हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल/काव्य खंड/प्रकरण २ नई धारा

[ ५९० ]
प्रकरण २
नई धारा
प्रथम उत्थान
संवत् १९२५––१९५०

यह सूचित किया जा चुका है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जिस प्रकार गद्य की भाषा का स्वरूप स्थिर करके गद्य साहित्य को देश-काल के अनुसार नए नए विषयों की ओर लगाया, उसी प्रकार कविता की धारा को भी नए क्षेत्रों की ओर मोड़ा। इस नए रंग में सबसे ऊँचा स्वर देशभक्ति की वाणी का था। उसी से लगे हुए विषय लोक-हित, समाज-सुधार, मातृभाषा का उद्धार आदि थे। हास्य और विनोद के नए विषय भी इस काल में कविता को प्राप्त हुए, रीतिकाल के कवियों की रूढ़ि में हास्य रस के आलंबन कंजूस ही चले आते थे। पर साहित्य के इस नए युग के आरंभ से ही कई प्रकार के नए आलंबन सामने आने लगे––जैसे, पुरानी लकीर के फकीर, नए फैशन के गुलाम, नोच-खसोट करनेवाले अदालती अमले, मूर्ख और खुशामदी रईस, नाम या दाम के भूखे देशभक्त इत्यादि। इस प्रकार वीरता के आश्रय भी जन्मभूमि के उद्धार के लिये रक्त बहानेवाले, अन्याय और अत्याचार का दमन करने वाले इतिहास प्रसिद्ध वीर होने लगे। सारांश यह कि इस नई धारा की कविता के भीतर जिन नए नए रंग के प्रतिबिंब आए, वे अपनी नवीनता से आकर्षित करने के अतिरिक्त नूतन परिस्थिति के साथ हमारे मनोविकारों का सामंजस्य भी घटित कर चले। कालचक्र के फेर से जिस नई परिस्थिति के बीच हम पड़ जाते है, उसका सामना करने योग्य अपनी बुद्धि को बनाए बिना जैसे काम नहीं चल सकता, वैसे ही उसकी ओर अपनी रागात्मिका वृत्ति को उन्मुख किए बिना हमारा जीवन फीका, नीरस शिथिल और अशक्त रहता है।

विषयों की अनेकरूपता के साथ साथ उनके विधान का भी ढंग बदल [ ५९१ ]चला। प्राचीन धारा में 'मुक्तक' और 'प्रबंध' की जो प्राणाली चली आती थी। उसमें कुछ भिन्न प्रणाली का भी अनुसरण करना पड़ा। पुरानी कविता में 'प्रबंध' का रूप कथात्मक और वस्तुवर्णनात्मक ही चला आता था। या तो पौराणिक कथाओं, ऐतिहासिक वृत्तों को लेकर छोटे बड़े आख्यान-काव्य रचे जाते थे–जैसे, पद्मावत, रामचरितमानस, रामचंद्रिका, छत्रप्रकाश, सुदामाचरित्र, दानलीला, चीरहरन लीला इत्यादि–अथवा विवाह, मृगया, झूला, हिंडोला, ऋतुविहार आदि को लेकर वस्तुवर्णनात्मक प्रबंध। अनेक प्रकार के सामान्य विषयों पर–जैसे, बुढ़ापा, विधिविडंबना, जगत-सचाई-सार, गोरक्षा, माता का स्नेह, सपूत, कपूत–कुछ दूर तक चलती हुई विचारों और भावों की मिश्रित धारा के रूप में छोटे छोटे प्रबंधों या निबंधों की चाल न थी। इस प्रकार के विषय कुछ उक्तिवैचित्र्य के साथ ही पद्य में कहे जाते थे अर्थात् वे मुक्तक की सूक्तियों के रूप में ही होते थे। पर नवीन धारा के आरंभ में छोटे छोटे पद्यात्मक निबंधों की परंपरा भी चली जो प्रथम उत्थानकाल के भीतर तो बहुत कुछ भावप्रधान रही, पर आगे चलकर शुष्क और इतिवृत्तात्मक (Matter of Fact) होने लगी।

नवीन धारा के प्रथम उत्थान के भीतर हम हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र, अंबिकादत्त व्यास, राधाकृष्णदास, उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी आदि को ले सकते हैं।

जैसा ऊपर कह आए हैं, नवीन धारा के बीच भारतेंदु की वाणी का सबसे ऊँचा स्वर देशभक्ति का था। नीलदेवी, भारत-दुर्दशा आदि नाटकों के भीतर आई हुई कविताओं में देशदशा की जो मार्मिक व्यंजना है, वह तो है ही, बहुत सी स्वतंत्र कविताएँ भी उन्होंने लिखीं जिनमें कहीं देश की अतीत गौरवगाथा का गर्व, कहीं वर्तमान अधोगति की क्षोभभरी वेदना, कहीं भविष्य की भावना से जगी हुई चिंता इत्यादि अनेक पुनीत भावों का संचार पाया जाता है। "विजयिनी-विजय-वैजयंती" में, जो मिस्र में भारतीय सेना की विजयप्राप्ति पर लिखी गई थी, देशभक्ति-व्यंजक कैसे भिन्न भिन्न संचारी भावों का उद्गार है! कहीं गर्व, कहीं क्षोभ, कहीं विषाद। "सहसन बरसन सों सुन्यो [ ५९२ ]जो सपने नहिं कान, सो जय आरज शब्द" को सुन और "फरकि उठीं सबकी भुजा, खरकि उठी तरवार। क्यो आपुहि ऊँचे भए आर्य मोछ के बार" का कारण जान, प्राचीन आर्य-गौरव का गर्व कुछ आ ही रहा था कि वर्तमान अधोगति का दृश्य ध्यान में आया और फिर वही "हाय भारत!" की धुन!

हाय! वहै भारत-भुव भारी। सब ही विधि सों भई दुखारी।
हाय! पंचनद, हा पानीपत। अजहुँ रहें तुम धरनि विराजत।
हाय चितौर! निलज भारी। अजहुँ खरो भारतहिं मँझारी।
तुममें जल नहिं जमुना गंगा। बढ़हुँ वेगि दिने प्रवल तरंगा?
दोरहु किन झट मथुरा कासी? धोवहु यह कलंक की रासी।

'चित्तौर', 'पानीपत' इन नामों में हिंदू हृदय के लिये कितने भावों की व्यंजना भरी है। उसके लिये ये नाम ही काव्य है। नीलदेवी में यह कैसी करुण पुकार है––

कहाँ करुणानिधि केसव सोए?
जागत नाहिं अनेक जतन करि भारतवासी रोए॥

यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि भारतेंदुजी ने हिंदी-काव्य को केवल नए नए विषयों की ओर ही उन्मुख किया, उसके भीतर किसी नवीन विधान या प्रणाली का सूत्रपात नहीं किया। दूसरी बात उनके संबंध में ध्यान देने की यह है कि वे केवल "नरप्रकृति" के कवि थे, बाह्य प्रकृति की अनंतरूपता के साथ उनके हृदय का सामंजस्य नहीं पाया जाता। अपने नाटकों में दो एक जगह उन्होंने जो प्राकृतिक वर्णन रखे हैं (जैसे सत्यहरिश्चंद्र में गंगा का वर्णन, चंद्रावली में यमुना का वर्णन) वे केवल परंपरा-पालन के रूप में है। उनके भीतर उनका हृदय नहीं पाया जाता। वे केवल उपमा और उत्प्रेक्षा के चमत्कार के लिये लिखे जान पड़ते हैं। एक पंक्ति में कुछ अलग अलग वस्तुएँ और व्यापार हैं और दूसरी पंक्ति में उपमा या उत्प्रेक्षा‌। कहीं कहीं तो यह अप्रस्तुत विधान तीन पंक्तियों तक चला चलता है।

अंत में यह सूचित कर देना आवश्यक है कि गद्य को जिस परिमाण में भारतेंदु ने नए नए विषयों और भाग की ओर लगाया उस परिमाण में पद्य [ ५९३ ]को नहीं। उनकी अधिकांश कविता तो कृष्णभक्त कवियों के अनुकरण पर गेय पदों के रूप में है जिनमें राधाकृष्ण की प्रेमलीला और विहार का वर्णन है। शृंगाररस के कवित्त-सवैयों का उल्लेख पुरानी धारा के अंतर्गत हो चुका है[१]। देशदशा, अतीत गौरव आदि पर उनकी कविताएँ या तो नाटकों में रखने के लिये लिखी गईं अथवा विशेष अवसरों पर––जैसे प्रिंस आफ वेल्स (पीछे सम्राट् सप्तम एडवर्ड) का आगमन, मिस्र पर भारतीय सेना द्वारा ब्रिटिश सरकार की विजय––पढ़ने के लिये। ऐसी रचनाओं में राजभक्ति और देशभक्ति का मेल आजकल के लोगों को कुछ विलक्षण लग सकता है। देशदशा पर दो एक होली या बसंत आदि गाने की चीजे फुटकल भी मिलती है। पर उनकी कविताओं के विस्तृत संग्रह के भीतर आधुनिकता कम ही मिलेगी।

गाने की चीजों में भारतेदु ने कुछ लावनियाँ और ख्याल भी लिखे जिनकी भाषा खड़ी बोली होती थी।

भारतेंदुजी स्वयं पद्यात्मक निबंधों की ओर प्रवृत्त नहीं हुए, पर उनके भक्त और अनुयायी पं॰ प्रतापनारायण मिश्र इस ओर बढ़े। उन्होंने देश-दशा पर आँसू बहाने के अतिरिक्त 'बुढापा', 'गोरक्षा' ऐसे विषय भी कविता के लिये चुने। ऐसी कविताओं में कुछ तो विचारणीय बातें हैं, कुछ भाव-व्यंजना और विचित्र विनोद। उनके कुछ इतिवृत्तात्मक पद्य भी हैं जिनमें शिक्षितों के बीच प्रचलित बातें साधारण भाषण के रूप में कही गई है। उदाहरण के लिये 'क्रंदन' की ये पंक्तियाँ देखिए––

तबहिं लख्यो जँह रह्यो एक दिन कंचन बरसत।
तँह चौथाई जन रूखी रोटिहु को तरसत॥
जहाँ कृषी, वाणिज्य शिल्पसेवा सब माहीं।
देसिन के हित कछू तत्त्व कहुँ कैसहु नाहीं॥
कहिय कहाँ लगि नृपति दबे हे जहँ ऋन-भारन।
कहँ तिनकी धनकथा कौन जे गृही सधारन॥

[ ५९४ ]इस प्रकार के इतिवृत्तात्मक पद्य भारतेंदुजी ने भी कुछ लिखे है। जैसे––

अँगरेज-राज सुख-साज सजे सब भारी।
पै थन बिदेस चलि जात यहै अति ख्यारि॥

मिश्रजी की विशेषता वास्तव में उनकी हास्य-विनोदपूर्ण रचनाओं में दिखाई पड़ती हैं। 'हरगंगा', 'तृप्यंताम्', इत्यादि कविताएँ बड़ी ही विनोदपूर्ण और मनोरंजक है। 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' वाली 'हिंदी की हिमायत' भी बहुत प्रसिद्ध हुई।

उपाध्याय पं॰ बदरीनारायण चौधरी (प्रेमघन) ने अधिकतर विशेष विशेष अवसरों पर––जैसे, दादाभाई नौरोजी के पार्लामेंट के मेंबर होने के अवसर पर, महारानी विक्टोरिया की हीरक-जुबिली के अवसर पर, नागरी के कचहरियों में प्रवेश पाने पर, प्रयाग के सनातन धर्म महासमेलन (सं॰ १९६३) के अवसर पर––आनंद आदि प्रकट करने के लिये कविताएँ लिखी है। भारतेंदु, के सामन नवीन विषयों के लिये ये भी प्रायः रोला छंद ही लेते थे। इनके छंद से यतिभंग प्रायः मिलता है। एक बार जब इस विषय पर मैंने इनसे बातचीत की, तब इन्होंने कहा––"मैं यतिभंग को कोई दोष नहीं मानता; पढ़ने वाला ठीक चाहिए।" देश की राजनीतिक परिस्थिति पर इनकी दृष्टि बराबर रहती थी। देश की दशा सुधारने के लिये जो राजनीतिक या धर्म-संबंधी आंदोलन चलते रहे, उन्हें ये बड़ी उत्कंठा से परखा करते थे। जब कहीं कुछ सफलता दिखाई पड़ती, तब लेखों और कविताओं द्वारा हर्ष प्रकट करते; और जब बुरे लक्षण दिखाई देते, तब क्षोभ और खिन्नता। कांग्रेस के अधिवेशनों में ये प्रायः जाते थे। 'हीरक जुबिली' आदि की कविताओं को खुशामदी कविता न समझना चाहिए। उनमें ये देशदशा का सिंहावलोकन करते थे––और मार्मिकता के साथ।

विलायत में दादाभाई नौरोजी के 'काले' कहे जाने पर इन्होंने 'कारे' शब्द को लेकर बड़ी सरस और क्षोभपूर्ण कविता लिखी थी। कुछ पंक्तियाँ देखिए––

अचरज होत तुमहुँ सम गोरे बाजत कारे।
तामों कारे 'कारे' शब्दहु पर है वारे॥

[ ५९५ ]

कारे काम, राम, जलधर जल-बरसनवारे।
कारे लागत ताही सों कारन कों प्यारे॥
यातें नीक हैं तुम 'कारे' जाहु पुकारे।
यहे असीस देत तुमको मिलि हम सब कारे॥
सफल होहिं मन के सवही संकल्प तुम्हारे।

हीरक-जुबिली के अवसर पर लिखे "हार्दिक हर्षादर्श" में देश की दशा का ही वर्णन है। जैसे––

भय भूमि भारत में महा भयंकर भारत।
भए वीरवर सकल सुमट ऐहि सँग गारत॥
मरै विबुथ नरनाह सकल चातुर गुनमंडित।
बिगरी जनसमुदाय बिना पथदर्शक पंडित॥
नए नए मते चले, नए झगरे नित बाढे।
नए नए दुख परे सीस भारत पै गाढ़े॥

'प्रेमघन' जी की कई बहुत ही प्रांजल और सरस कविताएँ उनके दोनों नाटकों में है। "भारत-सौभाग्य" नाटक चाहे खेलने योग्य न हो, पर देश-दशा पर वैसा बड़ा, अनूठा और मनोरंजक नाटक दूसरा नहीं लिखा गया। उसके प्रारंभ के अंक में 'सरस्वती', 'लक्ष्मी' और 'दुर्गा’ इन तीनो देवियों के भारत से क्रमशः प्रस्थान की दृश्य बड़ा ही भव्य है। इसी प्रकार उक्त तीनों देवियों के मुँह से बिदा होते समय जो कविताएँ कहलाई गई हैं, वे भी बड़ी मार्मिक है। "हंसीरूदा सरस्वती" के चले जाने पर 'दुर्गा' कहती है––

आजु लौं रही अनेक भाँति धीर धारि कै।
पै न भाव मोहि बैठनो सु मौन मारि कै।
जाति हौं चली वहीं सरस्वती गई जहाँ॥

उदधृत कविताओं में उनकी गद्यवाली चमत्कार-प्रवृत्ति नहीं दिखाई पड़ती। अधिकांश कविताएँ ऐसी ही हैं। पर कुछ कविताएँ उनकी ऐसी भी है––जैसे, 'मयंक' और 'आनंद-अरुणोदय'––जिनमें कहीं लंबे लंबे रूपक है। और कहीं उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं की भरमार। [ ५९६ ]यद्यपि ठाकुर जगमोहनसिंह जी अपनी कविता को नए विषयों की ओर नहीं ले गए, पर प्राचीन संस्कृत काव्यों के प्राकृतिक वर्णनों का संस्कार मन में लिए हुए, प्रेमचर्या की मधुर स्मृति से समन्वित विंध्यप्रदेश के रमणीय स्थलों को जिस सच्चे अनुराग की दृष्टि से उन्होंने देखा है, वह ध्यान देने योग्य है। उसके द्वारा उन्होंने हिंदी-काव्य में एक नूतन विधान का आभास दिया था। जिस समय हिंदी-साहित्य का अभ्युदय हुआ, उस समय संस्कृत काव्य अपनी प्राचीन विशेषता बहुत कुछ खो चुका था, इससे वह उसके पिछले रूप को ही लेकर चला। प्रकृति का जो सूक्ष्म निरीक्षण वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति मे पाया जाता है, वह संस्कृत के पिछले कवियों में नहीं रह गया। प्राचीन संस्कृत कवि प्राकृतिक दृश्यों के विधान में कई वस्तुओं की सश्लिष्ट योजना द्वारा "बिंब-ग्रहण" करने का प्रयत्न करते थे। इस कार्य को अच्छी तरह संपन्न करके तब वे इधर उधर उपमा, उत्प्रेक्षा आदि द्वारा थोड़ा बहुत अप्रस्तुत वस्तुविधान भी कर देते थे। पर पीछे मुक्तको से सूक्ष्म और संश्लिष्ट योजना के स्थान पर कुछ इनी-गिनी वस्तुओं को अलग अलग गिनाकर 'अर्थ-ग्रहण' कराने का प्रयत्न नहीं रह गया और प्रबंध-काव्यों के वर्णनों में उपमा और उत्प्रेक्षा की इतनी भरमार हो चली कि प्रस्तुत दृश्य गायब हो चला।[२]

यही पिछला विधान हमारे हिंदी-साहित्य में आया। 'षट्-ऋतु-वर्णन' में प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारो का जो उल्लेख होता था, वह केवल 'उद्दीपन' की दृष्टि से––अर्थात् नायक या नायिका के प्रति पहले से प्रतिष्ठित भाव को और जगाने या उद्दीप्त करने के लिये। इस काम के लिये कुछ वस्तुओं का अलग अलग नाम ले लेना ही काफी होता है। स्वयं प्राकृतिक दृश्यों के प्रति कवि के भाव का पता देनेवाले वर्णन पुराने हिंदी-काव्य मे नही पाए जाते।

संस्कृत के प्राचीन कवियों की प्रणाली पर हिंदी काव्य के संस्कार का जो संकेत ठाकुर साहब ने दिया, खेद है कि उसकी ओर किसी ने ध्यान न दिया। प्राकृतिक वर्णन की इस प्राचीन भारतीय प्रणाली के संबंध में थोड़ा विचार [ ५९७ ]करके हम आगे बढ़ते हैं। प्राकृतिक दृश्यों की ओर यह प्यार भरी सूक्ष्म दृष्टि प्राचीन संस्कृत काव्य की एक ऐसी विशेषता है जो फारसी या अरबी के काव्य-क्षेत्र में नहीं पाई जाती। योरप के कवियों में जाकर ही यह मिलती है। अँग२ेजी साहित्य में वर्ड्सवर्थ, शेली और मेरडिथ (Wordsworth, Shelley, Meredith) आदि में उसी ढंग का सूक्ष्म प्रकृत निरीक्षण और मनोरम रूप-विधान पाया जाता है जैसा प्राचीन संस्कृत-साहित्य में। प्राचीन भारत और नवीन युरोपीय दृश्य-विधान में पीछे थोड़ा लक्ष्य-भेद हो गया। भारतीय प्रणाली में कवि के भाव का आलबन प्रकृति ही रही, अतः उसके रूप का प्रत्यक्षीकरण ही काव्य का एक स्वतंत्र लक्ष्य दिखाई पड़ता है। पर योरपीय साहित्य में काव्य निरूपण की बराबर बढ़ती हुई परंपरा के बीच धीरे धीरे यह मत प्रचार पाने लगा कि "प्राकृतिक दृश्यों का प्रत्यक्षीकरण मात्र तो स्थूल व्यवसाय है; इनको लेकर कल्पना की एक नूतन सृष्टि खड़ी करना ही कवि-कर्म है"।

उक्त प्रवृत्ति के अनुसार कुछ पाश्चात्य कवियों ने तो प्रकृति के नाना रूप के बीच व्यंजित होनेवाली भावधारों को बहुत सुंदर उद्घाटन किया, पर बहुतेरे अपनी बेमेल भावनाओं का आरोप करके उन रूपों को अपनी अंतर्वृत्तियों से छोपने लगे। अब इन दोनों प्रणालियों में से किस प्रणाली पर हमारे काव्य में दृश्य-वर्णन का विकास होना चाहिए, यह विचारणीय है। मेरे विचार में प्रथम प्रणाली का अनुसरण ही समीचान है। अनत रूपो से भरा हुआ प्रकृति का विस्तृत क्षेत्र उस 'महामानस' की कल्पनाओं का अनंत प्रसार है। सूक्ष्मदर्शी सहृदयों को उसके भीतर नाना भावों की व्यजना मिलेगी। नाना रूप जिन नाना भावों की सचमुच व्यंजना कर रहे हैं, उन्हें छोड़ अपने परिमित अंतःकोटर की वासनाओं से उन्हें छोपना एक झूठे खेलवाड़ के ही अंतर्गत होगा। यह बात मैं स्वतत्र दृश्य-विधान के सबंध में कह रहा हूँ जिसमें दृश्य ही प्रस्तुत विषय होता है। जहाँ किसी पूर्व प्रतिष्ठित भाव की प्रबलता व्यंजित करने के लिये ही प्रकृति के क्षेत्र से वस्तु-व्यापार लिए जायँगे, वहाँ तो वे उस भाव में रंगे दिखाई ही देगे। पद्माकर की विरहिणी का वह कहना कि "किंसुक गुलान कचनार औ अनारन की डारन पै डोलत अँगारन के पुज हैं।" ठीक ही है। पर बराबर इस रूप में प्रकृति को देखना दृष्टि का [ ५९८ ]संकुचित करना है। अपने ही सुख दुःख के रंग में रँगकर प्रकृति को देखा तो क्या देखा? मनुष्य ही सब कुछ नहीं हैं। प्रकृति का अपना रूप भी है।

पं॰ अंबिकादत्त व्यास ने नए नए विषयों पर भी कुछ फुटकल कविताएँ रची हैं जो पुरानी पत्रिकाओं में निकली हैं। एक बार उन्होंने कुछ बेतुके पद्य भी आजमाइश के लिये बनाए थे, पर इस प्रयत्न में उन्हें सफलता नहीं दिखाई पड़ी थी, क्योंकि उन्होंने हिंदी का कोई प्रचलित छंद लिया था।

भारतेंदु के सहयोगियों की बात यहीं समाप्त कर अब हम उन लोगों की ओर आते है जो उनकी मृत्यु के उपरांत मैदान में आए और जिन्होंने काव्य की भाषा और शैली में भी कुछ परिवर्तन उपस्थित किया। भारतेंदु के सहयोगी लेखक यद्यपि देशकाल के अनुकूल नए नए विषयों की ओर प्रवृत्त हुए, पर भाषा उन्होंने परंपरा से चली आती हुई ब्रजभाषा ही रखी और छंद भी वे ही लिए जो ब्रजभाषा में प्रचलित थे। पर भारतेंदु के गोलोकवास के थोड़े ही दिन पीछे भाषा के संबंध में नए विचार उठने लगे। लोगों ने देखा कि हिंदी-गद्य की भाषा तो खड़ी बोली हो गई और उसमें साहित्य भी बहुत कुछ प्रस्तुत हो चुका, पर कविता की भाषा अभी ब्रजभाषा ही बनी है। गद्य एक भाषा में लिखा जाय और पद्य दूसरी भाषा में, यह बात खटक चली। इसकी कुछ चर्चा भारतेंदु के समय में ही उठी थी, जिसके प्रभाव से उन्होंने 'दशरथ विलाप' नाम की एक कविता खड़ी बोली में (फारसी छंद में) लिखी थी। कविता इस ढंग की थी––

कहाँ हो ऐ हमारे राम प्यारे। किधर तुम छोड़कर हमको सिधारे।
बुढ़ापे में ये दुख भी देखना था। इसी के देखने को मैं बचा था॥

वह कविता राजा शिवप्रसाद को बहुत पसंद आई थी और इसे उन्होंने अपने 'गुटका' दाखिल किया था।

खड़ी बोली में पद्य-रचना एकदम कोई नई बात न थी। नामदेव और और कबीर की रचना मे हम खड़ी बोली का पूरा स्वरूप दिखा आए है और यह सूचित कर चुके हैं कि उसका व्यवहार अधिकतर सधुक्कड़ी भाषा के भीतर हुआ करता था। शिष्ट साहित्य के भीतर परंपरागत काव्य-भाषा ब्रज-भाषा का [ ५९९ ]ही चलन रहा। इंशा ने अपनी 'रानी केतकी की कहानी' में कुछ ठेठ खड़ी बोली के पद्य भी उर्दू छंदों में रखे। उसी समय में प्रसिद्ध कृष्णभक्त नागरीदास हुए। नागरीदास तथा उनके पीछे होनेवाले कुछ कृणभक्तों में इश्क की फारसी पदावली और गज़लबाजी की शौक दिखाई पड़ा। नागरीदास के 'इश्क चमन' का एक दोहा है––

कोइ न पहुँचा वहाँ तक आसिक नाम अनेक।
इश्क-चमन के बीच में आया मजनूँ एक॥

पीछे नजीर अकबराबादी ने (जन्म सवंत् १७९७, मृत्यु १८७७), कृष्ण-लीला-संबंधी बहुत से पद्म हिंदी-खड़ी बोली में लिखे। वे एक मनमौजी सूफी भक्त थे। उनके पद्यों के नमूने देखिए––

यारो सुनो य दधि के लुटैया का बालपन।
औ मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन॥
मोहन-सरूप नृत्य करैया का बालपन।
वन वन में ग्वाल गौवें चरैया का बालपन॥
पैसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन।
क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन॥
परदे में बालपन के ये उनके मिलाप थे।
जोती-सरूप कहिए जिन्हें सो वो आप थे॥


वाँ कृष्ण मदनमोहन ने जब जब ग्वालों से यह बात कही।
औ आपी से झट गेंद डँढा उस कालीदह में फेंक दई॥
यह लीला है उस नंदललन मनमोहन जसुमत-दैया की।
रख ध्यान सुनो दंडवत करो, जय बोलो कृष्ण कन्हैया की॥

लखनऊ के शाह कुंदनलाल और फुंदनलाल 'ललितकिशोरी' और 'ललित-माधुरी' नाम से प्रसिद्ध कृष्ण-भक्त हुए हैं जिनका रचनाकाल संवत् १९१३ और १९३० के बीच समझना चाहिए। उन्होंने और कृष्णभक्तों के समान ब्रजभाषा [ ६०० ]के अनेक पद तो बनाए ही हैं, खड़ी बोली में कई झूलना छंद भी लिखे हैं, जैसे––

जगल में अब रमते हैं, दिल बस्ती से घबराता है।
मानुष-गंध न भाती हैं, सँग मरकट मोर सुहाता है॥
चाक बरेवाँ करके दम दम आहे भरना आता है।
'ललित किशोरी' इश्क रैन दिन ये सब खेल खेलता है॥

इसके उपरांत ही लावनीबाजों का समय आता है। कहते है कि मिरजापुर के तुक़नगिरि गोसाईं ने सधुक्कढ़ी भाषा में ज्ञानोपदेश के लिये लावनी की लय चलाई। लावनी की बोली खड़ी बोली रहती थी। तुकनगिरि के दो शिष्य रिसालगिरि और देवीसिंह प्रसिद्ध लावनीबाज हए, जिनके आगे चलकर दो परस्पर प्रतिद्वंदी अखाड़े हो गए। रिसालगिरि का ढंग 'तुर्रा' कहलाया जिसमें अधिकतर ब्रह्मज्ञान रहता था। देवीसिंह का बाना 'सखी का बाना' और उनका देश 'कलगी' कहलाया जो भक्ति और प्रेम लेकर चलता था। लावनीबाजों में काशीगिरि उपनाम 'बनारसी' का बड़ा नाम हुआ। लाविनियों में पीछे उर्दू के छंद अधिकतर लिए जाने लगे। 'ख्याल' को भी लावली के ही अंतर्गत समझना चाहिए।

इसके अतिरिक्त रीतिकाल के कुछ पिछले कवि भी, जैसा कि हम दिखा आए हैं, इधर-उधर खड़ी बोली के दो-चार कवित्त-सवैए, रच दिया करते थे। इधर लावनीबाज और ख्यालबाज भी अपने ढंग पर कुछ ठेठ हिंदी में गाया करते थे। इस प्रकार खड़ी बोली की तीन छंद-प्रणालियाँ उस समय लोगों के सामने थीं जिस समय भारतेंदुजी के पीछे कविता की भाषा का सवाल लोगों के सामने आया––हिंदी के कवित्त-सवैया की प्रणाली, उर्दू छंदों की प्रणाली और लावनी का ढंग। सुं॰ १९४३ में पं॰ श्रीधर पाठक ने इसी पिछले ढंग पर 'एकांतवासी योगी' खड़ी बोली-पद्य में निकाला। इसकी भाषा अधिकतर बोलचाल की और सरल थी। नमूना देखिए––

आज रात इससे परदेशी चल कीजे विश्राम यहीं।
जो कुछ वस्तु कुटी में मेरे करो ग्रहण, संकोच नहीं॥

[ ६०१ ]

तृण-शय्या और अल्प रसोई पाओ स्वल्प प्रसाद।
पैर पसार चलो निद्रा लो मेरा आशीर्वाद॥
xxxx
प्रानपियारे की गुन-गाथा, साधु? कहाँ तक मैं गाऊँ।
गाते गाते चुके नहीं वह चाहे मैं ही चुक जाऊँ॥

इसके पीछे तो "खड़ी बोली" के लिये एक आंदोलन ही खड़ा हुआ। मुजफ्फरपुर के बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री खड़ी बोली का झंडा लेकर उठे। संवत् १९४५ में उन्होंने "खड़ी बोली आंदोलन" की पुस्तक छपाई जिसमें उन्होंने बड़े जोर शोर से यह राय जाहिर की कि अब तक जो कविता हुई, वह तो ब्रजभाषा की थी, हिंदी की नहीं। हिंदी में भी कविता हो सकती है। वे भाषातत्त्व के जानकार न थे। उनकी समझ में खड़ी बोली ही हिंदी थी। अपनी पुस्तक में उन्होंने खड़ी बोली-पद्य की चार स्टाइलें कायम की थीं––जैसे, मौलवी स्टाइल, मुंशी स्टाइल, पंडित स्टाइल, मास्टर स्टाइल। उनकी पोथी में और पद्यों के साथ पाठकजी का "एकांतवासी योगी" भी दर्ज हुआ। और कई लोगों से अनुरोध करके उन्होंने खड़ी बोली की कविताएँ लिखाईं। चंपारन के प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान् और वैद्य पं॰ चद्रशेखरधर मिश्र, जो भारतेंदु जी के मित्रों में थे, संस्कृत के अतिरिक्त हिंदी में भी बड़ी सुंदर और आशु कविता करते थे। मैं समझता हूँ कि हिंदी-साहित्य के आधुनिक काल में संस्कृत-वृत्तों में खड़ी बोली के कुछ पद्म पहले-पहल मिश्रजी ने ही लिखे। बाबू अयोध्याप्रसादजी उनके पास भी पहुँचे और कहने लगे––"लोग कहते है कि खड़ी बोली में अच्छी कविता नहीं हो सकती। क्या आप भी यही कहते हैं? यदि नहीं, तो मेरी सहायता कीजिए।" उक्त पंडितजी ने कुछ कविता लिखकर उन्हें दी, जिसे उन्होंने अपनी पोथी में शामिल किया। इसी प्रकार खड़ी बोली के पक्ष में जो राय मिलतीं, वह भी उसी पोथी में दर्ज होती जाती थीं। धीरे धीरे एक बड़ा पोथा हो गया जिसे बगल में दबाए वे जहाँ कहीं हिंदी के संबंध में सभा होती, जा पहुँचते। यदि बोलने का अवसर न मिलता या कम मिलता तो वे बिगड़कर चल देते थे।

[ ६०२ ]

काव्य खंड

नई धारा

द्वितीय उत्थान

( संवत् १९५०––१९७५ )

पं॰ श्रीधर पाठक के 'एकांतवासी योगी' का उल्लेख खड़ी बोली की कविता के आरंभ के प्रसंग में प्रथम उत्थान के अंतर्गत हो चुका है। उसकी सीधी-सादी खड़ी बोली और जनता के बीच प्रचलित लय ही ध्यान देने योग्य नहीं है, किंतु उसकी कथा की सार्वभौम मार्मिकता भी ध्यान देने योग्य है। किसी के प्रेम में योगी होना और प्रकृति के निर्जन क्षेत्र में कुटी छाकर रहना एक ऐसी भावना है जो समान रूप से सब देशों के और सब श्रेणियों के स्त्री-पुरुष के मर्म का स्पर्श स्वभावतः करती आ रही है। सीधी-सादी खड़ी बोली में अनुवाद करने के लिये ऐसी प्रेम-कहानी चुनना जिसकी मार्मिकता अपढ़ स्त्रियों तक के गीतों की मार्मिकता के मेल में हो, पंडितों की बँधी हुई रूढ़ि से बाहर निकलकर अनुभूति के स्वतंत्र क्षेत्र में आने की प्रवृत्ति का द्योतक है। भारतीय हृदय का सामान्य स्वरूप पहचानने के लिये पुराने परिचित ग्राम-गीतों की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, केवल पंडितों द्वारा प्रवर्तित काव्य-परंपरा का अनुशीलन ही अलम् नहीं है।

पंडितों की बाँधी प्रणाली पर चलनेवाली काव्यधारा के साथ साथ सामान्य अंपढ़ जनता के बीच एक स्वच्छंद और प्राकृतिक भावधारा भी गीतों के रूप में चलती रहती है––ठीक उसी प्रकार जैसे बहुत काल से स्थिर चली आती हुई पंडितों की साहित्य-भाषा के साथ साथ लोकभाषा की स्वाभाविक धारा भी बराबर चलती रहती है। जब पंडितों की काव्य-भाषा स्थिर होकर उत्तरोत्तर [ ६०३ ]आगे बढ़ती हुई लोकभाषा से दूर पड़ जाती है और जनता के हृदय पर प्रभाव डालने की उसकी शक्ति क्षीण होने लगती है तब शिष्ट समुदाय लोकभाषा का सहारा लेकर अपनी काव्य-परंपरा में नया जीवन डालता है। प्राकृत के पुराने रूपों से लदी अपभ्रंश जब लद्धड़ होने लगी तब शिष्ट काव्य प्रचलित देशी भाषाओं से शक्ति प्राप्त करके ही आगे बढ़ सका। यही प्राकृतिक नियम काव्य के स्वरूप के संबंध में भी अटल समझना चाहिए। जब जब शिष्टों का काव्य पंडितों द्वारा बँधकर निश्चेष्ट और संकुचित होगा तब तब उसे सजीव और चेतन प्रसार देश की सामान्य जनता के बीच स्वच्छंद बहती हुई प्राकृतिक भावधारा से जीवन-तत्त्व ग्रहण करने से ही प्राप्त होगा।

यह भावधारा अपने साथ हमारे चिर-परिचित, पशु-पक्षियों, पेड़ पौधों, जंगल-मैदानों आदि को भी समेटे चलती है। देश के स्वरूप के साथ यह संबद्ध चलती है। एक गीत में कोई ग्रामवधू अपने वियोग काल की दीर्घता की व्यंजना अपने चिर-परिचित प्रकृति-व्यापार द्वारा इस भोले ढंग से करती है––

"जो नीम का प्यारा पौधा प्रिय अपने हाथ से द्वार पर लगा गया वह बड़ा होकर फूला और उसके फूले झड़ भी गए, पर प्रिये न आया!"

