हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल/गद्य खंड/प्रकरण १ गद्य का विकास

 

गद्य-खंड

गद्य का विकास

आधुनिक काल के पूर्व गद्य की अवस्था

(ब्रजभाषा गद्य)

आधुनिक काल के पूर्व हिंदी गद्य का अस्तित्व किस परिमाण और किस रूप में था, संक्षेप में इसका विचार कर लेना चाहिए। अब तक साहित्य की भाषा ब्रजभाषा ही रही है, इसे सूचित करने की आवश्यकता नहीं। अतः गद्य की पुरानी रचना जो थोड़ी सी मिलती है वह ब्रजभाषा ही में। हिंदी पुस्तकों की खोज में हठयोग, ब्रह्मज्ञान आदि से सबध रखनेवाले कई गोरखपंथी ग्रंथ मिले हैं जिनका निर्माण-काल संवत् १४०७ के आसपास है। किसी किसी पुस्तक में निर्माण काल दिया हुआ है। एक पुस्तक गद्य में भी है जिसका लिखनेवाला 'पूछिबा', 'कहिबा' आदि प्रयोगों के कारण राजपूताने का निवासी जान पड़ता है। इसके गद्य को हम संवत् १४०० के आसपास के ब्रजभाषा-गद्य का नमूना मान सकते है। थोड़ा सा अंश उद्धृत किया जाता है––

"श्री गुरु परमानंद तिनको दंडवत है। है कैसे परमानंद, आनदस्वरूप है सरीर जिन्हि को, जिन्हि के नित्य गाए ते सरीर चेतन्नि अरु आनंदमय होतु है। मै जु हौ गोरिष सो मछंदरनाथ को दंडवत करत हौ। हैं कैसे वे मछंदरनाथ? आत्मज्योति निश्चल है अंतहकरन जिनके अरु मूलद्वार तै छह चक्र जिनि नीकी तरह जानै।" इसे इस निश्चयपूर्वक ब्रजभाषा गद्य का पुराना रूप मान सकते हैं। साथ ही यह भी ध्यान होता है कि यह किसी संस्कृत लेख का "कथंभूती" अनुवाद न हो। चाहे जो हो, है यह संवत् १४०० के ब्रजभाषा-गद्य का नमूना।

इसके उपरांत फिर हमें भक्तिकाल में कृष्णभक्ति-शाखा के भीतर गद्य-ग्रंथ मिलते हैं। श्रीवल्लभाचार्य के पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथजी ने 'शृंगाररस मंडन' नामक एक ग्रंथ ब्रजभाषा में लिखा। उनकी भाषा का स्वरूप देखिए––

"प्रथम की सखी कहतु है। जो गोपीजन के चरण विषै सेवक की दासी करि जो इनको प्रेमामृत में डूबि कै इनके मंद हास्य ने जीते है। अमृत समूह सा करि निकुज विषै शृंगाररस श्रेष्ठ रसना कीनो सो पूर्ण होत भई॥"

यह गद्य अपरिमार्जित और अव्यवस्थित हैं। पर इसके पीछे दो और साप्रदायिक ग्रंथ लिखे गए जो बडे भी हैं और जिनकी भाषा भी व्यवस्थित और चलती है। वल्लभ संप्रदाय में इनका अच्छा प्रचार है। इनके नाम हैं––"चौरासी वैष्णवो की वार्ता" तथा "दौ सौ बावन वैष्णवों की वार्ता"। इनमें से प्रथम, आचार्य श्री वल्लभाचार्यजी के पौत्र और गोसाईं विट्ठलनाथजी के पुत्र गोसाईं गोकुलनाथजी की लिखी कही जाती है, पर गोकुलनाथजी के किसी शिष्य की लिखी जान पड़ती हैं, क्योंकि इसमें गोकुलनाथजी का कई जगह बडे भक्तिभाव से उल्लेख है। इसमें वैष्णव भक्तों और आचार्यजी की महिमा प्रकट करनेवाली कथाएँ लिखी गई हैं। इसका रचनाकाल विक्रम की १७वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जा सकता है। 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता' और भी पीछे औरंगजेब के समय के लगभग की लिखी प्रतीत होती हैं। इन वार्ताओं की कथाएँ बोलचाल की ब्रजभाषा में लिखी गई हैं जिसमें कही कहीं बहुत प्रचलित अरबी फारसी शब्द भी निस्संकोच रखे गए हैं। साहित्यिक निपुणता या चमत्कार की दृष्टि से थे कथाएँ नहीं लिखी गई हैं। उदाहरण के लिये यह उद्धृत अंश पर्य्याप्त होगा––

"सो श्री नंदगाम में रहतो सो खंडन ब्राह्मण शास्त्र पढ़यो हतो। सो जितने पृथ्वी पर मत हैं सबको खंडन करतो; ऐसो वाको नेम हो। याही ते लोगन ने वाको नाम खड्न पारयो हुतो। सो एक दिन श्री महाप्रभुजी के सेवक वैष्णवन की मंडली में आयो। सो खंडन करन लागो। वैष्णवन ने कही 'जो तेरो शास्त्रार्थ करानो होवै तो पंडितन के पास जा, हमारी मंडली में तेरे आयवे को काम नहीं। इहाँ खंडन मंडन नहीं है। भगवद्वार्त्ता को काम है भगवद्यश सुननो होवै तो इहाँ आवो'।"

नाभादासजी ने भी संवत् १६६० के आसपास 'अष्टयाम' नामक एक पुस्तक ब्रजभाषा-गद्य में लिखी जिसमें भगवान् राम की दिनचर्य्या का वर्णन है। भाषा इस ढंग की है––

"तब श्री महाराज कुमार प्रथम वसिष्ठ महाराज के चरन छुइ प्रनाम करत भए। फिर ऊपर वृद्ध-समाज तिनको प्रनाम करत भए। फिर श्री राजाधिराज जू को जोहार करिकै श्री महेद्रनाथ दसरथ जू निकट बैठते भए।"

संवत् १६८० के लगभग बैकुंठमणि शुक्ल ने, 'जो ओरछा के महाराज जसवंतसिंह के यहाँ थे, ब्रजभाषा गद्य में 'अगहन-माहात्म्य' और 'वैशाख-माहात्म्य' नाम की दो छोटी छोटी पुस्तके लिखीं। द्वितीय के सबंध में वे लिखते हैं––

"सब देवतन की कृपा तें बैकुठमनि सुकुल श्री रानी चंद्रावती के धरम पढिवे के अरथ यह जसरूप ग्रंथ बैसाख-महातम भाषा करत भए।––एक समय नारद जू ब्रह्मा की सभा से उठि कै सुमेर पर्वत को गए।"

ब्रजभाषा गद्य में लिखा एक 'नासिकेतोपाख्यान' मिला है जिसके कर्त्ता का नाम ज्ञात नहीं। समय १७६० के उपरांत है। भाषा व्यवस्थित है––

"हे ऋषिश्वरो! और सुनो, मैं देख्यो है सो कहूँ। कालै वर्ण महादुख के रूप जम, किंकर देखे। सर्प, बीछु, रीछ, व्याघ्र, सिंह बड़े बड़े ग्रघ्र देखे। पंथ में पापकर्मी को जमदूत चलाइ कै मुदगर अरु लोह के दंड कर मार देत हैं। आगे और जीवन को त्रास देते देखे हैं। सु मेरो रोम रोम खरो होत है।"

सूरति मिश्रने (संवत् १७६७) संस्कृत से कथा लेकर वैतालपचीसी लिखी, जिसको आगे चलकर लल्लूलाल ने खड़ी बोली हिंदुस्तानी में किया। जयपुर-नरेश सवाई प्रतापसिंह की आज्ञा से लाला हीरालाल ने संवत् १८५२ में "आईन अकबरी की भाषा वचनिका" नाम की एक बड़ी पुस्तक लिखी। भाषा इसकी बोलचाल की है जिसमें अरबी-फारसी के कुछ बहुत चलते शब्द भी हैं। नमूना यह है––

"अब शेख अबलफजल ग्रंथ को करता प्रभु को निमस्कार करि कै अकबर बादस्याह की तारीफ लिखने को कसत करै है अरु कहे है––याकी बड़ाई अरु चेष्टा अरु चिमत्कार कहाँ तक लिखूँ। कही जात नाहीं। ताते वाके पराक्रम अरु भाँति भाँति के दसतूर वा मनसूबा दुनिया में प्रगट भए, ता को संक्षेप लिखत हौं।"

इसी प्रकार की ब्रजभाषा-गद्य की कुछ पुस्तकें इधर-उधर पाई जाती हैं। जिनसे गद्य का कोई विकास प्रकट नहीं होता। साहित्य की रचना पद्य में ही होती रही। गद्य का भी विकास यदि होता आता तो विक्रम की इस शताब्दी के आरंभ में भाषा संबंधिनी बड़ी विषम समस्या उपस्थित होती। जिस धड़ाके के साथ गद्य के लिये खड़ी बोली ले ली गई उस धड़ाके के साथ न ली जा सकती। कुछ समय सोच-विचार और वाद-विवाद में जाता और कुछ समय तक दो प्रकार के गद्य की धाराएँ साथ साथ दौड़ लगातीं। अतः भगवान् का यह भी एक अनुग्रह समझना चाहिए कि यह भाषा-विप्लव नहीं संघटित हुआ और खड़ी बोली, जो कभी अलग और कभी ब्रजभाषा की गोद में दिखाई पड़ जाती थी, धीरे धीरे व्यवहार की शिष्ट भाषा होकर गद्य के नए मैदान में दौड़ पड़ी।

गद्य लिखने की परिपाटी का सम्यक् प्रचार न होने के कारण ब्रजभाषा-गद्य जहाँ का तहाँ रह गया। उपर्युक्त "वैष्णव वार्ताओं" में उसका जैसा परिष्कृत और सुव्यवस्थित रूप दिखाई पड़ा वैसा फिर आगे चलकर नहीं। काव्यो की टीकाओं आदि में जो थोड़ा बहुत गद्य देखने में आता था वह बहुत ही अव्यवस्थित और अशक्त था। उसमें अर्थों और भावो को संबद्ध रूप में प्रकाशित करने तक की शक्ति न थी। ये टीकाएँ संस्कृत की "इत्यमरः" और "कथं भूतम्" वाली टीकाओ की पद्धति पर लिखी जाती थीं। इससे इनके द्वारा गद्य की उन्नति की संभावना न थी। भाषा ऐसी अनगढ़ और लद्धड़ होती थी कि मूल चाहे समझ में आ जाय पर टीका की उलझन से निकलना कठिन समझिए। विक्रम की अठारहवी शताब्दी को लिखी "शृंगारशतक" की एक टीका की कुछ पंक्तियाँ देखिए––

"उन्मत्तप्रेमसर भादालभत्ते––यदगनाः।
तत्र प्रत्यूहमाधातुं ब्रह्मापि खलु कातरः॥"

"अंगना जु है स्त्री सु। प्रेम के अति आवेश कर। जु कार्य करना चाहति है ता कार्य विषै। ब्रह्माऊ। प्रत्यूहं आघातु। अंतराउ कीवे कहँ। कातर। काइरु है। काइरु कहावै असमर्थ। जु कछु स्त्री कर्यो चाहै सु अवस्य करहिं। ताको अतराउ ब्रह्मा पहँ न करयो जाइ और की कितीक बात"।

