हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल/गद्य खंड/प्रकरण २ गद्य-साहित्य का आविर्भाव

 

प्रकरण २

गद्य-साहित्य का आविर्भाव

किस प्रकार हिंदी के नाम से नागरी अक्षरों में उर्दू ही लिखी जाने लगी थी, इसकी चर्चा 'बनारस अखबार' के संबंध में कर आए हैं[]। संवत् १९१३ में अर्थात् बलवे के एक वर्ष पहले राजा शिवप्रसाद शिक्षा-विभाग में इंस्पेक्टर के पद पर नियुक्त हुए। उस समय और दूसरे विभागों के समान शिक्षा-विभाग में भी मुसलमानों का जोर था जिनके मन में 'भाखापन' का डर बराबर समाया रहता था। वे इस बात से डरा करते थे कि कहीं नौकरी के लिये 'भाखा', संस्कृत से लगाव रखनेवाली हिंदी, न सीखनी पड़े। अतः उन्होंने पहले तो उर्दू के अतिरिक्त हिंदी की भी पढ़ाई की व्यवस्था का घोर विरोध किया। उनका कहना था कि जब अदालती कामों में उर्दू ही काम में लाई जाती है तब एक और जवान का बोझ डालने से क्या लाभ? 'भाखा' में हिंदुओं की कथा-वार्ता आदि कहते सुन वे हिंदी को हिंदुओं की मजहबी जबान कहने लगे थे। उनमें से कुछ लोग हिंदी को "गँवारी बोली" भी कहा करते थे। इस परिस्थिति में राजा शिवप्रसाद को हिंदी की रक्षा के लिये बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। हिंदी का सवाल जब आता तब मुसलमान उसे 'मुश्किल जवान' कहकर विरोध करते। अतः राजा साहब के लिये यही संभव दिखाई पड़ा कि जहाँ तक हो सके ठेठ हिंदी का आश्रय लिया जाय जिसमें कुछ फारसी-अरबी के चलते शब्द भी आएँ। उस समय साहित्य के कोर्स के लिये पुस्तकें नहीं थीं। राजा साहब स्वयं तो पुस्तके तैयार करने में लग ही गए, पंडित श्रीलाल और पंडित वंशीधर आदि अपने कई मित्रों को भी उन्होने पुस्तके लिखने में लगाया। राजा साहब ने पाठ्यक्रम के उपयोगी कई कहानियाँ आदि लिखीं––जैसे, राजा भोज का सपना, वीरसिंह का वृत्तांत, आलसियों को कोड़ा, इत्यादि। संवत् १९०९ और १९१९ के बीच शिक्षा-संबंधी अनेक पुस्तके हिंदी में निकलीं जिनमें से कुछ, का उल्लेख किया जाता है––

पं॰ वंशीधर ने, जो आगरा नार्मल स्कूल के मुदर्रिस थे, हिंदी-उर्दू का एक पत्र निकाला था जिसके हिंदी कालम का नाम "भारत खंडामृत" और उर्दू कालम का नाम "आबेहयात" था। उनकी लिखी पुस्तकों के नाम ये हैं––

(१) पुष्पवाटिका (गुलिस्ताँ के एक अंश का अनुवाद, सं॰ १९१९)
(२) भारतवर्षीय इतिहास (सं॰ १९१३)
(३) जीविका-परिपाटी (अर्थशास्त्र की पुस्तक, सं॰ १९१३)
(४) जगत् वृत्तांत (सं॰ १९१५)

पं॰ श्रीलाल ने संवत् १९०९ में 'पत्रमालिका' बनाई। गार्सा द तासी ने इन्हें कई एक पुस्तकों का लेखक कहा है।

बिहारीलाल ने गुलिस्ताँ के आठवें अध्याय का हिंदी-अनुवाद सं॰ १९१९ में किया।

पं॰ बद्रीलाल ने डाक्टर बैलटाइन के परामर्श के अनुसार सं॰ १९१९ में 'हितोपदेश' का अनुवाद किया जिसमें बहुत सी कथाएँ छाँट दी गई थीं। उसी वर्ष 'सिद्धात-संग्रह' (न्याय शास्त्र) और 'उपदेश पुष्पवती' नाम की दो और पुस्तकें निकली थीं।

यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि प्रारंभ में राजा साहब ने जो पुस्तके लिखीं वे बहुत ही चलती सरल हिंदी में थीं; उनमे वह उर्दूपन नहीं भरा था जो उनकी पिछली किताबों (इतिहास-तिमिरनाशक आदि) में दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिये "राजा भोज का सपना" से कुछ अंश उद्धृत किया जाता है––

"वह कौन सा मनुष्य है जिसने महाप्रतापी महाराज भोज का नाम न सुना हो। उसकी महिमा और कीर्ति तो सारे जगत् में व्याप रही है। बड़े बड़े महिपाल उसका नाम सुनते ही काँप उठते और बड़े बड़े भूपति उसके पाँव पर अपना सिर नवाते। सेना उसकी समुद्र के तरगों का नमूना और खजाना उसका
सोने-चाँदी और रत्नों की खान से भी दूना उसके दान ने राजा कर्ण को लोग के जी से भुलाया और उसके न्याय ने विक्रम को भी लजाया ।

अपने “मानवधर्मसार" की भाषा उन्होनें अधिक संस्कृतामिंत रखी है। इसका पता इस उद्धृत अंश से लगेगा-

"मनुस्मृति हिंदुओं का मुख्य धर्मशास्त्र है। उसको कोई भी हिंदू अप्रामाणिक नहीं कह सकता । वेद में लिखा है कि मनुजी ने जो कुछ कहा उसे जीव के लिये औषधि समझना; और वृहस्पति लिखते हैं कि धर्मशास्त्राचार्यों में मनुजी सबसे प्रधान और अति मान्य हैं क्योंकि उन्होंने अपने धर्मशास्त्र में सपूर्ण वेदों का तात्पर्य लिखा है । खेद की बात है कि हमारे देशवासी हिंदू कहला के अपने मानव-धर्मशास्त्र को न जानें और सारे कार्य उसके विरुद्ध करें"।

मानवधर्मसार की भाषा राजा शिवप्रसाद की स्वीकृत भाषा नहीं । प्रारंभकाल से ही वे ऐसी चलती ठेठ हिंदी के पक्षपाती थे जिसमे सर्वसाधारण के बीच प्रचलित अरबी-फारसी शब्दों को भी स्वच्छंद प्रयोग हो । यद्यपि अपने गुटका' में, जो साहित्य की पाठ्य-पुस्तक थी, उन्होंने थोड़ी संस्कृत मिली ठेठ और सरल भाषा का ही आदर्श बनाए रखा, पर संवत् १९१७ के पीछे उनका झुकाव उर्दू की ओर होने लगी जो बराबर बना क्या रहा, कुछ न कुछ बढ़ता ही गया । इसका कारण चाहे जो समझिए । या तो यह कहिए कि अधिकांश शिक्षित लोगों की प्रवृत्ति देखकर उन्होंने ऐसा किया अथवा अँगरेज अधिकारियों का रुख देखकर । अधिकतर लोग शायद पिछले कारण को ही ठीक समझेगे । जो हो, संवत् १९१७ के उपरांत जो इतिहास, भूगोल आदि की पुस्तके राजा साहब ने लिखीं उनकी भाषा बिल्कुल उर्दूपन लिए है । इतिहास-तिमिरनाशक” भाग २ की अँगरेजी भूमिका में, जो सन् १८६४ की लिखी है, राजा साइब ने साफ लिखा है कि मैंने वैताल-पचीसी' की भाषा का अनुकरण किया है..."

'I may be pardoned for sayiñg a few words here to those who always urge the exclusion of Persian words, even those
which have become our household words, from our Hindi books and use in their stead Sanskrit words quite out of place and fashion or those coarso expressions which can be tolerated only among a rustic population X X X I have adopted, to a certain extent, the language of the Baital Pachisi”

लल्लूलाल जी के प्रसंग में यह कहा जा चुका है "बैताल-पचीसी" की भाषा विल्कुल उर्दू है। राजा साहब ने अपने इस उर्दूवाले पिछले सिद्धांत का भाषा का इतिहास” नामक जिस लेख में निरूपण किया है, वही उनकी उस समय की भाषा का एक खास उदाहरण है, अतः उसका कुछ अंश यहाँ दिया जाता है-

हम लोगों को जहाँ तक बन पड़े चुनने में उन शब्दों को लेना चाहिए कि जो श्राम-फहम और खास-पद हों अर्थात् जिनको जियादा आदमी समझ सकते हैं और अ यहाँ के पढे लिखे आलिम 'फाजिल, पंडित, विद्वान् की बोल-चाल में छोड़े नहीं गए हैं। और जहाँ तक बन पड़े हम लोगों को इगिज़ गैर मुल्क के शब्द काम में न जाने चाहि और न संस्कृत की टकसाल कायम करके नए नए ऊपरी शब्दों के सिक्के जारी करने चाहिएँ, जब तक कि इम लोगों को उसके जारी करने की जरूरत न साबित हो जाये अर्थात् यह कि उस अर्थ का कोई शब्द हमारी अमान में नहीं है, या जो है अच्छा नहीं है, या कविताई की जरूरत या इल्मी जरूरत या कोई और खास ज़रूरत साबित हो जाय।”

भाषा-संबंधी जिस सिद्धांत का प्रदिपादन राजा साहब ने किया है उसके अनुकूल उनकी यह भाषा कहाँ तक है, पाठक श्राप समझ सकते हैं। आमफहम’ ‘खास-पसंद’ ‘इल्मी ज़रूरत' जनता के बीच प्रचलित शब्द कदापि नहीं हैं। फारसी के 'आलिम-फाजिल' चाहे ऐसे शब्द बोलते हों पर संस्कृत-हिंदी के पंडित-विद्वान् तो ऐसे शब्दों से कोसों दूर हैं। किसी देश के साहित्य का संबंध उस देश की संस्कृति-परपरा से होता है। अत: साहित्य की भाषा उस संस्कृति का त्याग करके नहीं चल सकती। भाषा में जो रोचकता या शब्दों में जो सौंदर्य का भाव रहता है वह देश की? प्रकृति के अनुसार होता है। इस प्रकृति के निर्माण में जिस प्रकार देश के प्राकृतिक रूप-रंग, आचार-व्यवहार आदि का योग रहता है उसी प्रकार परपरा से चले आते हुए साहित्य का भी। संस्कृत शब्दों के थोड़े बहुत मेल से भाषा का जो रुचिकर साहित्यिक रूप हजारों वर्ष से चला आता था उसके स्थान पर एक विदेशी रूप-रंग की भाषा गले में उतारना देश की प्रकृति के विरुद्ध था। यह प्रकृति-विरुद्ध भाषा खटकी तो बहुत लोगों को होगी, पर असली हिंदी का नमूना लेकर उस समय राजा लक्ष्मणसिंह ही आगे बढ़े। उन्होने संवत् १९१८ में "प्रजाहितैषी" नाम का एक पत्र आगरे से निकाला और १९१९ में "अभिज्ञान-शाकुतल" का अनुवाद बहुत ही सरस और विशुद्ध हिंदी में प्रकाशित किया। इस पुस्तक की बड़ी प्रशंसा हुई और भाषा के संबंध में मानों फिर से आँख खुली। राजा साहब ने उस समय इस प्रकार की भाषा जनता के सामने रखी––

"अनसूया––(हौले प्रियंवदा से) सखी! मैं भी इसी सोच विचार में हूँ। अब इससे कुछ पूछूँगी। (प्रगट) महात्मा! तुम्हारे मधुर वचनों के विश्वास में आकर मेरा जी यह पूछने को चाहता है कि तुम किस राजवंश के भूषण हो और किस देश की प्रजा को विरह में व्याकुल छोड़ यहाँ पधारे हो? क्या कारन है जिससे तुमने अपने कोमल गात को कठिन तपोवन में आकर पीड़ित किया है?"

यह भाषा ठेठ और सरल होते हुए भी साहित्य में चिरकाल से व्यवहृत संस्कृत के कुछ रससिद्ध शब्द लिए हुए है। रघुवंश के गद्यानुवाद के प्राक्कथन में राजा लक्ष्मणसिंहजी ने भाषा के सबंध में अपना मत स्पष्ट शब्दों में प्रकट किया है––

हमारे मत में हिंदी और उर्दू दो बोली न्यारी न्यारी है। हिंदी इस देश के हिंदू बोलते है और उर्दू यहाँ के मुसलमानों और पारसी पढ़े हुए हिंदुओं की बोलचाल है। हिंदी में संस्कृत के पद बहुत आते हैं, उर्दू में अरबी पारसी के। परंतु कुछ अवश्य नही हैं कि अरबी पारसी के शब्दों के बिना हिंदी न बोली जाय और न हम उस भाषा को हिंदी कहते हैं जिसमें अरबी, पारसी के शब्द भरे हों।"

अब भारत की देश-भाषाओं के अध्ययन की ओर इँगलैंड के लोगों का भी ध्यान अच्छी तरह जा चुका था। उनमें जो अध्ययनशील और विवेकी थे, जो अखंड भारतीय साहित्य-परंपरा और भाषा-परम्परा से अभिज्ञ हो गए थे, उनपर अच्छी तरह प्रकट हो गया था कि उत्तरीय भारत की असली स्वाभाविक भाषा का स्वरूप क्या है। ऐसे अँगरेज विद्वानों में फ्रेडरिक पिन्काट का स्मरण हिंदी-प्रेमियों को सदा बनाए रखना चाहिए। इनका जन्म संवत् १८९३ में इँगलैंड में हुआ। उन्होंने प्रेस के कामों का बहुत अच्छा अनुभव प्राप्त किया और अंत में लंडन की प्रसिद्ध ऐलन ऐंड कंपनी (W. H Allen & Co, 13 Waterloo Place, Pall Mall, S. W.) के विशाल छापखाने के मैनेजर हुए। वहीं वे अपने जीवन के अंतिम दिनों के कुछ पहले तक शांतिपूर्वक रहकर भारतीय साहित्य और भारतीय जनहित के लिये सदा उद्योग करते रहे।

संस्कृत की चर्चा पिन्काट साहब लड़कपन से ही सुनते आते थे, इससे उन्होंने बहुत परिश्रम के साथ उसका अध्ययन किया। इसके उपरांत उन्होंने हिंदी और उर्दू का अभ्यास किया। इँगलैंड में बैठे ही उन्होंने इन दोनों भाषाओं पर ऐसा अधिकार प्राप्त कर लिया कि इनमें लेख और पुस्तकें लिखने और अपने प्रेस में छपाने लगे। यद्यपि उन्होंने उर्दू का भी अच्छा अभ्यास किया था, पर उन्हें इस बात का अच्छी तरह निश्चय हो गया था कि यहाँ की परंपरागत प्रकृत भाषा हिंदी है, अतः जीवन भर ये उसी की सेवा और हित-साधना में तत्पर रहे। उनके हिंदी लेखों, कविताओं और पुस्तकों की चर्चा आगे चलकर भारतेंदु-काल के भीतर की जायगी।

संवत् १९४७ में इन्होंने उपर्युक्त ऐलन कंपनी से संबंध तोड़ा और गिलबर्ट ऐंड रिविंगटन (Gilbert and Rivington, Clerkenwell, London) नामक विख्यात व्यवसाय-कार्यालय में पूर्वीय मंत्री (Oriental Adviser and Expert) नियुक्त हुए। उक्त कंपनी की ओर से एक व्यापारी पत्र "आईनः सौदागरी" उर्दू में निकलता था जिसका संपादन पिन्काट साहब करते थे। उन्होंने उसमें कुछ पृष्ठ हिंदी के लिये भी रखें। कहने की आवश्यकता नहीं कि हिंदी के लेख वे ही लिखते थे। लेखों के अतिरिक्त हिंदुस्तान में प्रकाशित होनेवाले हिंदी-समाचारपत्रों (जैसे, हिंदोस्तान, आर्य्यदर्पण, भारतमित्र) से उद्धरण भी उस पत्र के हिंदी विभाग में रहते थे। भारत का हित वे सच्चे हृदय से चाहते थे। राजा लक्ष्मणसिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र, कार्त्तिकप्रसाद खत्री, इत्यादि हिंद-लेखकों से उनका बराबर हिंदी में पत्र-व्यवहार रहता। उस समय के प्रत्येक हिंदी-लेखक के घर में पिन्काट साहब के दो-चार पत्र मिलेंगे। हिंदी के लेखकों और ग्रंथकारों का परिचय इँगलैंड वालों को वहाँ के पत्रों में लेख लिखकर वे बराबर दिया करते थे। संवत् १९५७ (नवंबर सन् १८९५) में वे रीआ घास (जिसके रेशों से अच्छे कपड़े बनते थे) की खेती का प्रचार करने हिंदुस्तान में आए, पर साल भरसे कुछ उपर ही यहाँ रह पाए थे कि लखनऊ में उनका देहांत (७ फरवरी १८९६) हो गया। उनका शरीर भारत की मिट्टी में ही मिला है।

संवत् १९१९ में जब राजा लक्ष्मणसिंह ने 'शकुंतला-नाटक' लिखा तब उसकी भाषा देख वे बहुत ही प्रसन्न हुए और उसका एक बहुत सुंदर परिचय उन्होंने लिखा। बात यह थी कि यहाँ के निवासियों पर विदेशी प्रकृति और रूप-रंग की भाषा का लादा जाना वे बहुत अनुचित समझते थे। अपना यह विचार उन्होंने अपने उस अंगरेजी लेख में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है जो उन्होंने बा॰ अयोध्याप्रसाद खत्री के "खड़ी बोली का पद्य" की भूमिका के रूप में लिखा था। देखिए, उसमें वे क्या कहते हैं––

"फारसी-मिश्रित हिंदी (अर्थात् उर्दू या हिंदुस्तानी) के अदालती भाषा बनाए जाने के कारण उसकी बड़ी उन्नति हुई। इससे साहित्य की एक नई भाषा ही खड़ी हो गई। पश्चिमोत्तर प्रदेश के निवासी, जिनकी यह भाषा कही जाती है, इसे एक विदेशी भाषा की तरह स्कूलों में सीखने के लिए विवश किए जाते हैं।"

