा नहीं मानी जा सकती है।
'भक्ति-काल' के अंतर्गत स्वामी रामानंद और नामदेव पर विशेषरूप से विचार किया गया है; क्योंकि उनके संबंध में अनेक प्रकार की बातें प्रचलित हैं। 'रीतिकाल के 'सामान्य परिचय' में हिंदी के अलंकार-ग्रंथों की परंपरा को उद्गम और विकास कुछ अधिक विस्तार के साथ दिखाया गया है। घनानंद आदि कुछ मुख्य मुख्य कवियों का आलोचनात्मक परिचय भी विशेष रूप में मिलेगा।
'आधुनिक काल' के भीतर खड़ी बोली के गद्य का इतिहास इधर जो कुछ सामग्री मिली है उसकी दृष्टि से, एक नए रूप में सामने लाया गया है। हिंदी के मार्ग में जो विलक्षण बाधाएँ पड़ी हैं उनका भी सविस्तार उल्लेख है। पिछले संस्करणों में वर्तमान अर्थात् आजकल चलते हुए साहित्य की मुख्य प्रवृत्तियों का संकेत मात्र करके छोड़ दिया गया था। इस संस्करण में समसामयिक साहित्य का अब तक का आलोचनात्मक विवरण दे दिया गया है। जिससे आज तक के साहित्य की गतिविधि का पूरा परिचय प्राप्त होगा।
आशा है कि इस संशोधित और प्रवर्द्धित रूप में यह इतिहास विशेष उपयोगी सिद्ध होगा।
अक्षय तृतीया, | रामचंद्र शुक्ल |
संवत् १९९७ |
( २ )
प्रकाशक का वक्तव्य
इस पुस्तक का नवीन संस्करण इसके विद्वान लेखक द्वारा संशोधित और प्रवर्तित रूप में पाठकों की सेवा में उपस्थित है। लेखक तथा प्रकाशक ने इसकी अनुदिन बढ़ती हुई माँग को देखकर इसे शीघ्र से शीघ्र प्रकाशित करने का घोर प्रयत्न किया, किंतु जिस रूप में इनको निकालने का विचार था वह अत्यंत श्रमसाध्य होने के कारण समय पर न निकल सका, जिससे पाठकों विशेषकर परीक्षार्थियों को बड़ा कष्ट उठाना पड़ा। पर पाठकों की सुविधा को सर्वोपरि रखते हुए हमें प्रस्तुत रूप मे पुस्तक को प्रकाशित करना पड़ रहा है। लेखक को कुछ नवीन कवियों और लेखकों के विषय में लिखना अभी शेष था। इसके लिये हम क्षम्य हैं। अगले संस्करण में उसकी पूर्ति अवश्य कर दी जायगी।
प्रधान मंत्री
काशी-नागरीप्रचारिणी सभा
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लेखक का अचानक देहावसान हो जाने से नई धारा के कई वर्तमान कवियों का विवेचन विस्तृत रूप में नहीं प्रात हो सका। फलतः 'पंजाब संस्करण' से जो संक्षिप्त विवेचन छापा गया था वही इस ग्रंथ मे, पृष्ठ ७१४ के अंतिम अनुच्छेद से लेकर पृष्ठ ७२२ तक उद्धृत कर दिया गया है।
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( दिए हुए अंक पृष्ठों के हैं )
जनता और साहित्य का संबंध, १; हिंदी साहित्य के इतिहास के चार काल १; इन कालों के नामकरण का तात्पर्य, १-२ ।