आगे बढ़कर संवत् १८७२ की लिखी जानकीप्रसाद वाली रामचंद्रिका की प्रसिद्ध टीका लीजिए तो उसकी भाषा की भी यही दशा है––

"राघव-शर लाघव राति छत्र मुकुट यों हयो।
हंस सबल अंसु सहित मानहु उडि कै गयो॥"

"सबल कहे अनेक अनेक रंग मिश्रित है, अंसु कहे किरण जाके ऐसे जे सूर्य है तिन सहित मानो कलिंदगिरि शृंग तें हस कहे हस समूह उडि गयो है। यहाँ जाति विषै एक वचन है। हसन के सदृश श्वेत छत्र है और सूर्य्यन के सदृश अनेक रंग नगजटित मुकुट हैं"।

इसी ढंग की सारी टीकाओं को भाषा समझिए। सरदार कवि अभी हाल में हुए हैं। कविप्रिया, रसिकप्रिया, सतसई आदि की उनकी टीकाओं की भाषा और भी अनगढ़ और असंबद्ध है। सारांश यह है कि जिस समय गद्य के लिये खड़ी बोली उठ खड़ी हुई उस समय तक गद्य का विकास नहीं हुआ था, उसका कोई साहित्य खड़ा नहीं हुआ था। इसी से खड़ी बोली के ग्रहण में कोई संकोच नहीं हुआ।


खड़ी बोली का गद्य

देश के भिन्न भिन्न भागों में मुसलमानों के फैलने तथा दिल्ली की दरबारी शिष्टता के प्रचार के साथ ही दिल्ली की खड़ी बोली शिष्ट -समुदाय के परस्पर व्यवहार की भाषा हो चली थी। खुसरो ने विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में ही ब्रजभाषा के साथ साथ खालिस खड़ी बोली में कुछ पद्य और पहेलियाँ बनाई थी, औरगजेब के समय से फारसी-मिश्रित खड़ी बोली या रेखता में शायरी भी शुरू हो गई और उसका प्रचार फारसी पढ़े लिखे लोगों में बराबर बढ़ता गया। इस प्रकार खड़ी बोली को लेकर उर्दू-साहित्य खड़ा हुआ, जिसमें आगे चलकर विदेशी भाषा के शब्दों का मेल भी बराबर बढ़ता गया और जिसका आदर्श भी विदेशी होता गया।

मुगल-साम्राज्य के ध्वंस से भी खड़ी बोली के फैलने में सहायता पहुँची। दिल्ली, आगरे आदि पछाहीं शहरो की समृद्धि नष्ट हो चली थी और लखनऊ, पटना, मुर्शिदाबाद आदि नई राजधानियाँ चमक उठी थीं। जिस प्रकार उजड़ती हुई दिल्ली को छोड़कर मीर, इंशा आदि अनेक उर्दू-शायर पूरब की ओर आने लगे, उसी प्रकार दिल्ली के आसपास के प्रदेशों की हिंदू व्यापार जातियाँ (अगरवाले, खत्री आदि) जीविका के लिये लखनऊ, फैजाबाद, प्रयाग, काशी, पटना आदि पूरबी शहरो में फैलने लगी। उनके साथ साथ उनकी बोलचाल की भाषा खड़ी बोली भी लगी चलती थी। यह सिद्ध बात है कि उपजाऊ और सुखी प्रदेशों के लोग व्यापार में उद्योगशील नहीं होते। अतः धीरे धीरे पूरब के शहरों में भी इन पश्चिमी व्यापारियों की प्रधानता हो चली। इस प्रकार बड़े शहरों के बाजार की व्यावहारिक भाषा भी खड़ी बोली हुई। यह खड़ी बोली असली और स्वाभाविक भाषा थी, मौलवियों और मुंशियों की उर्दू-ए-मुअल्ला नहीं। यह अपने ठेठ रूप में बराबर पछाँह से आई हुई जातियों के घरों में बोली जाती है। अतः कुछ लोगों का यह कहना या समझना कि मुसलमानो के द्वारा ही खड़ी बोली अस्तित्व में आई और उसका मूल रूप उर्दू है जिससे आधुनिक हिंदी गद्य की भाषा अरबी-फारसी शब्दों को निकालकर गढ़ ली गई, शुद्ध भ्रम या अज्ञान है। इस भ्रम का कारण यही है कि देश के परपरागत साहित्य की––जो संवत् १९०० के पूर्व तक पद्यमय ही रहा––भाषा ब्रजभाषा ही रही और खड़ी बोली वैसे ही एक कोने में पड़ी रही जैसे और प्रांतो की बोलियाँ। साहित्य या काव्य में उसका व्यवहार नहीं हुआ।

पर किसी भाषा का साहित्य में व्यवहार न होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि उस भाषा अस्तित्व नहीं था। उर्दू का रूप प्राप्त होने के पहले भी खड़ी बोली अपने देशी रूप में वर्तमान थी और अब भी बनी हुई है। साहित्य में भी कभी कभी कोई इसका व्यवहार कर देता था, यह दिखाया जा चुका है।

भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय तक अपभ्रंश काव्यो की जो परपरा चलती रही उसके भीतर खड़ी बोली के प्राचीन रूप की भी झलक अनेक पद्यों में मिलती है। जैसे––

भल्ला हुआ जु मारिया, बहिणि! महारा कतु।

अड़बिहि पत्ती, नइहिं जलु, तो बिन बूहा हत्थ।

सोउ जुहिट्ठिरि संकट पाआ। देवक लेखिअ कोण मिटाआ?

उसके उपरांत भक्तिकाल के आरंभ में निर्गुणधारा के संत कवि किस प्रकार खड़ी बोली का व्यवहार अपनी 'सधुक्कड़ी' भाषा में किया करते थे, इसका उल्लेख भक्तिकाल के भीतर हो चुका है[]। कबीरदास के ये वचन लीजिए––

कबीर मन निर्मल भया जैसा गंगा नीर।



कबीर कहता जात हूँ, सुनता है सब कोइ।
राम कहे भला होयगा, नहिं तर भला न होइ॥



आऊँगा न जाऊँगा, मरूँगा न जीऊँगा।
गुरु के सबद रम रम रहूँगा॥

अकबर के समय में गंग कवि ने "चंद-छंद बरनन की महिमा" नामक एक गद्य-पुस्तक खड़ी बोली में लिखी थी। उसकी भाषा का नमूना देखिए–– "सिद्धि श्री १०८ श्री श्री पातसाहिजी श्री दलपतिजी अकबरसाहजी आमखास में तखत ऊपर विराजमान हो रहे। और आमखास भरने लगा है जिसमें तमाम उमराव आय आय कुर्निश बजाय जुहार करके अपनी अपनी बैठक पर बैठ जाया करें अपनी अपनी मिसल से। जिनकी बैठक नही सो रेसम के रस्से में रेसम की लूमें पकड़ के खड़े ताजीम में रहे।

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इतना सुनके पातसाहिजी श्री अकबरसाहिजी आद सेर सोना नरहरदास चारन को दिया। इनके डेढ़ सेर सोना हो गया। रास बंचना पूरन भया। आमखास बरखास हुआ।"

इस अवतरण से स्पष्ट पता लगता है कि अकबर और जहाँगीर के समय में ही खड़ी बोली भिन्न भिन्न प्रदेशों में शिष्ट-समाज के व्यवहार की भाषा हो चली थी। यह भाषा उर्दू नहीं कही जा सकती; यह हिंदी खड़ी बोली है। यद्यपि पहले से साहित्य-भाषा के रूप में स्वीकृत न होने के कारण इसमें अधिक रचना नहीं पाई जाती, पर यह बात नहीं है कि इसमें ग्रंथ लिखे ही नहीं जाते थे। दिल्ली राजधानी होने के कारण जब से शिष्ट-समाज के बीच इसका व्यवहार बढ़ा तभी से इधर-उधर कुछ पुस्तकें इस भाषा के गद्य में लिखी जाने लगीं।

विक्रम संवत् १७९८ में रामप्रसाद 'निरंजनी' ने 'भाषा योगवासिष्ठ' नाम का गद्य ग्रंथ बहुत साफ-सुथरी खड़ी बोली में लिखा। ये पटियाला दरबार में थे और महारानी को कथा बाँचकर सुनाया करते थे। इनके ग्रंथ को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि मुंशी सदासुख और लल्लूलाल से ६२ वर्ष पहले खड़ी बोली का गद्य अच्छे परिमार्जित रूप में पुस्तकें आदि लिखने में व्यवहृत होता था। अब तक पाई गई पुस्तकों में यह 'योगवासिष्ठ' ही सबसे पुराना है जिसमें गद्य अपने परिष्कृत रूप में दिखाई पड़ता है। अतः जब तक और कोई पुस्तक इससे पुरानी न मिले तब तक इसी को परिमार्जित गद्य की प्रथम पुस्तक और रामप्रसाद निरंजनी को प्रथम प्रौढ़ गद्य-लेखक मान सकते हैं। 'योगवासिष्ठ' से दो उद्धरण नीचे दिए जाते हैं– (क) "प्रथम परब्रह्म परमात्मा को नमस्कार हैं जिससे सब भासते है और जिसमें सब लीन और स्थित होते हैं, x x x जिस आनंद के समुद्र के कण से संपूर्ण विश्व आनंदमय है, जिस आनंद से सब जीव जीते है। अगस्तजी के शिष्य सुतीक्षण के मन में एक संदेह पैदा हुआ तब वह उसके दूर करने के कारण अगस्त मुनि के आश्रम को जा विधि सहित प्रणाम करके बैठे और विनती कर प्रश्न किया कि है भगवन्! आप सब तत्त्वो और सब शास्त्रों के जाननहारे हौ, मेरे एक संदेह को दूर करो। मोक्ष का कारण कर्म है कि ज्ञान है अथवा दोनो हैं, समझाय के कहो। इतना सुन अगस्त मुनि बोले कि हे ब्रह्मण्य! केवल कर्म से मोक्ष नहीं होता और न केवल ज्ञान से मोक्ष होता है, मोक्ष दोनो से प्राप्त होता है। कर्म से अतःकरण शुद्ध होता है, मोक्ष नहीं होता और अतःकरण की शुद्धि बिना केवल ज्ञान से मुक्ति नहीं होती।"

(ख) "हे रामजी! जो पुरुष अभिमानी नहीं है वह शरीर के इष्ट-अनिष्ट में रागद्वेष नहीं करता क्योंकि उसकी शुद्ध वासना है। x x x मलीन वासना जन्मों का कारण है। ऐसी वासना को छोड़कर जब तुम स्थित होगे तब तुम कर्त्ता हुए भी निर्लेप रहोगे। और हर्ष शोक आदि विकारो से जब तुम अलग रहोगे तब वीतराग, भय क्रोध से रहित, रहोगे। x x x जिसने आत्मतत्त्व पाया है वह जैसे स्थित हो तैसे ही तुम भी स्थित हो। इसी दृष्टि को पाकर आत्मतत्त्व को देखो तब विगत ज्वर होंगे और आत्मपद को पाकर फिर जन्म-मरण के बधन में न आवोगे।"

कैसी शृंखलाबद्ध साधु और व्यवस्थित भाषा है!