इस भावधारा की अभिव्यंजन-प्रणालियाँ वे ही होती हैं जिनपर जनता का हृदय इस जीवन में अपने भाव स्वभावतः ढालता आता है। हमारी भाव-प्रवर्त्तिनी शक्ति का असली भंडार इसी स्वाभाविक भावधारा के भीतर निहित समझना चाहिए। जब पंडितों की काव्यधारा इस स्वाभाविक भावधारा से विच्छिन्न पड़कर रूढ़ हो जाती है तब वह कृत्रिम होने लगती है और उसकी शक्ति भी क्षीण होने लगती है। ऐसी परिस्थिति में इसी भावधारा की ओर दृष्टि ले जाने की आवश्यकता होती है। दृष्टि ले जाने का अभिप्राय है उस स्वाभाविक भावधारा के ढलाव की नाना अंतर्भूमियों को परखकर शिष्ट काव्य के स्वरूप का पुनर्विधान करना। यह पुनर्विधान सामंजस्य के रूप में हो, अध प्रतिक्रिया के रूप में नहीं, जो विपरीतता की हद तक जा पहुँचती है। इस प्रकार के परिवर्त्तन को ही अनुभूति की सच्ची नैसर्गिक स्वच्छंदता (True Romanticism) कहना चाहिए, क्योंकि यह मूल प्राकृतिक आधार पर होता है।

[ ६०४ ]इँग्लैंड के जिस 'स्वच्छंदतावाद' (Romanticism) का इधर हिंदी में भी बराबर नाम लिया जाने लगा हैं उसके प्रारंभिक उत्थान के भीतर परिवर्तन के मूल प्राकृतिक आधार का रपष्ट आभास रहा। पीछे कवियों की व्यक्तिगत, विद्यागत और बुद्धिगत प्रवृत्तियों और विशेषताओं के––जैसे, रहस्यात्मकता, दार्शनिकता, स्वातंत्र्यभावना, कलावाद आदि के––अधिक प्रदर्शन से वह कुछ ढँक सा गया। काव्य को पांडित्य की विदेशी रूढ़ियों से मुक्त और स्वच्छंद काउपर (Cowper) ने किया था, पर स्वच्छंद होकर जतना के हृदय में संचरण करने की शक्ति वह कहाँ से प्राप्त करे, यह स्काटलैंड के एक किसानी झोपड़ी में रहनेवाले कवि बर्न्स (Burns) ने ही दिखाया था। उसने अपने देश के परंपरागत प्रचलित गीतों की मार्मिकता परखकर देशभाषा में रचनाएँ कीं, जिन्होंने वहाँ के सारे जनसमाज के हृदय में अपना घर किया। स्काट (Walter Scott) ने भी देश की अंतर्व्यापिनी भावधारा से शक्ति लेकर साहित्य को अनुप्राणित किया था।

जिस परिस्थिति में अँगरेजी-साहित्य में स्वच्छंदतावाद का विकास हुआ। उसे भी देखकर यह समझ लेना चाहिए कि रीतिकाल के अंत में, या भारतेंदु-काल के अंत में हिन्दी-काव्य की जो परिस्थिति थी वह कहाँ तक इँगलैंड की परिस्थिति के अनुरूप थी। सारे योरप में बहुत दिनों तक पंडितों और विद्वानों के लिखने-पढ़ने की भाषा लैटिन (प्राचीन रोमियों की भाषा) रही। फराँसीसियों के प्रभाव से इँगलैंड की काव्यरचना भी लैटिन की प्राचीन रूढियों से जकड़ी जाने लगी। उस भाषा के काव्यों की सारी पद्धतियों का अनुसरण होने लगा। बँधी हुई अलंकृत पदावली, वस्तु-वर्णन की रूढ़ियाँ, छंदों की व्यवस्था सब ज्यो की त्यों रखी जाने लगी। इस प्रकार अँगरेजी काव्य, विदेशी काव्य और साहित्य की रूढ़ियों से इतना आच्छन्न हो गया कि वह देश की परंपरागत स्वाभाविक भावधारा से विच्छिन्न सा हो गया। काउपर, क्रैब और बर्न्स ने काव्यधारा को साधारण जनता की नादरुचि के अनुकूल नाना मधुर लयों में तथा लोक-हृदय के ढलाव की नाना मार्मिक अंतभूमियों में स्वच्छंदतापूर्वक ढाला। अँगरेजी साहित्य के भीतर काव्य को यह स्वच्छंद रूप पूर्व रूप से बहुत अलग दिखाई पड़ा। बात यह थी कि लैटिन (जिसके साहित्य का निर्माण बहुत कुछ यवनानी [ ६०५ ]ढांचे पर हुआ था।) इँगलैंड के लिये दूर देश की भाषा थी अतः उसका साहित्य भी वहाँ के निवासियों के अपने चिर संचित संस्कार और भाव्य-व्यंजन पद्धति से दूर पड़ता था।

पर हमारे साहित्य में रीति-काल की जो रूढ़ियाँ हैं वे किसी और देश की नहीं; उनका विकास इसी देश के साहित्य के भीतर संस्कृत में हुआ है। संस्कृत काव्य और उसी के अनुकरण पर रचित प्राकृत-अपभ्रंश काव्य भी हमारा ही पुराना काव्य है, पर पंडितों और विद्वानों द्वारा रूपग्रहण करते रहने और कुछ बँध जाने के कारण जनसाधारण की भावमयी वाग्धारा से कुछ हटा सा लगता है। पर एक ही देश और एक ही जाति के बीच अविर्भूत होने के कारण दोनों में कोई मौलिक पार्थक्य नहीं। अतः हमारे वर्तमान काव्यक्षेत्र में यदि अनुभूति की स्वच्छंदता की धारा प्रकृत पद्धति पर अर्थात् परंपरा से चले आते हुए मौखिक गीतों के मर्मस्थल से शक्ति लेकर चलने पाती तो वह अपनी ही काव्यपरंपरा होती––अधिक सजीव और स्वच्छंद की हुई।

रीति-काल के भीतर हम दिखा चुके हैं कि किस प्रकार रसों और अलंकारों के उदाहरण के रूप में रचना होने से और कुछ छंदों की परिपाटी बँध जाने से हिंदी-कविता जकड़ सी उठी थी। हरिश्चंद्र के सहयोगियों में काव्यधारा को नए नए विषयों की ओर मोड़ने की प्रवृत्ति तो दिखाई पड़ी, पर भाषा ब्रज ही रहने दी गई और पद्य के ढाँचों, अभिव्यंजना के ढंग तथा प्रकृति के स्वरूप- निरीक्षण आदि में स्वच्छंदता के दर्शन न हुए। इस प्रकार की स्वच्छंदता का आभास पहले पहल पं॰ श्रीधर पाठक ने ही दिया। उन्होंने प्रकृति के रूढ़िवद्ध रूपों तक ही न रहकर अपनी आँखों से भी उसके रूपों को देखा। 'गुनवंत हेमंत' में वे गाँवों में उपजनेवाली मूली-मटर ऐसी वस्तुओं को भी प्रेम प्रेम से सामने लाए जो परंपरागत ऋतु-वर्णनों के भीतर नहीं दिखाई पड़ती थीं। इसके लिये उन्हें पं॰ माधवप्रसाद मिश्र की बौछार भी सहनी पड़ी थी। उन्होंने खड़ी बोली पद्य के लिये सुंदर लय और चढ़ाव उतार के कई नए ढाँचे भी निकाले और इस बात का ध्यान रखा कि छंदों का सुंदर लय से पढ़ना एक बात है, राग-रागिनी गाना दूसरी बात। ख्याल या लावनी की लय पर जैसे 'एकांतवासी योगी' लिया गया वैसे ही सुथरे साइँयों के सधुक्कड़ी ढंग पर 'जगत-संचाई-सार' [ ६०६ ]जिसमें कहा गया कि 'जगत है सच्चा, तनिक न कच्चा, समझो बच्चा! इसका भेद। 'स्वर्गीय वीणा' में उन्होंने उस परोक्ष दिव्य संगीत की और रहस्यपूर्ण संकेत किया जिसके ताल-सुर पर यह सारा विश्व नाच रहा है। इन सब बातों का विचार करने पर पं॰ श्रीधर पाठक ही सच्चे स्वच्छंदतावाद (Romanticism) के प्रवर्त्तक ठहरते हैं।

खेद है कि सच्ची और स्वाभाविक स्वच्छंदता का यह मार्ग हमारे काव्यक्षेत्र के बीच चल न पाया। बात यह है कि उसी समय पिछले संस्कृत काव्य के संस्कारों के साथ पं॰ महावीरप्रसादजी द्विवेदी हिंदी-साहित्य-क्षेत्र में आए जिनका प्रभाव गद्यसाहित्य और काव्य-निर्माण दोनों पर बहुत ही व्यापक पड़ा। हिंदी में परंपरा से व्यवहृत छदों के स्थान पर संस्कृत के वृत्तों का चलन हुआ, जिसके कारण संस्कृत पदावली का समावेश बढ़ने लगा। भक्तिकाल और रीतिकाल की परिपाटी के स्थान पर पिछले संस्कृत-साहित्य की पद्धति की ओर लोगों का ध्यान बँटा। द्विवेदीजी 'सरस्वती' पत्रिका द्वारा बराबर कविता में बोलचाल की सीधी-सादी भाषा का आग्रह करते रहे जिससे इतिवृत्तात्मक (Matter of fact) पद्यों का खड़ी बोली में ढेर लगने लगा। यह तो हुई द्वितीय उत्थान के भीतर की बात।

आगे चलकर तृतीय उत्थान में उक्त परिस्थिति के कारण जो प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई वह स्वाभाविक स्वच्छंदता की शोर न बढ़ने पाई। बीच में रवींद्र बाबू की 'गीतांजलि' की धूम उठ जाने के कारण नवीनता-प्रदर्शन के इच्छुक नए कवियों में से कुछ लोग तो बंगभाषा की रहस्यात्मक कविताओं की रूप रेखा लाने में लगे, कुछ लोग पाश्चात्य काव्य-पद्धति को 'विश्व-साहित्य' का लक्षण समझ उसके अनुसरण में तत्पर हुए। परिणाम यह हुआ कि अपने यहाँ के रीतिकाल की रूढ़ियों और द्वितीय उत्थान की इतिवृत्तात्मकता से छूटकर बहुत सी हिंदी-कविता विदेश की अनुकृत रूढ़ियों-और वादों में जा फँसी। इने गिने नए कवि ही स्वच्छंदता के मार्मिक और स्वाभाविक पथ पर चले।

"एकांतवासी योगी" के बहुत दिनों पीछे पं॰ श्रीधर पाठक ने खड़ी बोली में और भी रचनाएँ कीं। खड़ी बोली की इनकी दूसरी पुस्तक "श्रांत पथिक" [ ६०७ ](गोल्डस्मिथ के Traveller का अनुवाद) निकली। इनके अतिरिक्त खड़ी बोली में फुटकल कविताएँ भी पाठकजी ने बहुत सी लिखी। मन की मौज के अनुसार कभी कभी ये एकही विषय के वर्णन में दोनों बोलियों के पद्य रख देते थे। खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों में ये बराबर कविता करते रहे। 'ऊजड़ ग्राम' (Deserted village) इन्होंने ब्रजभाषा में ही लिखा। अँगेरेजी और संस्कृत दोनों के काव्य-साहित्य का अच्छा परिचय रखने के कारण हिंदी कवियों में पाठकजी की रुचि बहुत ही परिरुकृत थी। शब्दशोधन में तो पाठकजी अद्वितीय थे। जैसी चलती और रसीली इनकी ब्रजभाषा होती थी, वैसा ही कोमल और मधुर संस्कृत पद-विन्यास भी। ये वास्तव में एक बड़े प्रतिभाशाली,भावुक और सुरुचिसंपन्न कवि थे। भद्दापन इनमें न था––न रूप रंग में, न भाषा में, न भाव में, न चाल में न भाषण में।

इनकी प्रतिभा बराबर रचना के नए नए मार्ग भी निकाला करती थी। छंद, पदविन्यास, वाक्यविन्यास आदि के संबंध में नई नई बंदिशे इन्हें खूब सूझा करती थीं। अपनी रुचि के अनुसार कई नए ढाँचे के छंद इन्होंने निकाले जो पढ़ने में बहुत ही मधुर लय पर चलते थे। यह छंद देखिए––

नाना कृपान निज पानि लिए, वपु नील वसन परिधान किए,
गंभीर घोर अभिमान हिर, छकि पारिजात-मधुपान किए,
छिन छिन पर जोर मरोर दिखावत, पलपल पर आकृति-कोर झुकावत।
यह मोर नचावत, सोर मचावत, स्वेत स्वेत बगपाँति उड़ावत॥
नंदन प्रसून-मकरंद-बिंदु-मिश्रित समीर बिनु धीर चलावत।

अंत्यानुप्रास-रहित बेठिकाने समाप्त होनेवाले गद्य के-से लंबे वाक्यों के छंद भी (जैसे अँगरेजी में होते है) इन्होंने लिखे हैं। 'सांध्य-अटन' का यह छंद देखिए––

बिजन बन-प्रांत था; प्रकृतिमुख शात था,
अटन का समय या, रजनि का उदय था।
प्रसव के काल की लालिमा में लसा,
बाल-शशि व्योम की ओर था आ रहा॥

[ ६०८ ]

सध उत्फुल्ल-अरविंद-निष नील सुवि-
शाल नभवक्ष पर जा रहा था चढ़ा॥

विश्व-संचालक परोक्ष संगीत-ध्वनि की ओर रहस्यपूर्ण संकेत 'स्वर्गीय वीणा' की इन पंक्तियों में देखिए––

कहाँ पै स्वर्गीय कोई वाला सुमजु वीणा बजा रही है।
सुरों के संगीत की-सी कैसी सुरीली गुंजार आ रही है॥
कोई पुरंदर की किंकरी है कि या किसी सुर की सुंदरी है।
वियोग-तप्ता सी भोगमुक्त हृदय के उद्गार गा रही है॥
कभी नई तान प्रेममय है, कभी प्रकोपन, कभी विनय है।
दया है, दाक्षिण्य का उदय है अनेकों बानक बना रही हैं॥
भरे गगन में हैं जितने तारे, हुए है बदमस्त गत पै सारे।
समस्त ब्रह्मांड भर को मानो दो उँगलियों पर नचा रही है॥

यह कह आए हैं कि खड़ी बोली की पहली पुस्तक "एकांतवासी योगी" इन्होंने लावनी या ख्याल के ढंग पर लिखी थी। पीछे खड़ी बोली को हिंदी के प्रचलित छंदों में ले आए। 'श्रांत पथिक' की रचना इन्होंने रोला में की। इसके आगे भी ये बढ़े, और यह दिखा दिया कि सवैए में भी खड़ी बोली कैसी मधुरता के साथ ढल सकती है––

इस भारत में वन पावन के ही तपस्वियों का तप-आश्रम था।
जगतत्व की खोज में लग्न जहाँ ऋषियों ने अभन्न किया श्रम था॥
जब प्राकृत विश्व का विनम्र और था, सात्विक जीवन का क्रम था।
महिमा वनवास की थी तब और, प्रभाव पवित्र अनूपम था॥

पाठकजी कविता के लिये हर एक विषय ले लेते थे। समाज-सुधार के वे बड़े आकांक्षी थे; इससे विधवाओं की वेदना, शिक्षा-प्रचार ऐसे ऐसे विषय भी उनकी कलम के नीचे आया करते थे। विषयों को काव्य का पूरा पूरा स्वरूप देने में चाहे वे सफल न हुए हो, अभिव्यंजना के वाग्वैचित्र्य की ओर उनका ध्यान चाहे न रहा हो, गंभीर नूतन विचार-धारा चाहें उनकी कविताओं के भीतर कम मिलती हो, पर उनकी वाणी में कुछ ऐसा प्रसाद था कि जो बात [ ६०९ ]उसके द्वारा प्रकट की जाती थी, उसमें सरसता आ जाती थी। अपने समय के कवियों में प्रकृति का वर्णन पाठकजी ने सबसे अधिक किया, इससे हिंदी-प्रेमियों में वे प्रकृति के उपासक कहे जाते थे। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि उनकी वह उपासना प्रकृति के उन्हीं रूपों तक परिमित थी जो मनुष्य को सुखदायक और आनंदप्रद होते हैं, या जो भव्य और सुंदर होते हैं। प्रकृति के सीधे-सादे, नित्य आँखों के सामने आनेवाले, देश के परंपरागत जीवन से संबंध रखनेवाले दृश्यों की मधुरता की ओर उनकी दृष्टि कम रहती थी।

पं॰ श्रीधर पाठक का जन्म संवत् १९३३ में और मृत्यु सं॰ १९८५ में हुई।

भारतेंदु के पीछे और द्वितीय उत्थान के पहले ही हिंद के लब्ध-प्रतिष्ठ कवि पंडित अयोध्यासिंहजी उपाध्याय (हरिऔध) नए विषयों की ओर चल पड़े थे। खड़ी बोली के लिये उन्होंने पहले उर्दू के छंदों और ठेठ बोली को ही उपयुक्त समझा, क्योंकि उर्दू के छंदों में खड़ी बोली अच्छी तरह मँज चुकी थी। संवत् १९५७ के पहले ही वे बहुत सी फुटकल रचनाएँ इस उर्दू ढंग पर कर चुके थे। नागरीप्रचारिणी सभा के गृहप्रवेशोत्सव के समय सं॰ १९५७ में उन्होंने जो कविता पढ़ी थी, उसके ये चरण मुझे अब तक याद हैं––

चार डग हमने भरे तो क्या किया।
है पड़ा मैदान कोसों का अभी॥
मौलवी ऐसा न होगा एक भी।
खूब उर्दू जो न होवे जानता॥

इसके उपरांत तो वे बराबर इसी ढंग की कविता करते रहे। जब पंडित महावीरप्रसादजी द्विवेदी के प्रभाव से खड़ी बोली ने संस्कृत छंदों और संस्कृत की समस्त पदावली का सहारा लिया, तब उपाध्यायजी––जो गद्य में अपनी भाषा-संबंधिनी पटुता उसे दो हदों पर पहुँचाकर दिखा चुके थे––उस शैली की ओर भी बढ़े और संवत् १९७१ में उन्होंने अपना 'प्रिय-प्रवास' नामक बहुत बड़ा काव्य प्रकाशित किया।

नवशिक्षितों के संसर्ग से उपाध्यायजी ने लोक-संग्रह का भाव अधिक [ ६१० ] ग्रहण किया है। उक्त काव्य में श्रीकृष्ण ब्रज में रक्षक-नेता के रूप में अंकित किए गए हैं। खड़ी बोली में इतना बड़ा काव्य, अभी तक नहीं निकला है। बड़ी भारी विशेषता इस काव्य की यह है कि-यह सारा संस्कृत के वर्णवृत्तों में हैं जिसमें अधिक परिमाण में रचना करना कठिन काम है। उपाध्यायजी का संस्कृत पद-विन्यास अनेक उपसर्गों से लदा तथा 'मंजु', 'मंजुल', 'पेशल' आदि से बीच बीच में जटित अर्थात् चुना हुआ होता है। द्विवेदीजी और उनके अनुयायी कवि-वर्ग की रचनाओं से उपाध्याय जी की रचना इस बात में साफ अलग दिखाई पड़ती है। उपाध्यायजी कोमलकांत पदावली को कविता का सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ समझते हैं। यद्यपि द्विवेदीजी अपने अनुयायियों के सहित जब इस संस्कृतवृत्त के मार्गपर बहुत दूर तक चल चुके थे, तब उपाध्यायजी उसपर आए, पर वे बिल्कुल अपने ढंग पर चले। किसी प्रकार की रचना को हद पर-चाहे उस हद तक जाना अधिकतर लोगों को इष्ट न हो-पहुँचाकर दिखाने की प्रवृत्ति के अनुसार उपाध्यायजी ने अपने इस काव्य में कई जगह संस्कृत शब्दों की ऐसी लंबी लड़ी बाँधी है कि हिंदी को 'है', 'था', 'किया', 'दिया' ऐसी दो-एक क्रियाओं के भीतर ही सिमटकर रह जाना पड़ा है। पर सर्वत्र यह बात नहीं है। अधिकतर पदों में बड़े ढंग से हिंदी अपनी चाल पर चल चलती दिखाई पड़ती है।

यह काव्य अधिकतर भाव-व्यंजनात्मक और वर्णनात्मक है। कृष्ण के चले जाने पर ब्रज की दशा का वर्णन बहुत अच्छा है। विरह-वेदना से क्षुब्ध वचनावली प्रेम की अनेक अंतर्दशाओं की व्यंजना करती हुई बहुत दूर तक चली चलती है। जैसा कि इसके नाम से प्रकट है, इसकी कथा-वस्तु एक महाकाव्य क्या अच्छे प्रबंध-काव्य के लिये भी अपर्याप्त है। अतः प्रबंधु-काव्य के सब अवयव इसमें कहाँ आ सकते? किसी के वियोग में कैसी कैसी बातें-मन में उठती हैं और क्या क्या कहकर लोग रोते हैं, इसका जहाँ तक विस्तार हो सका है, किया गया है। परंपरा-पालन के लिये जो दृश्य-वर्णन हैं वे किसी बगीचे में लगे हुए पेड़-पौधो के नाम गिनाने के समान हैं। इसी से शायद करील का नाम छूट गया।

[ ६११ ]दो प्रकार के नमूने उद्धृत करके हम आगे बढ़ते हैं––

रूपोद्यान प्रफुल्ल-प्राय कलिंका राकेंदू-बिंबानना।
तन्वंगी कलहासिनी सुरसिका क्रीड़ा-कला-पुत्तली॥
शोभा-वारिधि की अमूल्य मणि सी लावण्य-लीलामयी।
श्रीराधा मृदुभाषिणी मृदुदृगी माधुर्य-सन्मूर्ति थी॥


धीरे-धीरे दिन गत हुआ; पद्मिनीनाथ डूबे।
आई दोषा, फिर गत हुई, दूसरा वार आया॥
यों ही बीती विपुल घटिका औ कई वार बीते।
आया न कोई मधुपुर से औ न गोपाल आए॥

इस काव्य के उपरांत उपाध्यायजी का ध्यान फिर बोलचाल की ओर गया। इस बार उनका मुहावरों पर अधिक जोर रहा। बोलचाल की भाषा में उन्होंने अनेक फुटकल विषयों पर कविताएँ रचीं जिनकी प्रत्येक पंक्ति में कोई न कोई मुहावरा अवश्य खपाया गया। ऐसी कविताओं का संग्रह 'चोखे चौपदे' (सं॰ १९८९) में निकला। 'पद्यप्रसून' (१९८२) में भाषा दोनों प्रकार की है––बोलचाल की भी और साहित्यिक भी। मुहावरों के नमूने के लिये "चोखे चौपदे" का एक पद्य दिया जाता है––

क्यों पले पीस कर किसी को तू?
है बहुत पालिसी बुरी तेरी।
हम रहे चाहते, पटाना ही;
पेट तुझसे पटी नहीं मेरी॥

भाषा के दोनों नमूने ऊपर हैं। यही द्विकलात्मक कला उपाध्यायजी की बड़ी विशेषता है। इससे शब्द-भंडार पर इनका विस्तृत अधिकार प्रकट होता है। इनका एक और बड़ा काव्य, 'वैदेही-वनवास'[३], जिसे ये बहुत दिनों से लिखते चले आ रहे थे, अब छप रहा है। [ ६१२ ]इस द्वितीय उत्थान के आरंभ-काल में हस पंडित महावीरप्रसादजी द्विवेदी को पद्य-रचना की एक प्रणाली के प्रवर्तक के रूप में पाते हैं। गद्य पर जो शुभ प्रभाव द्विवेदीजी का पड़ा, उसका उल्लेख गद्य के प्रकरण में हो चुका है[४]। खड़ी बोली के पद्य-विधान पर भी आपका पूरा पूरा असर पड़ा। पहली बात तो यह हुई कि उनके कारण भाषा में बहुत कुछ सफाई आई। बहुत से कवियों की भाषा शिथिल और अव्यवस्थित होती थी और बहुत से लोग ब्रज और अवधी आदि का मेल भी कर देते थे। 'सरस्वती' के संपादन-काल में उनकी प्रेरणा से बहुत से नए लोग खड़ी बोली में कविता करने लगे। उनकी भेजी हुई कविताओं की भाषा आदि दुरुस्त करके वे 'सरस्वती' में दिया करते थे। इस प्रकार के लगातार संशोधन से धीरे धीरे बहुत से कवियों की भाषा साफ हो गई। उन्हीं नमूनों पर और लोगों ने भी अपना सुधार किया है।

यह तो हुई भाषा-परिष्कार की बात। अब उन्होंने पद्य-रचना की जो प्रणाली स्थिर की, उसके संबंध में भी कुछ विचार कर लेना चाहिए। द्विवेदी-जी कुछ दिनों तक बंबई की ओर रहे थे जहाँ मराठी के साहित्य से उनका परिचय हुआ। उसके साहित्य का प्रभाव उनपर बहुत कुछ पड़ा। मराठी कविता में अधिकतर संस्कृत के वृत्तों का व्यवहार होता है। पद-विन्यास भी प्रायः गद्य का सा ही रहता है। बंगभाषा की-सी 'कोमलकांतपदावली' उसमें नहीं पाई जाती। इस मराठी के नमूने पर द्विवेदीजी ने हिंदी में पद्य-रचना शुरू की। पहले तो उन्होंने ब्रजभाषा का ही अवलंबन किया। नागरीप्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित 'नागरी तेरी यह दशा!" और रघुवंश का कुछ आधार लेकर रचित "अयोध्या का विलाप" नाम की उनकी कविताएँ संस्कृत वृत्तों में पर ब्रजभाषा में ही लिखी गई थीं। जैसे––

श्रीयुक्त नागरि निहारि दशा तिहारी।
होवै विषाद मैंने माहिं अतीव भारी॥


[ ६१३ ]

प्रकार जानु नभ-मंडल में समाने।
प्राचीर जासु लखि लोकप हू सकाने॥
जाकी समस्त सुनि संपत्ति की कहानी।
नीचे नबाय सिर देवपुरी लजानी॥

इधर आधुनिक काल में ब्रजभाषा-पद्य के लिये संस्कृत वृत्तों का व्यवहार पहले-पहल स्वर्गीय पं॰ सरयूप्रसाद मिश्र ने रघुवंश महाकाव्य के अपने 'पद्य-बद्ध भाषानुवाद' में किया था जिसका प्रारभिक अंश भारतेंदु की "कवि वचन-सुधा" में प्रकाशित हुआ था। पूरा अनुवाद बहुत दिनों पीछे संवत् १९६८ में पुस्तकाकार छपा। द्विवेदीजी ने आगे चलकर ब्रजभाषा: एकदम छोड़ ही दी और खड़ी बोली में ही काव्य-रचना करने लगे।

मराठी का संस्कार तो था ही, पीछे जान पड़ता है, उनके मन में वर्ड्स्वर्थ (wordsworth) का यह पुराना सिद्धांत भी कुछ जम गया था कि "गद्य और पद्य का पद-विन्यास एक ही प्रकार का होना चाहिए। पर यह प्रसिद्ध बात है कि वर्ड्स्वर्थ की वह सिद्धांत असंगत सिद्ध हुआ था और वह अपनी उत्कृष्ट कविताओं में उसका पालन न कर सका था। द्विवेदीजी ने भी बराबर उक्त सिद्धांत के अनुकूल रचना नहीं की है। अपनी कविताओं के बीच-बीच में सानुप्रास कोमल पदावली का व्यवहार उन्होंने किया है। जैसे––

सुरन्यरूप, रसराशि-रंजिते,
विचित्र-वर्णाभरणे! कहाँ गई?
अलौकिकानंदविधायिनी महा
कवींद्वकाते, कविते! अहो कहाँ?
मांगल्य-मूलमय वारिद-दारि-वृष्टि॥

पर उनका जोर बराबर इस बात पर रहता था कि कविता बोल-चाल की भाषा में होनी चाहिए। बोल-चाल से उनका मतलब ठेठ या हिंदुस्तानी का नहीं रहता था, गद्य की व्यावहारिक भाषा का रहता था। परिणाम यह हुआ कि उनकी भाषा बहुत अधिक गद्यवत् (Prosaic) हो गई। पर जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है––"गिरा-अर्थ जलवीचि सम कहियत भिन्न [ ६१४ ]न भिन्न"––भाषा से विचार अलग नहीं रह सकता। उनकी अधिकतर कविताएँ इतिवृत्तात्मक (Matter of fact) हुई। उनमें वह लाक्षणिकता, वह चित्रमयी भावना और वह वक्रता, बहुत कम आ पाई जो रस-संचार की गति को तीव्र और मन को आकर्षित करती है। 'यथा', 'सर्वथा', 'तथैव' ऐसे शब्दों के प्रयोग ने उनकी भाषा को और भी अधिक गद्य का स्वरूप दे दिया।

यद्यपि उन्होंने संस्कृत वृत्तों का व्यवहार अधिक किया है पर हिंदी के कुछ चलते छंदों में भी उन्होंने बहुत सी कविताएँ (जैसे विधि-विडंबना) रची हैं जिनसे संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी कम है। अपना "कुमारसंभव सार" उन्होंने इसी ढंग पर लिखा है। कुमारसंभव का यह अनुवाद बहुत ही उत्तम हुआ है। इसमें मूल के भाव बड़ी सफाई से आए हैं। संस्कृत के अनुवादों में मूल का भाव लाने के प्रयत्न में भाषा में प्रायः जटिलता आ जाया करती हैं। पर इससे यह बात जरा भी नहीं है। ऐसा साफ-सुथरा दुसरा अनुवाद जो मैंने देखा है, वह पं॰ केशवप्रसादजी मिश्र का 'मेघदूत' है। द्विवेदीजी की रचनाओं के दो नमूने देकर हम आगे बढ़ते हैं––

आरोग्ययुक्त बलयुक्त सुपुष्ट गात,
ऐसा जहाँ युवक एक न दृष्टि आता।
सारी प्रजा निपट दीनदुखी जहा है,
कर्तव्य क्या न कुछ भी तुझको वहाँ है?


इंद्रासन के इच्छुक किसने करके तप अतिशय भारी,
की उत्पन्न असूया तुझमें, मुझसे कहो कथा सारी।
मेरा यह अनिवार्य शरासन पाँच-कुसुम-सायक-धारी,
'अभी' बना लेवे तत्क्षण ही उसको निज आज्ञाकारी॥

द्विवेदीजी की कविताओं को संग्रह "काव्यमंजूषा" नाम की पुस्तक में हुआ है। उनकी कविताओं के दूसरे संग्रह का नाम 'सुमन' है।

द्विवेदीजी के प्रभाव और प्रोत्साहन से हिंदी के कई अच्छे अच्छे कवि [ ६१५ ]निकले जिनमें बाबू मैथिलीशरण गुप्त, पं॰ रामचरित उपाध्याय और पं॰ लोचनप्रसाद पांडेय मुख्य हैं।

'सरस्वती' का संपादन द्विवेदीजी के हाथ में आने के प्रायः तीन वर्ष पीछे (सं॰ १९६३ से) बाबू मैथिलिशरण गुप्त की खड़ी बोली की कविताएँ उक्त पत्रिका में निकलने लगीं और उनके संपादनकाल तक बराबर निकलती रहीं। संवत् १९६६ में उनका 'रंग में भंग' नामक एक छोटा सा प्रबंध-काव्य प्रकाशित हुआ जिसकी रचना चित्तौड़ और बूँदी के राजघरानों से संबंध रखनेवाली राजपूती आन की एक कथा को लेकर हुई थी। तब से गुप्तजी का ध्यान प्रबंधकाव्यों की ओर बराबर रहा और वे बीच बीच में छोटे या बड़े प्रबंध-काव्य लिखते रहे। गुप्तजी की ओर पहले-पहल हिंदी-प्रेमियों का सबसे अधिक ध्यान खींचनेवाली उनकी 'भारत-भारती' निकली। इसमें 'मुसद्दस हाली' के ढंग पर भारतीयों की या हिंदुओं की भूत और वर्तमान दशाओं की विषमता दिखाई गई है; भविष्य-निरूपण का प्रयत्न नहीं है। यद्यपि काव्य की विशिष्ट पदावली, रसात्मक चित्रण, वाग्वैचित्र्य इत्यादि का विधान इसमें न था, पर बीच बीच में मार्मिक तथ्यों का समावेश बहुत साफ और सीधी-सादी भाषा में होने से यह स्वदेश की ममता से पूर्ण नवयुवकों को बहुत प्रिय हुई। प्रस्तुत विषय को काव्य का पूर्ण स्वरूप न दे सकने पर भी इसने हिंदी-कविता के लिये खड़ी बोली की उपयुक्तता अच्छी तरह सिद्ध कर दी। इसी के ढंग पर बहुत दिनों पीछे इन्होंने 'हिंदू' लिखा। 'केशों की कथा', 'स्वर्ग-सहोदर' इत्यादि बहुत सी फुटकल रचनाएँ इनकी 'सरस्वती' में निकली हैं, जो 'मंगल घट' में संग्रहीत हैं।

प्रबंध-काव्यों की परंपरा इन्होंने बराबर जारी रखी। अब तक ये नौ-दस छोटे-बड़े प्रबंध-काव्य लिख चुके हैं जिनके नाम हैं––रंग में भंग, जयद्रथ वध, विकट भट, पलासी का युद्ध, गुरुकुल, किसान, पंचवटी, सिद्धराज, साकेत, यशोधरा। अंतिम दो बड़े काव्य हैं। 'विकट भट' में जोधपुर के एक राजपूत सरदार की तीन पीढ़ियों तक चलनेवाली बात की टेक की अद्भुत पराक्रमपूर्ण कथा है। 'गुरुकुल' में सिख गुरुओं के महत्त्व का वर्णन है। छोटे काव्यों में 'जयद्रथ-वध' और 'पंचवटी' का स्मरण अधिकतर लोगों को [ ६१६ ]है। गुरुजी के छोटे काव्यों की प्रसंग-योजना भी प्रभावशालिनी है और भाषा भी बहुत साफ सुथरी है।

'वैतालिक' की रचना उस समय हुई जब गुरुजी की प्रवृत्ति खड़ी बोली में गीत काव्य प्रस्तुत करने की ओर भी हो गई।

यद्यपि गुप्तजी जगत् और जीवन के व्यक्त क्षेत्र में ही महत्व और सौंदर्य का दर्शन करनेवाले तथा अपने राम को लोक के बीच अधिष्ठित देखनेवाले कवि हैं, पर तृतीय उत्थान में 'छायावाद' के नाम से रहस्यात्मक कविताओं का कलरव सुन इन्होंने भी कुछ गीत रहस्यवादियों के स्वर में गाए जो 'झंकार' से संगृहीत हैं। पर असीम के प्रति उत्कंठा और लंबी-चौड़ी वेदना का विचित्र प्रदर्शन गुप्तजी की अंतः प्रेरित प्रवृत्ति के अंतर्गत नहीं। काव्य का एक मार्ग चलता देख ये उधर भी जा पड़े।

'साकेत' और 'यशोधरा' इनके दो बड़े प्रबंध है। दोनों में-उनके काव्यत्व का तो पूरा विकास दिखाई पड़ता है, पर प्रबंधत्व की कमी हैं। बात यह है कि इनकी रचना उस समय हुई जब गुरुजी की प्रवृत्ति गीतकाव्य या नए ढंग के गीत मुक्तकों (Lyrics) की ओर हो चुकी थी। 'साकेत' की रचना तो मुख्यतः इस उद्देश्य से हुई कि उर्मिला 'काव्य की उपेक्षिता' न रह जाय। पूरे दो सर्ग (९ और १०) उसके वियोग-वर्णन में खप गए हैं। इस वियोग-वर्णन के भीतर कवि ने पुरानी पद्धति के आलंकारिक चमत्कारपूर्ण पद्य तथा आजकल की नई रंगत की वेदना और लाक्षणिक वैचित्र्यवाले गीत दोनों रखे हैं। काव्य का नाम 'साकेत' रखा गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि इसमें अयोध्या में होनेवाली घटनाओं और परिस्थितियों का ही वर्णन प्रधान है। राम के अभिषेक की तैयारी मे लेकर चित्रकूट में राम-भरत-मिलन तक की कथा आठ सर्गो तक चलती है। इसके उपरांत दो सर्गो तक उर्मिला की वियोगावस्था की नाना अंतर्वत्तियों का विस्तार हैं जिसके बीच बीच में अत्यंत उच्च भावों की व्यंजना है। सूरदास की गोपियाँ वियोग में कहती है कि––

मधुबन तुम कत रहत हरे?
बिरह-वियोग श्यामसुंदर के काहे न उकठि परे?

[ ६१७ ]पर उर्मिला कहती है––

रह चिर दिन तू हरी भरी ,
बढ़ सुख से बढ़, सृष्टि सुंदरी?