प्रकरण १
हिंदी-साहित्य का आविर्भाव-काल ३; प्राकृतभास हिंदी के सबसे पुराने पद्य ३ ; आदिकाल की अवधि ३ ; इस काल के आरंभ की अनिर्दिष्ट लोकप्रवृत्ति ३; 'रासो' की प्रबंध-परंपरा ३-४ ; इस काल की साहित्यिक सामग्री पर विचार ४ अपभ्रंश-परंपरा ५ ; देशी भाषा, ५
प्रकरण २
अपभ्रंश या लोक-प्रचलित काव्य-भाषा के साहित्य का आविर्भाव-काल, ६ ; इस काव्य-भाषा के विषय, ६ ; 'अपभ्रंश' शब्द की व्युत्पत्ति, ६ ; जैन ग्रंथकारों की अपभ्रंश रचनाएँ, ७ ; इनके छंद, ७; बौद्धों का वज्रयान संप्रदाय, ७ ; इसके सिद्धों की भाषा, ७, इन सिद्धों की रचना के कुछ नमूने, ९-११ ; बौद्ध धर्म का तात्रिक रूप, ११ ; संध्या भाषा, १२ ; वज्रयान संप्रदाय का प्रभाव, १२ ; इसकी महासुहं अवस्था, १३ : गोरखनाथ के नाथपंथ का मूल, १३ ; इसकी वज्रयानियों से भिन्नता, १३ ; गोरखनाथ का समय, १३-१४; नवनाथ, १५ ; मुसलमानो और भारतीय योगियों का संसर्ग, १५ ; गोरखनाथ की हठयोग-साधना, १६; नाथ संप्रदाय' के सिद्धांत, १६-१७; इनका वज्रयानियों से साम्य, १७ 'नाथपंथ' की भाषा, १८ ; इस पंथ का प्रभाव, १८ ; इसके ग्रंथ, १८ ; इन ग्रंथों के विषय १९ ; साहित्य के इतिहास में केवल भाषा के विकास की दृष्टि से इनका विचार, १९-२० ; ग्रंथकार-परिचय २१-२६ ; विद्यापति की अपभ्रंश रचनाएँ २६; अपभ्रंश कविताओं की भाषा २७ २८।
प्रकरण ३
वीरगाथा
देशभाषा-काव्यों की प्रामाणिकता मे संदेह २९ ; इन काव्यों की भाषा और छंद २९; तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति, २९-३० ; वीरगाथाओं का आविर्भाव, ३० ; इनके दो रूप, ३१ ; 'रासो' शब्द की व्युत्पत्ति, ३२ ; ग्रंथ-परिचय, ३२-३८, ग्रंथकार-परिचय, ३८-५२।
प्रकरण ४
लोकभाषा के पद्य, ५३ ; खुसरो, ५३-५६ ; विद्यापति ५७ ५६ ।
पूर्व मध्यकाल
प्रकरण १
सामान्य परिचय
इस काल की राजनीतिक और धार्मिक परिस्थिति, ६०-६२ ; भक्ति का प्रवाह, ६२ ; इसका प्रभाव ६२-६३ ; सगुण भक्ति की प्रतिष्ठा, ६३ ; हिंदू
मुसलमान दोनों के लिये एक सामान्य ‘भक्तिमार्ग' का विकास, ६३ ; इसके मूल स्रोत, ६४; नामदेव का भक्तिमार्ग, ६४; कबीर का ‘निर्गुन-पंथ', ६४;निर्गुनपथ और नाथपंथ की अंतस्साधना में भिन्नता, ६४ ; निगुणोपासना के मूल स्रोत, ६४ ; निर्गुन-पंथ का जनता पर प्रभाव ६४ ६५ ; भक्ति के विभिन्न मार्गों पर सापेक्षिक दृष्टि से विचार, ६५ ; कबीर के सामान्य भक्तिमार्ग का स्वरूप, ६५-६६ नामदेव, ६६ ; इनकी हिंदी-रचनाओ की विशेषता, ६६ ; 'इन पर नाथपंथ का प्रभाव, ६६ ; इनकी गुरु-दीक्षा, ६८; इनकी