इसके पीछे संवत् १८२३ मे बसवा (मध्यप्रदेश) निवासी पं॰ दौलतराम ने रविषेणाचार्य्य कृत जैन 'पद्मपुराण' का भाषानुवाद किया जो ७०० पृष्ठों से ऊपर का एक बड़ा ग्रंथ है। भाषा इसकी उपर्युक्त 'योग-वासिष्ठ' के समान परिमार्जित नहीं है, पर इस बात का पूरा पता देती है कि फारसी-उर्दू से कोई संपर्क न रखनेवाली अधिकांश शिष्ट जनता के बीच खड़ी बोली किस स्वाभाविक रूप में प्रचलित थी। मध्यप्रदेश पर फारसी या उर्दू की तालीम कभी नहीं लादी गई थी और जैन-समाज, जिसके लिये यह ग्रंथ लिखा गया, अँगरेजों की ओर से पुस्तकें लिखाने की व्यवस्था हुई उसके दो एक वर्ष पहले ही मुंशी सदासुख की ज्ञानोपदेशवाली पुस्तक और इंशा की 'रानी केतकी की कहानी' लिखी जा चुकी थी। अतः यह कहना कि अँगरेजों की प्रेरणा से ही हिंदी खड़ी बोली गद्य का प्रादुर्भाव हुआ, ठीक नहीं है। जिस समय दिल्ली के उजड़ने के कारण उधर के हिंदू व्यापारी तथा अन्य वर्ग के लोग जीविका के लिये देश के भिन्न भिन्न भागों में फैल गए और खड़ी बोली अपने स्वाभाविक देशी रूप से शिष्टो की बोलचाल की भाषा हो गई उसी समय से लोगों का ध्यान उसमे गद्य लिखने की ओर गया। तब तक हिंदी और उर्दू दोनों का साहित्य पद्यमय ही था। हिंदी-कविता में परंपरागत काव्यभाषा ब्रजभाषा का व्यवहार चला आता था और उर्दू-कविता में खड़ी बोली के अरबी-फारसी-मिश्रित रूप का। जब खड़ी बोली अपने असली रूप में भी चारों ओर फैल गई तब उसकी व्यापकता और भी बढ़ गई और हिंदी-गद्य के लिये उसके ग्रहण में सफलता की संभावना दिखाई पड़ी।

इसी लिये जब संवत् १८६० से फोर्ट विलियम कालेज (कलकत्ता) के हिंदी-उर्दू अध्यापक जान गिलक्राइस्ट ने देशी भाषा की गद्य पुस्तकें तैयार कराने की व्यवस्था की तब उन्होंने उर्दू और हिंदी दोनों के लिये अलग अलग प्रबंध किया। इसका मतलब यही है कि उन्होंने उर्दू से स्वतंत्र हिंदी बोली का अस्तित्व सामान्य शिष्ट भाषा के रूप में पाया। फोर्ट विलियम कालेज के आश्रय में लल्लूलालजी गुजराती ने खड़ी बोली के गद्य में 'प्रेमसागर' और सदल मिश्र ने 'नासिकेतोपाख्यान' लिखा। अतः खड़ी बोली गद्य को एक साथ आगे बढ़ानेवाले चार महानुभाव हुए है––मुंशी सदासुखलाल, सैयद इंशाअल्लाखाँ, लल्लूलाल और सदल मिश्र। ये चारों लेखक संवत् १८६० के आसपास हुए।


(१) मुंशी सदासुखलाल 'नियाज' दिल्ली के रहनेवाले थे। इनका जन्म संवत् १८०३ और मृत्यु १८८१ में हुई। संवत् १८५० के लगभग ये कंपनी की अधीनता में चुनार (जिला मिर्जापुर) में एक अच्छे पद पर थे। इन्होंने उर्दू और फारसी में बहुत सी किताबे लिखी हैं और काफी शायरी की है। अपनी "मुंतखबुत्तवारीख" में अपने संबंध में इन्होंने जो कुछ लिखा है उससे पता चलता है कि ६५ वर्ष की अवस्था में ये नौकरी छोड़कर प्रयाग चले गए और अपनी शेष आयु वहीं हरिभजन में बिताई। उक्त पुस्तक संवत् १८७५ में समाप्त हुई जिसके ६ वर्ष उपरांत इनका परलोकवास हुआ। मुंशीजी ने विष्णुपुराण से कई उपदेशात्मक प्रंसग लेकर एक पुस्तक लिखी थी, जो पूरी नहीं मिली है। कुछ दूर तक सफाई के साथ चलनेवाला गद्य जैसा 'योगवासिष्ठ' का था वैसा ही मुंशीजी की इस पुस्तक में दिखाई पड़ा। उसका थोड़ा सा अंश नीचे उद्धृत किया जाता है––

"इससे जाना गया कि संस्कार का भी प्रमाण नहीं; अरोपित उपाधि है। जो क्रिया उत्तम हुई तो सौ वर्ष में चांडाल से ब्राह्मण हुए और जो क्रिया भ्रष्ट हुई तो वह तुरंत ही ब्राह्मण से चांडाल होता है। यद्यपि ऐसे विचार से हमें लोग नास्तिक कहेंगे, हमें इस बात का डर नही। जो बात सत्य हो उसे कहना चाहिए, कोई बुरा माने कि भला माने। विद्या इस हेतु पढ़ते है कि तात्पर्य इसका (जो) सतोवृत्ति है वह प्राप्त हो और उससे निज स्वरूप में लय हूजिए। इस हेतु नहीं पढ़ते है कि चतुराई की बाते कह के लोगों को बहकाइए और फुसलाइए और सत्य छिपाइए, व्यभिचार कीजिए और सुरापान कीजिए और धन-द्रव्य इकठौंर कीजिए और मन को, कि तमोवृत्ति से भर रहा है, निर्मल न कीजिए। तोता है सो नारायण का नाम लेता है, परंतु उसे ज्ञान तो नहीं है।"

मुंशीजी ने यह गद्य न तो किसी अँगरेज अधिकारी की प्रेरणा से और न किसी दिए हुए नमूने पर लिखा। वे एक भवद्भक्त आदमी थे। अपने समय में उन्होंने हिंदुओं की बोलचाल की जो शिष्ट भाषा चारों ओर––पूरी प्रांतो से भी––प्रचलित पाई उसी में रचना की। स्थान स्थान पर शुद्ध तत्सम संस्कृत शब्दों का प्रयोग करके उन्होंने उसके भावी साहित्यक रूप का पूर्ण आभास दिया। यद्यपि ये खास दिल्ली के रहनेवाले अह्न जवान थे पर उन्होंने अपने हिंदी-गद्य में कथवाचको, पंडितो और साधु-संतों के बीच दूर दूर तक प्रचलित खड़ी बोली का रूप रखा जिसमें संस्कृत शब्दो का पुट भी बराबर रहता था। बराबर व्यापार से संबंध रखनेवाला समाज रहा है। खड़ी बोली को मुसलमानों द्वारा जो रूप दिया गया उससे सर्वथा स्वतंत्र वह, अपने प्रकृत रूप में भी दो ढाई सौ वर्ष से लिखने पढ़ने के काम में आ रही हैं, ये बात 'योगवासिष्ठ' और 'पद्मपुराण' अच्छी तरह प्रमाणित कर हैं। अतः यह कहने की गुंजाइश अब जरा भी नहीं रही कि खड़ी बोली गद्य की परंपरा अँगरेजों की प्रेरणा से चली। 'पद्मपुराण' की भाषा का स्वरूप यह है––

"जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र विषै मगध नामा देश अति सुंदर है, जहाँ पुण्याधिकारी बसे हैं, इद्र के लोक समान सदा भोगोपभोग करैं हैं और भूमि विषै साँठेन के बाड़े शोभायमान है। जहाँ नाना प्रकार के अन्नो के समृद्ध पर्वत सामान ढेर हो रहे हैं।"

आगे चलकर संवत् १८३० और १८४० के बीच राजस्थान के किसी लेखक ने "मडोवर का वर्णन" लिखा था जिसकी भाषा साहित्य की नहीं, साधारण बोलचाल की है, जैसे––

"अवल में यहाँ माडव्य रिसी का आश्रम था। इस सबब से इस जगे का नाम माडव्याश्रम हुआ। इस लफ्ज का बिगड़ कर मंडोवर हुवा है।"

ऊपर जो कहा गया कि खड़ी बोली का ग्रहण देश के परपरागत साहित्य में नहीं हुआ था, उसका अर्थ यहाँ स्पष्ट कर देना चाहिए। उक्त कथन में साहित्य से अभिप्राय लिखित साहित्य का है, कथित या मौखिक का नहीं। कोई भाषा हो, उसका कुछ न कुछ साहित्य अवश्य होता है––चाहे वह लिखित न हो, श्रुति-परपरा द्वारा ही चला आता हो। अतः खड़ी बोली के भी कुछ गीत, कुछ पद्य, कुछ तुकबदियाँ खुसरो के पहले से अवश्य चली आती होंगी। खुसरो की सी पहेलियाँ दिल्ली के आसपास प्रचलित थीं जिनके नमूने पर खुसरो ने अपनी पहेलियाँ कहीं। हाँ, फारसी पद्य में खड़ी बोली को ढालने का खुसरो का प्रयत्न प्रथम कहा जा सकता है।

खड़ी बोली का रूप-रंग जब मुसलमानों ने बहुत कुछ बदल दिया और वे उसमे विदेशी भावो का भंडार भरने लगे तब हिंदी के कवियों की दृष्टि में वह मुसलमानो की खास भाषा सी जँचने लगी। इससे भूषण, सूदन आदि कवियों ने मुसलमानी दरबारों के प्रसंग में या मुसलमान पात्रों के भाषण में ही इस बोली का व्यवहार किया है। पर जैसा कि अभी दिखाया जा चुका है, मुसलमानों के दिए कृत्रिम रूप से स्वतंत्र खड़ी बोली का स्वाभाविक देशी रूप भी देश के भिन्न-भिन्न भागों में पछाँह के व्यापारियों आदि के साथ साथ फैल रहा था। उसके प्रचार और उर्दू साहित्य के प्रचार से कोई संबंध नहीं। धीरे धीरे यही खडी बोली व्यवहार की सामान्य शिष्ट भाषा हो गई। जिस समय अँगरेजी राज्य भारत में प्रतिष्ठित हुआ उस समय सारे उत्तरी भारत में खड़ी बोली व्यवहार की शिष्ट भाषा हो चुकी थी। जिस प्रकार उसके उर्दू कहलानेवाले कृत्रिम रूप का व्यवहार मौलवी मुंशी आदि फारसी तालीम पाए हुए कुछ लोग करते थे उसी प्रकार उसके असली स्वाभाविक रूप का व्यवहार हिंदू साधु, पंडित, महाजन आदि अपने शिष्ट भाषण में करते थे। जो संस्कृत पढ़े लिखे या विद्वान् होते थे उनकी बोली में संस्कृत के शब्द भी मिले रहते थे।

रीतिकाल के समाप्त होते होते अँगरेजी राज्य देश में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो गया था। अतः अँगरेजों के लिये यहाँ की भाषा सीखने का प्रयत्न स्वाभाविक था। पर शिष्ट समाज के बीच उन्हें दो ढंग की भाषाएँ चलती मिलीं। एक तो खड़ी बोली का सामान्य देशी रूप, दूसरा वह दरबारी रूप जो मुसलमानो ने उसे दिया था और उर्दू कहलाने लगा था।

