हिंदी साहित्य का इतिहास/आदिकाल/प्रकरण ४ फुटकल रचनाएँ

काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ५३ से – ५९ तक

 

प्रकरण ४

फुटकल रचनाएँ

वीरगाथा काल के समाप्त होते-होते हमें जनता की बहुत कुछ असली बोलचाल और उसके बीच कहे सुने जानेवाले पद्यों की भाषा के बहुत कुछ असली रूप का पता चलता है। पता देनेवाले हैं दिल्ली के खुसरो मियाँ और तिरहुत के विद्यापति। इनके पहले की जो कुछ संदिग्ध असंदिग्ध सामग्री मिलती है उस पर प्राकृत की रूढ़ियों का थोड़ा या बहुत प्रभाव अवश्य पाया जाता है। लिखित साहित्य के रूप में ठीक बोल-चाल की भाषा या जनसाधारण के बीच कहे सुने जानेवाले गीत पद्य आदि रक्षित रखने की ओर मानो किसी का ध्यान ही नहीं था। जैसे पुराना चावल ही बड़े आदमियों के खाने योग्य समझा जाता है वैसे ही अपने समय से कुछ पुरानी पड़ी हुई, परंपरा के गौरव से युक्त, भाषा ही पुस्तक रचनेवालो के व्यवहार योग्य समझी जाती थी। पश्चिम की बोलचाल, गीत, मुख-प्रचलित पद्य आदि का नमूना जिस प्रकार हम-खुसरो की कृति मे पाते है उसी प्रकार बहुत पूरब का, नमूना, विद्यापति की पदावली में। उसके पीछे फिर भक्ति काल के कवियों ने प्रचलित देश-भाषा और साहित्य के बीच पूरा पूरा सामंजस्य घटित कर दिया।

(७) खुसरो––पृथ्वीराज की मृत्यु (संवत् १२४९) के ९० वर्ष पीछे खुसरो ने संवत् १३४० के आस पास रचना आरंभ की। इन्होंने गयासुद्दीन बलबन से लेकर अलाउद्दीन और कुतुबुद्दीन मुबारकशाह तक कई पठान बादशाहों का जमाना देखा था। ये फारसी के बहुत अच्छे ग्रंथकारों और अपने समय के नामी कवि थे। इनकी मृत्यु संवत् १३८१ मे हुईं। ये बड़े ही विनोदी, मिलनसार, और सहृदय थे, इसी से जनता की सब बातों में पूरा योग देना चाहते थे। जिस ढंग के दोहे, तुकबंदियाँ और पहेलियाँ-आदि साधारण जनता की बोलचाल में इन्हें प्रचलित मिली उसी ढंग के पद्य पहेलियाँ आदि कहने की उत्कंठा इन्हें भी हुई। इनकी पहेलियाँ और मुकरियाँ प्रसिद्ध हैं। इनमें उक्ति वैचित्र्य की प्रधानता थी; यद्यपि कुछ रसीले गीत और दोहे भी इन्होंने कहे हैं।

यहाँ इस बात की ओर ध्यान दिला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि 'काव्यभाषा' का ढाँचा अधिकतर शौरसेनी या पुरानी ब्रजभाषा का ही बहुत काल से चला आता था। अतः जिन पच्छिमी प्रदेशों की बोलचाल खड़ी होती थी, उनमें जनता के बीच प्रचलित पद्यों, तुकबंदियोंं आदि की भाषा ब्रजभाषा की ओर झुकी हुई रहती थी। अब भी यह बात पाई जाती है। इसी से खुसरो की हिंदी-रचनाओं में भी दो प्रकार की भाषा पाई जाती है। ठेठ खड़ी बोलचाल पहेलियों, मुकरियों और दोसखुनों में ही मिलती है––यद्यपि उनमें भी कहीं कहीं ब्रजभाषा की झलक है। पर गीतों और दोहों की भाषा ब्रज या मुख-प्रचलित काव्यभाषा ही है। यही ब्रजभाषापन देख उर्दू साहित्य के इतिहास-लेखक प्रो॰ आजाद को यह भ्रम हुआ था कि ब्रजभाषा से खड़ी बोली (अर्थात् उसका अरबी-फारसी-ग्रस्त रूप उर्दू) निकल पड़ी[]

