हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल/प्रकरण ३ रीतिकाल के अन्य कवि

 
प्रकरण ३
रीतिकाल के अन्य कवि

रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों का, जिन्होंने लक्षणग्रंथ के रूप में रचनाएँ की हैं, संक्षेप में वर्णन हो चुका है। अब यहाँ पर इस काल के भीतर होने वाले उन कवियों का उल्लेख होगा जिन्होंने रीति-ग्रंथ न लिखकर दूसरे प्रकार की पुस्तकें लिखी हैं। ऐसे कवियों में कुछ ने तो प्रबंध-काव्य लिखे हैं, कुछ ने नीति या भक्ति संबंधी पद्य और कुछ ने शृंगार रस की फुटकल कविताएँ लिखी हैं। ये पिछले वर्ग कवि प्रतिनिधि कवियों से केवल इस बात में भिन्न हैं कि इन्होंने क्रम से रसों, भावों, नायिकाओं और अलंकारों के लक्षण कहकर उनके अंतर्गत अपने पद्यों को नहीं रखा है। अधिकांश में ये भी शृंगारी कवि हैं और उन्होंने भी शृंगार-रस के फुटकल पद्य कहे हैं। रचना-शैली में किसी प्रकार का भेद नहीं है। ऐसे कवियों में घनानंद सर्वश्रेष्ठ हुए हैं। इस प्रकार के अच्छे कवियों की रचनाओं में प्रायः मार्मिक और मनोहर पद्यों की संख्या कुछ अधिक पाई जाती हैं। बात यह है कि इन्हें कोई बंधन नहीं था। जिस भाव की कविता जिस समय सूझी ये लिख गए। रीतिबद्ध ग्रंथ जो लिखने बैठते थे उन्हें प्रत्येक अलंकार या नायिका को उदाहृत करने के लिये पद्य लिखना आवश्यक था जिनमें सब प्रसंग उनकी स्वाभाविक रुचि या प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं हो सकते थे। रसखान, घनानंद, आलम, ठाकुर आदि जितने प्रेमोन्मत्त कवि हुए हैं उनमें किसी ने लक्षणबद्ध रचना नहीं की है।

प्रबंध-काव्य की उन्नति इस काल में कुछ विशेष न हो पाई। लिखे तो अनेक कथा-प्रबंध गए पर उनमें से दो ही चार में कवित्व का यथेष्ट आकर्षण पाया जाता है। सबलसिंह का महाभारत, छत्रसिंह की विजयमुक्तावली, गुरु गोविदसिंहजी का चडीचरित्र, लाल कवि का छत्रप्रकाश, जोधराज का हम्मीररासो, गुमान मिश्र का नैषवचरित, सरयूराम का जैमिनि पुराण, सूदन का सुजानचरित्र, देवीदत्त की बैतालपचीसी, हरनारायण की माधवानल कामकंदला, ब्रजवासीदास का ब्रजविलास, गोकुलनाथ आदि की, महाभारत, मधुसूदनदास का रामाश्वमेध, कृष्णदास की भाषा भागवत, नवलसिंहकृत भाषा सप्तशती, आल्हारामायण, आल्हाभारत, मूलढोंला तथा चंद्रशेखर का हम्मीर हठ, श्रीधर का जंगनाम, पद्मकार का रामरसायन, ये इस काल के मुख्य कथात्मक काव्य है। इनमें चद्रशेखर के हम्मीरहठ, लाल कवि के छत्रप्रकाश, जोधराज के हम्मीरासो, सूदन के सुजानचरित्र और गोकुलनाथ आदि के महाभारत में ही काव्योपयुक्त रसात्मकता भिन्न भिन्न परिमाण में पाई जाती है। 'हम्मीररासो' की रचना बहुत प्रशस्त हैं। 'रामाश्वमेध' की रचना भी साहित्यिक है। 'ब्रजविलास' में काव्य के गुण अल्प हैं पर उसका थोड़ा बहुत प्रचार कम पढ़े लिखे कृष्णभक्तों में हैं।

कथात्मक प्रबंधों से भिन्न एक और प्रकार की रचना भी बहुत देखने में आती है जिसे हम वर्णनात्मक प्रबंध कह सकते हैं। दानलीला, मानलीला,जलविहार, वनविहार, मृगया, झूला, होलीवर्णन, जन्मोत्सव वर्णन, मंगलवर्णन, रामकलेवा, इत्यादि इसी प्रकार की रचनाएँ है। बड़े बड़े प्रबंधकाव्यों के भीतर इस प्रकार के वर्णनात्मक प्रसंग रहा करते हैं। काव्य-पद्धति में जैसे शृंगाररस से 'नखशिख', 'षट्ऋतु' आदि लेकर स्वतंत्र पुस्तकें बनने लगी वैसे ही कथात्मक महाकाव्यो के अंग भी निकालकर अलग पुस्तके लिखी गई। इनमें बड़े विस्तार के साथ वस्तुवर्णन चलता है। कभी कभी तो इतने विस्तार के साथ कि परिमार्जित साहित्यिक रुचि के सर्वथा विरुद्ध हो जाता है। जहाँ कविजी अपने वस्तुपरिचय का भंडार खोलते है––जैसे बरात का वर्णन है तो घोड़े की सैकड़ों जातियों के नाम, वस्त्रों का प्रसंग आया तो पचीसों प्रकार के कपड़ों के नाम और भोजन की बात आई तो सैकड़ों मिठाइयों, पकवानों और मेवों के नाम––वहाँ तो अच्छे अच्छे धीरों का धैर्य छूट जाता है।

चौथा वर्ग नीति के फुटकल पद्य कहने वालो का है। इनको हम 'कवि' कहना ठीक नहीं समझते। इनके तथ्य-कथन के ढंग में कभी कभी वाग्वैद्य रहता है पर केवल वाग्वैदग्ध्य के द्वारा काव्य की सृष्टि नहीं हो सकती। यह ठीक है कि कही कहीं ऐसे पद्य भी नीति की पुस्तकों में आ जाते हैं, जिनमें कुछ (२) रसिक गोविंदानंदघन––यह सात आठ सौ पृष्ठों का बड़ा भारी रीतिग्रंथ है जिसमें रस, नायक-नायिकभेद, अलंकार, गुण-दोष आदि का विस्तृत वर्णन है। इसे इनका प्रधान ग्रंथ समझना चाहिए। इसका निर्माणकाल बसंत पंचमी संवत् १८५८ है। यह चार प्रबंधों में विभक्त है। इसमें बड़ी भारी विशेषता यह है कि लक्षण गद्य में हैं और रसों अलंकारो आदि के स्वरूप गद्य में समझाने का प्रयत्न क्रिया गया है। संस्कृत के बड़े बड़े आचार्यों के मतों का उल्लेख भी स्थान स्थान पर है। जैसे, रस का निरूपण इस प्रकार है––

"अन्य-ज्ञानरहित जो आनंद सो रस। प्रश्न––अन्य-ज्ञान-रहित आनंद तो निद्रा ही हैं। उत्तर––निद्रा जड़ है, वह चेतन। भरत आचार्य सूत्रकर्ता को मत––विभाव, अनुभाव, संचारी, भाव के जोग तें रस की सिद्धि। अथ काव्यप्रकाश को मत––कारण कारज सहायक हैं जे लोक में इन्हीं को नाट्य में, काव्य में, विभाव संज्ञा है। अथ टीकाकर्ता को मत तथा साहित्यदर्पण को मत––सत्व, विशुद्ध, अखंड, स्वप्रकाश, आनंद, चित्, अन्य ज्ञान नहिं संग, ब्रह्मास्वाद, सहोदर रस"।

इसके आगे अभिनवगुप्ताचार्य का मत कुछ विस्तार से दिया है। सारांश यह कि यह ग्रंथ आचार्यत्व की दृष्टि से लिखा गया है और इसमें संदेह नहीं कि और ग्रंथों की अपेक्षा इसमें विवेचन भी अधिक हैं और छूटी हुई बातो का समावेश भी। दोषो का वर्णन, जो हिंदी के लक्षण ग्रंथो में बहुत कम पाया जाता है, इन्होंने काव्यप्रकाश के अनुसार विस्तार से किया है। रसो, अलंकारो आदि के उदाहरण कुछ तो अपने हैं, पर बहुत से दूसरे कवियों के उदाहरणों के चुनने में इन्होंने बड़ी सहृदयता का परिचय दिया है। संस्कृत के उदाहरणों के अनुवाद भी बहुत सुंदर करके रखे हैं। साहित्यदर्पण के मुग्धा के उदाहरण (दत्ते सालसमंथरं...इत्यादि) को देखिए हिंदी में ये किस सुंदरता से लाए हैं––

आलम सों मंद मंद धरा पै धरति पाय,
भीतर तें बाहिर न आवै चित चाय कै।
रोकति दृगनि छिनछिन प्रति लाज साज,
बहुत हँसी की दीनी बानि बिसराय कै॥

बोलति वचन मृदु मधुर बनाय, उर
अंतर के भाव की गँभीरता जनाय कै।
बात सखी सुंदर गोबिंद की कहात तिन्हैं,
सुंदरि बिलोकै बंक भृकुटी नचाय कै॥

(३) लछिमन चंद्रिका––'रसिकगोविंदानंदघन' में आए लक्षणों का संक्षिप्त संग्रह जो संवत् १८८६ में लछिमन कान्यकुब्ज के अनुरोध से कवि ने किया था।

(४) अष्टदेशभाषा––इसमें ब्रज, खड़ी बोली, पंजाबी, पूरबी आदि आठ बोलियों में राधा-कृष्ण की शृंगारलीला कही गई हैं।

(५) पिंगल।

(६) समय प्रबंध––राधाकृष्ण की ऋतुचर्या ८५ पद्यों में वर्णित है।

(७) कलियुग रासो––इसमें १६ कवित्तों में कलिकाल की बुराइयों का वर्णन है। प्रत्येक कवित्त के अंत में "कीजिए सहाय जू कृपाल श्रीगोविंदराय, कठिन कराल कलिकाल चलि आयो हैं" यह पद आता है। निर्माणकाल संवत् १८६५ है।

(८) रसिक गोविंद––चंद्रालोक या भाषाभूषण के ढंग की अलंकार की एक छोटी पुस्तक जिसमें लक्षण और उदाहरण एक ही दोहे में है। रचनाकाल सं॰ १८९० हैं।

(९) युगलरस माधुरी––रोला छंद मे राधाकृष्ण बिहार और वृंदावन का बहुत ही सरस और मधुर भाषा में वर्णन है जिससे इनकी सुहृदयता और निपुणता पूरी पूरी टपकती है। कुछ पंक्तियाँ दी जाती हैं––

मुकलित पल्लव फूल सुंगध परागहि झारत।
जुग मुख निरखि बिपिन जनु राई लोन उतारत॥
फूल फलन के भार डार झुकि यों छबि छाजै।
मनु पसारि दइ भुजा देन फल पथिकन काजै॥
मधु मकरंद पराग-लुब्ध अलि मुदित मत्त मन।
बिरद पढ़त ऋतुराज नृपन के मनु बंदीजन॥


मार्मिकता होती है, जो हृदय की अनुभूति से भी संबंध रखते हैं, पर उनकी संख्या बहुत ही अल्प होती है। अतः ऐसी रचना करने वालों को हम 'कवि' न कहकर 'सूक्तिकार' कहेंगे। रीतिकाल के भीतर वृंद, गिरिधर, घाघ और बैताल अच्छे सूक्तिकार हुए हैं।

पाँचवाँ वर्ग ज्ञानोपदेशकों का है जो ब्रह्मज्ञान और वैराग्य की बातों को पद्य में कहते हैं। ये कभी कभी समझाने के लिये उपमा रूपक आदि का प्रयोग कर देते हैं, पर समझाने के लिये ही करते हैं, रसात्मक प्रभाव उत्पन्न करने के लिये नहीं। इनका उद्देश्य अधिकतर बोधवृति जाग्रत करने का रहता है, मनोविकार उत्पन्न करने का नहीं। ऐसे ग्रंथकारों को हम केवल 'पद्यकार' कहेंगे। हाँ, इनमें जो भावुक और प्रतिभा-संपन्न हैं, जो अन्योक्तियों आदि का सहारा लेकर भगवत्प्रेम, संसार के प्रति विरक्ति, करुणा आदि उत्पन्न करने में समर्थ हुए हैं वे अवश्य ही कवि क्या, उच्चकोटि के कवि कहे जा सकते हैं।

छठा वर्ग कुछ भक्त कवियों का है जिन्होंने भक्ति और प्रेमपूर्ण विनय के पद आदि पुराने भक्तों के ढंग पर गाए हैं।

इनके अतिरिक्त आश्रयदाताओं की प्रशंसा मे वीर रस की फुटकल कविताएँ भी बराबर बनती रहीं, जिनमें युद्धवीरता और दानवीरता दोनों की बड़ी अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा भरी रहती थी। ऐसी कविताएँ थोड़ी बहुत तो रसग्रंथों के आदि में मिलती हैं, कुछ अलंकार ग्रंथों के उदाहरण रूप (जैसे, शिवराजभूषण) और कुछ अलग पुस्तकाकार जैसे "शिवाबावनी", "छत्रसाल-दशक", "हिम्मतबहादुर-विरुदावली" इत्यादि। ऐसी पुस्तकों में सर्वप्रिय और प्रसिद्ध वे ही हो सकी हैं जो या तो देवकाव्य के रूप में हुई है अथवा जिनके नायक कोई देश-प्रसिद्ध वीर या जनता के श्रद्धाभाजन रहे हैं––जैसे, शिवाजी, छत्रसाल, महाराज प्रताप आदि। जो पुस्तके यों ही खुशामद के लिये, आश्रित कवियों की रूढ़ि के अनुसार लिखी गईं, जिनके नायको के लिये जनता के हृदय में कोई स्थान न था, वे प्राकृतिक नियमानुसार प्रसिद्धि न प्राप्त कर सकीं। बहुत सी तो लुप्त हो गईं। उनकी रचना से सच पूछए तो कवियों ने अपनी प्रतिभा का अपव्यय ही किया। उनके द्वारा कवियो को अर्थ-सिद्धि भर प्राप्त हुई, यश का लाभ न हुआ। यदि बिहारी ने जयसिंह की प्रशंसा में ही अपने सात सौ दोहे बनाए होते तो उनके हाथ केवल अशर्फियाँ ही लगी होती। संस्कृत और हिंदी के न जाने कितने कवियों का प्रौढ़ साहित्यिक श्रम इस प्रकार लुप्त हो गया। काव्यक्षेत्र में यह एक शिक्षाप्रद घटना हुई है।

भक्तिकाल के समान रीतिकाल में भी थोड़ा बहुत गद्य इधर-उधर दिखाई पड़ जाता हैं पर अधिकांश कच्चे रूप में। गोस्वामियों की लिखी 'वैष्णववार्ताओं' के समान कुछ पुस्तकों में ही पुष्ट ब्रजभाषा मिलती है। रही खड़ी बोली। वह पहले कुछ दिनों तक तो मुसलमानों के व्यवहार की भाषा समझी जाती रहीं। मुसलमानों के प्रसंग में उसका कभी-कभी प्रयोग कवि लोग कर देते थे, जैसे––अफजल खान को जिन्होंने मैदान मारा (भूषण)। पर पीछे दिल्ली राजधानी होने से रीतिकाल के भीतर ही खड़ी बोली शिष्ट समाज के व्यवहार की भाषा हो गई थी और उसमें अच्छे गद्य ग्रंथ लिखे जाने लगे थे। संवत् १७९८ में रामप्रसाद निरंजनी ने 'योगवासिष्ठ भाषा' बहुत ही परिमार्जित गद्य में लिखा। (विशेष दे॰ आधुनिक काल)।

इसी रीतिकाल के भीतर रीवाँ के महाराज विश्वनाथसिंह ने हिंदी का प्रथम नाटक (आनंदरघुनंदन) लिखा। इसके उपरांत गणेश कवि ने 'प्रद्युम्न-विजय' नामक एक पद्यबद्व नाटक लिखा जिसमें पात्रप्रवेश, विष्कंभक, प्रवेशक आदि रहने पर भी इतिवृत्तात्मक पद्य रखे जाने के कारण नाटक का प्रकृत स्वरूप न दिखाई पड़ा।


(१) बनवारी––ये संवत् १६९० और १७०० के बीच वर्तमान थे। इनका विशेष वृत्त ज्ञात नहीं। इन्होंने महाराज जसवंतसिंह के बड़े भाई अमरसिंह की वीरता की बड़ी प्रशंसा की है। यह इतिहास-प्रसिद्ध बात है कि एक बार शाहजहाँ के दरबार में सलाबतखाँ ने किसी बात पर अमरसिंह को गँवार कह दिया, जिस पर उन्होंने चट तलवार खींचकर सलावतखाँ को वही मार डाला। इस घटना का बड़ा ओजपूर्ण वर्णन, इनके इन पद्यों में मिलता है––

धन्य अमर छिति छत्रपति, अमर तिहारो मान।
साहजहाँ की गोद में, इन्यो सलावत खान।

उत गकार मुख तें कढीं इतै कढ़ी जमधार।
'वार' कहन पायो नहीं, भई कटारी पार॥


आनि कै सलावत खाँ जोर कै जनाई बात,
तोरि धर-पंजर करेजे जाय करकी।
दिलीपति साहि को चलन चलिबे को भयो,
राज्यों गजसिंह को, सुनी जो बात बर की॥
कहै बनवारी बादसाही के तखत पास,
फरकि फरकि लोथ लोथिन सों अरकी।
कर की बड़ाई कै बड़ाई बाहिबे की करौ,
बाढ़ की बड़ाई, कै बढाई जमधर की॥

बनवारी कवि की शृंगाररस की कविता भी बड़ी चमत्कारपूर्ण होती थी। यमक लाने का ध्यान इन्हें विशेष रहा करता था। एक उदाहरण लीजिए––

नेह बर साने तेरे नेह बरसाने देखि,
यह बरसाने बर मुरली बजावैंगे।
साजु लाल सारी, लाल करैं लालसा री,
देखिबे की लालसारी ,लाल देखे सुख पावैंगे॥
तू ही उर् बसी, उर बसी नाहिं और तिय,
कोटि उरबसी तजि तोसों चित लावैंगे।
सजे बनवारी बनवारी तन आभरन,
गौरे तन वारी बनवारी आज आवैंगे॥

(२) सबलसिह चौहान––इनके निवासस्थान का ठीक निश्चय नहीं। शिवसिंहजी ने यह लिखकर की कोई इन्हें चंदागढ़ का राजा और कोई सबलगढ़ का राजा बतलाते हैं, यह अनुमान किया है कि ये इटावे के किसी गाँव के जमींदार थे। सबलसिंहजी ने औरंगजेब के दरबार में रहनेवाले किसी राजा मित्रसेन के साथ अपना संबध बताया है। इन्होंने सारे महाभारत की कथा दोहों चौपाइयों में लिखी है। इनका महाभारत बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसे इन्होंने संवत् १७१८ और संवत् १७८१ के बीच पूरा किया। इस ग्रंथ के अतिरिक्त इन्होंने 'ऋतुसंहार' का भाषानुवाद, 'रूपविलास' और एक पिंगल ग्रंथ भी लिखा था पर ये प्रसिद्ध नहीं हुए। ये वास्तव में अपने महाभारत के लिये ही प्रसिद्ध हैं। उसमें यद्यपि भाषा का लालित्य या काव्य की छुटा नहीं है पर सीधीसादी भाषा में कथा अच्छी तरह कहीं गई है। रचना का ढंग नीचे के अवतरण से विदित होगा––

अभिमनु धाइ खडग परहारे। सम्मुख जेहि पायो तेहि मारे॥
भूरिश्रवा बान दस छाँटे। कुँवर-हाथ के खड़गहि काटे॥
तीनि बान सारथि उर मारे। आठ बान तें अस्व सँहारे॥
सारथि जुझि गिरे मैदाना। अभिमनु वीर चित्त अनुमाना॥
यहि अंतर सेना सब धाई। मारु मारु कै मारन आई॥
रथ को खैंचि कुँवर कर लीन्हें। ताते मार भयानक कीन्हें॥
अभिमनु कोपि खंभ परहारै। इक इक घाव वीर सब मारे॥

अर्जुनसुत इमि मार किय महाबीर परचंड।
रूप भयानक देखियत जिमि जम लीन्हें दंड॥


(३) वृंद––ये मेड़ता (जोधपुर) के रहनेवाले थे और कृष्णगढ़ नरेश महाराज राजसिंह के गुरु थे। संवत् १७६१ में ये शायद कृष्णगढ़-नरेश के साथ औरंगजेब की फौज मे ढाके तक गए थे। इनके वंशधर अब तक कृष्णगढ़ में वर्तमान हैं। इनकी "वृंदसतसई" (संवत् १७६१), जिसमें नीति के सात सौ दोहे हैं, बहुत प्रसिद्ध हैं। खोज में 'शृंगारशिक्षा' (संवत् १७४८) और 'भावपंचाशिका' नाम की दो रस-संबंधी पुस्तकें और मिली हैं पर इनकी ख्याति अधिकतर सूक्तिकार के रूप में ही है। वृंदसतसई के कुछ दोहे नीचे दिए जाते हैं––

भले बुरे सब एक सम जौ लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं काग पिक, ऋतु बसंत के माहिं॥

हितहू की कहिए न तेहि, जो नर होत अबोध।
ज्यों नकटे को आरसी, होत दिखाए क्रोध॥

(४) छत्रसिंह कायस्थ––ये बटेश्वर क्षेत्र के अटेर नामक गाँव के रहनेवाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इनके आश्रय-दाता अमरावती के कोई कल्याणसिंह थे। इन्होंने 'विजयमुक्तावली' नाम की पुस्तक संवत् १७५७ में लिखी जिसमें महाभारत की कथा एक स्वतंत्र प्रबंधकाव्य के रूप में कई छदों में वर्णित है। पुस्तक में काव्य के गुण यथेष्ट परिमाण में है और कहीं-कहीं की कविता बड़ी ओजस्विनी हैं। कुछ उदाहरण लीजिए––

निरखत ही अभिमन्यु को, विदुर डुलायो सीस।
रच्छा बालक की करी, ह्वै कृपाल जगदीस॥
आपुन काँधो युद्ध नहिं, धनुष दियो भुव ढारि।
पापी बैठे गेह कत, पांडुपुत्र तुम चारि॥
पौरुष तजि लज्जा तजी, तजी सकल कुलकानि।
बालक रनहिं पठाय कै, आपु रहे सुख मानि॥



कवच कुंडल इंद्र लीने बाण कुंती लै गई।
भई बैरिनि मेदिनी चित कर्ण के चिंता भई॥

(५) बैंताल––ये जाति के बंदीजन थे और राजा विक्रमसाहि की सभा में रहते थे। यदि ये विक्रमसहि चरखारीवाले प्रसिद्ध विक्रमसाहि ही हैं जिन्होंने 'विक्रमसतसई' आदि कई ग्रंथ लिखे हैं और जो खुमान, प्रताप आदि कई कवियों के आश्रयदाता थे, तो बैताल का समय संवत् १८३९ और १८८६ के बीच मानना पड़ेगा। पर शिवसिंहसरोज में इनका जन्मकाल सं॰ १७३४ लिखा हुआ है। बैताल ने गिरिधरराय के समान नीति की कुंडलियो की रचना की है। और प्रत्येक कुंडलिया विक्रम को संबोधन करके कही है। इन्होंने लौकिक व्यवहार-संबंधी अनेक विषयों पर सीधे-सादे पर जोरदार पद्य कहे हैं। गिरिधरराय के समान इन्होंने भी वाक्चातुर्थ्य या उपमांरूपक आदि लाने का प्रयत्न नहीं किया है। बिलकुल सीधी-सादी बात ज्यों की त्यों छंदोबद्ध कर दी गई है। फिर भी कथन के ढंग में अनूठापन है। एक कुंडलिया नीचे दी जाती है––

मरै बैल गरियार, मरै वह अडियल टट्टू।
मरै करकसा नारि, मरै वह खसम निखट्टू॥
बाम्हन सो मरि जाय, हाथ लै मदिरा प्यावै।
पूत वही मरि जाय, जो कुल में दाग लगावै॥