प्रेम के शुभ प्रभाव से उर्मिला के हृदय की उदारता का और भी प्रसार हो गया है। वियोग की दशा में प्रिय लक्ष्मण के गौरव की भावना उसे सँभाले हुए है। उन्माद की अवस्था में जब लक्ष्मण उसे सामने खड़े जान पड़ते हैं तब उस भावना को गहरा आघात पहुँचता है, और वह व्याकुल होकर कहने लगती है––

प्रभु नही फिरे, क्या तुम्हीं फिरे?
हम गिरे, अहो! तों गिरे, गिरे।

दंडकारण्य से लेकर लंका तक की घटनाएँ शत्रुघ्न के मुँह से मांडवी और भरत के सामने पूरी रसात्मकता के साथ वर्णन कराई गई हैं। रामायण के भिन्न भिन्न पात्रों के परंपरा से प्रतिष्ठित स्वरूपों को विकृत न करके उनके भीतर ही आधुनिक आंदोलनों की भावनाएँ––जैसे किसानों और श्रमजीवियों के साथ सहानुभूति, युद्ध-प्रथा की मीमांसा, राज्य-व्यवस्था में प्रजा का अधिकार और सत्याग्रह, विश्वबंधुत्व, मनुष्यत्व––कौशल के साथ झलकाई गई हैं। किसी पौराणिक या ऐतिहासिक पात्र के परंपरा से प्रतिष्ठित स्वरूप को मनमाने ढंग पर विकृत करना हम भारी, अनाड़ीपन समझते है।

'यशोधरा' को रचना नाटकीय ढंग पर है। उसमे भगवान् बुद्ध के चरित्र से संबंध रखनेवाले पात्रों के उच्च और सुंदर भावों की व्यंजना और परस्पर कथोपकथन हैं, जिनमें कहीं कहीं गद्य भी हैं। भाव-व्यंजना प्रायः गीतों में है।

'द्वापर' में यशोदा, राधा, नारद, कंस, कुब्जा इत्यादि कुछ विशिष्ट व्यक्तियों की मनोवृत्तियों का अलग अलग मार्मिक चित्रण है। नारद और कंस की मनोवृत्तियों के स्वरूप तो बहुत ही विशद और समन्वित रूप में सामने रखे गए हैं।

गुप्तजीने 'अनघ', 'तिलोत्तमा' और 'चंद्रहास' नामक तीन छोटे छोटे पद्यबद्ध रूपक भी लिखे हैं। 'अनघ' में कवि ने लोक-व्यवस्था के संबंध में उठी [ ६१८ ]हुई आधुनिक भावनाओं और विचारों का अवस्थान––प्राचीनकाल के भीतर ले जाकर किया है। वर्तमान किसान आंदोलन का रंग प्रधान है।

गुप्तजी की प्रतिभा की सबसे बड़ी विशेषता है कालानुसरण की क्षमता अर्थात् उत्तरोत्तर बदलती हुई भावनाओं और काव्य-प्रणालियों को ग्रहण करते चलने की शक्ति। इस दृष्टि से हिंदी-भाषी जनता के प्रतिनिधि कवि ये निसंदेह कहे जा सकते हैं। भारतेंदु के समय से स्वदेश-प्रेम की भावना जिस रूप में चली आ रही थी उसका विकास 'भारत-भारती' में मिलता है। इधर के राजनीतिक आंदोलनों ने जो रूप धारण किया उसका पूरा आभास पिछली रचनाओं में मिलता है। सत्याग्रह, अहिंसा, मनुष्यत्ववाद, विश्वप्रेम,किसानों और श्रमजीवियों के प्रति प्रेम और सम्मान सबकी झलक हम पाते हैं।

गुप्तजी की रचनाओं के भीतर तीन अवस्थाएँ लक्षित होती हैं। प्रथम अवस्था भाषा की सफाई की है जिसमें खड़ी बोली के पद्यों की मंसुणबंध रचना हमारे सामने आती हैं। 'सरस्वती' में प्रकाशित अधिकांश कविताएँ तथा 'भारत-भारती' इसे अवस्था की रचना के उदाहरण हैं। ये रचनाएँ काव्य प्रेमियों को कुछ गद्यवत्, रूखी और इतिवृत्तात्मक लगती थीं। इनसे सरस और कोमल पदावली की कमी भी खटकती थी। बात यह है कि यह खड़ी बोली के परिमार्जन का काल था। इसके अनंतर गुप्तजी ने बंगभाषा की कविताओं का अनुशीलन तथा मधुसूदन दत्त रचित ब्रजागंना, मेघनाद-बध आदि का अनुवाद भी किया। इससे इनकी पदावली में बहुत कुछ सरसता और कोमलता आई, यद्यपि कुछ ऊबड़-खाबड़ और अव्यवह्यत संस्कृत शब्दों की ठोकरें कहीं कहीं, विशेषतः छोटे छंदों के चरणांत में, अब भी लगती है। 'भारत-भारती' और 'बैतालिक' के बीच की रचनाएँ इस दूसरी अवस्था के उदारहण में ली जा सकती हैं। उसके उपरांत 'छायावाद' कही जानेवाली कविताओं का चलन होता है और गुप्तजी का कुछ झुकाव प्रगीत मुक्तकों (Lyrics) और अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्र्य की ओर भी हो जाता हैं। इस झुकाव का आभास 'साकेत' और 'यशोधरा' में भी पाया जाता हैं। यह तीसरी अवस्था है।

गुप्तजी वास्तव में सामंजस्यवादी कवि हैं; प्रतिक्रिया का प्रदर्शन करनेवाले [ ६१९ ]अथवा मद में झूमने (या 'झीमने') वाले कवि नहीं। सब प्रकार की उच्चता से प्रभावित होनेवाला हृदय उन्हें प्राप्त है। प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह, दोनों इनमें हैं। इनकी रचना के कई प्रकार के नमूने नीचे दिए जाते हैं––

क्षत्रिय! सुनो, अब तो कुयश की कालिमा को मेट दो।
निज-देश को जीवन सहित तन मन तथा धन भेंट दो।
वैश्यो! सुनो व्यापार सार मिट चुका है देश का।
सब धन विदेशी हर रहे हैं, पार है क्या क्लेश का?

(भारत-भारती)


थे, हो और रहोगे जब तुम, थी, हूँ और सदैव रहूँगी।
कल निर्मल जल की धारा सी आज यहाँ, कल वहाँ बहूँगी।
दूती! बैठी हूँ सज कर मैं।
ले चल शीघ्र मिलूँ प्रियतम से धाम धरा धन सब तज कर मैं।

****

अच्छी आँख-मिचौनी खेली!
बार बार तुम छिपो और मैं खोजूँ तुम्हें अकेली।

****

निकल रही है उर से आह।
ताक रहे सब तेरी राह।

चातक खड़ा चोंच खोले है, संपुट खोले सीप खड़ी,
मैं अपना घट लिए खड़ी हूँ, अपनी अपनी हमें पड़ी।

(झंकार)


पहले आँखों में थे, मानस में कूद मग्न प्रिय अब थे।
छींटे वही उड़े थे, बड़े-बड़े अश्रु वे कब थे।

****

[ ६२० ]

सखी, नील नभस्सर से उतरा यह हंस अहा! तरता तरता।
अह तारक-मौक्तिक शेष नहीं, निकला जिनको चरता चरता।
अपने हिमबिंदु बचे तब भी चलता उनको धरता धरता।
गढ़ जायँ न कटक भूतल के, कर डाल रही ढरता डरता।
आकाशजाल सब ओर तना, रवि तंतुवाय है आज बना;
करता है पद-प्रहार वही, मक्खी सी भिन्ना रही मही।

घटना हो चाहे घटा, उठ नीचे से नित्य।
आती है ऊपर, सखी! छा कर चंद्रादित्य॥
इंद्रवधू अपने लगी क्यों निज स्वर्ग विहाय।
नन्हीं दूबों का हृदय निकल पड़ा यह हाय॥
इस उत्पल से काय में, हाय! उबल से प्राण।
रहने दे बक ध्यान यह, पावें ये दृग त्राण॥
xxxx

वेदने! तू भी भली बनी।
पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी।
अरी वियोग-समाधि अनोखी, तू क्या, ठीक ठनी।
अपने को, प्रिय को, जगती को देखूँ खिंची तनी।
xxxx

हा! मेरे कुंजों का कूजन रोकर, निराश होकर सोया।
वह चंद्रोदय उसको उढ़ा रहा है धवल वसन-सा धोया॥
xxxx

सखि, निरख नदी की धारा,
ढलमल ढलमल चंचल अंचल, झलमल झलमल तारा।
निर्मल जल अंतस्तल भरके, उछल उछल कर छल छल करके,
थल थल तर के, कल कल धर के बिखरती है पारा।
xxxx

ओ मेरे मानस के हास! खिल सहस्रदल, सरस सुवास।
xxxx

[ ६२१ ]

स्वजनि, रोता है और गान।
प्रिय तक नहीं पहुँच पाती है उसकी कोई तान।
xxxx
बस इसी प्रिय-कानन-कुंज में––मिलन भाषण के स्मृति पुंज में––
अभय छोड़ मुझे तुम दीजियो, हसन-रोदन से न पसीजियों।

('साकेत')

स्वर्गीय पं॰ रामचरित उपाध्याय का जन्म सं॰ १९२९ में गाजीपुर में हुआ था, पर पिछले दिनों में वे आजमगढ़ के पास एक गाँव में रहने लगे थे। कुछ वर्ष हुए,उनका देहांत हो गया। वे संस्कृत के अच्छे पंडित ये और पहले पुराने ढंग की हिंदी-कविता की ओर उनकी रुचि थी। पीछे 'सरस्वती' में जब खड़ी बोली की कविताएँ निकलने लगीं तब वे नए ढंग की रचना की ओर बढ़े और द्विवेदीजी के प्रोत्साहन से बराबर उक्त पत्रिका में अपनी रचनाएँ भेजते रहे। 'राष्ट्र-भारती', 'देवदूत', 'देवसभा', 'देवी द्रौपदी', 'भारत भक्ति', 'विचित्र विवाह' इत्यादि अनेक कविताएँ उन्होंने खड़ी बोली में लिखी है। छोटी कविताएँ अधिकतर विदग्ध भाषण के रूप में हैं। 'रामचरित-चिंतामणि' नामक एक बड़ा प्रबंधकाव्य भी उन्होंने लिखा है जिसके कई एक प्रसंग बहुत सुंदर बन पढ़े है जैसे––'अंगद-रावण-संवाद'। भाषा उनकी साफ होती थी और कुछ वैदग्ध्य के साथ चलती थी। अंगद-रावण-संवाद की ये पंक्तियाँ देखिए––

कुशल से रहना यदि है तुम्हे, दनुज! तो फिर गर्व न कीजिए।
शरण में गिरिए रघुनाथ के; निबल के बल केवल राम हैं।
xxxx
सुन कपे! यम इद्र, कुबेर की न हिलती रसना 'मम' सामने।
तदपि आज मुझे करना पड़ा मनुज-सेवक से बकवाद भी।
यदि कपे! मम राक्षस-राज को स्तवन हे तुझसे न किया गया।
कुछ नहीं डर है; पर क्यों वृथा निलज। मानव-मान बढ़ा रहा?

दूसरे संस्कृत के विद्वान् जिनकी कविताएँ 'सरस्वती' में बराबर छपती रहीं [ ६२२ ]झालरापाटन के पं॰ गिरिधर शर्मा नवरत्न है। 'सरस्वती' के अतिरिक्त हिंदी के और पत्रों तथा पत्रिकाओं में भी ये अपनी कविताएँ भेजते रहे। राजपूताने से निकलनेवाले 'विद्याभास्कर' नामक एक पत्र का संपादन भी इन्होंने कुछ दिन किया था। मालवा और राजपूताने में हिंदी-साहित्य के प्रचार में इन्होंने बड़ा काम किया हैं। नवरत्न जी संस्कृत के भी अच्छे कवि हैं। गोल्डस्मिथ के Hermit या 'एकांतवासी योगी' का इन्होंने संस्कृत श्लोकों में अनुवाद किया है। हिंदी में भी इनकी रचनाएँ कम नहीं। कुछ पुस्तकें लिखने के अतिरिक्त अनुवाद भी कई पुस्तकों का किया है। रवींद्र बाबू की 'गीतांजलि' का हिंदी- पद्यों में इनका अनुवाद बहुत पहले निकला था। माघ के 'शिशुपाल-बध' के दो सर्गो का अनुवाद 'हिंदी माघ' के नाम से इन्होंने संवत् १९८५ में किया था। पहले थे ब्रजभाषा के कवित्त आदि रचते थे जिनमे कहीं कहीं खड़ी बोली का भी आभास रहता था। शुद्ध खड़ी बोली के भी कुछ कवित्त इनके मिलते है। 'सरस्वती' में प्रकाशित इनकी कविताएँ अधिकतर इतिवृत्तात्मक या गद्यवत् हैं, जैसे––

मैं जो नया ग्रंथ विलोकता हूँ, भाता मुझे सो नव मित्र सा है।
देखूँ उसे मैं नित बार बार, मानों मिला मित्र मुझे पुराना॥
'ब्राह्मन्, तजो पुस्तक-प्रेम आप, देता अभी हूँ यह राज्य सारा।'
कहे मुझे यों यदि चक्रवती, एसा न राजन्! कहिए', कहूँ मैं॥

पं॰ लोचनप्रसाद पांडेय बहुत छोटी अवस्था से कविता करने लगे थे। संवत् १९६२ से इनकी कविताएँ 'सरस्वती' तथा और मासिक पत्रिकाओं में निकलने लगी थीं। इनकी रचनाएँ कई ढंग की हैं–कथा-प्रबंध के रूप में भी और फुटकल प्रसंग के रूप में भी। चित्तौड़ के भीमसिंह के अपूर्व स्वत्वत्याग की कथा नंददास की रासपंचाध्यायी के ढंग पर इन्होंने लिखी है। "मृग दुःखमोचन" में इन्होंने खड़ी बोली के सवैयों में एक मृगी की अत्यंत दारुण परिस्थिति का वर्णन सरस भाषा में किया है जिससे-पशुओं तक पहुँचनेवाली इनकी व्यापक और सर्वभूत-दयापूर्ण काव्यदृष्टि का पता चलता है। इनका हृदय कहीं कहीं पेड़ो-पौधो तक की दशा का मार्मिक अनुभव करता पाया [ ६२३ ]जाता है। यह भावुकता इनकी अपनी है। भाषा की गद्यवत् सरल सीधी गति उस रचना-प्रवृत्ति का पता देती है जो द्विवेदीजी के प्रभाव से उत्पन्न हुई थी। पर इनकी रचनाओं में खड़ी बोली की वैसा स्वच्छ और निखरा रूप नहीं मिलता जैसा गुप्तजी की उस समय की रचनाओं में मिलता है। कुछ पंक्तियाँ उद्धृत की जाती हैं––

चढ़ जाते पहाड़ों में जाके कभी, कभी झाड़ों के नीचे फिरे विचरें।
कभी कोमल पत्तियाँ खाया करें, कभी मीठी हरी हरी घास चरें॥
सरिता-जल में प्रतिबिंब लखें निज, शुद्ध कहीं जल पान करें।
कहीं मुग्ध हो झर्झर निर्भर से तरु-कुंज में जो तप-ताप हरें॥
रहती जहाँ शाल रसाल तमाल के पादपों की अति छाया घनी।
चर के तृण आते, थके वहाँ बैठते थे मृग औ उसकी घरनी॥
पगुराते हुए दृग मूँदे हुए वे मिटाते थकावट थे अपनी।
खुर से कभी कान खुजाते, कभी सिर सींग पै धारते थे टहनी॥

(मृगीदुःखमोचन)


सुमन विटप वल्ली काल की क्रूरता से।
झुलस जब रही थीं ग्रीष्म की उग्रता से॥
उस कुसमय में हा! भाग्य-आकास तेरा।
अयि नव लतिके! था घोर आपत्ति-घेरा॥
अब तव बुझता था जीवलोक तेरा।
यह लख उर होता दुःख से दग्ध मेरा॥

इन प्रसिद्ध कवियों अतिरिक्त और न जाने कितने कवियों ने खड़ी बोली में फुटकल कविताएँ लिखीं जिनपर द्विवेदीजी का प्रभाव स्पष्ट झलकता था। ऐसी कविताओं से मासिक पत्रिकाएँ भी रहती थी। जो कविता को अपने से दूर की वस्तु समझते थे वे भी गद्य में चलनेवाली भाषा को पद्यबद्ध करने का अभ्यास करने लगे। उनकी रचनाएँ बराबर प्रकाशित होने लगीं। उनके संबंध में यह स्पष्ट समझ रखना चाहिए कि वे अधिकतर इतिवृत्तात्मक गद्य[ ६२४ ]निबंध के रूप में होती थीं। फल इसका यह हुआ काव्य-प्रेमियों को उनमें काव्यत्व नहीं दिखाई पड़ता था और वे खड़ी बोली की अधिकांश कविता को 'तुकबंदी' मात्र समझते लगे थे। आगे चलकर तृतीय उत्थान में इस परिस्थिति के विरुद्ध गहरा प्रतिवर्तन (Reaction) हुआ।

यहाँ तक तो उन कवियों का उल्लेख हुआ जिन्होंने द्विवेदीजी के प्रोत्साहन से अथवा उनके आदर्श के अनुकून रचनाएँ कीं पर इस द्वितीय उत्थान के भीतर अनेक ऐसे कवि भी बराबर अपनी वाग्धारा बहाते रहे जो अपना स्वतंत्र मार्ग पहले से निकाल चुके थे और जिनपर द्विवेदी जी का कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता।



द्विवेदी-मंडल के बाहर की काव्य-भूमि

द्विवेदीजी के प्रभाव से हिंदी-काव्य ने जो स्वरूप प्राप्त किया उसके अतिरिक्त और अनेक रूपों में भी भिन्न भिन्न कवियों की काव्य-धारा चलती रही। कई एक बहुत अच्छे कवि अपने अपने ढंग पर सरस और प्रभावपूर्ण कविता करते रहे जिनमें मुख्य राय देवीप्रसाद 'पूर्ण', पं॰ नाथूराम शंकर शर्मा, पं॰ गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही', पं॰ सत्यनारायण कविरत्न लाला भगवानदीन, पं॰ रामनरेश त्रिपाठी, पं॰ रूपनारायण पांडेय हैं।

इन कवियों में से अधिकांश तो दो-रंगी कवि थे जो ब्रजभाषा में तो शृंगार वीर, भक्ति आदि की पुरानी परिपाटी की कविता कवित्त-सवैयों या गेय पदों में करते आते थे और खड़ी बोली में नूतन विषयों को लेकर चलते थे। बात यह थी कि खड़ी बोली का प्रचार बराबर बढ़ता दिखाई देता था और काव्य के प्रवाह के लिये कुछ नई नई भूमियाँ भी दिखाई पड़ती थीं। देश-दशा, समाज-दशा, स्वदेश-प्रेम, आचरण-संबंधी उपदेश आदि ही तक नई धारा की कविता न रहकर जीवन के कुछ और पक्षों की ओर भी बढ़ी , पर गहराई के साथ नहीं। त्याग, वीरता, उदारता, सहिष्णुता इत्यादि के अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक प्रसंग पद्यबद्ध हुए जिनके बीच बीच में जन्मभूमि-प्रेम, स्वजाति-गौरव, आत्म-संमान की व्यंजन करने वाले जोशीले भाषण [ ६२५ ]रखे गए। जीवन की गूढ, मार्मिक या रमणीय परिस्थितियाँ झलकाने के लिये नूतन कथा-प्रसंगों की कल्पना या उद्भावना की प्रवृत्ति नहीं दिखाई पड़ी। केवल पं॰ रामनरेश त्रिपाठी ने कुछ ध्यान कल्पित प्रबंध की ओर दिया।

दार्शनिकता का पुट राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' की रचनाओं में कहीं कहीं दिखाई पड़ता है, पर किसी दार्शनिक तथ्य को हृदय-ग्राह्य रसात्मक रूप देने का प्रयास उनमें भी नहीं पाया जाता। उनके "वसंत-वियोग" में भारत दशा-सूचक प्राकृतिक विभूति के नाना चित्रों के बीच बीच में कुछ दार्शनिक तत्त्व रखे गए हैं और अंत में आकाशवाणी द्वारा भारत के कल्याण के लिये कर्मयोग और भक्ति का आदेश दिलाया गया है। प्रकृति-वर्णन की और हमारा काव्य कुछ अधिक अग्रसर हुआ पर प्रायः वहीं तक रहा जहाँ तक उसका संबंध मनुष्य के सुख-सौंदर्य की भावना से हैं। प्रकृति के जिन सामान्य रूपों के बीच नर-जीवन का विकास हुआ है, जिन रूपों से हम बराबर घिरते आए हैं उनके प्रति वह राग या ममता न व्यक्त हुई जो चिर सहचरों के प्रति स्वभावतः हुआ करती है। प्रकृति के प्रायः वे ही चटकीले भड़कीले रुप लिए गए जो सजावट के काम के समझे गए। सारांश यह कि जगत् और जीवन के नाना रूपों और तथ्यों के बीच हमारे हृदय का प्रसार करने में वाणी वैसी तत्पर न दिखाई पड़ी।

राय देवीप्रसाद "पूर्ण" का उल्लेख 'पुरानी धारा' के भीतर हो चुका है, वे ब्रजभाषा-काव्य-परंपरा के बहुत ही प्रौढ़ कवि थे और जब तक जीवित रहे, अपने 'रसिक समाज' द्वारा उस परंपरा की पूरी चहल-पहल बनाए रहे। उक्त समाज की ओर से 'रसिकवाटिका' नाम की एक पत्रिका निकलती थी। जिसमें उस समय के प्रायः सब ब्रजभाषा कवियों की सुंदर रचनाएँ छपती थीं। जब संवत् १९७७ में पूर्णजी का देहावसान हुआ उस समय उक्त पत्रिका निरवलंब सा हो गया और––

रसिक समाजी ह्वै चकोर चहुँ-ओर हेरैं,
कविता को पूरन कलानिधि कितै गयो। (रतनेश)

'पूर्ण' जी सनातनधर्म के बड़े उत्साही अनुयायी तथा अध्ययनशील व्यक्ति [ ६२६ ]

कर देते हैं बाहर भुनगो का परिवार,
तब करते हैं कीश उदुंबर का आहार।

पक्षीगृह विचार तरुगण को नहीं हिलाते हैं गजवृंद।
हंस भृंग-हिंसा के भय से खाते नई बंद अरविंद॥

धेनुवत्स जब छक जाते हैं पीकर छीर,
तब कुछ दुहते है, गौऔं को चतुर अहीर।

लेते हैं हम मधुकोशों से मधु जो गिरे आप ही आप।
मक्खी तक निदान इस थल की पाती नहीं कभी संताप॥

(वसंत-वियोग)

सरकारी कानून को रखकर पूरा ध्यान।
कर सकते हो देश का सही तरह कल्याण॥
सभी तरह कल्यान देश का कर सकते हो।
करके कुछ उद्योग सोग सब हर सकते हो॥
जो हो तुम में जान, आपदा भारी सारी।
हो सकती है दूर, नहीं बाधा सरकारी॥

पं॰ नाथूराम शंकर शर्मा का जन्म संवत् १९१६ में और मृत्यु १९८९ में हुई। वे अपना उपनाम 'शंकर' रखते थे और पद्यरचना में अत्यंत सिद्धहस्त थे। पं॰ प्रतापनारायण मिश्र के वे साथियों में थे और उस समय के कवि-समाजों में बराबर कविता पढ़ा करते थे। समस्या-पूर्ति वे बड़ी ही सटीक और सुंदर करते थे जिससे उनका चारों ओर पदक, पगड़ी, दुशाले आदि से सत्कार होता था। 'कवि व चित्रकार', 'काव्य-सुधाधर', 'रसिक-मित्र' आदि पत्रों में उनकी अनूठी पूर्तियाँ और ब्रजभाषा की कविताएँ बराबर निकली करती थीं। छंदों के सुंदर नपे तुले विधान के साथ ही उनकी उद्भावनाएँ भी बड़ी अनूठी होती थीं। वियोग का यह वर्णन पढ़िए––

शंकर नदी नद नद्रीसन के नीरन की
भाप बन अंबर तें ऊँचो चढ़ जाएगी।
दोनों ध्रुव-छोरन लौं पल में पिघलकर
धूम धूम धरनी धुरी सी बढ़ जाएगी।

[ ६२७ ]

झारैंगे अँगारे ये तरनि तारे तारापति
जारैंगे खमंडल में आग मढ़ जाएगी।
काहू विधि विधि की बनावट बचैगी नाहिं
जो पै वा वियोगिनी की आह कढ़ जाएगी॥

पीछे खड़ी बोली का प्रचार होने पर वे उसमें भी बहुत अच्छी रचना करने लगे। उनकी पदावली कुछ उद्दंडता लिए होती थी। इसका कारण यह है कि उनका संबंध आर्य-समाज से रहा जिसमें अंधविश्वास और सामाजिक कुरीतियों के उग्र विरोध की प्रवृत्ति बहुत दिनों तक जाग्रत रही। उसी अंतर्वृत्ति का आभास उनकी रचनाओं में दिखाई पड़ता है। "गर्भरंडा-रहस्य" नामक एक बड़ा प्रबंध-काव्य उन्होंने विधवाओं की बुरी परिस्थिति और देवमंदिरों के अनाचार आदि दिखाने के उद्देश्य से लिखा था। उसका एक पद्य देखिए––

फैल गया हुरदंग होलिका की हलचल में।
फूल फूलकर फाग फला महिला-महल में॥
जननी भी तज लाज बनी ब्रजमक्खी सबकी।
पर मैं पिंड छुडाय जवनिका में जा दबकी॥

फबतियाँ और फटकार इनकी कविताओं की एक विशेषता है। फैशनवालों पर कही हुई "ईश गिरिजा को छोड़ि ईशु गिरिजा मे जाय" वाली प्रसिद्ध फबती इन्हीं की है। पर जहाँ इनकी चित्तवृत्ति दूसरे प्रकार की रही है, वहाँ की उक्तियाँ बड़ी मनोहर भाषा में हैं। यह कवित्त ही लीजिए––

तेज न रहेगा तेजधारियों का नाम को भी,
मंगल मयंक मंद मंद पड़ जायँगे।
मीन बिन मारे मर जायँगे सरोवर में,
डूब डूब 'शंकर' सरोज सड़ जायँगे॥
चौक चौंक चारों ओर चौकड़ी भरेंगे मृग,
खंजन खिलाड़ियों के पंख झड़ जायँगे।
बालों इन अँखियों की होड़ करने को अब,
कौन से अड़ीले उपमान अड़ जायँगे?

[ ६२८ ]थे। उपनिषद् और वेदांत में उनकी अच्छी गति थी। सभा समाजों के प्रति उनका बहुत उत्साह रहता था और उनके अधिवेशनों में वे अवश्य कोई न कोई कविता पढ़ते थे। देश मे चलनेवाले आंदोलनों (जैसे, स्वदेशी) को भी उनकी वाणी प्रतिध्वनित करती थी। भारतेंदु, प्रेमघन आदि प्रथम उत्थान के कवियों के समान पूर्णजी में भी देशभक्ति और राजभक्ति का समन्वय पाया जाता है। बात यह है कि उस समय तक देश के राजनीतिक प्रयत्नों में अवरोध और विरोध का बल नहीं आया था और लोगों की पूरी तरह धड़क नहीं खुली थी। अतः उनकी रचना में यदि एक ओर 'स्वदेशी' पर देशभक्ति-पूर्ण पद्य मिलें और दूसरी ओर सन् १९११ वाले दिल्ली दरबार के ठाटबाट का वर्णन, तो आश्चर्य न करना चाहिए।

प्रथम उत्थान के कवियों के समान 'पूर्ण' जी पहले नूतन विषयों की कविता भी ब्रजभाषा में करते थे; जैसे––

विगत आलस की रजनी भई। रुचिर उद्यम की द्युति छै गई॥
उदित सूरज है नव भाग को। अरुन रंग नए अनुराग को॥
तजि बिछीनन को अब भागिए। भरत खंड प्रजागण जागिए॥

इसी प्रकार 'संग्राम-निदा' आदि अनेक विषयों पर उनकी रचनाएँ ब्रज-भाषा में ही हैं। पीछे खड़ी बोली की कविता का प्रचार बढ़ने पर बहुत सी रचना उन्होंने खड़ी बोली में भी की, जैसे 'अमल्तास', 'वसंत-वियोग', 'स्वदेशी कुंडल', 'नए सन् (१९१०) का स्वागत', 'नवीन संवत्सर (१९६७) का स्वागत', इत्यादि। स्वदेशी, देशोद्धार आदि पर उनकी अधिकांश रचनाएँ इतिवृत्तात्मक पद्यों के रूप में हैं। 'वसंतवियोग' बहुत बड़ी कविता है जिसमे कल्पना अधिक सचेष्ट मिलती है। उसमें भारत-भूमि की कल्पना एक उद्यान के रूप में की गई है। प्राचीनकाल में यह उद्यान सत्त्व-गुण-प्रधान, तथा प्रकृति की सारी विभूतियों से संपन्न था और इसके माली देवतुल्य थे। पीछे मालियों के प्रमाद और अनैक्य से उद्यान उजड़ने लगता है। यद्यपि कुछ यशस्वी महापुरुष (विक्रमादित्य ऐसे) कुछ काल के लिये उसे सँभालते दिखाई पड़ते हैं, पर उसकी दशा गिरती ही जाती है। अंत में उसके माली [ ६२९ ]साधना और तपस्या के लिये कैलास-मानसरोवर की ओर जाते हैं जहाँ अकाशवाणी होती है कि विक्रम की बीसवीं शताब्दी में जब 'पश्चिमी शासन' होगा तब उन्नति का आयोजन होगा। 'अमल्तास' नाम की छोटी सी कविता में कवि ने अपने प्रकृति-निरीक्षण का भी परिचय दिया है। ग्रीष्म में जब वनस्थली के सारे पेड़-पौधे झुलसे से रहते हैं और कहीं प्रफुल्लता नहीं दिखाई देती है, उस समय अमल्तास चारों ओर फूलकर अपनी पीत प्रभा फैला देता है। इससे कवि भक्ति के महत्व का संकेत ग्रहण करता हैं––

देख तव वैभव, द्रुमकुल-संत! विचारा उसका सुखद निदान।
करे जो विषम काल को मंद, गया उस सामग्री पर ध्यान॥
रँगा निज प्रभु ऋतुपति के रंग, द्रुमों में अमल्तास तू भक्त।
इसी कारण निदाघ प्रतिकूल, दहन में तेरे रहा अशक्त॥

'पूर्ण' जी की कविताओं का संग्रह 'पूर्ण-संग्रह' के नाम से प्रकाशित हो चुका है। उनकी खड़ी बोली की रचना के कुछ उद्धरण दिए जाते हैं––

नंदनवन का सुना नहीं है किसने नाम,
मिलता है जिसमें देवों को भी आराम।

उसके भी बासी सुखरासी, उग्र हुआ यदि उनका भाग।
आकर के इस कुसुमाकर में करते हैं नदन-रुचि त्याग॥
xxxx

है उत्तर में कोट शैल, सम तुग विशाल,
विमल सघन हिम-वलित ललित धवलित सब काल॥
xxxx

हे नर दक्षिण! इसके दक्षिण, पश्चिम, पूर्व
है अपार जल से परिपूरित कोश अपूर्व।

पवन देवता गगन-पंथ से सुघन-घटों में लाकर नीर,
सींचा करते हैं यह उपवन करके सदा कृपा गंभीर॥
xxxx

[ ६३० ]पंडित गयाप्रसाद शुक्ल (सनेही) हिंदी के एक बड़े ही भावुक और सरस-हृदय कवि हैं। ये पुरानी और नई दोनों चाल की कविताएँ लिखते हैं। इनकी बहुत सी कविताएँ 'त्रिशूल' के नाम से निकली हैं। उर्दू कविता भी इनकी बहुत ही अच्छी होती है। इनकी पुराने ढंग की कविताएँ 'रसिकमित्र', 'काव्यसुधानिधि' और 'साहित्य-सरोवर' आदि में बराबर निकलती रहीं। पीछे इनकी प्रवृत्ति खड़ी बोली की ओर हुईं। इनकी तीन पुस्तके प्रकाशित हैं––'प्रेस-पचीसी', 'कुसुमांजलि', 'कृषक-क्रंदन'। इस मैदान में भी इन्होंने अच्छी सफलता पाई। एक पद्य नीचे दिया जाता है––

तु है गगन विस्तीर्ण तो मैं एक तारा क्षुद्र हूँ।
तु है महासागर अगम, मैं एक धारा क्षुद्र हूँ॥
तू है महानद तुल्य तो में एक बूंद समान हूँ।
तू है मनोहर गीत तो मैं एक उसकी तान हूँ॥

पं० रामनरेश त्रिपाठी का नाम भी 'खड़ी बोली' के कवियों में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। भाषा की सफाई और कविता के प्रसाद गुण पर इनका बहुत जोर रहता है। काव्यभाषा में लाघव के लिये कुछ कारक-चिह्नों और संयुक्त क्रियाओं के कुछ अंतिम अवयवों को छोड़ना भी (जैसे, 'कर रहा हैं' के स्थान पर 'कर रहा' या 'करते हुए' के स्थान पर 'करते') ये ठीक नहीं समझते। काव्यक्षेत्र में जिस स्वाभाविक स्वच्छंदता (Romanticism) का आभास पं॰ श्रीधर पाठक ने दिया था उसके पथ पर चलनेवाले द्वितीय उत्थान में त्रिपाठीजी ही दिखाई पड़े। 'मिलन', 'पथिक' और 'स्वप्न' नामक इनके तीनों खंड-काव्यों में इनकी कल्पना ऐसे मर्मपथ पर चली है जिसपर मनुष्य मात्र का हृदय स्वभावतः ढलता आया है। ऐतिहासिक या पौराणिक कथाओं के भीतर न बँधकर अपनी भावना के अनुकूल स्वच्छंद संचरण के लिये कवि ने नूतन कथायों की उद्भावना की है। कल्पित आख्यानों की ओर वह विशेष झुकाव स्वच्छंद मार्ग का अभिलाष सूचित करता है। इन प्रबंध में नर-जीवन जिन रूपों में ढालकर सामने लाया गया है, वे मनुष्य मात्र का मर्मस्पर्श करनेवाले हैं तथा प्रकृति के स्वच्छंद और रमणीय प्रसार के बीच अवस्थित होने के कारण शेष सृष्टि से विच्छिन्न नहीं प्रतीत होते। [ ६३१ ]स्वदेशभक्ति की जो भावना भारतेंदु के समय से चली आती थी उसे सुंदर कल्पना द्वारा रमणीय और आकर्षक रूप त्रिपाठीजी ने ही प्रदान किया। त्रिपाठीजी के उपर्युक्त तीनों काव्य देशभक्ति के भाव से प्रेरित है। देशभक्ति का यह भाव उनके मुख्य पात्रों को जीवन के कई क्षेत्रों में सौंदर्य प्रदान करता दिखाई पड़ता है––कर्म के क्षेत्र में भी, प्रेम के क्षेत्र में भी। वे पात्र कई तरफ से देखने में सुंदर लगते हैं। देशभक्ति को रसात्मक रूप त्रिपाठीजी द्वारा प्राप्त हुआ, इसमें संदेह नहीं है।

त्रिपाठी जी ने भारत के प्रायः सब भागों में भ्रमण किया है, इससे इनके प्रकृति-वर्णन में स्थानगत विशेषताएँ अच्छी तरह आ सकी है। इनके 'पथिक' में दक्षिण भारत के रम्य दृश्यों का बहुत विस्तृत समावेश है। इसी प्रकार इनके 'स्वप्न' में उत्तराखंड और कश्मीर की सुषमा सामने आती है। प्रकृति के किसी खंड के सश्तिष्ट चित्रण की प्रतिभा इनमे अच्छी है। सुंदर अलंकारिक साम्य खड़ा करने में भी इनकी कल्पना प्रवृत्त होती है। पर झूठे आरोपों द्वारा अपनी उड़ान दिखाने या वैचित्र्य खड़ा करने के लिये नहीं।

'स्वप्न' नामक खंड-काव्य तृतीय उत्थान-काल के भीतर लिखा गया है। जब कि 'छायावाद' नाम की शाखा चल चुकी थी, इससे उस शाखा को भी कुछ रंग कहीं कहीं उसके भीतर झलक मारता है, जैसे––

प्रिय की सुध सी ये सरिताएँ ये कानन कातार सुसज्जित।
मैं तो नहीं, किंतु है मेरा हृदय किसी प्रियतम से परिचित।
जिसके प्रेम पत्र आते हैं प्रायः सुख-संवाद-सन्निहित॥

अतः उस काव्य को लेकर देखने से थोड़ी थोड़ी इनकी सब प्रवृत्तियाँ झलक जाती हैं। उसके आरंभ में हम अपनी प्रिया में अनुरक्त बसंत नामक एक सुंदर और विचारशील युवक को जीवन की गंभीर वितर्क-दशा में पाते हैं। एक ओर उसे प्रकृति की प्रमोदमयी सुषमाओं के बीच प्रियतमा के साहचर्य का प्रेम-सुख लीन रखना चाहता है, दूसरी ओर समाज के असख्य प्राणियों का कृष्ट-क्रंदन उसे उद्धार के लिये बुलाता जान पड़ता हैं। दोनों पक्षों के बहुत से सजीव चित्र बारी बारी से बड़ी दूर तक चलते हैं। फिर उस युवक [ ६३२ ]के मन में जगत् और जीवन के संबंध में गंभीर जिज्ञासाएँ उठती हैं। जगत् के इन नाना रूपों का उद्गम कहाँ है? सृष्टि के इन व्यापारों का अंतिम लक्ष्य क्या है? यह जीवन हमें क्यों दिया गया है? इसी प्रकार के प्रश्न उसे व्याकुल करते रहते हैं और कभी कभी वह सोचता है––

इसी तरह की अमित कल्पना के प्रवाह में मैं निशिवासर,
बहता रहता हूँ विमोह वश; नहीं पहुँचता कहीं तीर पर।
रात दिवस की बूंदों द्वारा तन-घट से परिमित यौवन-जल,
है निकला जा रहा निरंतर, यह रुक सकता नहीं एक पल॥

कभी कभी उसकी वृत्ति रहस्योन्मुख होती है; वह सारा खेल खड़ा करनेवाले उस छिपे हुए प्रियतम का आकर्षण अनुभव करता है और सोचता है की मैं उसके अन्वेषण में क्यो न चल पडूँ।

उसकी सुमना उसे दिन रात इस प्रकार भावनाओं में ही मग्न और अव्यवस्थित देखकर कर्ममार्ग पर स्थित हो जाने का उपदेश देती है––

सेवा है महिमा मनुष्य की, न कि अति उच्च विचार-द्रव्य-बल।
मूल हेतु रवि के गौरव का है प्रकाश ही न कि उच्च स्थल॥
मन की अमित तरगों में तुम खोते हो इस जीवन का सुख‌।

इसके उपरांत देश पर शत्रु चढाई करता है और राजा उसे रोकने में असमर्थ होकर घोषणा करता है कि प्रजा अपनी रक्षा कर ले। इस पर देश के झुंड के झुंड युवक निकल पड़ते है और उनकी पत्नियाँ और माताएँ गर्व से फूली नहीं समाती हैं। देश की इस दशा में बसंत को घर में पड़ा देख उसकी पत्नी सुमना को अत्यंत लज्जा होती है और वह अपने पति से स्वदेश के इस संकट के समय शस्त्र-ग्रहण करने को कहती है। जब वह देखती है कि उसका पति उसी के प्रेम के कारण नहीं उठता है तब वह अपने को ही प्रिय के कर्त्तव्य-पथ का बाधक समझती है। वह सुनती है कि एक रुग्णा वृद्धा यह देखकर कि उसका पुत्र उसी की सेवा के ध्यान से युद्ध पर नहीं जाता है, अपना प्राणत्याग कर देती है। अंत में सुमना अपने को बसंत के सामने से [ ६३३ ]हटाना ही स्थिर करती है और चुपचाप घर से निकल पड़ती है। वह पुरुष वेष में वीरों के साथ समिलित होकर अत्यत पराक्रम के साथ लड़ती है। उधर वसंत उसके वियोग में प्रकृति के खुले क्षेत्र में अपनी प्रेम-वेदना की पुकार सुनाता फिरता है, पर सुमना उस समय प्रेम-क्षेत्र से दूर थी––