पहले कहा जा चुका है कि राजा शिवप्रसाद ने उर्दू की ओर झुकाव हो जाने पर भी साहित्य की पाठ्यपुस्तक "गुटका" में भाषा का आदर्श हिंदी ही रखा। उक्त गुटका में उन्होंने "राजा भोज का सपना", "रानी केतकी की कहानी" के साथ ही साथ राजा लक्ष्मणसिंह के "शकुंतला नाटक" का भी बहुत सा अंश रखा। पहला गुटका शायद संवत् १९२४ में प्रकाशित हुआ था।

संवत् १९१९ और १९४२ के बीच कई संवादपत्र हिंदी में निकले "प्रजा हितैषी" का उल्लेख हो चुका है। संवत् १९२० में 'लोकमित्र' नाम का एक पत्र ईसाई धर्म प्रचार के लिये आगरे (सिकंदरे) से निकलता था जिसकी भाषा शुद्ध हिंदी होती थी। लखनऊ से जो "अवध अखबार" (उर्दू) निकलने लगा था उसके कुछ भाग में हिंदी के लेख भी रहते थे।

जिस प्रकार इधर संयुक्त प्रांत में राजा शिवप्रसाद शिक्षा-विभाग में रहकर हिंदी की किसी न किसी रूप में रक्षा कर रहे थे उसी प्रकार पंजाब में बाबू नवीनचंद्र राय महाशय कर रहे थे। संवत् १९२० और १९३७ के बीच नवीन बाबू ने भिन्न भिन्न विषयों की बहुत सी हिंदी पुस्तके तैयार कीं और दूसरों से तैयार कराईं। ये पुस्तकें बहुत दिनों तक वहाँ कोर्स में रही। पंजाब में स्त्री-शिक्षा का प्रचार करनेवालों में ये मुख्य थे। शिक्षा-प्रचार के साथ साथ समाज-सुधार आदि के उद्योग में भी ये बराबर रहा करते थे। ईसाइयों के प्रभाव को रोकने के लिये किस प्रकार बंगाल में ब्रह्म समाज की स्थापना हुई थी और राजा राममोहन राय ने हिंदी के द्वारा भी उसके प्रचार की व्यवस्था की थी, इसका उल्लेख पहले हो चुका है[]। नवीनचंद्र ने ब्रह्म-समाज के सिद्धांतों के प्रचार के उद्देश्य से समय समय पर कई पत्रिकाएँ भी निकालीं। संवत् १९२४ (मार्च सन् १८६७) मे उनकी 'ज्ञानप्रदायनी पत्रिका' निकली जिसमें शिक्षा-संबधी तथा साधारण ज्ञान-विज्ञानपूर्ण लेख भी रहा करते थे। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि शिक्षा-विभाग द्वारा जिस हिंदी गद्य के प्रचार में ये सहायक हुए वह शुद्ध हिंदी-गद्य था। हिंदी को उर्दू के झमेले में पड़ने से ये सदा बचाते रहे।

हिंदी की रक्षा के लिये उर्दू के पक्षपातियों से इन्हे उसी प्रकार लड़ना पड़ता था जिस प्रकार यहाँ राजा शिवप्रसाद को। विद्या की उन्नति के लिये लाहौर में 'अंजुमन लाहौर' नाम की एक सभा स्थापित थी। संवत् १९२३ के उसके एक अधिवेशन में किसी सैयद हादी हुसैन खाँ ने एक व्याख्यान देकर उर्दू को ही देश में प्रचलित होने के योग्य कहा। उस सभा की दूसरी बैठक में नवीन बाबू ने खाँ साइब के व्याख्यान का पूरा खंडन करते हुए कहा––

"उर्दू के प्रचलित होने से देशवासियों को कोई लाभ न होगा क्योंकि वह भाषा खास मुसलमानों की है। उसमें मुसलमानों ने व्यर्थ बहुत से अरबी-फारसी के शब्द भर दिए हैं। पद्य या छंदोबद्ध रचना के भी उर्दू उपयुक्त नहीं। हिंदुओं का यह कर्तव्य है कि वे अपनी परंपरागत भाषा की उन्नति करते चलें। उर्दू में आशिकी कविता के अतिरिक्त किसी गंभीर विषय को व्यक्त करने की शक्ति ही नहीं है।"

नवीन बाबू के इस व्याख्यान की खबर पाकर इसलामी तहजीब के पुराने हामी, हिंदी के पक्के दुश्मन गार्सा द तासी फ्रांस में बैठे बैठे बहुत झल्लाए और अपने एक प्रवचन में उन्होंने बड़े जोश के साथ हिंदी का विरोध और उर्दू का पक्ष-मंडन किया तथा नवीन बाबू को कट्टर हिंदू कहा। अब यह फरासीसी हिंदी से इतना चिढ़ने लगा था कि उसके मूल पर ही उसने कुठार चलाना चाहा। और बीम्स साहब (M. Beames) का हवाला देते हुए कहा कि हिंदी तो एक तूरानी भाषा थी जो संस्कृत से बहुत पहले प्रचलित थी; आर्यो ने आकर उसका नाश किया, और जो बचे-खुचे शब्द रह गए उनकी व्युत्पत्ति भी संस्कृत से सिद्ध करने का रास्ता निकाला। इसी प्रकार जब जहाँ कहीं हिंदी का नाम लिया जाता तब तासी बड़े बुरे ढंग से विरोध में कुछ न कुछ इसी तरह की बातें कहता।

सर सैयद अहमद का अँगरेज अधिकारियों पर कितना प्रभाव था, यह पहले कहा जा चुका है। संवत् १९२५ में इस प्रात के शिक्षा विभाग के अध्यक्ष हैवेल (M. S Havell) साहब ने अपनी यह राय जाहिर की––

"यह अधिक अच्छा होता यदि हिंदू बच्चों को उर्दू सिखाई जाती न कि एक ऐसी 'बोली' में विचार प्रकट करने का अभ्यास कराया जाता जिसे अंत में एक दिन उर्दू के सामने सिर झुकाना पड़ेगा।"

इस राय को गार्सा द तासी ने बड़ी खुशी के साथ अपने प्रवचन में शामिल किया। इसी प्रकार इलाहाबाद इस्टिट्यूट (Allahabad Institute) के एक अधिवेशन में (संवत् १९२५) जब यह विवाद हुआ था कि 'देसी जबान' हिंदी को माने या उर्दू को, तब हिंदी के पक्ष में कई वक्ता उठकर बोले थे। उन्होंने कहा था कि अदालतों में उर्दू जारी होने का यह फल हुआ है कि अधिकाश जनता––विशेषत गाँवों की––जो उर्दू से सर्वथा अपरिचित है, बहुत कष्ट उठाती है, इससे हिंदी का जारी होना बहुत आवश्यक है। बोलनेवालों में से किसी किसी ने कहा कि केवल अक्षर नागरी के रहें और कुछ लोगों ने कहा कि भाषा भी बदलकर सीधी सादी की जाय। इस पर भी गार्सा द तासी ने हिंदी के पक्ष में बोलनेवालों का उपहास किया था।

उसी काल में इंडियन डेली न्यूज (Indian Daily News) के एक लेख में हिंदी प्रचलित किए जाने की आवश्यकता दिखाई गई थी। उसका भी जवाब देने तासी साहब खड़े हुए थे। 'अवध अखबार' में जब एक बार हिंदी के पक्ष में लेख छपा था तब भी उन्होंने उसके संपादक की राय का जिक्र करते हुए हिंदी को एक 'भद्दी बोली' कहा था जिसके अक्षर भी देखने में सुडौल नहीं लगते।

शिक्षा के आंदोलन के साथ ही साथ ईसाई मत का प्रचार रोकने के लिये मत-मतातर संबंधी आदोलन देश के पच्छिमी भागों में भी चल पड़े। पैगंबरी एकेश्वरवाद की ओर नवशिक्षित लोगों को खिंचते देख स्वामी दयानंद सरस्वती वैदिक एकेश्वरवाद लेकर खड़े हुए और संवत् १९२० से उन्होंने अनेक नगरों में घूम घूमकर व्याख्यान देना आरंभ किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये व्याख्यान देश में बहुत दूर तक प्रचलित साधु हिंदी भाषा में ही होते थे। स्वामी जी ने अपना 'सत्यार्थ प्रकाश' तो हिंदी या आर्य-भाषा में प्रकाशित ही किया, वेदों के भाष्य भी संस्कृत और हिंदी दोनों में किए। स्वामी जी के अनुयायी हिंदी को "आर्यभाषा" कहते थे। स्वामी जी ने संवत् १९३२ में आर्यसमाज की स्थापना की और सब आर्यसमाजियों के लिये हिंदी या आर्यभाषा का पढ़ना आवश्यक ठहराया। युक्त प्रांत के पश्चिमी जिलों और पंजाब में आर्य-समाज के प्रभाव से हिंदी-गद्य का प्रचार बड़ी तेजी से हुआ। पंजाबी बोली में लिखित साहित्य न होने से और मुसलमानों के बहुत अधिक संपर्क से पंजाबवालों की लिखने-पढ़ने की भाषा उर्दू हो रही थी। आज जो पंजाब में हिंदी की पूरी चर्चा सुनाई देती है, इन्हीं की बदौलत है।

संवत् १९१० के लगभग ही विलक्षण प्रतिभाशाली विद्वान् पंडित श्रद्धाराम फुल्लौरी के व्याख्यानों और कथाओं की धूम पंजाब में आरंभ हुई। जलंधर के पादरी गोकुलनाथ के व्याख्यानों के प्रभाव से कपूरथला-नरेश महाराज रणधीरसिंह ईसाई मत की ओर झुक रहे थे। पंडित श्रद्धानंद जी तुरंत संवत् १९२० में कपूरथले पहुँचे और उन्होंने महाराज के सब साशयों का समाधान करके प्राचीन वर्णाश्रमधर्म का ऐसा सुंदर निरूपण किया कि सब लोग मुग्ध हो गए। पंजाब के सब छोटे-बड़े स्थानों में धूमकर पंडित श्रद्धाराम जी उपदेश और वक्तृताएँ देते तथा रामायण, महाभारत आदि की कथाएँ सुनाते। उनकी कथाएँ सुनने के लिये बहुत दूर दूर से लोग आते और सहसों आदमियों की भीड़ लगती थी। उनकी वाणी में अद्भुत आकर्षण था और उनकी भाषा बहुत जोरदार होती थी। स्थान स्थान पर उन्होंने धर्मसभाएँ स्थापित कीं और उपदेशक तैयार किए। उन्होंने पंजाबी और उर्दू में भी कुछ पुस्तकें लिखी हैं, पर अपनी मुख्य पुस्तकें हिंदी में ही लिखी हैं। अपना सिद्धांत-ग्रंथ "सत्यामृत प्रवाह" उन्होंने बड़ी प्रौढ़-भाषा में लिखा है। वे बड़े ही स्वतंत्र विचार के मनुष्य थे और वेद-शास्त्र के यथार्थ अभिप्राय को किसी उद्देश्य से छिपाना अनुचित समझते थे। इसी से स्वामी दयानंद की बहुत सी बातों का विरोध वे बराबर करते रहे। यद्यपि वे बहुत सी ऐसी बातें कह और लिख जाते थे जो कट्टर अंधविश्वासियों को खटक जाती थीं और कुछ लोग उन्हें नास्तिक तक कह देते थे पर जब तक वे जीवित रहे, सारे पंजाब के हिंदू उन्हें धर्म का स्तंभ समझते रहे।

पंडित श्रद्धारामजी कुछ पद्यरचना भी करते थे। हिंदी गद्य में तो उन्होंने बहुत कुछ लिखा और वे हिंदी भाषा के प्रचार में बराबर लगे रहे। संवत् १९२८ में उन्होने "आत्म-चिकित्सा" नाम की एक अध्यात्म संबंधी पुस्तक लिखी जिसे संवत् १९२८ में हिंदी में अनुवाद करके छपाया। इसके पीछे 'तत्वदीपक', 'धर्मरक्षा', 'उपदेश-संग्रह (व्याख्यानों का संग्रह)', 'शतोपदेश' (दोहे) इत्यादि धर्म संबंधी पुस्तकों के अतिरिक्त उन्होंने अपना एक बड़ा जीवनचरित (१४०० पृष्ठ के लगभग) लिखा था जो कहीं खो गया। "भाग्यवती" नाम का एक सामाजिक उपन्यास भी संवत् १९३४ में उन्होंने लिखा, जिसकी बड़ी प्रशंसा हुई।

अपने समय के वे एक सच्चे हिंदी-हितैषी और सिद्धहस्त लेखक थे। संवत् १९३८ में उनकी मृत्यु हुई। जिस दिन उनका देहांत हुआ। उस दिन उनके मुँह से सहसा निकला कि "भारत में भाषा के लेखक दो हैं––एक काशी में, दूसरा पंजाब में परंतु आज एक ही रह जायगा।" कहने की आवश्यकता नहीं कि काशी के लेखक से अभिप्राय हरिश्चद्र से था।

राजा शिवप्रसाद "आम पसंद" और "खास पसंद" भाषा का उपदेश ही देते रहे, उधर हिंदी अपना रूप आप स्थिर कर चली। इस बात में धार्मिक और सामाजिक आंदोलनों ने भी बहुत कुछ सहायता पहुँचाई। हिंदी गद्य की भाषा किस दिशा की ओर स्वभावतः जीना चाहती है, इसकी सूचना तो काल अच्छी तरह दे रहा था। सारी भारतीय भाषाओं को चरित्र चिरकाल से संस्कृत की परिचित और भावपूर्ण पदावली का आश्रय लेता चला आ रहा था। अतः गद्य के नवीन विकास में उस पदावली का त्याग और किसी विदेशी पदावली का सहसा ग्रहण कैसे हो सकता था? जब कि बँगला, मराठी आदि अन्य देशी भाषाओं का गद्य परंपरागत संस्कृत पदावली का आश्रय लेता हुआ चल पड़ा था तब हिंदी-गद्य उर्दू के झमेले में पड़कर कब तक रुका रहता? सामान्य संबंध-सूत्र को त्यागकर दूसरी देश-भाषाओं से अपना नाता हिंदी कैसे तोड़ सकती थी? उनकी सगी बहन होकर एक अजनबी के रूप में उनके साथ वह कैसे चल सकती थी? जब कि यूनानी और लैटिन के शब्द योरप की भिन्न भिन्न मूलों से निकली हुई देश-भाषाओं के बीच एक प्रकार का साहित्यिक संबंध बनाए हुए हैं तब एक ही मूल से निकली हुई आर्य-भाषाओं के बीच उस मूल-भाषा के साहित्यिक शब्दों की परंपरा यदि संबंध-सूत्र के रूप में चली आ रही हैं तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है?

कुछ अँगरेज विद्वान् संस्कृतगर्भित हिंदी की हँसी उड़ाने के लिये किसी अँगरेजी वाक्य में उसी मात्रा में लैटिन के शब्द भरकर पेश करते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि अँगरेजी का लैटिन के साथ मूल संबंध नहीं है; पर हिंदी, बँगला, मराठी, गुजराती आदि भाषाएँ संस्कृत के ही कुटुंब की हैं––उसी के प्राकृतिक रूपों से निकली हैं। इन आर्यभाषाओं का संस्कृत के साथ बहुत धनिष्ट संबंध है। इन भाषाओं के साहित्य की परंपरा को भी संस्कृत-साहित्य की परंपरा का विस्तार कह सकते हैं। देशभाषा के साहित्य को उत्तराधिकार में जिस प्रकार संस्कृत साहित्य के कुछ संचित शब्द मिले हैं उसी प्रकार विचार और भावनाएँ भी मिली हैं। विचार और वाणी की धारा से हिंदी अपने को विच्छिन कैसे कर सकती थी?