खुसरो के नाम पर संगृहीत पहेलियों में कुछ प्रक्षिप्त और पीछे की जोड़ी पहेलियाँ भी मिल गई हैं, इसमें संदेह नही। उदाहरण के लिये हुक्केवाली पहेली लीजिए। इतिहास-प्रसिद्ध बात है कि तंबाकू का प्रचार हिंदुस्तान में जहाँगीर के समय से हुआ। उसकी पहली गोदाम अँगरेजों की सूरतवाली कोठी थी जिससे तंबाकू का एक नाम ही 'सूरती' या 'सुरती' पड़ गया। इसी प्रकार भाषा के संबंध से भी संदेह किया जा सकता है कि वह दीर्घ मुख-परंपरा के बीच कुछ बदल गई होगी, उसका पुरानापन कुछ निकल गया होगा। किसी अंश तक यह बात हो सकती हैं, पर साथ ही यह भी निश्चित है कि उसका ढाँचा कवियों और चारणों द्वारा व्यवहृत प्राकृत की रूढ़ियों से जकड़ी काव्यभाषा से भिन्न था। प्रश्न यह उठता है कि क्या उस समय तक भाषा-घिसकर इतनी चिकनी हो गई थी जितनी पहेलियों में मिलती है। खुसरो के प्रायः दो सौ वर्ष पीछे की लिखी जो कबीर की बानी की हस्तलिखित प्रति मिली है उसकी भाषा कुछ पंजाबी लिए राजस्थानी है, पर इसमें पुराने नमूने अधिक हैं––जैसे, सप्तमी विभक्ति के रूप में इ (घरि=घर में) 'चला' 'समाया' के स्थान पर 'चलिया' 'चल्या' 'समाइया'। 'उनई आई' के स्थान पर 'उनमिवि आई' (झुक आई) इत्यादि। यह बात कुछ उलझन की अवश्य है पर विचार करने पर यह अनुमान दृढ़ हो जाता है कि खुसरो के समय में 'इट्ठ', 'बसिट्ठ' आदि रूप 'ईठ' (इष्ट, इट्ठ, ईठ), बसीठ (विसृष्ट,बसिट्ठ ,बिसिट्ठ, बसीठ) हो गए थे। अतः पुराने प्रत्यय आदि भी बोलचाल से बहुत कुछ उठ गए थे। यदि 'चलिया' 'मारिया', आदि पुराने रूप रखें तो पहेलियों के छंद टूट जायेंगे, अतः यही धारणा होती है कि खुसरो के समय में बोलचाल की स्वाभाविक भाषा घिसकर बहुत कुछ उसी रूप में आ गई थी जिस रूप में खुसरो मे मिलती है। कबीर की अपेक्षा खुसरो का ध्यान बोलचाल की भाषा की ओर अधिक था; उसी प्रकार जैसे अँगरेजों का ध्यान बोलचाल की भाषा की ओर अधिक रहता है। खुसरो का लक्ष्य जनता का मनोरंजन था। पर कबीर धर्मोपदेशक थे, अतः उनकी बानी पोथियों की भाषा का सहारा कुछ न कुछ खुसरो की अपेक्षा अधिक लिए हुए है।

नीचे खुसरो की कुछ पहेलियाँ, दोहे और गीत दिए जाते हैं––

एक थाल मोती से भरा। सबके सिर पर औंधा धरा॥
चारों ओर वह थाली फिरे। मोती उससे एक न गिरे॥

(अकाश)

एक नार ने अचरज किया। साँप मारि पिंजड़े में दिया॥
जों जों साँप ताल को खाए। सूखे ताल साँप मर जाए॥

(दीया बत्ती)

एक नार दो को ले बैठी। टेढी होके बिल में पैठीं॥
जिसके बैठे उसे सुहाय। खुसरो उसके, बल-बल जाय॥

(पायजामा)

अरथ तो इसका बूझेगा। मुँह देखो तो सूझेगा॥

(दर्पण)

ऊपर के मोटे टाइप के शब्दो में खड़ी बोली को कितना निखरा हुआ रूप है! अब इनके स्थान पर ब्रजभाषा के रूप देखिए––