अरु बेनियाव राजा मरै, तबै नींद भर सोइए।
बैताल कहै विक्रम सुनौ, एते मरे न रोइए॥

(६) आलम––ये जाति के ब्राह्मण थे पर शेख नाम की रँगरेजिन के प्रेम में फँसकर पीछे से मुसलमान हो गए और उसके साथ विवाह करके रहने लगे। आलम को शेख से जहान नामक एक पुत्र भी हुआ। ये औरंगजेब के दूसरे बेटे मुअज्जम के आश्रय में रहते थे जो पीछे बहादुरशाह के नाम से गद्दी पर बैठा। अतः आलम का कविताकाल संवत् १७४० से संवत् १७६० तक माना जा सकता हैं। इनकी कविताओं का एक संग्रह 'आलमकेलि' के नाम से निकला है। इस पुस्तक में आए पद्यों के अतिरिक्त इनके और बहुत से सुंदर और उत्कृष्ट पद्य ग्रंथों में संग्रहीत मिलते हैं और लोगों के मुँह से सुने जाते हैं।

शेख रँगरेजिन भी अच्छी कविता करती थी। आलम के साथ प्रेम होने की विचित्र कथा प्रसिद्ध है। कहते हैं कि आलम ने एक बार उसे पगड़ी रँगने को दी जिसकी खूट में भूल से कागज का चिट्र बँधा चला गया। उस चिट में दोहों की यह आधी पंक्ति लिखी थी "कनक छरी सी कामिनी काहे को कटि छीन"। शेख ने दोहा इस तरह पूरा करके "कटि को कंचन काटि विधि कुचन मध्य घरि दीन", उस चिट को फिर ज्यों का त्यों पगड़ी की खूँट में बाँधकर लौटा दिया। उसी दिन से आलम शेख के पूरे प्रेमी हो गए और अंत में उसके साथ विवाह कर लिया। शेख बहुत ही चतुर और हाजिरजवाब स्त्री थी। एक बार शाहजादा मुअज्जम ने हँसी से पूछा––"क्या आलम की औरत आप ही है?" शेख ने चट उत्तर दिया कि "हाँ, जहाँपनाह! जहान की माँ मैं ही हूँ।" "आलमकेलि" में बहुत से कवित्त शेख के रचे हुए है। आलम के कवित्त-सवैयों में भी बहुत सी रचना शेख की मानी जाती है। जैसे, नीचे लिखे कवित्त मे चौथा चरण शेख का बनाया कहा जाता है––

प्रेमरंग-पगे जगमगे जगे जामिन के,
जोबन की जोति जगी जोर उमगत हैं।
मदन के माते मतवारे ऐसे घूमत हैं,
झूमत हैं झुकि झुकि झँपि उघरत हैं॥
आलम सो नवल निकाई इन नैनन की,
पाँखुरी पदुम पै भँवर थिरकते हैं।
चाहते हैं उड़िबे को, देखत मयंकमुख,
जानत हैं रैनि तातें ताहि में रहते हैं॥

आलम रीतिबद्ध रचना करनेवाले नहीं थे। ये प्रेमोन्मत्त कवि थे और अपनी तरंग के अनुसार रचना करते थे। इसीसे इनकी रचनाओं में हृदय-तत्त्व की प्रधानता है। "प्रेम की पीर" वा "इश्क का दर्द" इनके एक एक वाक्य में भरा पाया जाता है। उत्प्रेक्षाएँ भी इन्होंने बड़ी अनूठी और बहुत अधिक कहीं है। शब्दवैचित्र्य, अनुप्रास आदि की प्रवृत्ति इनमें विशेष रूप से कहीं नहीं पाई जाती। शृंगाररस की ऐसी उन्मादमयी उक्तियाँ इनकी रचना में मिलती हैं कि पढ़ने और सुननेवाले लीन हो जाते है। यह तन्मयता सच्ची उमंग में ही संभव है। रेखता या उर्दू भाषा में भी इन्होंने कवित्त कहे है। भाषा भी इस कवि की परिमार्जित और सुव्यवस्थित है पर उसमें कहीं कहीं "कीन, दीन, जौन" आदि अवधी या पूरबी हिंदी के प्रयोग भी मिलते है। कहीं-कहीं फारसी की शैली के रस-बाधक-भाव भी इनमें मिलते हैं। प्रेम की तन्मयता की दृष्टि से आलम की गणना 'रसखान' और 'घनानंद' की कोटि में होनी चाहिए। इनकी कविता के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं––


जा थल कीने बिहार अनेकन ता थल काँकर बैठि चुन्यो करैं।
जा रसना सों करी बहु बातन ता रसना सों चरित्र गुन्यो करें॥
आलम जौन से कुजन में करी केलि तहाँ अब सीस धुन्यो करैं।
नैनन में जै सदा रहते तिनकी अब कान कहानी सुन्यौं करैं॥


कैधौं मोर सोर तजि गए री अनत भाजि,
कैधौं उत दादुर न बोलत हैं, ए दई!
कैधौं पिक चातक महीप काहू मारि डारे,
कैधौं बगपाँति उत अंतगति ह्वै गई?
आलम कहै, हो आली! अजहूँ न आए प्यारे,
कैधौं उत रीत विपरीत बिधि ने ठई?
मदन महीप की दुहाई फिरिबे तें रही,
जूझि गए मेघ, कैधौं बीजुरी सती भई?॥


रात के उनींदे अरसाते, मदमाते राते।
अति कजरारे दृग तेरे यों सुहात हैं।
तीखी तीखी कोरनि कोरनि लेत काढ़ें जीउ,
केते भए घायल ओ केते तलफात है॥
ज्यों ज्यों लै सलिल चख 'सेख' धोवै बार बार,
त्यों त्यों बल बुंदन के बार झुकि जात हैं।
कैबर के भालें, कैधौं नाहर नहनवाले,
लोहू के पियासे कहूँ पानी तें अघात हैं?


दाने की न पानी की न आवै सुध खाने की,
याँ गली महबूब की अराम खुसखाना है।
रोज ही से है जो राजी यार की रजाय बीच,
नाज की नजर तेज तीर का निशाना है।
सूरत चिराग रोसनाई आसनाई बीच,
बार बार बरै बलि जैसे परवाना है।
दिल से दिलासा दीजै हाल के न ख्याल हुजै,
बेखुद फकीर, वह आशिक दीवाना है॥

(७) गुरु गोविंदसिंह जी––ये सिखो के महापराक्रमी दसवें या अंतिम गुरु थे। इनका जन्म सं॰ १७२३ में और सत्यलोक-वास संवत् १७६५ में हुआ। यद्यपि सब गुरुओं ने थोड़े बहुत पद भजन आदि बनाए हैं पर ये महाराज काव्य के अच्छे ज्ञाता और ग्रंथकार थे। सिखों में शास्त्रज्ञान का अभाव इन्हें बहुत खटका था और इन्होंने बहुत से सिखों को व्याकरण, साहित्य, दर्शन आदि के अध्ययन के लिये काशी भेजा था। ये हिंदू भावों और आर्य संस्कृति की रक्षा के लिये बराबर युद्ध करते रहे। 'तिलक' और 'जनेऊ' की रक्षा में इनकी तलवार सदा खुली रहती थी। यद्यपि सिख-संप्रदाय की निर्गुण उपासना है पर सगुण स्वरूप के प्रति इन्होंने पूरी आस्था प्रकट की है और देवकथाओं की चर्चा बड़े भक्तिभाव से की है। यह बात प्रसिद्ध है कि ये शक्ति के आराधक थे। इनके इस पूर्ण हिंदू-भाव को देखते यह बात समझ में नहीं आती कि वर्तमान में सिखो की एक शाखा-विशेष के भीतर पैगंबरी मजहबों का कट्टरपन कहाँ से और किसकी प्रेरणा से आ घुसा है।

इन्होंने हिंदी में कई अच्छे और साहित्यिक ग्रंथों की रचना की है जिनमें से कुछ के नाम ये है––सुनीति-प्रकाश, सर्वलोह-प्रकाश, प्रेमसुमार्ग, बुद्धिसागर और चंडीचरित्र। चंडीचरित्र की रचनापद्धति बड़ी ही ओजस्विनी है। ये प्रौढ़ साहित्यिक ब्रजभाषा लिखते थे। चंडीचरित्र की दुर्गासप्तशती की कथा बड़ी सुंदर कविता में कही गई है। इनकी रचना के उदाहरण नीचे दिए जाते हैं––

निर्जन निरूप हौ, कि सुंदर स्वरूप हौ,
कि भूपन के भूप हौ, कि दानी महादान हौ?
प्रान के बचैया, दूध पूत के देवैया,
रोग सोग के मिटैया, किधौं मानी महामान हौ?
विद्या के विचार हौ, कि अद्वैत अवतार हौ,
कि सुद्धता की मूर्ति हौ, कि सिद्धता की सान हौ?
जोबन के जाल हौ, कि कालहू के काल हौ,
कि सबुन के साल हौ कि मित्रन के प्रान हौ?

(८) श्रीधर या मुरलीधर––ये प्रयाग के रहनेवाले थे। इन्होंने कई पुस्तके लिखी और बहुत सी फुटकल कविता बनाई है। संगीत की पुस्तक, नायिकाभेद, जैन मुनियों के चरित्र, कृष्णलीला के फुटकले पद्य, चित्रकाव्य इत्यादि के अतिरिक्त इन्होंने 'जंगनामा' नामक एक ऐतिहासिक प्रबंध-काव्य लिखा जिसमें फर्रुखसियर और जहाँदारशाह के युद्ध का वर्णन है। यह ग्रंथ काशी नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हो चुका है। इस छोटी सी पुस्तक में सेना की चढ़ाई, साज समान आदि का कवित्त-सवैयो में अच्छा वर्णन है। इनका कविता-काल सं॰ १७६७ के आसपास माना जा सकता है। 'जंगनामा' का एक कवित्त नीचे दिया जाता है––

इत गलगाजि चट्यो फर्रुखसियरसाह,
उत मौनदीन की करी भट भरती।
तोप की डकारनि सों बीर हहकारनि सों,
धौंसे की धुकारनि धमकि उठी धरती॥
श्रीधर नबाब फरजदखाँ सुजंग जुरे,
जोगिनी अघाई जुग जुगन की बरती।
हहरयौ हरौल, भीर गोल पै परी ही, तून,
करतो हरौली तौ हरौली भीर परती॥

(९) लाल कवि––इनका नाम गोरेलाल पुरोहित था और ये मऊ (बुंदेलखंड) के रहने वाले थे। इन्होंने प्रसिद्ध महाराज छत्रसाल की आज्ञा से उनका जीवन-चरित चौपाइयों में बड़े ब्योरे के साथ वर्णन किया है। इस पुस्तक में छत्रसाल का संवत् १७६४ तक का ही वृत्तांत आया है, इससे अनुमान होता है कि या तो यह ग्रंथ अधूरा ही मिला है अथवा लाल कवि का परलोकवास छत्रसाल के पूर्व ही हो गया था। जो कुछ हो, इतिहास की दृष्टि से "छत्र-प्रकाश" बड़े महत्त्व की पुस्तक है। इसमें सब घटनाएँ सच्ची और सब व्योरे ठीक ठीक दिए गए हैं। इससे वर्णित घटनाएँ और संवत् आदि ऐतिहासिक खोज के अनुसार बिल्कुल ठीक हैं, यहाँ तक कि जिस युद्ध में छत्रसाल को भागना पड़ा है उसका भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है। यह ग्रंथ नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हो चुका है।

ग्रंथ की रचना प्रौढ़ और काव्यगुण-युक्त है। वर्णन की विशदता के अतिरिक्त स्थान स्थान पर ओजस्वी भाषण हैं। लाल कवि में प्रबंधपटुता पूरी थी। संबंध का निर्वाह भी अच्छा है और वर्णन-विस्तार के लिये मार्मिक स्थलों का चुनाव भी। वस्तु-परिगणन द्वारा वर्णनो का अरुचिकर विस्तार बहुत ही कम मिलता है। सारांश यह कि लाल कवि का सा प्रबंध-कौशल हिंदी के कुछ इने-गिने कवियों में ही पाया जाता है। शब्दवैचित्र्य और चमत्कार के फेर में इन्होंने कृत्रिमता कहीं से नहीं आने दी है। भावों का उत्कर्ष जहाँ दिखाना हुआ है वहाँ भी कवि ने सीधी और स्वाभाविक उक्तियों का ही समावेश किया है, न तो कल्पना की उड़ान दिखाई हैं और न ऊहा की जटिलता। देश की दशा की ओर भी कवि का पूरा ध्यान जान पड़ता है। शिवाजी का जो वीरव्रत था वही छत्रसाल का भी था। छत्रसाल का जो भक्ति-भाव शिवाजी पर कवि ने दिखाया है तथा दोनों के संमिलन का जो दृश्य खींचा है दोनों इस संबध से ध्यान देने योग्य हैं।

"छत्रप्रकाश" में लाल कवि ने बुंदेल वश की उत्पत्ति, चंपतराय के विजय-वृत्तात, उनके उद्योग और पराक्रम, चपतराय के अंतिम दिनों में उनके राज्य का मोगलों के हाथ में जाना, छत्रसाल का थोड़ी सी सेना लेकर अपने राज्य का उद्धार, फिर क्रमशः विजय पर विजय प्राप्त करते हुए मोगलों का नाकों दम करना इत्यादि बातों का विस्तार से वर्णन किया है। काव्य और इतिहास दोनों की दृष्टि से यह ग्रंथ हिंदी में अपने ढंग का अनूठा है। लाल कवि का एक और ग्रंथ 'विष्णु-विलास' है जिसमें बरवै छंद में नायिकाभेद कहा गया है। पर इस कवि की कीर्ति का स्तंभ 'छत्रप्रकाश' ही है।

'छत्रप्रकाश'से नीचे कुछ पद्य उद्धृत किए जाते है––

(छत्रसाल-प्रशंसा)

लखत पुरुध लच्छन सब जाने। पच्छी बोलत सगुन बखानै॥
सतकवि कवित सुनत रस पागै। बिलसति मति अरथन में आगै॥
रुचि सों लखत तुरंग जो नीकें। बिहँसि लेत मोजरा सब ही के॥


चौकि चौकि सब दिसि उठै सूबा खान खुमान।
अब धौं धावै कौन पर छत्रसाल बलवान॥

(युद्ध-वर्णन)

छत्रसाल हाड़ा तहँ आयो। अरुन रंग आनन छबि छायो॥
भयो हरौल बजाय नगारो। सार धार को पहिरनहारो॥
दौरि देस मुगलन के मारौ। दपटि दिली के दल संहारौ॥
एक आन सिवराज निबाही। करै आपने चित की चाहीं॥
आठ पातसाही झकझोरे। सूबनि पकरि दंड लै छोरे॥

काटि कटक किरवान बल, बांटि जंबुकनि देहु।
ठाटि युद्ध यहि रीति सों, बाँटि धरनि धरि लेहु॥

चहूँ ओर सों सूबनि घेरो। दिमनि अलातचक्र सो फेरो॥
पजरे सहर साहि के बाँके। धूम धूम में दिनकर ढाँके॥
कबहूँ प्रगटि युद्ध में हाँकै। मुगलनि मारि पुहुमि तल ढाँकै॥
बानन बरखि गयदनि फोरै। तुरकनि तमक तेग तर तोरै॥
कबहूँ उमहिं अचानक आवै। घनसम घुमहिं लोह बरसावे॥
कबहूँ हाँकि हरौलन कूटै। कबहूँ चापि चंदालनि लूटै॥
कबहूँ देस दौरि कै लावै। रसद कहूँ की कढन न पावै॥


(१०) घनआनंद––ये साक्षात् रसमूर्ति और ब्रजभाषा के प्रधान स्तंभों में हैं। इनका जन्म संवत् १७४६ के लगभग हुआ था और ये संवत् १७९६ में नादिरशाही में मारे गए। ये जाति के कायस्थ और दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के मीरमुंशी थे। कहते हैं कि एक दिन दरबार में कुछ कुचक्रियो ने बादशाह से कही कि मीरमुंशी साहब गाते बहुत अच्छा हैं। बादशाह से इन्होंने बहुत टालमटोल किया। इस पर लोगों ने कहा कि ये इस तरह न गाएँगे, यदि इनकी प्रेमिका सुजान नाम की वेश्या कहे तब गाएँगे। वेश्या बुलाई गई। इन्होंने उसकी ओर मुँह और बादशाह की ओर पीठ करके ऐसा गाया कि सब लोग तन्मय हो गए। बादशाह इनके गाने पर जितना ही खुश हुआ उतना ही बेअदबी पर नाराज। उसने इन्हे शहर से निकाल दिया। जब ये चलने लगे तब सुजान से भी साथ चलने को कहा पर वह न गई। इसपर इन्हे विराग उत्पन्न हो गया और ये वृंदावन जाकर निंवार्क-संप्रदाय के वैष्णव हो गए और वहीं पूर्ण विरक्त भाव से रहने लगे। वृंदावन-भूमि का प्रेम इनके इस कवित्त से झलकता है––

गुरनि बतायो, राधा मोहन हू गायो,
सदा सुखद सुहायो वृंदावन गाढ़े गहि रे।
अद्भुत अभूत महिमंडन, परे तें परे,
जीवन को लाहु हा हा क्यों न ताहि लहि रे॥
आनंद को घन छायो रहत निरंतर ही,
सरस सुदेय सो, पपीहापन बहि रे।
जमुना के तीर केलि कोलाहल भीर ऐसी,
पावन पुलिन पै पतित परे रहि रे॥

संवत् १७९६ में जब नादिरशाह की सेना के सिपाही मथुरा तक आ पहुँचे तब कुछ लोगों ने उनसे कह दिया कि वृंदावन में बादशाह का मीरमुंशी रहता है; उसके पास बहुत कुछ माल होगा। सिपाहियों ने इन्हें आ घेरा और 'जर जर जर' (अर्थात् धन, धन, धन, लाओ) चिल्लाने लगे। घनानंदजी ने शब्द को उलटकर 'रज' 'रज' कहकर तीन मुट्ठी वृंदावन की धूल उनपर फेंक दी। उनके पास सिवा इसकें और था ही क्या? सैनिकों ने क्रोध में आकर इनका हाथ काट डाला। कहते है कि मरते समय इन्होंने अपने रक्त से यह कवित्त लिखा था––

बहुत दिनान की अवधि आसपास परे,
खरे अरबरनि भरै हैं उठिं जान को।
कहि कहि आवन छबीले मन-भावन को,
गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को॥
झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास ह्वै कै,
अब ना घिरत घनआनँद निदान को।
अधर लगे हैं आनि करि कै पयान प्रान,
चाहत चलन ये सँदेसो लै सुजान को॥

घनआनंदजी के इतने ग्रंथों का पता लगता है––सुजान सागर, बिरहलीला, कोकसागर, रसकेलिवल्ली और कृपाकंड। इसके अतिरिक्त इनके कवित्त सवैयो के फुटकल संग्रह डेढ़ सौ से लेकर सवा चार सौ कवित्तों तक के मिलते हैं। कृष्णभक्ति संबंधी इनका एक बहुत बड़ा ग्रंथ छत्रपुर के राज-पुस्तकालय में है जिसमें प्रियाप्रसाद, ब्रजव्यवहार, वियोगवेली, कृपाकद निबंध, गिरिगाथा, भावनाप्रकाश, गोकुलविनोद, धाम चमत्कार, कृष्णकौमुदी, नाममाधुरी, वृंदावनमुद्रा, प्रेमपत्रिका, रसबसंत इत्यादि अनेक विषय वर्णित हैं। इनकी 'विरहलीला' ब्रजभाषा में पर फारसी के छंद में है।

इनकी सी विशुद्ध, सरस, और शक्तिशालिनी ब्रजभाषा लिखने में और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ। विशुद्धता के साथ प्रौढ़ता और माधुर्य भी अपूर्व ही है। विप्रलभ शृंगार ही अधिकतर इन्होंने लिया है। ये वियोग शृंगार के प्रधान मुक्तक कवि है। "प्रेम की पीर" ही लेकर इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ। प्रेम मार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबाँदानी का ऐसा दावा रखनेवाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ। अतः इनके संबंध में निम्नलिखित उक्ति बहुत ही संगत है––

नेही महा, ब्रजभाषा-प्रवीन औ सुंदरताहु के भेद को जानै।
योग वियोग की रीति में कोविद, भावना भेद स्वरूप को ठानै॥
चाह के रंग में भीज्यो हियों, बिछुरे मिले प्रीतम सांति न मानै।
भाषाप्रबीन, सुछंद सदा रहै सो घन जू के कवित्त बखानै॥

इन्होंने अपनी कविताओं में बराबर 'सुजान' को संबोधन किया है जो शृंगार में नायक के लिये और भक्तिभाव में कृष्ण भगवान् के लिये प्रयुक्त मानना चाहिए। कहते हैं कि इन्हें अपनी पूर्व प्रेयसी 'सुजान' का नाम इतना प्रिय था कि विरक्त होने पर भी इन्होंने उसे नहीं छोड़ा। यद्यपि अपने पिछले जीवन में घनानंद विरक्त भक्त के रूप में वृंदावन जा रहे पर इनकी अधिकांश कविता भक्ति-काव्य की कोटि में नहीं आएगी, शृंगार की ही कही जायगी। लौकिक प्रेम की दीक्षा पाकर ही ये पीछे भगवत्प्रेम में लीन हुए। कविता इनकी भावपक्षप्रधान है। कोरे विभावपक्ष का चित्रण इनमें कम मिलता है। जहाँ रूप छटा का वर्णन इन्होंने किया भी है वहाँ उसके प्रभाव का ही वर्णन मुख्य हैं। इनकी वाणी की प्रवृत्ति अंतर्वृत्ति-निरूपण की ओर ही विशेष रहने के कारण बाह्यार्थ-निरूपक रचना कम मिलती है। होली के उत्सव, मार्ग में नायक-नायिका की भेंट, उनकी रमणीय चेष्टाओं आदि के वर्णन के रूप में ही वह पाई जाती है। संयोग का भी कहीं कहीं बाह्य वर्णन मिलता है, पर उसमें भी प्रधानता बाहरी व्यापारों या चेष्टाओं की नहीं है, हृदय के उल्लास और लीनता की ही है।

प्रेमदशा की व्यंजना ही इनको अपना क्षेत्र है। प्रेम की गूढ़ अंतर्दशा का उद्घाटन जैसा इनमें है वैसा हिंदी के अन्य शृंगारी कवि में नहीं। इस दशा का पहला स्वरूप है हृदय या प्रेम का आधिपत्य और बुद्धि का अधीन पद, जैसा कि घनानंद ने कहा है––

"रीझ सुजान सची पटरानी, बची बुधि बापुरी ह्वै करि दासी‌।"

प्रेमियों की मनोवृत्ति इस प्रकार की होती है कि वे प्रिय की कोई साधारण चेष्टा भी देखकर उसको अपनी ओर झुकाव मान लिया करते हैं और फूले फिरते हैं। इसका कैसा सुंदर आभास कवि ने नायिका के इस वचने द्वारा दिया है जो मन को संबोधन करके कहा गया है––

"रुचि के वे राजा जान प्यारे हैं आनंदघन,
होत कहा हेरे, रंक! मानि लीनो मेल सो"॥

कवियों की इसी अंतर्दृष्टि की ओर लक्ष्य करके एक प्रसिद्ध मनस्तत्ववेत्ता ने कहा है कि भावो या मनोविकारों के स्वरूप-परिचय के लिये कवियो की वाणी का अनुशीलन जितना उपयोगी है उतना मनोविज्ञानियों के निरूपण नहीं।

प्रेम की अनिर्वचनीयता का आभास घनानंद ने विरोधाभासों के द्वारा दिया है। उनके विरोध-मूलक वैचित्र्य की प्रवृत्ति का कारण यहीं समझना चाहिए।

यद्यपि इन्होंने संयोग और वियोग दोनों पक्षो को लिया है, पर वियोग की अंतर्दशाऔ की ओर ही दृष्टि अधिक है। इसी से इनके वियोग संबंधी पद्य ही प्रसिद्ध है। वियोग-वर्णन भी अधिकतर अंतर्वृत्ति-निरूपक है, बाह्यार्थ-निरूपक नहीं। घनानंद ने न तो बिहारी की तरह विरह ताप को बाहरी मान से मापा है, न बाहरी उछल-कूद दिखाई है, जो कुछ हलचल है वह भीतर की है–– बाहर से वह वियोग प्रशांत और गभीर है; न उसमें करवटें बदलना है, न सेज की आग की तरह तपना है, न उछल-उछल कर भागना है। उनकी "मौन मधि पुकार" है।

यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि भाषा पर जैसा अचूक अधिकार इनका था वैसा और किसी कवि का नहीं। भाषा मानो इनके हृदय के साथ जुड़ कर ऐसी वशवर्त्तिनी हो गई थी कि ये उसे अपनी अनूठी भावभंगी के साथ साथ जिस रूप में चाहते थे उस रूप में मोड़ सकते थे। इनके हृदय का योग पाकर भाषा को नूतन गतिविधि का अभ्यास हुआ और वह पहले से कहीं अधिक बलवती दिखाई पड़ी। जब आवश्यकता होती थी तब ये उसे बँधी प्रणाली पर से हटाकर अपनी नई प्रणाली पर ले जाते थे। भाषा की पूर्व अर्जित शक्ति से ही काम न चला कर इन्होंने उसे अपनी ओर से शक्ति प्रदान की है। घनानंदजी उन विरले कवियों में हैं जो भाषा की व्यंजकता बढ़ाते हैं। अपनी भावनाओं के अनूठे रूप-रंग की व्यंजना के लिये भाषा का ऐसा बेधड़क प्रयोग करने वाला हिंदी के पुराने कवियों में दूसरा नहीं हुआ। भाषा के लक्षक और व्यंजक बल की सीमा कहाँ तक है, इसकी पूरी परख इन्हीं को थी।

लक्षण का विस्तृत मैदान खुला रहने पर भी हिंदी-कवियों ने उसके भीतर बहुत ही कम पैर बढ़ाया। एक घनानंद ही ऐसे कवि हुए है जिन्होंने इस क्षेत्र में अच्छी दौड़ लगाई। लाक्षणिक मूर्तिमत्ता और प्रयोग-वैचित्र्य की जो छटा इनमें दिखाई पड़ी, खेद है कि वह फिर पौने दो सौ वर्ष पीछे जाकर आधुनिक काल के उत्तरार्द्ध में, अर्थात् वर्तमान, काल की नूतन काव्यधारा में ही, 'अभिव्यंजना-वाद' के प्रभाव से कुछ विदेशी रंग, लिए प्रकट हुई। घनानंद का प्रयोगवैचित्र्य दिखाने के लिये कुछ पंक्तियाँ नीचे उद्धृत की जाती हैं––

(क) अरसानि गही वह वानि कछू, सरसानि सो आनि निहोरत है।

(ख) ह्वै है सोऊ घरी भाग-उघरी अनंदघन सुरस बरसि, लाल! देखिहौ हरी हमे। ('खुले भाग्यवाली घड़ी' में विशेषण-विपर्यय)।

(ग) उघरो जग, छाय रहे घन-आनँद, चातक ज्यों तकिए अब तौ। (उघरो जग=संसार जो चारो ओर घेरे था वह दृष्टि से हट गया।) (घ) कहिए सु कहा, अब मौन भली, नहिं खोवते जौ हमैं पावते जू। (हमैं=हमारा हृदय)।

विरोधमूलक वैचित्र्य भी जगह जगह बहुत सुंदर मिलता है, जैसे––

(च) झूठ की सचाई छाक्यो, त्यों हित-कचाई पाक्यो, ताके गुनगन घनानंद कहा गनौं।

(छ) उजरनि बसी है हमारी अँखियानि देखौ, सुब्स सुदेस जहाँ रावरे बसत हो।

(ज) गति सुनि हारी, देखि थकनि मैं चली जाति, थिर चर दसा कैसी ढकी उघरति है।

(झ) तेरे ज्यौं न लेखो, मोहिं मारत परेखो महा, जान घनानँद पै खोयबो लहत हैं।

इन उद्धरणो से कवि की चुभती हुई वचन-वक्रता पूरी पूरी झलकती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि कवि की उक्ति ने वक्र पथ हृदय के वेग के कारण पकड़ा है।

भाव का स्रोत जिस प्रकार टकराकर कहीं कहीं वक्रोक्ति के छींटे फेंकता है उसी प्रकार कहीं कहीं भाषा के स्निग्ध, सरल और चलते प्रवाह के रुप में भी प्रकट होता है। ऐसे स्थलों पर अत्यंत चलती और प्रांजल ब्रजभाषा की रमणीयता दिखाई पड़ती है––

कान्ह परे बहुतायत में, इकलैन की वेदन जानौ कहाँ तुम?
हौ मन-मोहन, मोहे कहूँ न, बिथा बिमनैन की मानौ कहा तुम?
बौरे बियोगिन्ह आप सुजान ह्वै, हाय! कछु उर आनौ कहो तुम?
आरतिवंत पपीहन को घन आनँद जू! पहिचानौ कहा तुम?


कारी कूर कोकिल कहाँ को बैर काढ़ति री,
कूकि कूकि अबहीं करेजो किन कोरि लै।
पैंढ परै पापी ये कलापी निसि द्यौस ज्यों ही,
चातक रे घातक ह्वै तूहू कान फोरि लैं॥

आनँद के घन प्रान-जीवन सुजान बिना,
जानि कै अकेली सब घेरो-दल जोरि लै।
जौ लौं करैं आवन विनोद-बरसावन वे,
तौ लौं रे डरारे बजमारे घन घोरि लै॥

इस प्रकार की सरल रचनाओं में कहीं-कहीं नाद-व्यंजना भी बड़ी अनूठी है। एक उदाहरण लीजिए––

ए रे बीर पौन! तेरो सबै और गौन, वारि
तो सों और कौन मनै ढरकौहीं बानि दै।
जगत के प्रान, ओछे बडे़ को समान, घन
आनंद-निधान सुखदान दुखियानि दै॥
जान उजियारे, गुन-भारे अति मोहि प्यारे
अब ह्वै अमोही बैठे पीठि पहिचान दै।
बिरह बिथा को मूरि आँखिन में राखौं पूरि,
धूरि तिन्ह पायँन की हा हा! नैकु आनि दै॥

ऊपर के कवित्त के दूसरे चरण में आए हुए "आनँद-निधान सुखदान दुखियानि दै" में मृदंग की ध्वनि का बड़ा सुंदर अनुकरण हैं।

उक्ति का अर्थगर्भव भी धनानंद का स्वतंत्र और स्वावलंबी होता है, बिहारी के दोहों के समान साहित्य की रूढ़ियों (जैसे, नायिकाभेद) पर आश्रित नहीं रहता। उक्तियो की सांगोपांग योजना या अन्विति इनकी निराली होती है। कुछ उदाहरण लीजिए––

पूरन प्रेम को मंत्र महा पन जा मधि सोधि सुधारि है लेख्यो।
ताही के चारु चरित्र विचित्रनि यों पचि कै रचि राखि विसेख्यो॥
ऐसो हियो-हित-पत्र पवित्र जो आन कथा न कहूँ अवरेख्यो।
सो घन-आनँद जान अजान लौं टूक कियो,पर वाँचि न देख्यो॥


आनाकानी आरसी निहारिबो करोगे कौलो?
कहा भो चकित दसा त्यों न दीठि डोलि है?

मौन हू सो देखिहौं कितेक पन पालिहौ जू,
कूक-भरी मूकता बुलाय आप बोलिहै।
जान घन-आनँद यों मोहिं तुम्हैं पैज परी,
जानियैगो टेक टरें कौंन धौं भलोलिहे।
रूई दिए रहौगे कहाँ लौं बहरायबे की?
कबहूँ तौ मेरियै पुकार कान खोलिहै॥


अंतर में बासी पै प्रवासी कैसो अंतर है,
मेरी न सुनत, दैया! आपनीयौ ना कहौ।
लोचननि तारे ह्वै सुझायो सब, सुझी नाहिं,
बुझी न परति ऐसी सोचनि कहा दहौ॥
हौं तौ जानराय, जाने जाहु न, अजान यातें,
आनँद के घन छाया छाय उधरे रहौ।
मूरति मया की हा हा! सूरति दिखैए नैकु,
हमैं खोय या बिधि हो! कौन धौं लहा लहौ॥


मूरति सिंगार की उजारी छबि आछी भाँति,
दीठि-लासला के लोयननि लै लै आँजिहौ।
रति-रसना-सवाद पाँवड़े पुनीतकारी पाय,
चूमि चूमि कै कपोलनि सों माँजिहौ॥
जान प्यारे प्रान अंग-अंग-रुचि-रंगनि में,
बोरि सब अंगन अनंग-दुख भाँजिहौं।
कब घन-आनँद ढ़रौही बानि देखें,
सुधा हेत मन-घट दरकनि सुठि राँजिहौं॥
(राँजना=फूटे बरतन में जोड़ या टाँका लगाना।)


निसि द्यौस खरी उतर माँझ अरी छबि रंगभरी मुरी चाहनि की।
तकि मोरनि त्यों चख ढोरि रहैं, ढरिगो हित ढोरनि बाहनि की॥
चट दै कटि पै बंट प्रान गए गति सों मति में अवगाहनि की।
घनआँनद जान लख्यों जब तें जक लागियै मोहि कराहनि की॥

इस अंतिम सवैये के प्रथम तीन चरणों में कवि ने बहुत सूक्ष्म कौशल दिखाया है। 'मुरि चाहनि' और 'तकि मोरनि' से यह व्यक्त किया गया है कि एक बार नायक ने नायिका की ओर मुड़कर देखा फिर देखकर मुड़ गए और अपना रास्ता पकड़ा। देख कर जब वे मुड़े तब नायिका का मन उनकी ओर इस प्रकार ढल पड़ा जैसे पानी नाली में दल जाता है। कटि में बल देकर प्यारे नायिका के मन में डूबने के भय से निकल गए।

घनानंद के ये दौ सवैये बहुत प्रसिद्ध है––

पर कारज देह को धारे फिरौ परजन्य! जथारथ ह्वै दरसौ।
निधि नीर सुधा के समान करो, सबही बिधि सुंदरता सरसौ॥
घनआनँद जीवनदायक हौ, कबौं मैरियौं पीर हिये परसौ।
कबहूँ वा बिसासी सुज्ञान के आँगन गो अँसुवान कौ लै बरसौ॥


अति सूधो सनेह को मारग हैं, जहँ नैकु सयानप बाँक नहीं।
तहँ साँचे चलैं तजि आपनपौ, झिझकैं कपटी जो निसाँक नहीं॥
घनआनँद प्यारे सुजान सुनौ, इत एक तें दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन सी पाटी पढ़ें हो लला, मन लैहु पै देहु छटाँक नहीं।


('विरहलीला' से)

सलोने श्याम प्यारे क्यों न आवौ। दरस प्यासी मरैं तिनकौं जिवावौ॥
कहाँ हौ जू, कहाँ हौ जू, कहाँ हौ। लगे ये प्रान तुमसों हैं जहाँ हौ॥
रहौ किन प्रान प्यारे नैन आगैं। तिहारे कारनै दिनरात जागैं॥
सजन! हित मान कै ऐसी न कीजै! भई हैं बावरी सुध आय लीजै॥


(११) रसनिधि––इनका नाम पृथ्वीसिंह था और दतिया के एक जमींदार थे। इनका संवत् १७१७ तक वर्तमान रहना पाया जाता है। ये अच्छे कवि थे। इन्होंने बिहारी-सतसई के अनुकरण पर "रतनहजारा" नामक दोहों का एक ग्रंथ बनाया। कहीं कहीं तो इन्होंने बिहारी के वाक्य तक रख लिए हैं। इसके अतिरिक्त इन्होंने और भी बहुत से दोहे बनाए जिनका संग्रह बाबू जगन्नाथप्रसाद (छत्रपुर) ने किया है। "अरिल्ल और माँझो" का संग्रह भी खोज में मिला है। ये शृंगार-रस के कवि थे। अपने दोहों में इन्होंने फारसी कविता के भाव भरने और चतुराई दिखाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है। फारसी की आशिकी कविता के शब्द भी इन्होंने इस परिमाण में कहीं कहीं रखे हैं कि सुरुचि और साहित्यिक शिष्टता को अघात पहुँचता है। पर जिस ढंग की कविता इन्होंने की है उसमें इन्हें सफलता हुई हैं। कुछ दोहे उद्धृत किए जाते है––

अद्भुत गति यहि प्रेम की, बैनन कही न जाय।
दरस-भूख लागै दृगन, भूखहिं देत भगाय॥
लेहु न मजनू-गोर ढिग, कोऊ लैला नाम।
दरदवत को नेकु तौ, लेन देहू बिसराम॥


चतुर चितेरे तुव सबी लिखत न हिय ठहराय ।
कलम छुवत कर आंगुरी कटी कटाछन जाय ।।
मनगयंद छवि मद-छके तोरि जंजीर भगात ।
हिय के झीने तार सों सहजै ही बँधि जात ।।

(१२) महाराज विश्वनाथसिंह––ये रीवाँ के बड़े ही विद्यारसिक और भक्त नरेश तथा प्रसिद्ध कवि महाराज रघुराजसिंह के पिता थे। आप संवत् १८७० से लेकर १९१७ तक रीवाँ की गद्दी पर रहे। ये जैसे भक्त थे वैसे ही विद्या-व्यसनी तथा कवियों और विद्वानों के आश्रयदाता थे। काव्यरचना में भी ये सिद्धहस्त थे। यह ठीक है कि इनके नाम से प्रखात बहुत से ग्रंथ दूसरे कवियों के रचे हैं पर इनकी रचनाएँ भी कम नहीं हैं। नीचे इनकी बनाई पुस्तकों के नाम दिए जाते हैं जिनसे विदित होगा कि कितने विषयों पर इन्होंने लिखा है––

(१) अष्टयाम आह्निक (२) आंनद-रघुनंदन नाटक, (३) उत्तमकाव्य-प्रकाश, (४) गीता-रघुनंदन शतिका, (५) रामायण, (६) गीता-रघुनंदन प्रामाणिक, (७) सर्व संग्रह, (८) कबीर बीजक की टीका, (९) विनयपत्रिका की टीका, (१०) रामचंद्र की सवारी, (११) भजन, (१२) पदार्थ, (१३) धनुर्विद्या, (१४) आनन्द रामायण, (१५) परधर्म-निर्णय, (१६) शांति-शतक, (१७) वेदांत-पंचक शतिका, (१८) गीतावली पूर्वार्द्ध (१९) ध्रुवाष्टक, (२०) उत्तम नीतिचंद्रिका, (२१) अबोधनीति, (२२) पाखंड-खंडिनी, (२३) आदिमंगल, (२४) बसंत-चौंतीसी, (२५) चौरासी रमैनी, (२६) ककहरा, (२७) शब्द, (२८) विश्वभोजन-प्रसाद, (२९), ध्यानमंजरी, (३०) विश्वनाथ-प्रकाश, (३१) परमतत्त्व, (३२) संगीत रघुनंदन, इत्यादि।

यद्यपि ये रामोपासक थे पर कुलपरंपरा के अनुसार निर्गुण संत मत की बानी का भी आदर करते थे। कबीरदास के शिष्य धर्मदास का बाँधव नरेश के यहाँ जाकर उपदेश सुनाना परंपरा से प्रसिद्ध हैं। 'ककहरा', 'शब्द', 'रमैनी' आदि उसी प्रभाव के द्योतक हैं। पर इनकी साहित्यिक रचना प्रधानतः रामचरित-संबंधिनी है। कबीर-बीजक की टीका इन्होंने निर्गुण ब्रह्म के स्थान पर सगुण राम पर घटाई है। ब्रजभाषा में नाटक पहले पहल इन्हीं ने लिखा। इस दृष्टि से इनका "आनंद-रघुनंदन नाटक" विशेष महत्त्व की वस्तु है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इसे हिंदी का प्रथम नाटक माना है। यद्यपि इसमें पद्यों की प्रचुरता हैं पर संवाद सब ब्रजभाषा गद्य में हैं। अंकविधान और पात्रविधान भी है। हिंदी के प्रथम नाटककार के रूप में ये चिरस्मरणीय हैं।

इनकी कविता अधिकतर या तो वर्णनात्मक है अथवा उपदेशात्मक। भाषा स्पष्ट और परिमार्जित है। इनकी रचना के कुछ नमूने दिए जाते है–

भाइन भृत्यन बिष्णु सो, रैयत भानु सो, सत्रुन काल सो भावै।
शत्रु बली सों बचै करि बुद्धि औ अस्त्र सों धर्म की रीति चलावै॥

जीतन को करै केते उपाय औ दीरध दृष्टि सबै फल पावै।
भाखत है बिसुनाथ ध्रुवै नृप सो कबहूँ नहिं राज गँवावै॥


बाजि गज सोर रथ सुतुर कतार जेते,
प्यादे ऐंडवारे जे सबीह सरदार के।
कुँवर छबीले जे रसीले राजबंसवारे,
सूर अनियारे अति प्यारे सरकार के॥
केते जातिवारे, केते केते देसवारे,
जीव स्वान सिंह आदि सैलवारे जे सिकार के।
डंका की धुकार द्वै सवार सबैं एक बार,
राज वार पार कार कोशलकुमार के॥


उठौ कुँवर दोउ प्रान पियारे।
हिमरितु प्रात पाय सब मिटिगे नभसर पसरे पुहकर तारे॥
जगवन महँ निकस्यो हरषित हिय बिचरन हेत दिवस मनियारो।
विश्वनाथ यह कौतुक निरखहु रविमनि दसहु दिसिनि उजियार॥


करि जो कर मैं कयलास लियो कसिकै अब नाक सिकोरत है।
दर तालन बीस भुजा झहराय झुको धनु को झकझोरत है॥
तिल एक हलै न हलै पुहुमी रिसि पीसि कै दाँतन तोरत है।
मन में यह ठीक भयो हमरे मद काको महेस न मोरत है॥

(१३) भक्तवर नागरीदासजी––यद्यपि इस नाम के कई भक्त कवि ब्रज में हो गए, पर उसमें सबसे प्रसिद्ध कृष्णगढ़-नरेश महाराज सावंतसिंह जी हैं जिनका जन्म पौष कृष्ण १२ संवत् १७५६ में हुआ था। ये वाल्यावस्था से ही बड़े शूरवीर थे। १३ वर्ष की अवस्था में इन्होंने बूँदी के हाड़ा जैतसिंह को मारा था। संवत् १८०४ में ये दिल्ली के शाही दरबार में थे। हम बीच में इनके पिता महाराज राजसिंह का देहांत हुआ। बादशाह अहमदशाह ने इन्हें दिल्ली में ही कृष्णगढ़ राज्य का उत्तराधिकार दिया। पर जब वे कृष्णगढ़ पहुँचे तब राज्य पर अपने भाई बहादुरसिंह का अधिकार पाया जो जोधपुर की सहायता से सिंहासन पर अधिकार कर बैठे थे। ये ब्रज की ओर लौट आए और मरहठों से सहायता लेकर इन्होंने अपने राज्य पर अधिकार किया। पर इस गृहकाल से इन्हें कुछ ऐसी विरक्ति हो गई कि ये सब छोड़-छाड़कर वृंदावन चले गए और वहाँ विरक्त भक्त के रूप में रहने लगे। अपनी उस समय की चित्तवृत्ति का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है––

जहाँ कलह तहँ सुख नहीं, कलह सुखन को सूल।
सबै कलह इक राज में, राज कलह को मूल॥
कहा भयो नृप हू भए, ढोवत जग बेगार।
लेत न सुख हरिभक्ति को सफल सुखन को सार॥
मैं अपने मन मूढ़ तैं डरत रहत हौं हाय।
वृंदावन की ओर तें मति कबहूँ फिर जाय॥

वृंदावन पहुँचने पर वहाँ के भक्तों ने इनका बड़ा आदर किया। ये लिखते हैं कि पहले तो "कृष्णगढ़ के राजा" यह व्यावहारिक नाम सुनकर वे कुछ उदासीन से रहे पर जब उन्होंने 'नागरीदास', ('नागरी' शब्द श्रीराधा के लिये आता है) नाम को सुना तब तो उन्होंने उठकर दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया––

सुनि व्यवहारिक नाम को ठाढे दूरि उदास।
दौरि मिले भरि नैन सुनि नाम नागरीदास॥
एक मिलत भुजन भरि दौर दौर। इक टेरि बुलावत और ठौर॥

वृंदावन में उस समय वल्लभाचार्यजी की गद्दी की पाँचवीं पीढ़ी थी। वृंदावन से इन्हें इतना प्रेम था कि एक बार ये वृंदावन के उस पार जा पहुँचे। रात को जब जमुना किनारे लौटकर आए तब वहाँ कोई नाव-बेड़ा न था। वृंदावन का वियोग इतना असह्य हो गया कि ये जमुना में कूद पड़े और तैरकर वृंदावन आए। इस घटना का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है––

देख्यो श्रीवृंदाबिपिन पार। बिच बदति महा गंभीर धार॥
नहिं नाव, नाहीं कछु और दाव। हे दई! कहा कीजै उपाव॥
रहे वार लगन की लगै लाज। गए पारहि पूरै सकल काज॥
यह चित्त माहिं करि कै विचार। परे कूदि कृदि जलमध्य-धार॥

वृंदावन में इनके साथ इनकी उपपत्नी 'वणीठणीजी' भी रहती थीं, जो कविता भी करती थीं।

ये भक्त कवियों में बहुत ही प्रचुर कृति छोड़ गए हैं। इनका कविता-काल सं॰ १७८० से १८१९ तक माना जा सकता है। इनका पहला ग्रंथ "मनोरथमंजरी" संवत् १७८० में पूरा हुआ। इन्होंने संवत् १८१४ में अश्विन शुक्ल १० को राज्य पर अपने पुत्र सरदारसिंहजी को प्रतिष्ठित करके घरवार छोड़ा। इससे स्पष्ट है कि विरक्त होने के बहुत पहले ही ये कृष्ण-भक्ति और ब्रजलीला-संबंधिनी बहुत सी पुस्तकें लिख चुके थे। कृष्णगढ़ में इनकी लिखी छोटी बड़ी सब मिलाकर ७३ पुस्तके संग्रहीत हैं, जिनके नाम ये है––

सिंगारसार, गोपीप्रेमप्रकाश (सं॰ १८००), पदप्रसंगमाला, ब्रजबैकुंठ तुला, ब्रजसार (संवत् १७९९), भोरलीला, प्रातरस-मंजरी, बिहार-चंद्रिका (सं॰ १७८८), भोजनानंदाष्टक, जुगलरस माधुरी, फूलविलास, गोधन-आगमन दोहन, अनदलग्नाष्टक, फागविलास, ग्रीष्म-विहार, पावसपचीसी, गोपीवैनविलास, रासरसलता, नैनरूपरस, शीतसार, इश्कचमन, मजलिस मंडन, अरिल्लाष्टक, सदा की माँझ, वर्षा ऋतु की माँझ, होरी की माँझ, कृष्णजन्मोत्सव कवित्त, प्रियाजन्मोत्सव कवित्त, साँझी के कवित्त, रास के कवित्त, चाँदनी के कवित्त, दिवारी के कवित्त, गोवर्धन-धारन के कवित्त, होरी के कवित्त, फागगोकुलाष्टक, हिंडोरा के कवित्त, वर्षा के कवित्त, भक्ति मगदीपिका (सं॰ १८०२), तीर्थानंद (१८१०), फाग बिहार (१८०८), बालविनोद, बन-विनोद, (१८०९), सुजानानंद (१८१०) भक्तिसार (१७९९) देहदशा, वैराग्यवल्ली, रसिक-रत्नावली (१७८२), कलिवैराग्य-वल्लरी (१७९५), अरिल्ल-पचीसी, छूटक-विधि, पारायण-विधि-प्रकाश (१७९९), शिखनख, नखशिख, छूटक कवित्त, चचरियाँ रेखता, मनोरथमंजरी (१७८०), रामचरित्रमाला, पद-प्रबोधमाला, जुगल-भक्तिविनोद (१८०८), रसानुक्रम के दोहे, शरद की माँझ, साँझी फूल-बीनन संवाद, वसंत-वर्णन, रसनानुक्रम के कवित्त, फाग-खेलन समेतानुक्रम के कवित्त, निकुंज विलास (१७९४) गोविंद परचई, वनजन-प्रशंसा, छूटक दोहा, उत्सव-माला, पद-मुक्तावली।