भक्ति के चमत्कार ६८; इनकी निर्गुन बानी, ६६'; इनकी भाषा, ७० ; निर्गुन ग्रंथ के मूल स्रोत, ७० ; इसके प्रवर्तक, ७० ; निर्गुण धारा की दो शाखाएँ, ७१: ज्ञानाश्रयी शाखा और उसका प्रभाव, ७१ ; प्रेममार्गी सूफी शाखा का स्वरूप, ७१-७२ ; सूफी कहानियों का आधार, ७२ ; कवि ईश्वरदास की ‘सत्यवती : कथा ७२-७४, सूफियों के प्रेम-प्रबंधों की विशेषताएँ, ७४ ; कबीर के रहस्यवाद की सूफी रहस्यवाद से भिन्नता, ७४; सूफी कवियों की काव्य भाषा, ७४; सूफी रहस्यवाद में भारतीय साधनात्मक रहस्यवाद का समावेश, ७४ ।
प्रकरण २
निर्गुण धारा
कवि-परिचय, ७५-६१; निर्गुणमार्गी संत कवियो पर समष्टि रूप से विचार, ६२-६३ ।
प्रकरण ३
प्रकरण ४
सगुण धारा
अद्वैतवाद के विविध-स्वरूप, ११६; वैष्णव श्रीसंप्रदाय, ११६; रामानंद का समय ११६-११७; इनकी गुरु-परंपरा, ११७-११८, इनकी उपासना-पद्धति, ११; इनकी उदारता, १२-११६: इनके शिष्य, ११६; इनके ग्रंथ, ११६; इनके वृत्त के संबध से प्रवाद, १२०; इन प्रवादों-पर विचार, १२०-१२४; कवि-परिचय, १२४-९५०; हनुमान जी की उपासना के ग्रंथ, १५०-१५१; रामभत्ति काव्य-धारा की सबसे बड़ी विशेषता, १५ १; भक्ति के पूर्ण स्वरूप का विकास, १५१-५२; रामभक्ति की श्रृगारी भावना, १५२-५४ ।
प्रकरण ५
वैष्णवधर्म आंदोलन के प्रवर्तक श्री वल्लभाचार्य, १५५; इनका दार्शनिक सिद्धांत, १५५; इनकी प्रेम-साधना, १५६; इनके अनुसार जीव के तीन भेद, ३६६; इनके समय की राजनीतिक और धार्मिक परिस्थिति, १५६-५७, इनके ग्रंथ, १५७; वल्लभ-संप्रदाय की उपासना-पद्धति का स्वरूप, १५७; कृष्णभक्ति काव्य का स्वरूप, १५८; वैष्णव धर्म का साप्रदायिक स्वरूप, १५८; देश की भक्ति-भावना पर सूफियों का प्रभाव, १५९, कवि-परिचय, १५९-१९५; 'अष्टछाप' की प्रतिष्ठा, ६६३-१६४; कृष्णभक्ति-परंपरा के श्रीकृष्ण, १६४; कृष्णचरित कविता का रूप, १६४-१६५ ।
प्रकरण ६
भक्तिकाव्य-प्रवाह उमड़ने का मूल कारण, १६६ ; पठान शासको का भारतीय साहित्य एव संस्कृति पर प्रभाव, १६६-१६७; कवि परिचय, १६८-२३०; सूफी रचनाओं के अतिरिक्त भक्तिकाल के अन्य आख्यान-काव्य, २३०-२३१ ।
उत्तर मध्यकाल
प्रकरण १
सामान्य परिचय
रीतिकाल के पूर्ववर्ती लक्षण-ग्रंथ, २३२; रीति परंपरा का आरंभ, २३२; रीति-ग्रंथों के आधार, २३३; इनकी अखंड परंपरा का प्रारंभ, २३३; संस्कृत रीति-ग्रंथों से इनकी भिन्नता, २३३; इस भिन्नता का परिणाम, २३३; लक्षण ग्रंथकारों के आचार्यत्व पर विचार, २३४; इन ग्रंथों के आधार, २३४; शास्त्रीय दृष्टि से इनकी विवेचना, २३४-२३६; रीति-ग्रंथकार कवि और उनका उद्देश्य, २३६-३७; इनकी कृतियों की विशेषताएँ, २३७; साहित्य-विकास पर रीति-परंपरा का प्रभाव, २३७; रीति ग्रंथों की भाषा, २३७-४०; रीति-कवियों के छंद और रस, २४१।