अर्द्ध निशा में तारागण से प्रतिबिंबित अति निर्मल जलमय।
नील झील के कलित कूल पर मनोव्यथा का लेकर आश्रय॥
नीरवंता में अंतस्तल का मर्म करुण स्वर-लहरी में भर।
प्रेम जगाया करता था वह विरही विरह-गीत गा गाकर॥
भोजपत्र पर विरह-व्यथामय अगणित प्रेमपत्र लिख लिखकर।
डाल दिए थे उसने गिरि पर, नदियों के तट पर, नवपथ पर॥
पर सुमना के लिये दूर थे ये वियोग के दृश्य-कदंबक।
और न विरही की पुकार ही पहुँच सकी उसके समीप तक॥

अंत में वसंत एक युवक (वास्तव में पुरुष-वेष में सुमना) के उद्वबोधन से निकल पड़ता है और अपनी अद्भुत वीरता द्वारा सब का नेता बनकर विजय प्राप्त करता है। राजा यह कहकर कि 'जो देश की रक्षा करे वहीं राजा' उसको राज्य सौंप देता है। उसी समय सुमना भी उसके सामने प्रकट हो जाती है।

स्वदेश भक्ति की भावना कैसे मार्मिक और रसात्मक रूप में कथा के भीतर व्यक्त हुई है, यह उपर्युक्त सारांश द्वारा देखा जा सकता है। जैसा कि हम पहले कह आए हैं, त्रिपाठी जी की कल्पना मानव-हृदय के सामान्य मर्मपथ चलनेवाली है। इनका ग्राम-गीत संग्रह करना इस बात को और भी स्पष्ट कर देता है। अतः त्रिपाठी जी हमे स्वच्छंदतावाद (Romanticism) के प्रकृत पथ पर दिखाई पड़ते हैं। इनकी रचना के कुछ उद्धरण नीचे दिए जाते हैं––

चारु चंद्रिका से अलोकित विमलोदक सरसी के तट पर,
बौर-गंध से शिथिल पवन में कोकिल का अलाप श्रवण कर।
और सरक आती समीप है प्रमदा करती हुई प्रतिध्वनि,
हृदय द्रवित होता है सुनकर शशिकर छूकर यथा चंद्रमणि।

[ ६३४ ]

किंतु उसी क्षण भूख-प्यास से विकल वस्त्र-वंचित अनाथगण,
'हमें किसी की छाँह चाहिए' कहते चुनते हुए अन्न कण।
आ जाते हैं हृदयद्वार पर, मैं पुकार उठता हूँ तत्क्षण––
हाय! मुझे धिक् है, जो इनका कर न सका मैं कष्ट-निवारण।
xxxx
उमड़-घुमड़ कर जब घमंड से उठता है सावन में जलधर,
हम पुष्पित कदंब के नीचे झूला करते है प्रति वासर।
तड़ित-प्रभा या घनगर्जन से भय या प्रेमाद्रेक प्राप्त कर,
वह भुजबंधन कस लेती है, यह अनुभव है परम मनोहर।
किंतु उसी क्षण वह गरीविनी, अति विषादमय जिसके मुँह पर,
घुने हुए छप्पर की भीषण चिंता के है घिरे वारिधर,
जिसका नहीं सहारा कोई, आ जाती है दृग के भीतर,
मेरा हर्ष चला जाता है एक आह के साथ निकलकर।

(स्वप्न)


प्रति क्षण नूतन वेष बना कर रंग-बिरंग निराला।
रवि के संमुख थिरक रही है नभ में वारिद माला॥
नीचे नील समुद्र मनोहर ऊपर नील गगन है।
घर पर बैठ बीच में विचरूँ, यही चाहता मन है॥
xxxx
सिंधु-विहग तरंग-पंख को फड़का कर प्रति क्षण में।
है निमग्न नित भूमि-अंक के सेवन में, रक्षण में॥

(पथिक)


मेरे लिये खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू।
मैं बाट जोहता या तेरी किसी चमन में।
बन कर किसी के आँसू मेरे लिये बहा तू।
मैं देखता तुझे था माशूक के बदन में।

(फुटकल)

[ ६३५ ]

स्वर्गीय लाला भगवानदीन जी के जीवन का प्रारंभिक काल उस बुंदेलखंड में व्यतीत हुआ था जहाँ देश की परंपरागत पुरानी संस्कृति अभी बहुत कुछ बनी हुई है। उनकी रहन-सहन बहुत सादी और उनका हृदय बहुत सरल और कोमल था। उन्होंने हिंदी के पुराने काव्यों का नियमित रूप से अध्ययन किया था इससे वे ऐसे लोगों से कुढ़ते थे जो परंपरागत हिंदी-साहित्य की कुछ भी जानकारी प्राप्त किए बिना केवल थोड़ी सी, अँगरेजी शिक्षा के बल पर हिंदी-कविताएँ लिखने लग जाते थे। बुंदेलखंड में शिक्षितवर्ग के बीच भी और सर्वसाधारण में भी हिंदी-कविता का समान्य रूप से प्रचार चला आ रहा है। ऋतुओं के अनुसार जो त्योहार और उत्सव रखे गए हैं, उनके आगमन पर वहाँ लोगों में अब भी प्रायः वही उमंग-दिखाई देती है। विदेशी संस्कारों के कारण वह मारी नहीं गई है। लाला साहब वही उमंग-भरा हृदय लेकर छतरपुर से काशी आ रहे। हिंदी-शब्दसागर के संपादकों में एक वे भी थे। पीछे विश्वविद्यलाय में हिंदी के अध्यापक हुए। हिंदी-साहित्य की व्यवस्थित रूप से शिक्षा देने के लिये काशी में उन्होंने एक साहित्य-विद्यालय खोला जो उन्हीं के नाम से अब तक बहुत अच्छे ढंग पर चला जा रहा है। कविता में वे अपना उपनाप 'दीन' रखते थे।

लालाजी का जन्म संवत् १९२३ में और मृत्यु १९८७ (जुलाई, १९३०) में हुई।

पहले वे ब्रजभाषा में पुराने ढंग की कविता करते थे, पीछे 'लक्ष्मी' के संपादक हो जाने पर खड़ी बोली की कविताएँ लिखने लगे। खड़ी बोली में उन्होंने वीरों के चरित्र लेकर बोलचाल ही फड़कती भाषा में जोशीली रचना की है। खड़ी बोली की कविताओं का तर्ज उन्होंने प्रायः मुंशियान ही रखा था। वह या छंद भी उर्दू के रखते थे और भाषा में चलते अरबी या फारसी शब्द भी लाते थे। इस ढंग के उनके तीन काव्य निकले हैं––'वीर क्षत्राणी', 'वीर बालक' और 'वीर पंचरत्न'। लालाजी पुराने हिंदी-काव्य और साहित्य के अच्छे मर्मज्ञ थे। बहुत से प्राचीन काव्यों की नए ढंग की टीकाएँ करके उन्होंने अध्ययन के [ ६३६ ]अभिलाषियों का बड़ा उपकार किया है। रामचंद्रिका का, कविप्रिय, दोहावली, कवितावली, बिहारी सतसई आदि की इनकी टीकाओं ने विद्यार्थियों के लिये अच्छा मार्ग खोल दिया। भक्ति और शृंगार की पुराने ढंग की कविताओं में उक्ति-चमत्कार वे अच्छा लाते थे।

उनकी कविताओं के दोनों तरह के नमूने नीचे देखिए––

सुनि मुनि कौसिक तें सांप को हवाल सब।
वाटी चित्त करुना की अजब उमंग है।
पद-रज ढारि करे पाप सब छारि,
करि कवल-सुनारि दियो धामहू उतंग है॥
'दीन' मनै ताहि लखि जात पतिलोक
और उपमा अभुत को सुझानो नयो ढंग हैं।
कौतुकनिधान राम रज की बनाय रज्जु,
पद तें उड़ाई ऋषि पतिनी-पतंग है॥


वीरों की सुमाताओं का यश जो नहीं गाता।
वह व्यर्थं सुकवि होने का अभिमान जनाता॥
जो वीर-सुयश गाने में है ढील दिखाता।
वह देश के वीरत्व का है मान घटाता॥
सब वीर किया करते हैं सम्मान कलम का।
वीरों का सुयशगान है अभिमान कलम का॥

इनकी फुटकल कविताओं का संग्रह 'नवीन बीन' या 'नदीमे दीन' है। पंडित रूपनारायण पांडेय ने यद्यपि ब्रजभाषा में भी बहुत कुछ कविता की है, पर इधर अपनी खड़ी बोली की कविताओं के लिये ही ये अधिक प्रसिद्ध हैं। इन्होंने बहुत ही उपयुक्त विषय कविता के लिये चुने हैं और उनमें पूरी रसात्मकता लाने में समर्थ हुए हैं। इनके विषय के चुनाव में ही भावुकता टपकती हैं, जैसे दलित कुसुम, वन विहंगम, आश्वासन। इनकी कविताओं का संग्रह 'पराग' के नाम से प्रकाशित हो चुकी है। पांडेयजी [ ६३७ ]की "वन-विहंगम" नाम की कविता में हृदय की विशालता और सरसता का बहुत अच्छा परिचय मिलता है। 'दलित कुसुम' की अन्योक्ति भी बड़ी हृदय-ग्राहिणी है। संस्कृत और हिंदी दोनों के छंदों में खड़ी बोली को इन्होंने बड़ी सुघड़ाई से ढाला है। यहाँ स्थानाभाव से हम दो ही पद्य उद्धृत कर सकते हैं।

अहह! अधम आँधी, आ गई तू कहाँ से?
प्रलय-घन-घटा सी छा-गई तू कहाँ से?
पर दुख-सुख तूने, हा! न देखा न भाला।
कुसुम अधखिला ही, हाय! यों तोड़ डाला॥


वन बीच बसे थे, फँसे थे ममत्व में एक कपोत कपोता कहीं।
दिन रात न एक को दूसरा छोड़ता, ऐसे हिले मिले दोनों वहीं॥
बढ़ने लगा नित्य नया नया नेह, नई नई कामना होती रही।
कहने का प्रयोजन है इतना, उनके सुख की रही सीमा नहीं॥

खड़ी बोली की खरखराहट (जो तब तक बहुत कुछ बनी हुई थी) के बीच 'वियोगी हरि' के समान स्वर्गीय पं॰ सत्यनारायण कविरत्न (जन्म संवत् १९३६ मृत्यु १९७५) भी ब्रज की मधुर वाणी सुनाते रहे। रीतिकाल के कवियों की परंपरा पर न चलकर वे या तो भक्तिकाल के कृष्णभक्त कवियों के ढंग पर चले हैं अथवा भारतेंदु-काल की नूतन कविता की प्रणाली पर। ब्रजभूमि, ब्रजभाषा और ब्रज-पति का प्रेम उनके हृदय की संपत्ति थी। ब्रज के अतीत दृश्य उनकी आँखों में फिरा करते थे। इंदौर के पहले साहित्य सम्मेलन के अवसर पर वे मुझे वहाँ मिले थे। वहाँ की अत्यंत काली मिट्टी देख वे बोले, "या माटी कों तो हमारे कन्हैया न खाते"।

अँगरेजी की ऊँची शिक्षा पाकर उन्होंने अपनी चाल-ढाल ब्रजमंडल के ग्रामीण भले-मानसों की ही रखी। धोती, बगल बदी और दुपट्टा; सिरपर एक गोल टीपी, यही उनका वेश रहता था। वे बाहर जैसे सरल और सदे थे, भीतर भी वैसे ही थे। सादापन दिखावे के लिये धारण किया हुआ नहीं है स्वभावगत है, यह बात उन्हें देखते ही और उनकी बातें [ ६३८ ]सुनते ही प्रगट हो जाती थी। बाल्यकाल से लेकर जीवनपर्यंत वे आगरे से डेढ़ कोस पर ताजगंज के पास धाँधूपुर नामक गाँव में ही रहे। उनका जीवन क्या था, जीवन की विषमता का एक छाँटा हुआ दृष्टांत था। उनका जन्म और बाल्यकाल, विवाह और गृहस्थ, सब एक दुःखभरी कहानी के संबद्ध खंड थे। वे थे ब्रजमाधुरी में पगे जीव; उनकी पत्नी थीं आर्य-समाज के तीखेपन में तली महिला। इस विषमता की विरसता बढ़ती दी गई और थोड़ी ही अवस्था में कविरत्नजी की जीवन यात्रा समाप्त हो गई।

ब्रजभाषा की कविताए में छात्रावस्था ही में लिखने लगे। वसंतागमन पर, वर्षा के दिनों में वे रसिये आदि ग्राम-गीत अपढ़ ग्रामीणों में मिलकर निस्संकोच गाते थे। सवैया पढ़ने का ढंग उनका ऐसा आकर्षक था कि सुननेवाले मुग्ध हो जाते थे। जीवन की घोर विषमताओं के बीच भी वे प्रसन्न और हँसमुख दिखाई देते थे। उनके लिये उनका जीवन ही एक काव्य था, अतः जो बाते प्रत्यक्ष उनके सामने आती थीं उन्हें काव्य का रूप-रंग देते उन्हें देर नहीं लगती थी। मित्रों के पास में प्राय: पद्य में पत्र लिखा करते थे जिनमें कभी कभी उनके स्वभाव की झलक भी रहती थी, जैसे स्वर्गीय पद्मसिंह जी के पास भेजी हुई इस कविता में––

जो मो सों हँसि मिले होत मैं तासु निरंतर चेरो।
बस गुन ही गुन निरखत तिह मधि सरल प्रकृति को प्रेरो॥
यह स्वाभाव को रोग जानिए, मेरो बस कछु नाहीं।
निज नव विकल रहत याहीं तो सहृदय-बिछुरन माहीं॥
सदा दारू-योपित सम बेबस आशा सुदित प्रमानै।
कोरो सत्य आम को बासी कहा "तकल्लुफ" जानै॥

किसी का कोई अनुरोध टालना तो उनके लिये असंभव था। यह जानकर बराबर लोग किसी न किसी अवसर के उपयुक्त कविता बना देने की प्रेरणा उनसे किया करते थे और वे किसी को निराश न करते थे। उनकी वही दशा थी जो उर्दू के प्रसिद्ध शायर इंशा की लखनऊ-दरबार में हो गई थी। इससे उनकी अधिकांश रचनाएँ सामयिक है और जल्दी में जोड़ी हुई प्रतीत होती है, [ ६३९ ]जैसे––स्वामी रामतीर्थ, तिलक, गोखले, सरोजिनी नायडू इत्यादि की प्रशस्तियाँ; लोकहितकर आयोजनों के लिये अपील (हिंदू-विश्वविद्यालय के लिये लंबी अपील देखिए); दुःख और अन्याय के निवारण के लिये पुकार (कुली-प्रथा के विरुद्ध 'पुकार' देखिये)

उन्होंने जीती-जागती ब्रजभाषा ली है। उनकी ब्रजभाषा उसी स्वरूप में बँधी न रहकर जो काव्य परंपरा के भीतर पाया जाता है, बोलचाल के चलते रूपों को लेकर चली है। बहुत से ऐसे शब्दों और रूपों का उन्होंने व्यवहार किया है जो परंपरागत काव्यभाषा में नहीं मिलते।

'उत्तर रामचरित' और 'मालती-माधव' के अनुवादों में श्लोकों के स्थान पर उन्होंने बड़े मधुर सवैए रखे हैं। मैकाले के अँगरेजी खंड-काव्य 'होरेशस' का पद्यबद्ध अनुवाद उन्होंने बहुत पहले किया था। कविरत्न जी की बड़ी कविताओं में 'प्रेमकली' और 'भ्रमरदूत' विशेष उल्लेख-योग्य है। 'भ्रमरदूत' में यशोदा ने द्वारका में जा बसे हुए कृष्ण के पास संदेश भेजा है। उसकी रचना नंददास के 'भ्रमरगीत' के ढंग पर की गई है, पर अंत में देश की वर्तमान दशा और अपनी दशा का भी हलका-सा आभास कवि ने दिया है। सत्यनारायण जी की रचना के कुछ नमूने देखिए––

अलबेली कहूँ वेलि द्रुमन सों लिपट सुहाई।
धोए धोए पातन की अनुपम कमनाई॥
चातक शुक कोयल ललित, बोलत मधुरे बोल।
कूकि कूकि केकी कलित कुंजन करत कलोल॥

निरखि घन की घटा।


लखि यह सुषमा-जाल लाल निज बिन नँदरानी।
हरि सुधि उमड़ी घुमड़ी तन उर अति अकुलानी॥
सुधि बुधि तज माथौ पकरि, करि करि सोच अपार।
दृगजल मिस मानहुँ निकरि वही विरह की धार॥

कृष्ण रटना लगी।

[ ६४० ]

कौने भेजौं दूत पूत सों विद्या सुनावै।
बातन में बहराह जाए ताको यह लावै॥
त्यागि मधुपुरी को गयो छाँड़ि सबन के साथ।
सात समुंदर पै भयो दूर द्वारकानाथ॥

जाइगो को उहाँ?

नित नव परत अकाल, काल को चलत चक्र चहुँ।
जीवन को आनंद न देख्यो जात यहाँ कहुँ॥
बढ्यो यथेच्छाचारकृत जहँ देखौ तहँ राज।
होत जात दुर्बल विकृत दिन दिन आर्य-समाज॥

दिनन के फेर सों।

जे तजिं मातृभूमि सों ममता होत प्रवासी।
तिन्है बिदेसी तंग करत है विपदा खासी॥
xxxx
नारी शिक्षा अनादरत जे लोग अनारी।
ते स्वदेश-अवनति-प्रंचड-पातक-अधिकारी॥
निरखि हाल मेरो प्रथम लेहु समुझि सब कोइ।
विद्याबल लहि मति परम अबला सबला होइ॥

लखौं अजमाई कै।
(भ्रमरदूत)


भयो क्यों अनचाहत को संग?
सब जग के तुम दीपक, मोहन! प्रेमी हमहूँ पतंग।
लखि तव दीपति, देह-शिखा में निरत, विरह लौ लागी॥
खींचति आप सो आप उतहि यह, ऐसी प्रकृति अभागी।
यदपि सनेह-भरी तब बतियाँ, तउ अचरज की बात।
योग वियोग दोउन में इक सम नित्य जरावत गात॥


[ ६४१ ]

तृतीय उत्थान

(सं॰ १९७५ से....)

वर्त्तमान काव्य-धाराएँ

सामान्य परिचय

द्वितीय उत्थान के समाप्त होते होते खड़ी बोली में बहुत कुछ कविता हो चुकी। इन २५-३० वर्षों के भीतर वह बहुत कुछ मँजी, इसमें संदेह नहीं, पर इतनी नहीं जितनी उर्दू काव्य-क्षेत्र के भीतर जाकर मँजी है। जैसा पहले कह चुके हैं, हिंदी में खड़ी बोली के पद्य-प्रवाह के लिये तीन रास्ते खोले गए––उर्दू या फारसी की वह्नों का, संस्कृत के वृत्तों का और हिंदी के छंदों का। इनमें से प्रथम मार्ग का अवलंबन तो मैं नैराश्य या आलस्य समझता हूँ। वह हिंदी-काव्य का निकाला हुआ अपना मार्ग नहीं। अतः शेष दो भागों का ही थोड़े में विचार किया जाता है।

इसमें तो कोई संदेह नहीं कि संस्कृत के वर्णवृत्तों का-सा माधुर्य अन्यत्र दुर्लभ है। पर उनमें भाषा इतनी जकड़ जाती है कि वह भावधारा के मेल में पूरी तरह से स्वच्छंद होकर नहीं चल सकती है इसी से संस्कृत के लंबे समासों का बहुत कुछ सहारा लेना पड़ता है। पर संस्कृत-पदावली के अधिक समावेश से खड़ी बोली की स्वाभाविक गति के प्रसार के लिये अवकाश कम रहता है। अतः वर्णवृत्तों का थोड़ा बहुत उपयोग किसी बड़े प्रबंध के भीतर बीच बीच में ही उपयुक्त हो सकता है। तात्पर्य यह कि संस्कृत पदावली का अधिक आश्रय लेने से खड़ी बोली के मँजने की संभावना दूर ही रहेगी।

हिंदी के सब तरह के प्रचलित छंदों में खड़ी बोली की स्वाभाविक वाग्धारा का अच्छी तरह खपने के योग्य हो जाना ही उसका मँजना कहा जायगा। हिंदी के प्रचलित छंदो मैं दंडक और सवैया भी है। सवैए यद्यपि वर्णवृत्त हैं। पर लय के अनुसार लघु गुरु का बंधन उनमें बहुत कुछ उसी प्रकार शिथिल हो [ ६४२ ]जाता है जिस प्रकार उर्दू के छंदों में मात्रिक छंदों में तो कोई अड़चन ही नही है। प्रचलित मात्रिक छंदों के अतिरिक्त कविजन इच्छानुसार नए नए छंदों का विधान भी बहुत अच्छी तरह कर सकते है।

खड़ी बोली की कविताओं की उत्तरोत्तर गति की ओर दृष्टिपात करने से यह पता चल जाता है कि किस प्रकार ऊपर लिखी बातों की ओर लोगो का ध्यान क्रमशः गया हैं और जा रहा है। बाबू मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं में चलती हुई खड़ी बोली का परिमार्जित और सुव्यवस्थित रूप गीतिका आदि हिंदी के प्रचलित छंदों में तथा नए 'गड़े हुए छदों में पूर्णतया देखने में आया। ठाकुर गोपालशरणसिंहजी कवित्तों और सवैयों में खड़ी बोली का बहुत ही मँजा हुआ रूप सामने ला रहे हैं। उनकी रचनाओं को देखकर खड़ी बोली के मँज जाने की पूरी आशा होती है।

खड़ी बोली का पूर्ण सौष्ठव के साथ मँजना तभी कहा जायगा जब कि पद्यों में उसकी अपनी गतिविधि का पूरा समावेश हो और कुछ दूर तक चलनेवाले वाक्य सफाई के साथ बैठें। भाषा का इस रूप में परिमार्जन उन्हीं के द्वारा हो सकता है जिनका हिंदी पर पूरा अधिकार हैं, जिन्हें उसकी प्रकृति की पूरी परख है। पर जिस प्रकार बाबू मैथिलीशरण गुप्त और ठाकुर गोपालशरणसिंह ऐसे कवियों की लेखनी से खड़ी बोली को मँजते देख आशा का पूर्ण संचार होता है उसी प्रकार कुछ ऐसे लोगों को, जिन्होंने अध्ययन या शिष्ट-समागम द्वारा भाषा, पर पूरा अधिकार नहीं प्राप्त किया है, संस्कृत, की विकीर्ण पदावली के भरोसे पर या अँगरेजी पद्यों के वाक्यखंडो के शब्दानुसार जोड़कर, हिंदी कविता के नए मैदान में उतरते देख आशंका भी होती हैं। ऐसे लोग हिंदी जानने या उसका अभ्यास करने की जरूरत नहीं समझते। पर हिंदी भी एक भाषा है, जो आते आते आती है। भाषा बिना अच्छी तरह जाने वाक्यविन्यास, मुहावरे आदि कैसे ठीक हो सकते हैं––

नए नए छंदों के व्यवहार और तुक के, बंधन के त्याग की सलाह द्विवेदीजी ने बहुत पहले दी थी। उन्होंने कहा था कि "तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूँढ़ने से कवियों के विचार-स्वातत्र्य में बाधा आती है।"

[ ६४३ ]नए-नए छंदों की योजना के संबंध में हमें कुछ नहीं कहना है। यह बहुत अच्छी बात है। 'तुक' भी कोई ऐसी अनिवार्य वस्तु नहीं। चरणों के भिन्न प्रकार के मेल चाहे जितने किए जायँ, ठीक हैं। पर इधर कुछ दिनों से बिना छंद (metre) के पद्य भी–– बिना तुकांत के होना तो बहुत ध्यान देने की बात नहीं––निरालाजी ऐसे नई रंगत के कवियों में देखने में आते है। यह अमेरिका के एक कवि वाल्ट हिटमैन (Walt Whitman) की नकल है जो पहले बंगला में थोड़ी बहुत हुई। बिना किसी प्रकार की छंदोव्यवस्था की अपनी पहली रचना Leaves of Grass उसने सन् १८५५ ई॰ में प्रकाशित की। उसके उपरांत और भी बहुत सी रचनाएँ इस प्रकार की मुक्त या स्वछंद पक्तियों में निकलीं, जिनके संबंध में एक समालोचक ने लिखा है––

"A chaos of impressions, thought of feelings thrown together without rhyme, which matters little, without metre, which matters more, and often without reason, which matters much"[५]

सारांश यह कि उसकी ऐसी रचनात्रों में छंदोव्यवस्था का ही नहीं, बुद्धितत्व का भी प्रायः अभाव है। उसकी वे ही कविताएँ अच्छी मानी और पढ़ी गई जिनमे छंद और तुकांत की व्यवस्था थी।

पद्य व्यवस्था से मुक्त काव्य-रचना वास्तव में पाश्चात्य ढंग के गीत-काव्यों के अनुकरण का परिणाम है। हमारे यहाँ के संगीत में बँधी हुई रागरागिनियाँ हैं। पर योरप में संगीत के बड़े-बड़े उस्ताद (Composers) अपनी अलग अलग नाद-योजना या स्वर-मैत्री चलाया करते है। उस ढंग का अनुकरण पहले बंगाल में हुआ। वहाँ की देखा-देखी हिंदी में भी चलाया गया। 'निराला' जी का तो इसकी ओर प्रधान लक्ष्य रहा। हमारा इस संबंध में यही कहना है कि काव्य का प्रभाव केवल नाद पर अवलंबित नहीं।

छंदों के अतिरिक्त वस्तु-विधान और अभिव्यंजन-शैली में भी कई प्रकार की प्रवृत्तियाँ इस तृतीय उत्थान में प्रकट हुई जिससे अनेकरूपता की ओर [ ६४४ ]हमारा काव्य कुछ चढ़ता दिखाई पड़ा। किसी वस्तु में अनेकरूपता आना विकास का लक्षण है, यदि अनेकता के भीतर एकता का कोई एक सूत्र बराबर बना रहे। इस समन्वय से रहित जो अनेकरूपता होगी वह भिन्न भिन्न वस्तुओं की होगी, एक ही वस्तु की नहीं। अतः काव्यत्व यदि बना रहे तो काव्य का अनेक रूप धारण करके भिन्न भिन्न शाखाओं में प्रवाहित होना उसका विकास ही कहा जायगा। काव्य के भिन्न भिन्न रूप एक दूसरे के आगे पीछे भी आविर्भूत हो सकते हैं और साथ साथ भी निकल और चल सकते हैं। पीछे आविर्भूत होनेवाला रूप पहले से चले आते हुए रूप से अवश्य ही श्रेष्ठ या ससुन्नत हो, ऐसा कोई नियम काव्य-क्षेत्र में नहीं है। अनेक रूपों को धारण करनेवाला तत्व यदि एक है तो शिक्षित जनता की बाह्य और आभयंतर स्थिति के साथ सामंजस्य के लिये काव्य अपना रूप भी कुछ बदल सकता हैं और रुचि की विभिन्नता का अनुसरण करता हुआ एक साथ कई रूपों में भी चल सकता है।

प्रथम उत्थान के भीतर हम देख चुके हैं कि किस प्रकार काव्य को भी देश की बदली हुई स्थिति और मनोवृत्ति के मेले में लाने के लिये भारतेंदु-मंडल ने कुछ प्रयत्न किया[६]। पर यह प्रयत्न केवल सामाजिक और राजनीतिक स्थिति की ओर हृदय को थोड़ा प्रवृत्त करके रह गया। राजनीतिक और सामाजिक भावनाओं को व्यक्त करने वाली वाणी भी दबी सी रही। उसमें न तो संकल्प की दृढ़ता और न्याय के आग्रह का जोश था, न उलट-फेर की प्रबल कामना का वैग। स्वदेश-प्रेम व्यंजित करनेवाला वह स्वर अवसाद और खिन्नता की स्वर था, आवेश और उत्साह का नहीं। उसमें अतीत के गौरव का स्मरण और वर्तमान हृास को वेदनापूर्ण अनुभव ही स्पष्ट था। अभिप्राय यह कि यह प्रेम जगाया तो गया, पर कुछ नया-नया-सा होने के कारण उस समय काव्य-भूमि पर पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित न हो सका है।

कुछ नूतन भावनाओं के समावेश के अतिरिक्त काव्य की परंपरागत पद्धति में किसी प्रकार का परिवर्तन भारतेंदु-काल में न हुआ। भाषा ब्रजभाषा ही [ ६४५ ]रहने दी गई और उसकी अभिव्यंजना-शक्ति का कुछ विशेष प्रसार न हुआ। काव्य को बँधी हुई प्रणालियों से बाहर निकालकर जगत् और जीवन के विविध पक्षों की मार्मिकता झलकानेवाली धाराओं में प्रवाहित करने की प्रवृत्ति भी न दिखाई पड़ी।

द्वितीय उत्थान में कुछ दिन ब्रजभाषा के साथ साथ चलकर खड़ी बोली क्रमशः अग्रसर होने लगी; यहाँ तक कि नई पीढ़ी के कवियों को उसी का समय दिखाई पड़ा। स्वदेश-गौरव और स्वदेश-प्रेम की जो भावना प्रथम उत्थान में जगाई गई थी उसका अधिक प्रसार द्वितीय उत्थान में हुआ और 'भारत-भारती' ऐसी पुस्तक निकली। इस भावना का प्रसार तो हुआ पर इसकी अभिव्यंजना में प्रातिभ प्रगल्भता न दिखाई पड़ी।

शैली में प्रगल्भता और विचित्रता चाहे न आई हो, पर काव्यभूमि का प्रसार अवश्य हुआ। प्रसार और सुधार की जो चर्चा नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना के समय से ही रह-रहकर थोड़ी -बहुत होती आ रही थी वह 'सरस्वती' के निकलने के साथ ही कुछ अधिक ब्योरे के साथ हुई। उस पत्रिका के प्रथम दो-तीन वर्षों के भीतर ही ऐसे लेख निकले जिनमें साफ कहा गया कि अब नायिका-भेद और शृंगार में ही बँधे रहने का जमाना नहीं है; संसार में न जाने कितनी बातें हैं जिन्हे लेकर कवि चल सकते हैं। इस बात पर द्विवेदीजी भी बराबर जोर देते रहे और कहते रहे कि "कविता के बिगड़ने और उसकी सीमा परिमित हो जाने से साहित्य पर भारी आघात होता है।" द्विवेदीजी 'सरस्वती' के संपादन-काल में कविता में नयापन लाने के बराबर इच्छुक रहे। नयापन आने के लिये वे नए नए विषयों का नयापन या नानात्व प्रधान समझते रहे और छंद, पदावली, अलंकार आदि का नयापन उसका अनुगामी। रीतिकाल की शृंगारी कविता की ओर लक्ष्य करके उन्होंने लिखा––

इस तरह की कविता सैकड़ों वर्ष से होती आ रही है। अनेक कवि हो चुके जिन्होंने इस विषय पर न मालूम क्या क्या लिख डाला है। इस दशा में नए कवि अपनी कविता में नयापन कैसे ला सकते हैं? वही तुक, वही छंद, वही शब्द, वही उपमा, वही रूपक! इसपर भी लोग पुरानी लकीर बराबर पीटते जाते हैं। कवित्त, सवैये, दोहे, सोरठे, लिखने से बाज नहीं आते। [ ६४६ ]द्वितीय उत्थान के भीतर हम दिखा आए हैं कि किस प्रकार काव्य-क्षेत्र का विस्तार बढ़ा, बहुत-से नए नए विषय लिए गए और बहुत से कवि कवित्त, सवैया लिखने से बाज आकर संस्कृत के अनेक वृत्तों में रचना करने लगे। रचनाएँ चाहे अधिकतर साधारण गद्य-निबंधों के रूप में ही हुई हो, पर प्रवृत्ति अनेक विषयों की ओर रही, इसमें संदेह नहीं। उसी द्वितीय उत्थान में स्वतंत्र वर्णन के लिये मनुष्येतर प्रकृति को कवि लोग लेने लगे पर अधिकतर उसके ऊपरी प्रभाव तक ही रहे। उसके रूप-व्यापार कैसे सुखद, सजीले और मुहावने लगते हैं, अधिकतर यही देख-दिखाकर उन्होंने संतोष किया। चिर-साहचर्य से उत्पन्न उनके प्रति हमारा राग व्यंजित न हुआ। उनके बीच मनुष्य-जीवन को रखकर उसके प्रकृत स्वरूप पर व्यापक दृष्टि नहीं डाली गई है। रहस्यमयी सत्ता के अक्षर-प्रसार के भीतर व्यंजित भावों और मार्मिक तथ्यों के साक्षात्कार तथा प्रत्यक्षीकरण की ओर झुकाव न देखने में आया है। इसी प्रकार विश्व के अत्यंत सूक्ष्म और अत्यंत महान् विधानों के बीच जहाँ तक हमारा ज्ञान पहुँचा है वहाँ तक हृदय को भी पहुँचाने का कुछ प्रयास होना चाहिए था, पर न हुआ। द्वितीय उत्थान-काल का अधिकांश भाग खड़ी बोली को भिन्न भिन्न प्रकार के पद्यों में ढालने में ही लगा।

तृतीय उत्थान में आकर खड़ी बोली के भीतर काव्यत्व का अच्छा स्फुरण हुआ। जिस देश-प्रेम को लेकर काव्य की नूतन धारा भारतेंदु काल में चली थी वह उत्तरोत्तर प्रबल और व्यापक रूप धारण करता आया। शासन की अव्यवस्था और अशांति के उपरांत अँगरेजों के शांतिमय और रक्षापूर्ण शासन के प्रति कृतज्ञता का भाव भारतेंदुकाल में बना हुआ था। इससे उस समय की देशभक्ति-संबंधी कविताओं में राजभक्ति का स्वर भी प्रायः मिला पाया जाता है। देश की दुःख दशा का प्रधान कारण राजनीतिक समझते हुए भी उसे दुःख-दशा से उद्धार के लिये कवि लोग दयामय भगवान् को ही पुकारते मिलते हैं। कहीं कहीं उद्योग धंधों को न बढ़ाने, आलस्य में पड़े रहने और देश की बनी वस्तुओं का व्यवहार न करने के लिये वे देशवासियों को भी कोसते पाए जाते हैं। सरकार पर रोष या असंतोष की व्यंजना उनमें नहीं मिलती। कांग्रेस की प्रतिष्ठा होने के उपरांत भी बहुत दिनों तक देशभक्ति की [ ६४७ ]वाणी में विशेष बल और वेग ने दिखाई पड़ा। बात यह थी कि राजनीति की लंबी चौड़ी चर्चा हर साल में एक बार धूम-धाम के साथ थोड़े से शिक्षित बड़े आदमियों के बीच हो जाया करती थी जिसका कोई स्थायी और क्रियोत्पादक प्रभाव नहीं देखने में आया था। अतः द्विवेदी-काल की देशभक्ति-संबंधी रचनाओं में शासन-पद्धति के प्रति असंतोष तो व्यंजित होता था पर कर्म में तत्पर करानेवाला, आत्मत्याग करानेवाला जोश और उत्साह न था। आंदोलन भी कड़ी याचना के आगे नहीं बढ़े थे।

तृतीय उत्थान में आकर परिस्थिति बहुत बदल गई। आंदोलनों ने सक्रिय रूप धारण किया और गाँव गाँव में राजनीतिक और आर्थिक परतंत्रता के विरोध की भावना जगाई गई। सरकार से कुछ माँगने के स्थान पर अब कवियों की वाणी देशवासियों को ही 'स्वतंत्रता देवी की वेदी पर वलिदान' होने को प्रोत्साहित करने में लगी। अब जो आंदोलन चले वे सामान्य जन-समुदाय को भी साथ लेकर चले। इससे उनके भीतर अधिक आवेश और बल का संचार हुआ। सबसे बड़ी बात यह हुई कि ये आंदोलन संसार के और भागों में चलनेवाले आंदोलनों के मेल में लाए गए, जिससे ये क्षोभ की एक सार्वभौम धारा की शाखाओं से प्रतीत हुए। वर्तमान सभ्यता और लोक की घोर आर्थिक विषमता से जो असंतोष का ऊँचा स्वर पश्चिम में उठा उसकी गूँज यहाँ भी पहुँची। दूसरे देशों का धन खींचने के लिये योरप में महायत्र-प्रवर्तन का जो क्रम चला उससे पूँजी लगानेवाले थोड़े से लोगों के पास तो अपार धन-राशि इकट्ठी होने लगी पर अधिकांश श्रमजीवी जनता के लिये भोजन-वस्त्र मिलना भी कठिन हो गया। अतः एक ओर तो योरप में मशीनों की सभ्यता के विरुद्ध टालस्टाय की धर्मबुद्धि जगानेवाली वाणी सुनाई पड़ी जिसका भारतीय अनुवाद गांधीजी ने किया; दूसरी ओर इस घोर आर्थिक विषमता की घोर प्रतिक्रिया के रूप में साम्यवाद और समाजवाद नामक सिद्धांत चले जिन्होंने रूस में अत्यंत उग्ररूप धारण करके भारी उलट-फेर कर दिया।