इनके अतिरिक्त "वैन-विलास" और "गुप्तरस-प्रकाश" नाम की दो अप्राप्य पुस्तके भी है। इस लंबी सूची को देखकर आश्चर्य करने के पहले पाठको को यह जान लेना चाहिए कि ये नाम भिन्न भिन्न प्रसंगों या विषयों के कुछ पद्यों में वर्णन मात्र हैं, जिन्हें यदि एकत्र करें तो ५ या ७ अच्छे आकार की पुस्तकों में आ जायँगे।अतः ऊपर लिखे नामों को पुस्तको के नाम न समझकर वर्णन के शीर्षक मात्र समझना चाहिए। इनमें से बहुतो को पाँच पाँच, दस दस, पचीस-पचीस पद्य मात्र समझिए। कृष्णभक्त कवियों की अधिकाश रचनाएँ इसी ढंग की हैं। भक्तिकाल के इतने अधिक कवियो की कृष्णलीला-संबंधिनी फुटकल उक्तियो से ऊबे हुए और केवल साहित्यिक दृष्टि रखनेवाले पाठकों को नागरीदासजी की ये रचनाएँ अधिंकाश में पिष्टपेषण सी प्रतीत होंगी। पर ये भक्त थे और साहित्य-रचना की नवीनता आदि से कोई प्रयोजन नहीं रखते थे। फिर भी इनकी शैली और भावों में कुछ नवीनता और विशिष्टता है। कहीं कहीं बड़े सुंदर भावों की व्यंजना इन्होंने की है। कालगति के अनुसार फारसी काव्य का आशिकी और सूफियाना रंग-ढंग भी कहीं-कहीं इन्होंने दिखाया है। इन्होंने गाने के पदों के अतिरिक्त कवित्त, सवैया, अरिल्ल, रोला आदि कई छंदो का व्यवहार किया है। भाषा भी सरस और चलती है, विशेषतः पदों की कवित्तों की भाषा में वह चलतापन नहीं है। कविता के नमूने देखिए––

(वैराग्य-सागर से)

काहे को रे नाना मत सुनै तू पुरान के,
तै ही कहा? तेरी मूढ़ मूढ़ मति पंग की।

(इश्क-चमन से)

सब मजहब सब इल्म अरु सबै ऐश के स्वाद। अरे! इश्क के असर बिनु ये सब ही बरबाद॥
आया इश्क लपेट में लागो चश्म चपेट। सोई आया खलक में, और भरैं सब पेट॥


(वर्षा के कवित्त से)

भादौं की कारी अँध्यारी निसा झुकिं बादर मंद फुही बरसावै।
स्यामा जू आपनी ऊँची अटा पै छकी रस-रीति मलारहि गावै॥
ता समै मोहन के दृग दूरि तें आतुर रूप की भीख यों पावै।
पौन मया करि घूँघट टारै, दया करि दामिनि दीप दिखावै॥


(१४) जोधराज––ये गौड़ ब्राह्मण बालकृष्ण के पुत्र थे। इन्होंने नीबँगढ़ (वर्तमान नीमराणा––अलवर) के राजा चंद्रभान चौहान के अनुरोध से "हम्मीर रासो" नामक एक बड़ा प्रबंध-काव्य संवत् १८७५ में लिखा जिसमें रणथंभौर के प्रसिद्ध वीर महाराज हम्मीरदेव का चरित्र वीरगाथा-काल की छप्पय पद्धति पर वर्णन किया गया है। हम्मीरदेव सम्राट् पृथ्वीराज के वंशज थे। उन्होंने दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन को कई बार परास्त किया था और अंत में अलाउद्दीन की चढ़ाई में ही वे मारे गए थे। इस दृष्टि से इस काव्य के नायक देश के प्रसिद्ध वीरों में हैं। जोधराज ने चंद आदि प्राचीन कवियो की पुरानी भाषा का भी यत्र तत्र अनुकरण किया है;––जैसे जगह जगह 'हि' विभक्ति के प्राचीन रूप 'ह' का प्रयोग। 'हम्मीररासो' की कविता बड़ी ओजस्विनी है। घटनाओं का वर्णन ठीक ठीक और विस्तार के साथ हुआ है। काव्य का स्वरूप देने के लिये कवि ने कुछ घटनाओं की कल्पना भी की है। जैसे महिमा मंगोल का अपनी प्रेयसी वेश्या के साथ दिल्ली से भागकर हम्मीरदेव की शरण में आना और अलाउद्दीन को दोनों को माँगना। यह कल्पना राजनीतिक उद्देश्य हटाकर प्रेम-प्रसंग को युद्ध का कारण बताने के लिये, प्राचीन कवियो की प्रथा के अनुसार, की गई है। पीछे संवत् १९०२ में चंद्रशेखर वाजपेयी ने जो हम्मीरहठ लिखा उसमें भी यह घटना ज्यों की त्यो ले ली गई है। ग्वाल कवि के हम्मीरहठ में भी, बहुत संभव है कि, यह घटना ली गई होगी। प्राचीन वीरकाल के अंतिम-राजपूत वीर का चरित जिस रूप में और जिस प्रकार की भाषा में अंकित होना चाहिए था उसी रूप और उसी प्रकार की भाषा में जोधराज अंकित करने में सफल हुए हैं, इससे कोई संदेह नहीं। इन्हें हिंदी-काव्य की ऐतिहासिक परंपरा की अच्छी जानकारी थी, यह बात स्पष्ट लक्षित होती है। नीचे इनकी रचना के कुछ नमूने उद्धृत किए जाते हैं––

कब हठ करै अलावदीं रणभँवर गढ़ आहि। कबै सेख सरनै रहैं बहुरयों महिमा साहि॥
सूर सोच मन में करी, पदवी लहौं न फेरि। जो हठ छडो राव तुम, उत न लजै अजमेरि॥
सरन राखि सेख न तजौ, सीस गढ़ देस। रानी राव हमीर को यह दीन्हौं उपदेस॥



कहँ पँवार जगदेव सीस आपन कर कट्ट्यो। कहाँ भोज विक्रम सुराव जिन पर दुख मिट्ट्यो॥
सवा भार नित करन कनक विप्रन को दीनो। रह्यो न रहिए कोय देव नर नाग सु चीनो॥
यह बात राव हम्मीर सूँ रानी इमि आसा कहीं। जो भई चक्कवै-मंडली सुनौ रवि दीखै नहीं॥


जीवन मरन सँजोग जग कौन मिटावै ताहि। जो जनमै संसार में अमर रहै नहिं आहि॥
कहाँ जैत कहँ सुर, कहाँ सोमेश्वर राणा‌। कहाँ गए प्रथिराज साह दल जीति न आणा॥
होतब मिटै न जगत में कीजै चिंता कोहि। आसा कहै हमीर सौं अब चूकौ मत सोहि॥

पुंडरीक-सुत-सुता तासु पद-कमल मनाऊँ।
बिसद बरन बर बसन विषद भूषन हिय ध्याऊँ॥
विषद जत्र सुर सुद्ध तंत्र तुबर जुत सोहै।
विषद ताल इक भुजा, दुतिय पुस्तक मन मोहै॥
गलि राजहंस हंसह चढ़ी रटी सुरन कीरति बिमल।
जय मातु सदा बरदायिनी, देहु सदा बरदान-बल॥

(१५) बख्शी हंसराज––ये श्रीवास्तव कायस्थ थे। इनका जन्म संवत् १७९९ में पन्ना में हुआ था। इनके पूर्वज बख्शी हरकिशुनजी पन्ना राज्य के मंत्री थे। हंसराजजी पन्नानरेश श्री अमानसिंह जी के दरबारियों में थे। ये ब्रज की व्यासगद्दी के "विजय सखी" नामक महात्मा के शिष्य थे, जिन्होंने इनका सांप्रदायिक नाम 'प्रेमसखी' रखा था। 'सखी-भाव' के उपासक होने के कारण इन्होंने अत्यंत प्रेम माधुर्यपूर्ण रचनाएँ की है। इनके चार ग्रंथ पाए जाते हैं––

(१) सनेह-सागर, (२) विरहविलास, (३) रामचंद्रिका, (४) बारहमासा (संवत् १८११)

इनमें से प्रथम बड़ा ग्रंथ है। दूसरा शायद इनकी पहली रचना है। 'सनेह सागर' का संपादन श्रीयुत लाला भगवानदीनजी बड़े अच्छे ढंग से कर चुके हैं। शेष ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुए है।

'सनेह-सागर' नौ तरंगों में समाप्त हुआ हैं जिनमें कृष्ण की विविध लीलाएँ सार छंद में वर्णन की गई हैं। भाषा बहुत ही मधुर, सरस और चलती है। भाषा का ऐसा स्निग्ध सरल प्रवाह बहुत कम देखने में आता है। पद-विन्यास अत्यंत कोमल और ललित हैं। कृत्रिमता का लेश नहीं। अनुप्रास बहुत ही संयत मात्रा में और स्वाभाविक है। माधुर्य प्रधानतः संस्कृत की पदावली का नहीं, भाषा की सरल सुबोध पदावली का है। शब्द का भी समावेश व्यर्थ केवल भावपूर्णअर्थ नहीं है। सारांश यह कि इनकी भाषा सब प्रकार से आदर्श भाषा हैं। कल्पना भाव-विधान में ही पूर्णतया प्रवृत्त है, अपनी अलग उड़ान दिखाने में नहीं। भाव-विकास के लिये अत्यंत परिचित और स्वाभाविक व्यापार ही रखे गए हैं। वास्तव में 'सनेह-सागर' एक अनूठा ग्रंथ है। उसके कुछ पद नीचे उदधृत किए जाते हैं––

दमकति दिपति देह दामिनि सी चमकत चंचल नैना।
घूँघट बिच खेलत खंजन से उडि उडि दीठि लगै ना॥
लटकति ललित पीठ पर चोटी बिच बिच सुमन सँवारी।
देखे ताहि मैर सो आवत, मनहुँ भुजंगिनि कारी॥


इत तें चली राधिका गोरी सौंपन अपनी गैया।
उत तें अति आतुर आनँद सों आए कुँवर कन्हैया॥
कसि भौहै, हँसि कुँवरि राधिका कान्ह कुँवर सों बोली।
अँग अँग उमंगि भरे आनँद, दरकति छिन छिन चोली॥


एरे मुकुटवार चरवाहे! गाय हमारी लीजौ।
जाय न कहूँ तुरत की ब्यानी, सौंपि खरक कै दोजौ॥
होहु चरावनहार गाय के बाँधनहार छुरैया।
कलि दीजौ तुम आय दोहनी, पावै दूध लुरैया॥


कोऊ कहूँ आय बन-वीथिन या लीला लखि जैहै।
कहि कहि कुटिल कठिन कुटिलन सों सिगरे ब्रज बगरैहै॥
जो तुम्हरी इनकी ये बातैं सुनिहैं कीरति रानी।
तौ कैसे परिहै पाटे तें, घटिहै कुल को पानी॥

(१६) जनकराज-किशोरीशरण––ये अयोध्या के एक वैरागी थे और संवत् १७९७ में वर्तमान थे। इन्होंने भक्ति, ज्ञान और रामचरित-संबंधिनी बहुत सी कविता की है। कुछ ग्रंथ संस्कृत में भी लिखे हैं। हिंदी कविता साधारणतः अच्छी है। इनकी बनाई पुस्तकों के नाम ये है––

आंदोलरहस्य दीपिका, तुलसीदासचरित्र, विवेकसार चंद्रिका, सिद्धातचौंतीसी, बारहखड़ी, ललित-शृंगार-दीपक, कवितावली, जानकीसरणाभरण, सीताराम सिद्धांतमुक्तावली, अनन्य-तरंगिणी, रामरस तरंगिणी, आत्मसबंध-दर्पण, होलिकाविनोद-दीपिका, वेदांतसार, श्रुति दीपिका, रसदीपिका, दोहावली, रघुवर करुणाभरण।

उपर्युक्त सूची से प्रकट है कि इन्होंने राम-सीता के शृंगार, ऋतुविहार आदि के वर्णन में ही भाषा कविता की है। इनका एक पद्य नीचे दिया जाता है––

फूले कुसुम द्रुम विविध रंग सुगंध के चहुँ चाब।
गुंजत मधुप मधुमत्त नाना रंग रज अँग फाब॥
सीरो सुगंध सुमंद बात विनोद कत बहत।
परसत अनंग उदोत हिय अभिलाष कामिनि कंत॥

(१७) अलबेली अलि––ये विष्णुस्वामी संप्रदाय के महात्मा 'वंशीअलि' जी के शिष्य थे। इसके अतिरिक्त इनका और कोई वृत्त ज्ञात नहीं। अनुमान से इनका कविता-काल विक्रम की १८ वीं शताब्दी का अंतिम भाग आता है। ये भाषा के सत्कवि होने के अतिरिक्त संस्कृत में भी सुंदर रचना करते थे जिसका प्रमाण इनका लिखा 'श्रीस्तोत्र' है। इन्होंने "समय-प्रबंध-पदावली" नामक एक ग्रंथ लिखा है जिसमें ३१३ बहुत ही भाव भरे पद है नीचे कुछ पद उद्धृत किए जाते हैं––

लाल तेरे लोभी लोलुप नैन।
केहि रस-छकनि छके हौ छबीले मानत नाहिंन चैन।
नींद नैन घुरि घुरि आवत अति, घोरि रही कछु नैन॥
अलबेली अलि रस के रसिया, कत बितरह ये बैन।


बने नवल प्रिय प्यारी।
सरद रैन उजियारी॥

सरद रैन सुखदैन मैनमय जमुनातीर सुहायो।
सकल कला-पूरन सति सीतल महि-मंडन पर आयो॥
अतिमय सरस सुगंध मंद गति बहुत पवन रुचिकारी।
नव नव रूप नवल नव जोबन बने नवल पिय प्यारी॥

(१८) चाचा हित वृंदावन दास––ये पुष्कर क्षेत्र के रहनेवाले गौड़ ब्राह्मण थे और संवत् १७६५ में उत्पन्न हुए थे। ये राधावल्लभीय गोस्वामी हितरुपजी के शिष्य थे। तत्कालीन गोसाईंजी के पिता के गुरुभ्राता होने के कारण गोसाईजी की देखादेखी सब लोग इन्हें "चाचाजी" कहने लगे। ये महाराज नागरीदासजी के भाई बहादुरसिंहजी के आश्रय में रहते थे, पर जब राजकुल में विग्रह उत्पन हुआ तब ये कृष्णगढ़ छोड़कर वृंदावन चले आए और अंत समय तक वही रहे। संवत् १८०० से लेकर सवत् १८४४ तक की इनकी रचनाओं का पता लगता है। जैसे सूरदास के सवा लाख पद बनाने की जनश्रुति है वैसे ही इनके भी एक लाख पद और छंद बनाने की बात प्रसिद्ध हैं। इनमें से २०००० के लगभग पद्य तो इनके मिले है। इन्होंने नखशिख, अष्टयाम, समय प्रबंध, छद्मलीला आदि असंख्य प्रसंगों का विशद वर्णन किया है। छंदलीलाओं का वर्णन तो बड़ा ही अनूठा हैं। इनके ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुए हैं। रागरत्नाकर आदि ग्रंथ में इनके बहुत से पद संग्रहीत मिलते हैं। छत्रपुर के राज-पुस्तकालय में इनकी बहुत सी रचनाएँ सुरक्षित हैं।

इतने अधिक परिमाण में होने पर भी इनकी रचना शिथिल या भरती की नहीं है। भाषा पर इनका पूरा अधिकार प्रकट होता हैं। लीलाओं के अंतर्गत वचन और व्यापार की योजना भी इनकी कल्पना की स्फूर्ति का परिचय देती हैं। इनके दो पद नीचे दिए जाते है––

(मनिहारी लीला से)

मिठबोलनी नवल मनिहारी।
भौहैं गोल गरूर हैं, याके नयन चुटीले भारी।
चुरी लखि मुख तें कहै, घूँघट में मुसकाति।
ससि मनु बदरी ओट तें दुरि दरसत यहि भाँति॥
चुरो बड़ो है मोल को, नगर न गाहक कोय।
मो फेरी खाली परी, आई सब घर टोय॥


प्रीतम तुम मो दृगन बसत हौ।
कहीं भरोसे ह्वै पूछत हौं, कै चतुराई करि जु हँसत हौ॥
लीजै, परखि स्वरूप आपनो, पुतरिन में तुमहीं तौ लसत हौ।
वृंदावन हित रूप रसिक तुम, कुंज लड़ावत हिय हुलसत हौ॥

(१९) गिरिधर कविराज––इनका कुछ भी वृत्तांत ज्ञात नहीं। नाम से भाट जान पड़ते हैं। शिवसिंह ने इनका जन्म संवत् १७७० दिया है जो संभवतः ठीक हो। इस हिसाब से इनकी कविताकाल संवत् १८०० के उपरांत ही माना जा सकता है। इनकी नीति की कुंडलियाँ ग्राम ग्राम में प्रसिद्ध हैं। अपढ़ लोग भी दो चार चरण जानते हैं। इस सर्वप्रियता का कारण है बिल्कुल सीधी सादी भाषा में तथ्य मात्र का कथन। इनमें न तो अनुप्रास आदि द्वारा भाषा की सजावट है, न उपमा उत्पेक्षा आदि का चमत्कार। कथन की पुष्टि मात्र के लिये (अलंकार की दृष्टि से नहीं) दृष्टांत आदि इधर उधर मिलते हैं। कहीं कहीं, पर बहुत कम, कुछ अन्योक्ति का सहारा इन्होंने लिया है। इन सब बातों के विचार से ये कोरे 'पद्यकार' ही कहे जा सकते हैं, सूक्तिकार भी नहीं। वृंद कवि में और इनमें यही अंतर हैं। वृंद ने स्थान-स्थान पर अच्छी घटती हुई और सुंदर उपमाओं आदि का भी विधान किया है। पर इन्होंने कोरा तथ्य-कथन किया है। कहीं कहीं तो इन्होंने शिष्टता का ध्यान भी नहीं रखा है। पर घर गृहस्थी के साधारण व्यवहार, लोकव्यवहार आदि का बड़े स्पष्ट शब्दों में इन्होंने कथन किया है। यही स्पष्टता इनकी सर्वप्रियता का एक मात्र कारण हैं। दो कुंडलियाँ दी जाती हैं––

साई बेटा बाप के बिखरे भयो अकाज।
हरनाकुस अरु कंस को गयो दुहुन को राज॥
गयो दुहुन को राज बाप बेटा के बिगरे।
दुसमन दावागीर भए महिमंडल सिगरे॥
कह गिरिधर कविराय जुगन याही चलि आई।
पिता पुत्र के बैर नफा कहु कौने पाई?


रहिए लटपट काटि दिन बरु धामहि में सोय।
छाहँ न बाकी बैठिए जो तरु पतरो होय॥
जो तरु पतरो होय एक दिन धोखा दैहे।
जा दिन बहै बयारि टूटि तब जर से जैहै॥
कह गिरिधर कविराय छाह मोटे की गहिए।
पाता सब झरि जाय तऊ छाया में रहिए॥

(२०) भगवत रसिक––ये टट्टी संप्रदाय के महात्मा स्वामी ललितमोहनीदास के शिष्य थे। इन्होंने गद्दी का अधिकार नहीं लिया और निर्लिप्त भाव से भगवद्भजन में ही लगे रहे। अनुमान से इनका जन्म संवत् १७९५ के लगभग हुआ। अतः इनका रचनाकाल सवत् १८३० और १८५० के बीच माना जा सकता है। इन्होंने अपनी उपासना से सबंध रखनेवाले अनन्य-प्रेम-रसपूर्ण बहुत से पद, कवित्त, कुंडलिया, छप्पय आदि रचे है जिनमें एक ओर तो वैराग्य का भाव और दूसरी ओर अनन्य प्रेम का भाव छलकता है। इनका हृदय प्रेम-रसपूर्ण था। इसी से इन्होंने कहा है कि "भगवत रसिक रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समुझि सकै ना।" ये कृष्णभक्ति में लीन एक प्रेमयोगी थे। इन्होंने प्रेमतत्व का निरूपण बड़े ही अच्छे ढंग से किया है। कुछ पद्य नीचे दिए जाते हैं––

कुंजन तें उठि प्रात गात जमुना में धोवैं।
निधुबन करि दंडवत बिहारी को मुख जोवैं॥
करै भावना बैठि स्वच्छ थल रहित उपाध।
घर घर लेय प्रसाद लगै जब भोजन-साधा॥

संग करै भगवत रसिक, कर करवा, गूदरि गरे।
वृंदावन बिहरन फिरै, जुगल रूप नैनन भरे॥


हमारो वृंदावन उर और।
माया काल तहाँ नहिं ब्यापै जहाँ रसिक-सिरमौर॥
छूट जाति सत असत वासना, मन की दौरा-दौर।
भगवत रसिक बतायो श्रीगुरू अमल अलौकिक ठौर॥

(२१) श्री हठीजी––ये श्रीहितहरिवंशजी की शिष्य-परंपरा में बड़े ही साहित्यमर्मज्ञ और कला-कुशल कवि हो गए है। इन्होंने संवत् १८३७ में "राधासुधाशतक" बनाया जिसमें ११ दोहे और १०३ कवित्त-सवैए है। अधिकांश भक्तों की अपेक्षा इनमे विशेषता यह है कि इन्होंने कला-पक्ष पर भी पूरा जोर दिया है। इनकी रचना में यमक, अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का बाहुल्य पाया जाता है। पर साथ ही भाषा या वाक्य-विन्यास में लद्धड़पन नहीं आने पाया है। वास्तव में "राधासुधाशतक" छोटा होने पर भी अपने देश का अनूठा ग्रंथ है। भारतेंदु हरिश्चंद्र को यह ग्रंथ अत्यत प्रिय था। उससे कुछ अवतरण दिए जाते हैं––

कलप लता के कैधौं पल्लव नवीन दोऊ,
हरन मंजुता के कज ताके बनिता के हैं।

पावन पतित गुन गावैं मुनि ताके छवि,
छलै सबिता के जनता के गुरुता के हैं॥
नवौ निधि ताके सिद्धता के आदि आलै हठी,
तीनौ लोकता के प्रभुता के प्रभु ताके हैं।
कटै पाप ताकै बढैं पुन्य के पताके जिन,
ऐसे पद ताके वृषभानु की सुता के हैं॥


गिरि कीजै गोधन मयूर नव कुंजन को,
पसु कीजै महाराज नंद के नगर को।
नर कौन? तीन जौन राधे राधे नाम रटै,
तट कीजै वर कूल कालिंदी-कगर को॥
इतने पै जोई कछु कीजिए कुँवर कान्ह,
रखिए न आन फेर हठी के झगर को।
गोपी पद-पंकज-पराग कीजै महाराज,
तृन कीजै रावरेई गोकुल नगर को॥


(२२) गुमान मिश्र––ये महोबे के रहनेवाले गोपालमणि के पुत्र थे। इनके तीन भाई और थे। दीपसाहि, सुमान और अमान। गुमान ने पिहानी के राजा अकबरअली-खाँ के आश्रय में संवत् १८०० में श्रीहर्षकृत नैषध काव्य का पद्यानुवाद नाना छंदों में किया। यही ग्रंथ इनका प्रसिद्ध है और प्रकाशित भी हो चुकी है। इसके अतिरिक्त खोज से इनके दो ग्रंथ और मिले हैं––कृष्णचंद्रिका और छंदाटवी (पिंगल)। कृष्णचंद्रिका का निर्माण-काल संवत् १८३८ है। अतः इनका कविताकाल संवत् १८०० से संवत् १८४० तक माना जा सकता है। इन तीन ग्रंथों के अतिरिक्त रस, नायिकाभेद, अलंकार आदि कई और ग्रंथ सुने जाते हैं।

यहाँ केवल इनके नैषध के संबंध में ही कुछ कहा जा सकता हैं। इस ग्रंथ में इन्होंने बहुत से छंदों का प्रयोग किया है और बहुत जल्दी जल्दी छंद बदले है। इंद्रवज्रा, वंशस्थ, मंदाक्राता, शार्दूलविक्रीड़ित आदि कठिन वर्णवृत्तों से लेकर दोहा चौपाई तक मौजूद हैं। ग्रंथारंभ में अकबरअली खाँ की प्रशंसा में जो बहुत से कवित्त इन्होंने कहे हैं, उनसे इनकी चमत्कार-प्रियता स्पष्ट प्रकट होती है। उनमें परिसंख्या अलंकार की भरमार है। गुमानजी अच्छे साहित्यमर्मज्ञ कलाकुशल थे, इसमें कोई संदेह नहीं। भाषा पर भी इनका अधिकार था। जिन श्लोकों के भाव जटिल नहीं है उनका अनुवाद बहुत ही सरस और सुंदर हैं। वह स्वतंत्र रचना के रूप में प्रतीत होता है पर जहाँ कुछ जटिलता है वहाँ की वाक्यविली उलझी हुई और अर्थ अस्पष्ट है। बिना मूल श्लोक सामने आए ऐसे स्थलों का स्पष्ट अर्थ निकालना कठिन ही है। अतः सारी पुस्तक के सबंध में यही कहना चाहिए कि अनुवाद में वैसी सफलता नहीं हुई है। संस्कृत के भावो के सम्यक् अवतरण में यह सफलता गुमान ही के सिर नहीं मढ़ी जा सकती। रीतिकाल के जिन जिन कवियों ने संस्कृत से अनुवाद करने का प्रयत्न किया है उनमें से बहुत से असफल हुए हैं। ऐसा जान पड़ता है कि इस काल में जिस मधुर रूप में ब्रजभाषा का विकास हुआ वह सरल रसव्यंजना के तो बहुत ही अनुकून हुआ पर जटिल भावों और विचारों के प्रकाशन में वैसा समर्थ नहीं हुआ। कुलपति मिश्र ने अपने "रसरहस्य" में काव्यप्रकाश का जो अनुवाद किया हैं उसमें भी जगह जगह इसी प्रकार की अस्पष्टता है।