राजा लक्ष्मणसिंह के समय में ही हिंदी गद्य की भाषा अपने भावी रूप का आभास दे चुकी थी। अब आवश्यकता ऐसे शक्तिसपन्न लेखको की थी जो अपनी प्रतिभा और उद्भावना के बल से उसे सुव्यवस्थित और परिमार्जित करते और उसमें ऐसे साहित्य का विधान करते जो शिक्षित जनता की रुचि के अनुकूल होता। ठीक इसी परिस्थिति में भारतेंदु का उदय हुआ।

 

आधुनिक गद्य-साहित्य-परंपरा का प्रवर्त्तन

प्रथम उत्थान

( संवत् १९२५–१९५० )

सामान्य परिचय

भारतेंदु हरिश्चंद्र का प्रभाव भाषा और साहित्य दोनों पर बड़ा गहरा पड़ा। उन्होंने जिस प्रकार गद्य की भाषा को परिमार्जित करके उसे बहुत ही चलता मधुर और स्वच्छ रूप दिया, उसी प्रकार हिंदी-साहित्य को भी नए मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया। उनके भाषा-संस्कार की महत्ता को सब लोगों ने मुक्त कंठ से स्वीकार किया और वे वर्तमान हिंदी गद्य के प्रवर्त्तक माने गए। मुंशी सदासुख की भाषा साधु होते हुए भी पंडिताऊपन लिए थी, लल्लूलाल में ब्रजभाषापन और सदल मिश्र में पूरबीपन था। राजा शिवप्रसाद का उर्दूपन शब्दों तक ही परिमित न था, वाक्यविन्यास तक में घुसा था। राजा लक्ष्मणसिंह की भाषा विशुद्ध और मधुर तो अवश्य थी, पर आगरे की बोल-चाल का पुट उसमे कम न था। भाषा का निखरा हुआ शिष्ट-सामान्य रूप भारतेंदु की कला के साथ ही प्रकट हुआ। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पद्य की ब्रज-भाषा का भी बहुत कुछ संस्कार किया। पुराने पड़े हुए शब्दों को हटाकर काव्य-भाषा में भी वे बहुत कुछ चलतापन और सफाई लाए।

इससे भी बड़ा काम उन्होंने यह किया कि साहित्य को नवीन मार्ग दिखाया और उसे वे शिक्षित जनता के साहचर्य में लाए। नई शिक्षा के प्रभाव से लोगों की विचारधारा बदल चली थी। उनके मन में देश-हित, समाज-हित आदि की नई उमंगें उत्पन्न हो रही थी। काल की गति के साथ उनके भाव और विचार तो बहुत आगे बढ़ गए थे, पर साहित्य पीछे ही पड़ा था। भक्ति, शृंगार आदि की पुराने ढंग की कविताएँ ही होती चली आ रही थीं। बीच-बीच में कुछ शिक्षा सम्बन्धी पुस्तकें अवश्य निकल जाती थीं पर देशकाल के अनुकूल साहित्य-निर्माण का कोई विस्तृत प्रयत्न तब तक नहीं हुआ था। बंग देश में नए ढंग के नाटकों और उपन्यासों का सूत्रपात हो चुका था जिनमें देश और समाज की नई रुचि और भावना का प्रतिबिंब आने लगा था। पर हिंदी-साहित्य अपने पुराने रास्ते पर ही पड़ा था। भारतेंदु ने उस साहित्य को दूसरी ओर मोड़कर हमारे जीवन के साथ फिर से लगा दिया। इस प्रकार हमारे जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद पड़ रहा था उसे उन्होंने दूर किया। हमारे साहित्य को नए नए विषयों की ओर प्रवृत्त करनेवाले हरिश्चंद्र ही हुए।

उर्दू के कारण अब तक हिंदी-गद्य की भाषा का स्वरूप ही झंझट में पड़ा था। राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मणसिंह ने जो कुछ गद्य लिखा था वह एक प्रकार से प्रस्ताव के रूप में था। जब भारतेंदु अपनी मँजी हुई परिष्कृत भाषा सामने लाए तब हिंदी बोलनेवाली जनता को गद्य के लिये खड़ी बोली का प्रकृत साहित्यक रूप मिल गया और भाषा के स्वरूप का प्रश्न न रह गया। प्रस्ताव-काल समाप्त हुआ और भाषा का स्वरूप स्थिर हुआ।

भाषा का स्वरूप स्थिर हो जाने पर साहित्य की रचना कुछ परिमाण में हो लेती है तभी शैलियों का भेद, लेखकों की व्यक्तिगत विशेषताएँ आदि लक्षित होती है। भारतेंदु के प्रभाव से उनके अल्प जीवन-काल के बीच ही लेखकों का एक खासा मंडल तैयार हो गया जिसके भीतर पं॰ प्रतापनारायण मिश्र, उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी, ठाकुर जगमोहनसिंह, पं॰ बालकृष्ण भट्ट मुख्य रूप से गिने जा सकते है। इन लेखकों की शैलियों में व्यक्तिगत विभिन्नता स्पष्ट लक्षित हुई। भारतेंदु में ही हम दो प्रकार की शैलियों का व्यवहार पाते हैं। उनकी भावावेश की शैली दूसरी हैं और तथ्य-निरूपण की दूसरी। भावावेश के कथनों में वाक्य प्रायः बहुत छोटे छोटे होते हैं और पदावली सरल बोलचाल की होती है जिसमें बहुत प्रचलित अरबी-फारसी के शब्द भी कभी, पर बहुत कम, आ जाते हैं। जहाँ किसी ऐसे प्रकृतिस्थ भाव की व्यंजना होती है जो चिंतन का अवकाश भी बीच-बीच में छोड़ता है, वहाँ की, भाषा, कुछ अधिक, साधु और गंभीर होती है; वाक्य भी कुछ लंबे होते है, पर उनका अन्वय जटिल नहीं होता। तथ्य-निरूपण या सिद्धांत कथन के भीतर संस्कृत शब्दो का कुछ अधिक मेल दिखाई पड़ता है। एक बात विशेष रूप से ध्यान देने की है। वस्तु-वर्णन में विषयानुकूल मधुर या कठोर वर्णवाले संस्कृत शब्दों की योजना की, जो प्रायः समस्त और सानुप्रास होती है, चाल सी चली आई हैं। भारत में यह प्रवृत्ति हम सामान्यतः नहीं पाते।

पं॰ प्रतापनारायण मिश्र की प्रकृति विनोदशील थी अतः उनकी भाषा बहुत ही स्वछंद गति से बोलचाल की चपलता और भावभगी लिए चलती है। हास्य-विनोद की उमंग में वह कभी कभी मर्यादा का अतिक्रमण करती, पूरबी कहावतों और, मुहावरों की बौछार भी छोड़ती चलती है। उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' के लेखो से गद्य-काव्य के पुराने ढंग की झलक, रंगीन इबारत की चमक-दमक बहुत कुछ मिलती है। बहुत से वाक्य-खंड़ो की लड़ियो से गुथे हुए उनके वाक्य अत्यंत लंबे होते थे––इतने लंबे कि उनका अन्वय कठिन होता था। पद-विन्यास में, तथा कहीं कहीं वाक्यो के बीच विरामस्थलों पर भी, अनुप्रास देख इशा और लल्लूलाल का स्मारण होता है। इस दृष्टि से देखें तो 'प्रेमघन' में पुरानी परंपरा का निर्वाह अधिक दिखाई पडता है।

पं॰ बालकृष्ण भट्ट की भाषा अधिकतर, वैसी होती थी जैसी खरी खरी सुनाने में काम में लाई जाती है। जिन लेखों में उनकी चिड़चिड़ाहट झलकती है वे विशेष मनोरंजक है। नूतन और पुरातन का वह संघर्ष-काल था इससे भट्ट जी को चिढ़ने की पर्याप्त सामग्री मिल जाया करती थी। समय के प्रतिकूल बद्धमूल विचारों को उखाड़ने और परिस्थिति के अनुकूल नए विचारों को जमने। में उनकी लेखनी सदी तत्पर रहतीं थी।' भाषा उनकी चरपरी, तीखी और चमत्कारपूर्ण होती थी।

ठाकुर जगमोहनसिंह की शैली शब्द-शोधन और अनुप्रास की प्रवृत्ति के कारण चौधरी बदरीनारायण की शैली से मिलती जुलती है पर उसमें लंबे लंबे वाक्यों की जटिलता नहीं पाई जाती। इसके अतिरिक्त उनकी भाषा में जीवन की मधुर भारतीय रंग-स्थलियो को मार्मिक ढंग से हृदय में जमानेवाले प्यारे शब्दों का चयन अपनी अलग विशेषता रखता है।

हरिश्चंद्र-काल के सब लेखकों में अपनी भाषा की प्रकृति की पूरी परख थी। संस्कृत के ऐसे शब्दों और रूपों का व्यवहार वे करते थे जो शिष्ट समाज के बीच प्रचलित चले आते है। जिन शब्दों या उनके जिन रूप से केवल संस्कृताभ्यासी ही परिचित होते हैं और जो भाषा के प्रवाह के साथ ठीक चलते नहीं, उनका प्रयोग वे बहुत औचट में पड़कर ही करते थे। उनकी लिखावट में न 'उड्डीयमान' और 'अवसाद' ऐसे शब्द मिलते है, 'औदार्य्य', 'सौकर्य्य' और 'मौर्ख्य' ऐसे रूप।

भारतेंदु के समय में ही देश के कोने कोने में हिंदी-लेखक तैयार हुए जो उनके निधन के उपरांत भी बराबर साहित्य-सेवा में लगे रहा। अपने अपने विषय-क्षेत्र के अनुकूल रूप हिंदी को देने में सबका हाथ रहा। धर्म-संबंधी विषयों पर लिखनेवालों (जैसे, पं॰ अंबिकादत्त व्यास) ने शास्त्रीय विषयों को व्यक्त करने में, संवादपत्रों ने राजनीतिक बातों को सफाई के साथ सामने रखने में हिंदी को लगाया। सारांश यह कि उस काल में हिंदी का शुद्ध साहित्योपयोगी रूप ही नही, व्यवहारोपयोगी रूप भी निखरा।

यहाँ तक तो भाषा और शैली की बात हुई। अब लेखकों का दृष्टि-क्षेत्र और उनका मानसिक अवस्थान ली लिजिए। हरिश्चंद्र तथा उनके सम-सामयिक लेखको में जो एक सामान्य गुण लक्षित होता है, वह है सजीवता या जिदःदिली। सब में हास्य या विनोद की मात्रा थोड़ी या बहुत पाई जाती है। राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मणसिंह भाषा पर अधिकार रखनेवाले पर झंझटों से दवे हुए स्थिर प्रकृति के लेखक थे। उनमें वह चपलता, स्वच्छंदता और उमंग
नहीं पाई जाती जो हरिश्चंद्रमंडल के लेखकों में दिखाई पड़ती है। शिक्षित, समाज में संचरित भावो को भारतेंदु के सहयोगियों ने बड़े अनुरंजनकारी रूप में ग्रहण किया।

सबसे बड़ी बात स्मरण रखने की यह है कि उन पुराने लेखकों के हृदय का मार्मिक संबंध भारतीय जीवन के विविध रूपों के साथ पूरा पूरा बना था। भिन्न भिन्न ऋतुओं में पड़नेवाले त्योहार उनके मन में उमगउठाते थे, परंपरा से चले आते-हुए आमोद प्रमोद के मेले उनमें कुतूहल जगाते और प्रफुल्लता लाते थे। आजकल के समान उनका जीवन देश के सामान्य जीवन से विच्छिन्न न था। विदेशी अंधड़ों ने उनकी आँखों में इतनी धूल नहीं झोंकी थी कि अपने देश का रूप रंग उन्हें सुझाई ही न पड़ता। काल की गति वे-देखते थे, सुधार के मार्ग भी उन्हें सूझते थे, पर पश्चिम की एक एक बात के अभिनय को ही वे उन्नति का पर्याय नहीं समझते थे। प्राचीन और नवीन के सधि-स्थल पर खड़े होकर वे दोनों का जोड़ इस प्रकार मिलाना चाहते थे कि नवीन प्राचीन का प्रवर्द्धित रूप-प्रतीत हो, न कि ऊपर से लपेटी हुई वस्तु।

विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गद्य-परंपरा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ। भारतेंदु के पहले 'नाटक' के नाम से जो दो चार ग्रंथ ब्रजभाषा में लिखे गए थे उनमें महाराज विश्वनाथसिंह के 'आनंदरधुनदन नाटक' को छोड़ और किसी में नाटकत्व न था, हरिश्चंद्र ने सबसे पहले 'विद्यासुंदर नाटक' का बँगला से सुंदर हिंदी में अंनुवाद करके संवत् १९२५ में प्रकाशित किया। उसके पहले वे 'प्रवास नाटक' लिख रहे थे, पर वह पूरा न हुआ। उन्होंने आगे चल कर भी अधिकतर नाटक ही लिखे। पं० प्रतापनारायण और बदरीनारायण चौधरी ने भी उन्हीं का अनुसरण किया।

खेद के साथ कहना पड़ता है कि भारतेंदु के समय में धूम से चली हुई नाटकों की यह परंपरा आगे चलकर बहुत शिथिल पड़ गई। बा० रामकृष्ण वर्मा बंगभाषा के नाटकों का-जैसे वीर नारी, पद्मावती, कृष्णकुमारी--अनु-वाद करके नाटकों का सिलसिला कुछ चलाते रहे। इस उदासीनता का कारण उपन्यासों की ओर दिन दिन बढ़ती हुई रुचि के अतिरिक्त अभिनयशालाओं का अभाव भी कहा जा सकता है। अभिनय द्वारा नाटकों की ओर रुचि बढ़ती है और उनका अच्छा प्रचार होता है। नाटक दृश्य काव्य है। उनका बहुत कुछ आकर्षण अभिनय पर अवलंबित रहता है। उस समय नाटक खेलनेवाली व्यवसायी पारसी कंपनियाँ थीं। वे उर्दू छोड़ हिंदी नाटक खेलने को तैयार न थीं। ऐसी दशा में नाटकों की ओर हिदी-प्रेमियों का उत्साह कैसे रह सकता था?

भारतेंदुजी, प्रतापनारायण मिश्र, बदरीनारायण चौधरी उद्योग करके अभिनय का प्रबंध किया करते थे और कभी कभी स्वयं भी पार्ट लेते थे। पं॰ शीतलाप्रसाद त्रिपाठी कृत 'जानकी मंगल नाटक' का जो धूमधाम से अभिनय हुआ था उसमें भारतेंदुजी ने पार्ट लिया था। यह अभिनय देखने काशीनरेश महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह भी पधारे थे और इसका विवरण ८ मई १८६८ के इंडियन मेल (Indian Mail) में प्रकाशित हुआ था। प्रतापनारायण मिश्र को अपने पिता से अभिनय के लिये मूँछ मुँड़ाने की आज्ञा माँगना प्रसिद्ध ही है।

'काश्मीरकुसुम' (राजतरंगिणी का कुछ अंश ) और 'बादशाहदर्पण' लिखकर इतिहास की पुस्तकों की ओर और जयदेव का जीवनवृत्त लिखकर जीवनचरित की पुस्तकों की ओर भी हरिश्चंद्र ध्यान ले गए पर उस समय इन विषयों को ओर लेखकों की प्रवृत्ति न दिखाई पड़ी।

पुस्तक-रचना के अतिरिक्त पत्रिकाओं में प्रकाशित अनेक प्रकार के फुटकल लेख और निबंध अनेक विषयों पर मिलते हैं, जैसे, राजनीति, समाजदशा, देश-दशा, ऋतुछटा, पर्व-त्योहार, जीवनचरित, ऐतिहासिक प्रसंग, जगत् और जीवन से संबंध रखनेवाले सामान्य विषय (जैसे आत्म-निर्भरता, मनोयोग, कल्पना)। लेखों और निबंधों की अनेकरूपता को देखते उनका वर्गीकरण किया जा सकता है। समाजदशा और देशदशा-संबधी लेख कुछ विचारात्मक पर अधिकांश में भावात्मक मिलेंगे। जीवनचरित और ऐतिहासिक प्रसंगों में इतिवृत्त के साथ भाव-व्यजना भी गुंफित पाई जायगी। ऋतु-छटा और पर्व-त्योहारों पर अलंकृत भाषा में वर्णनात्मक प्रबंध सामने आते हैं। जगत् और जीवन से संबंध रखने-वाले सामान्य विषयों के निरूपण में विरल विचार-खंड कुछ उक्ति-वैचित्र्य के साथ
बिखरे मिलेंगे। पर शैली की व्यक्तिगत विशेषताएँ थोड़ी बहुत सब, लेखकों में पाई जायँगी।

जैसा कि कहा जा चुका है हास्य-विनोद की प्रवृत्ति इस काल के प्रायः सब लेखको में थी। प्राचीन और नवीन के संघर्ष के कारण उन्हे हास्य के आलं-बन दोनो पक्षों में मिलते थे। जिस प्रकार बात बात में बाप-दादों की दुहाई देनेवाले, धर्म आडम्बर की आड़ मे दुराचार छिपानेवाले पुराने खूसट उनके विनोद के लक्ष्य थे, उसी प्रकार पच्छिमी चाल-ढाल की ओर मुंह के बल गिरने-वाले फैशन के गुलाम भी।

नाटकों और निबंधो की ओर विशेष झुकाव रहने पर भी बंगभाषा की देखा-देखी नए ढंग के उपन्यासों की ओर भी ध्यान जा चुका था। अँगरेजी ढंग का मौलिक उपन्यास पहले-पहल हिंदी में लाला श्रीनिवासदास का 'परीक्षा-गुरु' ही निकला था। उसके पीछे बा० राधाकृष्णदास ने 'निस्सहाय हिंदू' और पं० बालकृष्ण भट्ट ने 'नूतन ब्रह्मचारी' तथा 'सौ अजान और एक सुजान' नामक छोटे छोटे उपन्यास लिखे| उस समय तक बंगभाषा में बहुत से अच्छे उपन्यास निकल चुके थे। अतः साहित्य के इस विभाग की शून्यता शीघ्र हटाने के लिये उनके अनुवाद आवश्यक प्रतीत हुए। हरिश्चंद्र ने ही अपने पिछले जीवन में बंगभाषा के उपन्यास के अनुवाद में हाथ लगाया था, पर पूरा न कर सके थे| पर उनके समय में ही प्रतापनारायण मिश्र और राधाचरण गोस्वामी ने कई उपन्यासों के अनुवाद किए। तदनंतर बा० गदाधरसिंह ने बग-विजेता और दुर्गेशनंदिनी का अनुवाद किया। संस्कृत की कादबरी की कथा भी उन्होंने बँगला के आधार पर लिखी। पीछे तो बा० राधाकृष्णदास, बा० कार्तिकप्रसाद खत्री, बा० रामकृण वर्मा आदि ने बँगला के उपन्यासों के अनुवाद की जो परंपरा चलाई वह बहुत दिनों तक चलती रही। इन उपन्यासों में देश के सर्व-सामान्य जीवन के बड़े मार्मिक चित्र रहते थे।

प्रथम उत्थान के अत होते होते तो अनूदित उपन्यासों का ताँता बँध गया। पर पिछले अनुवादको को अपनी भाषा पर वैसा अधिकार न था। अधिकांश अनुवादक प्रायः भाषा को ठीक हिंदी रूप देने में असमर्थ रहे। कहीं कहीं तो बँगला के शब्द और मुहावरे तक ज्यों के त्यों रख दिए जाते थे––जैसे, "काँदना" "सिहरना", "धू धू करके आग जलना", "छल-छल आँसू गिरना" इत्यादि। इन अनुवादों से बड़ा भारी काम यह हुआ कि नए ढंग के सामाजिक और ऐतिहासिक उपन्यासों के ढंग का अच्छा परिचय हो गया और उपन्यास लिखने की प्रवृत्ति और योग्यता उत्पन्न हो गई।

हिंदी-गद्य की सर्वतोमुखी गति का अनुमान इसी से हो सकता है कि पच्चीस पत्र-पत्रिकाएँ हरिश्चंद्र के ही जीवन-काल में निकलीं जिनके नाम नीचे दिए जाते हैं––