अब संसार के प्रायः सारे सभ्य भाग एक दूसरे के लिये खुले हुए हैं। इससे एक भू-खंड में उठी हुई हवाएँ दूसरे भू-खंड में शिक्षित वर्गों तक तो अवश्य ही पहुँच जाती हैं। यदि उनका सामंजस्य दूसरे भू-खंड की परिस्थिति [ ६४८ ]के साथ हो जाता हैं तो उस परिस्थिति के अनुरूप शक्तिशाली आंदोलन चल पड़ते है। इसी नियम के अनुसार शोषक साम्राज्यवाद के विरुद्ध राजनीतिक आंदोलन के अतिरिक्त यहाँ भी किसान-आंदोलन, मजदूर-आंदोलन, अछूत आंदोलन इत्यादि कई आंदोलन एक विराट् परिवर्तनवाद के नाना व्यावहारिक अंगों के रूप में चले। श्रीरामधारीसिंह 'दिनकर', बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', माखनलाल चतुर्वेदी आदि कई कवियों की वाणी द्वारा ये भिन्न भिन्न प्रकार के आंदोलन प्रतिध्वनित हुए। ऐसे समय में कुछ ऐसे भी आंदोलन दूसरे देशों की देखा-देखी खड़े होते है जिनकी नौबत वास्तव में नहीं आई रहती। योरप ने जब देश के देश बड़े बड़े कल-कारखानो से भर गए हैं और जनता का बहुत-सा भाग उसमें लग गया हैं तब मजदूर-आंदोलन की नौबत आई है। यहाँ अभी कल-कारखाने केवल चल खड़े हुए हैं और उनमें काम करनेवाले थोड़ें-से मजदूरों की दशा खेत में काम करनेवाले करोड़ो किसानों की दशा से कहीं अच्छी हैं। पर मजदूर-आंदोलन साथ लग गया। जो कुछ हो, इन आंदोलनों का तीव्र स्वर हमारी काव्य -वाणी में सम्मिलित हुआ।

जीवन के कई क्षेत्रों में जब एक साथ परिवर्तन के लिये पुकार सुनाई पड़ती है तब परिवर्तन एक 'वाद' का व्यापक रूप धारण करता है और बहुतों के लिये सच क्षेत्रों में स्वतः एक चरम सा बन जाता है। 'क्रांति' के नाम से परिवर्तन की प्रबल कामना हमारे हिंदी-काव्य-क्षेत्र में प्रलय की पूरी पदावली के साथ व्यक्त की गई। इस कामना के साथ कहीं कहीं प्राचीन के स्थान पर नवीन के दर्शन की उत्कंठा भी प्रकट हुई। सब बातों में परिवर्तन ही परिवर्तन की यह कामना कहाँ तक वर्तमान परिस्थिति के स्वतंत्र पर्यालोचन का परिणाम हैं और कहाँ तक केवल अनुकृत है, नहीं कहा जा सकता। इतना अवश्य दिलाई पड़ता हैं कि इस परिवर्तनवाद के प्रदर्शन की प्रवृत्ति अधिक हो जाने से जगत् और जीवन के नित्य स्वरूप की वह अनुभूति नए कवियों में कम जग पाएगी जिसकी व्यंजना काव्य को दीर्घायु प्रदान करती है।

यह तो हुई काल के प्रभाव की बात। थोड़ा यह भी देखना चाहिए कि चली आती हुई काव्य-परंपरा की शैली से अतृप्ति या असंतोष के कारण परिवर्तन की कामना कहाँ तक जगी और उसकी अभिव्यक्ति किन किन रूपों में [ ६४९ ]हुई। भक्ति-काल और रीति-काल की चली आती हुई परंपरा के अंत में किस प्रकार भारतेंदु-मंडल के प्रभाव से देश प्रेम और जाति-गौरव की भावना को लेकर एक नूतन परंपरा की प्रतिष्ठा हुई, इसका उल्लेख हो चुका है। द्वितीय उत्थान में काव्य की नूतन परंपरा का अनेक विषयस्पर्शी प्रसार अवश्य हुआ पर द्विवेदी जी के प्रभाव से एक ओर उसमें भाषा की सफाई, दूसरी ओर उसका स्वरुप गद्यवत् रूखा, इतिवृत्तात्मक और अधिकतर बाह्य र्थनिरूपक हो गया। अतः इस तृतीय उत्थान में जो प्रतिवर्तन हुआ और पीछे 'छायावाद' कहलाया वह इसी द्वितीय उत्थान की कविता के विरुद्ध कहा जा सकता है। उनका प्रधान लक्ष्य काव्य-शैली की ओर था, वस्तुविधान की ओर नहीं। अर्थ-भूमि या वस्तु-भूमि का तो उसके भीतर बहुत संकोच हो गया। समन्वित विशाल भावनाओं को लेकर चलने की ओर ध्यान न रहा।

द्वितीय उत्थान की कविता में काव्य का स्वरूप खड़ा करनेवाली दोनों बातों की कमी दिखाई पड़ती थी––कल्पना का रंग भी बहुत कम या फीक रहता था और हृदय का वेग भी खूब खुलकर नहीं व्यंजित होता था। इन बातों की कमी परंपरागत ब्रजभाषा-काव्य का आनंद लेनेवालों को भी मालूम होती थी और बँगला या अँगरेजी की कविता का परिचय रखनेवालों को भी। अत: खड़ी बोली की कविता में पदलालित्य, कल्पना की उड़ान, भाव की वेगवती व्यंजना, वेदना की विवृति, शब्द-प्रयोग की विचित्रता इत्यादि अनेक बातें देखने की आकांक्षा बढ़ती गई।

सुधार चाहनेवालों में कुछ लोग नए नए विषयों की ओर प्रवृत्त खड़ी बोली की कविता को ब्रजभाषा-काव्य की-सी ललित पदावली तथा रसात्मकता और मार्मिकता से समन्वित देखना चाहते थे। जो अँगरेजी की या अँगरेजी के ढंग पर चली हुई बँगला की कविताओं से प्रभावित थे वे कुछ लाक्षणिक वैचित्र्य, व्यंजक चित्र-विन्यास और रुचिर अन्योक्तियाँ देखना चाहते थे। श्री पारसनाथसिंह के किए हुए बँगला कविताओं के हिंदी-अनुवाद 'सरस्वती' आदि पत्रिकाओं में संवत् १९६७ (सन् १९१०) से ही निकलने लगे थे। ग्रे,वर्ड्सवर्थ आदि अँगरेजी कवियों की रचनाओं के कुछ अनुवाद भी (जैसे, जीतनसिंह-द्वारा अनूदित वड्सवर्थ का 'कोकिल') निकले। अतः खड़ी बोली [ ६५० ]की कविता जिस रूप में चल रही थी उससे संतुष्ट न रहकर द्वितीय उत्थान के समाप्त होने के कुछ पहले ही कई कवि खड़ी बोली काव्य को कल्पना का नया रूप रंग देने और उसे अधिक अंतर्भावव्यंजक बनाने से प्रवृत्त हुए जिनमें प्रधान थे सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, मुकुटधर पांडेय और बदरीनाथ भट्ट। कुछ अँगरेजी ढर्रा लिए हुए जिस प्रकार की फुटकल कविताएँ और प्रगीत मुक्तक (Lyrics) बँगला से निकल रहे थे उनके प्रभाव से कुछ विशृंखल वस्तुविन्यास और अनूठे शीर्षकों के साथ चित्रमयी, कोमल और व्यंजक भाषा में इनकी नए ढंग की रचनाएँ संवत् १९७०-७१ से ही निकलने लगी थी, जिनमें से कुछ के भीतर रहस्य-भावना भी रहती थी।

गुप्तजी की 'नक्षत्रनिपात' (सन् १९१४), अनुरोध, (सन् १९१५), पुष्पांजलि (१९१७), स्वयं आगत (१९१८) इत्यादि कविताएँ ध्यान देने योग्य हैं। 'पुष्पांजलि' और 'स्वयं आगत' की कुछ पंक्तियाँ आगे देखिए––

(क) मेरे आँगन का एक फूल।
सौभाग्य-भाव से मिला हुआ, श्वासोच्छ्वासन से हिला हुआ,

संसार-विटप में खिला हुआ,
झड़ पड़ा अचानक झूल-झूल।

(ख) तेरे घर के द्वार बहुत है किससे होकर आऊँ मैं?
सब द्वारों पर भीड़ बड़ी है कैसे भीतर जाऊँ मैं।

इसी प्रकार गुप्तजी की और भी बहुत-सी गीतात्मक रचनाएँ है, जैसे––

(ग) निकल रही है उर से आह,
ताक रहे सब तेरी राह।
चातक बड़ा चोंच खोले हैं, सपुट खोले सीप खड़ी,
मैं अपना घट लिए खड़ा हूँ, अपनी अपनी हमें पड़ी।

(घ) प्यारे! तेरे कहने से जो यहाँ अचानक मैं आया।
दीप्ति बढ़ी दीपों की सहसा, मैंने भी ली साँस, कहा।
सो जाने के लिये जगत् का यह प्रकाश मैं जाग रहा।

[ ६५१ ]

किंतु उसी बुझते प्रकाश में डूब उठा मैं और बहा।
निरुद्देश नख-रेखाओं में देखी तेरी मूर्ति अहा!

गुप्तजीं तो, जैसा पहले कहा जा चुका है, किसी विशेष पद्धति या 'वाद' में न बँधकर कई पद्धतियों पर अब तक चले आ रहे है। पर मुकुटधरजी बराबर नूतन पद्धति पर ही चले। उनकी इस ढंग की प्रारंभिक रचनाओं में 'आशु', 'उद्गार' इत्यादि ध्यान देने योग्य हैं। कुछ नमूने देखिए––

(क) हुआ प्रकाश नमोमय प्रग में
मिला मुझे तू, दक्षिण जग में,
दंपति के मधुमय विलास में,
शिशु के स्वप्नोत्पन्न हास में,
वन्य कुसुम के शुचि सुवास में,
था तब क्रीटा-स्थान।

(१९१७)

(ख) मेरे जीवन की लघु तरणी,
आँखों के पानी में तर जा।
मेरे उर का छिपा खजाना,
अहंकार का भाव पुराना,
बना आज तू मुझे दिवाना,
तप्त श्वेत बूँदों में ढर जा।

(१९१७)

(ग) जब संध्या को ::हट जावेगी भीड़ महान्।
तब जाकर मैं तुम्हें सुनाऊँगा निज गान।
शून्य कक्ष के अथवा कोने में ही एक।
बैठ तुम्हारा करूँ वहाँ नीरव अभिषेक।

(१९२०)

पं॰ बदरीनाथ भट्ट भी सन् १९१३ के पहले से ही भाव-व्यंजक और अनूठे गीत रचते आ रहे थे। दो पंक्तियाँ देखिए––

दे रहा दीपक जलकर फूल,
रोपी उज्ज्वल प्रभा-पताका अंधकार हिय हूल।

[ ६५२ ]श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के भी इस ढंग के कुछ गीत सन् १९१५–१६ के आस-पास मिलेंगे।

ये कवि जगत् और जीवन के विस्तृत क्षेत्र के बीच नई कविता का संचार चाहते थे। ये प्रकृति के साधारण, असाधारण सब रूपों पर प्रेम दृष्टि डालकर, उसके रहस्य-भरे सच्चे संकेतों को परखकर, भाषा को अधिक चित्रमय, सजीव और मार्मिक रूप देकर कविता का एक अकृतिम, स्वछंद मार्ग निकाल रहे थे। भक्तिक्षेत्र में उपास्य की एकदेशीय या धर्मविशेष में प्रतिष्ठित भावना के स्थान पर सार्वभौम भावना की ओर बढ़ रहे थे। जिसमें सुंदर रहस्यात्मक संकेत भी रहते थे। अतः हिदी-कविता की नई धारा का प्रवर्तक इन्हीं को––विशेषतः श्री मैथिलीशरण गुप्त और मुकुटधर पांडेय को––समझाना चाहिए। इस दृष्टि से छायावाद का रूप-रंग खड़ा करने वाले कवियों के संबंध में अँगरेजी या बँगला की समीक्षाओं से उठाई हुई इस प्रकार की पदावली का कोई अर्थ नहीं कि 'इन कवियों के मन में एक आँधी उठ रही थी जिसमें आंदोलित होते हुए वे उड़े जा रहे थे; एक नूतन वेदना की छटपटाहट थी जिसमें सुख की मीठी अनुभूति भी लुकी हुई थी; रूढ़ियों के भार से दबी हुई युग की आत्मा अपनी अभिव्यक्ति के लिये हाथ पैर मार रही थी।' न कोई आँधी थी, न तूफान; न कोई नई कसक थी, न वेदना न प्राप्त युग की नाना परिस्थितियों का हृदय पर कोई नया आघात था, न उसका आहत नाद। इन बातों का कुछ अर्थ तब हो सकता था जब काव्य का प्रवाह ऐसी भूमियों की ओर मुड़ता जिन पर ध्यान न दिया गया रहा होता। छायावाद के पहले नए नए मार्मिक विषयों की ओर हिंदी-कविता प्रवृत्त होती आ रही थी। कसर थी तो आवश्यक और व्यंजक शैली की, कल्पना और संवेदना के अधिक योग की। तात्पर्य यह कि छायावाद जिस आकांक्षा का परिणाम था उसका लक्ष्य केवल अभिव्यंजना की रोचक प्रणाली का विकास था जो धीरे धीरे अपने स्वतंत्र ढर्रे पर श्री मैथिलीशरण गुप्त, मुकुटधर पांडेय आदि के द्वारा हो रहा था।

गुप्त जी और मुकुटधर पांडेय आदि के द्वारा यह स्वच्छंद नूतन धारा चली ही थी कि श्री रवींद्रनाथ ठाकुर की उन कविताओं की धूम हुई जो अधिकतर पाश्चात्य ढाँचे का आध्यात्मिक रहस्यवाद लेकर चली थीं। पुराने [ ६५३ ]ईसाई संतों के छायाभास (Phantasmata) तथा योरपीय काव्य-क्षेत्र में प्रवर्तित आध्यात्मिक प्रतीकवाद (Symbolism) के अनुकरण पर रची जाने के कारण बंगाल में ऐसी कविताएँ 'छायावाद' कही जाने लगी थीं। यह 'वाद' क्या प्रकट हुआ, एक बने-बनाए रास्ते का दरवाजा-सा खुल पड़ा और और हिंदी के कुछ नए कवि उधर एकबारगी झुक पड़े। यह अपना क्रमशः बनाया हुआ रास्ता नहीं था। इसका दूसरे साहित्य-क्षेत्र में प्रकट होना, कई कवियों का इस पर एक साथ चल पड़ना और कुछ दिनों तक इसके भीतर अँगरेजी और बँगला की पदावली का जगह जगह ज्यो का त्यो अनुवाद का जाना, ये बातें मार्ग की स्वतंत्र उद्भावना नहीं सूचित करती।

'छायावाद' नाम चल पड़ने का परिणाम यह हुआ कि बहुत से कवि रहस्यात्मकता, अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्र्य, वस्तु-विन्यास की विशृंखलता, चित्रमयी भाषा और मधुमयी कल्पना को ही साध्य मान कर चले। शैली की इन विशेषताओं की दूरारूढ़ साधना में ही लीन हो जाने के कारण अर्थभूमि के विस्तार की ओर उनकी दृष्टि न रही। विभाव पक्ष या तो शून्य अथवा अनिर्दिष्ट रह गया। इस प्रकार प्रसरणोन्मुख, काव्य-क्षेत्र बहुत संकुचित हो गया। असीम और अज्ञात प्रियतम के प्रति अत्यत चित्रमयी भाषा में अनेक प्रकार के प्रेमोद्गारों तक ही काव्य की गतिविधि प्रायः बँध गई। हृत्तत्री की झंकार, नीरव संदेश, अभिसार, अनत-प्रतीक्षा, प्रियतम का दबे पाँव आना, आँखमिचौली, मद में झूमना, विभोर होना, इत्यादि के साथ साथ शराब प्याला, साकी आदि सूफी कवियों के पुराने सामान भी इकट्ठे किए गए। कुछ हेर-फेर के साथ वही बँधी पदावली, वेदना का वही प्रकांड प्रदर्शन, कुछ विशृंखलता के साथ प्रायः सब कविताओं में मिलने लगा।

अज्ञेय और अव्यक्त को अज्ञेय और अव्यक्त ही रखकर कामवासना के शब्दों में प्रेम-व्यंजना भारतीय काव्य-धारा में कभी नहीं चली, यह स्पष्ट बात "हमारे यहाँ यह भी था" की प्रवृत्तिवालों को अच्छी नही लगती। इससे खिन्न होकर वे उपनिषद् से लेकर तंत्र और योग-मार्ग तक की दौड़ लगाते है। उपनिषदों में आए हुए आत्मा के पूर्ण आनंदस्वरूप के निर्देश, ब्रह्मानंद की अपरिमेयता को समझाने के लिये स्त्री-पुरुष-संबंधवाले दृष्टांत या उपमाएँ, योग [ ६५४ ]के सहस्रदल कमल आदि की भावना के बीच वे बड़े संतोष के साथ उद्धृत करते हैं। यह सब करने के पहले उन्हें समझना चाहिए कि जो बात ऊपर कही गई है उसका तात्पर्य क्या है। यह कौन कहता है कि मत-मतातरों की साधना के क्षेत्र में रहस्य-मार्ग नहीं चले? योग रहस्य-मार्ग है, तंत्र रहस्य-मार्ग है, रसायन भी रहस्य-मार्ग है। पर ये सब साधनात्मक है; प्रकृत भाव-भूमि या काव्य-भूमि के भीतर चले हुए मार्ग नहीं। भारतीय परंपरा का कोई कवि मणिपूर, अनाहत आदि चक्रों को लेकर तरह तरह के रंग महल बनाने में प्रवृत्त नहीं हुआ।

संहिताओं में तो अनेक प्रकार की बातों का संग्रह है। उपनिषदों में ब्रह्म और जगत्, आत्मा और परमात्मा के संबंध में कई प्रकार के मत हैं। वे काव्य-ग्रंथ नहीं हैं। उनमें इधर-उधर काव्य का जो स्वरूप मिलता है वह ऐतिह्य, कर्मकांड, दार्शनिक चिंतन, सांप्रदायिक गुह्य साधना, मंत्र-तंत्र, जादू-टोना इत्यादि बहुत-सी बातों में उलझा हुआ है। विशुद्ध काव्य का निखरा हुआ स्वरूप पीछे अलग हुआ। रामायण का आदिकाव्य कहलाना साफ यही सूचित करता है। संहिताओं और उपनिषदों को कभी किसी ने काव्य नहीं कहा। अब सीधा सवाल वह रह गया कि क्या वाल्मीकि से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक कोई एक भी ऐसा कवि बताया जा सकता है जिसने अज्ञेय और अव्यक्त को अज्ञेय और अव्यक्त ही रखकर प्रियतम बनाया हो और उसके प्रति कामुकता के शब्दों में प्रेम-व्यंजना की हो। कबीरदास किस प्रकार हमारे यहाँ के ज्ञानवाद और सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद को लेकर चले, यह हम पहले दिखा आए हैं[७]। उसी भावात्मक रहस्य-परंपरा का यह नूतन भाव-भंगी और लाक्षणिकता के साथ आविर्भाव है। बहुत रमणीय है, कुछ लोगों को अत्यंत रुचिकर है, यह और बात है।

प्रणय-वासना का यह उद्गार आध्यात्मिक पर्दे में ही छिपा न रह सका। हृदय की सारी काम-वासनाएँ, इद्रियों के सुख-विलास की मधुर और रमणीय सामग्री के बीच, एक बँधी हुई रूढ़ि पर व्यक्त होने लगीं। इस प्रकार रहस्यवाद [ ६५५ ]से संबंध न रखनेवाली कविताएँ भी छायावाद ही कही जाने लगीं।अतः 'छायावाद' शब्द का प्रयोग रहस्यवाद तक ही न रहकर काव्य-शैली के संबंध में भी प्रतीकवाद (Symabolism) के अर्थ में होने लगा।

छायावाद की इस धारा के आने के साथ ही साथ अनेक लेखक नवयुग के प्रतिनिधि बनकर योरप के साहित्य-क्षेत्र में प्रवर्तित काव्य और कला संबंधी अनेक नए पुराने सिद्धांत सामने लाने लगे। कुछ दिन, 'कलावाद' की धूम रही और कहा जाता रहा "कला का उद्देश्य कला ही है। इस जीवन के साथ काव्य का कोई संबंध नही; उसकी दुनिया ही और है किसी काव्यं के मूल्य का निर्धारण जीवन की किसी वस्तु के मूल्य के रूप में नहीं हो सकता है काव्य तो एक लोकातीत वस्तु है। कवि एक प्रकार का रहस्यदर्शी (Seer) या पैगंबर है[८]। इसी प्रकार क्रोचे के अभिव्यंजनावाद को लेकर बताया गया कि "काव्य में वस्तु या वर्ण्य-विषय कुछ नहीं; जो कुछ है वह अभिव्यंजना के ढंग का अनूठापन है[९]। "इन दोनों वादों के अनुसार काव्य का लक्ष्य उसी प्रकार सौंदर्य की सृष्टि या योजना कहा गया जिस प्रकार बेल-बूटे यो नक्काशी का। कवि-कल्पना प्रत्यक्ष-जगत् से अलग एक रमणीय स्वप्न घोषित किया जाने लगा और कवि सौंदर्य-भावना के मद में झूमनेवाला एक लोकातीत जीव। कला और काव्य की प्रेरणा का संबंध स्वप्न और कामवासना से बतानेवाला मत भी इधर-उधर उद्धृत हुआ। सारांश यह कि इस प्रकार के वाद-प्रवाद पत्र-पत्रिकाओं में निकलते रहे।

'छायावाद' की कविता की पहली दौड़ तो बंगभाषा की रहस्यात्मक कविताओं के सजीले और कोमल मार्ग पर हुई। पर उन कविताओं की बहुत-कुछ गतिविधि अँगरेजी वाक्य-खडों के अनुवाद द्वारा संघटित देख, अँगरेजी काव्यों से परिचित हिंदी-कवि सीधे अँगरेजी से ही तरह तरह के लाक्षणिक प्रयोग लेकर उनके ज्यों के त्यो अनुवाद जगह जगह अपनी रचनाओं में जड़ने लगे। 'कनक प्रभात', 'विचारों में बच्चों की साँस', 'स्वर्ण समय', 'प्रथम मधुबाल', [ ६५६ ]'तारिकाओं की तान', 'स्वप्निल क्रांति' ऐसे प्रयोग अजायबघर के जानवरों की तरह उनकी रचनाओं के भीतर इधर-उधर मिलने लगे। निराला जी की शैली कुछ अलग रही। उसमें लाक्षणिक वैचित्र्य का उतना आग्रह नहीं पाया जाता, जितना पदावली की तड़क-भड़क और पूरे वाक्य के वैलक्षण्य का। केवल भाषा के प्रयोग-वैचित्र्य तक ही बात न रही। ऊपर जिन अनेक योरपीय वादों और प्रवादों का उल्लेख हुआ है उन सब का प्रभाव भी छायावाद कही जानेवाली कविताओं के स्वरूप पर कुछ न कुछ पड़ता रहा।

कलावाद और अभिव्यंजनावाद का पहला प्रभाव यह दिखाई पड़ा कि काव्य में भावानुभूति के स्थान पर कल्पना का विधान ही प्रधान समझा जाने लगा और कल्पना अधिकतर अप्रस्तुतों की योजना करने तथा लाक्षणिक मूर्तिमत्ता और विचित्रता लाने में ही प्रवृत्त हुई। प्रकृति के नाना रूप और व्यापार इसी अप्रस्तुत योजना के काम में लाए गए। सीधे उनके मर्म की और हृदय प्रवृत्त न दिखाई पड़ा। पंतजी अलबत प्रकृति के कमनीय रूपों की ओर कुछ रुककर हृदय रमाते पाए गए।

दूसरा प्रभाव यह देखने में आया कि अभिव्यंजना-प्रणाली या शैली की विचित्रता ही सब कुछ समझी गई। नाना अर्थ-भूमियों पर काव्य का प्रसार रुक-सा गया। प्रेम-क्षेत्र (कहीं आध्यात्मिक, कहीं लौकिक) के भीतर ही कल्पना की चित्र-विधायिनी क्रीड़ा के साथ प्रकांड वेदना, औत्सुक्य, उन्माद आदि की व्यंजना तथा व्रीड़ा से दौड़ी हुई प्रिय के कपोलो पर की लालई, हाव-भाव, मधुस्राव तथा अश्रुप्रवाह इत्यादि के रँगीले वर्णन करके ही अनेक कवि अब तक पूर्ण तृप्त दिखाई देते है। जगत् और जीवन के नाना मार्मिक पक्षों की और उनकी दृष्टि नहीं है। बहुत से नए रसिक प्रस्वेद-गंध-युक्त, चिपचिपाती और भिनभिनाती भाषा को ही सब कुछ समझने लगे हैं। लक्षणा-शक्ति के सहारे अभिव्यंजना-प्रणाली या काव्य शैली का अवश्य बहुत अच्छा विकास हुआ है; पर अभी तक कुछ बँधे हुए शब्दों की रूढ़ि चली चल रही है। रीति-काल की शृंगारी कविता––कभी रहस्य का पर्दा डालकर कभी खुले मैदान––अपनी कुछ अदा बदलकर फिर प्रायः सारा काव्य-क्षेत्र छेककर चल रही है। [ ६५७ ]'कलावाद' के प्रसंग में बार-बार आने वाले 'सौंदर्य' शब्द के कारण बहुत से कवि बेचारी स्वर्ग की अप्सराओं को पर लगाकर कोहकाफ की परियों या विहिश्त के फरिश्तों की तरह उड़ाते हैं; सौंदर्यचयन के लिये, इद्रधनुषी बादल, उषा, विकच कलिका, पराग, सौरभ, स्मित आनन, अधर पल्लव इत्यादि बहुत-सी सुंदर और मधुर सामग्री प्रत्येक कविता में जुटाना आवश्यक समझते हैं। स्त्री के नाना अंगों के आरोप के बिना वे प्रकृति के किस दृश्य के सौंदर्य की भावना ही नहीं कर सकते। 'कला कला' की पुकार के कारण योरप में प्रगीत मुक्तकों (Lyrics) का ही अधिक चलन देखकर यहाँ भी उसी का जमाना यह बताकर कहा जाने लगा कि अब ऐसी लंबी कविताएँ पढ़ने की किसी को फुरसत कहाँ जिनमें कुछ इतिवृत्त भी मिला रहता हो। अब तो विशुद्ध काव्य की सामग्री जुटाकर सामने रख देनी चाहिए जो छोटे छोटे प्रगीत मुक्तकों में ही संभव हैं। इस प्रकार काव्य में जीवन की अनेक परिस्थितियों की ओर ले जानेवाले प्रसंगों या आख्यानों की उद्भावना बंद-सी हो गई।

खैरियत यह हुई कि कलावाद दी उस रसवर्जिनी सीमा तक लोग नहीं बढ़े। जहाँ यह कहा जाता है कि रसानुभूति के रूप में किसी प्रकार का भाव जगाना तो वक्ताओं का काम है; कलाकार का काम तो केवल कल्पना द्वारा बेल-बूटे या बारात की फुलवारी की तरह शब्दमयी रचना खड़ी करके सौंदर्य की अनुभूति उत्पन्न करना है। हृदय और वेदना का पक्ष छोड़ा नहीं गया है, इससे काव्य के प्रकृत स्वरूप के तिरोभाव की आशंका नहीं है। पर छायावाद और कलावाद के सहसा आ धमकने से वर्तमान काव्य का बहुत-सा अंश एक बँधी हुई लीक के भीतर सिमट गया, नाना अर्थभूमियों पर न जाने पाया, यह अवश्य कहा जायगा।

छायावाद की शाखा के भीतर धीरे-धीरे काव्यशैली का बहुत अच्छा विकास हुआ, इसमें संदेह नहीं। इसमें भावावेश की कुल व्यंजना, लाक्षणिक वैचित्र्य, मूर्त प्रत्यक्षीकरण, भाषा की वक्रता, विरोध चमत्कार, कोमल पद-विन्यास इत्यादि काव्य का स्वरूप संघटित करनेवाली प्रचुर सामग्री दिखाई पड़ी। भाषा के परिमार्जन काल में किस प्रकार खड़ी बोली की कविता के रूखे सूखे रूप से ऊबकर कुछ कवि उसमे सरसता लाने के चिह्न दिखा रहे थे, यह [ ६५८ ]कहा जा चुका है[१०]। अतः अध्यात्मिक रहस्यवाद का नूतन रूप हिंदी में न आता तो भी शैली और अभिव्यंजना-पद्धति की उक्त विशेषताएँ क्रमशः स्फुरित होतीं और उनका स्वतंत्र विकास होता। हमारी काव्य-भाषा में लाक्षणिकता का कैसा अनूठा आभास घनानंद की रचनाओं में मिलता है, यह हम दिखा चुके हैं[११]

छायावाद जहाँ अध्यात्मिक प्रेम लेकर चला है वहाँ तक तो रहस्यवाद के ही अंतर्गत रहा है। उसके आगे प्रतीकवाद या चित्रभाषावाद (symbolism) नाम की काव्य-शैली के रूप में गृहीत होकर भी वह अधिकतर प्रेमगान ही करता रहा है। हर्ष की बात है कि अब कई कवि उस संकीर्ण क्षेत्र से बाहर निकलकर जगत् और जीवन के और और मार्मिक पक्षों की ओर भी बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। इसी के साथ ही काव्य-शैली में प्रतिक्रिया के प्रदर्शन या नएपन की नुमाइश का शौक भी घट रहा है। अब अपनी शाखा की विशिष्टता को विभिन्नता की हद पर ले जाकर दिखाने की प्रवृत्ति का वेग क्रमशः कम तथा रचनाओं को सुव्यवस्थित और अर्थगर्भित रूप देने की रुचि क्रमशः अधिक होती दिखाई पड़ती है।

स्वर्गीय जयशंकर प्रसाद जी अधिकतर तो विरह वेदना के नाना सजीले शब्द-पथ निकालते तथा लौकिक और अलौकिक प्रणय का मधु गान ही करते रहे, पर इधर 'लहर' में कुछ ऐतिहासिक वृत्त लेकर छायावाद की शैली को चित्रमयी विस्तृत अर्थभूमि पर ले जाने का प्रयास भी उन्होंने किया और जगत् के वर्तमान दुःख-द्वेष-पूर्ण मानव-जीवन का अनुभव करके इस 'जले जगत् के वृंदावन बन जाने' की आशा भी प्रकट की तथा 'जीवन के प्रभात' को भी जगाया। इसी प्रकार श्री सुमित्रानंदन पंत ने 'गुंजन' में सौंदर्य-चयन से आगे बढ़ जीवन के नित्य स्वरूप पर दृष्टि डाली है; सुख-दुःख दोनों के साथ अपने हृदय का सामंजस्य किया है और 'जीवन की गति में भी लय' का अनुभव किया है। बहुत अच्छा होता यदि पंतजी उसी प्रकार जीवन की अनेक परिस्थि[ ६५९ ]तियों को नित्य रूप में लेकर अपनी सुंदर, चित्रमयी प्रतिभा को अग्रसर करते जिस प्रकार उन्होंने 'गुंजन' और 'युगांत' में किया है। पर 'युगवाणी' में उनकी वाणी बहुत कुछ वर्तमान आंदोलनों की प्रतिध्वनि के रूप में परिणत होती दिखाई देती है।

निराला जी की रचना का क्षेत्र तो पहले से ही कुछ विस्तृत रहा। उन्होंने जिस प्रकार 'तुम' और 'मैं' में उस रहस्यमय 'नाद वेद आकार सार' का गान किया, 'जूही की कली' और 'शेफालिका' में उन्मद प्रणय-चेष्टाओं के पुष्प-चित्र खड़े किए उसी प्रकार 'जागरण वीणा' बजाई, इस जगत् के बीच विधवा की विधुर और करुण मूर्ति खड़ी की और इधर आकर 'इलाहाबाद के पथ पर' एक पत्थर तोड़ती दीन स्त्री के माथे पर श्रम-सीकर दिखाए। सारांश यह कि अब शैली के वैलक्षण्य द्वारा प्रतिक्रिया-प्रदर्शन का वेग कम हो जाने से अर्थभूमि के रमणीय प्रसार के चिह्न भी छायावादी कहे जानेवाले कवियों की रचनाओं में दिखाई पड़ रहे हैं।

इधर हमारे साहित्य-क्षेत्र की प्रवृत्तियों का परिचालन बहुत-कुछ पश्चिम से होता है। 'कला में व्यक्तित्व' की चर्चा खूब फैलाने से कुछ कवि लोक के साथ अपना मेल न मिलने की अनुभूति की बड़ी लंबी चौड़ी व्यंजना, कुछ मार्मिकता और कुछ फक्कड़पन के साथ, करने लगे हैं। भाव क्षेत्र में असामंजस्य की इस अनुभूति का भी एक स्थान अवश्य है, पर यह कोई व्यापक या स्थायी मनोवृत्ति नहीं। हमारा भारतीय काव्य उस भूमि की ओर प्रवृत्त रहा है जहाँ जाकर प्रायः सब हृदयों का मेल हो जाता है। वह सामंजस्य लेकर––अनेकता में एकता को लेकर––चलता रहा है, असामंजस्य को लेकर नहीं।

उपर्युक्त परिवर्तनवाद और छायावाद को लेकर चलनेवाली कविताओं के साथ-साथ और दूसरी धाराओं की कविताएँ भी विकसित होती हुई चल रही हैं। द्विवेदीकाल में प्रवर्तित विविध वस्तु-भूमियों पर प्रसन्न प्रवाह के साथ चलनेवाली काव्यधारा सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, ठाकुर गोपालशरणसिंह, अनूप शर्मा, श्यामनारायण पांडेय, पुरोहित प्रतापनारायण, तुलसीराम शर्मा 'दिनेश' इत्यादि अनेक कवियों की वाणी के प्रसाद से विविध प्रसंग, आख्यान और विषय लेकर निखरती तथा प्रौढ़ और प्रगल्भ होती चली चल रही है। [ ६६० ]उसकी अभिव्यंजना प्रणाली में अब अच्छी सरसता और सजीवता तथा अपेक्षित वक्रता का भी विकास होता चल रहा है।

यद्यपि कई वादों के कूद पड़ने और प्रेमगान की परिपाटी (Lovelyrics) का फैशन चल पड़ने के कारण अर्थ-भूमि का बहुत कुछ संकोच हो गया और हमारे वर्तमान काव्य का बहुत-सा भाग कुछ रूढ़ियों को लेकर एक बँधी लीक पर बहुत दिनों तक चला, फिर भी स्वाभाविक स्वच्छंदता (True Romanticism) के उस नूतन पथ का ग्रहण करके कई कवि चले जिसका उल्लेख पहले हो चुका है। पं॰ रामनरेश त्रिपाठी के संबंध में द्वितीय उत्थान के भीतर कहा जा चुका है। तृतीय उत्थान के आरंभ में पं॰ मुकुटधर पांडेय की रचनाएँ छायावाद के पहले किस प्रकार नूतन, स्वच्छंद मार्ग निकाल रही थी यह भी हम दिखा आए हैं। मुकुटधरजी की रचनाएँ नरेतर प्राणियों की गतिविधि का राग-रहस्यपूर्ण परिचय देती हुई स्वाभाविक स्वच्छंदता की ओर झुकती मिलेगी। प्रकृति-प्रागण के चर-अचर प्राणियों का रागपूर्ण परिचय, उनकी गति-विधि पर आत्मीयता-व्यंजक दृष्टिपात , सुख-दुख में उनके साहचर्य की भावना, ये सब बातें स्वाभाविक स्वच्छंदता के पथ-चिन्ह हैं। सर्वश्री सियारामशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, ठाकुर गुरुभक्तसिंह, उदयशंकर भट्ट इत्यादि। कई कवि विस्तृत अर्थ भूमि पर स्वाभाविक स्वच्छंदता का मर्मपथ ग्रहण करके बन रहे हैं। वे न तो केवल नवीनता के प्रदर्शन के लिये पुराने छंदों-को तिरस्कार करते हैं, न उन्हीं से एकबारगी बँधकर चलते हैं। वे प्रसंग के अनुकूल परंपरागत पुराने छंदों का व्यवहार और नए ढंग के छदों तथा चरण-व्यवस्थाओं का विधान भी करते हैं, व्यंजक चित्र-विन्यास, लाक्षणिक वक्रता और मूर्तिमत्ता, सरल पदावली आदि का भी सहारा लेते है, पर इन्हीं बातों को सब कुछ नहीं समझते। एक छोटे से घेरे में इनके प्रदर्शन मात्र से वे संतुष्ट नहीं दिखाई देते हैं। उनकी कल्पना इस व्यक्त जगत और जीवन की अनंत वीथियों में हृदय की साथ लेकर विचरने के लिये आकुल दिखाई देती है।