गुमानजी उत्तम श्रेणी के कवि थे, इसमें संदेह नहीं। जहाँ वे जटिल भाव भरने की उलझन में नहीं पड़े हैं वहाँ की रचना अत्यंत मनोहारिणी हुई है। कुछ पद्य उद्धृत किए जाते हैं––

दुर्जन की हानि, बिरधापनोई करै पीर,
गुन लोप होत एक मोतिन के हार ही।
टूटै मनिमालै निरगुन गाय ताल लिखै,
पोथिन ही अंक, मन कलह विचार ही॥
संकर बरन पसु पच्छिन में पाइयत,
अलक ही पारैं असभंग निरधार ही।
चिर चिर राजौ राज अली अकबर, सुरराज,
के समाज जाके राज पर बारही॥


दिग्गज दबत दबकत दिगपाल भूरि,
धुरि की धुँधेरी सौं अँधेरी आभा भान की।
धाम और धरा को, माल बाल अबला को अरि,
तजत परान राह चाहत परान की॥
सैयद समर्थ भूप अली अकबर-दल,
चलत बजाय मारू दुंदुभी धुकान की।
फिरि फिरि फननि फनीस उलटतु ऐसे,
चोली खोलि ढोली ज्यों तमोली पाके पान की॥


न्हाती वहाँ सुनयना नित बावली में,
छूटे उरोजतल कुंकुम नीर ही में।
श्रीखंड चित्र दृश-अंजन संग साजै।
मानौ त्रिबेनि नित ही घर ही बिराजै॥


हाटक-हंस चल्यो उडिंकै नभ में, दुगनी तन-ज्योति भई।
लीक सी खैंचि गयो छन में, छहराय रही छवि सोनमई॥
नैनन सों निरख्यो न बनायके, कै उपमा मन माहिं लई।
स्यामल चीर मनौ पसरयो, तेहि पै कल कंचन बेलि नई॥

(२३) सरजूराम पंडित––इन्होंने "जैमिनि पुराण भाषा" नामक एक कथात्मक ग्रंथ संवत् १८०५ में बनाकर तैयार किया। इन्होंने अपना कुछ भी परिचय अपने ग्रंथ में नहीं दिया है। जैमिनी पुराण दोहों चौपाइयों में तथा और कई छंदों में लिखा गया है और ३६ अध्यायों में समाप्त हुआ है। इसमें बहुत सी कथाएँ आई हैं; जैसे युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ, संक्षित रामायण, सीतात्याग, लवकुश-युद्व, मयूरध्वज, चंद्रहास आदि राजाओं की कथाएँ। चौपाइयों का ढंग "रामचरिमानस" का सा हैं। कविता इनकी अच्छी हुई है। उसमें गांभीर्य है। नमूने के लिये कुछ पद्य नीचे दिए जाते हैं––

गुरुपद पंकज पावन रेनू। कहा कलपतरु का सुरधेनू॥
गुरुपद-रज अज इरिहर धामा। त्रिभुवन-विभव, विस्व विश्रामा॥
तब लगि जग जड़ जीव भुलाना। परम तत्व गुरु जिथ नहिं जाना
श्रीगुरु पंकज पाँव पसाऊ। स्रवत सुधामय तीरथराऊ॥
सुमिरत होत हृदय असनाना। मिटत मोहमय मन-मल नाना॥

(२४) भगवंतराय खीची––ये असोथर (जिला फतहपुर) के एक बड़े गुणग्राही राजा थे जिनके यहाँ बराबर अच्छे कवियों का सत्कार होता रहता था। शिवसिंह सरोज में लिखा है कि इन्होंने सातों कांड रामायण बड़े सुंदर कवित्तों में बनाई है। यह रामायण तो इनकी नहीं मिलती पर हनुमानजी की प्रशंसा के ५० कवित्त इनके अवश्य पाए गए हैं जो संभव है रामायण के ही अंश हो। खोज में जो इनकी "हनुमत् पचीसी" मिली है उसमें निर्माणकाल १८१७ दिया है। इनकी कविता बड़ी ही उत्साहपूर्ण और ओजस्विनी है। एक कवित्त देखिए––

विदित विसाल ढाल भालु-कपि-जाल की है,
ओट सुरपाल की है तेज के तुमार की।
जाहीं सों चपेटि कै गिराए गिरि गढ, जासों,
कठिन कपाट तोरे, लंकिनी सों मार की॥
भनै भगवंत जासों लागि भेंटे प्रभु,
जाके त्रास लखन को छुभिता खुमार की।
ओढ़े ब्रह्म अस्त्र की अवाती महाताती, वंदौं,
युद्ध-मद-माती छाती पवन-कुमार की॥

(२५) सूदन––ये मथुरा के रहनेवाले माथुर चौबे थे। इनके पिता का नाम बसंत था। सूदन भरतपुर के महाराज बदनसिंह के पुत्र सुजानसिंह उपनाम सूरजमल के यहाँ रहते थे। उन्हीं के पराक्रमपूर्ण चरित्र का वर्णन इन्होंने "सुजानचरित्र" नामक प्रबंधकाव्य में किया है। मोगल-सम्राज्य के गिरे दिनों में भरतपुर के जाट राजाओं का कितना प्रभाव बढ़ा था यह इतिहास में प्रसिद्ध है। उन्होंने शाही महलों और खजानों को कई बार लूटा था। पानीपत की अंतिम लड़ाई के संबध में इतिहासज्ञों की यह धारणा है कि यदि पेशवा की सेना का संचालन भरतपुर के अनुभवी महाराज के कथनानुसार हुआ होता और वे रूठकर न लौट आए होते तो मरहठों की हार कभी न होती। इतने ही से भरतपुरवालों के आतंक और प्रभाव का अनुमान हो सकता है। अतः सूदन को एक सच्चा वीर चरित्रनायक मिल गया।

'सुजानचरित्र' बहुत बड़ा ग्रंथ है। इसमें संवत् १८०२ से लेकर १८१० तक की घटनाओं का वर्णन है। अतः इसकी समाप्ति १८१० के दस पंद्रह वर्ष पीछे मानी जा सकती है। इस हिसाब से इनका कविता-काल संवत् १८२० के आसपास माना जा सकता है। सूरजमल की वीरता की जो घटनाएँ कवि ने वर्णित की हैं वे कपोलकल्पित नहीं, ऐतिहासिक हैं। जैसे अहमदशाह बादशाह के सेनापति असदखाँ के फसहअली पर चढ़ाई करने पर सूरजमल का फतअली के पक्ष में होकर असदखाँ का ससैन्य नाश करना, मेवाड़, माँडौगढ़ आदि जीतना, संवत् १८०४ में जयपुर की ओर होकर मरहठों को हटाना, संवत् १८०५ में बादशाही सेनापति सलाबतखाँ बख्शी को परास्त करना, संवत् १८०६ में शाही वजीर सफदरजंग मंसूर की सेना से मिलकर बंगश पठानों पर चढ़ाई करना, बादशाह से लड़कर दिल्ली लुटना, इत्यादि। इन सब बातों के विचार से 'सुजानचरित्र' का ऐतिहासिक महत्त्व भी बहुत कुछ है।

इस काव्य की रचना के संबंध में सबसे पहली बात जिसपर ध्यान जाता है वह वर्णनों का अत्यधिक विस्तार और प्रचुरता है। वस्तुओं की गिनती गिनाने की प्रणाली का इस कवि ने बहुत अधिक अवलंबन किया है, जिससे पाठकों को बहुत से स्थलों पर अरुचि हो जाती है। कहीं घोड़ों की जातियों के नाम ही नाम गिनाते चले गए हैं, कहीं अस्त्रों और वस्त्रों की सूची की भरमार है, कहीं भिन्न भिन्न देशवासियो और जातियो की फिहरिस्त चल रही है। इस कवि को साहित्यिक मर्यादा का ध्यान बहुत ही कम था। भिन्न भिन्न भाषाओं और बोलियों को लेकर कहीं कहीं इन्होंने पूरा खेलवाड़ किया है। ऐसे चरित्र को लेकर जो गाभीर्य कवि में होना चाहिए वह इनमें नहीं पाया जाता। पद्य में व्यक्तियों और वस्तुओं के नाम भरने की निपुणता इस कवि की एक विशेषता समझिए। ग्रंथारम्भ में ही १७५ कवियों के नाम गिनाए गए हैं। सूदन में युद्ध, उत्साहपूर्ण भाषण, चित्त की उमंग आदि वर्णन करने की पूरी प्रतिभा थी पर उक्त त्रुटियों के कारण उनके ग्रंथ का साहित्यिक महत्त्व बहुत कुछ घटा हुआ है। प्रगल्भता और प्रचुरता का प्रदर्शन सीमा का अतिक्रमण कर जाने के कारण जगह जगह खटकता है। भाषा के साथ भी सूदनजी ने पूरी मनमानी की है। पंजाबी, खड़ी बोली, सब का पुट मिलता है। न जाने कितने गढ़त के और तोड़े मरोडें शब्द लाए गए हैं। जो स्थल-इन सब दोषों से मुक्त हैं वे अवश्य मनोहर हैं पर अधिकतर शब्दों की तड़ातड़ भडाभड़ से जी ऊबने लगता है। यह वीर-रसात्मक ग्रंथ है और इसमें भिन्न भिन्न युद्धों का ही वर्णन है इससे अध्यायों का नाम जग रखा गया है। सात जगों में ग्रंथ समाप्त हुआ। छंद बहुत से प्रयुक्त हुए हैं। कुछ पद्य नीचे उद्धृत किए जाते हैं––

बखत बिलंद तेरी दुंदुभी धुकारने सों,
दुंद दबि जात देस देस सुख जाही के।
दिन दिन दूनो महिमंडल प्रताप होत,
सूदन दुनी में ऐसे बखत न काही के॥
उद्धत सुजान सुत बुद्धि बलवान सुनि,
दिल्ली के दरनि बाजैं आवज उछाही के।
जाही के भरोसे अब तखत उमाही करैं,
पाही से खरे हैं जो सिपाही पातमाही के॥


दुहुँ ओर बंदूक जहँ चलत बेचूक,
रव होत धुकधूक, किलकार कहुँ कूक।
कहूँ धनुषटंकार जिहि बान झंकार,
भट देत हुंकार संकार मुँह सूक॥
कहूँ देखि दपटंत, गज बाजि झपटंत,
अरिब्यूह लपटंत रपटंत कहुँ चूक।

समसेर सटकंत, सर सेल फटकंत,
कहूँ जात हटकत, लटकत लगि झूक॥


दब्बत लुत्थिनु अब्बत इक्क सुखब्बत से।
चब्बत लोह, अचब्बत सोनित गब्बत से॥
चुट्टित खुट्टिन केस सुलुट्टिन इक्क, मही।
जुट्टित फुट्टित सीस, सुखुट्टित तंग गही॥
कुट्टित घुट्टीत काय बिछुट्टित प्रान सही।
छुट्टित आयुध, हुट्टित गुट्टित देह दही॥


धड़धद्धर, धड़धद्धर, भड़भब्भरं भड़भब्भरं।
तड्तत्तर तड्तत्तर कड़कक्ऱ कड़कक्करं॥
घड्घग्घर घड्घग्घर झड्झज्झर झड़झज्झरं।
अररर्ररं अररर्ररं, सररर्ररं सररर्ररं॥


सोनित अरघ ढारि, लुत्थ जुत्थ पाँवड़े दै,
दारूधूम धूपदीप, रजक की ज्वालिका।
चरबी को चंदन, पुहुप पल टूकन के,
अच्छत अखंड गोला गोलिन की चालिका॥
नैवेद्य नीको साहि सहित दिली को दल,
कामना विचारी मनसूर-पन-पालिका।
कोटरा के विकट बिकट जंग जारि सूजा,
भलो विधि पूजा कै प्रसन्न कीन्हीं कालिका॥


इसी गल्ल धरि कन्न में बकसी मुसक्याना।
हमनूँ बूझत हौं तुसी 'क्यों किया पयाना'॥
'असी आवन भेदनूं तुने नहिं जाना।
साह अहम्मद ने तुझे अपना करि माना'॥


डोलती डरानी खतरानी बतरानी बेबे,
कुडिंए न बेखी अणी भी गुरून पावाँ हाँ।
कित्थे जला पेऊँ, कित्थे उज्जले भिड़ाऊँ असी,
तुसी की लै गीवा असी जिंदगी बचावा हाँ॥
भट्टररा साहि हुआ चंदला वजीर बेखो,
एहा हाल कीता, वाह गुरूनूँ मनावा हाँ।
जावाँ कित्थे जावाँ अम्मा बाबै केही पावाँजली,
एही गल्ल अक्खैं लक्खौं लक्खौं गली जावाँ हाँ॥

(२६) हरनारायण––इन्होंने 'माधवानल कामकंदला' और 'बैताल पच्चीसी' नामक दो कथात्मक काव्य लिखे हैं। 'माधवानल कामकंदला' का रचनाकाल स॰ १८१२ है। इनकी कविता अनुप्रास आदि से अलंकृत है। एक कवित्त दिया जाता है––

सोहै मुंड चंद सों, त्रिपुंड सों विराजै भाल,
तुंड राजै रदन उदंड के मिलने तें।
पाप-रूप-पानिए विघन-जल जीवन के
कुंड सोखि सृजन बचावैं अखिलन तें॥
ऐसे गिरिनंदिनो के नंदन को ध्यान ही में
कीबे छाडि सकल अपानहि दिलन तें।
भुगुति मुकति ताके तुंड तें निकसि तापै,
कुंढ बांधि कढ़ती भुसुंड के विलन तें॥

(२७) ब्रजवासी दास––ये वृंदावन के रहने वाले और वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी थे। इन्होंने संवत् १८२७ में 'ब्रजविलास' नामक प्रबंधकाव्य तुलसीदासजी के अनुकरण पर दोहों चौपाइयों में बनाया। इसके अतिरिक्त इन्होंने 'प्रबोधचंद्रोदय' नाटक का अनुवाद भी विविध छंदों में किया है। पर इनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'ब्रज विलास' ही हैं जिसका प्रचार साधारण श्रेणी के पाठको में हैं। इस ग्रंथ में कथा भी सूरसागर के क्रम से ली गई है और बहुत से स्थलों पर सूर के शब्द और भाव भी चौपाइयों में करके रख दिए गए हैं। इस बात को ग्रंथकार ने स्वीकार भी किया है––

यामें कछुक बुद्धि नहीं मेरी। उक्ति युक्ति सब सूरहिं केरी॥

इन्होंने तुलसी का छंद:क्रम ही लिया है, भाषा शुद्ध ब्रजभाषा ही है। उसमे कहीं अवधी या बैसवाडी का नाम तक नहीं है। जिनको भाषा की पहचान तक नहीं, जो वीररस वर्णन-परिपाटी के अनुसार किसी पद्य में वणों को द्वित्व देख उसे प्राकृत भाषा कहते है, वे चाहे जो कहे। ब्रजविलास में कृष्ण की भिन्न भिन्न लीलाओं का जन्म से लेकर मथुरा-गमन तक का वर्णन किया गया है। भाषा सीधी-सादी, सुव्यवस्थित और चलती हुई है। व्यर्थ शब्दों की भरती न होने से उसमें सफाई हैं। यह सब होने पर भी इसमें वह बात नहीं है जिसके बल से गोस्वामीजी के रामचरितमानस का इतना देशव्यापी प्रचार हुआ। जीवन की परिस्थितियों की वह अनेकरूपता, गंभीरता और मर्मस्पशिता इसमें कहाँ जो रामचरित और तुलसी की वाणी में है? इसमें तो अधिकतर क्रीड़ामय जीवन का ही चित्रण है। फिर भी साधारण श्रेणी के कृष्णभक्त पाठकों में इसका प्रचार है। आगे कुछ पद्य दिए जाते हैं––

कहति जसोदा कौन विधि, समझाऊँ अब कान्ह।
भूलि दिखायो चंद मैं, ताहि कहत हरि खान॥

यहै देत नित माखन मोकों। छिन छिन देति तात सो तोकों॥
जो तुम स्याम चंद कौ खैहौ। बहुरो फिर माखन कहू पैहौं?
देखत रहौ खिलौना चंदा। हठ नहिं कीजै बालगोविंदा॥
पा लागौं हठ अधिक न कीजै। मैं बलि, रिसहि रिसहि तन छीजै॥
जसुमति कहति कहा धौं कीजै। माँगत चंद कहाँ तें दीजै॥
तब जसुमति इक जलपुट लीनो। कर मैं लै तेहि ऊँचो कीनो॥
ऐसे कहि श्यामै बहरावै। आव चंद! तोहि लाल बुलावै॥
हाथ लिए तेहि खेलत रहिए। नैकु नहीं धरनी पै धरिए॥

(२८) गोकुलनाथ, गोपीनाथ और मणिदेव––इन तीनों महानुभावों ने मिलकर हिंदी-साहित्य में बड़ा भारी काम किया है। इन्होंने समग्र महाभारत और हरिवंश (जो महाभारत का ही परिशिष्ट माना जाता है) का अनुवाद अत्यत मनोहर विविध छंदो में पूर्ण कवित्व के साथ किया है। कथा प्रबंध का इतना बड़ा काव्य हिंदीसाहित्य में दूसरा नहीं बना। यह लगभग दो हजार पृष्ठों में समाप्त हुआ है। इतना बड़ा ग्रंथ होने पर भी न तो इसमें कहीं शिथिलता आई है और न रोचकता और काव्यगुण में कमी हुई है। छंदों का विधान इन्होंने ठीक उसी रीति से किया है, जिस रीति से इतने बड़े ग्रंथ में होना चाहिए। जो छंद उठाया है उसका कुछ दूर तक निर्वाह किया है। केशवदास की तरह छंदो का तमाशा नहीं दिखाया है। छंदों का चुनाव भी बहुत उत्तम हुआ है। रूपमाला, घनाक्षरी, सवैया आदि मधुर छंद अधिक रखे गए है; बीच बीच में दोहे और चौपाइयाँ भी हैं। भाषा प्रांजल और सुव्यवस्थित है। अनुप्रास आदि का अधिक आग्रह न होने पर भी आवश्यक विधान है। रचना सब प्रकार से साहित्यिक और मनोहर है और लेखको की काव्यकुशलता का परिचय देती है। इस ग्रंथ के बनने में भी ५० वर्ष के ऊपर लगे है। अनुमानतः इसका आरंभ संवत् १८३० में हो चुका था और यह संवत् १८८४ में जाकर समाप्त हुआ है। इसकी रचना काशीनरेश महाराज उदितनारायणसिंह की आज्ञा से हुई जिन्होंने इसके लिये लाखों रुपए व्यय किए। इस बड़े भारी साहित्यिक यज्ञ के अनुष्ठान के लिये हिंदी-प्रेमी उक्त महाराज के सदा कृतज्ञ रहेगे।

गोकुलनाथ और गोपीनाथ प्रसिद्ध कवि रघुनाथ बंदीजन के पुत्र और पौत्र थे। मणिदेव बंदीजन भरतपुर राज्य के जहानपुर नामक गाँव के रहनेवाले थे और अपनी विमाता के दुर्व्यव्हार से रुष्ट होकर काशी चले आए थे। काशी में वे गोकुलनाथजी के यहाँ ही रहते थे। और स्थानों पर उनका बहुत मान हुआ था। जीवन के अंतिम दिनों में वे कभी कभी विक्षिप्त भी हो जाया करते थे। उनका परलोकवास संवत् १९२० में हुआ।

गोकुलनाथ ने इस महाभारत के अतिरिक्त निम्नलिखित और भी ग्रंथ लिखे है––

चेतचंद्रिका, गोविंद-सुखदविहार, राधाकृष्ण-विलास (सं॰ १८५८) 'राधा नखशिख, नामरत्नमाला (कोश) (सं॰ १८७०), सीताराम-गुणार्णव, अमरकोष भाषा (सं॰ १८७०), कविमुखमंडन।

चेतचंद्रिका अलंकार का ग्रंथ है जिसमें काशिराज की वंशावली भी दी हुई है। 'राधाकृष्ण-विलास' रस संबंधी ग्रंथ है और 'जगतविनोद' के बराबर है। 'सीताराम-गुणार्णव' अध्यात्मरामायण का अनुवाद है जिसमें पूरी रामकथा वर्णित है। 'कविमुखमडन' भी अलकार संबंधी ग्रंथ है। गोकुलनाथ का कविता काल संवत् १८४० से १८७० तक माना जा सकता है। ग्रंथों की सूची से हो स्पष्ट है कि ये कितने निपुण कवि थे। रीति और प्रबंध दोनों ओर इन्होंने प्रचुर रचना की है। इतने अधिक परिमाण में और इतने प्रकार की रचना वहीं कर सकता है जो पूर्ण साहित्यमर्मज्ञ, काव्यकला में सिद्धहस्त और भाषा पर पूर्ण अधिकार रखनेवाला हो। अतः महाभारत के तीनों अनुवादको में तो ये श्रेष्ठ हैं। ही, साहित्य क्षेत्र में भी ये बहुत ही ऊँचे-पद के अधिकारी हैं। रीतिग्रंथ-रचना और प्रबंध-रचना दोनों में समान रूप से कुशल और कोई दूसरा कवि रीतिकाल के भीतर नहीं पाया जाता।

महाभारत के जिस-जिस अंश का अनुवाद जिसने-जिसने किया है उस-उस अंश में उनका नाम दिया हुआ है। नीचे तीनों कवियों की रचना के कुछ उदाहरण दिए जाते है––

गोकुलनाथ––

सखिन के श्रुति में उकुति कल कोकिल की
गुरुजन हू पै पुनि लाज के कथान की।
गोकुल अरुन चरनांबुज पै गुंजपुंन
धुनि सी चढ़ति चंचरीक चरचान की॥
पीतम के श्रवन समीप ही जुगुति होति
मैन-मंत्र-तंत्र के बरन गुनगान की।
सौतिन के कानन में इलाहल ह्वै हलति,
एरी सुखदानि! तौ बजनि बिलुवान की॥

(राधाकृष्ण विलास)



दुर्ग अतिही महत् रक्षित भटन सों चहुँ ओर।
ताहि घेरयो शाल्व भूपति सेन लै अति घोर॥
एक मानुष निकसिबे की रही कतहुँ न राह।
परी सेना शाल्व नृप की भरी जुद्ध-उछाह॥



लहि सुदेष्णा की सुआज्ञा नीच कीचक जौन।
जाय सिंहिनि पास जंबुक तथा कीनो गौन॥
लग्यो कृष्ण सों कहन या भाँति सस्मित बैन।
यहाँ आई कहाँ तें? तुम कौन हौ छबि-ऐन?