चूक भई कुछ वासों ऐसी। देश छोड़ भयो परदेशी॥



एक नार पिया को भानी। तन वाको सगरा ज्यों पानी॥



चाम मास वाके नहिं नेक। हाड़ हाड़ में वाके छेद॥
मोहिं अचंभो आवत ऐसे। वामें जीव बसत हैं कैसे॥

अब नीचे के दोहे और गीत बिल्कुल ब्रजभाषा अर्थात् मुख-प्रचलित काव्यभाषा में देखिए––

उज्जल वरन, अधीन तन, एक चित्त दो ध्यान। देखत में तो साधु है, निपट पाप की खान॥
खुसरो रैन सुहाग की जागी पीके संग। तन मेरो मन पीउ को, दोउ भए एकरंग॥
गोरी सोवै सेज पर मुख पर डारै केस। चल खुसरों घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥


मोरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल। कैसै गर दीनी वकस मोरी माल॥
सूनी सेज डरावन लागै, बिरहा-अगिन मोहि डस डस जायें।


हजरत निजामदीन चिस्ती जरजरीं बख्श पीर
जोइ जोइ ध्यावैं तेइ तेइ फल पावै,
मेरे मन की मुराद भर दीजै अमीर॥


जे हाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना, बनाय बतियाँ।
कि ताबें हिज्रांं न दारम, ऐ जाँ! न लेहु काहें लगाये छतियाँ॥
शबाने हिज्रां दराज चूँ जुल्फ व रोजे वसलत चूँ उम्र कोतह।
सखी! पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियां!॥


(८) विद्यापति–– अपभ्रंश के अंतर्गत इनका उल्लेख हो चुका है[]। पर जिसकी रचना के कारण ये 'मैथिलकोकिल' कहलाए वह इनकी पदावली है। इन्होंने अपने समय की प्रचलित मैथिली भाषा का व्यवहार किया है। विद्यापति को बंगभाषा वाले अपनी ओर खींचते हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी बिहारी और मैथिली को 'मागधी' से निकली होने के कारण हिंदी से अलग माना है। पर केवल भाषाशास्त्र की दृष्टि से कुछ प्रत्ययों के आधार पर ही साहित्य-सामग्री का विभाग नहीं किया जा सकता। कोई भाषा कितनी दूर तक समझी जाती है, इसका विचार भी तो आवश्यक होता है। किसी भाषा का समझा जाना अधिकतर उसकी शब्दावली (Vocabulary) पर अवलंबित होता है। यदि ऐसा न होता तो उर्दू और हिंदी का एक ही साहित्य माना जाता।

खड़ी बोली, बाँगड़ू, ब्रज, राजस्थानी, कन्नौजी, बैसवारी, अवधी इत्यादि में रूपों और प्रत्ययों का परस्पर इतना भेद होते हुए भी सब हिंदी के अंतर्गत मानी जाती हैं। इनके बोलने वाले एक दूसरे की बोली समझते हैं। बनारस, गाजीपुर, गोरखपुर, बलिया आदि जिलों मे 'आयल-आइल', 'गयल-गइल', 'हमरा-तोहरा' आदि बोले जाने पर भी वहाँ की भाषा, हिंदी के सिवाय दूसरी नहीं कही जाती। कारण है शब्दावली की एकता। अतः जिस प्रकार हिंदी-साहित्य "बीसलदेवरासो" पर अपना अधिकार रखता है उसी प्रकार विद्यपति की पदावली पर भी।

विद्यापति के पद अधिकतर शृंगार के ही हैं, जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं। इन पदों की रचना जयदेव के गीतकाव्य के अनुकरण पर ही शायद की गई हो। इनका माधुर्य्य अद्भुत है। विद्यापति शैव थे। उन्होंने इन पदों की रचना शृंगार-काव्य की दृष्टि से की है, भक्त के रूप मे नहीं। विद्यापति को कृष्णभक्तों की परंपरा में न समझना चाहिए।

आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने 'गीत-गोविंद' के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी। सूर आदि कृष्ण-भक्तों के शृंगारी पदों की भी ऐसे लोग अध्यात्मिक व्याख्या चाहते हैं। पता नहीं बाल-लीला के पदों का वे क्या करेंगे। इस संबंध में यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि लीला का कीर्त्तन कृष्ण-भक्ति का एक प्रधान अंग है। जिस रूप में लीलाएँ वर्णित हैं उसी रूप में उनका ग्रहण हुआ है और उसी रूप में वे गोलोक में नित्य मानी गई हैं, जहाँ वृंदावन, यमुना, निकुंज, कदंब, सखा, गोपिकाएँ इत्यादि सभी नित्य रूप में हैं। इन लीलाओं का दूसरा अर्थ निकालने की आवश्यकता नहीं।

विद्यापति संवत् १४६० में तिरहुत के राजा शिवसिंह के यहाँ वर्त्तमान थे। उनके दो पद नीचे दिए जाते हैं––

सरस बसंत समय भल पावलि, दछिन पवन बह धीरे।
सपनहु रूप बचन इक भाषिय, मुख से दूरि करु चीरे॥
तोहर बदन सम चाँद होअथि नाहिं, कैयौ जतन बिह केला।
कै बेरि काटि बनावल नव कै, तैयो तुलित नहिं भेला॥
लोचन तुअ कमल नहिं भै सक, से जग के नहिं जानै।
से फिरि जाय लुकैलन्ह जल भएँ, पंकज निज अपमाने॥
भन विद्यापति सुनु बर जोवित ई सम लछमी समाने।
राजा 'सिवसिंह' रूप नरायन 'लखिमा देइ' प्रति माने॥


कालि कहल पिय साँझहि रे, जाइबि मइ मारू देस।
मोए अभागिलि नहिं जानल रे, सँग जइतवँ जोगिनि बेस॥
हिरदय बड़ दारुन रे, पिया बिनु बिहरि न जाइ।
एक सयन सखि सूतल रे, अछल बलभ निसि भोर॥
न जानल कत खत तजि गेल रे, बिछुरल चकवा जोर॥
सूनि सेज पिय सालइ रे, पिय बिनु घर मोए आजि।
बिनति करहुँ सुसहेलिनि रे, मोहिं देहि अगिहर साजि॥
विद्यापति कवि गावल रे, आवि मिलत पिये तोर।
'लखिमा देइ' बर नागर रे, राय सिंवसिंह नहि भोर॥


मोटे हिसाब से वीरगाथा-काल महाराज हम्मीर के समय तक ही समझना चाहिए। उसके उपरांत मुसलमानों का साम्राज्य भारत में स्थिर हो गया और हिंदू राजाओं को न तो आपस में लड़ने का उतना उत्साह रहा, न मुसलमानों से। जनता की चित्तवृत्ति बदलने लगी और विचारधारा दूसरी ओर चली। मुसलमानों के न जमने तक तो उन्हें हटाकर अपने धर्म की रक्षा का वीरप्रयत्न होता रहा, पर मुसलमानों के जम जाने पर अपने धर्म के उस व्यापक और हृदयग्राह्य रूप के प्रचार की ओर ध्यान हुआ जो सारी जनता को आकर्षित रखे और धर्म से विचलित न होने दे।

इस प्रकार स्थिति के साथ ही साथ भावों तथा विचारों में भी परिवर्त्तन हो गया। पर इससे यह न समझना चाहिए कि हम्मीर के पीछे किसी वीरकाव्य की रचना ही नहीं हुई। समय समय पर इस प्रकार के अनेक काव्य लिखे गए। हिंदी-साहित्य के इतिहास की एक विशेषता यह भी रही है कि एक विशिष्ट काल में किसी रूप की जो काव्य-सरिता वेग से प्रवाहित हुई, वह यद्यपि आगे चलकर मंद गति से बहने लगी, पर ९०० वर्षों के हिंदी-साहित्य के इतिहास में हम उसे कभी सर्वथा सूखी हुई नहीं पाते।

 

  1. देखिए मेरे 'बुद्धचरित' काव्य की भूमिका में "काव्यभाषा" पर मेरा प्रबंध, जिसमें उसके स्वरूप का निर्णय किया गया है तथा ब्रज, अवधी और खड़ी बोली के भेद और प्रवृत्तियाँ निरूपित की गई हैं।
  2. देखो पृ॰ २६।