तृतियोत्थान की प्रवृत्तियों के इस संक्षिप्त विवरण से ब्रजभाषा-काव्य परंपरा के अतिरिक्त इस समय चलनेवाली खड़ी बोली की तीन मुख्य धाराएँ स्पष्ट हुई होंगी––द्विवेदी-काल की क्रमशः विस्तृत और परिष्कृत होती हुई धारा, छायावाद [ ६६१ ]कही जानेवाली धारा तथा स्वाभाविक स्वच्छंदता को लेकर चलती हुई धारा जिसके अंतर्गत राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन की लालसा व्यक्त करने-वाली शाखा भी हम ले सकते हैं। ये धाराएँ वर्तमान काल में चल रही हैं। और अभी इतिहास की सामग्री नहीं बनी है। इसलिये इनके भीतर की कुछ कृतियों और कुछ कवियों का थोड़ा-सा विवरण देकर ही, हम संतोष करेंगे। इनके बीच मुख्य भेद वस्तु-विधान और अभिव्यंजन-कला के रूप और परिणाम में है। पर काव्य की भिन्न भिन्न धाराओं के भेद इतने निर्दिष्ट नहीं हो सकते कि एक की कोई विशेषता दूसरी से कही दिखाई हीन पड़े। जब कि धाराएँ साथ-साथ चल रही हैं तब उनका थोड़ा-बहुत प्रभाव एक दूसरे पर पड़ेगा ही। एक धारा का कवि दूसरी धारा की किसी विशेषता में भी अपनी कुछ-निपुणता दिखाने की कभी इच्छा कर सकता है‌। धाराओं का विभाग सबसे अधिक सामान्य प्रवृति देखकर ही किया जा सकता है। फिर भी दो चार कवि ऐसे रह जायँगे जिनमें सब धाराओं की विशेषताएँ समान रूप से पाई जायँगी, जिनकी रचनाओं का स्वरूप मिला-जुला होगा। कुछ विशेष प्रवृत्ति होगी भी तो व्यक्तिगत होगी।


१––ब्रजभाषा काव्य-परंपरा

जैसा कि द्वितीयोत्थान के अंत में कहा जा चुका है, ब्रजभाषा की परंपरा भी चली चल रही है। यद्यपि खड़ी बोली की चलन हो ब्रजभाषा की रचनाएँ प्रकाशित बहुत कम होती है पर अभी कितने कवि नगरों और ग्रामों में बराबर ब्रज-वाणी की कविताएँ गा रहे हैं। जब कहीं किसी स्थान पर कवि-सम्मेलन होता है। तो अज्ञात कवि आकर अपनी रचनाओं से लोगोज्ञकी 'उद्ववशतक' ऐसी उत्कृष्ट रचनाएँ इसी सबद्ध प्रबन्ध काव्यों में हमारा 'बुद्धचरि' जिसमें भगवान् बुद्ध का लोकपावन चरित। वर्णित है जिसमे रामकृष्ण की लीला को अब [ ६६२ ]श्री वियोगी हरि जी की 'वीरसतसई' पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक मिले बहुत दिन नहीं हुए। देव पुरस्कार से पुरस्कृत श्री दुलारेलाल जी भार्गव के दोहे बिहारी के रास्ते पर चल ही रहे हैं। अयोध्या के श्री रामनाथ ज्योतिषी को 'रामचंद्रोदय' काव्य के लिये देव-पुरस्कार, थोड़े ही दिन हुए, मिला है। मेवाड़ के श्री केसरीसिंह बारहट का 'प्रताप-चरित्र' वीररस का एक बहुत उत्कृष्ट काव्य है जो सं॰ १९९२ में प्रकाशित हुआ है। पंडित गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' की सरस कविताओं की धूम कवि-संमेलनों में बराबर रहा करती है। प्रसिद्ध कलाविद् राय कृष्णदास जी का 'ब्रजरज' इसी तृतीयोत्थान के भीतर प्रकाशित हुआ। इधर श्री उमाशंकर वाजपेयी 'उमेश' जी की 'ब्रजभारती' में ब्रजभाषा बिलकुल नई सज-धज के साथ दिखाई पड़ी है।

हम नहीं चाहते, और शायद कोई भी नहीं चाहेगा, कि ब्रजभाषा-काव्य की धारा लुप्त हो जाय। उसे यदि इस काल में भी चलना है तो वर्तमान भावों को ग्रहण करने के साथ भाषा का भी कुछ परिष्कार करना पड़ेगा। उसे चलती ब्रज-भाषा के अधिक मेल में लाना होगा। अप्रचलित संस्कृत शब्दों को भी अब बिगड़े रूपों में रखने की आवश्यकता नहीं। 'बुद्धचरित' काव्य में भाषा के संबंध में हमने इसी पद्धति का अनुसरण किया था और कोई बाधा नहीं दिखाई पड़ी थी।



२––द्विवेदीकाल में प्रवर्तित खड़ी बोली की काव्य-धारा

इस धारा का प्रवर्तन द्वितीय उत्थान में इस बात को लेकर हुआ था कि ब्रजभाषा के स्थान पर अब प्रचलित खड़ी बोली में कविता होनी चाहिए, शृंगार रस के कवित्त, सवैए बहुत लिखे जा चुके, अब और विषयों को लेकर तथा और छंदों में भी रचना चलनी चाहिए। खड़ी बोली को पद्यों में अच्छी तरह ढलने में जो काल लगा उसके भीतर की रचना तो बहुत कुछ इतिवृत्तात्मक रही, पर इधर इस तृतीय उत्थान में आकर यह काव्य-धारा कल्पनान्वित, भावाविष्ट और अभिव्यंजनात्मक हुई। भाषा का कुछ दूर तक चलता हुआ स्निग्ध, प्रसन्न और प्रांजल प्रवाह इस धारा की सबसे बड़ी विशेषता है। खड़ी [ ६६३ ]बोली वास्तव में इसी धारा के भीतर मँजी है। भाषा का मँजना वहीं संभव होता है जहाँ उसकी अपनी गतिविधि का पूरा समावेश होता है और कुछ दूर तक चलनेवाले वाक्य सफाई के साथ पद्यों में बैठते चले जाते है। एक संबंध सूत्र में बद्ध कई अर्थ-समूहों की एक समन्वित भावना व्यक्त करने के लिये ही ऐसी भाषा अपेक्षित होती है। जहाँ एक दूसरे से असंवद्ध छोटी-छोटी भावनाओं को लेकर वाग्वैशिष्टय की झलक यो चलचित्र की-सी छाया दिखाने की प्रवृत्ति प्रधान होगी वहाँ भाषा की समन्वयशक्ति का परिचय न मिलेगा। व्यापक समन्वय के बिना कोई ऐसा समन्वित प्रभाव भी नहीं पड़ सकता जो कुछ काल तक स्थायी रहे। स्थायी प्रभाव की ओर लक्ष्य इस काव्य-धारा में बना हुआ है।

दूसरी बात जो इस धारा के भीतर मिलती है वह है हमारे यहाँ के प्रचलित छंदों या उनके भिन्न-भिन्न योगों से संघटित छंदों का व्यवहार। इन छंदों की लयों के भीतर नाद-सौंदर्य की इमारी रुचि निहित है। नवीनता में बट्टा लगने के डर से ही इन छंदो को छोड़ना सहृदयता से अपने को दूर बताना हैं। नई रंगत की कविताओं में जो पद्य यो चरण रखे जाते हैं उन्हें प्रायः अलापने की जरूरत होती है। पर ठीक लय के साथ कविता पढ़ना और अलाप के साथ गाना दोनों अलग अलग है।

इस धारा में कल्पना और भावात्मिका वृत्ति अधर में नाचती तो नहीं मिलती हैं पर बोध-वृत्ति द्वारा उद्घाटित भूमि पर टिककर उसकी मार्मिकता का प्रकाश करती अवश्य दिखाई पड़ती है। इससे कला का कुतूहल तो नहीं खड़ा होता, पर हृदय को रमानेवाली बात सामने आ जाती है। यह बात तो स्पष्ट है। कि ज्ञान ही काव्य के संचरण के लिये रास्ता खोलता है। ज्ञान-प्रसार के भीतर-ही हृदय-प्रसार होती है और हृदय-प्रसार ही काव्य का सच्चा लक्ष्य है। अतः ज्ञान के साथ लगकर ही जब हमारा हृदय परिचालित होगा तभी काव्य की नई नई मार्मिक अर्थभूमियों की ओर वह बढ़ेगा। ज्ञान को किनारे रखकर, उसके द्वारा सामने लाए हुए जगत् और जीवन के नाना पक्षों की ओर न बढ़कर, यदि काव्य प्रवृत्त होगा तो किसी एक भाव को लेकर अभिव्यंजना के वैचित्र्य-प्रदर्शन में लगा रह जायगा। इस दशा में काव्य का विभाव पक्ष शून्य होता [ ६६४ ]जायगा, उसकी अनेकरूपकता सामने न आएगी। इस दृष्टि से देखने पर यह कहा जा सकता है कि यह धारा एक समीचीन पद्धति पर चली। इस पद्धति के भीतर इधर आकर काव्यत्व का अच्छा विकास हो रहा है, यह देखकर प्रसन्नता होती है।

अब इस पद्धति पर चलनेवाले कुछ प्रमुख कवियों का उल्लेख किया जाता हैं।

ठाकुर गोपालशरणसिंह––ठाकुर साहब अनेक मार्मिक विषयों का चयन करते चले हैं। इससे इनकी रचनाओं के भीतर खड़ी बोली बराबर मँजती चली आ रही है। इन रचनाओं का आरंभ संवत् १९७१ से होता है। अब तक इनकी रचनाओं के पाँच संग्रह निकल चुके हैं––माधवी, मानवी, संचिता, ज्योष्मती, कादंबिनी। प्रारंभिक रचनाएँ साधारण हैं, पर आगे चलकर हमें बराबर मार्मिक उद्भावना तथा अभिव्यंजना की एक विशिष्ट पद्धति मिलती है। इनकी छोटी छोटी रचनाओं में, जिनमें से कुछ गेय भी हैं, जीवन की अनेक दशाओं की झलक हैं। 'मानवी' में इन्होंने नारी को दुलहिन, देवदासी, उपेक्षिता, अभागिनी, भिखारिनी, वारांगना इत्यादि अनेक रूपों में देखा है। 'ज्योतिष्मती' के पूर्वार्द्ध में तो असीम और अव्यक्त 'तुम' हैं और उत्तरार्द्ध में ससीम और व्यक्त 'मै' संसार के बीच। इसमें प्रायः उन्हीं भावों की व्यंजना है जिनकी छायावाद के भीतर होती हैं, पर ढंग बिल्कुल अलग अर्थात् रहस्यदर्शियों का सा न होकर भोले-भाले भक्तों का सा है कवि ने प्रार्थना भी की है कि––

पृथ्वी पर ही मेरे पद हों,
दूर सदा आकाश रहे।

व्यंजना को गूढ़ बनाने के लिये कुछ असंबद्धता लाने, नितांत अपेक्षित पद या वाक्य भी छोड़ देने, अत्यंत अस्फुट संबंध के आधार पर उपक्षणों का व्यवहार करने का प्रयत्न इनकी रचनाओं में नहीं पाया जाता। आज-कल बहुत चलते हुए कुछ रमणीय लाक्षणिक प्रयोग अवश्य कहीं कहीं मिलते हैं। कुछ प्रगीत मुक्तकों में यत्रतत्र छायावादी कविता के रूपक भी इन्होंने रखे हैं, पर वे खुलकर सामने आते हैं जैसे–– [ ६६५ ]

सज-धजकर मृदु व्यथा-सुंदरी तजकर सब घर बार।
दुःख-यामिनी में जीवन की करती है अभिसार॥

उस अनंत के साथ अपना 'अटल संबंध' कवि बड़ी सफाई से इतने ही में व्यक्त कर देता है––

तू अनंत धुतिमय प्रकाश है, मैं हूँ मलिने अँधेरा,
पर सदैव संबंध अटल है, जग में मेरा तेरा।
उदय-अस्त तक तेरा साथी मैं ही हूँ इस जग में,
मैं तुझमें ही मिल जाता हूँ होता जहाँ सबेरा॥

'मानवी' में अभागिनी को संबोधन करके कवि कहता है––

चुकती है नहीं निशा तेरी; हे कभी प्रभात नहीं होता।
तेरे सुहाग का सुख बाले! आजीवन रहता है सोता॥
हैं फूल फूल जाते मधु में; सुरमित मलयानिल बहती हे।
सब लता-बल्लियाँ खिलती हैं, बस तू मुरझाई रहती है॥
सब आशाएँ-अभिलाषाएँ, उर-कारागृह में बंद हुई।
तेरे मन की दुख-ज्वालाएँ; मेरे मन में छंद हुई॥

अनूप शर्मा––बहुत दिनों तक ये ब्रजभाषा में ही अपनी ओजस्विनी बाग्धारा बहाते रहे। खड़ी बोली का जमाना देखकर ये उसकी ओर मुड़े। कुणाल का चरित्र इन्होंने 'सुनाल' नामक खंडकाव्य में लिखा। फिर बुद्ध भगवान् का चरित्र लेकर 'सिद्धार्थ' नामक अठारह सर्गों का एक महाकाव्य संस्कृत के अनेक वर्ण-वृत्तों में इन्होंने लिखा। इनकी फुटकल कविताओं का संग्रह 'सुमनांजलि' में है। इन्होंने फुटकल प्रसगों के लिये कवित्त ही चुना है। भाषा के सरल प्रवाह के अतिरिक्त इनकी सबसे बड़ी विशेषता है व्यापक दृष्टि जिससे ये इमारे ज्ञान-पथ में आनेवाले अनेक विषयों को अपनी कल्पना द्वारा आकर्षण और मार्मिक रूप में रखकर काव्यभूमि के भीतर ले आए है। जगत् के इतिहास, विज्ञान आदि द्वारा हमारा ज्ञान जहाँ तक पहुँचा है वहाँ तक हृदय को भी ले जाना आधुनिक कवियों का काम होना चाहिए। अनूप जी इसकी ओर बढ़े हैं। 'जीवन-मरण' में कवि की कल्पना जगत के इतिहास की विविध [ ६६६ ]

नभ पर चम चम चपला चमकी, चम चम चमकी तलवार इधर।
भैरव अमंद घननाद उधर, दोनों दल की ललकार इधर॥
xxxx
कलकल बहती थी रणगंगा, अरिदल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी, चटपट पार लगाने को॥
बैरीदल की ललकार गिरी, वह नागिन सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो बचो; तलवार गिरी, तरवार गिरी॥
क्षण इधर गई, क्षण उधर गई, क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई।
था प्रलय चमकती जिधर गई, क्षण शोर हो गया किधर गई॥

पुरोहित प्रतापनारायण––इन्होंने 'नलनरेश' नामक महाकाव्य १९ सर्गों में रोला, हरिगीतिका आदि हिंदी छंदों में लिखा है। इसकी शैली अधिकतर उस काल की है जिस काल में द्विवेदीजी के प्रभाव से खड़ी बोली हिंदी के पद्यों में परिमार्जित होती हुई ढल रही थी। खड़ी बोली की काव्य शैली में इधर मार्मिकता, भावाकुलता और वक्रता का विकास हुआ है इसका अभास इस ग्रंथ में नहीं मिलता। अलंकारों की योजना बीच बीच में अच्छी की गई है। इस ग्रंथ में महाकाव्य की उन सब रूढ़ियों का अनुसरण किया गया है जिनके कारण हमारे यहाँ के मध्यकाल के बहुत से प्रबंध-काव्य कृत्रिम और प्रभावशून्य हो गए। इस बीसवीं सदी के लोगों का मन विरह ताप के लेपादि उपचार, चंद्रोपालभ इत्यादि में नहीं रम सकता। श्री मैथिलीशरण गुप्त के 'साकेत' में भी कुछ ऐसी रूढ़ियों का अनुसरण जी उबाता हैं। 'मन के मोती' और 'नव निकुंज' में प्रतापनारायण जी की खड़ी बोली की फुटकल रचनाएँ संगृहीत हैं जिनकी शैली अधिकतर इतिवृत्तात्मक है। 'काव्य कानन' नामक बड़े संग्रह में ब्रजभाषा की भी कुछ कविताएँ हैं।

तुलसीराम शर्मा 'दिनेश'––ने २७२ पृष्ठों का एक बड़ा भारी काव्य-ग्रंथ पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के चरित के विविध अंगों को लेकर लिखा है। यह आठ अंगों में समाप्त हुआ है। इसमें कई पात्रों के मुँह से आधुनिक समय में उठे हुए भावों की व्यंजना कराई गई है। जैसे श्रीकृष्ण उद्धव द्वारा गोपियों को सँदेसा भेजते हैं कि–– [ ६६७ ]

दीन-दरिद्रों के देहों को मेरा मंदिर मानो।
उनके आर्त्त उसासों को ही वंशी के स्वर जानो।

इसी प्रकार द्वारका के दुर्ग पर बैठकर कृष्ण भगवान बलराम-का ध्यान कृषकों की दशा की ओर इस प्रकार आकर्षित करते हैं-

जो ढकता है जग के तन को, रखता लज्जा सबकी।
जिसके पूत पसीने द्वारा बनती है मज्जा सबकी।
आज कृषक वह पिसा हुआ है इन प्रमत्त भूपों द्वारा।
उसके घर की गायों का रे। दूध बना मदिरा सारा।

पुरुषों के सब कामों में हाथ बँटाने की सामर्थ्य स्त्रियाँ रखती है यह बात रुक्मिणी कहती मिलती हैं।

यह सब होने पर भी भाषा प्रौढ़, चलती और आकर्षक नहीं।


३-छायावाद

संवत् १९७० तक किस प्रकार 'खड़ी बोली' के पद्यों में ढलकर मँजने की अवस्था पार हुई और श्री मैथिलीशरण गुप्त, मुकुटधर पांडेय आदि कई कवि खड़ी बोली काव्य को अधिक कल्पनामय, चित्रमय और अंतर्भाव-व्यंजक रूप-रंग देने में प्रवृत्त हुए, यह कहा जा चुका है। उनके कुछ रहस्य भावापन्न प्रगीत मुक्तक भी दिखाए जा चुके हैं। वे किस प्रकार काव्य-क्षेत्र का प्रसार चाहते थे, प्रकृति की साधारण-साधारण वस्तुओं से अपने चिर संबंध का सच्चा मार्मिक अनुभव करते हुए चले थे, इसका भी निर्देश हो चुका है।

यह स्वच्छंद नूतन पद्धति अपना रास्ता निकाल ही रही थी कि श्री रवींद्रनाथ की रहस्यात्मक कविताओं की धूम हुई और कई कवि एक साथ 'रहस्यवाद', और 'प्रतीकवाद' या 'चित्रभाषावाद' को ही एकांत ध्येय बनाकर चल पड़े। 'चित्रभाषा' या अभिव्यंजन-पद्धति पर ही जब लक्ष्य टिक गया तब उसके प्रदर्शन के लिये लौकिक या अलौकिक प्रेम का क्षेत्र ही काफी समझा गया। इस बँधे हुए क्षेत्र के भीतर चलने वाले काव्य ने 'छायावाद' का नाम ग्रहण किया। [ ६६८ ]भूमियों के चित्र सामने लाई है। इसी प्रकार 'विराट् भ्रमण' में देवी के आकाशचारी रथ पर बैठ कवि ने इस विराट् विश्व का दर्शन किया है। एक झलक देखिए—

पीछे दृष्टिगोचर था गोल चक्र पूषण का,
घूमता हुआ जो नील संपुटी में चलता।
मानो जलयान के वितल पृष्ठ भाग मध्य,
आता चला फेन पीत पिंड-सा उबलता॥
उबल रहे थे धूमकेतु धुरियों से तीव्र,
यान-केनु ताड़ित नभचक्र था उछलता।
मारूत का, मन का, प्रसग पड़ा पीछे जब—
आगे चला बाजि-यूथ आतप उगलता॥

श्री जगदंबाप्रसाद 'हितैषी'—खड़ी बोली के कवित्तों और सवैयों में वही सरसता, वही लचक, वही भाव-गमी लाए हैं जो ब्रजभाषा के कवित्तों और सवैयों में पाई जाती है। इस बात में इनका स्थान निराला है। यदि खड़ी बोली की कविता आरंभ में ऐसी ही सजीवता के साथ चली होती जैसी इनकी रचनाओं में पाई जाती है तो उसे रूखी और नीरस कोई न कहता। रचनाओं का रंग-रूप अनूठा और आकर्षक होने पर भी अजनबी नहीं है। शैली वही पुराने उस्तादों के कवित्त-सवैयो की है जिनमें वाग्धारा अंतिम चरण पर जाकर चमक उठती हैं। हितैषी जी ने अनेक काव्योपयुक्त विषय लेकर फुटकल छोटी-छोटी रचनाएँ की हैं जो 'कल्लोलिनी' और 'नवोदिता' में संगृहीत है। अन्योक्तियाँ इनकी बहुत मार्मिक हैं। रचना के कुछ नमूने देखिए—

किरण

दुखिनी बनी कुटी में कभी, महलों में कभी महरानी बनी।
बनी फूटती ज्वालामुली तो कभी, हिमकूट की देवी हिमानी बनी॥
चमकी बन विद्युत् रौद्र कभी, घन आनँद अश्रु-कहानी बनीं।
सविता-ससि-स्नेह सोहाग-सनी, कभी आग बनी कभी पानी बनी।

[ ६६९ ]

भवसिंधु के बुद्बुद् प्राणियों की तुम्हें शीतल श्वासा कहे, कहो तो।
अथवा छलनी बने अबर के उर की अभिलाषा कहें, कहो तो॥
घुलते हुए चंद्र के प्राण की पीड़ा-भरी परिभाषा कहे, कहो तो।
नभ से गिरती नखतावलि के नयनों की निराशा कहे, कहो तो॥


परिचय

हूँ हितैषी सताया हुआ किसी का, हर तौर किसी का बिसारा हुआ।
घर से किसी के हूँ निकाला हुआ, दर से किसी के दुतकारा हुआ॥
नज़रों से गिराया हुआ किसी का, दिल से किसी का हूँ उतारा हुआ।
अजी हाल हमारा हो पूछते क्या? हूँ मुसीबत का इक मारा हुआ॥

श्री श्यामनारायण पांडेय––इन्होंने पहले "त्रेता के दो वीर" नामक एक छोटा-सा काव्य लिखा था जिसमें लक्ष्मण-मेघनाद-युद्ध के कई प्रसंग लेकर दोनों वीरों का महत्त्व चित्रित किया गया था। यह रचना हरिगीतिका तथा संस्कृत के कई वर्णवृत्तों में द्वितीय उत्थान की शैली पर है। 'माधव' और 'रिमझिम' नाम की इनकी दो और छोटी-छोटी रचनाएँ हैं। इनकी ओजस्विनी प्रतिभा का पूर्ण विकास 'हल्दीघाटी' नामक १७ सर्गों के महाकाव्य में दिखाई पड़ा। 'उत्साह' की अनेक अंतर्दशाओं की व्यंजना तथा युद्ध की अनेक परिस्थितियों के चित्र से पूर्ण यह काव्य खड़ी बोली में अपने ढंग का एक ही है। युद्ध के समाकुल वेग और संघर्ष का ऐसा सजीव और प्रवाहपूर्ण वर्णन बहुत कम देखने में आता है। कुछ पद्य नीचे दिए जाते हैं––

सावन का हरित प्रभात रहा, अंबर पर थी घनघोर घटा।
फहराकर पंख थिरकते थे, मन भाती थी बन-मोर-छटा॥
वारिद के उर में चमक-दमक, तड़ तड़ थी बिजली तड़क रही।
रह रह कर जल था बरस रहा, रणधीर भुजा थी फड़क रही॥
xxxx
धरती की प्यास बुझाने को, वह घहर रही थी घनसेना।
लोहू पीने के लिये खड़ी, यह हहर रही थी जनसेना॥

[ ६७० ]रहस्य-भावना और अभिव्यंजन पद्धति पर ही प्रधान लक्ष्य हो जाने और काव्य को केवल कल्पना की सृष्टि कहने का चलन हो जाने से भावानुभूति तक कल्पित होने लगी। जिस प्रकार अनेक प्रकार की रमणीय वस्तुओं की कल्पना की जाती है उसी प्रकार अनेक प्रकार की विचित्र भावानुभूतियों की कल्पना भी बहुत कुछ होने लगी। काव्य की प्रकृत पद्धति तो यह हैं कि वस्तु-योजना चाहे लोकोत्तर हो पर भावानुभूति का स्वरूप सच्चा अर्थात् स्वाभाविक वासना जन्य हो। भावानुभूति का स्वरूप भी यदि कल्पित होगा तो हृदय से उसका संबंध क्या रहेगा? भावानुभूति भी यदि ऐसी होगी जैसी नहीं हुआ करती तो सचाई (Sincerity) कहाँ रहेगी? यदि कोई मृत्यु को केवल जीवन की पूर्णता कहकर उसका प्रबल अभिलाष व्यंजित करें, अपने मर-मिटने के अधिकार पर गर्व की व्यंजना करे तो कथन के वैचित्र्य से हमारा मनोरंजन तो अवश्य होगा पर ऐसे अभिलाष या पर्व की कहीं सत्ता मानने की आवश्यकता न होगी।

'छायावाद' शब्द का प्रयोग दो अथों में समझाना चाहिए। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका संबंध काव्य-वस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। रहस्यवाद के अंतर्गत रचनाएँ पहुँचे हुए पुराने संतो या साधकों की उस वाणी के अनुकरण पर होती हैं जो तुरीयावस्था या समाधि दशा में नाना रूपकों के रूप में उपलब्ध आध्यात्मिक ज्ञान का आभास देती हुई मानी जाती थीं। इस रूपात्मक आभास को योरप में 'छाया' (Phantasmata) कहते थे। इसी से बंगाल में ब्रह्मसमाज के बीच उक्त वाणी के अनुकरण पर जो अध्यात्मिक गीत या भजन बनते थे वे 'छायावाद' कहलाने लगे। धीरे धीरे यह शब्द धार्मिक क्षेत्र से वहाँ के साहित्य-क्षेत्र में आया और फिर रवींद्र बाबू की धूम मचने पर हिंदी के साहित्य-क्षेत्र में भी प्रकट हुआ।

'छायावाद' शब्द का दूसरा प्रयोग काव्यशैली या पद्धति-विशेष के व्यापक अर्थ में हैं। सन् १८८५ में फ्रांस में रहस्यवादी कवियों का एक दल खड़ा हुआ जो प्रतीकवादी (Symbolists) कहलाया। वे अपनी रचनाओं में प्रस्तुतों के स्थान पर अधिकतर अप्रस्तुत प्रतीकों को लेकर चलते थे। इसी से [ ६७१ ]उनकी शैली की ओर लक्ष्य करके 'प्रतीकवाद' शब्द का व्यवहार होने लगा। अध्यात्मिक या ईश्वरप्रेम संबंधी कविताओं के अतिरिक्त और सब प्रकार की कविताओं के लिये भी प्रतीक शैली की ओर वहाँ प्रवृत्ति रही। हिंदी में 'छायावाद' शब्द का जो व्यापक अर्थ––रहस्यवादी रचनाओं के अतिरिक्त और प्रकार की रचनाओं के संबंध में भी––ग्रहण हुआ वह इसी प्रतीक शैली के अर्थ में। छायावाद का सामान्यतः अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करनेवाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन। इस शैली के भीतर किसी वस्तु या विषय का वर्णन किया जा सकता है।

'छायावाद' का केवल पहला अर्थात् मूल अर्थ लेकर तो हिंदी काव्य क्षेत्र में चलनेवाली श्री महादेवी वर्मा हैं। पंत, प्रसाद, निराला इत्यादि और सब कवि प्रतीक पद्धति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही छायावादी कहलाए।[१२]

रहस्यवाद के भीतर आनेवाली रचनाएँ तो थोड़ी या बहुत सभी ने उक्त पद्धति पर की हैं, पर उनकी शब्द-कला वासनात्मक प्रणयोद्गार, बेदनाविवृति, सौंदर्यसंघटन, मधुचर्या, अतृप्ति-व्यंजना इत्यादि में अधिकतर नियुक्त रही। जीवन के अवसाद, विषाद और नैराश्य की झलक भी उनके मधुमय गानों में मिलती रही। इस परिमित क्षेत्र के भीतर चित्रभाषा-शैली का वैलक्षण्य के साथ वे प्रदर्शन करते रहे। जैसा कि सामान्य परिचय के भीतर कहा जा चुका है, वैलक्षण्य लाने के लिये अँगरेजी की लाक्षणिक पदावलियों के अनुवाद भी ज्यों के त्यों रखे जाते रहे। जिनकी प्रवृत्ति लाक्षणिक वैचित्र्य की और कम थी वे बंगभाषा के कवियों के ढंग पर श्रुतिरंजक या नादानुकृत पदावली गुंफित करने में अधिक तत्पर दिखाई दिए।

चित्रभाषा-शैली या प्रतीक पद्धति के अंतर्गत जिस प्रकार वादक पदों के स्थान पर लक्षक पदों का व्यवहार आता है उसी प्रकार प्रस्तुत प्रसंग के स्थान पर उसकी व्यंजना करनेवाले अप्रस्तुत चित्रों का विधान भी। अतः अन्योक्ति पद्धति का अवलंबन भी छायावाद का एक विशेष लक्षण हुआ। यह पहले कहा जा चुका है कि छायावाद का चलन द्विवेदी-काल की रूखी इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। अतः इस प्रतिक्रिया का प्रदर्शन केवल लक्षण [ ६७२ ]और अन्योक्ति के प्राचुर्य के रूप में ही नहीं, कहीं कहीं उपमा और उत्प्रेक्षा की भरमार के रूप में भी हुआ। इनमें से उपादान और लक्षण-लक्षणों को छोड़ सब बातें किसी न किसी प्रकार की साम्य-भावना के अधार पर ही खड़ी होनेवाली हैं। साम्य को लेकर अनेक प्रकार की अलंकृत रचनाएँ बहुत पहले भी होती थीं तथा रीतिकाल और उसके पीछे भी होती रही है। अतः छायावाद की रचनाओं के भीतर साम्य ग्रहण की उस प्रणाली का निरूपण आवश्यक है जिसके कारण उसे एक विशिष्ट रूप प्राप्त हुआ।

हमारे यहाँ साम्य मुख्यत: तीन प्रकार का माना गया है। सादृश्य (रूप या आकार का साम्य), साधर्म्य (गुण का क्रिया का साम्य) और केवल शब्द-साम्य (दो भिन्न वस्तुओं का एक ही नाम होना) इनमें से अंतिम तो श्लेष की शब्दक्रीड़ा दिखलानेवालों के ही काम का है। रहे सादृश्य और साधर्म्य। विचार करने पर इन दोनों में प्रभाव-ताम्य छिपा मिलेगा। सिद्ध कवियों की दृष्टि ऐसे ही अप्रस्तुतों की ओर जाती है जो प्रस्तुतों के समान ही सौंदर्य, दीप्ति, कांति, कोमलता, प्रचड़ता, भीषणता, उग्रता, उदासी, अवसाद, खिन्नता, इत्यादि की भावना जगाते हैं। काव्य में बँधे चले आते हुए उपमान अधिकतर इस प्रकार के है। केवल-रूप-रंग, आकार-या व्यापार को ऊपर से देखकर या नाप जोखकर, भावना पर उनका प्रभाव परखे बिना, वे नहीं रखे जाते थे। पीछे कवि-कर्म के बहुत कुछ श्रमसाध्य या अभ्यासगग्य होने के कारण जब कृत्रिमता आने लगी तब बहुत से अपमान केवल बाहरी नाप-जोख के अनुसार भी रखे जाने लगे। कटि की सूक्ष्मता दिखाने के लिये सिंहिनी और भीड़ सामने लाई जाने लगी।

छायावाद बड़ी सहृदयता के साथ प्रभाव साम्य पर ही विशेष लक्ष्य रखकर चला हैं। कहीं कहीं तो बाहरी सादृश्य था साधर्म्य अत्यंत अल्प या न रहने पर भी अभ्यंतर प्रभाव साम्य लेकर ही अप्रस्तुतों का सनिवेश कर दिया जाता है। ऐसे अप्रस्तुत अधिकतर उपलक्षण के रूप में या प्रतीकवत् (symbolic) होते हैं––जैसे, सुख, आनंद, प्रफुल्लता, योवनकाल इत्यादि के स्थान पर उनके द्योतक ऊषा, प्रभात, मधुकाल; प्रिया के स्थान पर मुकुल; प्रेमी के स्थान पर मधुप; श्वेत या शुभ्र के स्थान पर कुंद, रजत, माधुर्य के स्थान पर, मधु दीप्ति[ ६७३ ]मान या कांतिमान के स्थान पर स्वर्ण; विषाद या अवसाद के स्थान पर अंधकार, अँधेरी रात, या संध्या की छाया, पतझड़; मानसिक आकुलता या क्षोभ के स्थान पर झंझा, तूफान; भाव-तरंग के लिये झंकार; भाव-प्रवाह के लिये संगीत या मुरली का स्वर इत्यादि। आभ्यंतर प्रवाह-साम्य के आधार पर लाक्षणिक और व्यंजनात्मक पद्धति का प्रगल्भ और प्रचुर विकास छायावाद की काव्य शैली की असली विशेषता है।

हिंदी काव्य-परंपरा में अन्योक्ति-पद्धति का प्रचार तो रहा है, पर लाक्षणिकता का एक प्रकार से अभाव ही रहा। केवल कुछ रूढ़ लक्षणाएँ मुहावरों के रूप में कहीं कहीं मिल जाती थीं। ब्रजभाषा कवियों में लाक्षणिक साहस किसी ने दिखाया तो घनानंद ने। इस तृतीय उत्थान में सब से अधिक लाक्षणिक साहस पंतजी ने अपने 'पल्लव' में दिखाया। जैसे––

(१) धूल की ढेरी में अनजान। छिपे हैं मेरे मधुमय गान। (धूलकी ढेरी=असुंदर वस्तुएँ। मधुमय गान=गान के विषय अर्थात् सुंदर वस्तुएँ।)

(२) मर्म पीड़ा के हास=विकास, समृद्धि। विरोध-वैचित्र्य के लिये व्यंग्य व्यंजक संबंध को लेकर लक्षणा।) (मर्म-पीडा के हास!=हे मेरे पीड़ित मन!––आधार-आवेग संबंध लेकर)

(३) चाँदनी का स्वभाव में वास। विचारों में बच्चों की साँस। (चाँदनी=मृदुलता, शीतलता। बच्चों की साँस=भोलापन।)

(४) मृत्यु का यही दीर्घ विश्वास (मृत्यु= आसन्नमृत्यु व्यक्ति अथवा मृतक के लिये शोक करनेवाले व्यक्ति)

(५) कौन तुम अतुल अरूप अनाम। शिशु के लिये। अल्पार्थक के स्थान पर निषेधार्थक)।

'पल्लव' में प्रतिक्रिया के आवेश के कारण वैचित्र्य-प्रदर्शन की प्रवृत्ति अधिक थी; जिसके लिये कहीं कहीं अँगरेजी के लाक्षणिक प्रयोग भी ज्यों के त्यों ले लिए गए। पर पीछे यह प्रवृत्ति घटती गई।

[ ६७४ ]'प्रसाद' की रचनाओं में शब्दों के लाक्षणिक वैचित्र्य की प्रवृत्ति उतनी नहीं रही हैं जितनी साम्य की दूरारूढ़ भावना की। उनके उपलक्षण (symbols) सामान्य अनुभूति के मेल में होते थे। जैसे––

(१) झंझा झकोर गर्जन हैं, बिजली है, नीरदमाला।
पाकर इस शून्य हृदय को, सबने आ डेरा डाला॥

(झंझा झकोर=क्षोभ, आकुलता। गर्जन=वेदना की तड़प। बिजली=चमक या टीस। नीरदमाला=अंधकार। शून्य शब्द विशेषण के अतिरिक्त आकाश वाचक भी है, जिससे उक्ति में बहुत सुंदर समन्वय आ जाता है)।

(२) पतझड़ या, झाड़ खड़े थे सूखे से फुलवारी में।
किसलय दल कुसुम बिछाकर आए तुम इस क्यारी में॥

(पतझड=उदासी। किसलय दल कुसुम=वसंत=सरसता और प्रफुल्लता)––आँसू'

(३) काँटों ने भी पहना मोती। (कँटीले पौधों=पीड़ा पहुंचानेवाले कठोर-हृदय मनुष्य। पहना मोती=हिमबिंदु धारण किया=अश्रुपूर्ण हुए)––'लहर'

अप्रस्तुत किस प्रकार एकदेशीय, सूक्ष्म और धुँधले पर मर्मव्यंजक साम्य की धुँधला-सा आधार लेकर खड़े किए जाते हैं; यह बात नीचे के कुछ उद्धरणों से स्पष्ट हो जायगी––

(१) उठ उठ री लघु लघु लोल लहर।
करुणा की नव अँगड़ाई-सी, मलयानिल की परछाई सी,
इस सूखे तट पर छहर छहर॥

(लहर=सरस-कोमल भाव। सुखा तट=शुष्क जीवन। अप्रस्तुत या उपमान भी लाक्षणिक हैं।)

(२) गूढ़ कल्पना-सी कवियों की, अज्ञात के विस्मय-सी।
ऋषियों के गंभीर हृदय-सी बच्चों के तुतले भय-सी।––'छाया'

(३) गिरिवर के उर से उठ उठ कर, उच्चाकांक्षाओं-से तरुवर हैं झाँक रहे नीरव नभ पर। (उठे हुए पेड़ों को साम्य मनुष्य के हृदय की उन उच्च आकांक्षाओं से जो लोक के परे जाती हैं।)