१ अलमोड़ा अखबार (संवत् १९२८; संपादक पं॰ सदानंद सनवाल)
२ हिंदी-दीप्ति-प्रकाश (कलकत्ता १९२९; सं॰ कार्तिकप्रसाद खत्री)
३ बिहार-बंधु (१९२९; केशवराम भट्ट)
४ सदादर्श (दिल्ली १९३१; ला॰ श्रीनिवास दास)
५ काशी पत्रिका (१९३३; बा॰ बालेश्वरप्रसाद बी॰ ए॰, शिक्षा-संबंधी मासिक)
६ भारत-बंधु (१९३३; तोताराम; अलीगढ़)
७ भारत-मित्र (कलकत्ता सं॰ १९३४; रुद्रदत्त)
८ मित्र-विलास (लाहौर १९३४, कन्हैयालाल)
९ हिंदी प्रदीप (प्रयाग १९३४; पं॰ बालकृष्ण भट्ट, मासिक)
१० आर्य-दर्पण (शाहजहाँपुर १९३४: बख्तावर सिंह)
११ सार-सुधानिधि (कलकत्ता १९३५; सदानंद मिश्र)
१२ उचितवक्ता (कलकत्ता १९३५; दुर्गाप्रसाद मिश्र)
१३ सज्जन-कीर्ति-सुधाकर (उदयपुर १९३६; वंशीधर)
१४ भारत सुदशाप्रवर्तक (फर्रुखाबाद १९३६; गणेशप्रसाद)
१५ आनंद-कादंबिनी (मिरजापुर १९३८; उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी; मासिक)
१६ देश-हितैषी (अजमेर १९३९)
१७ दिनकर-प्रकाश (लखनऊ १९४०; रामदास वर्मा)
१८ धर्म-दिवाकर (कलकत्ता १९४०; देवीसहाय)
१९ प्रयाग-समाचार (१९४०; देवकीनंदन त्रिपाठी)
२० ब्राह्मण (कानपुर १९४०; प्रतापनारायण मिश्र)
२१ शुभचिंतक (जबलपुर १९४०; सीताराम)
२२ सदाचार-मार्त्तड (जयपुर १९४०; लालचंद शास्त्री)
२३ हिंदोस्थान (इँगलैंड १९४९; राजा रामपालसिंह, दैनिक)
२४ पीयूष-प्रवाह (काशी १९४१; अंबिकादत्त व्यास)
२५ भारत-जीवन (काशी १९४१; रामकृष्ण वर्मा)
२६ भारतेंदु (वृंदावन १९४१; राधाचरण गोस्वामी)
२७ कविकुलकंज-दिवाकर (बस्ती १९४१; रामनाथ शुक्ल)

इनमे से अधिकांश पत्र-पत्रिकाएँ तो थोड़े ही दिन चलकर बंद हो गईं, पर कुछ ने लगातार बहुत दिनों तक लोकहित-साधन और हिंदी की सेवा की है, जैसे––बिहारबंधु, भारत-मित्र, भारत-जीवन, उचितवक्ता, दैनिक हिंदोस्थान, आर्यदर्पण, ब्राह्मण, हिंदी-प्रदीप। 'मित्र-विलास' सनातनधर्म का समर्थक पत्र था जिसने पंजाब में हिंदी-प्रचार का बहुत कुछ कार्य किया था। 'ब्राह्मण', 'हिंदी-प्रदीप' और 'आनंद-कादंबिनी' साहित्यिक पत्र थे जिनमें बहुत सुंदर मौलिक गद्य-प्रबंध और कविताएँ निकला करती थीं। इन पत्र-पत्रिकाओं को बराबर आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। 'हिंदी-प्रदीप' को कई बार बंद होना पड़ा था। 'ब्राह्मण' संपादक पं॰ प्रतापनारायण मिश्र को ग्राहकों से चंदा माँगते-माँगते थककर कभी-कभी पत्र में इस प्रकार याचना करनी पड़ती थी––

आठ मास बीते, जजमान। अब तौ करौ दच्छिना दान॥

बाबू कार्तिकप्रसाद खत्री ने हिंदी संवादपत्रों के प्रचार के लिये बहुत उद्योग किया था। उन्होंने संवत् १९३८ मे "हिंदी-दीप्ति-प्रकाश" नाम का एक संवादपत्र और "प्रेम-विलासिनी" नाम की एक पत्रिका निकाली थी। उस समय हिंदी संवाद-पत्र पढ़नेवाले थे ही नहीं। पाठक उत्पन्न करने के लिये बाबू कार्तिक-प्रसाद ने बहुत दौड़धूप की थी। लोगो के घर जा जाकर वे पत्र सुना तक आते थे। इतना सब करने पर भी उनका पत्र थोड़े दिन चलकर बद हो गया। संवत् १९३४ तक कोई अच्छा और स्थायी साप्ताहिक पत्र नहीं निकला था। अतः संवत् १९३४ में पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र, पंडित छोटूलाल मिश्र, पंडित सदानंद मिश्र, बाबू जगन्नाथप्रसाद खन्ना के उद्योग से कलकत्ते में "भारतमित्र कमेटी" बनी और "भारतमित्र" पत्र बड़ी धूमधाम से निकला और बहुत दिनों तक हिंदी-सवादपत्रों में एक ऊँचा स्थान ग्रहण किए रहा। प्रारंभ काल में जब पंडित छोटूलाल मिश्र इसके संपादक थे तब भारतेंदुजी भी कभी-कभी इसमें लेख दिया करते थे।

उसी संवत् में लाहौर से "मित्र-विलास" नामक पत्र पंडित गोपीनाथ के उत्साह से निकला। इसके पहले पंजाब में कोई हिंदी का पत्र न था। केवल "ज्ञानप्रदायिनी" नाम की एक पत्रिका उर्दू-हिंदी में बाबू नवीनचंद्र द्वारा निकलती थी जिसमें शिक्षा और सुधार संबंधी लेखों के अतिरिक्त ब्राह्मोमत की बातें रहा करती थीं। उसके पीछे जो "हिंदु-बांधव" निकला उसमें भी उर्दू और हिंदी दोनों रहती थीं। केवल हिंदी का एक भी पत्र न था। 'कवि-वचनसुधा' की मनोहर लेखशैली और भाषा पर मुग्ध होकर, ही पंडित गोपीनाथ ने 'मित्र-विलास' निकाला था, जिसकी भाषा बहुत सुष्ठु और ओजस्विनी होती थी। भारतेंदु के गोलोकवास पर बड़ी ही मार्मिक भाषा में इस पत्र ने शोक-प्रकाश किया था और उनके नाम का संवत् चलाने का आंदोलन उठाया था।

इसके उपरांत संवत् १९३५ मैं पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र के संपादन में "उचितवक्ता” और पंडित सदानंद मिश्र के संपादन में "सारसुधानिधि" ये दो पत्र कलकत्ते से निकले। इन दोनों महाशयों ने बड़े समय पर हिंदी के एक बड़े अभाव की पूर्ति में योग दिया था। पीछे कालाकाँकर के मनस्वी और देशभक्त राजा रामपालसिंहजी अपनी मातृभाषा की सेवा के लिये खड़े हुए और संवत् १९४० में उन्होंने 'हिंदोस्थान' नामक पत्र इँगलैंड से निकाला जिसमें हिंदी और अँगरेजी दोनों रहती थीं। भारतेंदु के गोलोकवास के पीछे संवत्, १९४२ में यह हिंदी-दैनिक के रूप में निकला और बहुत दिनों तक चलता रहा। इसके संपादकों में देशपूज्य पंडित मदनमोहन मालवीय, पंडित प्रतापनारायण मिश्र, बाबू बालमुकुंद गुस ऐसे लोग रह चुके हैं। बाबू हरिश्चंद्र के जीवनकाल में ही अर्थात् मार्च सन् १८८४ ई॰ में बाबू रामकृष्ण वर्म्मा ने काशी से "भारत जीवन" पत्र निकाला। इस पत्र का नामकरण भारतेंदुजी ने ही किया था।



भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म काशी के एक संपन्न वैश्य-कुल में भाद्र शुक्ल ५ संवत् १९०७ को और मृत्यु ३५ वर्ष की अवस्था में माघ कृष्ण ६ सं॰ १९४१ को हुई।"

संवत् १९२० में वे अपने परिवार के साथ जगन्नाथजी गए। उसी यात्रा में उनका परिचय बंग देश की नवीन साहित्यिक प्रगति से हुआ। उन्होंने बँगला में नए ढंग के समाजिक, देश-देशांतर-संबंधी, ऐतिहासिक और पौराणिक नाटक, उपन्यास आदि देखे और हिंदी में ऐसी पुस्तकों के अभाव का अनुभव किया। संवत् १९२५ में उन्होंने 'विद्यासुंदर नाटक' बँगला से अनुवाद करके प्रकाशित किया। इस अनुवाद में ही उन्होंने हिंदी-गद्य के बहुत ही सुडौल रूप का आभास दिया। इसी वर्ष उन्होंने "कविवचनसुधा" नाम की एक पत्रिका निकाली जिसमें पहले पुराने कवियों की कविताएँ छपा करती थीं पर पीछे गद्य लेख भी रहने लगे। संवत् १९३० में उन्होंने 'हरिश्चंद्र मैगजीन' नाम की एक मासिक पत्रिका निकाली जिसका नाम ८ संख्याओं के उपरात "हरिश्चंद्र-चंद्रिका" हो गया। हिंदीगद्य का ठीक परिष्कृत रूप पहले पहले इसी 'चंद्रिका' में प्रकट हुआ। जिस प्यारी हिंदी को देश ने अपनी विभूति समझा, जिसको जनता ने उत्कंठापूर्वक दौड़कर अपनाया, उसका दर्शन इसी पत्रिका में हुआ। भारतेंदु ने नई सुधरी हुई हिंदी का उदय इसी समय से माना है। उन्होंने 'कालचक्र' नाम की अपनी पुस्तक में नोट किया है कि "हिंदी नई चाल में ढली, सन् १८७३ ई॰"।

इस "हरिश्चंद्री हिंदी" के आविर्भाव के साथ ही नए नए लेखक भी तैयार होने लगे। 'चंद्रिका' में भारतेंदुजी आप तो लिखते ही थे, बहुत से और लेखक भी उन्होंने उत्साह दे-देकर तैयार कर लिए थे। स्वर्गीय पंडित बदरीनारायण चौधरी बाबू हरिश्चंद्र के संपादन-कौशल की बड़ी प्रशंसा किया करते थे। बड़ी तेजी के साथ वे चंद्रिका के लिये लेख और नोट लिखते और मैटर को बड़े ढंग से सजाते थे। हिंदी गद्य-साहित्य के इस आरंभ काल में ध्यान देने की बात यह है कि इस समय जो थोड़े से गिनती के लेखक थे उनमें विदग्धता और मौलिकता थी और उनकी हिंदी हिंदी होती थी। वे अपनी भाषा की प्रकृति को पहचाननेवाले थे। बँगला, मराठी, उर्दू, अँगरेजी के अनुवाद का वह तूफान जो पचीस तीस वर्ष पीछे चला और जिसके कारण हिंदी का स्वरूप ही संकट में पड़ गया था, उस समय नहीं था। उस समय ऐसे लेखक न थे जो बँगला की पदावली और वाक्य ज्यों के त्यों रखते हों या अँगरेजी वाक्यों और मुहावरों का शब्द प्रतिशब्द अनुवाद करके हिंदी लिखने का दावा करते हों। उस समय की हिंदी में न 'दिक् दिक् अशांति' थी, न 'काँदना, सिहरना और छल छल अश्रुपात'; न 'जीवन होड़' और 'कवि का संदेश' था न "भाग लेना" और "स्वार्थ लेना"।

मैगजीन में प्रकाशित हरिश्चंद्र का "पाँचवें पैगंबर", मुंशी ज्वालाप्रसाद का "कलिराज की सभा" बाबू तोताराम का "अद्भुत अपूर्व स्वप्न", बाबू कार्त्तिकप्रसाद का 'रेल का विकट खेल" आदि लेख बहुत दिनों तक लोग बड़े चाव से पढ़ते थे। संवत् १९३१ में भारतेंदुजी ने स्त्रीशिक्षा के लिये "बालाबोधिनी" निकाली थी। इस प्रकार उन्होंने तीन पत्रिकाएँ निकालीं। इसके पहले ही संवत् १९३० में उन्होंने अपना पहला मौलिक नाटक 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' नाम का प्रहसन लिखा, जिसमें धर्म और उपासना के नाम से समाज में प्रचलित अनेक अनाचारों का जघन्य रूप दिखाते हुए उन्होंने राजा शिवप्रसाद को लक्ष्य करके खुशामदियों और केवल अपनी मानवृद्धि की फिक्र मे रहनेवालों पर भी छींटे छोड़े। भारत के प्रेम में मतवाले देशहित की चिंता में व्यग्र, हरिश्चंद्र जी पर सरकार की जो कुदृष्टि हो गई थी उसके कारण बहुत कुछ राजा साहब ही समझे जाते थे।

गद्य-रचना के अंतर्गत भारतेंदु का ध्यान पहले नाटकों की ओर ही गया। अपनी 'नाटक' नाम की पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि हिंदी मे नाटक उनके पहले दो ही लिखे गए थे-महाराज विश्वनाथसिंह का "आनंद रघुनंदननाटक" और बाबू गोपालचंद का "नहुष नाटक"। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये दोनों ब्रजभाषा में थे। भारतेंदु-प्रणीत नाटक ये हैं

(मौलिक)

वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, चंद्रावली, विषस्य विषमौषधम्, भारत-दुर्दशा, नीलदेवी, अंधेर नगरी, प्रेम-जोगिनी, सती-प्रताप (अधूरा)।

(अनुवाद)

विद्यासुंदर, पाखंड विडंबन, धनंजय-विजय, कर्पूरमंजरी, मुद्राराक्षस, सत्य हरिश्चंद्र, भारतजननी।

'सत्यहरिश्चंद्र' मौलिक समझा जाता है, पर हमने एक पुराना बंगला नाटक देखा है जिसका वह अनुवाद कहा जा सकता है। कहते हैं, कि 'भारतजननी' उनके एक मित्र का किया हुआ बंगभाषा में लिखित 'भारतमाता' का अनुवाद था जिसे उन्होंने सुधारते सुधारते सारा फिर से लिख डाला।

भारतेंदु के नाटकों में सब से पहले ध्यान इस बात पर जाता है कि उन्होंने सामग्री जीवन के कई क्षेत्रों से ली है। 'चंद्रावली' में प्रेम का आदर्श है। 'नीलदेवी' पंजाब के एक हिंदू राजा पर मुसलमानों की चढ़ाई का ऐतिहासिक वृत्त लेकर लिया गया है। 'भारतदुर्दशा' में देश-दशा बहुत ही मनोरंजक ढंग से सामने लाई गई है। 'दिषस्य विषमौषधम्' देशी रजवाड़ों की कुचक्रपूर्ण परिस्थिति दिखाने के लिये रचा गया है। 'प्रेमजोगिनी' में भारतेंदु ने वर्तमान पाखंडमय धार्मिक और सामाजिक जीवन के बीच अपनी परिस्थिति का चित्रण किया है, यही उसकी विशेषता है।

नाटकों की रचना-शैली में उन्होंने मध्यम मार्ग का अवलंबन किया। न तो बँगला के नाटकों की तरह प्राचीन भारतीय शैली को एकबारगी छोड़ वे अँगरेजी नाटकों की नकल पर चले और न प्राचीन नाट्यशास्त्र की जटिलता में अपने को फँसाया। उनके बड़े नाटकों में प्रस्तावना बराबर रहती थी। पताका-स्थानक आदि का प्रयोग भी वे कहीं कहीं कर देते थे।

यद्यपि सब से अधिक रचना उन्होंने नाटकों ही की की, पर हिंदी-साहित्य के सर्वतोमुख विकास की ओर भी वे बराबर दत्तचित्त रहे। 'काश्मीरकुसुम', 'बादशाहदर्पण' ग्रादि लिखकर उन्होंने इतिहास रचना का मार्ग दिखाया। अपने पिछले दिनों में वे उपन्यास लिखने की ओर प्रवृत्त हुए थे, पर चल बसे। शैली दूसरी। भावावेश की भाषा में प्रायः वाक्य बहुत छोटे छोटे होते है और पदावली सरल बोल-चाल की होती है जिसमें बहुत प्रचलित साधारण फारसी अरबी के शब्द भी कभी कभी, पर बहुत कम, आ जाते है। 'चद्रावली नाटिका' से उद्धत यह अंश, देखिए––

"झूठे झूठे झूठे! झूठे ही नहीं विश्वासघातक। क्यों इतना छाती ठोंक और हाथ उठा-उठाकर लोगों को विश्वास दिया? आप ही सब मरते, चाहे जहन्नुम में पड़ते।...... भला क्या काम था कि इतना पचड़ा किया? किसने इस उपद्रव और जाल करने को कहा था? कुछ न होता, तुम्हीं तुम रहते, बस चैन था, केवल आनंद था। फिर क्यों यह विषमय संसार किया? बखेडिए और इतने बड़े कारखाने पर बेहयाई परले सिरे की। नाक विके, लोग झूठी कहें, अपने मारे फिरें पर वाह रे शुद्ध बेहयाई––पूरी निर्लज्जता! लाज को जूती मार के, पीट पीट के निकाल दिया है। जिस मुहल्ले में आप रहते हैं लाज की हवा भी नहीं जाती हाय एक बार भी मुँह दिखा दिया होता तो मतवाले मतवाले बनें क्यों लड़ लड़कर सिर फोड़ते? काहे को ऐसे बेशरम मिलेंगे? हुकमी बेहया हो।"

जहाँ चित्त के किसी स्थायी क्षोभ की व्यंजना है और चिंतन के लिये कुछ अवकाश है वहाँ की भाषा कुछ अधिक साधु और गंभीर तथा वयि कुछ बड़े है, पर अन्वय जलिट नहीं हैं, जैसे 'प्रेमयोगिनी' में सूत्रधार के इस भाषण में––