नहीं तुम सी लखी भू पर भरी-सुषमा बाम।
देवि, जच्छिनि, किन्नरी, कै श्री, सची अभिराम॥
कांति सों अति भरो तुम्हरो लखत बदन अनूप।
करैगो नहिं स्वबस काको महा मन्मथ भूप॥

(महाभारत)


गोपीनाथ––


सर्वदिसि में फिरत भीषम को सुरथ मन-मान।
लखे सब कोउ तहाँ भूप अलातचक्र समान॥
सर्व थर सब रथिन सों तेहिं समय नृप सब ओर।
एक भीषम सहस सम रन जुरो हो तहँ जोर॥


मणिदेव––


वचन यह सुनि कहत भो चक्रांत हंस उदार।
उड़ौगे मम संग किमि तुम कहहु सो उपचार॥
खाय जुठो पुष्ट, गर्वित काग सुनि ये बैन।
कह्यो जानत उड़न की शत रीति हम बलऐन॥

(२९) बोधा––ये राजापुर (जि॰ बाँदा) के रहनेवाले सरयूपारी ब्राह्मण थे। पन्ना दरबार में इनके संबंधियों की अच्छी प्रतिष्ठा थी। उसी संबंध से ये बाल्यकाल ही में पन्ना चले गए। इनका नाम बुद्धिसेन था, पर महाराज इन्हें प्यार से 'बोधा' कहने लगे और वही नाम इनका प्रसिद्ध हो गया। भाषाकाव्य के अतिरिक्त इन्हें संस्कृत और फारसी का भी अच्छा बोध था। शिवसिंहसरोज में इनका जन्म-संवत् १८०४ दिया हुआ है। इनका कविता-काल संवत् १८३० से १८६० तक माना जा सकता है।

बोधा एक बडे़ रसिक जीव थे। कहते हैं कि पन्ना दरबार में सुभान (सुबहान) नाम की एक वेश्या थी जिसपर इनका प्रेम हो गया। इसपर रुष्ट होकर महाराज ने इन्हें ६ महीने देश-निकाले का दंड दिया। सुभान के वियोग में ६ महीने इन्होंने बड़े कष्ट से बिताए और उसी बीच में "विरह-बारीश" नामक एक पुस्तक लिखकर तैयार की। ६ महीने पीछे जब ये फिर दरबार में लौटकर आए, तब अपने "विरह-बारीश" के कुछ कवित्त सुनाए। महाराज ने प्रसन्न होकर इनसे कुछ माँगने को कहा। इन्होंने कहा "सुभान अल्लाह"। महाराज ने प्रसन्न होकर सुभान को इन्हें दे दिया और इनकी मुराद पूरी हुई।

'विरह-बारीश' के अतिरिक्त "इश्कनामा" भी इनकी एक प्रसिद्ध पुस्तक है। इनके बहुत से फुटकल कवित्त सवैए इधर उधर पाएं जाते है। बोधा एक रसोन्मत्त कवि थे, इससे इन्होंने कोई रीतिग्रंर्थ न लिखकर अपनी मौज के अनुसार फुटकल पद्यों की ही रचना की है। ये अपने समय के एक प्रसिद्ध कवि थे। प्रेममार्ग के निरूपण में इन्होंने बहुत से पद्य कहे है। 'प्रेम की पीर' की व्यंजना भी इन्होंने बड़ी मर्मस्पर्शिनी युक्ति से की है। यत्र तत्र व्याकरण-दोष रहने पर भाषा इनकी चलती और मुहावरेदार होती थी। उससे प्रेम की उमंग छलकी पड़ती है। इनके स्वभाव में फक्कड़पन भी कम नहीं था। 'नेजे', 'कटारी' और 'कुरबान' वाली बाजारु ढंग की रचना भी इन्होंने कहीं कहीं की है। जो कुछ हो, ये भावुक और रसज्ञ कवि थे, इसमें कोई संदेह नही। कुछ पद्य इनके नीचे दिए जाते है––

अति खीन मृनाल के तारहु तें तेहि ऊपर पाँव दै आवनो है।
सुई-बेह कै द्वार सकै न तहाँ परतीति को ठाँडों लदावनो है॥

कवि बोधा अनी घनी नेजहु तें चढ़ि तापै न चित्त डरावनो है।
यह प्रेम को पंथ कराल महा तरवारि की धार पै धावनो हैं॥


एक सुभान के आनन पै कुरबान जहाँ लगि रूप जहाँ को।
कैयो सतऋतु की पदवी लुटिए लखि कै मुसाहट ताको॥
सोक जरा गुजरा न जहाँ कवि बोधा जहाँ उजरा न तहाँ को।
जान मिलै तो जहान मिलै, नहिं जान मिलै तौ जहान कहाँ को॥


'कबहूँ मिलिबो, कबहूँ मिलिबो' वह धीरज ही में धरैबो करै।
उरतें कढ़ि आवै,गरे तें फिरैं, मन की मन ही में सिरैबो करै॥
कवि बोधा न चाँड सरी कबहूँ, नितही हरवा सो हिरैबो करै।
सहते ही बनै, कहते न बनै, मन ही मन पीर पिरैबो करै॥


हिलि मिलि जानै तासों मिलि कै जनावै हेत,
हिसको न जानै ताको हितू न विसाहिए।
होय मगरूर तापै दूनी मगरूरी कीजै,
लघु ह्वै चलै जो तासों लधुता निवाहिए॥
बोधा कवि नीति को निबेरो यही भाँति अहै,
आपको सराहै ताहि आपहू सराहिए।
दाता कहा, सूर कहा, सुंदर सुजान कहा,
।आपको न चाहै ताके बाप को न चाहिए॥

(३०) रामचंद्र––इन्होंने अपना कुछ भी परिचय नहीं दिया है। भाषा महिम्न के कर्ता काशीवासी मनियारसिंह ने अपने को "चाकर अखंडित श्रीरामचंद्र पंडित के" लिखा है। मनियारसिंह ने अपना "भाषा-महिम्न" संवत् १८४१ में लिखा। अतः इनका समय संवत् १८४० माना जा सकता है। इनकी एक ही पुस्तक "चरणचंद्रिका" ज्ञात है। जिस पर इनका सारा यश स्थिर है। यह भक्ति-रसात्मक ग्रंथ केवल ६२ कवित्तों का है। इसमें पार्वतीजी के चरणों का वर्णन अत्यंत रुचिर और अनूठे ढंग से किया गया है। इस वर्णन से अलौकिक सुषमा, विभूति, शक्ति और शांति फूटी पड़ती है। उपास्य के एक अंग में अनंत ऐश्वर्य की भावना भक्ति की चरम भावुकता के भीतर ही संभव हैं। भाषा लाक्षणिक और पांडित्यपूर्ण है। कुछ और अधिक न कहकर इनके दो कवित्त ही सामने रख देना ठीक है––

नूपुर बजत मानि मृग से अधीन होत,
मीन होत जानि चरनामृत-झरनि को।
खंजन से नचैं देखि सुषमा सरद की सी,
सचैं मधुकर से पराग केसरनि को॥
रीझि रीझि तेरी पदछबि पै तिलोचन के,
लोचन ये अब धारैं केतिक धरनि को।
फूलत कुमुद से मयंक से निरखि नख,
पंकज से खिलैं लखि तरवा-तरनि को॥


मानिए करींद्र जो हरींद्र को सरोष हर,
मानिए तिमिर घेरै भानु किरनन को।
मानिए चटक बाज जुर्रा को पटकि मारै,
मानिए भटकि डारै भेक भुजगन को॥
मानिए कहै जो वारिधार पै दवारि औ
अंगार बरसाइबो बतावै बारिदन को।
मानिए अनेक विपरीत की प्रतीत, पै न
भीति आई मानिए भवानी-सेवकन को॥

(३१) मंचित––ये मऊ (बुँदेलखंड) के रहनेवाले ब्राह्मण थे और संवत् १८३६ में वर्तमान थे। इन्होंने कृष्ण-चरित संबधी दो पुस्तकें लिखी हैं––सुरभी-दानलीला और कृष्णायन। सुरभी-दानलीला में बाललीला, यमलार्जुन-पतन और दान-लीला का विस्तृत वर्णन सार छंद में किया गया है। इसमें श्रीकृष्ण का नखशिख भी बहुत अच्छा कहा गया है। कृष्णायन तुलसीदासजी की रामायण के अनुकरण पर दोहों चौपाइयों में लिखी गई है। इन्होंने गोस्वामीजी की पदावली तक का अनुकरण किया है। स्थान-स्थान पर भाषा अनुप्रासयुक्त और संस्कृत-गर्भित है, इससे ब्रजवासीदास की चौपाइयों की अपेक्षा इनकी चौपाइयाँ गोस्वामीजी की चौपाइयों से कुछ अधिक मेल खाती हैं। पर यह मेल केवल कहीं कहीं दिखाई पड़ जाती है। भाषा-मर्मज्ञ को दोनों का भेद बहुत जल्दी स्पष्ट हो जाता है। इनकी भाषा ब्रज है, अवधी नहीं। इसमें वह सफाई और व्यवस्था कहाँ? कृष्णायन की अपेक्षा इनकी सुरभी-दानलीला की रचना अधिक सरस हैं। दोनों से कुछ अवतरण नीचे दिए जाते हैं––

कुंडल लोल अमोल कान के छुवत कपोलन आवैं।
डुलैं आप से खुलैं जोर छबि बरबस मनहिं चुरावैं॥
खौर बिसाल भाल पर सोभित केसर की चित भावैं‌।
ताके बीच बिंदु रोरी को, ऐसो बेस बनावें॥
भ्रुकुटी बंक नैन खंजन से कंजन गंजनवारे।
मद भंजन खग-मीन सदा जे मनरंजन अनियारे॥

(सुरभी-दानलीला से)

अचरज अमित भयो लखि सरिता। दुतिय ने उपमा कहि सम-चरिता॥
कृष्णदेव कहँ प्रिय जमुना सी। जिमि गोकुल गोलोक-प्रकासी॥
अति विस्तार पार, पय पावन। उभय करार घाट मन भावन॥
बनचर बनज बिपुल बहु पच्छी। अलि-अवली-धुनि-सुनि अति अच्छी॥
नाना जिनिस जीव सरि सेवैं। हिंसाहीन असन सुचि जेवैं॥

(कृष्णायन)

(३२) मधुसूदनदास––ये माथुर चौबे थे। इन्होंने गोविंददास नामक किसी व्यक्ति के अनुरोध से संवत् १८३९ में "रामाश्वमेध" नामक एक बड़ा और मनोहर प्रबंधकाव्य बनाया जो सब प्रकार से गोस्वामीजी के रामचरितमानस का परिशिष्ट ग्रंथ होने के योग्य है। इसमें श्रीरामचंद्र द्वारा अश्वमेध-यज्ञ का अनुष्ठान, घोड़े के साथ गई हुई सेना के साथ सुबाहु, दमन, विद्युन्माली राक्षस, वीरमणि, शिव, सुरथ आदि का घोर युद्ध; अंत में राम के पुत्र लव और कुश के साथ भयंकर संग्राम, श्रीरामचंद्र द्वारा युद्ध का निवारण और पुत्रों सहित सीता का अयोध्या में आगमन; इन सब प्रसंगों का पद्मपुराण के आधार पर बहुत ही विस्तृत और रोचक वर्णन है। ग्रंथ की रचना बिलकुल रामचरितमानस की शैली पर हुई है। प्रधानता दोहों के साथ चौपाइयों की है, पर बीच बीच में गीतिका आदि और छंद भी है। पद-विन्यास और भाषासौष्ठव रामचरितमानस का सा ही है। प्रत्यय और रूप भी बहुत कुछ अवधी के रखे गए हैं। गोस्वामीजी की प्रणाली के अनुसरण में, मधुसूदनदासजी को पूरी सफलता हुई है। इनकी प्रबंधकुशलता, कवित्व-शक्ति और भाषा की शिष्टता तीनों उच्च कोटि की हैं। इनकी चौपाइयाँ अलबत्तः गोस्वामीजी की चौपाइयों में बेखटके मिलाई जा सकती हैं। सूक्ष्म दृष्टि वाले भाषा मर्मज्ञो को केवल थोड़े ही ऐसे स्थलों में भेद लक्षित हो सकता है जहाँ बोलचाल की छाया होने के कारण भाषा का असली रूप अधिक स्फुटित है। ऐसे स्थलो पर गोस्वामीजी के अवधी के रूप और प्रत्यय न देखकर भेद का अनुभव हो सकता है। पर जैसा कहा जा चुका है, पदविन्यास की प्रौढ़ता और भाषा का सौष्ठव गोस्वामीजी के मेल का है।


सिय-रघुपति-पदकंज पुनीता। प्रथमहिं बंदन करौं सप्रीता॥
मृदु मंजुल सुंदर सब भाँती। ससि-कर-सरिस सुभग नख-पाँती॥
प्रणत कल्पतरु तर सब ओरा। दहन अज्ञ तम जन-चितचोरा॥
बिबिध कलुष कुंजर घनघोरा। जगप्रिसद्ध केहरि बरजोरा॥
चिंतामणि पारस सुरधेनू। अधिक कोटि गुन अभिमत देनू॥
जन-मन-मानस रसिक मराला। सुमिरत भंजन बिपति बिसाला॥



निरखि कालजित कोपि अपारा। विदित होय करि गदा प्रहार॥
महावेगयुत आवै सोई। अष्टधातुमय जाय न जोई॥
अयुत भार भरि भार प्रसाना। देखिय जमपति-दंड समाना॥
देखि नाहि लव हनि इषु चडा। कीन्हीं तुरत गदा त्रय खंडा॥
जिमि नभ माँह मेघ-समुदाई। बरषहिं बारि महा झरि लाई॥

तिमि प्रचंड सायक जनु ब्याला। हने कीस-तन लव तेहि काला॥
भए विकल अति पवन कुमारा। लगे करन तब हृदय बिचारा॥

(३३) मनियार सिंह––ये काशी के रहनेवाले क्षत्रिय थे इन्होंने देव पक्ष में ही कविता की है और अच्छी की है। इनके निम्नलिखित ग्रंथो का पता है––

महिम्न भाषा, सौंदर्य लहरी (पार्वती या देवी की स्तुति), हनुमत छबीसी, सुंदरकांड। भाषा महिम्न इन्होंने संवत् १८४१ में लिखा। इनकी भाषा सानुप्रास, शिष्ट और परिमार्जित हैं और उसमें ओज भी पूरा है। ये अच्छे कवि हो गए हैं। रचना के कुछ उदाहरण लीजिए––

मेरो चित्त कहाँ दीनता में अति दूबरो है,
अधरम-घूमरो न सुधि के सँभारे पै।
कहाँ तेरी ऋद्धि कवि बुद्ध-धारा-ध्वनि तें,
त्रिगुण तें, परे ह्वै दिखात निरधारे पै॥
मनियार यातें मति थकित जकित ह्वै के,
भक्तिबस धरि उर धीरज बिचारे पै।
बिरची कृपाल वाक्यमाल या पुहुपदंत,
पूजन करन काज चरन तिहारे पै॥


तेरे पद-पंकज-पराग राज-राजेश्वरी।
वेद-बंदनीय बिरुदावलि बढी रहै।
जाकी किनुकाई पाय धाता ने धरित्री रची,
जापै लोक लोकन की रचना कढ़ी रहै॥
मनियार जाहि विष्णु सेवैं सर्व पोषत में,
सेस हू के सदा सीस सहस मढ़ी रहै।
सोई सुरासुर के सिरोमनि सदाशिव के,
भसम के रूप ह्वै सरीर पै चढ़ी रहै॥


अभय कठोर बानी सुनि लछमन जू की,
मारिबे को चाहि जो सुधारि खल तरवारि।
वीर हनुमंत तेहि गरजि सुहास करि,
उपटि पकरि ग्रीव भूमि लै परे पछारि॥
पुच्छ तें लपेटि फेरि दंतन दरदराइ,
नखन बकोटि चोंथि देत महि डारि डारि।
उदर बिदारि मारि लुत्थन को टारि बीर,
जैसे मृगराज गजरान, डारै फारि फारि॥

(३४) कृष्णदास––ये मिरजापुर के रहनेवाले कोई कृष्णभक्त जान पड़ते हैं। इन्होंने संवत् १८५३ में "माधुर्य लहरी" नाम की एक बड़ी पुस्तक ४२० पृष्ठों की बनाई जिसमें विविध छंदो में कृष्णचरित का वर्णन किया गया है। कविता इनकी साधारणतः अच्छी है। एक कवित्त देखिए––

कौन काज लाज ऐसी करै जो अकाज अहो,
बार बार कहो नरदेव कहाँ पाइए।
दुर्लभ, समाज मिल्यो सफल सिद्धांत जानि,
लीला गुन नाम धाम रूप सेवा गाइए॥
बानी की सयानी सब पानी में बहाय दीजै,
जानी सो न रीति जासों दंपति रिझाइए।
जैसी जैसी गही जिन लही तैसी नैननहू,
धन्य धन्य राधाकृष्ण नित ही गनाइए॥

(३५) गणेश––ये नरहरि बंदीजन के वंश में लाल कवि के पौत्र और गुलाब कवि के पुत्र थे। ये काशीराज महाराज उदितनारायणसिंह के दरबार में थे और महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायणसिंह के समय तक जीवित रहे। इन्होंने तीन ग्रंथ लिखे–१––वाल्मीकी रामायण श्लोकार्थ प्रकाश। (बालकांड समग्र और किष्किंधा के पाँच अध्याय) २––प्रद्युम्नविजय नाटक। ३––हनुमत् पचीसी।

प्रद्युम्नविजय नाटक समग्र पद्यबद्ध हैं और अनेक प्रकार के छंदों में सात अंको में समाप्त हुआ है। इसमें दैत्यों के वज्रनाभपुर नामक नगर में प्रद्युम्न के जाने और प्रभावती से गांधर्व विवाह होने की कथा हैं। यद्यपि इसमे पात्रप्रवेश, विष्कंभक, प्रवेशक आदि नाटक के अंग रखे गए हैं पर इतिवृत्त का भी वर्णन पद्य में होने के कारण नाटकत्व नहीं आया है। एक उदाहरण दिया जाता है––


ताही के उपरांत कृष्ण इंद्र आवत भए।
भेंटि परस्पर कांत बैठ सभासद मध्य तहँ॥

बोले हरि इंद्र सों बिनै कै कर जोरि दोऊ,
आजु दिग्विजय हमारे हाथ आयो है।
मेरे गुरु लोग सब तोषित भए हैं आजु,
पूरो तप दान, भाग्य सफल सुहायो है॥
कारज समस्त सरे, मंदिर में आए आप,
देवन के देव मोहि धन्य ठहरायो है।
सो सुनि पुरंदर उपेंद्र लखि आदर सों,
बोले सुनौ बंधु! दानवीर नाम पायो है॥

(३६) सम्मन––ये मल्लावाँ (जि॰ हरदोई) के रहनेवाले ब्राह्मण थे और संवत् १८३४ में उत्पन्न हुए थे। इनके नीति के दोहे गिरिधर की कुंडलियाँ के समान गाँवों तक में प्रसिद्ध हैं। इनके कहने के ढंग मे कुछ मार्मिकता है। "दिनों के फेर" आदि के संबंध में इनके मर्मस्पर्शी दोहे स्त्रियों के मुँह से बहुत सुने जाते हैं। इन्होंने संवत् १८७९ में "पिंगल काव्य-भूषण" नामक एक रीति-ग्रंथ भी बनाया। पर ये अधिकतर अपने दोहों के लिये ही प्रसिद्ध है। इनका रचनाकाल संवत् १८६० से १८८० तक माना जा सकता है। कुछ दोहे देखिए––

निकट रहे आदर घटै, दूर रहे दुख होय।
सम्मन या संसार में, प्रीति करो जनि कोय॥
सम्मन चहौ सुख देह कौ तौ छाँड़ी ये चारि।
चोरी, चुगुली, जामिनी और पराई नारि॥

सम्मन मीठी बात सों होत सबै सुख पूर।
जेहि नहिं सीखो बोलिबो, तेहि सीखो सब धूर॥


(३७) ठाकुर––इस नाम के तीन कवि हो गए हैं जिनमें दो असनी के ब्रह्मभट्ट थे और एक बुंदेलखंड के कायस्थ। तीनों की कविताएँ ऐसी मिल जुल गई हैं कि भेद करना कठिन है। हाँ, बुंदेलखंडी ठाकुर की वे कविताएँ पहचानी जा सकती हैं जिनमें बुंदेलखंडी कहावते या मुहावरे आए हैं।

असनीवाले प्राचीन ठाकुर

ये रीतिकाल के आरभ में संवत् १७०० के लगभग हुए थे। इनका कुछ वृत्त नहीं मिलेता; केवल फुटकल कविताएँ इधर उधर पाई जाती है। संभव है इन्होंने रीतिबद्ध रचना न करके अपने मन की उमंग के अनुसार ही समय-समय पर कवित्त सवैए बनाए हो जो चलती और स्वच्छ भाषा में है। इनके ये दो सवैए बहुत सुने जाते हैं––

सजि सूहै दुलकन बिज्जुछटा सी अटान चढीं धटा जोवति हैं।
सुचिती ह्वै सुनै धुनि मोरन की, रसमाती सँयोग सँजोवति हैं॥
कवि ठाकुर वै पिय दूरि बसैं, हम आँसुन सो तन धोवति हैं।
धनि वै धनि पावस की रतियाँ पति की छतियाँ लगि सोवति हैं॥


बौरे रसालन की चढ़ि डारन कूकत क्वैलिया मौन गहै ना।
ठाकुर कुंजन कुंजन, गुंजत भौंरन भीर चुपैबो चहै ना॥
सीतल मंद सुगंधित, बीर समीर लगे तन धीर रहै ना।
व्याकुल कीन्हो बसंत बनाय कै, जाय कै कंत सों कोऊ कहै ना॥

असनीवाले दूसरे ठाकुर

ये ऋषिनाथ कवि के पुत्र और सेवक कवि के पितामह थे। सेवक के भतीजे श्रीकृष्ण ने अपने पूर्वजों का जो वर्णन लिखा है उसके अनुसार ऋषिनाथजी के पूर्वज देवकीनंदन मिश्र गोरखपुर जिले के एक कुलीन सरयूपारी ब्राह्मण––पयासी के मिश्र––थे और अच्छी कविता करते थे। एक बार मँझौली के राजा के यहाँ विवाह के अवसर पर देवकीनंदनजी ने भाटो की तरह कुछ कवित्त पढ़ें और पुरस्कार लिया। इसपर उनके भाई-बंधुओं ने उन्हें जातिच्युत कर दिया और वे असनी के भाट नरहर कवि की कन्या के साथ अपना विवाह करके असनी में जा रहे और भाट हो गए। उन्हीं देवकीनंदन के वंश में ठाकुर के पिता ऋषिनाथ कवि हुए।

ठाकुर ने संवत् १८६१ में "सतसई वरनार्थ" नाम की "बिहारी सतसई" की एक टीका (देवकीनंदन टीका) बनाई। अतः इनका कविता-काल संवत् १८६० के इधर उधर माना जा सकता है। ये काशिराज के संबंधी काशी के नामी रईस (जिनकी हवेली अब तक प्रसिद्ध हैं) बाबू देवकीनंदन के आश्रित थे। इनका विशेष वृत्तात स्व॰ पंडित अंबिकादत्त व्यास ने अपने, "बिहारी बिहार" की भूमिका में, दिया है। ये ठाकुर भी बड़ी सरस कविता करते थे। इनके पद्य मे भाव या दृश्य का निर्वाह अबोध रूप में पाया जाता है। दो उदाहरण लीजिए––

कारे लाल करहे पलासन के पुंज तिन्हैं
अपने झकोरन झुलावन लगी है री।
ताही को ससेटी तृन-पत्रन-लपेटि धरा-
धाम तें अकास धूरि धावन लगी है री॥
ठाकुर कहत सुचि सौरभ प्रकासन भों
आछी भाँति रुचि उपजावन लगी है री।
ताती सीरी बैहर वियोग वा संयोगवारी,
आवनि बसंत की जनावन लगी है री॥


प्रान झुकामुकि भेष छपाथ कै गागर लै घर तें निकरी ती।
जानि परी न कितीक अबार है, जाय परी जहँ होरी धरी ती॥
ठाकुर दौरि परे मोंहि देखि कै, भागि बची री, बड़ी सुघरी ती।
बीर की सौं जौ किवार न देउँ तौ मैं होरिहारन हाथ परी ती॥

तीसरे ठाकुर बुँदेलखंडी

ये जाति के कायस्थ थे और इनका पूरा नाम लाला ठाकुरदास था। इनके पूर्वज काकोरी (जिला लखनऊ) के रहनेवाले थे और इनके पितामह खङ्गरायजी बड़े भारी मंसबदार थे। उनके पुत्र गुलाबराय का विवाह बड़ी धूमधाम से ओरछे (बुंदेलखंड) के रावराजा (जो महाराज ओरछा के मुसाहब थे) की पुत्री के साथ हुआ था। ये ही गुलाबराय ठाकुर कवि के पिता थे। किसी कारण से गुलाबराय अपनी ससुराल ओरछे में ही आ बसे जहाँ संवत् १८२३ में ठाकुर का जन्म हुआ। शिक्षा समाप्त होने पर ठाकुर अच्छे कवि निकले और जैतपुर में सम्मान पाकर रहने लगे। उस समय जैतपुर के राजा केसरीसिंहजी थे। ठाकुर के कुल के कुछ लोग बिजावर में भी जा बसे थे। इससे ये कभी कभी वहाँ भी रहा करते थे। बिजावर के राजा ने भी एक गाँव देकर ठाकुर का सम्मान किया। जैतपुर-नरेश राजा केसरीसिंह के उपरांत जब उनके पुत्र राजा पारीछत गद्दी पर बैठे तब ठाकुर उनको सभा के रत्न हुए। ठाकुर की ख्याति उसी समय से फैलने लगी और वे बुंदेलखंड के दूसरे राज दरबारों में कभी आने जाने लगे। बाँदे के हिम्मतबहादुर गोसाईं के दरबार में कभी कभी पद्माकरजी के साथ ठाकुर की कुछ नोक झोंक की बाते हो जाया करती थीं। एक बार पद्माकरजी ने कहा "ठाकुर कविता तो अच्छी करते है पर पद कुछ हलके पड़ते हैं।" इस पर ठाकुर बोले "तभी तो हमारी कविता उड़ी-उड़ी फिरती हैं।"