अँगरेज यद्यपि विदेशी थे पर उन्हें यह स्पष्ट लक्षित हो गया कि जिसे उर्दू कहते हैं वह न तो देश की स्वाभाविक भाषा है न उसका साहित्य देश का साहित्य है, जिसमें जनता के भाव और विचार रक्षित हो। इसी लिये जब उन्हें देश की भाषा सीखने की आवश्यकता हुई और वे गद्य की खोज में पड़े तब दोनों प्रकार की पुस्तकों की आवश्यकता हुई––उर्दू की भी और हिंदी (शुद्ध खड़ी बोली) की भी। पर उस समय गद्य की पुस्तकें वास्तव में न उर्दू में थी और न हिंदी में। जिस समय फोर्ट विलियस कालेज की ओर से उर्दू और हिंदी गद्य की पुस्तकें लिखाने की व्यवस्था हुई उसके पहले हिंदी खड़ी बोली में गद्य की कई पुस्तके लिखी जा चुकी थीं।

'योगवासिष्ठ' और 'पद्मपुराण' का उल्लेख हो चुका है। उसके उपरांत जब इसी स्कृंतमिश्रित हिंदी को उर्दूवाले 'भाखा' कहते थे, जिसका चलन उर्दू के कारण कम होते देख मुंशी सदासुख ने इस प्रकार खेद प्रकट किया था––

"रस्मो रिवाज भाखा का दुनिया से उठ गया।"

सारांश यह है कि मुंशीजी ने हिंदुओं की शिष्ट बोल-चाल की भाषा ग्रहण की, उर्दू से अपनी भाषा नहीं ली। इन प्रयोगों से यह बात स्पष्ट हो जाती है––

"स्वभाव करके वे दैत्य कहलाए"। "बहुत जाधा चूक हुई"। "उन्ही लोगों से बन आवै है"। "जो बात सत्य होय"॥

काशी पूरब में है पर यहाँ के पंडित सैकड़ों वर्ष से 'होयगा', 'आवता है?' 'इस करके', आदि बोलते चले आते है। ये सब बातें उर्दू से स्वतंत्र खड़ी बोली के प्रचार की सूचना देती है।

(२) इंशाअल्लाखाँ उर्दू के बहुत प्रसिद्ध शायर थे जो दिल्ली के उजड़ने पर लखनऊ चले आए थे। इनके पिता मीर माशाअल्लाखाँ काश्मीर से दिल्ली आए थे जहाँ वे शाही हकीम हो गए थे। मुगल-सम्राट् की अवस्था बहुत गिर जाने पर हकीम साहब मुर्शिदाबाद के नवाब के यहाँ चले गए थे। मुर्शिदाबाद ही मे इंशा का जन्म हुआ। जब बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला मारे गए, और बंगाल में अंधेर मचा तब इंशा, जो पढ़-लिखकर अच्छे विद्वान् और प्रभावशाली कवि हो चुके थे, दिल्ली चले आए और शाहआलम दूसरे के दरबार में रहने लगे। वहाँ जब तक रहे अपनी अद्भुत प्रतिभा के बल से अपने विरोधी बड़े बड़े नामी शायरो को ये बराबर नीचा दिखाते रहे। जब गुलाम-कादिर बादशाह को अंधा करके शाही खजाना लूटकर चल दिया तब इंशा का निर्वाह दिल्ली में कठिन हो गया और वे लखनऊ चले आए। जब संवत् १८५५ में नवाब सआदत अलीखाँ गद्दी पर बैठे तब ये उनके दरबार में आने जाने लगे। बहुत दिनों तक इनकी बड़ी प्रतिष्ठा रही पर अंत में एक दिल्लगी की बात पर इनका वेतन आदि सब बद हो गया और इनके जीवन का अंतिम भाग बड़े कष्ट में बीता। संवत् १८७५ में इनकी मृत्यु हुई।

इंशा ने "उदयभानचरित या रानी केतकी की कहानी" संवत् १८५५ और १८६० के बीच लिखी होगी। कहानी लिखने का कारण इंशा साहब यों लिखते है––

"एक दिन बैठे बैठे यह बात अपने ध्यान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमे हिंदवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके चीच में न हो। x x x अपने मिलनेवालों में से एक कोई बड़े पढ़े लिखे, पुराने धुराने, डाँग, बूढ़े घाग यह खटराग लाए........और लगे कहने, यह बात होते दिखाई नहीं देती। हिंदवीपन न भी निकले और भाखापन भी न हो। बस, जैसे भले लोग––अच्छों से अच्छे––आपस में बोलते चालते हैं। ज्यों का त्यों वही सब डौल रहे और छाँव किसी की न हो। यह नहीं होने का।"

इससे स्पष्ट है कि इंशा का उद्देश्य ठेठ हिंदी लिखने का था जिसमें हिंदी को छोड़ और किसी बोली का पुट न रहे। उद्धृत अंश में 'भाखापन' शब्द ध्यान देने योग्य है। मुसलमान लोग 'भाखा' शब्द का व्यवहार साहित्यिक हिंदी भाषा के लिये करते थे जिसमें आवश्यकतानुसार संस्कृत के शब्द आते थे––चाहे वह ब्रजभाषा हो, चाहे खड़ी बोली। तात्पर्य यह कि संस्कृत मिश्रित हिंदी को ही उर्दू फारसीवाले 'भाखा' कहा करते थे। 'भाखा' से खास ब्रजभाषा का अभिप्राय उनका नहीं होता था, जैसा कुछ लोग भ्रमवश समझते है। जिस प्रकार वे अपनी अरबी-फारसी मिली हिंदी को उर्दू कहते थे, उसी प्रकार संस्कृत मिली हिंदी को 'भाखा'। भाषा का शास्त्रीय दृष्टि से विचार न करनेवाले या उर्दू की ही तालीम खास तौर पर पानेवाले कई नए पुराने हिंदी लेखक इस 'भाखा' शब्द के चक्कर में पड़कर ब्रजभाषा को हिंदी कहने में संकोच करते है। "खड़ीबोली पद्य" का झंडा लेकर स्वर्गीय बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री चारों ओर घूम घूमकर कहा करते थे कि अभी हिंदी में कविता हुई कहाँ, "सूर, तुलसी, बिहारी आदी ने जिसमे कविता की है वह तो 'भाखा' है, 'हिंदी' नहीं। संभव है इस सड़े-गले खयाल को लिए अब भी कुछ लोग पड़े हो।

इंशा ने अपनी भाषा को तीन प्रकार के शब्दों से मुक्त रखने की प्रतिज्ञा की है–– बाहर की बोली=अरबी, फारसी, तुरकी। गँवारी=ब्रजभाषा, अवधी आदि। भाखा=संकृत के शब्दों का मेल।

इस विलगाव से, आशा है, ऊपर लिखी बात स्पष्ट हो गई होगी। इंशा ने "भाखापन" और "मुअल्लापन" दोनों को दूर रखने का प्रयत्न किया, पर दूसरी बला किसी न किसी सूरत में कुछ लगी रह गई। फारसी के ढंग का वाक्य-विन्यास कहीं कहीं, विशेषतः बड़े वाक्यों में, आ ही गया है; पर बहुत कम। जैसे––

"सिर झुकाकर नाक रगड़ता हूँ अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सबको बनाया"।

"इस सिर झुकाने के साथ ही दिन रात जपता हूँ उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को"।

"वह चिट्ठी जो पीकभरी कुँवर तक जा पहुँची"।

आरंभ काल के चारों लेखकों में इंशा की भाषा सबसे चटकली, मुहावरेदार और चलती है। पहली बात यह है कि खड़ी बोली उर्दू-कविता में पहले से बहुत कुछ मंज चुकी थी जिससे उर्दूवालों के सामने लिखते समय मुहावरे आदि बहुतायत से आया करते थे। दूसरी बात यह है कि इंशा रंगीन और चुलबुली भाषा द्वारा अपना लेखन-कौशल दिखाया चाहते थे[]मुंशी सदासुखलाल भी खास दिल्ली के थे और उर्दू-साहित्य का अभ्यास भी पूरा रखते थे, पर वे धर्मभाव से जान बूझकर अपनी भाषा गंभीर और संयत रखना चाहते थे। सानुप्रास विराम भी इंशा के गद्य में बहुत स्थलों पर मिलते हैं––जैसे,

"जब दोनों महाराजो में लड़ाई होने लगी, रानी केतकी सावन भादों के रूप रोने लगी, और दोनों के जी में यह आ गई––यह कैसी चाहत जिसमे लहू बरसने लगा और अच्छी बातों को जी तरसने लगा।"

इंशा के समय तक वर्तमान कृदंत या विशेषण और विशेष्य के बीच का समानाधिकरण कुछ बना हुआ था, जो उनके गद्य में जगह जगह पाया जाता है; जैसे––


आतियाँ जातियाँ जो साँसें हैं। उसके बिन ध्यान यह सब फाँसें हैं॥

xxxx

घरवालियाँ जो किसी डील से बहलातियाँ हैं।

इन विचित्रताओं के होते हुए भी इंशा ने जगह जगह बड़ी प्यारी घरेलू ठेठ भाषा का व्यवहार किया है और वर्णन भी सर्वथा भारतीय रखे हैं। इनकी चलती चटपटी भाषा का नमूना देखिए––

"इस बात पर पानी डाल दो नही तो पछताओगी और अपना किया पाओगी। मुझसे कुछ न हो सकेगा। तुम्हारी जो कुछ अच्छी बात होती तो मेरे मुँह से जीते जी न निकलती, पर यह बात मेरे पेट नहीं पच सकती। तुम अभी अल्हड हो, तुमने अभी कुछ देखा नहीं है जो ऐसी बात पर सचमुच ढलाव देखूँगी तो तुम्हारे बाप से कहकर वह भभूत जो वह मुआ निगोडा भूत, मुछंदर का पूत अवधूत दे गया है, हाथ मुरकवाकर छिनवा लूँगी"।


(३) लल्लूलालजी आगरे के रहनेवाले गुजराती ब्राह्मण थे। इनका जन्म संवत् १८२० में और मृत्यु संवत् १८८२ में हुई। संस्कृत के विशेष जानकार तो ये नहीं जान पड़ते पर भाषा-कविता का अभ्यास इन्हें था। उर्दू भी कुछ जानते थे। संवत् १८६० में कलकत्ते के फोर्ट विलियम कालेज के अध्यापक जान गिलक्राइस्ट के आदेश से इन्होंने खड़ी बोली गद्य में "प्रेमसागर" लिखा जिसमें भगवत दशम स्कंध की कथा वर्णन की गई है। इंशा के समान इन्होंने केवल ठेठ हिंदी लिखने का संकल्प तो नहीं किया था पर विदेशी शब्दों के न आने देने की प्रतिज्ञा अवश्य लक्षित होती है। यदि ये उर्दू जानते होते तो अरबी-फारसी के शब्द बचाने में उतने कृतकार्य कभी न होते जितने हुए। बहुतेरे अरबी-फारसी के शब्द बोलचाल की भाषा में इतने मिल गए थे कि उन्हें केवल संस्कृत जाननेवाले के लिये पहचानना भी कठिन था। मुझे एक पंडितजी का स्मरण है जो 'लाल' शब्द तो बराबर बोलते थे पर 'कलेजा' और 'बैंगन' शब्दों को म्लेच्छ भाषा के समझ बचाते थे। लल्लूलालजी अनजान में कहीं कहीं ऐसे शब्द लिखे गए हैं जो फारसी या तुरकी के हैं। जैसे 'बैरख' शब्द तुरकी का 'बैरक' है, जिसका अर्थ झंडा है। प्रेमसागर में यह शब्द आया है। देखिए––

"शिवजी ने एक ध्वजा बाणासुर को देके कहा इस बैरख को ले जाय।" पर ऐसे शब्द दो ही चार जगह आए हैं।