प्रकरण २
कवि-परिचय, २४२-३२१।
प्रकरण ३
इनके काव्य के स्वरूप और विषय, ३२२; रीति ग्रंथकारों से इनकी भिन्नता ३२२; इनकी विशेषताएँ, ३२२; इनके ६ प्रधान वर्ग-१-१ ) श्रृंगारी कवि, ३२२; ( २ ) कथा-प्रबंधकार, ३२२-३२३; (३ ) वर्णनात्मक प्रबंधकार ३२३; (४) सूक्तिकार, ३२३-२४; (५) ज्ञानोपदेशक पद्यकार, ३३४; (६) भक्त कवि, ३२४, वीररस की फुटकल कविताएँ, ३२४-२५; इस काल का गद्य साहित्य, ३२५, कवि-परिचय, ३२५-४०२।
(संवत् १९००-१९८० )
गद्य खंड
'प्रकरण १
गद्य का विकास
आधुनिक काल के पूर्व गद्य की अवस्था
( ब्रजभाषा-गद्य)
गोरखपंथी ग्रथों की भाषा का स्वरूप ४०३-०४; कृष्ण-भक्ति शाखा के गद्यग्रंथों की भाषा का स्वरूप, ४०४-०५; नाभादास के गद्य का नमूना, ४०५; उन्नीसवीं शताब्दी मे और उसके पूर्व लिखे गए अन्य गद्य ग्रंथ, ४०५-०६; इन ग्रंथों की भाषा पर विचार, ४:६; काव्यों की टीकाओं के गद्य का स्वरूप, ४०६-०७ ।।
(खड़ी बोली-गद्य)
शिष्ट समुदाय में खड़ी बोली के व्यवहार का आरंभ, ४०७; फारसी-मिश्रित खड़ी बोली या रेखता में शायरी, ४०८; उर्दू-साहित्य का आरंभ, ४०८; खड़ीबोली के स्वाभाविक देशी रूप का प्रसार, ४०८; खड़ी बोली के अस्तित्व और उसकी उत्पत्ति के सबंध में भ्रम, ४०८; इस भ्रम का कारण, ४०८; अपभ्रंश काव्य-परपरा में खड़ी बोली के प्राचीन रूप की झलक, ४०६; संत कवियों की बानी की खड़ी बोली, ४०६; गंग कवि के गद्य-ग्रंथ में उसका रूप, ४०६-१०; इस बोली का पहला ग्रंथकार, ४१०-११; पंडित' दौलतराम के अनुवाद-ग्रंथ में इसका रूप, ४११-१२; ‘मडोवर का वर्णन' में इसका रूप,४१२; इसके प्राचीन कथित साहित्य का अनुमान,४१२; व्यवहार के शिष्ट-भाषा रूप में इसका ग्रहण, ४१३. इसने स्वभाविक रूप का मुसलमानी दरबारको रूप-उद्-से भिन्नता, १५३; गद्य साहित्य में इसके प्रादुर्भाव और व्यापकता का कारण, ४१३-१४; जान गिल क्राइस्ट द्वारा इस स्वतंत्र अस्तित्व की स्वीकृति, ४१४; गद्य की एक साथ परंपरा चलाने वाले चार प्रमुख लेखक,-(१) मुंशी सदासुख लाल और उनकी भाषा, ४१४-१६; (२) ईशा अल्ला खां और उनकी भाषा, ४१६-१६; (३) लल्लूलाल और उनकी भाषा, ४१६-२१; सदासुख लाल की भाषा से इनकी भाषा की भिन्नता, ४२०; (४) सदल मिश्र और उनकी भाषा, ४२१• २२; लल्लूलाल की भाषा से इनकी भाषा की भिन्नता, ४२२; इन चारो लेखकों की भाषा का सापेक्षिक