इतिहास में प्रसिद्ध है कि हिम्मतबहादुर कभी अपनी सेना के साथ अँगरेजो का कार्यसाधन करते और कभी लखनऊ के नवाब के पक्ष में लड़ते। एक बार हिम्मतबहादुर ने राजा पारीछत के साथ कुछ धोखा करने के लिये उन्हे बाँदे बुलाया। राजा पारीछत वहाँ जा रहे थे कि मार्ग में ठाकुर कवि मिले और दो ऐसे संकेत भरे सवैए पढ़े कि राजा पारीछत लौट गए। एक सवैया यह है––

कैसे सुचित भए निकसौं बिहँसौं बिलसौं हरि दै गलबाहीं।
ये छल छिद्रन की बतियाँ छलती छिन एक घरी पल मही॥

ठाकुर वै जुरि एक भई, रचिहैं परपंच कछू ब्रज माहीं।
हाल चवाइन की दुहचाल की लाल तुम्हैं है दिखात कि नाहीं॥

कहते है कि यह हाल सुनकर हिम्मतबहादुर ने ठाकुर को अपने दरबार में बुला भेजा। बुलाने का कारण समझकर भी ठाकुर बेधड़क चले गए। जब हिम्मतवहादुर इन पर झल्लाने लगे तब इन्होंने यह कवित्त पढ़ा––

वेई नर निर्णय निदान में सराहे जात,
सुखन अघात प्याला प्रेम को पिए रहैं।
हरि-रस चंदन चढाय अंग अंगन में,
नीति को तिलक, बेंदी जस की दिए रहैं॥
ठाकुर कहत मंजु कंजु तें मृदुल मन,
मोहनी सरूप, धारे, हिम्मत हिए रहैं।
भेंट भए समये असमये, अचाहे चाहे,
और लौं निबाहैं, आँखें एकसी किए हैं॥

इस पर हिम्मतबहादुर ने जब कुछ और कटु वचन कहा तब सुना जाता है कि ठाकुर ने म्यान से तलवार निकाल ली और बोले––

सेवक सिपाही हम उन राजपूतन के,
दान जुद्ध जुरिबे में नेकु जे न मुरकें।
नीत देनवारे हैं मही के महिपालन को,
हिए के विरुद्ध हैं, सनेही साँचे उर के॥
ठाकुर कहत हम बैरी बेवकूफन के,
जालिम दमाद हैं अदानियाँ ससुर के।
चोजिन के चोजी महा, मौजिन के महाराज,
हम कविराज हैं, पै चाकर चतुर के॥

हिम्मतबहादुर यह सुनते ही चुप हो गए। फिर मुस्कराते हुए बोले––"कविजी बस! मैं तो यही देखना चाहता था कि आप कोरे कवि ही है या पुरखों की हिम्मत भी आप में है।" इस पर ठाकुरजी ने बड़ी चतुराई से उत्तर दिया––महाराज! हिम्मत तो हमारे ऊपर सदा अनूप रूप से बलिहार रही है, आज हिम्मत कैसे गिर जायगी?" (गोसाईं हिम्मत गिरि का असल नाम अनूप गिरि था; हिम्मतबहादुर शाही खिताब था।)

ठाकुर कवि की परलोकवास संवत् १८८० के लगभग हुआ। अतः इनका कविता-काल संवत् १८५० से १८८० तक माना जाता हैं। इनकी कविता का एक अच्छा संग्रह "ठाकुर-ठसक" के नाम से श्रीयुत लाला भगवानदीनजी ने निकाला है। पर इसमें भी दूसरे दो ठाकुर की कविताएँ मिली हुई हैं। इस संग्रह में विशेषता यह है कि कवि का जीवन-वृत्त भी बहुत कुछ दे दिया गया हैं। ठाकुर के पुत्र दरियावसिंह (चातुर) और पौत्र शंकरप्रसाद भी कवि थे।

ठाकुर बहुत ही सच्ची उमंग के कवि थे। इनमें कृत्रिमता का लेश नहीं। न तो कहीं व्यर्थ का शब्दाडंवर है, न कल्पना की झूठी उड़ान और न अनुभूति के विरुद्ध भावों का उत्कर्ष। जैसे भावो का जिस ढंग से मनुष्य मात्र अनुभव करते है वैसे भावों को उसी ढंग से वह कवि अपनी स्वाभाविक भाषा में उतार देता है। बोलचाल की चलती भाषा में भाव का ज्यों का त्यों सामने रख देना इस की का लक्ष्य रहा है। ब्रजभाषा की शृंगारी कविताएँ प्रायः स्त्री-पात्रो के ही मुख की वाणी होती हैं अतः स्थान स्थान पर लोकोक्तियों का जो मनोहर विधान इस कवि ने किया उससे उक्तियो में और भी स्वाभाविकता आ गई। है। यह एक अनुभूत बात है कि स्त्रियाँ बात बात में कहावतें कहा करती हैं। उनके हृदय के भावों की भरपूर व्यजना के लिये ये कहावतें मानो एक संचित वाङ्गमय हैं। लोकोक्तियों का जैसा मधुर उपयोग ठाकुर ने किया है वैसा और किसी कवि ने नहीं। इन कहावतों में से कुछ तो सर्वत्र प्रचलित हैं और कुछ खास बुंदेलखंड की है। ठाकुर सच्चे उदार, भावुक और हृदय के पारखी कवि थे इसी से इनकी कविताएँ विशेषतः सवैए इतने लोकप्रिय हुए। ऐसा स्वच्छंद कवि किसी क्रम से बद्ध होकर कविता करना भला कहाँ पसंद करता? जब जिस विषय पर जी में आया कुछ कहा।

ठाकुर प्रधानतः प्रेमनिरूपक होने पर भी लोकव्यापार के अनेकांगदर्शी कवि थे। इसी से प्रेमभाव की अपनी स्वाभाविक तन्मयता के अतिरिक्त कभी तो ये अखती, फाग, वसंत, होली, हिंडोरा आदि उत्सवों के उल्लास में मग्न दिखाई पड़ते हैं; कभी लोगों की क्षुद्रता, कुटिलता, दुःशीलता आदि पर क्षोभ प्रकट करते पाए जाते है और कभी काल की गति पर खिन्न, और उदास देखे जाते है। कविकर्म को ये कठिन समझते थे। रूढ़ि के अनुसार शब्दों की लडी जोड़ चलने को ये कविता नहीं कहते थे। नमूने के लिये वहाँ इनके थोड़े ही से पद्य दिए जा सकते है––

सीखि लीन्हौं मीन मृग खंजन कमल नैन,
सीखि लीन्हौं जस औ, प्रताप को कहानो है।
सीखि लीन्हों कल्पवृक्ष कामधेनु चिंतामनि, ्
सीखि लीन्हों मेरु औ कुबेर गिरि आनो है॥
ठाकुर कहत याकी बड़ी है कठिन बात,
याको नहिं भूलि कहूँ बाँधियत बानो है।
ढेंल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच,
लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है॥


दस बार, बीस बार बरजि दई है जाहि,
एतै पै न मानै जौ तौ जरन बरन देव।
कैसो कहा कीजै कछू आपनो करो न होय,
जाके जैसे दिन ताहि तैसेई भरन देव॥
ठाकुर कहत मन आपनो मगन राखौ,
प्रेम निहसंक रस-रंग बिहरन देव।
बिधि के बनाए जीव जेते हैं जहाँ के तहाँ,
खेलते फिरत तिन्हैं खेलन फिरन देव॥


अपने अपने सुठि गेहन में चढे दोऊ सनैह की नाव पै री।
अँगनान में भींजत प्रेम भरे, समयो लखि मैं बलि जावँ पै री॥
कहैं ठाकुर दोउन की रुचि सो रंग ह्वै उमड़े तोउ ठावँ पै री।
सखी, कारी घटा बरसै बरसाने पै, गोरी घटा नँदगाँव पै री॥


वा निरमोहिनि रुप की रासि जऊ उर हेतु न ठानति ह्वै है।
बारहि बार बिलोकि घरी घरी सूरति तौं पहिचानति ह्वै है॥
ठाकुर या मन की परतीति है, जो पै सनेह न मानति ह्वै है।
आवत हैं नित मेरे लिये, इतनो तौ विशेष कै ज्ञानति ह्वै है॥


यह चारहु ओर उदौ मुखचंद की चाँदनी चारू निहारि लै री।
बलि जौ पै अधीन भयो पिय, प्यारी! तौ एतौ बिचारी बिचारि लै री॥
कवि ठाकुर चूकि गयो जो गोपाल तो तैं बिगरी कौ सँभारि लै री।
अब रैहै न रैहै यहै समयो, बहती नदी पायँ पाखारि लै री॥


पावस तें परदेश तें आय मिले पिय औ मनभाई भई है।
दादुर मोर पपीहरा बोलत, ता पर आनि घटा उनई है॥
ठाकुर वा सुखकारी सुहावनी दामिनि कौंधि कितैं को गई है।
री अब तौ घनघोर घटा गरजौ बरसौ तुम्हैं धूर दई है॥


पिय प्यार करैं जेहि पै सजनी तेहि की सब भाँतिन सैयत है।
मन मान करौं तौ परौं भ्रम में, फिर पाछे परे पछितैयत है॥
कवि ठाकुर कौन की कासौं कहौ? दिन देखि दसा बिसरैयत है।
अपने अटके सुन ए री भट्ट? निज सौत के मायके जैयत है॥

(३८) ललकदास––बेनी कवि के भँडौवा से ये लखनऊ के कोई कंठीघारी महंत जान पड़ते है जो अपनी शिष्य मंडली के साथ इधर उधर फिरा करते। अतः संवत् १८६० और १८८० के बीच इनको वर्तमान रहना अनुमान किया जा सकता है। इन्होंने "सत्योपाख्यान" नामक एक बड़ा वर्णनात्मक ग्रंथ लिखा है जिसमें रामचंद्र के जन्म से लेकर विवाह तक की कथा बड़े विस्तार के साथ वर्णित हैं। इस ग्रंथ का उद्देश्य कौशल के साथ कथा चलाने का नहीं, बल्कि जन्म की बधाई, बाललीला, होली, जलक्रीड़ा, झूला, विवाहोत्सव आदि का बड़े व्योरे और विस्तार के साथ वर्णन करने का है। जो उद्देश्य महाराज रघुराजसिंह के रामस्वयंवर का है वही इसका भी समझिए। पर इसमें सादगी हैं और यह केवल दोहे चौपाइयों में लिखा गया है। वर्णन करने में ललकदासजी ने भाषा के कवियों के भाव तो इकट्ठे ही किए है; संस्कृत कवियों के भाव भी कहीं कहीं रखे है। रचना अच्छी जान पड़ती है। कुछ चौपाइयाँ देखिए––

धरि निज अंक राम को माता। लख्यो मोद लखि मुख मृदु गाता॥
दंत कुद मुकुता सम सोहै। बंधु जीव सम जीभ बिमोहै॥
किसलय सधर अधर छबि छाजै। इंद्रनील सम गंड बिराजै॥
सुंदर चिबुक नासिका सोहैं। कुंकुम तिलक चिलक मन मोहै॥
काम चाप सम भ्रकुटि बिराजै। अलक-कलित मुख अति छबि छाजै॥
यहि विधि सकल राम के अंगा। लखि चूमति जननी सुख संगा॥

(३९) खुमान––ये बंदीजन थे और चरखारी (बुंदेलखंड) के महाराज विक्रमसाहि के यहाँ रहते थे। इनके बनाए इन ग्रंथों का पता है––

अमरप्रकाश (सं॰ १८३६), अष्टयाम (सं॰ १८५२), लक्ष्मणशतक (सं॰ १८५५) हनुमान नखशिख, हनुमान पंचक, हनुमान पचीसी, नीतिविधान, समरसार (युद्ध-यात्रा के मुहूर्त आदि का विचार), नृसिंह-चरित्र (सं॰ १८७९), नृसिंह-पचीसी।

इस सूची के अनुसार इनका कविता-काल सं॰ १८३० से १८८० तक माना जा सकता है "लक्ष्मणशतक" में लक्ष्मण और मेघनाद का युद्ध बड़े फड़कते हुए शब्दो में कहा गया। खुमान कविता में अपना उपनाम 'मान' रखते थे। नीचे एक कवित्त दिया जाता है––

आयो इंद्रजीत दसकंथ को निबंध बंध,
बोल्यो रामबंधु सों प्रबंध किरवान को।
को है अंसुमाल, को है काल विकराल,
मेरे सामुहें भए न रहै मान महेसान को॥
तू तौ सुकुमार यार लखन कुमार! मेरी
मार बेसुमार को सहैया घमासान को?

बीर न चितैया, रनमंडल रितैया, काल
कहर बितैया हौं जितैया मघवान को॥


(४०) नवलदास कायस्थ––ये झाँसी के रहने वाले थे और समथर-नरेश राजा हिंदूपति की सेवा में रहते थे। इन्होंने बहुत से ग्रंथों की रचना की है जो भिन्न भिन्न विषयों पर और भिन्न भिन्न शैली के है। ये अच्छे चित्रकार भी थे। इनका झुकाव भक्ति और ज्ञान की ओर विशेष था। इनके लिखे ग्रंथों के नाम ये हैं––

रासपंचाध्यायी, रामचंद्रविलास, शकमोचन (सं॰ १८७३), जौहरिनतरंग (१८७५), रसिकरंजनी (१८७७), विज्ञान भास्कर (१८७८), ब्रजदीपिका (१८८३), शुकरंभासंवाद (१८८८), नाम-चिंतामणि (१९०३), मूलभारत (१९१२), भारत-सावित्री (१९१२), भारत कवितावली (१९१३), भाषा सप्तशती (१९१७), कविजीवन (१९१८),आल्हा रामायण (१९२२), रुक्मिणीमंगल (१९२५), मुलढोला (१९२५), रहस लावनी (१९२६), अव्यात्म रामायण, रूपक रामायण, नारीप्रकरण, सीतास्वयंवर, रामविवाहखड, भारत वार्तिक, रामायण सुमिरनी, पूर्वशृंगारखंड, मिथिलाखंड, दानलोभसंवाद, जन्म खंड।

उक्त पुस्तकों में यद्यपि अधिकांश बहुत छोटी छोटी हैं फिर भी इनकी रचना की बहुरूपता का आभास देती हैं। इनकी पुस्तकें प्रकाशित नहीं हुई हैं। अतः इनकी रचना के संबंध में विस्तृत और निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। खोज की रिपोर्टों में उद्धृत उदाहरणों के देखने से रचना इनकी पुष्ट और अभ्यस्त प्रतीत होती है। ब्रजभाषा में कुछ वार्तिक या गद्य भी इन्होंने लिखा है। इनके कुछ पद्य नीचे देखिए––


अभव अनादि अनंत अपरा। अमन, अप्रान, अमर, अविकार॥
अग अनीह आतम अबिनासी। अगम अगोचर अबिरल वासी॥
अकथनीय अद्वैत अरामा। अमल असेष अकर्म अकामा॥
रइत अलिप्त ताहि उर ध्याऊँ। अनुपम अमल सुजस मैं गाऊँ॥


सगुन सरूप सदा सुषमा-निधान मंजु,
बुद्धि गुन गुनन अगाध बनपति से।
भनै नवलेस फैल्यो बिशद मही में यस,
बरनि न पावै पार झार फनपति से॥
जक्त निज भक्तन के कलुष प्रभजै रंजै,
सुमति बढ़ावै धन धान धनपति से।
अधर न दूजो देव सहज प्रसिद्ध यह,
सिद्धि-बरदैन सिद्ध ईस गनपति से॥

(४१) रामसहायदास––ये चौबेपुर (जिला बनारस) के रहनेवाले लाला भवानीदास कायस्थ के पुत्र थे और काशी-नरेश महाराज उदितनारायण सिंह के आश्रय में रहते थे। "बिहारी सतसई" के अनुकरण पर इन्होंने "रामसतसई" बनाई। बिहारी के अनुकरण पर बनी हुई पुस्तकों में इसी को प्रसिद्धि प्राप्त हुई। इसके बहुत से दोहे सरस उद्भावना में बिहारी के दोहों के पास तक पहुँचते हैं। पर यह कहना कि ये दोहे बिहारी के दोहों में मिलाए जा सकते हैं, रसज्ञता और भावुकता से ही पुरानी दुश्मनी निकलना नहीं, बिहारी को भी नीचे गिराने का प्रयत्न समझा जायगा। बिहारी में क्या क्या मुख्य विशेषताएँ हैं यह उनके प्रसंग में दिखाया जा चुका है। जहाँ तक शब्दो की कारीगरी और वाग्वैदग्ध्य से संबंध है। वहीं तक अनुकरण करने का प्रयत्न किया गया है। और सफलता भी हुई है। पर हावो का वह सुंदर विधान, चेष्टाओ का वह मनोहर चित्रण, भाषा का वह सौष्ठव, सुचारियों की वह सुंदर व्यंजना इस सतसई में कहाँ? नकल ऊपरी बातों की हो सकती है, हृदय की नहीं है पर हृदय पहचानने के लिये हृदय चाहिए, चेहरे पर की दो आँखों से नहीं काम चल सकता। इस बड़े भारी भेद के होते हुए भी "रामसतसई" शृंगार-रस का एक उत्तम ग्रंथ है। इस सतसई के अतिरिक्त इन्होंने तीन पुस्तके और लिखी हैं––

वाणीभूषण, वृत्ततरंगिणी (सं॰ १८७३) और ककहरा।

वाणीभूषण अलंकार का ग्रंथ है और वृत्त-तरंगिणी पिंगल का। ककहरा जायसी की 'अखरावट' के ढंग की छोटी सी पुस्तक है और शायद सबसे पिछली रचना है, क्योंकि उसमें धर्म और नीति के उपदेश है। रामसहाय का कविताकाल संवत् १८६० से १८८० तक माना जा सकता है। नीचे सतसई के कुछ दोहे उद्धृत किए जाते हैं––

गढ़े नुकीले लाल के नैन रहैं दिन रैनि।
तब नाजुक ठोढ़ी न क्यों गाड़ परै मृदुबैनि?
भटक न, झटपट चटक कै अटक सुनुट के संग।
लटक पीतपट की निपट हटकति कटक अनंग॥
लागै नैना नैन में कियो कहा धौ मैन।
नहिं लागै नैना, रहैं लागे नैना नैन॥
गुलुफनि लगि ज्यों त्यों गयो, करि करि साहस जोर।
फिर न फिरयो मुरवान चपि, चित अति खात मरोर॥
यौ बिभाति दसनावली ललना बदन मँझार।
पति को नातो मानि कै मनु आई उडुमार॥

(४२) चद्रशेखर––ये वाजपेयी थे। इनका जन्म संवत् १८५५ में मुअज्जमावाद (जिला फतहपुर) में हुआ था। इनके पिता मनीरामजी भी अच्छे कवि थे। ते कुछ दिनों तक दरभंगे की ओर, फिर ६ वर्ष तक जोधपुरनरेश महाराजा मानसिंह के यहाँ रहे। अंत में पटियाला-नरेश महाराज कर्मसिंह के वहाँ गए और जीवन भर पटियाले में ही रहे। इनका देहान्त संवत् १९३२ में हुआ। अतः ये महाराज नरेंद्रसिंह के समय तक वर्तमान थे और उन्हीं के आदेश से इन्होंने अपना प्रसिद्ध वीरकाव्य "हम्मीरहट" बनाया। इसके अतिरिक्त इनके रचे ग्रंथों के नाम ये है––

विवेक-विलास, रसिकविनोद, हरिभक्ति-विलास, नखशिख, वृंदावन-शतक, गुपपंचाशिका, ताजक ज्योतिष, माधवी बंसत।

यद्यपि शृंगाररस की कविता करने में भी ये बहुत ही प्रवीण थे पर इनकी कीर्ति को चिरकाल तक स्थिर रखने के लिये "हम्मीरहठ" ही पर्याप्त है। उत्साह की, उमंग की व्यंजना जैसी चलती, स्वाभाविक और जोरदार भाषा में इन्होंने की है वैसे ढंग से करने में बहुत ही कम कवि समर्थ हुए है। वीररस वर्णन में इस कवि ने बहुत ही सुंदर साहित्यिक विवेक का परिचय दिया है। सूदन आदि के समान शब्दों की तड़ातड़ और भड़ाभड़ के फेर में न पढ़कर उग्रोत्साह-व्यंजक उक्तियों का ही अधिक सहारा इस कवि ने लिया है, जो वीररस की जान है। दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि वर्णनों के अनावश्यक विस्तार को, जिसमें वस्तुओं की बड़ी लंबी-चौड़ी सूची भरी जाती है, स्थान नहीं दिया गया है। भाषा भी पूर्ण व्यवस्थित, च्युतसंस्कृति आदि दोषों से मुक्त और प्रवाहमयी है। सारांश यह कि वीररस-वर्णन की अत्यंत श्रेष्ठ प्रणाली का अनुकरण चंद्रशेखरजी ने किया है।

रही प्रसंग विधान की बात। इस विषय में कवि ने नई उद्धावनाएँ न करके पूर्ववर्ती कवियों को ही सर्वथा अनुसरण किया है। एक रूपवती और निपुण स्त्री के साथ महिमा मंगोल की अलाउद्दीन के दरबार से भागना, अलाउद्दीन का उसे हम्मीर से वापस माँगना, हम्मीर का उसे अपनी शरण में लेने के कारण उपेक्षापूर्वक इनकार करना, ये सब बातें जोधराज क्या उसके पूर्ववर्ती अपभ्रंश के कवियो की ही कल्पना है, जो वीरगाथा-काल की रूढ़ि के अनुसार की गई थी। गढ़ के घेरे के समय गढ़पति की निश्चितता और निर्भीकता व्यंजित करने के लिये पुराने कवि गढ़ के भीतर नाच रंग का होना दिखाया करते थे। जायसी ने अपनी पद्मावती में अलाउद्दीन के द्वारा चितौरगढ़ के घेरे जाने पर राजा रतनसेन का गढ़ के भीतर नाच कराना और शत्रु के फेके हुए तीर से नर्तकी को घायल होकर मरना वर्णित किया है। ठीक उसी प्रकार का वर्णन "हम्मीरहठ" में रखा गया है। यह चंद्रशेखरजी की अपनी उद्भावना नहीं एक बँधी हुई परिपाटी का अनुसरण है। नर्तकी के मारे जाने पर हम्मीरदेव का यह कह उठना कि "हठ करि मंड्यो युद्ध वृथा ही" केवल उनके तात्कालिक शोक के आधिक्य की व्यंजना मात्र करता है। उसे करुण प्रलाप मात्र समझना चाहिए। इसी दृष्टि से इस प्रकार के करुण प्रलाप राम ऐसे सत्यसंध और वीरव्रती नायकों से भी कराए गए हैं। इनके द्वारा उनके चरित्र में कुछ भी लांछन लगता हुआ नहीं माना जाता।

एक दृष्टि हम्मीरहठ की अवश्य खटकती है। सब अच्छे कवियों ने प्रतिनायक के प्रताप और पराक्रम की प्रशंसा द्वारा उससे भिड़नेवाले या उसे जीतनेवाले नायक के प्रताप और पराक्रम की व्यंजना की है। राम का प्रतिनायक रावण कैसा था? इंद्र, मरुत् , यम, सूर्य आदि सब देवताओं से सेवा लेनेवाला; पर हम्मीरहठ अलाउद्दीन एक चुहिया के कोने में दौड़ने से डर के मारे उछल भागता है और पुकार मचाता है।

चंद्रशेखरजी को साहित्यिक भाषा पर बड़ा भारी अधिकार था। अनुप्रास की योजना प्रचुर होने पर भी भद्दी कही नहीं हुई, सर्वत्र रस में सहायक ही है। युद्ध, मृगया आदि के वर्णन तथा संवाद आदि सत्र बड़ी मर्मज्ञता से रखे गए है। जिस रस का वर्णन है ठीक उसके अनुकूल पदविन्यास है। जहाँ शृंगार का प्रसंग है वहाँ यही प्रतीत है कि किसी सर्वश्रेष्ठ शृंगार कवि की रचना पढ़ रहे है। तात्पर्य यह है कि "हम्मीरहठ" हिंदी-साहित्य का एक रत्न है। "तिरिया तेल हम्मीर हठ चढैं न दूजी बार" वाक्य ऐसे ही ग्रंथ में शोभा देता हैं। नीचे कविता के कुछ नमूने दिए जाते है––