"क्या सारे संसार के लोग सुखी रहें और हम लोगों का परम बंधु, पिता, मित्र, पुत्र, सब भावनाओं से भावित, प्रेम की एकमात्र मूर्ति, सौजन्य का एक मात्र पात्र, भारत का एकमात्र हित, हिंदी का एकमात्र जनक, भाषा नाटकों का एकमात्र जीवनदाता, हरिश्चंद्र ही दुखी हो? (नेत्र में जल भरकर) हा सज्जनशिरोमणी! कुछ चिंता नहीं, तेरा तो बाना है कि कितना भी दुख हो उसे सुख ही मानना। x x x मित्र! तुम तो दूसरों का अपकार और अपना, उपकार दोनों भूल जाते हो, तुम्हें इनकी निंदा से क्या? इतना चित्त, क्यों क्षुब्ध करते हो? स्मरण रखो, ये कीड़े ऐसे ही रहेंगे और तुम लोकबहिष्कृत होकर इनके सिर पर पैर रख के विहार करोगे।"

तथ्य-निरूपण या वस्तु-वर्णन के समय कभी कभी उनकी भाषा में संस्कृत पदावली का कुछ अधिक समावेश होता है। इसका सब से बढ़ा चढ़ा उदाहरण 'नीलदेवी' के वक्तव्य में मिलता है। देखिए––

"आज बड़ा दिन है, क्रिस्तान लोगों को इससे बढ़कर कोई आनंद का दिन नहीं है। किंतु मुझको आज उलटा और दुख है। इसका कारण मनुष्य-स्वभाव-सुलभ ईर्षा मात्र हैं। मैं कोई सिद्ध नहीं कि राग-द्वेष से विहीन हूँ। जब मुझे अँगरेजी रमणी लोग मेदसिंचित केशराशि, कृत्रिम कुंतलजूट, मिथ्या रत्नाभरण, विविध-वर्ण वसन से भूषित, क्षीण कटिदेश कसे, निज निज पतिगण के साथ प्रसन्नवदन इधर से उधर फर फर कल की पुतली की भाँति फिरती हुई दिखाई पड़ती हैं तब इस देश की सीधी सादी स्त्रियों की हीन अवस्था मुझको स्मरण आती है और यही बात मेरे दुःख का कारण होती है"।

पर यह भारतेंदु की असली भाषा नहीं। उनकी असली भाषा का रूप पहले दो अवतरणों में ही समझना चाहिए। भाषा चाहे जिस ढंग की हो उनके वाक्यों का अन्वय सरल होता है, उसमें जटिलता नहीं होती है उनके लेखों में भावों की मार्मिकता पाई जाती हैं, वाग्वैचित्र्य या चमत्कार की प्रवृत्ति नही।

यह स्मरण रखना चाहिए कि अपने समय के सब लेखको में भारतेंदु की भाषा साफ सुथरी और व्यवस्थित होती थी। उसमें शब्दों के रूप भी एक प्रणाली पर मिलते है और वाक्य भी सुसंबद्ध पाए जाते है। 'प्रेमघन' आदि और लेखकों की भाषा में हम क्रमशः उन्नति और सुधार पाते हैं। सं॰ १९३८ की 'आनंदकादंबिनी' का कोई लेख लेकर १० वर्ष पश्चात् के किसी लेख से मिलान किया जाये तो बहुत अंतर दिखाई पड़ेगा। भारतेंदु के लेखों में इतना अंतर नहीं पाया जाता। 'इच्छा किया', 'आज्ञा किया' ऐसे व्याकरण-विरुद्ध प्रयोग अवश्य कहीं कहीं मिलते है।


प्रतापनारायण मिश्र के पिता उन्नाव से आकर कानपुर में बस गए थे, जहाँ प्रतापनारायणजी का जन्म सं॰ १९१३ मे और मृत्यु सं॰ १९५१ में हुई है। ये इतने मनमौजी थे कि आधुनिक सभ्यता और शिष्टता की कम परवा करते थे। कभी लावनीबाजों में जाकर शामिल हो जाते थे, कभी मेलो और तमाशो में बंद इक्के पर बैठे जाते दिखाई देते थे।

प्रतापनारायण मिश्र यद्यपि लेखन-कला में भारतेंदु को ही आदर्श मानते थे पर उनकी शैली में भारतेंदु की शैली से बहुत कुछ विभिन्नता भी लक्षित होती है। प्रतापनारायणजी में विनोद-प्रियता विशेष थी इससे उनकी वाणी में व्यंग्यपूर्ण वक्रता की मात्रा प्रायः रहती है। इसके लिये वे पूरबीपन की परवा न करके अपने बैसवारे की ग्राम्य कहावतें और शब्द भी कभी कभी बेधड़क रख दिया करते थे। कैसा ही विषय हो, वे उसमें विनोद और मनोरंजन की सामग्री ढूँढ़ लेते थे। अपना 'ब्राह्मण' पत्र उन्होंने विविध विषयों पर गद्यप्रबंध लिखने के लिये ही निकाला था। लेख हर तरह के निकलते थे। देशदशा, समाज-सुधार, नागरी-हिंदी-प्रचार, साधारण मनोरंजन आदि सब विषयों पर मिश्रजी की लेखनी चलती थी। शीर्षकों के नामों से ही विषयों की अनेकरूपता का पता चलेगा जैसे, "घूरे क लत्ता बिनै, कनातन क डौल बाँधै", "समझदार की मौत है", "बात", "मनोयोग", "वृद्ध", "भौ"। यद्यपि उनकी प्रवृत्ति हास्य-विनोद की ओर ही अधिक रहती थी, पर जब कभी कुछ गंभीर विषयो पर वे लिखते थे, तब संयत और साधु भाषा का व्यवहार करते थे। दोनों प्रकार की लिखावटों के नमूने नीचे दिए जाते हैं––

समझदार की मौत है।

सच है "सब ते भले हैं मूढ़ जिन्हें न व्यापै जगतगति"। मजे से पराई जमां गपक बैठना, खुशामदियों से गप मारा करना, जो कोई तिथ-त्योहार आ पड़ा तो गंगा में बदन धो आना, गंगापुत्र को चार पैसे देकर सेंत-मेत में धरममूरत, धरमऔतार का खिताब पाना; संसार परमार्थ दोनों तो बन गए, अब काहे की है है और काहे की खै खै? आफत तो बिचारे जिंदादिलों की है जिन्हें न यों कल न वो कल; जब स्वदेशी भाषा का पूर्ण प्रचार था तब के, विद्वान् कहते थे "गीर्वाणवाणीषु विशालुबुद्धिस्तथान्यभाषा-रसलोलुपोहम्"। अब आज अन्य भाषा वरंच अन्य भाषाओं का करकट (उर्दू) छाती का पीपल हो रही है; अब यह चिंता खाए लेती है कि कैसे इस चुड़ैल से पीछा छूटे।

मनोयोग

शरीर के द्वारा जितने काम किए जाते हैं, उन सब में मन का लगाव अवश्य रहता है। जिनमें मन प्रसन्न रहता है वही उत्तमता के साथ होते हैं और जो उसकी इच्छा के अनुकूल नहीं होते वह वास्तव में चाहे अच्छे कार्य भी हो किंतु भले प्रकार पूर्ण रीति से संपादित नहीं होते, न उनका कर्ता ही यथोचित आनंद लाभ करता है। इसी से लोगों ने कहा है कि मन शरीर-रूपी नगर का राजा हैं और स्वभाव उसका चंचल है। यदि स्वच्छंद रहे तो बहुधा कुत्सित ही मार्ग में धावसान रहता है। यदि रोका न जाय तो कुछ काल में आलस्य और अकृत्य का व्यसन उत्पन्न करके जीवन को व्यर्थ एवं अनर्थपूर्ण कर देता है।"

प्रतापनारायणजी ने फुटकल गद्यप्रबंधों के अतिरिक्त कई नाटक भी लिखे। 'कलिकौतुक रूपक' में पाखंडियों और दुराचारियों का चित्र खींचकर उनसे सावधान रहने का संकेत किया गया है। 'संगीत शाकुंतल' लावनी के ढंग पर गाने योग्य खड़ी बोली में पद्यबद्ध शकुंतला नाटक है। भारतेंदु के अनुकरण पर मिश्र जी ने 'भारतदुर्दशा' नाम का नाटक भी लिखा था। 'हठी हम्मीर रणथंभौर पर अलाउद्दीन की चढ़ाई का वृत्त लेकर लिखा गया है। 'गोसकट नाटक' और 'कलि-प्रभाव नाटक' के अतिरिक्त 'जुआरी खुआरी' नामक उनका एक प्रहसन भी है।

पं॰ बालकृष्ण भट्ट का जन्म प्रयाग में सं॰ १९०१ में और परलोकवास सं॰ १९७१ में हुआ। वे प्रयाग के 'कायस्थ-पाठशाला कालेज' में संस्कृत के अध्यापक थे।

उन्होंने संवत् १९३३ में अपना "हिंदी-प्रदीप" गद्य-साहित्य का ढर्रा निकालने के लिये ही निकाला था। सामाजिक, साहित्यिक, राजनीतिक, नैतिक सब प्रकार के छोटे छोटे गद्य प्रबंध वे अपने पत्र में तीस-बत्तीस वर्ष तक निकालते रहे। उनके लिखने का ढंग पंडित प्रतापनारायण के ढंग से मिलता जुलता है। मिश्रजी के समान भट्टजी भी स्थान-स्थान पर कहावतों का प्रयोग करते थे, पर उनका झुकाव मुहावरो की ओर कुछ अधिक रहा है। व्यंग और वक्रता उनके लेखों में भी भरी रहती हैं और वाक्य भी कुछ बड़े बड़े होते हैं। ठीक खड़ी चोली के आदर्श का निर्वाह भट्टजी ने भी नहीं किया है। पूरबी प्रयोग बराबर मिलते हैं। "समझा बुझाकर" के स्थान पर "समझाय बुझाय" वे प्रायः लिख जाते थे। उनके लिखने के ढंग से यह जान पड़ता है कि वे अँगरेजी पढ़े-लिखे नवशिक्षित लोगो को हिंदी की ओर आकर्षित करने के लिये लिख रहे हैं। स्थान स्थान ब्रैकेट में घिरे "Education," "Society," "National vigour and strength," "Standard," "Character" इत्यादि अँगरेजी शब्द पाए जाते है। इसी प्रकार फारसी अरबी के लफ्ज ही नहीं बड़े-बड़े फिकरे तक भट्टजी अपनी मौज में आकर रखा करते थे। इस प्रकार उनकी शैली में एक निरालापन झलकता है। प्रतापनारायण के हास्यविनोद से भट्टज़ी के हास्यविनोद में यह विशेषता है कि वह कुछ चिड़चिड़ाहट लिए रहता था। पदविन्यास भी कभी-कभी उनका बहुत ही चोखा और अनूठा होता था।

अनेक प्रकार के 'गद्य-प्रबंध' भट्टजी ने लिखे हैं, पर सब छोटे छोटे। वे बराबर कहा करते थे कि न जाने, कैसे, लोग बड़े-बड़े लेख लिख डालते है। मुहावरों की सूझ उनकी बहुत अच्छी थी। "आंख", "कान", "नाक" आदि शीर्षक देकर उन्होंने कई लेखों में बड़े ढंग के साथ मुहावरों की झड़ी बाँध दी हैं। एक बार वे मेरे घर पधारे थे। मेरा छोटा भाई आँखों पर हाथ रखे उन्हें दिखाई पड़ा है।‌ उन्होंने पूछा "भैया! आँख में क्या हुआ है?" उत्तर मिला "आँख,आई है।" वे चट बोल उठे "भैया! यह आँख बड़ी बला है, इसका आना, जाना, उठना, बैठना सब बुरा है" अनेक विषयों पर गद्य-प्रबंध लिखने के अतिरिक्त "हिंदी-प्रदीप" द्वारा भट्टजी संस्कृत-साहित्य और संस्कृत के कवियों का परिचय भी अपने पाठकों को, समय समय पर कराते रहे। पंडित प्रतापनारायण मिश्र और पंडित बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी गद्यसाहित्य में वही काम किया है जो अँगरेजी गद्य-साहित्य में एडीसन और स्टील ने किया था। भट्टजी की लिखावट के दो नमूने देखिए––

कल्पना

x x x यावत् मिथ्या और दरोग की किबलेगाह इस कल्पना पिशाचिनी का कहीं ओर छोर किसी ने पाया है? अनुमान करते करते हैरान गौतम से मुनि 'गोतम' हो गए। कणाद तिनका खा खाकर किनका बीनने लगे पर मैन की मनभावनी कन्या कल्पना को पार न पाया। कपिल बेचारे पचीस तत्वों की कल्पना करते करते 'कपिल' अर्थात् पीले पड़ गये। व्यास ने इन तीनों दार्शनिकों की दुर्गति देख मन में सोचा, कौन इस भूतनी के पीछे दौड़ता फिरे, यह संपूर्ण विश्व जिसे हम प्रत्यक्ष देख सुन सकते हैं सब कल्पना ही कल्पना, मिथ्या, नाशवान् और क्षणभंगुर है, अतएव हेय है।

आत्म-निर्भरता

इधर पचास-साठ वर्षों से अँगरेजी राज्य के अमनचैन को फ़ायदा पाय हमारे देशवाले किसी भलाई की ओर न झुके वरन् दस वर्ष की गुड़ियो का व्याह कर पहिले से ड्योढ़ी दूनी सृष्टि अलबत्ता बढ़ाने लगे। हमारे देश की जन संख्या अवश्य घटनी चाहिए। × × × आत्म निर्भरता में दृढ़, अपने कूबते-बाज़ू पर भरोसा रखनेवाला पुष्टवीर्य्य, पुष्ट-बल, भाग्यवान् एक संतान अच्छा। 'कुकर सूकर से' निकम्मे, रग रग में दास-भाव से पूर्ण परभान्यौपजीवी दस किस काम के?"

निबंधो के अतिरिक्त भट्टजी ने कई छोटे-मोटे नाटक भी लिखे है जो क्रमशः उनके 'हिंदी-प्रदीप' में छपे हैं, जैसे––कलिराज की सभा, रेल का विकट खेल, बालविवाह नाटक, चंद्रसेन नाटक। उन्होंने माइकेल मधुसूदन दत्त के 'पद्मावती' और 'शर्मिष्ठा' नामक बंगभाषा के दो नाटकों के अनुवाद भी निकाले थे।

सं॰ १९४३ में भट्टजी ने लाला श्रीनिवासदास के 'संयोगता-स्वयंवर' नाटक की 'सच्ची समालोचना' भी, और पत्रों में उसकी प्रशंसा ही प्रशंसा देखकर, की थी। उसी वर्ष उपाध्याय पं॰ बदरीनारायण चौधरी ने बहुत ही विस्तृत समालोचना अपनी पत्रिका में निकाली थी। इस दृष्टि से सम्यक् आलोचना का हिंदी में सूत्रपात करनेवाले इन्हीं दो लेखकों को समझना चाहिए।

उपाध्याय पं॰ बदरीनारायण चौधरी का जन्म मिर्जापुर के एक अभिजात ब्राह्मण-वंश में भाद्र कृष्ण ६ सं॰ १९१२ को और मृत्यु फाल्गुन शुक्ल १४ सं॰ १९७९ को हुई। उनकी हर एक बात से रईसी टपकती थी। बातचीत का ढंग उनका बहुत ही निराला और अनूठा था। कभी कभी बहुत ही सुंदर वक्रतापूर्ण वाक्य उनके मुँह से निकलते थे। लेखन-कला के उनके सिद्धांत के कारण उनके लेखों में यह विशेषता नहीं पाई जाती। वे भारतेंदु के घनिष्ट मित्रों में थे और वेश भी उन्हीं का-सा रखते थे।

उपाध्याय पंडित बदरीनारायण चौधरी (प्रेमधन) की शैली सबसे विलक्षण थी। वे गद्य-रचना को एक कला के रूप में ग्रहण करनेवाले––कलम की कारीगरी समझनेवाले––लेखक थे और कभी कभी ऐसे पेचीले मजमून बाँधते थे कि पाठक एक एक डेढ़ डेढ़ कालम के लंबे वाक्य में उलझा रह जाता था। अनुप्रास और अनूठे पदविन्यास की ओर भी उनका, ध्यान रहता था। किसी बात को साधारण ढंग से कह जाने को ही वे लिखना नहीं कहते थे। वे कोई लेख लिखकर जब तक कई बार उसका परिष्कार और मार्जन नहीं कर लेते थे तब तक छपने नहीं देते थे। भारतेंदु के वे घनिष्ट मित्र थे पर लिखने में उनके "उतावलेपन" की शिकायत अकसर किया करते थे। वे कहते थे कि बाबू हरिश्चद्र अपनी उमंग में जो कुछ लिख, जाते थे उसे यदि एक बार और देखकर परिमार्जित कर लिया करते तो वह और भी सुडौल और सुंदर हो जाता। एक बार उन्होंने मुझसे, कांग्रेस के दो दल हो जाने पर एक नोट लिखने को कहा। मैंने जब लिखकर दिया तब उसके किसी वाक्य को पढ़कर वे कहने लगे कि इसे यों कर दीजिए––"दोनो दलों की दलादली में दलपति का विचार भी दलदल में फँसा रहा।" भाषा अनुप्रासमयी और चुहचुहाती हुई होने पर भी उनका पद-विन्यास व्यर्थ आडंबर के रूप में, नहीं होता था उनके लेख अर्थगर्भित और सूक्ष्म-विचारपूर्ण होते थे। लखनऊ की उर्दू का जो आदर्श था वही उनकी हिंदी का था।