महत्व, ४२१; हिंदी में गद्य-साहित्य-परंपरा का प्रारंभ, ४२२; इस गद्य के प्रसार में ईसाइयों को योग, ४२३:-ईसाई धर्म प्रचारकों के भाषा का रूप, ४२३:२४; मिशन सोसाइटियों द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की हिंदी, ४२४-२६; ब्रह्म-समाज की स्थापना, ४२६: राजा राममोहन राय के वेदांत-भाष्य अनुवाद की हिंदी, ४२७; उदंत मार्तंड' पत्र की भाषा, ४२७-२८; अँगरेजी शिक्षा-प्रसार, ४२८-२९; सं० १८६० के पूर्व की अदालती भाषा, ४२६-३०, अदालतों में हिंदी-प्रवेश और उसका निष्कासन, ४३०;, उर्दू-प्रसार के कारण, ४६०; काशी और आगरे के समाचार-पत्रों की भाषा, ४३१-३२; शिक्षा-क्रम में हिदी-प्रवेश का विरोध, ४३३; हिंन्दी-उर्दू के सम्बंध में गार्सा द तासी का मत,
प्रकरण २
हिंदी के प्रति मुसलमान अधिकारियों के भाव, ४३६; शिक्षोपयोगी हिंदी पुस्तकें, ४३७; राजा शिवप्रसाद की भाषा, ४३७-३६; राजा लक्ष्मण सिंह के अनुवाद की भाषा, ४४०: फ्रेडरिक पिंकाट का हिंदी प्रेम, ४४१; राजा शिवप्रसाद के गुटका की हिंदी, ४४२; लोकमित्र' और 'अवध-अखबार की भाषा, ४४२-४३; बाबू नवीनचद्र राय की हिंदी-सेवा, ४४३; गासो द तासी उर्दू-पक्षपात, ४४४; हिंदी गद्य-प्रसार में आर्य-समाज का योग, ४४५; ५० श्रद्धाराम की हिंदी-सेवा, ४४५-४७; हिंदी-गद्य-भाषा का स्वरूप:निर्माण,
४४७-४८}, (सं॰ १९२५-५०)
भारतेंदु का प्रभाव, ४९९; उनके पूर्ववर्ती और समकालीन लेखको से उनकी शैली की भिन्नता, ४४९; गद्य साहित्य पर उनका प्रभाव, ४४९; खड़ीबोली गद्य की प्रकृत-साहित्यिक-रूप-प्राप्ति, ४५०; भारतेंदु और उनके सहयोगियो की शैली, ४५०-५२; इनका दृष्टि-क्षेत्र और मानसिक अवस्थान, ४५२; हिंदी का आरंभिक नाट्य-साहित्य, ४५३-५४; भारतेंदु के लेख और निबंध, ४५४-५५; हिंदी का पहला मौलिक उपन्यास, ४५५; इसका परवर्ती उपन्यास-साहित्य, ४५५-५६; भारतेंदु-जीवन-काल की पत्र-पत्रिकाएँ, ४५६-५९; भारतेंदु हरिश्चंद्र––४५९-६४; उनकी जगन्नाथ-यात्रा, ४५९; उनका पहला अनूदित नाटक,४५९; उनकी पत्र-पत्रिकाएँ, ४५९; उनकी 'हरिश्चंद-चंद्रिका' की भाषा, ४५९; इस 'चंद्रिका' के सहयोगी, ४६०; इसके मनोरंजक लेख, ४६०, भारतेंदु-के नाटक, ४६०-६१; इनकी विशेषताएँ, ४६१; उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा, ४६१-६२; उनके सहयोगी, ४३२; उनकी शैली के दो रूप, ४६२-६४। पं॰ प्रतापनारायण मिश्र––४६४-६८: भारतेंदु से उनकी शैली की भिन्नता, ४६५; उनका पत्र, ४६५; उनके विषय, ४६५; उनके नाटक, ४६६। पं॰ बाल कृष्ण भट्ट––४६६-६८; उनका 