उवै भान पच्छिम प्रतच्छ, दिन चंद प्रकासै।
उलटि गंग बरु बहै, काम रति प्रीति बिनासै॥
तजै गौरि अरधंग, अचल ध्रुव आसन चल्लै।
अचल पवन बरु होय, मेरु मंदर गिरि हल्लै॥

सुरतरु सुखाय, लोमस मरै, मीर! संक सब परिहरौ।
मुखबचन बीर हम्मीर को बोलि न यह कबहूँ टरौ॥


आलम नेवाज सिरताज पातसाहन के
गाज ते दराज कोव नजर तिहारी है।
जाके डर डिगत अडोल गढ़धारी, डग-
मगत पहार और डुलति महि सारी है॥
रंक जैसो रहत संसकित सुरेस भयो,
देस देसपति में अतंक अति भारी है।

भारी, गढ़धारी, सदा जंग की तयारी,
धाक मानै ना तिहारी या हमीर इठयारी है॥


भागे मीरजादे पीरजादे और अनीरजादे,
भागे खानजादे प्रान मरत बचाय कै।
भागे गज बाजि रथ पथ न सँभारैं, परैं
गोलन पै गोल, सूर सहमि संकाय कै॥
भाग्यो सुलतान जान बचत न जानि बेगि,
बलित बितुंड पै विराजि बिलखाय कै।
जैसे लगे जंगल में ग्रीष्म की आगि
चलै भागि मृग महिंष बराह बिललाय कै॥


थोरी थोरी बैसवारी नवल किशोरी सवै,
भोरी भोरी बातन बिहँसि मुख मोरती।
बसन विभूषन बिराजते बिभल बर,
मदन मरोरनि तरकि तन तोरतीं॥
प्यारे पातसाह के परम अनुराग रँगीं,
चाय भरी चायल चपल दृग जोरतीं।
काम-अबला सी, कलाधर की कला सी,
चारु चंपक-लत्ता सी चपला सी चित चोरतीं॥

(४३) बाबा दीनदयाल गिरि––ये गोसाई थे। इनका जन्म शुक्रवार बसंत पंचमी संवत् १८५९ में काशी के गायघाट मुहल्ले में एक पाठक के कुल में हुआ था। जब ये ५ या ६ वर्ष के थे तभी इनके माता-पिता इन्हें महत कुशागिरि को सौंप चल बसे। महंत कुशागिरि पचकोशी के मार्ग में पड़नेवाले देहली-विनायक नामक स्थान के अधिकारी थे। काशी में महंतजी के और भी कई मठ थे। वे विशेषतः गायघाट वाले मठ में रहा करते थे। बाबा दीनदयाल गिरि भी उनके चेले हो जाने पर प्रायः उसी मठ में रहते थे। जब महंत कुशागिरि के मरने पर बहुत सी जायदाद नीलाम हो गई तब ये देहली-विनायक के पास मठौली गाँववाले मठ में रहने लगे। बाबाजी संस्कृत और हिंदी दोनों के अच्छे विद्वान् थे। बाबू गोपालचंद्र (गिरधरदास) से इनका बड़ा स्नेह था। इनका परलोकवास संवत् १९१५ में हुआ। ये एक अत्यंत सहृदय और भावुक कवि थे। इनकी सी अन्योक्तियाँ हिंदी के और किसी कवि की नहीं हुई। यद्यपि इन अन्योक्तियों के भाव अधिकांश संस्कृत से लिए हुए है पर भाषा-शैली की सरसता और पदविन्यास की मनोहरता के विचार से वे स्वतंत्र काव्य के रूप में हैं। बाबाजी का भाषा पर बहुत ही अच्छा अधिकार था। इनकी सी परिष्कृत, स्वच्छ और सुव्यवस्थित भाषा बहुत थोड़े कवियों की है। कहीं कहीं कुछ पूरबीपन या अव्यवस्थित वाक्य मिलते हैं, पर बहुत कम। इसीसे इनकी अन्योक्तियाँ इतनी मर्मस्पर्शिनी हुई हैं। इनका अन्योक्तिकल्पद्रम हिंदी-साहित्य में एक अनमोल वस्तु है अन्योक्ति के क्षेत्र में कवि की मार्मिकता और सौंदर्यभावना के स्फुरण का बहुत अच्छा अवकाश रहता है। पर इसमें अच्छे भावुक कवि ही सफल हो सकते है। लौकिक विषयों पर तो इन्होंने सरस अन्योक्तियाँ कही ही है, अध्यात्मपक्ष में भी दो एक रहस्यमयी उक्तियाँ इनकी हैं।

बाबाजी को जैसा कोमल-व्यंजक पदविन्यास पर अधिकार था वैसा ही शब्द-चमत्कार आदि के विधान पर भी। यमक और श्लेषमयी रचना भी इन्होंने बहुत सी की हैं। जिस प्रकार थे अपनी भावुकता हमारे सामने रखते है उसी प्रकार चमत्कार-कौशल दिखाने में भी नहीं चूकते हैं। इससे जल्दी नहीं कहते बनता है कि इनमें कला-पक्ष प्रधान है या हृदय-पक्ष। बड़ी अच्छी बात इनमें यह है कि इन्होंने दोनों को प्रायः अलग अलग रखा है। अपनी मार्मिक रचनाओं के भीतर इन्होंने चमत्कार-प्रवृत्ति का प्रवेश प्रायः नही होने दिया है। अन्योक्तिकल्पद्रुम के आदि में कई श्लिष्ट पद्य आए है पर बीच में बहुत कम। इसी प्रकार अनुरागबाग मे भी अधिकांश रचना शब्द-वैचित्र्य आदि से मुक्त है। यद्यपि अनुप्रासयुक्त सरस कोमल पदावली का बराबर व्यवहार हुआ है, पर जहाँ चमत्कार को प्रधान उद्देश्य रखकर ये बैठे हैं वहाँ श्लेष, यमक, अंतर्लापिका, बहिर्लापिका सब कुछ मौजूद है। सारांश यह कि ये एक बहुरंगी कवि थे। रचना की विविध प्रणालियों पर इनका पूर्ण अधिकार था।

इनकी लिखी इतनी पुस्तकों का पता है––

अन्योक्ति-कल्पद्रुम (सं॰ १९१२), अनुराग-बाग (सं॰ १८८८), वैराग्यदिनेश (सं॰ १९०६), विश्वनाथ-नवरत्न और दृष्टांत-तरंगिणी (सं॰ १८७९)

इस सूची के अनुसार इनका कविता-काल सं॰ १८७९ से १९१२ तक माना जा सकता है। 'अनुराग-बाग' में श्रीकृष्ण की विविध लीलाओं का बड़े ही ललित कवित्तो में वर्णन हुआ है। मालिनी छंद का भी बड़ा मधुर प्रयोग हुआ है। 'दृष्टात-तरंगिणी' में नीतिसंबंधी दोहे हैं। 'विश्वनाथ नवरत्न' शिव की स्तुति हैं। 'वैराग्यदिनेश' में एक ओर तो ऋतुओं आदि की शोभा का वर्णन है और दूसरी ओर ज्ञान-वैराग्य आदि का। इनकी कविता के कुछ नमूने दिए जाते हैं––


केतो सोम कला करौ, करौ सुधा को दान। नहीं चंद्रमणि जो द्रवै यह तेलिया पखान॥
यह तेलिया पखान, बड़ी कठिनाई जाकी। टूटी याके सीस बीस बहु बाँकी टाँकी॥
बरनै दीनदयाल, चंद! तुमही चित चेतौ। कूर न कोमल होहिं कला जौ कीजै केतौ॥



बरखै कहा पयोद इत मानि मोद मन माहिं। यह तौ ऊसर भूमि है अंकुर जमिहै नाहिं॥
अंकुर जमिहै नाहिं बरष सन जौ जल दैहै। गरजै तरजै कहा? बृथा तेरो श्रम जैहे॥
बरनै दीनदयाल न ठौर कुठौरहि परखै। नाहक गाहक बिना, बलाहक! ह्याँ तू बरसै॥



चल चकई तेहिं सर विषै, जहँ नहि रैन-बिछोह। रहत एकरस दिवस ही, सुहृद हंस-संदोह॥
सुहृद हँस संदोह कोह अरु द्रोह न जाको। भोगत सुख-अंबोह, मोह-दुख होय न ताको॥
बरनै दीनदयाल भाग बिन जाय न सकई। पिय-मिलाप नित रहै, ताहि सर चल तू चकई॥


कोमल, मनोहर, मधुर, सुरताल सने,
नूपुर-निनादनि सों कौन दिन बोलिहै।
नीके मन ही के बुंद-वृंदन सुमोतिन को,
गहि कै कृपा की अब चोंचन सों तोलिहै॥
नेम धरि छेम सों प्रभुद होय दीनद्याल,
प्रेम-कोकनद बीच कब धौ कलोलिहै।
चरन तिहारे जदुबंस-राजहंस! कब,
मरे मन-मानस में मंद मंद डोलिहैं?


चरन-कमल राजै, मंजु मंजीर बाजैं। गमन लखि लजावैं हंसऊ नाहिं पावैं॥
सुखुद कदम-छाहीं क्रीड़ते कुंज माहीं। लखि लखि हरि सोभा चित्त काको न लोभा?


बहु छुद्रन के मिलन तें हानि बली की नाहिं। जूथ जंबुकन तें नहीं, केहरि कहुँ नसि जाहिं॥
पराधीनता दुख महा, सुखी जगत स्वाधीन। सुखी रमत सुक बन विषै कनक पींजरे दीन॥

(४४) पजनेस––ये पन्ना के रहनेवाले थे। इनका कुछ विशेष वृत्तांत प्राप्त नहीं। कविता-काल इनका संवत् १९०० के आसपास माना जा सकता हैं। कोई पुस्तक तो इनकी नहीं मिलती पर इनकी बहुत सी फुटकल कविता संग्रह-ग्रंथों में मिलती और लोगों के मुँह से सुनी जाती है। इनका स्थान ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवियों में है। ठाकुर शिवसिंहजी ने 'मधुरप्रिया' और 'नखशिख' नाम की इनकी दो पुस्तकों का उल्लेख किया है, पर वे मिलती नहीं। भारतजीवन प्रेस ने इनकी फुटकल कविताओं का एक संग्रह "पजनेस प्रकाश" के नाम से प्रकाशित किया हैं जिसमें १२७ कवित्त-सवैएँ हैं। इनकी कविताओं को देखने से पता चलता है कि ये फारसी भी जानते थे। एक सवैया में इन्होंने फारसी के शब्द और वाक्य भरे है। इनकी रचना शृंगाररस की ही है पर उसमें कठोर वणों (जैसे ट, ठ, ड) का व्यवहार यत्र-तत्र बराबर मिलता है। ये 'प्रतिकूल-वर्णत्व' की परवा कम करते थे। पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि कोमल अनुप्रासयुक्त ललित भाषा का व्यवहार इनमें नहीं है। पद-विन्यास इनका अच्छा है। इनके फुटकल कवित्त अधिक तर अंग-वर्णन के मिलते हैं जिनसे अनुमान होता है कि इन्होंने कोई नखशिख लिखा होगा। शब्द-चमत्कार पर इनका ध्यान विशेष रहता था। जिससे कहीं कहीं कुछ भद्दापन आ जाता था। कुछ नमूने लीजिए––

छहरै छबीली छटा छूटि छितिमंडल पै,
उमग उजेरो महाओज उजबक सी।
कवि पजनेस कंज-मंजुल-मुखी के गात,
उपमाधिकाति कल कुंदन तबक सी॥
फैली दीप दीप दीप-दीपति दिपति जाकी,
दीपमालिका की रही दीपति दबक सी।
परत न ताव लखि मुख माहताब जब,
निकसी सिताब आफताब की भभक सी॥


पजनेस तसद्दुक ता बिसमिल जुल्फे फुरकत न कबूल कसे।
महबूब चुनाँ बदमस्त सनम अजदस्त अलाबक जुल्फ बसे॥
मजमूए, न काफ शिगाफ रुए सम क्यामत चश्म से खून बरसे।
मिजगाँ सुरमा तहरीर दुताँ नुकते, बिन बे, किन ते, किन से॥


(४५) गिरिधरदास—ये भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के पिता थे और ब्रजभाषा के बहुत ही प्रौढ़ कवि थे। इनका नाम तो बाबू गोपालचंद्र था पर कविता में अपना उपनाम ये 'गिरिधरदास', 'गिरिधर', 'गिरिधारन' रखते थे। भारतेंदु ने इनके संबंध में लिखा है कि "जिन श्री गिरिधरदास कवि रचे ग्रंथ चालीस"। इनका जन्म पौष कृष्ण १५ संवत् १८९० को हुआ। इनके पिता काले हर्षचंद, जो काशी के एक बड़े प्रतिष्ठित रईस थे, इन्हें ग्यारह वर्ष के छोड़ कर ही परलोक सिधारे। इन्होंने अपने निज के परिश्रम से संस्कृत और हिंदी में बड़ी, स्थिर योग्यता प्राप्त की और पुस्तकों का एक बहुत बड़ा अनमोल संग्रह किया। पुस्तकालय का नाम उन्होंने "सरस्वती भवन" रखा जिसका मूल्य स्वर्गीय डाक्टर राजेंद्रलाल मित्र एक लाख रुपया तक दिलवाते थे। इनके यहाँ उस समय के विद्वानों और कवियों की मंडली बराबर जमी रहती थी और इनका समय अधिकतर काव्य-चर्चा में ही जाता था। इनका परलोकवास संवत् १९१७ में हुआ।

भारतेंदु जी ने इनके लिखे ४० ग्रंथों का उल्लेख किया है जिनमे से बहुतों का पता नहीं है भारतेंदुजी के दौहित्र, हिंदी के उत्कृष्ट लेखक श्रीयुत बाबू ब्रजरत्नदासजी ने अपनी देखी हुई इन अठारह पुस्तको के नाम इस प्रकार दिए हैं––

जरासंधवध महाकाव्य, भारतीभूषण (अलंकार), भाषा-व्याकरण (पिंगल संबंधी), रसरत्नाकर, ग्रीष्म वर्णन, मत्स्यकथामृत, वाराहकथामृत, नृसिंहकथामृत, वामनकथामृत, परशुरामकथामृत, रामकथामृत, बलरामकथामृत, (कृष्णचरित ४७०१ पदों में), बुद्धकथामृत, कल्कि-कथामृत, नहुष नाटक, गर्गसंहिता (कृष्णचरित का दोहे चौपाई में बड़ा ग्रंथ), एकादशी माहात्म्य।

इनके अतिरिक्त भारतेंदू जी के एक नोट के आधार पर स्वर्गीय बाबू राधाकृष्णदास ने इन २१ और पुस्तकों का उल्लेख किया है––

वाल्मीकि रामायण (सातों कांड पद्यानुवाद), छंदोर्णव, नीति, अद्भुत रामायण, लक्ष्मीनखशिख, वार्तासंस्कृत, ककारादि सहस्रनाम, गयायात्रा, गयाष्टक, द्वादशदलकमल, कीर्तन, संकर्षणाष्टक दनुजारिस्तोत्र, शिवस्तोत्र, गोपालस्तोत्र, भगवतस्तोत्र, श्रीरामस्तोत्र, श्रीराधास्तोत्र, रामाष्टक, कालियकालाष्टक।

इन्होंने दो ढंग की रचनाएँ की हैं। गर्गसंहिता आदि भक्तिमार्ग की कथाएँ तो सरल और-साधारण पद्यों में कहीं है, पर काव्यकौशल की दृष्टिसे जो रचनाएँ की हैं––जैसे जरासंधवध, भारती-भूषण, रस-रत्नाकर, ग्रीष्मवर्णन––वे यमक और अनुप्रास आदि से इतनी लदी हुई है कि बहुत स्थलो पर दुरूह हो गई हैं। सबसे अधिक इन्होंने यमक और अनुप्रास की, चमत्कार दिखाया है। अनुप्रास और यमक का ऐसा विधान जैसा जरासंघवध में है और कहीं नहीं मिलेगा। जरासंधवध अपूर्ण है, केवल ११ सर्गों तक लिखा गया है, पर अपने ढंग का अनूठा है। जो कविताएँ देखी गई हैं उनसे यही धारणा होती है कि इनका झुकाव चमत्कार की ओर अधिक था। रसात्मकता इनकी रचनाओं में वैसी नहीं पाई जाती। २७ वर्ष की ही आयु पाकर इतनी अधिक पुस्तकें लिख डालना पद्यरचना का अद्भुत अभ्यास सूचित करता है। इनकी रचना के कुछ नमूने नीचे दिए जाते है।

(जरासंधवध से)

चल्यो दरद जेहि फरद रच्यो विधि मित्र-दरद-हर।
सरद सरोरुह बदन जाचकन-बरद मरद बर॥
लसत सिंह सम दुरद नरद दिसि-दुरद-अरद-कर।
निरखि होत अरि सरद, हरद सम जरद-कांति-धर॥

कर करद करत बेपरद जब गरद मिलत बपु गाज को!
रन-जुआ-नरद वित नृप लस्यो करद मगध-महराज को॥


सबके सब केशव के सबके हित के गज सोहते सोभा अपार हैं।
जब सैलन सैलन सैलन ही फिरैं सैलन सैलहि सीस प्रहार हैं॥
'गिरिधारन' धारन सों पदकंज लै धारन लै बसु धारन फार हैं।
अरि बारन बारन बारन पै सुर वारन वारन वारन वार हैं॥


(भारती-भूषण से)

असंगति––सिंधु-जनि गर हर पियो, मरे असुर समुदाय।
नैन-बान नैनन लग्यो, भयो करेजे घाय॥

(रसरत्नाकर से)

जाहिं विवाहि दियो पितु मातु नै पावक साखि सबै जग जानी।
साहब से 'गिरिधारन जू' भगवान् समान कहैं मुनि ज्ञानी॥
तू जो कहैं वह दच्छिन हैं, तो हमैं कहा बाम हैं, बाम अजानी।
भागन सों पति ऐसो मिलै, सबहींन को दच्छिन जो सुखदानी॥


( ग्रीष्म वर्णन से )


जगह जड़ाऊ जामे जड़े हैं जवाहिरात,
जगमग जोति जाकी जग में जमति है।
जामे जदुजानि जान प्यारी जातरूप ऐसी,
जगमुख ज्वाल ऐसी जोन्ह सी जगति है॥
‘गिरिधरदास’ जोर जबर जवानी को है,
जोहि जोहि जलजा हू जीव में जकति है।
जगत के जीवन के जिय को चुराए जोय,
जोए जोपिता को जेठ-जरनि जरति है॥

(४६) द्विजदेव (महाराज मानसिह)—ये अयोध्या के महाराज थे और बड़ी ही सरस कविता करते थे। ऋतुओं के वर्णन इनके बहुत ही मनोहर हैं। इनके भतीजे भुवनेशजी (श्री त्रिलोकीनाथजी, जिनसे अयोध्यानरेश ददुआ साहब से राज्य के लिये अदालत हुई थी) ने द्विजदेवजी की दो पुस्तके बताई हैं, शृंगारबत्तीसी और श्रृंगारलतिका। ‘शृंगारलतिका’ का एक बहुत ही विशाल और सटीक संस्करण महारानी अयोध्या की ओर से हाल में प्रकाशित हुआ है। इसके टीकाकार है भूतपूर्व अयोध्या-नरेश महाराज प्रतापनारायण सिंह। श्रृंगारबत्तीसी’ भी एक बार छपी थी। द्विजदेव के कवित्त काव्य-प्रेमियों में वैसे ही प्रसिद्ध हैं जैसे पद्माकर के। ब्रजभाषा के शृंगारी कवियों की परंपरा में इन्हें अंतिम प्रसिद्ध कवि समझना चाहिए। जिस प्रकार लक्षण-ग्रंथ लिखनेवाले कवियों में पद्माकर अंतिम प्रसिद्ध कवि है उसी प्रकार समूची शृंगार परंपरा में ये। इनकी सी सरस और भावमयी फुटकल शृंगारी कविता फिर दुर्लभ हो गई।

इनमें बड़ा भारी गुण है भाषा की स्वच्छता। अनुप्रास आदि शब्दचमत्कारों के लिये, इन्होंने भाषा भद्दी कहीं नहीं होने दी है। ऋतुवर्णनों में इनके हृदय का उल्लास उमड़ पडता है। बहुत से कवियों के ऋतुवर्णन हृदय की सच्ची उमंग का पता नहीं देते, रस्म सी अदा करते जान पड़ते हैं। पर इनके चकोरों की चहक के भीतर इनके मन की चहक भी साफ झलकती है। एक ऋतु के उपरांत दूसरी ऋतु के आगमन पर इनका हृदय अगवानी के लिये मानों आपसे आप आगे बढ़ता था। इनकी कविता के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं––

मिलि माधवी आदिक फूल के ब्याज विनोदलवा बरसायो करैं।
रचि नाच लतादन तान बितान सबै विधि चित्त चुरायो करैं॥
द्विजदेव, जू देखि अनोखी प्रभा अलिचारन कीर्ति गायो करैं।
चिरंजीवी, बसंत! सदा द्विजदेव प्रसुनन की भरि लायो करैं॥


सुरही के भार सूधे सबद सुकीरन के,
मंदिरन त्यागि करैं अनत कहूं न गौन।
द्विजदेव त्यौं ही मधुभारन अपारन सों
नेकु झुकि झूमि रहें मोगरे मरुअ दौन॥
खोलि इन नैनन निहारौं तौ निहारौं कहा?
सुषमा अभूत छाय रही प्रति भौन भौन।
चाँदनी के भारन दिखात उनयो सो चंद,
गंध ही के भारत बहन मंद मंद पौन॥


बोलि हारे कोकिल, बुलाय हारे केकीगज,
सिखै हारी सखी सब जुगुति नई नई।
द्विजदेव की सौं लाज-बैरिन कूसंग इन
अंगन हू आपने अनीति इतनी ठई॥
हाय इन कुंजन तें पलटि पधारे स्याम,
देखन न पाई वह मूरति सुधामई।
आवन समैं में दुखदाइनि भई री लाज,
चलन समैं में चल पलन दगा दई॥


आजु लुभायन ही गई बाग, बिलोकि प्रसून की पाँति रही पगि।
ताहि समै तहँ आए गोपाल, तिन्हैं लखि औरौं गयो हियरो ठगि॥
पै द्विजदेव न जानि पर्यो धौं कहा तेहि काल परे अँसुवा जगि।
सू जो कही, सखि! लोनो सरुप सो मो अँखियान को लोनी गई लगि॥


बाँके कहीने रातें कंज-छबि छीने माते,
झुकि झुकि झूमि झूमि काहू को कछू गनै न।
द्विजदेव की सौं ऐसी कनक बनाय बहु,
भाँतिन बगारे चित चाहन चहूँघा चैन॥
पेखि परे प्रात जौ पै गातन उछाह भरे,
बार बार तातें तुम्हें बूझती कछूक बैन।
एहो ब्रजराज! मेरो प्रेमधन लूटिबे को,
बीरा खाए आए कितै आपके अनोखे नैन॥


भूले भूले भौंर बन भाँवरे भरैंगे चहूँ,
फूलि फूलि किंसुक जके से रहि जायहै।
द्विजदेव की सौं वह कूजन बिसारि कूर,
कोकिल कलकी ठौर ठौर पछितायहै॥
आवत बसंत के न ऐहैं जौ पै स्याम तौ पै,
बावरी! बलाय सों, हमारेऊ उपाय हैं।
पीहैं पहिलेई तें हलाहल मँगाय या,
कलानिधि की एकौ कला चलन न पायहैं॥


घहरि घहरि घन सघन चहूँघा घेरि,
छहरि छहरि विष बूँद बरसावै ना।
द्विजदेव की सौं अब चूक मत दाँव,
एरे पातकी पपीहा! तू पिया की धुनि गावै ना॥

फेरि ऐसो औसर न ऐहै तेरे हाथ, एरे,
मटकि मटकि मोर सोर तू मचावै ना।
हौं तौ बिन प्रान, प्रान चहत तजोई अब,
कत नभ चंद तू अकास चढ़ि धावै ना॥