चौधरी साहब ने कई नाटक लिखे हैं। 'भारत-सौभाग्य’ कांग्रेस के अवसर पर खेले जाने के लिये सन् १८८८ में लिखा गया था। यह नाटक विलक्षण है। पात्र इतने अधिक और इतने प्रकार के है कि अभिनय दुस्साध्य ही समझिए। भाषा भी रंग-बिरंगी है––पात्रों के अनुरूप उर्दू, मारवाड़ी, बैसवाड़ी, भोजपुरी, पंजाबी, मराठी, बंगाली सब कुल मिलेगी। नाटक की कथावस्तु है बद-एकबाल-हिंद की प्रेरणा से सन् १८५७ का गदर, अँगरेजों के अधिकार की पुनः प्रतिष्ठा और नेशनल कांग्रेस की स्थापना। नाटक के आरंभ के दृश्यों में लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा का भारत से प्रस्थान भारतेंदु के "पै धन बिदेस चलि जात यह अति ख्वारी" से अधिक काव्योचित और मार्मिक है।

'प्रयाग-रामबागमन' नाटक में राम का भरद्वाज आश्रम में पहुँचकर आतिथ्य ग्रहण है। इसमें सीता की भाषा ब्रज रखी गई है 'वारागना रहस्य महानाटक (अथवा वेश्याविनोद सहाफाटक)' दुर्व्यसन-ग्रस्त समाज का चित्र खींचने के लिये उन्होंने सं॰ १९४३ से ही उठाया और थोड़ा थोड़ा करके समय समय पर अपनी 'आनंद-कादंबिनी' में निकालते रहे, पर पूरा न कर सके। इसमें जगह जगह शृंगाररस के श्लोक, कवित्त-सवैये, गजल, शेर इत्यादि रखे गए हैं।

विनोदपूर्ण प्रहसन तो अनेक प्रकार के ये अपनी पत्रिका में बराबर निकालते रहे।

सच पूछिए तो "आनंद-कादंबिनी" प्रेमघनजी ने अपने ही उमड़ते हुए विचारों और भावों को अंकित करने के लिये निकाली थी। और लोगों के लेख इसमें नहीं के बराबर रहा करते थे। इस पर भारतेंदुजी ने उनसे एक बार कहा था कि "जनाब! यह किताब नहीं कि जो अप अकेले ही इरकाम फरमाया करते हैं, बल्कि अखबार है कि जिसमें अनेक जन लिखित लेख होना आवश्यक है; और यह भी जरूरत नहीं कि सब एक तरह के लिक्खाड़ हो।" अपनी पत्रिका में किस शैली की भाषा लेकर चौधरी साहब मैदान में आए इसे दिखाने के लिये हम उसके प्रारंभ काल (संवत् १९३८) की एक संख्या से कुछ अंश नीचे देते हैं––

परिपूर्ण पावस

जैसे किसी देशाधीश के प्राप्त होने से देश का रंग ढंग बदल जाता है तद्भूप पावस के आगमन से इस सारे संसार ने भी दूसरा रंग पकड़ा, भूमि हरी-भरी होकर नाना प्रकार की वासों से सुशोभित भई, मानों मारे मोद के रोमांच की। अवस्था को प्राप्त भई। सुंदर हरित पत्रावलियों से भरित तरुगनों की सुहावनी लताएँ लिपट लिपट मानो मुग्ध मयकमुखियों को अपने प्रियतम के अनुरागालिंगन की विधि बतलातीं। इनसे युक्त पर्वत के शृंगों के नीचे सुंदरी-दरी-समूह से स्वच्छ श्वेत जल-प्रवाह ने मानो पारा की धारा और बिल्लौर की ढार को तुच्छ कर युरोल पार्श्व की हरी-भरी भूमि के, कि जो मारे हरेपन के श्यामता की झलक दे अलक की शोभा लाई है, बीचोबीच माँग सी काढ मन माँग लिया और पत्थर की चट्टानो पर सुंबुल अर्थात् हंसराज की जटाओं को फैलना बिथरी हुई लटों के लावण्य को लाना है।"

कादंबिनी में समाचार तक कभी कभी बड़ी रंगीन भाषा में लिखे जाते थे। संवत् १९४२ की संख्या का "स्थानिक संवाद" देखिए––

"दिव्यदेवी श्री महाराणी बडहर लाख झंझट झेल और चिरकाल पर्यंत बड़े-बड़े उद्योग और मेल से दु:ख के दिन सकेल, अचल 'कोर्ट' पहाड़ ढकेल, फिर गद्दी पर बैठ गई। ईश्वर का भी क्या खेल है कि कभी तो मनुष्य पर दुःख की रेल पेल और कभी उसी पर सुख की कुलेल है"।

पीछे जो उनका साप्ताहिक पत्र "नागरी नीरद" निकला उसके शीर्षक भी वर्षा के खासे रूपक, हुए; जैसे, "संपादकीय-संमति-समीर", "प्रेरित-कलापिकलरव", "हास्य-हरितांकुर", "वृत्तांत बलाकावलि", "काव्यामृत, वर्षा", "विज्ञापन-बीर-बहूटियाँ", "नियम-निर्घोष"।

समालोचना का सूत्रपात हिंदी में एक प्रकार से भट्टजी और चौधरी साहब ने ही किया। समालोच्य, पुस्तक के विषयों का अच्छी तरह विवेचन करके उसके गुण-दोष के विस्तृत निरूपण की चाल उन्हीं ने चलाई। बाबू गदाधरसिंह ने "बंगविजेता" का जो अनुवाद किया था उसकी आलोचना कादंबिनी में पाँच पृष्ठों में हुई थी। लाला श्रीनिवासदास के "संयोगिता स्वंयवर" की बड़ी विस्तृत और कठोर समालोचना चौधरीजी ने कादंबिनी के २१ पृष्ठों में निकाली थी। उसका कुछ अंश नमूने के लिये नीचे दिया जाता है।

"यद्यपि इस पुस्तक की समालोचना करने के पूर्व इसके समालोचकों की समालोचनाओं की समालोचना करने की आवश्यकता जान पड़ती है, क्योंकि जब हम इस नाटक की समालोचना अपने बहुतेरे सहयोगी और मित्रों को करते देखते हैं, तो अपनी ओर से जहाँ तक खुशामद और चापलूसी का कोई दरजा पाते हैं, शेष छोड़ते नहीं दिखाते।

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नाट्य-रचना के बहुतेरे दोष 'हिंदी-प्रदीप' ने अपनी 'सच्ची-समालोचना' में दिखलाए हैं। अतएव उसमें हमें विस्तार नहीं देते, हम केवल यहाँ अलग अलग उन दोषों को दिखलाना चाहते हैं जो प्रधान और विशेष हैं। तो जानना चाहिए कि यदि यह संयोगिता स्वयंवर पर नाटक लिखा गया तो इसमें कोई दृश्य स्वयंवर का न रखना मानो इस कविता का नाश कर डालना है, क्योंकि यही इसमें वर्णनीय विषय है।

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नाटक के प्रबंध का कुछ कहना ही नहीं, एक गँवार भी जानता होगा कि स्थान परिवर्तन के कारण गर्भांक की आवश्यकता होती है, अर्थात् स्थान के बदलने में परदा बदला जाता है और इसी पर्दे के बदलने को दूसरा गर्भांक मानते हैं, सो आपने एक ही गर्भांक में तीन स्थान बदल डाले।

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गर्जे कि इस सफहे की कुल स्पीचें 'मरचेंट आफ वेनिस' से ली गईं। पहिले तो मैं यह पूछता हूँ कि विवाह में मुद्रिका परिवर्त्तन की रीति इस देश की नहीं, बल्कि यूरोप की (है)। मैंने माना कि आप शकुंतला को दुष्यंत के मुद्रिका देने का प्रमाण देंगे, पर वो तो परिवर्त्तन न था किंतु महाराज ने अपना स्मारक-चिह्न दिया था।


लाला श्रीनिवासदास के पिता लाला मंगलीलाल मथुरा के प्रसिद्ध सेठ लक्ष्मीचंद के मुनीम क्या मैनेजर थे जो दिल्ली में रहा करते थे। वहीं श्रीनिवासदास का जन्म संवत् १९०८ में और मृत्यु सं॰ १९४४ में हुई।

भारतेंदु के सम-सामयिक लेखकों में उनका भी एक विशेष स्थान था। उन्होंने कई नाटक लिखे हैं। "प्रह्लाद चरित्र" ११ दृश्यों का एक बड़ा नाटक है, पर उसके संवाद आदि रोचक नहीं हैं। भाषा भी अच्छी नहीं है। "तप्ता-संवरण नाटक" सन् १८७४ के 'हरिश्चंद्र मैगजीन' में छपा था, पीछे सन् १८८३ ई॰ में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। इसमें तप्ता और संवरण की पौराणिक प्रेम कथा है। संवरण ने तप्ता के ध्यान में लीन रहने के कारण गौतम मुनि को प्रणाम नहीं किया। इसपर उन्होंने शाप दिया कि जिसके ध्यान में तुम मग्न हो वह तुम्हें भूल जाय। फिर सदय होकर शाप का यह परिहार उन्होंने बताया कि अंग-स्पर्श होते ही उसे तुम्हारा स्मरण हो जायगा।

लालाजी के "रणधीर और प्रेममोहनी" नाटक की उस समय अधिक चर्चा हुई थी। पहले पहल यह नाटक सं॰ १९३४ में प्रकाशित हुआ था और इसके साथ एक भूमिका थी जिसमें नाटकों के संबंध में कई बातें अँगरेजी नाटकों पर दृष्टि रखकर लिखी गई थीं। यह स्पष्ट जान पड़ता है कि यह नाटक उन्होंने अँगरेजी नाटकों के ढंग पर लिखा था। 'रणधीर और प्रेममोहनी' नाम ही "रोमियो ऐंड जुलियट" की ओर ध्यान ले जाता है। कथा-वस्तु भी इसकी सामान्य प्रथानुसार पौराणिक या ऐतिहासिक न होकर कल्पित है। पर यह वस्तु-कल्पना मध्ययुग के राजकुमार-राजकुमारियो के क्षेत्र के भीतर ही हुई है––पाटन का राजकुमार है और सूरत की राजकुमारी। पर दृश्यों में देशकालानुसार सामाजिक परिस्थिति को ध्यान नहीं रखा गया है। कुछ दृश्य तो आजकल का समाज सामने लाते हैं, कुछ मध्ययुग का और कुछ उस प्राचीन काल का जब स्वयंवर की प्रथा प्रचलित थी। पात्रों के अनुरूप भाषा रखने के प्रयत्न में मुंशी जी की भाषा इतनी घोर उर्दू कर दी गई है कि केवल हिंदी-पढ़ा व्यक्ति एक पंक्ति भी नहीं समझ सकता। कहाँ स्वयंवर, कहाँ ये मुंशी जी!

जैसा ऊपर कहा गया है, यह नाटक अँगरेजी नाटकों के ढंग पर लिखा गया है। इसमें प्रस्तावना नहीं रखी गई है। दूसरी बात यह कि यह दुःखांत है। भारतीय रूपक-क्षेत्र में दुःखांत नाटकों का चलन न था। इसकी अधिक चर्चा का एक कारण यह भी था।

लालाजी की "संयोगता-स्वयंवर" नाटक सबसे पीछे का है। यह पृथ्वीराज द्वारा संयोगता-हरण का प्रचलित प्रवाद लेकर लिखा गया है।

श्रीनिवासदास ने "परीक्षागुरु" नाम का एक शिक्षाप्रद उपन्यास भी लिखा। वे खड़ी बोली की बोलचाल के शब्द और मुहावरे अच्छे लाते थे। उपर्युक्त चारों लेखकों में प्रतिभाशालियों को मनमौजीपन था, पर लाला श्रीनिवासदास व्यवहार में दक्ष और संसार का ऊँचा-नीचा समझने वाले पुरुष थे। अतः उनकी भाषा संयत और साफ-सुथरी तथा रचना बहुत कुछ सोद्देश्य होती थी। 'परीक्षा-गुरु' से कुछ अंश नीचे दिया जाता है––

"मुझे आपकी यह बात बिलकुल अनोखी मालूम होती है। भला, परोपकारादि शुभ कामों का परिमाण कैसे बुरा हो सकता है?" पंडित पुरुषोत्तमदास ने कहा।

"जैसे अन्न प्राणाधार है, परंतु अति भोजन से रोग उत्पन्न होता है" लाला ब्रजकिशोर कहने लगे "देखिए परोपकार की इच्छा अत्यंत उपकारी है परंतु हद से आगे बढ़ने पर वह भी फिजूलखर्ची समझी जायगी और अपने कुटुंब परिवारादि का सुख नष्ट हो जायगा। जो आलसी अथवा अधर्मियों की सहायता की, तो उससे संसार में अलस्य और पाप की वृद्धि होगी। इसी तरह कुपात्र में भक्ति होने से लोक परलोक दोनों नष्ट हो जायँगे। न्यायपरता यद्यपि सब वृत्तियों को समान रखनेवाली है, परंतु इसकी अधिकता से भी मनुष्य के स्वभाव में मिलनसारी नहीं रहती, क्षमा नहीं रहती। जब बुद्धिवृत्ति के कारण किसी वस्तु के विचार में मन अत्यंत लग जायगा तो और जानने लायक पदार्थों की अज्ञानता बनी रहेगी। आनुषांगिक प्रवृत्ति के प्रबल होने से जैसा संग होगा वैसा रंग तुरंत लग जाया करेगा।"

ऊपर उद्धरण में अँगरेजी उपन्यासों के ढंग पर भाषण के बीच में या अत में "अमुक ने कहा", "अमुक कहने लगे" ध्यान देने योग्य है। खैरियत हुई कि इस प्रथा का अनुसरण हिंदी के उपन्यासों में नहीं हुआ।

भारतेंदुजी के मित्रों में कई बातों में उन्हीं की-सी तबीयत रखनेवाले विजयराघवगढ़ (मध्य प्रदेश) के राजकुमार ठाकुर जगमोहनसिंह थे। उनका जन्म श्रावण शुक्ल १४ सं॰ १९१४ को और मृत्यु सं॰ १९५६ (मार्च सन् १८९९) में हुई। वे शिक्षा के लिये कुछ दिन काशी में रखे गए थे जहाँ उनका भारतेंदु के साथ मेल-जोल हुआ। वे संस्कृत साहित्य और अँगरेजी के अच्छे जानकार तथा हिंदी के एक प्रेम-पथिक कवि और माधुर्यपूर्ण गद्य लेखक थे। प्राचीन संस्कृत-साहित्य के अभ्यास और विंध्याटवी के रमणीय प्रदेश में निवास के कारण विविध-भावमयी प्रकृति के रूप-माधुर्य की जैसी सच्ची परख, जैसी सच्ची अनुभूति, उनमे थी वैसी उस काल के किसी हिंदी कवि या लेखक में नहीं पाई जाती। अब तक जिन लेखकों की चर्चा हुई उनके हृदय में इस भूखंड की रूपमाधुरी के प्रति कोई सच्चा प्रेम-संस्कार न था। परंपरा पालन के लिये चाहे प्रकृति का वर्णन उन्होंने किया हो पर वहाँ उनका हृदय नहीं मिलता। अपने हृदय पर अंकित भारतीय ग्राम्य जीवन के माधुर्य का जो संस्कार ठाकुर साहब ने अपने "श्यामा-स्वप्न" में व्यक्त किया है। उसकी सरसता निराली है। बाबू हरिश्चंद्र, पंडित प्रतापनारायण आदि कवियों और लेखकों की दृष्टि और हृदय की पहुँच मानव-क्षेत्र तक ही थी, प्रकृति के ऊपर क्षेत्रों तक नहीं। पर ठाकुर जगमोहनसिंहजी ने नरक्षेत्र के सौंदर्य को प्रकृति के और क्षेत्रों के सौंदर्य के मेल में देखा है। प्राचीन संस्कृत साहित्य के रुचि-संस्कार के साथ भारतभूमि की प्यारी रूप रेखा को मन में बसानेवाले पहले हिदी लेखक थे, यहाँ पर बस इतना ही कहकर हम उनके "श्यामास्वप्न" का एक दृश्य-खंड नीचे देते हैं––

"नर्मदा के दक्षिण दंडकारण्य का एक देश दक्षिण कोशल नाम से प्रसिद्ध है––

याही मग है, कै गए दंढकवन श्री राम।
तासों पावन देस वह विंध्याटवी ललाम॥

मैं कहाँ तक इस सुंदर देश का वर्णन करूँ?... ... जहाँ की निर्झरिणी––जिनके तीर वानीर से भिरे, मदकल-कूंजित विहंगमों से शोभित हैं, जिनके मूल से स्वच्छ और शीतल जलधारा बहती है और जिनके किनारे के श्याम जबू के निकुंज फलभार से नमित जनाते हैं––शब्दायमान होकर झरती है। × × × जहाँ के शल्लकी-वृक्षों की छाल, में हाथी अपना बदन रगड़ रगड़ खुजली मिटाते हैं और उनमें से निकला क्षीर सब वन के शीतल समीर को सुरभित करता है। मंजु वंजुलकी लता और नील निचुल के निकुंज जिनके पत्ते ऐसे सघन जो सूर्य की किरनो की भी नहीं निकलने देते, इस नदी के तट पर शोभित हैं।

ऐसे दंडकारण्य के प्रदेश में भगवती चित्रोत्पला जो नीलोत्पलो की झाड़ियों और मनोहर पहाड़ियों के बीच होकर बहती है, ककगृद्ध नामक पर्वत से निकले अनेक दुर्गम विषम और असम भूमि के ऊपर से, बहुत से, तीर्थों और नगरों को अपने पुण्य-जल से पावन करती, पूर्व समुद्र में गिरती है।

इस नदी के तीर अनेक जगली गाँव बसे हैं। मेरा ग्राम इन सभी से उत्कृष्ट और शिष्ट जनों से पूरित है। इसके नाम ही को सुनकर तुम जानोगे कि यह कैसा सुंदर ग्राम है। × × × × इस पावन अभिराम ग्राम का नाम श्यामापुर है। यहाँ आम के आराम पथिके और पवित्र यात्रियों को विश्राम और आराम देते हैं। × × × × पुराने टूटे-फूटे देवाले इस ग्राम की प्राचीनता के साक्षी हैं। ग्राम के सीमात के झाड, जहाँ झुंड के झुंड कौवै और बगुले बसेरा लेते हैं, गवँई की शोभा बताते हैं। पौ फटते और गोधूली के समय गैयों के खुरों से उड़ी धूल ऐसी गलियों में छा जाती है मानों कुहिरा गिरता हो। × × × × ऐसा सुंदर ग्राम, जिसमें शयामसुंदर स्वयं विराजमान हैं, मेरा जन्म-स्थान था।"