'हिंदी-प्रदीप', ४६६; उनकी शैली, ४६६; उनके गद्य-प्रबंध, ४६७; उनके नाटक, ४६८; पं॰ बदरीनारायण चौधरी––४६८-७२; उनकी शैली की विलक्षणता, ४६९; उनके नाटक ४६९-७०; उनकी पत्र-पत्रिकाएँ, ४७०-१; समालोचना का सूत्रपात, ४७१। लाला श्रीनिवासदास––४७२-७४; उनके नाटक, ४७२-७३; उनका उपन्यास, ४७३; ठाकुर जगमोहन सिंह––४७४-७६; उनका प्रकृति-प्रेम, ४७४; उनकी शैली की विशेषता, ४७४-७५; बाबू तोताराम––४७६-७७, उनका पत्र, ४७६; उनकी हिंदी-सेवा, ४७६; भारतेंदु के अन्य सहयोगी, ४७७-८२। हिन्दी का प्रचार कार्य––४८२-८७; इनमे बाधाएँ, ४८२; भारतेंदु और उनके सहयोगियों को उद्योग ४८२-८३; काशी-नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना, ४८३; इसके सहायक और इसका उद्देश्य, ४८३; बलिया में भारतेंदु का व्याख्यान, ४८४; पं० गौरीदत्त का प्रचार-कार्य, ४८४; सभा द्वारा नागरी-उद्धार के लिये उद्योग, ४८५; सभा के साहित्यिक आयोजन, ४८५ ८७; सभा की स्थापना के बाद की चिंता और व्यग्रता, ४८७ ।
प्रकरण ३
द्वितीय उत्थान
( १९५०-७५ )
सामान्य परिचय
इस काल की चिंताएँ और आकांक्षाएँ, ४८८; इस काल के लेखकों की भाषा, ४८८-९०; इनके विषय और शैली, ४९०-९१; इस काल के नाटक, निबंध, समालोचना और जीवनचरित, ४९१-९२; नाटक]]-----४९३-९६; बंग भाषा से अनूदित, ४९३; अँगरेजी और संस्कृत से अनूदित, ४९३-९५; मौलिक, ४९५-९६; उपन्यास--४९६-५०१; अनूदित, ४९७-९८; मौलिक, ४९८-५०१; छोटी कहानियाँ--५०२-०५; आधुनिक कहानियों का स्वरूप-विकास, ५०२; पहली मौलिक कहानी, ५०३-०४; अन्य भावप्रधान कहानियाँ, ५०४; हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कहानी, ५०४--०५; प्रेमचंद का उदय, ५०५; निबंध-५०५-२५; इसके भेद, ५०५; इसका आधुनिक स्वरूप, ५०५; निबंध-लेखक की तत्त्वचिंतक या वैज्ञानिक से भिन्नता, ५०६-०७; निबंध-परंपरा का आरंभ, ५०७; दो अनूदित ग्रंथ, ५०७-०८; निबंध-लेखक परिचय]], ५०८-२५; समालोचना--५२५-३१; भारतीय समालोचना का उद्देश्य, ५२५-२६; योरोपीय समालोचना, ५२६-२७; हिंदी में समालोचना-साहित्य-विकास, ५२७-३१ ।
गद्यसाहित्य की वर्त्तमान गति
तृतीय उत्थान,
( सं० १९७१ से)
परिस्थिति-दिग्दर्शन, ५३२; लेखकों और ग्रंथकारों की बढ़ती संख्या का परिणाम, ५३२; कुछ लोगो की अनधिकार चेष्टा, ५३२-३३; आधुनिक-भाषा का स्वरूप, ५३३; गद्य-साहित्य विविध अंगो का सक्षिप्त विवरण और उनकी प्रवृत्तियाँ, ५३३-३४---( १ ) उपन्यास-कहानी, ५३५-४२; ( २ ) छोटी कहानियाँ, ५४२-४८ ( ३ ) नाटक, ५४८-५८ ( ४ ) निबंध, ५५८-६१: ( ५ ) समालोचना और काव्य-मीमांसा, ५६२-७६ ।