यद्यपि मुंशी सदासुखलाल ने भी अरबी, फारसी के शब्दों का प्रयोग न कर संस्कृत-मिश्रित साधु भाषा लिखने का प्रयत्न किया है पर लल्लूलाल की भाषा से उसमें बहुत कुछ भेद दिखाई पड़ता हैं। मुंशीजी की भाषा साफ-सुथरी खड़ी बोली है पर लल्लूलाल की भाषा कृष्णोपासक व्यासों की-सी ब्रज-रंजित खड़ी बोली है। 'संमुख जाय', 'सिर नाय', 'सोई', 'भई', 'कीजै', 'निरख', 'लीजौ', ऐसे शब्द बराबर प्रयुक्त हुए है। अकबर के समय में गंग कवि ने जैसी खड़ी बोली लिखी थी, वैसी ही खड़ी बोली लल्लूलाल ने भी लिखी। दोनों की भाषाओं में अंतर इतना ही है कि गंग ने इधर-उधर फारसी अरबी के प्रचलित शब्द भी रखे है पर लल्लूलालजी ने ऐसे शब्द बचाए है। भाषा की सजावट भी प्रेमसागर में पूरी है। विरामों पर तुकबंदी के अतिरिक्त वर्णनों में वाक्य भी बड़े बड़े आए हैं और अनुप्रास भी यत्र-तत्र हैं। मुहावरों का प्रयोग कम है। सारांश यह कि लल्लूलालजी का काव्याभास गद्य भक्तों की कथा-वार्ता के काम का ही अधिकतर है, न नित्य-व्यवहार के अनुकूल है, न संबद्ध विचारधारा के योग्य। प्रेमसागर से दो नमूने नीचे दिए जाते हैं––

"श्री शुकदेव मुनि बोले––महाराज! ग्रीष्म की अति अनीति देख, नृप पावस प्रचंड पशु-पक्षी, जीव जंतुओं की दशा विचार, चारों ओर से दल-बादल साथ ले लड़ने को चढ़ आया। तिस समय घन जो गरजता था सोई तौ धौसा बजता था और वर्ण वर्ण की घटा जो घिर आई थी सोई शूर वीर रावत थे, तिनके बीच बिजली की दमक, शस्त्र की सी चमक थी, बंगपाँत ठौर ठौर ध्वजा सी फहराय रही थी, दादुर-मोर, कड़खैतों की सी भाँति यश बखानते थे और बड़ी बड़ी बूंदों की झड़ी बाणों की सी झड़ी लगी थी।

"इतना कह महादेव जी गिरिजा को साथ ले गंगा तीर पर जाय, नीर में न्हाय न्हिलाय, अति लाड़ प्यार से लगे पार्वती जी को वस्त्र आभूषण पहिराने। निदान अति आनंद में मग्न हो डमरू बजाय बजाय, तांडव नाच नाच, संगीत शास्त्र की रीति गाय गाय लगे रिझाने।"

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"जिस काल ऊषा बारह वर्ष की हुई तो उसके मुखचंद्र की ज्योति देख पूर्णमासी का चंद्रमा छबि-छीन हुआ, बालों की श्यामता के आगे अमावस्या की अँधेरी फीकी लगने लगी। उसकी चोटी सटकाई लख नागिन अपनी केचली छोड़ सटक गई। भौंह की बँकाई निरख धनुष धकधकाने लगा; आँखो की बड़ाई चंचलाई पेख मृग मीन खंजन खिसाय रहे।"

लल्लूलाल ने उर्दू, खड़ी बोली हिंदी और ब्रजभाषा तीनों में गद्य की पुस्तकें लिखीं। ये संस्कृत नहीं जानते थे। ब्रजभाषा में लिखी हुई कथाओं और कहानियों को उर्दू और हिंदी गद्य में लिखने के लिये इनसे कहा गया था। जिसके अनुसार इन्होंने सिंहासनबत्तीसी, बैताल-पचीसी, शकुंतलानाटक, माधोनल और प्रेमसागर लिखे। प्रेमसागर के पहले की चारों पुस्तकें बिल्कुल उर्दू में हैं। इनके अतिरिक्त सं॰ १८६९ में इन्होंने "राजनीति" के नाम से हितोपदेश की कहानियाँ (जो पद्य में लिखी जा चुकी थीं) ब्रजभाषा-गद्य में लिखीं। माधवविलास और सभाविलास नामक ब्रजभाषा पद्य के संग्रह ग्रंथ भी इन्होंने प्रकाशित किए थे। इनकी 'लालचंद्रिका' नाम की बिहारी सतसई की टीका भी प्रसिद्ध है। इन्होंने अपना एक निज का प्रेस कलकत्ते में (पटल-डाँगे में) खोला था जिसे ये सं॰ १८८१ में फोर्ट विलियम कालेज की नौकरी से पेंशन लेने पर, आगरे लेते गए। आगरे में प्रेस जमाकर ये एक बार फिर कलकत्ते गए जहाँ इनकी मृत्यु हुई। अपने प्रेस का नाम इन्होंने "संस्कृत प्रेस" रखा था, जिसमें अपनी पुस्तकों के अतिरिक्त ये रामायण आदि पुरानी पोथियाँ भी छापा करते थे। इनके प्रेस की छपी पुस्तकों की लोग बहुत कदर करते थे।

(४) सदल मिश्र––ये बिहार के रहने वाले थे। फोर्ट विलयम कालेज में ये भी काम करते थे। जिस प्रकार उक्त कालेज के अधिकारियों की प्रेरणा से लल्लूलाल ने खड़ी बोली गद्य की पुस्तक तैयार की उसी प्रकार इन्होंने भी।
इनका "नासिकेतोपाख्यान" भी उसी समय लिखा गया, जिस समय 'प्रेमसागर'। पर दोनों की भाषा में बहुत अंतर है। लल्लूलाल के समान इनकी भाषा में न तो ब्रजभाषा के रूपों की वैसी भरमार है और न परंपरागत काव्यभाषा की पदावली का स्थान स्थान पर समावेश। इन्होंने व्यवहारोपयोगी भाषा लिखने का प्रयत्न किया है और जहाँ तक हो सका है खड़ी बोली का ही व्यवहार किया है। पर इनकी भाषा भी साफ सुथरी नहीं है। ब्रजभाषा के भी कुछ रूप हैं और पूरबी बोली के शब्द तो स्थान स्थान पर मिलते हैं। "फूलन्ह के बिछौने", "चहुँदिस", "सुनि", "सोनन्ह के थम" आदि प्रयोग ब्रजभाषा के हैं। "इहाँ", "मतारी", "बरते थे", "जुड़ाई", "बाजने लगा", "जौन" आदि पूरबी शब्द हैं। भाषा के नमूने के लिये "नासिकेतोपाख्यान" से थोड़ा सा अवतरण नीचे दिया जाता है--

"इस प्रकार से नासिकेत मुनि यम की पुरी सहित नरक का वर्णन कर फिर जौन जौन कर्म किए से जो भोग होता है सो सब ऋषियों को सुनाने लगे कि गौ, ब्राह्मण, मातापिता, मित्र, बालक, स्त्री, स्वामी, वृद्ध, गुरु इनका जो वध करते हैं वो झूठी साक्षी भरते, झूठ ही कर्म में दिन रात लगे रहते हैं, अपनी भार्य्या को त्याग दूसरे की स्त्री को चाहते औरो की पीडा देख प्रसन्न होते हैं। और जो अपने धर्म से हीन पाप ही में गड़े रहते हैं वो मातापिता की हित बात को नहीं सुनते, सब से बैर करते हैं, ऐसे जो पापी जन हैं सो महा डेरावने दक्षिण द्वार से जा नरकों में पड़ते हैं।"

गद्य की एक साथ परंपरा चलाने वाले उपयुक्त चार लेखकों में से आधुनिक हिंदी का पूरा पूरा अभास मुंशी रादासुख और सदल मिश्र की भाषा में ही मिलता है। व्यवहारोपयोगी इन्हीं की भाषा ठहरती है। इन दो मे भी मुंशी सदासुख की साधु भाषा अधिक महत्त्व की है। मुशी सदासुख ने लेखनी भी चारो में पहले उठाई अतः गद्य का प्रवर्तन करने वालों में उनका विशेष स्थान समझना चाहिए।


संवत् १८६० के लगभग हिंदी गद्य का प्रवर्तन तो हुआ पर उसके साहित्य की अखंड परंपरा उस समय से नहीं चली। इधर उधर दो चार पुस्तके अनगढ़ भाषा में लिखी गई हों तो लिखी गई हों पर साहित्य के योग्य स्वच्छ सुव्यवस्ति भाषा में लिखी कोई पुस्तक संवत् १९१५ के पूर्व की नही मिलती। संवत् १८८१ में किसी ने "गोरा बादल री बात" का, जिसे राजस्थानी पद्यो में जटमल ने संवत् १६८० में लिखा था, खड़ी बोली के गद्य में अनुवाद किया। अनुवाद का थोड़ा सा अंश देखिए––

"गोरा बादल की कथा गुरु के बस, सरस्वती के मेहरबानगी से, पूरन भई। तिस वास्ते गुरु कूँ व सरस्वती कूँ नमस्कार करता हूँ। ये कथा सोलः से असी के साल में फागुन सुदी पूनम के रोज बनाई। ये कथा में दो रस है––वीररस व शृंगाररस है, सो कथा मोरछड़ो नाँव गाँव का रहनेवाला कवेसर। उस गाँव के लोग भोहोत सुखी हे। घर घर में आनंद होता है, कोई घर में फकीर दीखता नहीं।"

संवत् १८६० और १९१५ के बीच का काल गद्य-रचना की दृष्टि से प्रायः शून्य ही मिलता है। संवत् १९१४ के बलवे के पीछे ही हिंदी-गद्य साहित्य की परंपरा अच्छी तरह चली।

संवत् १८६० के लगभग हिंदी-गद्य की जो प्रतिष्ठा हुई उसका उस समय यदि किसी ने लाभ उठाया तो ईसाई धर्म-प्रचारको ने, जिन्हें अपने मत को साधारण जनता के बीच फैलाना था। सिरामपुर उस समय पादरियों का प्रधान अड्डा था। विलियम कैरे (william Carey) तथा और कई अँगरेज पादरियों के उद्योग से इजील का अनुवाद उत्तर भारत की कई भाषायों में हुआ| कहा जाता है कि बाइबिल का हिंदी अनुवाद स्वयं केरे साहब ने किया। संवत् १८६६ में उन्होंने "नए धर्म नियम" का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया और संवत् १८७५ मे समग्र ईसाई-धर्म पुस्तक का अनुवाद पूरा हुआ। इस संबंध में ध्यान देने की बात यह है कि इन ईसाई अनुवादकों ने सदासुख और लल्लूलाल की विशुद्ध भाषा को ही आदर्श माना, उर्दूपन को बिलकुल दूर रखा। इससे यही सूचित होता है कि फारसी अरबी मिली भाषा से साधारण जनता का लगाव नहीं था जिसके बीच मत का प्रचार करना था। जिस भाषा में साधारण हिंदू जनता अपने कथा-पुराण कहती सुनती आती थी उसी भाषा का अवलंबन ईसाई उपदेशकों को आवश्यक दिखाई पड़ा। जिस संस्कृत-मिश्रित भाषा का विरोध करना कुछ लोग एक फैशन समझते हैं उससे साधारण जन-समुदाय उर्दू की अपेक्षा कहीं अधिक परिचित रहा है और है। जिन अँगरेजो को उत्तर भारत में रहकर केवल मुंशीयों और खानसामों की ही बोली सुनने का अवसर मिलता है वे अब भी उर्दू या हिंदुस्तानी को यदि जनसाधारण की भाषा समझा करें तो कोई आश्चर्य नहीं। पर उन पुराने पादरियों ने जिस शिष्ट भाषा में जनसाधारण को धर्म और ज्ञान आदि के उपदेश सुनते-सुनाते पाया उसी को ग्रहण किया।