कवियों के पुराने प्यार की बोली से देश की दृश्यावली को सामने रखने का मूक समर्थन तो इन्होंने किया ही है, साथ ही भाव-प्रबलता से प्रेरित कल्पना के विप्लव और विक्षेप अंकित करनेवाली एक प्रकार की प्रलापशैली भी इन्होंने निकाली जिसमे रूपविधान का वैलक्षण्य प्रधान था, न कि शब्दविधान का। क्या अच्छा होता यदि इस शैली का हिंदी में स्वतंत्र रूप से विकास होता। तब तो बंग-साहित्य में प्रचलति इस शैली का शब्दप्रधान रूप, जो हिंदी पर कुछ काल से चढ़ाई कर रहा है और अब काव्यक्षेत्र का अतिक्रमण कर कभी कभी विषय-निरूपक निबंधों तक का अर्थग्रास करने दौड़ता है, शायद जगह न पाता।

बाबू तोताराम––ये जाति के कायस्थ थे। इनका जन्म सं॰ १९०४ में और मृत्यु दिसंबर १९०२ में हुई। बी॰ ए॰ पास करके ये हेडमास्टर हुए पर अंत में नौकरी छोड़कर अलीगढ़ में प्रेस खोलकर 'भारतबंधु' पत्र निकालने लगे। हिंदी को हर एक प्रकार से हितसाधन करने के लिये जब भारतेंदुजी खड़े हुए थे उस समय उनका साथ देनेवालों में ये भी थे। इन्होंने "भाषासंवर्द्धिनी" नाम की एक सभा स्थापित की थी। ये हरिश्चंद्र-चंद्रिका के लेखको में से थे। उसमें 'कीर्तिकेतु' नाम का इनका एक नाटक भी निकला था। ये जब तक रहे, हिंदी के प्रचार और उन्नति में लगे रहे। इन्होंने कई पुस्तकें लिखकर अपनी सभा के सहायतार्थ अर्पित की थीं––जैसे "केटोकृतात नाटक" (अँगरेजी का अनुवाद), स्त्रीसुबोधिनी। भाषा इनकी साधारण अर्थात् विशेषतारहित है। इनके 'कीर्तिकेतु' नाटक का एक भाषण देखिए––

"यह कौन नहीं जानता? परंतु इस नीच संसार के आगे कीर्तिकेतु बिचारे की क्या चलती है? जो पराधीन होने ही से प्रसन्न रहता है और सिसुमार की सरन जा गिरने का जिसे चाव है, हमारा पिता अत्रिपुर में बैठा हुआ वृथा रमावती नगरी की नाम मात्र प्रतिष्ठा बनाए है। नवपुर की निर्बल सेना और एक रीती थोथी, सभी जो निष्फल बुद्धों से शेष रह गई है, वह उसके संग है। हे ईश्वर!" भारतेंदु के साथ हिंदी की उन्नति में योग देनेवालों में नीचे लिखे महानुभाव भी विशेष उल्लेख योग्य हैं––

पं॰ केशवराम भट्ट महाराष्ट्र ब्राहाण थे जिनके पूर्वज बिहार में बस गए थे। उनका जन्म सं॰ १९११ और मृत्यु सं॰ १९६१ में हुई। उनका संबंध शिक्षा-विभाग से था। कुछ स्कूली पुस्तकों के अतिरिक्त उन्होंने 'सज्जाद-सुंबुल' और 'शमशाद-सौसन' नामक दो नाटक भी लिखे जिनकी भाषा उर्दू ही समझिए। इन दोनों नाटकों की विशेषता यह है कि ये वर्तमान जीवन को लेकर लिखे गए हैं। इनमे हिंदू, मुसलमान, अँगरेज, लुटेरे, लफंगे मुकदमेबाज, मारपीट करनेवाले, रुपया हजम करनेवाले इत्यादि अनेक ढंग के पात्र आए हैं। सं॰ १९२९ में उन्होंने 'विहारबंधु' निकाला था और १९३१ में 'विहारबंधु प्रेस' खोला था।

पं॰ राधाचरण गोस्वामी का जन्म वृंदावन में सं॰ १९१५ में हुआ और मृत्यु सं॰ १९८२ (दिसंबर सन् १९२५) में हुई। ये संस्कृत के बहुत अच्छे विद्वान् थे। 'हरिश्चंद्र मैगजीन' को देखते देखते इनमें देशभक्ति और समाज सुधार के भाव जगे थे। साहित्य-सेवा के विचार से इन्होंने 'भारतेंदु' नाम का एक पत्र कुछ दिनों तक वृंदावन से निकाला था। अनेक सभा-समाजों में संमिलित होने और समाज-सुधार का उत्साह रखने के कारण ये कुछ ब्रह्मसमाज की ओर आकर्षित हुए थे, और उसके पक्ष में 'हिंदू बाधव' में कई लेख भी लिखे थे। भाषा इनकी गठी हुई होती थी।

इन्होंने कई बहुत ही अच्छे मौलिक नाटक लिखे हैं जैसे, सुदामा नाटक, सती चंद्रावली, अमरसिंह राठौर, तन-मन-धन श्री गोसाईंजी के अर्पण। इनमें से 'सती चंद्रावली' और 'अमरसिंह राठौर' बड़े नाटक हैं। 'सतीचंद्रावली' की कथावस्तु औरंगजेब के समय हिंदुओं पर होनेवाले, अत्याचारों का चित्र खींचने के लिये बड़ी निपुणता के साथ कल्पित की गई है। अमरसिंह राठौर ऐतिहासिक है। नाटकों के अतिरिक्त इन्होंने 'विरजा', 'जावित्री' और 'मृण्मयी' नामक उपन्यासो के अनुवाद भी बंगभाषा से किए हैं।

पंडित अंबिकादत्त व्यास का जन्म सं॰ १९१५ और मृत्यु सं॰ १९५७ में हुई। ये संस्कृत के प्रतिभाशाली विद्वान्, हिंदी के अच्छे कवि और सनातन धर्म के बड़े उत्साही उपदेशक थे। इनके धर्म-संबंधी व्याख्यानों की धूम रहा करती थी। "अवतार-मीमांसा" आदि धर्म-संबंधी पुस्तकों के अतिरिक्त इन्होंने बिहारी के दोहों के भाव को विस्तृत करने के लिये "बिहारी-विहार" नाम का एक बड़ा काव्य-ग्रंथ लिखा। पद्य-रचना का भी विवेचन इन्होंने अच्छा किया हैं। पुरानी चाल की कविता (जैसे, पावस-पचासा) के अतिरिक्त इन्होंने 'गद्य-काव्य मीमांसा' आदि अनेक गद्य की पुस्तकें भी लिखीं। 'इन्होंने', 'उन्होंने' के स्थान पर ये 'इनने', 'उनने' लिखते थे।

ब्रजभाषा की अच्छी कविता ये बाल्यावस्था से ही करते थे जिससे बहुत शीघ्र रचना करने का इन्हे अभ्यास हुआ। कृष्णलीला को लेकर इन्होंने ब्रजभाषा में 'ललिता नाटिका' लिखी थी। भारतेंदु के कहने से इन्होंने 'गो-संकट नाटक' लिखा जिसमे हिंदुओं के बीच असंतोष फैलने पर अकबर द्वारा गोवध बंद किए जाने की कथावस्तु रखी गई है।

पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या––इन्होंने गिरती दशा में "हरिश्चंद्रचंद्रिका" को सँभाला था और उसमें अपना नाम भी जोड़ा था। इनके रंग ढंग से लोग इन्हें इतिहास का अच्छा जानकर और विद्वान् समझते थे। कविराजा श्यामलदानजी ने जब अपने "पृथ्वीराज-चरित्र" ग्रंथ में "पृथ्वीराजरासो" को जाली ठहराया था तब इन्होंने "रासो-संरक्षा" लिखकर उसको असल सिद्ध करने का प्रयत्न किया था।

पंडित भीमसेन शर्मा––ये पहले स्वामी दयानंदजी के दहने हाथ थे। संवत् १९४० और १९४२ के बीच इन्होंने धर्म-संबंधी कई पुस्तके हिंदी में लिखीं और कई संस्कृत ग्रंथों के हिंदी भाष्य भी निकाले। इन्होंने "आर्य सिद्धांत" नामक एक मासिक पत्र भी निकाला था। भाषा के संबंध में इनका विलक्षण मत था। "संस्कृत भाषा की अद्भुत शक्ति" नाम का एक लेख लिखकर इन्होंने अरबी फारसी शब्दों को भी संस्कृत बना डालने की राय बड़े जोर शोर से दी थी––जैसे दुश्मन को "दुःशमन" सिफारिश को "क्षिप्राशिष", चश्मा को "चक्ष्मा", शिकायत को "शिक्षायत्र" इत्यादि। काशीनाथ खत्री––इनका जन्म संवत् १९०६ में अगरे के माईथान मुहल्ले में और परलोकवास सिरसा (जिला इलाहाबाद) में जहाँ ये पहले अध्यापक रह चुके थे और अंतिम दिनों में आकर बस गए थे, सं॰ १९४८ (९ जनवरी १८९१) में हुआ। कुछ दिन गवर्नमेंट वर्नाक्यूलर रिपोर्टर का काम करके पीछे ये लाट साहब के दफ्तर के पुस्तकाध्यक्ष नियुक्त हो गए थे। ये मातृभाषा के सच्चे सेवक थे। नीति, कर्तव्यपालन, स्वदेशहित ऐसे विषयो पर ही लेख और पुस्तकें लिखने की ओर इनकी रुचि थी। शुद्ध-साहित्य कोटि में आनेवाली रचनाएँ इनकी बहुत कम हैं। ये तीन पुस्तकें उल्लेख योग्य हैं––(१) ग्राम-पाठशाला और निकृष्ट नौकरी नाटक, (२) तीन इतिहासिक (?) रूपक और (३) बाल-विधवा संताप नाटक।

तीन ऐतिहासिक रूपकों में पहला तो हैं "सिंधुदेश की राजकुमारियाँ" जो सिंध में अरबों की चढ़ाई वाली घटना लेकर लिखा गया; दूसरा है 'गुन्नौर की रानी' जिसमें भुपाल के मुसलमानी राज्य के संस्थापक द्वारा पराजित गुन्नौर के हिंदू राजा की विधवा रानी का वृत्त है; तीसरा है 'लव जी का स्वप्न' जो रघुवंश की एक कथा के आधार पर है।

काशीनाथ खत्री वास्तव में एक अत्यंत अभ्यस्त अनुवादक थे। इन्होंने कई अँगरेजी पुस्तकों, लेखों और व्याख्यानों के अनुवाद प्रस्तुत किए, जैसे––शेक्सपियर के मनोहर नाटकों के अख्थिानों (लैंब कृत) का अनुवाद; नीत्युपदेश (ब्लैकी के Self Culture का अनुवाद); इंडियन नेशनल-कांग्रेस (ह्यूम के व्याख्यान का अनुवाद); देश की दरिद्रता और अँगरेजी राजनीति (दादाभाई नौरोजी के व्याख्यान का अनुवाद); भारत त्रिकालिक दशा (कर्नल अलकाट के व्याख्यान का अनुवाद) इत्यादि। अनुवादों के अतिरिक्त इन्होंने 'भारतवर्ष की विख्यात स्त्रियों के चरित्र', 'यूरोपियन धर्मशीला स्त्रियों के चरित्र', 'मातृभाषा की उन्नति किस विधि करना, योग्य है' इत्यादि अनेक छोटी छोटी पुस्तकें और लेख लिखे।

राधाकृष्णदास भारतेंदु हरिश्चंद्र के, फुफेरे भाई थे। इनका जन्म सं॰ १९२२ और मृत्यु सं॰ १९६४ में हुई। इन्होंने भारतेंदु को अधूरा छोड़ा हुआ नाटक 'सती प्रताप' पूरा किया था। इन्होंने पहले पहल 'दुःखिनी बाला' नामक एक छोटा सा रूपक लिखा था जो 'हरिश्चंद्र-चंद्रिका' और 'मोहन चंद्रिका' में प्रकाशित हुआ था। इसमें जन्मपत्री-मिलान, बालविवाह, अपव्यय आदि कुरीतियों का दुष्परिणाम दिखाया गया है। इनका दूसरा नाटक है 'महारानी पद्मावती अथवा मेवाड़-कमलिनी' जिसकी रचना चित्तौड़ पर अलाउद्दीन की चढ़ाई के समय की पद्मिनी-वाली घटना को लेकर हुई है। इनका सबसे उत्कृष्ट और बड़ा नाटक 'महाराणा प्रताप' (या-राजस्थान केसरी) है, जो सं॰ १९५४ में समाप्त हुआ था। यह नाटक बहुत ही लोकप्रिय हुआ और इसको अभिनय कई बार कई जगह हुआ।

भारतीय प्रथा के अनुसार इसके सब पात्र भी आदर्श के साँचो में ढले हुए हैं। कथोपकथन यद्यपि चमत्कारपूर्ण नहीं, पर पात्र और अवसर के सर्वथा उपयुक्त है; उनमें कहीं कहीं ओज भी पूरा है। वस्तु योजना बहुत ही व्यवस्थित है। इस नाटक में अकबर का हिंदुओं के प्रति सद्भाव उसकी कुटनीति के रूप में प्रदर्शित है। यह बात चाहे कुछ लोगो को पसंद न हो।

नाटकों के अतिरिक्त इन्होंने "निस्सहाय हिंदू" नामक एक छोटा सा उपन्यास भी लिखा था। बँगला, के कई उपन्यासों के अनुवाद इन्होंने किए हैं––जैसे रवर्णलता, मरता क्या न मरता।

कार्तिकप्रसाद खत्री––(जन्म सं॰ १९०८, मृत्यु १९६१) ये आसाम, बँगाल आदि कई स्थानों में रहे। हिंदी का प्रेम इनमें इतना अधिक था, कि २० वर्ष की अवस्था में ही इन्होंने कलकत्ते से हिंदी की पत्र-पत्रिकाएँ निकालने का उद्योग किया था। इनका "रेल का विकट-खेल" नाम का एक नाटक १५ अप्रैल सन् १८७४ ई॰ की संख्या से 'हरिश्चंद्र मैगजीन' में छपने लगा था, पर पूरा न हुआ। 'इला', 'प्रमीला', 'जया', 'मधुमालती' इत्यादि अनेक बँगला उपन्यासों के इनके किए हुए अनुवाद काशी के 'भारत जीवन' प्रेस से निकले।

फ्रेडरिक पिन्काट का उल्लेख पहले हो चुका है और यह कहा जा चुका है कि वे इँगलैंड में बैठे बैठे हिंदी में लेख और पुस्तकें लिखते और हिंदी लेखकों के साथ पत्रव्यवहार भी हिंदी में ही करते थे। उन्होंने दो पुस्तकें हिंदी में लिखी है–– १ बालदीपक ४ भाग (नागरी और कैथी अक्षरों में), २ विक्टोरिया-चरित्र। ये दोनों पुस्तकें खड्गविलास प्रेस, बाँकीपुर में छपी थीं। 'बालदीपक' बिहार के स्कूलों में पढ़ाई जाती थी। उसके एक पाठ का कुछ अंश भाषा के नमूने के लिये दिया जाता है––

"हे लडको! तुमको चाहिए कि अपनी पोथी को बहुत सँभाल कर रखो। मैली न होने पावे, बिगड़े नहीं और जब उसे खोलो चौकसाई से खोलो कि उसका पन्ना अँगुली के तले दबकर फट न जावे।"

'विक्टोरिया-चरित्र' १३६ पृष्ठों की पुस्तक है। इसकी भाषा उनके पत्रों की भाषा की अपेक्षा अधिक मुहावरेदार है।

उनके विचार उनके लंबे लंबे पत्रो में मिलते हैं। बाबू कार्तिकप्रसाद खत्री को सं॰ १९४३ के लगभग अपने एक पत्र में वे लिखते हैं––

"आपका सुखद पत्र मुझको मिला और उससे मुझको परम आनंद हुआ।

आपकी समझ में हिंदी भाषा का प्रचलित होना उत्तर-पश्चिम-वासियों के लिये सबसे भारी बात है। मैं भी संपूर्ण रूप से जानता हूँ कि जब तक किसी देश में निज भाषा और अक्षर सरकारी और व्यवहार सबधी कामों में नहीं प्रवृत्त होते हैं तब तक उस देश का परम सौभाग्य हो नहीं सकता। इसलिये मैंने बार बार हिंदी भाषा के प्रचलित करने का उद्योग किया है।

देखो, अस्सी बरस हुए बंगाली भापा निरी अपभ्रंश भाषा थी। पहले पहल थोड़ी-थोड़ी संस्कृत बाते उसमें मिली थी। परंतु अब क्रम करके सँवारने से निपट अच्छी भाषा हो गई। इसी तरह चाहिए कि इन दिनों में पंडित लोग हिंदी भाषा में थोड़ी-थोड़ी संस्कृत बाते मिलावें। इस पर भी स्मरण कीजिए कि उत्तर-पश्चिम में हजार बरस तक फारसी बोलनेवाले लोग राज करते थे। इसी कारण उस देश के लोग बहुत फारसी बातों को जानते हैं। उन फारसी बातों को भाषा से निकाल देना असंभव है। इसलिये उनको निकाल देने का उद्योग मूर्खता का काम है।"