आधुनिक काल
(सं० १९०० से )
प्रकरण १
पुरानी धारा
प्राचीन काव्य-परंपरा, ५७७; ब्रजभाषा काव्य परम्परा के देवियों का परिचय, ५७८-८० ; पुरानी परिपाटी से संबध रखने के साथ ही साहित्य की नैवीन गति के प्रदर्शन में योग देनेवाले कविः ५८०; भारतेंदु द्वारा भाषा-परिष्कार का कार्य, ५८०; उनके द्वारा स्थापित कवि-समाज, ५८१; उनके भक्ति-शृंगार के पद, ५८१: कवि परिचय, ५८१-८७ ।
प्रकरण २
प्रथम उत्थान
( सं० १९२९.९९०)
द्वितीय उत्थान
(.सं० १९५०-७५-)
पंडित श्रीधर पाठक की कथा की सार्वभौम मार्मिकता ६००, ग्रामगीतों की मार्मिकता ६००-०१, प्रकृत स्वच्छंदतावाद का स्वरूप, ६०१-०३; हिंदी-काव्य में 'स्वच्छंदता' की प्रवृत्ति का सर्वप्रथम आभास, ६०३; इसमें अवरोध, ६०४, इस अवरोध की प्रतिक्रिया, ६०४; श्रीधर पाठक, ६०४-०७, हरिऔध, ६०७ ०९; महावीरप्रसाद द्विवेदी, ६१०-१२; द्विवेदी-मंडल के कवि, ६१२; इस मंडल के बाहर की काव्य-भूमि, ६२२ ३८।
तृतीय उत्थान
( स० १९७५ से )
वर्तमान काव्य-धाराएँ
सामान्य परिचय
खड़ी बोली पद्य के तीन रूप और उनका सापेक्षिक महत्त्व, ६३९; हिंदी के नए छंदों पर विचार, ६३९ ४१; काव्य के वस्तु-विधान और अभिव्यंजन-शैली में प्रकट होने वाली प्रवृत्तियाँ, ६४१-४४ खड़ी बोली में काव्यत्व का स्फुरण, ६४४-४५; वर्तमान काव्य पर काल का प्रभाव, ६४५-४६; चली आती हुई काव्य-परंपरा के अवरोध के लिये प्रतिक्रिया, ६४ ; नूतन परंपरा प्रवर्त्तक कवि, ६४७ ४९; इनकी विशेषताएँ, ६५०; इनका वास्तविक लक्ष्य, ६५०; रहस्यवाद, प्रतीकवाद और छायावाद, ६५०; हिंदी में छायावाद का स्वरूप और परिणाम, ६५०-५१; भारतीय काव्यधारा से इसका पार्थक्य, ६५१, इसकी उत्पत्ति का मूल स्रोत, ६५१-५२, ‘छायावाद' शब्द का अनेकार्थी प्रयोग ६२५-५३; 'छायावाद' के साथ ही योरप के अन्य वादों के प्रवर्त्तन की अनधिकार चेष्टा, ६५३; 'छायावाद’ की कविता का प्रभाव, ६५३ ५४, आधुनिक कविता की अन्य धाराएँ, ६५४ ६५३, स्वाभाविक स्वच्छंदता की ओर प्रवृत्त कवि, ६५६-५७, खड़ी बोली पद्य की तीन धाराएँ]], ६५७ ५८, ब्रजभाषा काव्य- २-द्विवेदीकाल में प्रवर्तित खड़ी बोली की काव्य-धारा]], ६६०; छायावाद, ६६५;जयशंकर प्रसाद, ६७८; सुमित्रानंदन पंत, ६९४; सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, ७१४; महादेवी वर्मा]], ७१९; [[
हिंदी साहित्य का इतिहास/अनुक्रमणिका/साहित्यकार|अनुक्रमणिका (साहित्यकार)]], ७२३; अनुक्रमणिका (साहित्य), ७४३;
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