ईसाइयो ने अपनी धर्मपुस्तक के अनुवाद की भाषा में फारसी और अरबी के शब्द जहाँ तक हो सका है नहीं लिए है और ठेठ ग्रामीण शब्द तक बेधड़क रखे गए हैं। उनकी भाषा सदासुख और लल्लूलाल के ही नमूने पर चली है। उसमें जो कुछ विलक्षणता सी दिखाई पड़ती है वह मूल विदेशी भाषा की वाक्यरचना और शैली के कारण। प्रेमसागर के समान ईसाई धर्मपुस्तक में भी 'करनेवाले' के स्थान पर 'करनहारे', 'तक' के स्थान पर 'लौ', 'कमरबंद' के स्थान पर 'पटुका' प्रयुक्त हुए है। पर लल्लूलाल के इतना ब्रजभाषापन नहीं आने पाया है। 'आय' 'जाय' का व्यवहार न होकर 'आके' 'जाके' व्यवहृत हुए हैं। सारांश यह कि ईसाई मत-प्रचारकों ने विशुद्ध हिंदी का व्यवहार किया है। एक नमूना नीचे दिया जाता है––

"तब यीशु योहन से बपतिरमा लेने को उस पास गालील से यर्दन के तीर पर आया। परंतु योहन यह कह के उसे वर्जने लगा कि मुझे आपके हाथ से बपतिस्मा लेना अवश्य है और क्या आप मेरे पास आते हैं! यीशु ने उसको उत्तर दिया कि अब ऐसा होने दे क्योंकि इसी रीति से सब धर्म को पूरा करना चाहिए। यीशु बपतिस्मा लेके तुरंत जल के ऊपर आया और देखो उसके लिये स्वर्ग खुल गया और उसने ईश्वर के आत्मा को कपोत की नाईं उतरते और अपने ऊपर आते देखा, और देखो यह आकाशवाणी हुई कि यह मेरा प्रिय पुत्र है जिससे मैं अति प्रसन्न हूँ।"

इसके आगे ईसाइयों की पुस्तकें और पैंफलेट बराबर निकलते रहे। उक्त "सिरामपुर प्रेस" से संवत् १८१३ मे "दाऊद के गीतें" नाम की पुस्तक छपी जिसकी भाषा में कुछ फारसी अरबी के बहुत चलते शब्द भी रखे मिलते हैं। पर इसके पीछे अनेक नगरों में बालकों की शिक्षा के लिये ईसाइयों के छोटे-मोटे स्कूल खुलने लगे और शिक्षा-संबंधिनी पुस्तकें भी निकलने लगीं। इन पुस्तकों की हिंदी भी वैसी ही सरल और विशुद्ध होती थी जैसी 'बाइबिल' के अनुवाद की थी। आगरा, मिर्जापुर, मुंगेर आदि उस समय ईसाइयों के प्रचार के मुख्य केद्र थे।

अँगरेजी की शिक्षा के लिये कई स्थानों पर स्कूल और कालेज खुल चुके थे जिनमें अँगरेजी के साथ हिंदी, उर्दू की पढ़ाई भी कुछ चलती थी। अतः शिक्षा-संबंधिनी पुस्तकों की माँग सं॰ १९०० के पहले ही पैदा हो गई थी। शिक्षा-संबंधिनी पुस्तकों के प्रकाशन के लिये सवत् १८९० के लगभग आगरे में पादरियों की एक "स्कूल-बुक-सोसाइटी" स्थापित हुई थी जिसने १८९४ में इँगलैंड के इतिहास का और संवत् १८९६ में मार्शमैन साहब के "प्राचीन इतिहास" का अनुवाद "कथासार" के नाम से प्रकाशित किया। "कथासार" के लेखक या अनुवादक पं॰ रतनलाल थे। इसके संपादक पादरी मूर साहब (J.J. Moore.) ने अपने छोटे से अँगरेजी वक्तव्य में लिखा था कि यदि सर्वसाधारण से इस पुस्तक को प्रोत्साहन मिला तो इसका दूसरा भाग "वर्तमान इतिहास" भी प्रकाशित किया जायगा। भाषा इस पुस्तक की विशुद्ध और पंडिताऊ है। 'की' के स्थान पर 'करी' और 'पाते हैं' के स्थान पर 'पावते है' आदि प्रयोग बराबर मिलते हैं। भाषा का नमूना यह है––

"परंतु सोलन की इन अत्युत्तम व्यवस्थाओं से विरोध भंजन न हुआ। प्रक्षपातियों के मन का क्रोध न गया। फिर कुलीनों में उपद्रव मचा और इसलिये प्रजा की सहायता से पिसिसट्रेटस नामक पुरुष सबो पर पराक्रमी हुआ। इसने सब उपाधियों को दबाकर ऐसा निष्कंटक राज्य किया कि जिसके कारण वह अनाचारी कहाया, तथापि यह उस काल में दूरदर्शी और बुद्धिमानों में अग्रगण्य था।"

आगरे की उक्त सोसइटी के लिये संवत् १८९७ में पंडित ओंकार भट्ट ने 'भूगोलसार' और संवत् १९०४ में पंडित बद्रीलाल शर्मा ने "रसायनप्रकाश" लिखा। कलकत्ते में भी ऐसी ही एक स्कूल-बुक-सोसाइटी थी जिसने "पदार्थविद्यासार" (सं॰ १९०३) आदि कई वैज्ञानिक पुस्तकें निकाली थीं। इसी प्रकार कुछ रीडरें भी मिशनरियों के छापेखानों से निकली थीं––जैसे "आजमगढ़ रीडर" जो इलाहाबाद मिशन प्रेस से संवत् १८९७ में प्रकाशित हुई थी।

बलवे के कुछ पहले ही मिर्जापुर में ईसाइयों का एक और "आरफेन प्रेस" खुला था जिससे शिक्षा संबधिनी कई पुस्तकें शेरिंग साहब के संपादन में निकली थीं, जैसे––भूचरित्रदर्पण, भूगोल विद्या, मनोरंजक वृत्तांत, जंतुप्रबंध, विद्यासागर, विद्वान् संग्रह। ये पुस्तकें संवत् १९१२ और १९१९ के बीच की है। तब से मिशन सोसाइटियों के द्वारा बराबर विशुद्ध हिंदी में पुस्तकें और पैंफलेट आदि छपते आ रहे हैं जिनमें कुछ खंडन मंडन, उपदेश और भजन आदि रहा करते हैं। भजन रचनेवाले कई अच्छे ईसाई कवि हो गए हैं जिनमें दो एक अँगरेज भी थे। "आसी" और "जान" के भजन देशी ईसाइयों में बहुत प्रचलित हुए और अब तक गाए जाते हैं। सारांश यह कि हिंदी-गद्य के प्रसार में ईसाइयों का बहुत कुछ योग रहा। शिक्षा-संबंधिनी पुस्तकें तो पहले पहल उन्हीं ने तैयार की। इन बातों के लिये हिंदी-प्रेमी उनके सदा कृतज्ञ रहेगें।

कहने की आवश्यकता नहीं कि ईसाइयों के प्रचार-कार्य का प्रभाव हिंदुओं की जनसंख्या पर ही पड़ रहा था। अतः हिंदुओ के शिक्षित वर्ग के बीच स्वधर्म-रक्षा की आकुलता दिखाई पड़ने लगी। ईसाई उपदेशक हिंदू-धर्म की स्थूल और बाहरी बातों को लेकर ही अपना खंडन-मंडन चलाते आ रहे थे। यह देखकर बंगाल में राजा राममोहन राय उपनिषद् और वेदांत का ब्रह्मज्ञान लेकर उसका प्रचार करने खड़े हुए। नूतन शिक्षा के प्रभाव से पढ़े लिखे लोगों में से बहुतों के मन में मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, जाति-पाँति, छूआ-छूत आदि के प्रति अश्रद्धा हो रही थी। अतः राममोहन राय ने इन बातों को अलग करके शुद्ध ब्रह्मोपासना का प्रवर्त्तन करने के लिये 'ब्रह्म-समाज' की नींव डाली। संवत् १८७२ में उन्होंने वेदांत-सूत्रों के भाष्य का हिंदी-अनुवाद करके प्रकाशित कराया था। संवत् १८८६ में उन्होंने "बंगदूत" नाम का एक संवादपत्र भी हिंदी में निकाला। राजा साहब की भाषा में एक-आध जगह कुछ बँगलापन जरूर मिलता है, पर उसका रूप अधिकांश में वही है जो शास्त्रज्ञ विद्वानो के व्यवहार में आता था। नमूना देखिए––

"जो सब ब्राह्मण साग वेद अध्ययन नहीं करते सो सब व्रात्य है, यह प्रमाण करने की इच्छा करके ब्राह्मणधर्म-परायण श्री सुब्रह्मण्य शास्त्रीजी ने जो पत्र साग वेदाध्ययन-हीन अनेक इस देश के ब्राह्मणो के समीप पठाया है, उसमें देखा जो उन्होंने लिखा है––वेदाध्ययन-हीन मनुष्यों को स्वर्ग और मोक्ष होने शक्ता नहीं"।

कई नगरो में, जिनमे कलकत्ता मुख्य था, अब छापेखाने हो गए थे। बंगाल से कुछ अँगरेजी और कुछ बँगला के पत्र भी निकलने लगे थे जिनके पढ़नेवाले भी हो गए थे। इस परिस्थिति में प॰ जुगुलकिशोर ने, जो कानपुर के रहनेवाले थे, संवत् १८८३ में "उदंतमार्त्तंड" नाम का एक संवादपत्र निकाला जिसे हिंदी का पहला समाचारपत्र समझना चाहिए जैसा कि उसके इस लेख से प्रकट होता है––

"यह उदंत-मार्त्तंड अब पहिले पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेत जो आज तक किसी ने नहीं चलाया, पर अँगरेजी ओ पारसी ओ बँगले में जो समाचार का कागज छपता है उसका सुख उन बोलियो के जान्ने ओ पढ़नेवालो को ही होता है। इससे सत्य समाचार हिंदुस्तानी लोग देखकर आप पढ़ समझ ओ लेयँ ओ पराई अपेक्षा न करे ओ अपने भाषे की उपज न छोड़े इसलिए......श्रीमान् गवरनर जेनेरेल बहादुर की आयस से ऐसे साहस में चित्त में लगाय के एक प्रकार से यह नया ठाट ठाटा। जो कोई प्रशस्त लोग इस खबर के कागज के लेने की इच्छा करें तो अमड़ा तला की गली ३७ अंक मार्त्तड-छापाघर में अपना नाम ओ ठिकाना भेजने ही से सतवारे के सतवारे यहाँ के रहनेवाले घर बैठे ओ बाहिर के रहनेवाले डाक पर कागज पाया करेंगे।"