हिंदुस्तानी पुलिस की करतूतों को सुनकर आपने बा॰ कार्तिकप्रसाद को लिखा था––

"कुछ दिन हुए कि मेरे एक हिंदुस्तानी दोस्त ने हिंदुस्तान के पुलिस के जुल्म की ऐसी तस्वीर खैंची कि मैं हैरान हो गया। मैंने एक चिट्ठी लाहौर नगर के 'ट्रीव्यून' नामी समाचार पत्र को लिखी। उस चिट्ठी के छपते ही मेरे पास बहुत से लोगों ने चिट्ठियाँ भेजीं जिनसे प्रकाशित हुआ कि पुलिस का जुल्म उससे भी ज्यादा है जितना मैंने सुना था। अब मैंने पक्का इरादा कर लिया है कि जब तक हिंदुस्तान की पुलिस वैसी ही न हो जावे जैसे कि हमारे इँगलिस्तान में है, मैं इस बात का पीछा न छोड़ूँगा।"

भारतेंदु हरिश्चंद्र को एक चिट्ठी पिन्काट साहब ने ब्रजभाषा पद्य में लिखी थी जो नीचे दी जाती है––

"वैस-बस-अवतंस, श्रीबाबू हरिचंद जू।
छीर नीर कलहस, टुक उत्तर लिखि दैव मोहि॥

पर उपकार में उदार अवनी में एक, भाषत अनेक यह राजा हरिचंद है। विभव बड़ाई वपु वसन विलास लखि कहत यहाँ के लोग बाबू हरिचंद है। चंद वैसो अमिय अनदकर आरत को कहत कविंद यह भारत को चंद हैं। कैसे अब देखैं, को बतावै, कहाँ पावैं? होय, कैसे वहाँ आवैं हम कोई मतिमंद हैं।

श्रीयुत सकल-कविंद-कुल-नुत बाबू हरिचंद।
भारत-हृदय-सतार-तभ उदय रहो जनु चंद॥"


प्रचार-कार्य

भारतेंदु के समय से साहित्य-निर्माण का कार्य तो धूम-धाम से चल पड़ा पर उस साहित्य के सम्यक् प्रचार में कई प्रकार की बाधाएँ थीं। अदालतों की भाषा बहुत पहले से उर्दू चली आ रही थी इससे अधिकतर बालकों को अँगरेजी के साथ या अकेले उर्दू की ही शिक्षा दी जाती थी। शिक्षा का उद्देश्य अधिकतर सरकारी नौकरियों के योग्य बनाना ही समझा जाता रहा है। इससे चारों ओर उर्दू पढ़े-लिखे लोग ही दिखाई पड़ते थे। ऐसी अवस्था में साहित्य-निर्माण के साथ हिंदी के प्रचार का उद्योग भी बराबर चलता रहा। स्वयं बाबू हरिश्चंद्र को हिंदी भाषा और नागरी अक्षरों की उपयोगिता समझाने के लिये बहुत से नगरों में व्याख्यान देने के लिये जाना पड़ता था। उन्होंने इस संबंध में कई पैंफ्लेट भी लिखे। हिंदी-प्रचार के लिये बलिया में बड़ी भारी सभा हुई थी जिसमें भारतेंदु का बड़ा मार्मिक व्याख्यान हुआ था। वे जहाँ जाते अपना यह मूल मंत्र अवश्य सुनाते थे––

निज भाषा-उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय कौ सूल॥

इसी प्रकार पंडित प्रतापनारायण मिश्र भी "हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान" का राग अलापते फिरते थे। कई स्थानों पर हिंदी-प्रचार के लिये सभाएँ स्थापित हुईं। बाबू तोताराम द्वारा स्थापित अलीगढ़ की "भाषासंवर्द्धिनी" सभा का उल्लेख हो चुका है। ऐसी ही एक सभा सन् १८८४ में "हिंदी उद्धारिणि प्रतिनिधि मध्य-सभा" के नाम से प्रयाग में प्रतिष्ठित हुई थी। सरकारी दफ्तरों में नागरी के प्रवेश के लिये बाबू हरिश्चंद्र ने कई बार उद्योग किया था। सफलता न प्राप्त होने पर भी इस प्रकार का उद्योग बराबर चलता रहा। जब लेखकों की दूसरी पीढ़ी तैयार हुई तब उसे अपनी बहुत कुछ शक्ति प्रचार के काम में भी लगानी पड़ी।

भारतेंदु के अस्त होने के उपरांत ज्यों ज्यों हिंदी-गद्य-साहित्य की वृद्धि होती गई त्यों त्यों प्रचार की आवश्यकता भी अधिक दिखाई पड़ती गई। अदालती भाषा उर्दू होने से नवशिक्षितों की अधिक संख्या उर्दू पढ़नेवालों की थी जिससे हिंदी-पुस्तकों के प्रकाशन का उत्साह बढ़ने नहीं पाता था। इस साहित्य-संकट के अतिरिक्त नागरी का प्रवेश सरकारी दफ्तरों में न होने से जनता का घोर संकट भी सामने था। अतः संवत् १९५० में कई उत्साही छात्रों के उद्योग से, जिनमें बाबू श्यामसुंददास, पंडित रामनारायण मिश्र और ठाकुर शिवकुमारसिंह मुख्य थे, काशी-नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। सच पूछिए तो इस सभा की सारी समृद्धि और कीर्त्ति बाबू श्यामसुंदरदासजी के त्याग और सतत परिश्रम का फल है। वे ही आदि से अंत तक इसके प्राण स्वरूप स्थित होकर बराबर इसे अनेक बड़े उद्योगों में तत्पर करते रहे। इसके प्रथम सभापति भारतेंदुजी के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्णदास हुए। इसके सहायकों में भारतेंदु के सहयोगियों में से कई सज्जन थे, जैसे––रायबहादुर पंडित लक्ष्मीशंकर मिश्र एम॰ ए॰, खङ्गविलास प्रेस के स्वामी बाबू रामदीनसिंह, 'भारत-जीवन' के अध्यक्ष बाबू रामकृष्ण वर्मा, बाबू गदाधरसिंह, बाबू कार्त्तिकप्रसाद खत्री इत्यादि। इस सभा के उद्देश्य दो हुए––नागरी अक्षरों का प्रचार और हिंदी-साहित्य की समृद्धि।

उक्त दो उद्देश्यों में से यद्यपि प्रथम का प्रत्यक्ष संबंध हिंदी-साहित्य के इतिहास से नहीं जान पड़ता, पर परोक्ष संबंध अवश्य है। पहले कह आए हैं कि सरकारी दफ्तरों आदि में नागरी का प्रवेश न होने से नवशिक्षितों में हिंदी पढ़नेवालों की पर्य्याप्त संख्या नहीं थी। इससे नूतन साहित्य के निर्माण और प्रकाशन में पूरा उत्साह नहीं बना रहने पाता था। पुस्तकों का प्रचार होते न देख प्रकाशक भी हतोत्साह हो जाते थे और लेखक भी। ऐसी परिस्थिति में नागरीप्रचार के आंदोलन का साहित्य की वृद्धि के साथ भी संबध मान हम संक्षेप में उसका उल्लेख कर देना आवश्यक समझते हैं।

बाबू हरिश्चंद्र किस प्रकार नागरी और हिंदी के संबंध में अपनी चंद्रिका में लेख छापा करते और जगह जगह घूमकर वक्तृता दिया करते थे। यह हम पहले कह आए हैं। वे जब बलिया के हिंदी-प्रेमी कलक्टर के निमंत्रण पर वहाँ गए थे तब कई दिनों तक बड़ी धूम रही। हिंदी भाषा और नागरी अक्षरों की उपयोगिता पर उनका बहुत अच्छा व्याख्यान तो हुआ ही था, साथ ही 'सत्यहरिश्चंद्र', 'अंधेरनगरी' और 'देवाक्षरचरित्र' के अभिनय भी हुए थे। "देवाक्षरचरित्र" पंडित रविदत्त शुक्ल का लिखा हुआ एक प्रहसन था जिसमें उर्दू लिपि की गड़बड़ी के बड़े ही विनोदपूर्ण दृश्य दिखाए गए थे।

भारतेंदु के अस्त होने के कुछ पहले ही नागरी-प्रचार का झंडा पंडित गौरीदत्तजी ने उठाया। ये मेरठ के रहनेवाले सारस्वत ब्राह्मण थे और मुदर्रिसी करते थे। अपनी धुन के ऐसे पक्के थे कि चालीस वर्ष की अवस्था हो जाने पर इन्होंने अपनी सारी जायदाद नागरी-प्रचार के लिये लिखकर रजिस्टरी करा दी और आप सन्यासी होकर 'नागरी-प्रचार' का झड़ा हाथ में लिए चारों और घूमने लगे। इनके व्याख्यानों के प्रभाव से न जाने कितने देवनागरी-स्कूल मेरठ के आस पास खुले। शिक्षा-संबंघिनी कई पुस्तकें भी इन्होंने लिखीं। प्रसिद्ध 'गौरी-नागरी-कोश' इन्हीं का है। जहाँ कहीं कोई मेला-तमाशा होता वहाँ पंडित् गौरीदत्तजी लड़कों की खासी भीड़ पीछे लगाए नागरी का झंडा हाथ में लिए दिखाई देते थे। मिलने पर 'प्रणाम', 'जयराम' आदि के स्थान पर लोग इनसे "जय नागरी की" कहा करते थे। इन्होंने संवत् १९५१ में दफ्तरों में नागरी जारी करने के लिये एक मेमोरियल भी भेजा था। नागरीप्रचारिणी सभा अपनी स्थापना के कुछ ही दिनों पीछे दबाई नागरी के उद्धार के उद्योग में लग गई। संवत् १९५२ में जब इस प्रदेश के छोटे लाट सर ऐटनी (पीछे लार्ड) मैकडानल काशी में आए तब सभा ने एक आवेदन-पत्र उनको दिया और सरकारी दफ्तरों से नागरी को दूर रखने से जनता को जो कठिनाइयाँ हो रही थीं और शिक्षा के सम्यक् प्रचार में जो बाधाएँ पड़ रही थीं, उन्हें सामने रखा। जब उन्होंने इस विषय पर पूरा विचार करने का वचन दिया तब से बराबर सभा व्याख्यानों और परचों द्वारा जनता के उत्साह को जाग्रत करती रही। न जाने कितने स्थानों पर डेपुटेशन भेजे गए और हिंदी भाषा और नागरी अक्षरों की उपयोगिता की ओर ध्यान आकर्षित किया गया। भिन्न-भिन्न नगरों में सभा की शाखाएँ स्थापित हुई। संवत् १९५५ में एक बड़ा प्रभावशाली डेपुटेशन––जिसमे अयोध्या-नरेश महाराज प्रतापनारायणसिंह, माँडा के राजा रामप्रसादसिह, आवागढ़ के राजा बलवंतसिंह, डाक्टर सुंदरलाल और पंडित् मदनमोहन मालवीय ऐसे मान्य और प्रतिष्ठित लोग थे––लाट साहब से मिला और नागरी का मेमोरियल अर्पित किया।

उक्त मेमोरियल की सफलता के लिये कितना भीषण उद्योग प्रांत भर में किया गया था, यह बहुत लोगों को स्मरण होगा। सभा की ओर से न जाने कितने सज्जन सब नगरों में जनता के हस्ताक्षर लेने के लिये भेजे गए जिन्होंने दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा। इस आंदोलन के प्रधान नायक देशपूज्य श्रीमान् पंडित् मदनमोहन मालवीयजी थे। उन्होंने "अदालती लिपि और प्राइमरी शिक्षा" नाम की एक बड़ी अँगरेजी पुस्तक, जिसमे नागरी को दूर रखने के दुष्परिणामों की बड़ी ही विस्तृत और अनुसंधान-पूर्ण मीमांसा थी, लिखकर प्रकाशित की। अंत में संवत् १९५७ में भारतेदु के समय से ही चले आते हुए उस उद्योग का फल प्रकट हुआ और कचहरियों में नागरी के प्रवेश की घोषणा प्रकाशित हुई।

सभा के साहित्यिक आयोजनों के भीतर हम बराबर हिंदी-प्रेमियों की सामान्य आकाक्षाओं और प्रवृत्तियों का परिचय पाते चले आ रहे है। पहले ही वर्ष "नागरीदास का जीवनचरित्र" नामक जो लेख पढ़ा गया वह कवियों के विषय में बढ़ती हुई लोकजिज्ञासा का पता देता है। हिंदी के पुराने कवियो का कुछ इतिवृत्त-संग्रह पहले पहल संवत् १८९६ में गार्सा द तासी ने अपने "हिंदुस्तानी साहित्य का इतिहास" में किया, फिर सं॰ १९४० में ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने अपने "शिवसिंह सरोज" में किया। उसके पीछे प्रसिद्ध भाषावेत्ता डाक्टर (पीछे सर) ग्रियर्सन ने संवत् १९४६ में Modern Vernacular Literature of Northern Hindustan प्रकाशित किया। कवियों का वृत्त भी साहित्य का एक अंग है। अतः सभा ने आगे चलकर हिंदी पुस्तकों की खोज का काम भी अपने हाथ में लिया जिससे बहुत से गुप्त और अप्रकाशित रत्नों के मिलने की पूरी आशा के साथ साथ कवियों का बहुत कुछ वृत्तांत प्रकट होने की भी पूरी संभावना थी। संवत् १९५६ में सभा को गवर्मेंट से ४००) वार्षिक सहायता इस काम के लिये प्राप्त हुई और खोज धूमधाम से आरंभ हुई। यह वार्षिक सहायता ज्यों ज्यों बढ़ती गई त्यों त्यों काम भी अधिक विस्तृत रूप में होता गया। इसी खोज का फल हैं कि आज कई सौ ऐसे कवियों की कृतियों का परिचय हमें प्राप्त हैं जिनका पहले पता न था। कुछ कवियों के संबंध में बहुत सी बातों की नई जानकारी भी हुई। सभा की "ग्रंथमाला" में कई पुराने कवियों के अच्छे अच्छे अप्रकाशित ग्रंथ छपे। सारांश यह कि इस खोज के द्वारा हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने की खासी सामग्री उपस्थित हुई जिसकी सहायता से दो एक अच्छे कविवृत्त-संग्रह भी हिंदी में निकले।

हिंदी भाषा के द्वारा ही सब प्रकार के वैज्ञानिक विषयों की शिक्षा की व्यवस्था का विचार भी लोगों के चित्त से अब उठ रहा था। पर बड़ी भारी कठिनता पारिभाषिक शब्दों के संबंध में थी। इससे अनेक विद्वानों के सहयोग और परामर्श से संवत् १९६३ में सभी ने "वैज्ञानिक कोश" प्रकाशित किया। भिन्न भिन्न विषयो पर पुस्तकें लिखाकर प्रकाशित करने का काम तो तब से अब तक बराबर चल ही रहा है। स्थापना के तीन वर्ष पीछे सभा ने अपनी पत्रिका (ना॰ प्र॰ पत्रिका) निकाली जिसमें साहित्यिक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक सब प्रकार के लेख आरंभ ही से निकलने लगे थे और जो आज भी साहित्य से संबंध रखनेवाले अनुसंधान और पर्यालोचन उद्देश्य रखकर चल रही है। 'छत्रप्रकाश', 'सुजानचरित्र', 'जंगनामा', 'पृथ्वीराज रासो', 'परमाल रासो' आदि पुराने ऐतिहासिक काव्यो को प्रकाशित करने के अतिरिक्त तुलसी, जायसी,भूषण, देव ऐसे प्रसिद्ध कवियों की ग्रंथावलियों के भी बहुत सुंदर संस्करण सभा ने निकाले है। "मनोरंजन पुस्तक-माला" में ५० से ऊपर भिन्न भिन्न विषयों पर उपयोगी पुस्तकें निकल चुकी है। हिंदी का सबसे बड़ा और प्रामाणिक व्याकरण तथा कोश (हिंदी शब्दसागर) इस सभा के चिरस्थायी कार्यों में गिने जायँगे।

इस सभा ने अपने ३५ बर्ष के जीवन में हिंदी-साहित्य के "वर्तमान काल" की तीनों अवस्थाएँ देखी हैं[]। जिस समय यह स्थापित हुई थी उस समय भारतेंदु द्वारा प्रवर्तित प्रथम उत्थान की ही परंपरा चली आ रही थी। वह प्रचार काल था। नागरी अक्षरों और हिंदी-साहित्य के प्रचार के मार्ग में बड़ी बाधाएँ थी। 'नागरीप्रचारिणी पत्रिका' की प्रारंभिक संख्याओं को यदि हम निकाल कर देखे तो उनमें अनेक विषयों के लेखों के अतिरिक्त कहीं कहीं ऐसी कविताएँ भी मिल जायँगी जैसी श्रीयुत महावीरप्रसाद द्विवेदी की "नागरी ने यह दशा!"

नूतन हिंदी-साहित्य का वह प्रथम उत्थान कैसा हँसता-खेलता सामने आया था, भारतेंदु के सहयोगी लेखकों का वह मंडल किस जोश और जिदःदिली के साथ और कैसी चहल पहल के बीच अपना काम कर गया, इसका उल्लेख हो चुका है। सभा की स्थापना के पीछे घर सँभालने की चिंता और व्यग्रता के से कुछ चिह्न हिंदी-सेवक-मंडल के बीच दिखाई पडने लगे थे। भारतेंदु जी के सहयोगी अपने ढर्रे पर कुछ न कुछ लिखते तो जा रहे थे, पर उनमें वह तत्परता और वह उत्साह नहीं रह गया था। बाबू हरिश्चंद्र के गोलोकवास के कुछ आगे-पीछे जिन लोगों ने साहित्य-सेवा ग्रहण की थी वे ही अब प्रौढ़ता प्राप्त करके काल की गति परखते हुए अपने कार्य में तत्पर दिखाई देते थे। उनके अतिरिक्त कुछ नए लोग भी मैदान में धीरे धीरे उतर रहे थे। यह नवीन हिंदी साहित्य का द्वितीय उत्थान था जिसके आरंभ में 'सरस्वती' पत्रिका के दर्शन हुए।


  1. देखो पृ॰ ४३१।
  2. देखो पृ॰ ४२६-२७ ।
  3. संवत् १९७५ तक।