(४) बनमाला के गीतों-सा निर्जन में बिखरा है मधुमास॥ [ ६७५ ]छायावाद की रचनाएँ गीतों के रूप में ही अधिकतर होती हैं। इससे उनमें अन्विति कम दिखाई पड़ती है। जहाँ यह अन्विति होती है वहाँ समूची रचना अन्योक्ति-पद्धति पर की जाती है। इस प्रकार साम्य-भावना का ही प्राचुर्य हम सर्वत्र पाते हैं। यह साम्य-भावना हमारे हृदय का प्रसार करनेवाली, शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के गूढ़ संबंध की धारणा बँधानेवाली, अत्यंत अपेक्षित मनोभूमि है, इसमें संदेह नहीं। पर यह सच्चा मार्मिक प्रभाव, वहीं उत्पन्न करती है जहाँ यह प्राकृतिक वस्तु या व्यापार से प्राप्त सच्चे आभास के आधार पर खड़ी होती है। प्रकृति अपने अनंत रूपों और व्यापारों के द्वारा अनेक बातों की गूढ़ या अगूढ़ व्यंजना करती रहती है। इस व्यंजना को न परखकर या न ग्रहण करके जो साम्य-विधान होगा वह मनमाना आरोप-मात्र होगा। इस अनंत विश्व महाकाव्य की व्यंजनाओं की परख के साथ जो साम्य-विधान होता है वही मार्मिक और उद्बोधक होता है। जैसे––

दुखदावा से नव अंकुर पाता जग जीवन का बन
करुणार्द्र विश्व का गर्जन बरसाता नव जीवन कण।
खुल खुल नव इच्छाएँ फैलातीं जीवन के दल।

यह शैशव का सरल हास है, सहसा उर से है आ जाता।
यह ऊषा का नव विकास है, जो रज को है रजत बनाता।
यह लघु लहरों का विलास है, कलानाथ जिसमें खिंच आता॥
xxxx

हँस पड़े कुसुमों में छविमान, जहाँ जग में पदचिह्न पुनीत।
वहीं सुख में आँसू बन प्राण, ओस में, लुढ़क दमकते गीत॥

––गुंजन


मेरा अनुराग फैलने दो, नभ के अभिनव कलरव में।
जाकर सूनेपन के तम में, बन किरन कभी आ जाना॥


[ ६७६ ]

'अखिल की लघुता' आई वन, समय का सुंदर वातायन

देखने को अदृष्ट नर्त्तन।


––लहर




जल उठा स्नेह दीपक-सा नवनीत हृदय था मेरा।
अब शेष घूमरेखा से, चित्रित कर रहा अँधेरा॥

––आँसू



मनमाने आरोप जिनका विधान प्रकृति के संकेत पर नहीं होता, हृदय के मर्मस्थल का स्पर्श नहीं करते, केवल वैचित्र्य वा कुतूहल मात्र उत्पन्न करके रह जाते हैं। छायावाद की कविता पर कल्पनावाद, कलावाद, अभिव्यंजनावाद आदि का भी प्रभाव ज्ञात या अज्ञात रूप में पड़ता रहता है। इससे बहुत सा अप्रस्तुत विधान मनमाने आरोप के रूप में भी सामने आता है। प्रकृति के वस्तु-व्यापारों पर मानुषी वृत्तियों के आरोप का बहुत अधिक चलन हो जाने से कहीं कहीं ये आरोप वस्तु-व्यापारो की प्रकृत व्यंजना से बहुत दूर-जा पड़े है, जैसे––चाँदनी के इस वर्णन में––

(१) जग के दुख दैन्य शयन पर यह रुग्णा जीवन-बाला।
पीली पर निर्बल कोमल, कृश देह-लता कुम्हलाई।
विवसना, लाज में लिपटी; साँसों में शून्य समाई॥

चाँदनी अपने-आप इस प्रकार की भावना मन में नहीं जगाती। उसके संबंध में यह उद्भावना भी केवल स्त्री की सुंदर मुद्रा सामने खड़ी करती जान पडती है––

(२) नीले नभ के शतदल पर वह बैठी शारद-हासिनी।
मृदु करतल पर शशिमुख धर नीरव अनिमिष एकाकिनि॥

इसी प्रकार आँसुओं को "नयनों के बाल" कहना भी व्यर्थ-सा है। नीचे की जूठी प्याली भी (जो बहुत आया करती है) किसी मैखाने से लाकर रखी जान पड़ती है–– [ ६७७ ]

(३) लहरों में प्यास भरी है, है भंवर मात्र से खाली।
मानस का सब रस पीकर, लुढ़का दी तुमने प्याली॥

प्रकृति के नाना रूपों के सौंदर्य की भावना सदैव स्त्री-सौंदर्य का आरोप करके करना उक्त भावना की संकीर्णता सूचित करता है। कालिदास ने भी मेघदूत में निर्विध्या और सिंधु नदियों में स्त्री-सौंदर्य की भावना की है जिससे नदी और मेध के प्रकृत संबंध की व्यंजना होती है। ग्रीष्म में नदियाँ सूखती सूखती पतली हो जाती हैं और तपती रहती हैं। उनपर जब मेघ छाया करता है तब वे शीतल हो जाती है और उस छाया को अंक में धारण किए दिखाई देती है। वही मेघ बरसकर उनकी क्षीणता दूर करता हैं। दोनों के बीच इसी प्राकृतिक संबंध की व्यंजना ग्रहण करके कालिदास ने अप्रस्तुत विधान किया है। पर सौंदर्य की भावना सर्वत्र स्त्री का चित्र चपकाकर करना खेल-सा हो जाता है। उषा सुंदरी के कपोलों की ललाई, रजनी के रत्नजटित केशकलाप, दीर्घ निश्वास और अश्रुबिंदु तो रूढ़ हो ही गए हैं; किरन, लहर, चंद्रिका, छाया, तितली सब अप्सराएँ या परियाँ बनकर ही सामने आने पाती हैं। इसी तरह प्रकृति के नाना व्यापार भी चुंबन, आलिंगन, मधुग्रहण, मधुदान, कामिनी की क्रीड़ा इत्यादि में अधिकतर परिणत दिखाई देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति की नाना वस्तुओं और व्यापारों का अपना-अपना अलग सौंदर्य भी है जो एक ही प्रकार की वस्तु या व्यापार के आरोप द्वारा अभिव्यक्त नहीं हो सकता।

इसी प्रकार पंतजी की 'छाया', 'बीचि-विलास', 'नक्षत्र' में जो यहाँ से वहाँ तक उपमानों का ढेर लगा है उनमें से बहुत से तो अत्यंत सूक्ष्म और सुकुमार साम्य के व्यंजक हैं और बहुत से रंग-बिरंगे खिलौनों के रूप में ही है। ऐसी रचनाएँ उस 'कल्पनावाद', 'कलावाद' या 'अभिव्यंजनावाद' के उदाहरण-सी लगती हैं जिसके अनुसार कवि-कल्पना का काम प्रकृति की नाना वस्तुएँ लेकर एक नया निर्माण करना या नूतन सृष्टि खड़ी करना है। प्रकृति के सच्चे स्वरूप, उसकी सच्ची व्यंजना ग्रहण करना उक्त वादों के अनुसार आवश्यक नहीं। उनके अनुसार तो प्रकृति की नाना वस्तुओं का उपयोग केवल उपादान के रूप में है; उसी प्रकार जैसे बालक ईट, पत्थर, लकड़ी, कागज, फूलपत्ती लेकर हाथी-घोड़े, घर-बगीचे इत्यादि बनाया करते हैं। प्रकृति के नाना [ ६७८ ]चित्रों के द्वारा अपनी भावनाएँ व्यक्त करना तो बहुत ठीक है, पर उन भावनाओं को व्यक्त करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति भी तो गृहीत चित्रों में होनी चाहिए।

छायावाद की प्रवृत्ति अधिकतर प्रेम-गीतात्मक होने के कारण हमारा वर्तमान काव्य प्रसंगों को अनेकरूपता के साथ नई नई अर्थभूमियों पर कुछ दिन तक बहुत कम चल पाया। कुछ कवियों में वस्तु का आधार अत्यंत अल्प रहता रहा है; विशेष लक्ष्य अभिव्यंजना के अनूठे विस्तार पर रहा है। इससे उनकी रचनाओं को बहुत सा भाग अधर में ठहराया सा जान पड़ता है। जिन वस्तुओं के आधार पर उक्तियाँ मन में खड़ी की जाती हैं उनका कुछ भाग कला के अनूठेपन के लिये पंक्तियों के इधर उधर से हटा भी लिया जाता है। अतः कहीं कहीं व्यवहृत शब्दों की व्यंजकता प्रर्याप्त के होने पर भाव अस्फुट रह जाता है, पाठक को अपनी ओर से बहुत कुछ आक्षेप करना पड़ता है, जैसे नीचे की पत्तियों में––

निज अलकों के अंधकार, में तुम कैसे छिप आओगे।
इतना मजग कुतूहल! ठहरो, यह न कभी बन पाओगे।
आह चूम लूँ जिन चरणों को चाँप चाँप कर उन्हें नहीं,
दुख दो इतना, अरे! अरुणिमा ऊषा-सी वह उधर नहीं।

यहाँ कवि ने उस प्रियतम के छिपकर दबे पाँव आने की बात कही हैं जिनके चरण इतने सुकुमार हैं कि जब आहट ने सुनाई पड़ने के लिये वे उन्हें बहुत दबा दबा कर रखते हैं तब एँड़ियों में ऊपर की ओर खून की लाली दौड़ जाती हैं। वही ललाई उषा की लाली के रूप में झलकती है। 'प्रसाद' जी का ध्यान शरीर-विकारों पर विशेष जमता था। इसी से उन्होंने 'चाँप चाँप कर दुख दो' में ललाई दौड़ने की कल्पना पाठकों के ऊपर छोड़ दी है। 'कामायनी' में उन्होंने मले हुए कान में भी कामिनी के कपोलों पर की 'लज्जा की लाली' दिखाई।

अभिव्यंजना की पद्धति या काव्य-शैली पर ही प्रधान लक्ष्य रहने से छायावाद के भीतर उसका बहुत ही रमणीय विकास हुआ है, यह हम पहले कह [ ६७९ ]आए हैं[१३]। साम्य भावना और लक्षणा शक्ति के बल पर किस प्रकार काव्योपयुक्त चित्रमयी भाषा की ओर सामान्यतः झुकाव हुआ यह भी कहा जा चुका है। साम्य पहले उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक––ऐसे अलंकारों के बड़े बड़े साँचों के भीतर ही फैलाकर दिखाया जाता था। यह प्रायः थोड़े में या तो लाक्षणिक प्रयोगों के द्वारा झलका दिया जाता है अथवा कुछ प्रच्छन्न रूपकों में प्रतीयमान रहता है। इसी प्रकार किसी तथ्य या पूरे प्रसंग के लिये दृष्टांत, अर्थातरन्यास आदि का सहारा न लेकर अब अन्योक्ति पद्धति ही अधिक चलती है। यह बहुत ही परिष्कृत पद्धति है। पर यह न समझना चाहिए कि उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि का प्रयोग नहीं होता है; बराबर होता है और बहुत होता है। उपमा में धर्म बराबर लुप्त रहता है। प्रतिवस्तूपमा, हेतुत्प्रेक्षा, विरोध, श्लेष, एकावली इत्यादि अलंकार भी कहीं कहीं पाए जाते हैं।

किस प्रकार एक बँधे घेरे से निकलकर अब छायावादी कहे जानेवाले कवि धीरे धीरे जगत् और जीवन के अनंत क्षेत्र में इधर-उधर दृष्टि फैलाते देखे जा रहे हैं, इसका आभास दिया जा चुका है। अब तक उनकी कल्पना थोड़ी सी जगह के भीतर कलापूर्ण और मनोरंजक नृत्य-सी कर रही थी। वह जगत् और जीवन के जटिल स्वरूप से घबरानेवालों का जी बहलाने का काम करती रही है। अब उसे अखिल जीवन के नाना पक्षों की मार्मिकता का साक्षात्कार करते हुए एक करीने के साथ रास्ता चलना पड़ेगा। इसके लिये उसे अपनी चपलता और भाव-भंगिमा का प्रदर्शन, क्रीड़ा-कौतुक की प्रवृत्ति कुछ संयत करनी पड़ेगी। इस ऊँचे-नीचे मर्म-पथ पर चित्रों को बहुत अधिक फालतू बोझ लादकर चलना भी वाणी के लिये उपयुक्त न होगा। प्रसाद जी ने 'लहर' में छायावाद की चित्रमयी शैली को तीन ऐतिहासिक जीवन-खंडों के बीच ले जाकर आजमाया है। उनमें कथावस्तु का विन्यास नाटकीय पद्धति पर करके उन्होंने बाह्य और आभ्यंतर परिस्थितियों का व्यंजक, मनोहर, मार्मिक या आवेशपूर्ण शब्द-विधान किया है। पर कहीं कहीं जहाँ मधुमय चित्रों की परंपरा दूर तक चली है वहाँ समन्वित प्रभाव में बाधा पड़ी है। 'कामायनी' में [ ६८० ]उन्होंने नर-जीवन के विकास में भिन्न भिन्न भावात्मिका वृत्तियों का योग और संघर्ष बड़ी प्रगल्भ और रमणीय कल्पना-द्वारा चित्रित कर मानवता का रसात्मक इतिहास प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार निराला जी ने, जिनकी वाणी पहले से भी बहुमुखी थी, 'तुलसीदास' के मानस-विकास का बड़ा ही दिव्य और विशाल रंगीन चित्र खींचा है।

अब हम तृतीय उत्थान के वर्तमान कवियों और उनकी कृतियों का संक्षेप में कुछ परिचय दे देना आवश्यक समझते हैं––

श्री जयशंकर प्रसाद पहले ब्रजभाषा में कविताएँ लिखा करते थे जिनका संग्रह 'चित्राधार' में हुआ है। संवत् १९७० से वे खड़ी बोली की ओर आए और 'कानन-कुसुम', 'महाराणा का महत्त्व', 'करुणालय' और 'प्रेम-पथिक' प्रकाशित हुए। 'कानन-कुसुम' में तो प्रायः उसी ढंग की कविताएँ हैं जिस ढंग की द्विवेदी-काल में निकला करती थीं। 'महाराणा का महत्त्व' और 'प्रेमपथिक' (सं॰ १९७०) अतुकांत रचना है जिसका मार्ग पं॰ श्रीधर पाठक पहले दिखा चुके थे। भारतेंदु काल में ही पं॰ अंबिकादत्त व्यास ने बँगला की देखा-देखी कुछ अतुकांत पद्य आजमाए थे। पीछे पंडित श्रीधर पाठक ने 'सांध्य अटन' नाम की कविता खड़ी बोली के अतुकांत (तथा चरण के बीच में पूर्ण विरामवाले) पद्यों में बड़ी सफलता के साथ प्रस्तुत की थी।

सामान्य परिचय के अंतर्गत दिखाया जा चुका है कि किस प्रकार सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, बदरीनाथ भट्ट और मुकुटधर पांडेय इत्यादि कई कवि अंतर्भावना की प्रगल्भ चित्रमयी व्यंजना के उपयुक्त स्वच्छंद नूतन पद्धति निकाल रहे थे[१४]। पीछे उस नूतन पद्धति पर प्रसाद जी ने भी कुछ छोटी-छोटी कविताएँ लिखीं जो सं॰ १९७५ (सन् १९१८) में 'झरना' के भीतर संग्रहीत हुईं। 'झरना' की उन २४ कविताओं में उस समय नूतन पद्धति पर निकलती हुई कविताओं से कोई ऐसी विशिष्टता नहीं थी जिस पर ध्यान जाता। दूसरे संस्करण में, जो बहुत पीछे संवत् १९८४ में निकला, पुस्तक का स्वरूप ही बदल गया। उसमें आधी से ऊपर अर्थात् ३१ नई रचनाएँ जोड़ी गईं [ ६८१ ]जिनमें पूरा रहस्यवाद, अभिव्यंजना का अनूठापन, व्यंजक चित्र-विधान सब कुछ मिल जाता है। 'विषाद', 'बालू की बेला' 'खोलो द्वार', 'बिखरा हुआ प्रेम', 'किरण', 'बसंत की प्रतीक्षा' इत्यादि उन्हीं पीछे जोड़ी हुई रचनाओं में हैं जो पहले (सं॰ १९७५ के) संस्करण में नहीं थीं। इस द्वितीय संस्करण में ही छायावाद कही जानेवाली विशेषताएँ स्फुट रूप में दिखाई पड़ीं। इसके पहले श्री सुमित्रानंदन पंत का 'पल्लव' बड़ी धूम धाम से निकल चुका था, जिसमें रहस्य-भावना तो कहीं कहीं, पर अप्रस्तुत-विधान, चित्रमयी भाषा और लाक्षणिक वैचित्र्य आदि विशेषताएँ अत्यंत प्रचुर परिमाण में सर्वत्र दिखाई पड़ी थीं।

प्रसाद जी में ऐसी मधुमयी प्रतिभा और ऐसी जागरूक भावुकता अवश्य थी कि उन्होंने इस पद्धति का अपने ढंग पर बहुत ही मनोरम विकास किया। संस्कृत की कोमल-कांत पदावली का जैसा सुंदर चयन बंगभाषा के काव्यों में हुआ है वैसी अन्य देशी भाषाओं के साहित्य में नहीं दिखाई पड़ता। उनके परिशीलन से पदलालित्य की जो गूँज प्रसाद जी के मन में समाई वह बराबर बनी रही।

जीवन के प्रेम-विलास-मय मधुर पक्ष की ओर स्वाभाविक प्रवृत्ति होने के कारण वे 'उस प्रियतम' के संयोग-वियोगवाली रहस्य- भावना में––जिसे स्वाभाविक रहस्यभावना से अलग समझना चाहिए––रमते प्रायः पाए जाते है। प्रेमचर्या के शारीरिक व्यापारों और चेष्टाओं (अश्रु, स्वेद, चुंबन, परिरंभण, लज्जा को दौड़ी हुई लाली, इत्यादि), रंगरलियों और अठखेलियों, वेदना की कसक और टीस इत्यादि की ओर इनकी दृष्टि विशेष जमती थी। इसी मधुमयी प्रवृत्ति के अनुरूप प्रकृति के अनंत क्षेत्र में भी वल्लरियों के दान, कलिकाओं की मंद मुसकान, सुमनों के मधुपत्रि, मंडराते मलिंदो के गुंजार, सौरभहर समीर की लपक, पराग-मकरंद की लूट, उषा के कपोलों पर लज्जा की लाली, आकाश और पृथ्वी के अनुरागमय परिरंभ' रजनी के आँसू से भीगे अंबर, चंद्रमुख पर शरद्धन के सकते अवगुंठन, मधुमास की मधुवर्षा और झूमती मादकता इत्यादि पर अधिक दृष्टि जाती थी। अतः इनकी रहस्यवादी रचनाओं को देख चाहे तो यह कहे कि इनकी मधुचर्या के मानस-प्रसार [ ६८२ ]के लिये रहस्यवाद का परदा मिल गया अथवा यों कहें कि इनकी सारी प्रणयानुभूति ससीम पर से कूदकर असीम पर जा रही है।

इनकी पहली विशिष्ट रचना "आँसू" (सं॰ १९८८) है। 'आँसू' वास्तव में तो हैं। शृंगारी विप्रलंभ के, जिनमें अतीत संयोग-सुख की खिन्न स्मृतियाँ रह रहकर झलक मारती हैं, पर जहाँ प्रेमी की मादकता की बेसुधी में प्रियतम नीचे से ऊपर आते और संज्ञा की दशा में चले जाते हैं,[१५] जहाँ हृदय की तरंगें 'उस अनंत कोने' को नहलाने चलती हैं, वहाँ वे आँसू उस 'अज्ञात प्रियतम' के लिये बहते जान पड़ते हैं। फिर जहाँ कवि यह देखने लगता है कि ऊपर तो––

अवकाश[१६] असीम सुखों से आकाशतरंग[१७] बनाता,
हँसता-सा छाया-पथ में नक्षत्र-समाज दिखाता।

पर

नीचे विपुला धारणी है दुख-भार वहन-सी करती,
अपने खारे आँसू से करुणा-सागर को भरती।

और इस 'चिर दग्ध दुखी वसुधा' को, इस निर्मल जगती को, अपनी प्रेस-वेदना की कल्याणी शीतल ज्वालामय उजाला देना चाहता है, वहाँ वे आँसू लोकपीड़ा पर करुणा के आँसू से जान पड़ते हैं। पर वहीं पर जब हम कवि की दृष्टि अपनी सदा जगती हुई अखंड ज्वाला की प्रभविष्णुता पर इस प्रकार जमी पाते हैं कि "है मेरी ज्वाला!

तेरे प्रकाश में चेतन संसार वेदनावाला
मेरे समीप होता है पाकर कुछ करुण उजाला।"

[ ६८३ ]तब ज्वाला या प्रेम-वेदना की अतिरंजित और दूरारूद भावना ही––जो शृंगार की पुरानी रूढ़ि है––रह जाती है। कहने का तात्पर्य यह कि वेदना की कोई एक निर्दिष्ट भूमि न होने से सारी पुस्तक का कोई एक समन्वित प्रभाव नहीं निष्पन्न होता है।

पर अलग अलग लेने पर उक्तियों के भीतर बड़ी ही रंजन-कारिणी कल्पना व्यंजक चित्रों की बड़ा ही अनूठा विन्यास, भावनाओं की अत्यंत सुकुमार योजना मिलती है। प्रसाद जी की यह पहली काव्य-रचना है जिसने बहुत लोगों को आकर्षित किया। अभिव्यंजना की प्रगल्भता और विचित्रता के भीतर प्रेमवेदना की दिव्य विभूति का, विश्व में उसके मंगलमय प्रभाव का, सुख और दुःख दोनों को अपनाने की उसकी अपार शक्ति का और उसकी छाया में सौंदर्य और मंगल के संगम का भी आभास पाया जाता है। 'नियतिवाद' और 'दुःखवाद' का विषण्ण स्वर भी सुनाई पड़ता है। इस चेतना को दूर हटाकर मद-तंद्रा, स्वप्न और असंज्ञा की दशा का आह्वान रहस्यवाद की एक स्वीकृत विधि है। इस विधि का पालन 'आंसू' से लेकर 'कामायनी' तक हुआ है। अपने ही लिये नहीं, उजाले में हाथ-पैर मारनेवाली 'चिर दग्ध दुखी वसुधा' के लिये भी यही नींद लानेवाली दवा लेकर आने को कवि निशा से कहता है––

चिर दग्ध दुखी यह वसुधा आलोक माँगती, तब भी,
तुम तुहिन बरस दो कन कन, यह पगली सोय अब भी।

चेतना की शांति या विस्मृति की दशा में ही 'कल्याण की वर्षा' होती है, मिलन-सुख प्राप्त होता है। अतः उसके लिये रात्रि की भावना को बढ़ाकर प्रसाद जी महारात्रि तक ले गए हैं, जो सृष्टि और प्रलय का संधि-काल है, जिसमें सारे नाम-रूपों को लय हो जाता है––

चैतना-लहर न उठेगी जीवन-समुद्र थिर होगा,
संध्या हो, सर्ग प्रलय की विच्छेद मिलन फिर होगा।

'आंसू' के उपरांत दूसरी रचना 'लहर' है, जो कई प्रकार की कविताओं का संग्रह है। 'लहर' पर एक छोटी-सी कविता सबसे पहले दी गई है। इसी से समूचे [ ६८४ ]संग्रह का नाम 'लहर' रखा गया। 'लहर' से कवि का अभिप्राय उस आनंद की लहर है जो मनुष्य के मानस में उठा करती है और उसके जीवन को सरस करती रहती है उसे ठहराने की पुकार अपने व्यक्तिगत नीरस जीवन को भी सरल करने के लिये कही जा सकती है और अखिल मानव-जीवन को भी। यह जीवन की लहर भीतर उसी प्रकार स्मृति-चिह्न छोड़ जाती है जिस प्रकार जल दी लहरें सूखी नदी की बालू के बीच पसलियों की-सी उभरी रेखाएँ छोड़ जाती हैं––

उठ, उठ, गिर गिर, फिर फिर आती।
नर्त्तित पद-चिह्न बना जाती;
सिकता की, रेखाएँ उभार,
भर जाती अपनी तरल सिहर।

इनमें भी उस प्रियतम का आँख-मिचौनी खेलना, दबे पाँव आना, किरन-उँगलियों से आँख मूँदना (या मूँदने की कोशिश करना क्योंकि उस ज्योतिर्मय का कुछ आभास मिल ही जाता है) प्रियतम की ओर अभिसार इत्यादि रहस्यवाद की सब सामग्री है। प्रियतम अज्ञात रहकर भी किस प्रेम का आलंबन रहता है, यह भी दो-एक जगह सूचित किया गया है। जैसे––

तुम हो कौन और मैं क्या हूँ? इसमें क्या है धरा, सुनो।
मानस जलधि रहे चिर चुंबित, मेरे क्षितिज! उदार बनो॥

इसी प्रकार "हे सागर संगम अरुण नील!" में यह चित्र सामने रखा गया है कि सागर ने हिमालय से निकली नदी को कब देखा था, और नदी ने सागर को कब देखा था पर नदी निकल कर स्वर्ण-स्वप्न देखती उसी की ओर चली और वह सागर भी बड़ी उमंग के साथ उससे मिला।

क्षितिज, जिसमें प्रातः सायं अनुराग की लाली दौड़ा करती है, असीम (आकाश) और ससीम (पृथ्वी) का सहेट या मिलन-स्थल-सा दिखाई पड़ा करता है। इस हलचल-भरे संसार से हटाकर कवि अपने नाविक से वहीं ले चलने को कहता है––
[ ६८५ ]

ले चल वहाँ भुलावा देकर मेरे नाविक! धीरे धीरे
जिस निर्जन में सागर-लहरी अंबर के कानों में गहरी
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो तज कोलाहल की अवनी रे।

वहाँ जाने पर वह इस सुख-दुःख-मय व्यापक प्रसार को अपने नित्य और सत्य रूप में देखने की भी, पारमार्थिक ज्ञान की झलक पाने की भी, आशा करता है; क्योंकि श्रम और विश्राम के उस संधि-स्थल पर ज्ञान की दिव्य ज्योति-सी जगती दिखाई पड़ा करती है––

जिस गंभीर मधुर छाया में––विश्व चित्रपट चल माया में––
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई, दुख-सुख-वाली सत्य बनी रे।
श्रम-विश्राम क्षिलिज-वेला से, जहाँ सृजन करते मेला से––
अमर जागरण, उषा नयन से––बिखराती हो ज्योति घनी रे।

'लहर' में चार-पाँच रचनाएँ ही रहस्यवाद की हैं। पर कवि की तंद्रा और स्वप्नवाली प्रिय भावना जगह-जगह व्यक्त होती है। रात्रि के उस सन्नाटे की कामना जिसमें बाहर भीतर की सब हलचलें शांत रहती है, केवल अभावों की पूर्ति करनेवाले अतृप्त-कामनाओं की तृप्ति का विधान करनेवाले, स्वप्न ही जगा करते हैं, इस गीत में पूर्णतया व्यक्त है––

अपलक लगती हो एक रात!
सब सोए हों इस भूतल में,
अपनी निरीहता संबल में,
चलती हो कोई भी न बात।
xxxx
वक्षस्थल में जो छिपे हुए
सोते हों हृदय अभाव लिए।
उनके स्वप्नों का हो न प्रात।

जैसा कि पहले सूचित कर चुके हैं, 'लहर' में कई प्रकार की रचनाएँ हैं। कहीं तो प्रकृति के रमणीय पक्ष को लेकर सुंदर और मधुर रूपकमय गान हैं, जैसे–– [ ६८६ ]

बीती विभावरी जाग री!
अंबर-पनघट में डुबो रही
तारा-घट उषा नागरी।
खगकुल 'कुल-कुल' सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
लो, यह लतिका भी भर लाई
मधु मुकुल नवल-रस नागरी॥

कहीं उस यौवन-काल की स्मृतियाँ हैं जिसमें मधु का आदान-प्रदान चलता था, कहीं प्रेम का शुद्ध स्वरूप यह कहकर बताया गया है कि प्रेम देने की चीज है, लेने की नहीं! पर इस पुस्तक में कवि अपने मधुमय जगत् से निकल कर जगत् और जीवन के कई पक्षों की ओर भी बढ़ी है। वह अपने भीतर इतना अपरिमित अनुराग समझता है कि अपने सान्निध्य से वर्तमान जगत् में उसके फैसले की आशा करता है। उषा का अनुराग (लाली) जब फैल जाता है तभी ज्योति की किरण फूटती है––

मेरा अनुराग फैलने दो नभ के अभिनव कलरव में,
जाकर सूनेपन के तम में, बन किरन कभी आ जाना।

कवि अपने प्रियतम से अब वह 'जीवन-गीत' सुनाने को कहता है जिसमें 'करुणा का नव अभिनंदन हो'। फिर इस जगत् की अज्ञानांधकारमयी अश्रुपूर्ण रात्रि के बीच ज्ञान-ज्योति की भिक्षा माँगता हुआ वह उससे प्रेम-वेणु के स्वर में 'जीवन-गीत' सुनाने को कहता है जिसके प्रभाव से मनुष्य-जाति लताओं के समान स्नेहालिंगन में बद्ध हो जायगी और इसे संतप्त पृथ्वी पर शीतल छाया दी जायगी––

जग की सजल कालिमा रजनी में मुखचंद्र दिखा जाओ,
प्रेम-वेणु की स्वर-लहरी में जीवन-गीत सुना जाओ।
xxxx
स्नेहालिंगन की लतिकाओं की झुरमुट छा जाने दो।
जीवन-धन! इस जले जगत् को वृंदावन बन जाने दो॥

[ ६८७ ]जैसा कि पहले सूचित कर आए हैं, 'लहर' में प्रसाद जी ने अपनी प्रगल्भ कल्पना के रंग में इतिहास के कुछ खंडों को भी देखा है। जिस वरुण के शांत कछार में बुद्ध भगवान् ने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया था उसकी पुरानी झाँकी, 'अशोक की चिंता', 'शेरसिंह का आत्मसमर्पण', 'पेशोला की प्रतिध्वनि' 'प्रलय की छाया' ये सब अतीत के भीतर कल्पना के प्रवेश के उदाहरण हैं। इस प्रकार 'लहर' में हम प्रसाद जी को वर्तमान और अतीत जीवन की प्रकृत ठोस भूमि पर अपनी कल्पना ठहराने का कुछ प्रयत्न करते पाते है।

किसी एक विशाल भावना को रूप देने की ओर भी अंत में प्रसाद जी ने ध्यान दिया, जिसका परिणाम है 'कामायनी'। इसमें उन्होंने अपने प्रिय 'आनंदवाद' की प्रतिष्ठा दार्शनिकता के ऊपरी आभास के साथ कल्पना की मधुमती भूमिका बना कर की है। यह 'आनंदवाद' वल्लभाचार्य के 'काय' या आनंद के ढंग का न होकर, तांत्रिकों और योगियों की अंतर्भूमि-पद्धति पर है। प्राचीन जलप्लावन के उपरांत मनु द्वारा मानवी सृष्टि के पुनर्विधान का आख्यान लेकर इस प्रबंध-काव्य की रचना हुई है। काव्य का आधार है मनु का पहले श्रद्धा को फिर इड़ा को पत्नी-रूप में ग्रहण करना तथा इड़ा को वंदिनी या सर्वथा अधीन बनाने का प्रयत्न करने पर देवताओं का उनपर कोप करना। 'रूपक' की भावना के अनुसार श्रद्धा विश्वास-समन्वित रागात्मिका वृत्ति हैं और इड़ा व्यवसायात्मिका बुद्धि। कवि ने श्रद्धा को मृदुता, प्रेम और करुण का प्रवर्तन करनेवाली और सच्चे आनंद तक पहुँचानेवाली चित्रित किया है। इड़ा या बुद्धि अनेक प्रकार के वर्गीकरण और व्यवस्थाओं में प्रवृत्त करती हुई कर्मों में उलझानेवाली चित्रित की गई है।

कथा इस प्रकार चलती है। 'जल-प्रलय' के बाद मनु की नाव हिमवान् की चोटी पर लगती है और मनु वहाँ चित्राग्रस्त बैठे हैं। मनु पिछली सृष्टि की बातें और आगे की दशा सोचते-सोचते शिथिल और निराश हो जाते हैं। यह चिंता 'बुद्धि, मति या मनीषा' का ही एक रूप कही गई है जिससे आरंभ में ही 'बुद्धिवाद' के विरोध का किंचित् आभास मिल जाता है। धीरे-धीरे आशा को रमणीय उदय होता है और श्रद्धा से मनु की भेंट होती है। श्रद्धा के साथ मनु शांतिसुखपूर्वक कुछ दिन रहते हैं। पर पूर्व-संस्कार-वश कर्म, की ओर फिर [ ६८८ ]मनु की प्रवृत्ति होती है। आसुरी प्रेरणा से वे पशुहिंसापूर्ण काम्य यज्ञ करने लगते हैं जिसमें श्रद्धा को विरक्ति होती है। वह यह देखकर दुखी होती है कि मनु अपने ही सुख की भावना में मग्न होते जा रहे हैं, उनके हृदय में सुख के सब प्राणियों में, प्रसार का लक्ष्य नहीं जम रहा है जिससे मानवता का नूतन विकास होता। मनु चाहते हैं कि श्रद्धा का सारा सद्भाव, सारा प्रेम, एकमात्र उन्हीं पर स्थित रहे, तनिक भी इधर उधर बैटने न पाए। इससे जब वे देखते हैं कि श्रद्धा पशुओं के बच्चों को प्रेम से पुचकारती है और अपनी गर्भस्थ संतति की सुख-क्रीड़ा का आयोजन करती है तब उनके मन में ईर्ष्या होती है और उसे हिमालय की उसी गुफा में छोड़कर वे अपनी सुख-वासना लिए हुए चल देते हैं।

मनु उजड़े हुए सारस्वत प्रदेश में उतरते हैं जहाँ कभी श्रद्धा से हीन होकर सुर और असुर लड़े थे, इंद्र की विजय हुई थी। वे खिन्न होकर सोचते हैं कि क्या मैं उन्ही के समान श्रद्धा-हीन हो रहा हूँ। इसी बीच में अंतरिक्ष से 'काम' की अभिशाप भरी वाणी सुनाई पड़ती है कि––

मनु! तुम श्रद्धा को गए भूल।
उस पूर्ण आत्म-विश्वासमयी को उड़ा दिया था समझ तूल
तुम भूल गए पुरुषत्व-मोह में कुछ सत्ता है नारी की।
सम-रसता है संबंध बनी अधिकार और अधिकारी की।
xxxx
यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि।
द्वयता में लगी निरंतर ही वर्णों की करती रहे वृष्टि।
अनजान समस्याएँ ही गढ़ती, रचती हो अपनी ही विनष्टि।
कोलाहल कलह अनंत चले, एकता नष्ट हो, बढ़े भेद।
अभिलषित वस्तु तो दूर रहे, हाँ मिले अनिच्छित दुखद खेद।

प्रभात होता है। मनु अपने सामने एक सुंदरी खड़ी पाते हैं––

बिखरी अलकें ज्यों तर्क-जाल।
वह विश्वमुकुट-सा उज्ज्वलतम शशिखंड सदृश था स्पष्ट भाल।

[ ६८९ ]

गुंजरित मधुप-से मुकुल सदृश वह आनन जिसमें भरा गान।
वक्षस्थल पर एकत्र धरे संसृति के सब विज्ञान ज्ञान।
था एक हाथ में कर्म-कलश वसुधा-जीवन-रस-सार लिए।
दूसरा विचारों के नभ को था मधुर अभय अवलंब दिए।

यह इड़ा (बुद्धि) थी। इसके साथ मनु सारस्वत प्रदेश की राजधानी में रह गए। मनु के मन में जब जगत् और उसके नियामक के संबंध में जिज्ञासा उठती है और उससे कुछ सहाय पाने का विचार आता है तब इड़ा कहती है––

हाँ! तुम ही हो अपने सहाय।
जो बुद्धि कहे उसको न मानकर फिर किसकी नर शरण जाय?
यह प्रकृति परम रमणीय अखिल ऐश्वर्यभरी शाधकविहीन।
तुम उसका पटल खोलने में परिकर कसकर बन कर्मलीन।
सबका नियमन शासन करते बस बढ़ा चलो अपनी क्षमता।
तुम जड़ता को चैतन्य करो, विज्ञान सहज साधन उपाय।

मनु वहाँ इड़ा के साथ रहकर प्रजा के शासन की पूरी व्यवस्था करते हैं। नगर की श्री-वृद्धि होती है। प्रकृति बुद्धिबल के वश में की जाती है। खेती धूम-धाम से होने लगती है। अनेक प्रकार के उद्योग-धंधे खड़े होते हैं। धातुओं के नए नए अस्त्र-शस्त्र बनते हैं। मनु अनेक प्रकार के नियम प्रचलित करके, जनता का वर्णों या वर्गों में विभाग करके, लोक का संचालन करते हैं। 'अहं' का भाव जोर पकड़ता है। वे अपने को स्वतंत्र नियामक और प्रजापति मानकर सब नियमों से परे रहना चाहते हैं। इड़ा उन्हें नियमों के पालन की सलाह देती है, पर वे नहीं मानते। इड़ा खिन्न होकर जाना चाहती हैं, पर मनु अपना अधिकार जमाते हुए उसे पकड़ रखते हैं। पकड़ते ही द्वार गिर पड़ता हैं। प्रजा जो दुर्व्यवहारों से क्षुब्ध होकर राजभवन घेरे थी, भीतर घुस पड़ती है। देवशक्तियाँ भी कुपित हो उठती हैं। शिव का तीसरा नेत्र खुल जाता है। प्रजा का रोष बढ़ता है! मनु युद्ध करते है और मूर्छित होकर गिर पड़ते हैं।