यह पत्र एक ही वर्ष चलकर सहायता के अभाव से बंद हो गया। इसमें 'खड़ी बोली' का 'मध्यदेशीय भाषा' के नाम से उल्लेख किया गया है। भाषा का स्वरूप दिखाने के लिये कुछ और उद्धरण दिए जाते हैं––

(१) एक यशी वकील वकालत का काम करते करते बुड्ढा होकर अपने दामाद को वह काम सौंप के आप सुचित हुआ। दामाद कई दिन काम करके एक दिन आया ओ प्रसन्न होकर बोला––हे महाराज! आपने जो फलाने का पुराना ओ संगीन मोकद्दमा हमें सौंपा था सो आज फैसला हुआ। यह सुनकर वकील पछता करके बोला तुमने सत्यानाश किया। उस मोकद्दमे से हमारे बाप बढ़े थे तिस पीछे हमारे बाप मरती समय हमें हाथ उठा के दे गए ओ हमने भी उसको बना रखा ओ अब तक भली भाँति अपना दिन काटा ओ वही मोकद्दमा तुमको सौंपकर समझा था कि तुम भी अपने बेटे पोते परोतों तक पलोगे पर तुम थोड़े से दिनों में उसे खो बैठे।

(२) १९ नवंबर को अवधबिहारी बादशाह के आवने की तोपें छूटीं। उस दिन तीसरे पहर को ष्टलिंग साहिब ओ हेल साहिब ओ मेजर फिंडल लार्ड साहिब की ओर से अवधबिहारी की छावनी में जा करके बड़े साहिब का सलाम कहा और भोर होके लार्ड साहिब के साथ हाजिरी करने का नेवता किया। फिर अवधबिहारी बादशाह के जाने के लिये कानपुर के तले गंगा में नावों की पुलवदी हुई और बादशाह बढ़े ठाट से गंगा पार हो गवरनर जेनरेल बहादुर के सन्निध गए।

रीति काल के समाप्त होते होते अँगरेजी राज्य देश में पूर्ण रूप से स्थापित हो गया। इस राजनीतिक घटना के साथ देशवासियों की शिक्षाविधि में भी परिवर्तन हो चला। अँगरेज सरकार ने अँगरेजी की शिक्षा के प्रचार की व्यवस्था की। संवत् १८५४ में ही ईस्ट इंडिया कपनी के डाइरेक्टरो के पास अँगरेजी की शिक्षा द्वारा भारतवासियों को शिक्षित बनाने का परामर्श भेजा गया था। पर उस समय उस पर कुछ न हुआ। पीछे राजा राममोहन राय प्रभृति कुछ शिक्षित और प्रभावशाली सज्जनों के उद्योग से अँगरेजी की पढ़ाई के लिये कलकत्ते में हिंदू कालेज की स्थापना हुई जिसमे से लोग अँगरेजी पढ़ पढ़ कर निकलने और सरकारी नौकरियाँ पाने लगे। देशी भाषा पढ़कर भी कोई शिक्षित हो सकता है, यह विचार उस समय तक लगों को न था। अँगरेजी के सिवाय यदि किसी भाषा पर ध्यान जाता था तो संस्कृत या अरबी पर। संस्कृत की पठशालाओं और अरबी के मदरसों को कंपनी की सरकार से थोड़ी बहुत सहायता मिलती आ रही थी। पर अँगरेजी के शौक के सामने इन पुरानी संस्थाओं की ओर से लोग उदासीन होने लगे। इनको जो सहायता मिलती थी धीरे धीरे वह भी बंद हो गई। कुछ लोगों ने इन प्राचीन भाषाओं की शिक्षा का पक्ष ग्रहण किया था पर मेकाले ने अँगरेजी भाषा की शिक्षा का इतने जोरों के साथ समर्थन किया और पूरबी साहित्य के प्रति ऐसी उपेक्षा प्रकट की कि अंत मे संवत् १८९२ (मार्च ७, सन् १८३५) में कपनी की सरकार ने अँगरेजी शिक्षा के प्रचार का प्रस्ताव पास कर दिया और धीरे धीरे अँगरेजी के स्कूल खुलने लगे।

अँगरेजी शिक्षा की व्यवस्था हो जाने पर अँगरेज सरकार का ध्यान अदालती भाषा की ओर गया। मोगलों के समय में अदालती कार्रवाइयाँ और दफ्तर के सारे काम फारसी भाषा में होते थे। जब अँगरेजो का आधिपत्य हुआ तब उन्होंने भी दफ्तरों में वही परपरा जारी रखी।

दफ्तरों की भाषा फारसी रहने तो दी गई, पर उस भाषा और लिपि से जनता के अपरिचित रहने के कारण लोगों को जो कठिनता होती थी उसे कुछ दूर करने के लिये संवत् १८६० में, एक नया कानून जारी होने पर, कंपनी सरकार की ओर से यह आज्ञा निकाली गई––

"किसी को इस बात का उजुर नहीं होए कि ऊपर के दफे का लीखा हुकुम सबसे वाकीफ नहीं है, हरी एक जिले के कलीकटर साहेब को लाजीम है कि इस आईन के पावने पर एक एक केता इसतहारनामा नीचे के सरह से फारसी व नागरी भाखा वो अच्छर में लीखाय कै...कचहरी में लटकावही। ....अदालत के जज साहेब लोग के कचहरी में भी तमामी आदमी के बुझने के वास्ते लटकावही (अँगरेजी सन् १८०३ साल, ३१ आईने २० दफा)'।

फारसी के अदालती भाषा होने के कारण जनता को जो कठिनाइयाँ होती थीं उनका अनुभव अधिकाधिक होने लगा। अतः सरकार ने संवत् १८९६ (सन् १८३६ ई॰) में 'इश्तहारनामे' निकाले कि अदालती सब काम देश की प्रचलित भाषाओं में हुआ करे। हमारे संयुक्त प्रदेश के सदर बोर्ड की तरफ से जो 'इश्तहार-नामः' हिंदी में निकला था उसकी नकल नीचे दी जाती है––


इश्तहारनाम: बोर्ड सदर

पच्छाँह के सदर बोर्ड के साहबों ने यह ध्यान किया है कि कचहरी के सब काम फारसी जवान में लिखा पढ़ा होने से सब लोगों को बहुत ही हर्ज पड़ता है और बहुत कलप होता है और जब कोई अपनी अर्जी अपनी भाषा में लिख के सरकार में दाखिल करने पावे तो वही बात होगी। सबको चैन आराम होगा। इसलिये हुक्म दिया गया है कि सम् १२४४ की कुवार बढ़ी प्रथम से जिसका जो मामला सदर बोर्ड में हो सो अपना अपना सवाल अपनी हिंदी की बोली में और पारसी कै नागरी अच्छरन में लिख के दाखिल करे कि डाक पर भेजे और सवाल जौन अच्छरन में लिखा हो तीने अच्छरन में और हिंदी बोली में उस पर हुक्म लिखा जायगा। मिती २९ जुलाई सन् १८३६ ई॰।

इस इश्तहारनामे में स्पष्ट कहा गया है कि बोली 'हिंदी' ही हो, अक्षर नागरी के स्थान पर फारसी भी हो सकते हैं। खेद की बात है कि यह उचित व्यवस्था चलने न पाई। मुसलसानों की ओर से इस बात का घोर प्रयत्न हुआ कि दफ्तरों में हिंदी रहने न पाए, उर्दू चलाई जाय। उनका चक्र बराबर चलता रहा, यहाँ तक कि एक वर्ष बाद ही अर्थात् संवत् १८९४ (सन् १८३७ ई॰) में उर्दू हमारे प्रांत के सब दफ्तरों की भाषा कर दी गई।

सरकार की कृपा से खड़ी बोली का अरबी-फारसीमय रूप लिखने-पढ़ने की अदालती भाषा होकर सबके सामने आ गया। जीविका और मान-मर्यादा की दृष्टि से उर्दू ही सीखना आवश्यक हो गया। देश-भाषा के नाम पर लड़को को उर्दू ही सिखाई जाने लगी। उर्दू पढ़े लिखे लोग ही शिक्षित कहलाने लगे। हिंदी की काव्य-परंपरा यद्यपि राजदरवारो के आश्रय में चली चलती थी पर उसके पढ़नेवालों की संख्या भी घटती जा रही थी। नवशिक्षित लोगों का लगाव उसके साथ कम होता जा रहा था। ऐसे प्रतिकूल समय में साधारण जनता के साथ साथ उर्दू पढ़े-लिखे लोगों की भी जो थोड़ी बहुत दृष्टि अपने पुराने साहित्य की ओर बनी हुई थी वह धर्मभाव से। तुलसीकृत रामायण की चौपाइयाँ और सूरदासजी के भजन आदि ही उर्दूग्रस्त लोगों का कुछ लगाव "भाखा" से भी बनाए हुए थे। अन्यथा अपने परंपरागत साहित्य से नवशिक्षित लोगों को अधिकांश कालचक्र के प्रभाव से विमुख हो रहा था। शृंगाररस की भाषा-कविता का अनुशीलन भी गाने बजाने आदि के शौक की तरह इधर उधर बना हुआ था। इस स्थिति का वर्णन करते हुए स्वर्गीय बाबू बालमुकुंद गुप्त लिखते हैं––

"जो लोग नागरी अक्षर सीखते थे फारसी अक्षर सीखने पर विवश हुए और हिंदी भाषा हिंदी न रहकर उर्दू बन गई। ॱॱॱहिंदी उस भाषा का नाम रहा जो टूटी फूटी चाल पर देवनागरी अक्षरों में लिखी जाती थी।"

संवत् १९०२ में यद्यपि राजा शिवप्रसाद शिक्षा विभाग में नहीं आए थे पर विद्याव्यसनी होने के कारण अपनी भाषा हिंदी की और उनका ध्यान था। अतः इधर उधर दूसरी भाषाओं में समाचार पत्र निकलते देख उन्होंने उक्त संवत् में उद्योग करके काशी से "बनारस अखबार" निकलवाया। पर अखबार पढ़नेवाले पहले-पहल नवशिक्षितों में ही मिल सकते थे जिनकी लिखने-पढ़ने की भाषा उर्दू हो रही थी। अतः इस पत्र की भाषा भी उर्दू ही रखी गई, यद्यपि अक्षर देवनागरी के थे। यह पत्र बहुत ही घटिया कागज पर लीथो में छपता था। भाषा इसकी यद्यपि गहरी उर्दू होती थी पर हिंदी की कुछ सूरत पैदा करने के लिये बीच बीच में 'धर्मात्मा', 'परमेश्वर', 'दया' ऐसे कुछ शब्द भी रख दिए जाते थे। इसमें राजा साहब भी कभी कभी कुछ लिख दिया करते थे। इस पत्र की भाषा का अंदाजा नीचे उद्धृत अंश से लग सकता है––

"यहाँ जो नया पाठशाला कई साल से जनाब कप्तान किट साहब बहादुर के इहतिमाम और धर्मात्माओं के मदद से बनता है उसका हाल कई दफा जाहिर हो चुका है। ॱॱॱ ॱदेखकर लोग उस पाठशाले के किते के मकानों की खूबियाँ अक्सर बयान करते हैं और उनके बनने के खर्च की तजबीज करते है कि जमा से ज़ियादा लगा होगा और हर तरह से लायक तारीफ़ के है। सो यह सब दानाई साहब मेमदूह की है।"

इस भाषा को लोग हिंदी कैसे समझ सकते थे? अतः काशी से ही एक दूसरा पत्र "सुधाकर" बाबू तारामोहन मित्र आदि कई सज्जनों के उद्योग से संवत् १९०७ में निकला। कहते है कि काशी के प्रसिद्ध ज्योतिषी सुधाकर जी का नामकरण इसी पत्र के नाम पर हुआ था। जिस समय उनके चाचा के हाथ में डाकिए ने यह पत्र दिया था ठीक उसी समय भीतर से उनके पास सुधाकरजी के उत्पन्न होने की खबर पहुँची थी। इस पत्र की भाषा बहुत कुछ सुधरी हुई तथा ठीक हिंदी थी, पर यह पत्र कुछ दिन चला नहीं। इसी समय के लगभग अर्थात् संवत् १९०९ में आगरे से किसी मुंशी सदासुखलाल के प्रबंध और संपादन में "बुद्धिप्रकाश" निकला जो कई वर्ष तक चलता रहा। "बुद्धिप्रकाश" की भाषा उस समय को देखते हुए बहुत अच्छी होती थी। नमूना देखिए--

"कलकत्ते के समाचार

इस पश्चिमीय देश में बहुतों को प्रगट है कि बँगाले की रीति के अनुसार उस देश के लोग आसन्न-मृत्यु रोगी को गंगा-तट पर ले जाते हैं और यह तो नहीं करते कि उस रोगी के अच्छे होने के लिये उपाय करने में काम करें और उसे यत्न से रक्षा में रक्खें वरन् उसके विपरीत रोगी को जल के तट पर ले जाकर पानी में गोते देते हैं और 'हरी बोल, हरी बोल' कहकर उसका जीव लेते हैं।

स्त्रियों की शिक्षा के विषय

स्त्रियों में संतोष और नम्रता और प्रीत यह सब गुण कर्त्ता में उत्पन्न किए हैं, केवल विद्या की न्यूनता है, जो यह भी हो तो स्त्रियाँ अपने सारे ऋण से चुक सकती है और लडकों को सिखाना-पढ़ाना जैसा उनसे बन सकता है वैसा दूसरों से नहीं। यह काम उन्हीं का है कि शिक्षा के कारण बाल्यावस्था में लड़कों को भूलचूक से बचायें और सरल-सरल विद्या उन्हें सिखावें।"

इस प्रकार हम देखते हैं कि अदालती भाषा उर्दू बनाई जाने पर भी विक्रम की २० वीं शताब्दी के आरंभ क पहले से ही हिंदी खड़ी बोली गद्य की परंपरा हिंदी साहित्य में अच्छी तरह चल पड़ी, उसमें पुस्तकें छपने लगीं, अखबार निकलने लगे। पद्य की भाषा ब्रजभाषा ही बनी रही। अब अँगरेज सरकार का ध्यान देशी भाषाओं की शिक्षा की ओर गया और उसकी व्यवस्था की बात सोची जाने लगी। हिंदी को अदालतों से निकलने में मुसलमानों को सफलता हो चुकी थी। अब वे इस प्रयत्न में लगे कि हिंदी को शिक्षा-क्रम में भी स्थान न मिले, उसकी पढ़ाई का भी प्रबंध न होने पाए। अतः सर्वसाधारण की शिक्षा के लिये सरकार की ओर से जब जगह जगह मदरसे खुलने की बात उठी और सरकार यह विचारने लगी कि हिंदी का पढ़ना सब विद्यार्थियों के लिये आवश्यक रखा जाय तब प्रभावशाली मुसलमानो की ओर से गहरा विरोध खड़ा किया गया। यहाँ तक कि तंग आकर सरकार को अपना विचार छोड़ना पड़ा और उसने संवत् १९०५ (सन् १८४८) में यह सूचना निकाली––

"ऐसी भाषा का जानना सब विद्यार्थियों के लिये आवश्यक ठहराना जो मुल्क की सरकारी और दफ्तरी जबान नहीं है, हमारी राय में ठीक नहीं है। इसके सिवाय मुसलमान विद्यार्थी, जिनकी संख्या देहली कालेज में बड़ी है, इसे अच्छी नजर से नहीं देखेंगे।"

हिंदी के विरोध की यह चेष्टा बराबर बढ़ती गई। संवत् १९११ के पीछे जब शिक्षा का पक्का प्रबंध होने लगा तब यहाँ तक कोशिश की गई कि वर्नाक्युलर स्कूलों में हिंदी की शिक्षा जारी ही न होने पाए। विरोध के नेता थे सर सैयद अहमद साहब जिनका अँगरेजों के बीच बड़ा मान था। वे हिंदी को एक "गँवारी बोली" बताकर अँगरेजों को उर्दू की ओर झुकाने की लगातार चेष्टा करते आ रहे थे। इस प्रात के हिंदुओं में राजा शिवप्रसाद अंग्रेजों के उसी ढंग के कृपापात्र थे जिस ढंग के सर सैयद अहमद। अतः हिंदी की रक्षा के लिये उन्हें खड़ा होना पड़ा और वे बराबर इस संबंध में यत्नशील रहे। इससे हिंदी-उर्दू का झगड़ा बीसो वर्षों तक-भारतेंदु के समय तक-चलता रहा।

गार्सा द तासी एक फरासीसी विद्वान् थे जो पेरिस में हिंदुस्तानी या उर्दू के अध्यापक थे। उन्होंने संवत् १८९६ में 'हिंदुस्तानी साहित्य का इतिहास' लिखा था जिसमें उर्दू के कवियों के साथ हिंदी के भी कुछ बहुत प्रसिद्ध कवियों का उल्लेख था। संवत् १९०९ (५ दिसंबर सन् १८५२) के अपने व्याख्यान में उन्होंने उर्दू और हिंदी दोनों भाषाशों की युगपद् सत्ता इन शब्दों में स्वीकार की थी––

"उत्तर के मुसलमानों की भाषा यानी हिंदुस्तानी उर्दू पश्चिमोत्तर प्रदेश (अब संयुक्त प्रांत) की सरकारी भाषा नियत की गई है। यद्यपि हिंदी भी उर्दू के साथ साथ उसी तरह बनी है जिस तरह वह फारसी के साथ थी। बात यह हैं कि मुसलमान बादशाह सदा से एक हिंदी सेक्रेटरी, जो हिंदी-नवीस कहलाता था और एक फारसी सेक्रेटरी जिसको फारसी-नवीस कहते थे, रखा करते थे, जिसमें उनकी आज्ञाएँ दोनों भाषाओं में लिखी जायें। इस प्रकार अँगरेज सरकार पश्चिमोत्तर-प्रदेश में हिंदी जनता के लाभ के लिये प्रायः सरकारी कानून का नागरी अक्षरों में हिंदी-अनुवाद भी उर्दू कानूनी पुस्तकों के साथ साथ देती है"।

तासी के व्याख्यानों से पता लगता हैं कि उर्दू के अदालती भाषा नियत हो जाने पर कुछ दिन सीधी भाषा और नागरी अक्षरों में कानूनों और सरकारी आज्ञाओं के हिंदी-अनुवाद छपते रहे। जान पड़ता है कि उर्दू के पक्षपातियों का जोर जब बढ़ा तब उनका छपना एकदम बंद हो गया। जैसा कि अभी कह आए हैं, राजा शिवप्रसाद और भारतेंदु के समय तक हिंदी उर्दू का झगड़ा चलता रहा। गार्सा द तासी ने भी फ्रांस में बैठे बैठे इस झगड़े में योग दिया। वे अरबी-फारसी के अभ्यासी और हिंदुस्तानी या उर्दू के अध्यापक थे। उस समय के अधिकांश और यूरोपियनों के समान उनका भी मजहबी संस्कार प्रबल था। यहाँ जब हिंदी-उर्दू का सवाल उठा तब सर सैयद अहमद, जो अँगरेजों से मेल जोल रखने की विद्या में एक ही थे, हिंदी-विरोध में और बल लाने के लिये मजहबी नुसखा भी काम में लाए। अँगरेजों को सुझाया गया कि हिंदी हिंदुओं की जवान हैं जो 'बुतपरस्त' हैं और उर्दू मुसलमानों की जिनके साथ अँगरेजों का मजहबी रिश्ता है––दोनों 'सामी' या पैगंबरी मत को माननेवाले हैं।

जिस गार्सा द तासी ने संवत् १९०९ के आसपास हिंदी और उर्दू दोनों को रहना आवश्यक समझा था और कभी कहा था कि––

"यद्यपि मैं खुद उर्दू का बड़ा भारी पक्षपाती हूँ, लेकिन मेरे विचार में हिंदी को विभाषा था बोली कहना उचित नहीं"।

वही गार्सा द तासी आगे चलकर मजहवी कट्टरपन की प्रेरणा से, सर सैयद अहमद की भरपेट तारीफ करके हिंदी के संबंध में फरमाते हैं–– "इस वक्त हिंदी की हैसियत भी एक बोली (dialect) की सी रह गई है, जो हर गाँव में अलग अलग ढंग से बोली जाती है"।

हिंदी-उर्दू का झगड़ा उठने पर आपने मजहबी रिश्ते के खयाल से उर्दू का पक्ष ग्रहण किया और कहा––

"हिंदी में हिंदू-धर्म का आभास है––वह हिंदू-धर्म जिसके मूल में बुतपरस्ती और उसके आनुषंगिक विधान हैं। इसके विपरीत उर्दू में इसलामी संस्कृति और आचार-व्यवहार का संचय है। इसलाम भी 'सामी' मत है और एकेश्वरवाद उसका मूल सिद्धांत है, इसलिये इसलामी तहजीब में ईसाई या मसीही तहजीब की विशेषताएँ पाई जाती है"।

सवत् १९२७ के अपने व्याख्यान में गार्सा द वासी ने साफ खोलकर कहा––

"मैं सैयद अहमद खाँ जैसे विख्यात मुसलमान विद्वान् की तारीफ में और ज्यादा नहीं कहना चाहता। ऊर्दू, भाषा और मुसलमानों के साथ मेरा जो लगाव है वह कोई छिपी हुई बात नहीं है। मैं समझता हूँ कि मुसलमान, लोग कुरान को तो आसमानी किताब मानते ही हैं, इंजील की शिक्षा को, भी अस्वीकार नहीं करते, पर हिंदू लोग मूर्तिपूजक होने के कारण इंजील की शिक्षा नहीं मानते।"

परंपरा से चली आती हुई देश की भाषा का विरोध-और उर्दू का समर्थन कैसे कैसे भावो की, प्रेरणा से किया जाता रहा है, यह दिखाने के लिये इतना बहुत है। विरोध प्रबल होते हुए भी जैसे देश भर में प्रचलित अक्षरों और वर्णमाला को छोड़ना असंभव था वैसे ही परंपरा से चले आते हुए हिंदी साहित्य को भी। अतः अदालती भाषा उर्दू होते हुए भी शिक्षा-विधान में देश की असली भाषा हिंदी को भी स्थान देना ही पड़ा। काव्य-साहित्य तो प्रचुर परिमाण में भर पहा था। अतः जिस रूप में वह था उसी रूप में उसे लेना ही पड़ा। गद्य की भाषा को लेकर खींचतान आरंभ हुई। इसी खींचतान के समय में राजा लक्ष्मणसिंह और राजा शिवप्रसाद मैदान में आए।

 

  1. देखो पृष्ठ ८०।
  2. अपनी कहानी का आरंभ ही उन्होंने इस ढंग से किया है जैसे लखनऊ के मीर घोड़ा कुदाते हुए महफिल में आते हैं।