उधर श्रद्धा इसी प्रकार के विप्लव का भयंकर स्वप्न देखकर अपने कुमार [ ६९० ]को लेकर मनु को ढूँढ़ती ढूँढ़ती वहाँ पहुँचती है। मनु उसे देखकर क्षोभ और पश्चात्ताप से भर जाते हैं। फिर उन सुंदर दिनों को याद करते हैं जब श्रद्धा के मिलने से उनका जीवन सुंदर और प्रफुल्ल हो गया था; जो जगत् पीड़ा और हलचल में व्यथित था वही विश्वास से पूर्ण, शांत, उज्जवल और मंगलमय बन गया था। मनु उससे चटपट अपने को वहाँ से निकाल ले चलने को कहते हैं। जब रात हुई तब मनु उठकर चुपचाप वहाँ से न जाने कहाँ चल दिए। उनके चले जाने पर श्रद्धा और इड़ा की बातचीत होती है और इड़ा अपनी बाँधी हुई अधिकार-व्यवस्था के इस भयंकर परिणाम को देख अपना साहस छूटने की बात कहती है––

श्रम-भाग वर्ग बन गया जिन्हें
अपने बल का है गर्व उन्हें।
xxxx
अधिकार न सीमा में रहते,
पावस-निर्झर से वे बहते।
xxxx
सब पिए मत्त लालसा-घूँट।
मेरा साहस अब गया छूट॥

इस पर श्रद्धा बोली––

वन विषम ध्वात


सिर चढ़ी रही, पाया न हृदय, तू विकल कर रही है अभिनय।
सुख-दुख की मधुमय धूप छाँह, तूने छोड़ी यह सरल राह॥
चेतनता का, भौतिक विभाग––कर, जग को बाँट दिया विराग।
चिति का स्वरूप यह नित्य जगत, यह रूप बदलता है शत शत,
कण विरह-मिलन-मय नृत्य निरत, उल्लासपूर्ण आनंद सतत॥

अंत में श्रद्धा अपने कुमार को इड़ा के हाथों में सौंप मनु को ढूँढ़ने निकली और उन्हें उसने सरस्वती-तट पर एक गुफा में पाया। मनु उस समय आँखें बंद किए चित् शक्ति का अंतर्नाद सुन रहे थे, ज्योतिर्मय पुरुष का आभास पा रहे थे, अखिल विश्व के बीच नटराज का नृत्य देख रहे थे। श्रद्धा को देखते [ ६९१ ]ही वे इत-चेत् पुकार उठे कि 'श्रद्धे! उन चरणों तक ले चल'।श्रद्धा आगे आगे और मनु पीछे पीछे हिमालय पर चढ़ते चले जाते हैं। यहाँ तक कि वे ऐसे महादेश में अपने को पाते हैं जहाँ वे निराधार ठहरे जान पड़ते है। भूमंडल की रेखा का कहीं पता नहीं। यहाँ कवि पूरे रहस्यदर्शी का बाना धारण करता हैं और मनु के भीतर एक नई चेतना (इस चेतना से भिन्न) का उदय बतलाता है। अब मनु को त्रिदिक् (Three dimensions) विश्व और त्रिभुवन के प्रतिनिधि तीन अलग अलग अलोकबिंदु दिखाई पड़ते हैं जो 'इच्छा', 'ज्ञान' और 'क्रिया' के केंद्र से हैं। श्रद्धा एक एक का रहस्य समझाती है।

पहले 'इच्छा' का मधु, मादकता और अँगड़ाईवाला माथा-राज्य है जो रागारुण उषा के संदुक सा सुंदर है जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध की पारदर्शिनी पुतलियाँ रंग बिरंगी तितलियों के समान नाच रही हैं। यहाँ चल चित्रों की संस्कृति-छाया चारों ओर घूम रही है और आलोकबिंदु को घेरकर बैठी हुई माया मुस्करा रही है। यहाँ चिर वसंत का उद्गम भी है और एक छोर पतझड़ भी अर्थात् सुख और दुःख एक सूत्र में बँधे है। यहीं पर मनोमय विश्व रागारुण चेतन की उपासना कर रहा है।

फिर 'कर्म' का श्यामल लोक सामने आता है जो धुएँ-सा धुँधला है, जहाँ क्षण भर विश्राम नहीं है, सतत संघर्ष और विफलता का कोलाहल रहता है, आकांक्षा की तीव्र पिपासा बनी रहती है, भाव राष्ट्र के नियम दंड बने हुए है। सारा समाज मतवाला हो रहा हैं।

सबके पीछे 'ज्ञान-क्षेत्र' आता है जहाँ सदा बुद्धि-चक्र चलता रहता है। सुख-दुःख से उदासीनता रहती हैं। यहाँ के निरंकुश अणु तर्क-युक्ति से अस्ति-नास्ति का भेद करते रहते हैं और निस्संग होकर भी मोक्ष से संबंध जोड़े रहते हैं। यहाँ केवल प्राप्य (मोक्ष या छुटकारा भर) मिलता है, तृप्ति (आनंद) नहीं; जीवन-रस अछूता छोड़ा रहता है जिसमें बहुत-सा इकट्ठा होकर एक साथ मिले। इससे तृषा ही तृषा दिखाई देती हैं।

अंत में इन तीनों ज्योतिर्मय बिंदुओं को दिखाकर श्रद्धा कहती है कि यही त्रिपुर हैं जिसमें इच्छा, कर्म और ज्ञान एक दूसरे से अलग अलग अपने केंद्र आप ही बने हुए हैं। इनका परस्पर न मिलना ही जीवन की असली विडंबना [ ६९२ ]हैं। ज्ञान अलग पड़ा हैं, कर्म अलग। अतः इच्छा पूरी कैसे हो सकती है? यह कहकर श्रद्धा मुस्कराती हैं जिससे ज्योति की एक रेखा तीनों में दौड़ जाती है और चट तीनों एक में मिलकर प्रज्वलित हो उठते है और सारे विश्व में शृंग और डमरू का निनाद फैल जाता है। उस अनाहत नाद में मनु लीन हो जाते हैं।

इस रहस्य को पार करने पर फिर आनंद-भूमि दिखाई गई हैं। वहाँ इड़ा भी कुमार (मानव) को लिए अंत में पहुँचती हैं और देखती है कि पुरुष पुरातन प्रकृति से मिला हुआ। अपनी ही शक्ति से लहरें मारता हुआ आनंद-सागर-सा उमढ़ रहा हैं। यह सब देख इड़ा श्रद्धा के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करती हुई कहती है कि "मैं अब समझ गई कि मुझमें कुछ भी समझ नहीं थी। व्यर्थ लोगों को भुलाया करती थी; यही मेरा काम था"। फिर मनु कैलाश की और दिखाकर उस आनंद-लोक का वर्णन करते हैं जहाँ पाप-ताप कुछ भी नहीं हैं, सब समरस है, और 'अभेद में भेद' वाले प्रसिद्ध सिद्धांत का कथन करके कहते हैं––

अपने दुख सुख से पुलकित यह मूर्त विश्व सचराचर
चिति को विराट वपु मंगल यह सत्य सतत चिर सुंदर।

अंत में प्रसाद जी वहीं प्रकृति से सारे सुख, भोग, कांति, दीप्ति की सामग्री जुटाकर लीन हो जाते हैं––वे ही वल्लरियाँ, पराग, मधु, मकरंद, अप्सराएँ बनी हुई रश्मियाँ।

यह काव्य बड़ी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से पूर्ण है। इसका विचारात्मक आधार या अर्थ-भूमि केवल इतनी ही है कि श्रद्धा या विश्वासमयी रागात्मिका वृत्ति ही मनुष्य को इस जीवन में शांतिमय आनंद का अनुभव और चारों ओर प्रसार कराती हुई कल्याण मार्ग पर ले चलती है और उस निर्विशेष आनंद धाम तक पहुँचाती है। इड़ा या बुद्धि मनुष्य को सदा चंचल रखती, अनेक प्रकार के तर्क-विर्तक और निर्मम कर्म जाल में फँसाए रहती और तृप्ति या संतोष के आनंद से दूर रखती हैं। अंत में पहुँचकर कवि ने इच्छा, कर्म और ज्ञान के सामंजस्य पर, तीनों के मेल पर, जोर दिया है। एक दूसरे में अलग रहने पर ही जीवन में विषमता आती है। [ ६९३ ]जिस समन्वय का पक्ष कवि ने अंत में सामने रखा है उसका निर्वाह रहस्यवाद की प्रकृति के कारण काव्य के भीतर नहीं होने पाया है। पहले कवि ने कर्म को बुद्धि या ज्ञान की प्रवृत्ति के रूप में दिखाया, फिर अंत में कर्म और ज्ञान के विंदुओं को अलग अलग रखा। पीछे आया हुआ ज्ञान भी बुद्धिव्यव सायात्मक ज्ञान ही है (योगियों या रहस्यवादियों को पर-ज्ञान नहीं) यह बात "सदा चलता है बुद्धिचक्र" से स्पष्ट है। जहाँ "रागारुण कंदुक सा, भावमयी प्रतिभा का मंदिर" इच्छाबिंदु मिलता है वहाँ इच्छा रागात्मिका वृत्ति के अंतर्गत है; अतः रति-काम से उत्पन्न श्रद्धा की ही प्रवृत्ति ठहरती है। पर श्रद्धा उससे अलग क्या तीनों विंदुओं से परे रखी गई है।

रहस्यवाद की परंपरा में चेतना से असंतोष की रूढ़ि चली आ रही है। प्रसाद जी काव्य के आरंभ में ही 'चिंता' के अंतर्गत कहते हैं––

मनु का मन या विकल हों उठा संवेदन से खाकर चोट
संवेदन जीवन जगती को जो कटुता से देता घोट।
संवेदन का और हृदय का यह संघर्ष न हो सकता
फिर अभाव असफलताओं की गाथा कौन कहाँ बकता?

इन पंक्तियों मे तो 'संवेदन' बोध-वृत्ति के अर्थ में व्यवहृत जान पड़ता है, क्योंकि सुख-दुःखात्मक अनुभूति के अर्थ में लें तो हृदय के साथ उसका संघर्ष कैसा? बोध के एकदेशीय अर्थ में भी यदि 'संवेदन' को लें तो भी उसे भावभूमि से खारिज नहीं कर सकते। प्रत्येक 'भाव' का प्रथम अवयव विषय-बोध ही होता है। स्वप्न-दशा में भी, जिसका रहस्य-क्षेत्र में बड़ा माहात्म्य है, यह बिषय-बोध रहता है। श्रद्धा जिस करुणा, दया आदि की प्रवर्तिका कही गई है, उसमें दूसरों की पीड़ा का बोध मिला रहता है।

आगे चलकर यह 'संवेदन' शब्द अपने वास्तविक या अवास्तविक दुःख पर कष्टानुभव के अर्थ में आया है। मनु की बिगड़ी हुई प्रजा उनसे कहती है––

हम संवेदनशील हो चले, यही मिला सुख।
कष्ट समझने लगे बनाकर निज कृत्रिम दुख‌।

मतलब यह कि अपनी किसी स्थिति को लेकर दुःख को अनुभव करना ही [ ६९४ ]संवेदन हैं। दुःख को पास न भटकले देना, अपनी मौज में––मधु-मकरंद में––मस्त रहना ही वांछनीय स्थिति हैं। असंतोष से उत्पन्न अवास्तविक कष्टकल्पना के दुःखानुभव के अर्थ से ही इस शब्द को जकड़ रखना भी व्यर्थ प्रयास कहा जायगा। श्रद्धा जिस करुणा, दया आदि की प्रवर्तिका कही गई है वह दूसरों की पीड़ा का संवेदन ही तो है। दूसरों के दुःख का अपना दुःख हो जाना ही तो करुणा हैं। पर-दुःखानुभव अपनी ही सत्ता का प्रसार तो सूचित करता है। चाहे जिस अर्थ में ले, संवेदन का तिरस्कार कोई अर्थ नहीं रखता।

संवेदन, चेतना, जागरण आदि के परिहार का जो बीच बीच में अभिलाप है उसे रहस्यवाद का तकाजा समझना चाहिए। ग्रंथ के अंत में जो हृदय, बुद्धि और कर्म के मेल या सामंजस्य का पक्ष रखा गया है वह तो बहुत समीचीन है। उसे हम गोस्वामी तुलसीदास में, उनके भक्तिमार्ग की सबसे बड़ी विशेषता के रूप में, दिखा चुके हैं[१८]। अपने कई निबंधों में हम जगत् की वर्तमान अशांति और अव्यवस्था का कारण इसी सामंजस्य का अभाव कह चुके है। पर इस सामंजस्य का स्वर हम 'कामायानी' में और कहीं नहीं पाते हैं। श्रद्धा जब कुमार को लेकर प्रजाविद्रोह के उपरांत सारस्वत नगर में पहुँचती है तब 'इडा' से कहती है कि "सिर चढ़ी रही पाया न हृदय"। क्या श्रद्धा के संबंध में नहीं कहा जा सकता था कि "रस पगी रही पाई न बुद्धि"? जब दोनों अलग अलग सत्ताएँ करके रखी गईं तब एक को दूसरी से शून्य कहना, और दूसरी को पहली से शून्य न कहना, गडबड़ में डालता है। पर श्रद्धा में किसी प्रकार की कमी की भावना कवि की ऐकांतिक मधुर भावना के अनुकूल न थी।

बुद्धि की विगर्हणा द्वारा 'बुद्धिवाद' के विरुद्ध उस आधुनिक आंदोलन का आभास भी कवि को इष्ट जान पड़ता है जिसके प्रवर्तक अनातोले फ्रास ने कहा हैं कि "बुद्धि के द्वारा सत्य को छोड़कर और सब कुछ सिद्ध हो सकता है। बुद्धि पर मनुष्य को विश्वास नहीं होता। बुद्धि या तर्क का सहारा तो लोग अपनी भली-बुरी प्रवृत्तियों को ठीक प्रमाणित करने के लिये लेते हैं।" [ ६९५ ]विज्ञान द्वारा सुख-साधनो की वृद्धि के साथ-साथ विलासिता और लोभ की असीम वृद्धि तथा यत्रों के परिचालन से जनता के बीच फैली हुई घोर अशक्तता, दरिद्रता आदि के कारण वर्तमान जगत् की जो विषम स्थिति हो रही है उसका भी थोड़ा आभास मनु की विद्रोही प्रजा के इन वचनों द्वारा दिया गया है––

प्रकृत शक्ति तुमने यंत्रों से, सबकी छीनी।
शोषण कर जीवनी बना दी जर्जर झीनी।

वर्गहीन समाज की साम्यवादी पुकार की भी दबी-सी गूँज दो-तीन जगह हैं। 'विद्युतकरण (Electrons) मिले झलकते-से' में विज्ञान की भी झलक है।

यदि मधुचर्या का अतिरेक और रहस्य की प्रवृत्ति बाधक न होती तो इस काव्य वे भीतर मानवता की योजना शायद अधिक पूर्ण और सुव्यवस्थित रूप में चित्रित होती। कर्म को कवि ने या तो काम्य यज्ञों के बीच दिखाया है अथवा उद्योग-धंधों या शासन-विधानों के बीच। श्रद्धा के मंगलमय योग से किस प्रकार कर्म धर्म का रूप धारण करता है, यह भावना कवि से दूर ही रही। इस भव्य और विशाल भावना के भीतर उग्र और प्रचंड भाव भी लोक के मंगलविधान के अंग हो जाते हैं। श्रद्धा और धर्म का संबंध अत्यंत प्राचीन काल से प्रतिष्ठित है। महाभारत में श्रद्धा धर्म की पत्नी कही गई है। हृदय के आधे पक्ष को अलग रखने से केवल कोमल भावों की शीतल छाया के भीतर आनंद का स्वप्न देखा जा सकता है, व्यक्त जगत् के बीच उसका आविर्भाव और अवस्थान नहीं दिखाया जा सकता।

यदि हम इस विशद काव्य की अंतर्योजना पर ने ध्यान दे, समष्टि रूप में कोई समन्वित प्रभाव, न ढूँढे, श्रद्धा, काम, लज्जा, इड़ा इत्यादि को अलग अलग लें तो हमारे सामने बड़ी ही रमणीय चित्रमयी कल्पना, अभिव्यंजना की अत्यंत मनोरम पद्धति आती है। इन वृत्तियों की आभ्यंतर प्रेरणाओं और बाह्य प्रवृत्तियों को बड़ी-मार्मिकता से परखकर इनके स्वरूपों की नराकार उद्भावना की योजना का तो कहना ही क्या है! प्रकृति के ध्वंसकारी-भीषण रूपवेग को अत्यंत व्यापक परिधि के बीच चित्रण हुआ है। इस प्रकार प्रसाद जी भी [ ६९६ ]प्रबंध-क्षेत्र में भी छायावाद की चित्रप्रधान और लाक्षणिक शैली की सफलता की आशा बँधा गए हैं।



श्री सुमित्रानंदन पंत की रचनाओं का आरंभ सं॰ १९७५ से समझना चाहिए। इनकी प्रारंभिक कविताएँ 'वीणा' में, जिसमें 'हृत्तंत्री के तार' भी संग्रहीत हैं। उन्हें देखने पर 'गीतांजलि' का प्रभाव कुछ लक्षित अवश्य होता है, पर साथ ही आगे चलकर प्रवर्द्धित चित्रमयी भाषा के उपयुक्त रमणीय कल्पना का जगह-जगह बहुत ही प्रचुर आभास मिलता है। गीतांजलि का रहस्यात्मकता प्रभाव ऐसे गीतों को देखकर ही कहा जा सकता है––

हुआ था जब संध्या-आलोक
हँस रहे थे, तुम पश्चिम ओर
विहँगरव बन कर मैं, चितचोर!
गा रहा था गुण; किंतु कठोर
रहे तुम नहीं वहाँ भी, शोक।

पर पंत जी की रहस्य-भावना प्रायः स्वाभाविक ही रही। 'वाद' का सांप्रदायिक स्वरूप उसने शायद ही कहीं ग्रहण किया हो। उनकी जो एक बड़ी विशेषता है प्रकृति के सुंदर रूपों की आह्लादमयी अनुभूति वह 'वीणा' में भी कई जगह पाई जाती हैं। सौंदर्य का आह्वाद उनकी कल्पना को उत्तेजित करके ऐसे अप्रस्तुत रूपों की योजना में प्रवृत्त करता है जिनमें प्रस्तुत रूपों की सौंदर्यानुभूति के प्रसार के लिये अनेक मार्ग से खुल जाते हैं। 'वीणा' की कविताओं में इसने लोगों को बहुत आकर्षित किया––

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि! तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि! पाया तूने यह गाना?
निराकार तुम मानो सहसा ज्योतिपुंज में हो साकार?
बदल गया द्रुत जगज्वाल में धर कर नाम-रूप नाना।
खुले पलक, फैली सुवर्ण छवि, खिली सुरभि डोले मधु-बाल।
स्पंदन, कंपन, नव जीवन फिर सीखा जग ने अपनाना।

[ ६९७ ]उस मूर्तिमती लाक्षणिकता का आभास, जो 'पल्लव' में जाकर अपनी हद को पहुँची है, 'वीणा' से ही मिलने लगता है, जैसे––

मारूत ने जिसकी अलकों में
चंचल चुंबन उलझाया।
अंधकार का अलसित अंचल
अब द्रुत ओढेगा, संसार
जहाँ स्वप्न सजते शृंगार।

'वीणा' के उपरांत 'ग्रंथि' है––असफल प्रेम की। इसमें एक छोटे-से प्रेम प्रसंग का आधार लेकर युवक कवि ने प्रेम की आनंदभूमि में प्रवेश, फिर चिर-विषाद के गर्त में पतन दिखाया है। प्रसंग की कोई नई उद्भावना नहीं है। करुणा और सहानुभूति से प्रेम का स्वाभाविक विकास प्रदर्शित करने के लिये जो वृत्त उपन्यासों और कहानियों में प्रायः पाए जाते है––जैसे, डूबने से बचानेवाले, अत्याचार से रक्षा करनेवाले, बंदीगृह में पड़ने या रणक्षेत्र में घायल होने पर सेवा शुश्रूषा करनेवाली के प्रति प्रेम-संचार––उन्हीं में से एक चुनकर भावों की व्यंजना के लिये रास्ता निकाला गया है। झील में नाव डूबने पर एक युवक डूबकर बेहोश होता है और आँख खुलने पर देखता है कि एक सुंदरी युवती उसका सिर अपने जंघे पर रखे हुए उसकी ओर देख रही है। इसके उपरांत दोनों में प्रेम-व्यापार चलता है; पर अंत में समाज के बड़े लोग इस स्वेच्छाचार को न सहन करके उस युवती का ग्रंथिबंधन दूसरे पुरुष के साथ कर देते हैं। यही ग्रंथिबंधन उस युवक या नायक के हृदय में एक ऐसी विषादग्रंथि डाल देता है जो कभी खुलती ही नहीं। समाज के द्वारा किस प्रकार स्वभावतः उठा हुआ प्रेम कुचल दिया जाता है, इस कहानी द्वारा कवि को यही दिखाना था। यद्यपि प्रेम का स्रोत कवि ने करुणा की गहराई से निकाला है पर आगे चल-कर उसके प्रवाह में भारतीय पद्धति के अनुसार हास-विनोद की झलक भी दिखाई है। कहानी तो एक निमित्त मात्र जान पड़ती है; वास्तव में सौंदर्य भावना की अभिव्यक्ति और आशा, उल्लास, वेदना, स्मृति इत्यादि की अलग -अलग व्यंजना पर ही ध्यान जाता है। [ ६९८ ]पंत जी की पहली प्रौढ़ रचना 'पल्लव' है, जिसमें प्रतिभा के उत्साह या साहस का तथा पुरानी काव्य-पद्धति के विरुद्ध प्रतिक्रिया बहुत बढ़ा-चढ़ा प्रदर्शन हैं। इसमें चित्रमयी भाषा, लाक्षणिक वैचित्र्य, अप्रस्तुत-विधान इत्यादि की विशेषताएँ प्रचुर परिमाण में भारी सी पाई जाती हैं। 'वीणा' और 'पल्लव' दोनों में अँगरेजी कविताओं से लिए हुए भाव और अँगरेजी भाषा के लाक्षक्षिक प्रयोग बहुत से मिलते हैं। कहीं कहीं आरोप और अध्यवसान व्यर्थ और अशक्त हैं, केवल चमत्कार और वक्रता के लिये रखे प्रतीत होते हैं, जैसे 'नयनों के बाल'=आँसू। 'बाल' शब्द जोड़ने की प्रवृत्ति बहुत अधिक पाई जाती हैं, जैसे, मधुबाल, मधुपों के बाल। शब्द का मनमाने लिंगों में प्रयोग भी प्रायः मिलता है। कहीं कहीं वैचित्र्य के लिये एक ही प्रयोग में दो दो लक्षणाएँ गुफित पाई जाती हैं––अर्थात् एक लक्ष्यार्थ से फिर दूसरे लक्ष्यार्थ पर जाना पड़ता हैं, जैसे––'मर्म पीड़ा के हास' में। पहले 'हास' का अर्थ लक्षण-लक्षणा द्वारा वृद्धि या विकास लेना पड़ता है। फिर यह ज्ञान कर कि सारा संबोधन कवि अपने या अपने मन के लिये करता है, हमें सारी पदावली का उपादान लक्षणा द्वारा लक्ष्णार्थ लेना पड़ता है "हे बढ़ी हुई मर्मपीड़ावाले मन!" इसी प्रकार कहीं कहीं दो दो अप्रस्तुत भी एक में उलझे हुए पाए जाते हैं, जैसे––"अरुण कलियों से कोमल घाव।" पहले 'घाव' के लिये वर्ण के सादृश्य और कोमलता के साधर्म्य में 'कली' की उपमा दी गई। पर 'घाव' स्वयं अप्रस्तुत या लाक्षणिक है, और उसका अर्थ है 'कसकती हुई स्मृति।' इस तरह एक अप्रस्तुत लाकर फिर उस अप्रस्तुत के लिये दूसरा अप्रस्तुत लाया गया है। इसी प्रकार दो दो उपमान एक मैं उलझे हुए हमे 'गुंजन' की इन पक्तियों में मिलते हैं––

अरुण अधरों की पल्लव-प्रात,
मोतियों-सा हिलता हिम-हास।

कहीं कहीं पर साम्य बहुत ही सुंदर और व्यंजक हैं। वे प्रकृति के व्यापारों के द्वारा मानसिक व्यापारों की बड़ी रमणीय व्यंजना करते हैं, जैसे––

तडित-सा सुमुखि! तुम्हारा ध्यान प्रभा के पलक मार उर चीर।
गूढ गर्जन कर जब गंभीर मुझे करता है अधिक अधीर,

[ ६९९ ]

जुगनुओं से उड़ मेरे प्राण खोजते हैं तब तुन्हे निदान।
पूर्व सुधि सहसा जब सुकुमारि सरल शुक-सी सुखकर सुर में।
तुम्हारी भोली बातें कभी दुहराती है उर में।

जिस प्रकार भावों या मनोवृत्तियों का स्वरूप बाह्य वस्तुओं के साम्य द्वारा सामने लाया जाता है, उसी प्रकार कभी कभी बाह्य वस्तुओं के साम्य के लिये आभ्यंतर भावों या मनोव्यापारों की ओर भी संकेत किया जाता है, जैसे––

अंचल के जब वे विमल विचार अवनि से उठ उठ कर ऊपर,
विपुल व्यापकता में अविकार लीन हो जाते वे सत्वर।

हिमालय प्रदेश में यह दृश्य प्रायः देखने को मिलता है कि रात में जो बादल खड्डों में भर जाते हैं वे प्रभात होते ही धीरे-धीरे बहुत-से टुकड़ों में बँट-कर पहाड़ के ऊपर इधर उधर चढ़ते दिखाई देने लगते है और अंत में अनंत आकाश में विलीन हो जाते हैं। इसका साम्य कवि ने अंचल ध्यान में मग्न योगी से दिखाया है जिसकी निर्मल मनोवृत्तियाँ उच्चता को प्राप्त होती हुई उस अनंत सत्ता में मिल जाती हैं।

पर 'छाया', 'वीचि-विलास,' 'नक्षत्र' ऐसी कविताओं में जहाँ उपमानों के ढेर लगे हुए हैं, बहुत से उपमान पुराने ढंग के खेलवाड़ के रूप में भी है, जैसे––

बारि-बेलि-सी फैल अमूल छा अपत्र सरिता के कूल,
विकसा औ सकुचा नव जात दिन नाल के फेनिल फूल।

(वीचि-विलास)

अहे! तिमिर चरते शशि-शावक।
xxxx
इंदु दीप-से दग्ध शलभ शिशु!
शुचि अलूक अब हुआ बिहान,
अंधकारमय मेरे उर में
आओ छिप जाओ अनजान।

(नक्षत्र)

[ ७०० ]सवेरा होने पर नक्षत्र भी छिप जाते हैं, उल्लू भी। बस इतने-से साधर्म्य को लेकर कवि ने नक्षत्रों को उल्लू बनाया है––साफ सुथरे उल्लू सही––और उन्हें अँधेरे उर में छिपने के लिये आमंत्रित किया है। पर इतने उल्लू यदि डेरा डालेंगे तो मन की दशा क्या होगा? कवि यदि अपने हृदय के नैराश्य और अवसाद की व्यंजना करनी थी तो नक्षत्रों को बिना उल्लू बनाए काम चल सकता था।

कहीं कहीं संकीर्ण समास पद्धति के कारण कवि की विवक्षित भावनाएँ अस्फुट सी है, जैसे नक्षत्रों के प्रति ये वाक्य––

ऐ! आतुर उर के संमान!
अब मेरी उत्सुक आँखों से उमड़ो।
xxx
मुग्ध दृष्टि की चरम विजय।

पहली पंक्ति में 'संमान' शब्द उस सजावट के लिए आया है जो प्रिय से मिलने के लिये आतुर व्यक्ति उसके आने पर या आने की आशा पर बाहर के सामानों द्वारा और भीतर प्रेम से जगमगाते अनेक सुंदर भावों द्वारा करता हैं। दूसरी पंक्ति में कवि का तात्पर्य यह है कि प्रियदर्शन के लिये उत्सुक आँखें असंख्य-सी हो रही है। उन्हीं की ज्योति आकश में नक्षत्रों के रूप में फैले। तीसरी पंक्ति में 'चरम विजय' का अभिप्राय है लगातार एक टक ताकते रहने में बाजी मारना।

पर इन साम्य-प्रधान रचनाओं में कहीं कहीं बहुत ही सुंदर आध्यात्मिक कल्पना है, जैसे छाया के प्रति इस कथन में––

हाँ सखि! आओ बाँह खोल हम लगकर गले जुड़ा लें प्राण
फिर तुम तुम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्धान।

कवि कहता है कि हे छायारूप जगत्! आओ, मैं तुम्हें प्यार कर लूँ! फिर तुम कहाँ और मैं कहाँ! मैं अर्थात् मेरी आत्मा तो उस अनंत ज्योति में मिल जायगी और तुम अव्यक्त प्रकृति या महाशून्य में विलीन हो जाओगे।

'पल्लव' के भीतर 'उच्छ्वास', 'आँसू', 'परिवर्तन' और 'बादल' आदि [ ७०१ ]रचनाएँ देखने से पता चलता है कि यदि 'छायावाद' के नाम से एक 'वाद' न चल गया होता तो पंत जी स्वच्छंदता के शुद्ध और स्वाभाविक मार्ग (True romanticism) पर ही चलते। उन्हें प्रकृति की ओर सीधे आकर्षित होनेवाला, उसके खुले और चिरंतन रूपों के बीच खुलनेवाला हृदय प्राप्त था। यही कारण है कि 'छायावाद' शब्द मुख्यतः शैली के अर्थ में, चित्रभाषा के अर्थ में ही उनकी रचनाओं पर घटित होता है। रहस्यवाद की रूढ़ियों के रमणीय उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये उनकी प्रतिभा बहुत कम प्रवृत्त हुई है। रहस्य-भावना जहाँ है वहीं अधिकतर स्वाभाविक हैं।

पल्लव में रहस्यात्मक रचनाएँ हैं 'स्वप्न' और 'मौन निमंत्रण'। पर जैसा कि पहले कह आए है, पंत जी की रहस्य-भावना स्वाभाविक है, साप्रदायिक (Dogmatic) नहीं[१९]। ऐसी रहस्य-भावना इस रहस्यमय जगत् के नाना रूपों को देख प्रत्येक सहृदय व्यक्ति के मन में कभी कभी उठा करती है। व्यक्त जगत् के नाना रूपों और व्यापारों के भीतर किसी अज्ञात चेतन सत्ता का अनुभव-सा करता हुआ कवि इसे केवल अतृप्त जिज्ञासा के रूप में प्रकट करता है। दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि उस अज्ञात प्रियतम के प्रति प्रेम की व्यंजना में भी कवि ने प्रिय और प्रेमिका का स्वाभाविक पुरुष-स्त्री-भेद रखा है; 'प्रसाद' जी के समान दोनों को पुलिंग रखकर फारसी या सूफी रूढ़ि का अनुसरण नहीं किया है। इसी प्रकार वेदना की वैसी वीभत्स विवृति भी नहीं मिलती जैसी यह प्रसाद जी की है––

छिल छिल कर छाले फोड़े, मलकर मृदुल चरण से।

जगत् के पारमार्थिक स्वरूप की जिज्ञासा बहुत ही सुंदर भोलेपन के साथ 'शिशु' को सम्बोधन करके कवि ने इस प्रकार की है––

न अपना ही, न जगत् का ज्ञान, परिचित हैं निज नयन, न कान;
दीखता है जग कैसा, तात! नाम गुण रूप अज्ञान।

कवि, यह समझ कर कि शिशु पर अभी उस नाम रूप का प्रभाव पूरा पूरा [ ७०२ ]नहीं पड़ा हैं जो सत्ता के पारमार्थिक स्वरूप है छिपा देता है, उससे पूछता है, कि "भला बताओं तो यह जगत् तुम्हे कैसा दिखाई पड़ता है।"

छायावाद के भीतर माने जानेवाले सब कवियों में प्रकृति के साथ सीधा प्रेम-संबंध पंतजी का ही दिखाई पड़ता हैं। प्रकृति के अत्यंत रमणीय खंड के बीच उनके हृदय ने रूप-रंग पकड़ा है। 'पल्लव', 'उच्छ्वास' और 'आँसू' में हम उस मनोरम खंड की प्रेमार्द्र स्मृति पाते हैं। यह अवश्य है कि सुषमा की ही उमंग-भरी भावना के भीतर हम उन्हें रमते देखते है। 'बादल' को अनेक नेत्राभिराम रूपों में उन्होंने कल्पना की रंगभूमि पर ले आकर देखा हैं, जैसे––

फिर परियों के बच्चे-से हम सुभग सीप के पंख पसार।
समुद्र पैरते शुचि ज्योत्स्ना में पकड़ इंदु के कर सुकुमार।

पर प्रकृति के बीच उसके गूढ़ और व्यापक सौहार्द तक––ग्रीष्म की ज्वाला से संतप्त चराचर पर उसकी छाया के मधुर, स्निग्ध, शीतल, प्रभाव तक; उसके दर्शन से तृप्त कृषकों के आशापूर्ण उल्लास तक––कवि ने दृष्टि नहीं बढ़ाई है। कल्पना के आरोप पर ही जोर देनेवाले 'कलावाद' के सत्कार और प्रतिक्रिया के जोश ने उसे मेघ को उस व्यापक प्रकृत-भूमि पर न देखने दिया जिस पर कालिदास ने देखा था। आरोप-विधायिनी कल्पना की अपेक्षा प्रकृति के बीच किसी वस्तु के गूढ़ और अगूढ़ संबंध प्रसार का चित्रण करनेवाली कल्पना अधिक गंभीर और मार्मिक होती है।

साम्य का आरोप निस्संदेह एक बड़ा विशाल सिद्धांत लेकर काव्य में चला है। वह जगत् के अनंत रूपों या व्यापारों के बीच फैले हुए उन मोटे और महीन संबंध सूत्रों की झलक-सी दिखाकर नरसत्ता के सूनेपन का भाव दूर करता हैं, अखिल सत्ता के एकत्व की आनंदमयी भावना जगाकर हमारे हृदय का बंधन खोलता है। जब हम रमणी के मुख के साथ कमल, स्मिति के साथ अधखिली कलिका सामने पाते हैं तब हमें ऐसा अनुभव होता है कि एक ही सौंदर्य धारा से मनुष्य भी और पेड़-पौधे भी रूप रंग प्राप्त करते हैं। यहीं तक नहीं, भाषा ने व्यवहार की सुगमता के लिये अलग अलग शब्द रचकर जो भेद खड़े किए हैं वे भी कभी इन आरोपों के सहारे थोड़ी देर के लिये हमारे [ ७०३ ]मन से दूर हो जाते हैं। यदि किसी बड़े पेड़ के नीचे उसी के गिरे हुए बीजों से जमे हुए छोटे छोटे पौधों को हम आस पास खेलते उसके बच्चे कहे तो आत्मीयता का भाव झलक जायगा।

'कलावाद' के प्रभाव से जिस 'सौंदर्यवाद' का चलन योरप के काव्यक्षेत्र के भीतर हुआ उसकी पंतजी पर पूरा प्रभाव रहा है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कई स्थानों पर सौंदर्य-चयन को अपने जीवन की साधना कहा है, जैसे––

धूल की ढेरी में अनजान छिपे हैं मेरे मधुमय गान।
कुटिल काँटे है कहीं कठोर, जटिल तरुजाल है किसी ओर,
सुमन दल चुन-चुनकर निशि मोर खोजना है अजान वह छोर[२०]
xxxx
मेरा मधुकर का-सा जीवन, कठिन कर्म हैं, कोमल है मन।

उस समय तक कवि प्रकृति के केवल सुंदर, मधुर पक्ष में अपने हृदय के कोमल और मधुर भावों के साथ लीन था। कर्म-मार्ग उसे कठोर ही कठोर दिखाई पड़ता था। कर्म सौंदर्य का साक्षात्कार उसे नहीं हुआ था। उसका साक्षात्कार आगे चलकर हुआ जब वह धीरे धीरे जगत् और जीवन के पूर्ण स्वरूप की ओर दृष्टि ले गया।

'पल्लव' के अंत में पंतजी जगत् के विषम 'परिवर्तन' के नाना दृश्य सामने लाए हैं। इसकी प्रेरणा शायद उनके व्यक्तिगत जीवन की किसी विषम स्थिति ने की है। जगत् की परिवर्तनशीलता मनुष्यजाति को चिर काल से क्षुब्ध करती आ रही है। परिवर्तन संसार का नियम है। यह बात स्वतः सिद्ध होने पर भी सहृदयों और कवियों का मर्मस्पर्श करती रही है और करती रहेगी, क्योंकि इसका संबंध जीवन के नित्य स्वरूप से है। जीवन के व्यापक क्षेत्र में [ ७०४ ]प्रवेश के कारण कवि-कल्पना को कोमल, कठोर, मधुर, कटु, करुणा, भयंकर कई प्रकार की भूमियों पर बहुत दूर तक एक संबद्ध धारा के रूप में चलना पड़ा है। जहाँ कठोर और भयंकर, भव्य और विशाल तथा अधिक अर्थ-समन्वित भावनाएँ हैं वहाँ कवि ने रोला छंद का सहारा लिया है। काव्य में चित्रमयी भाषा सर्वत्र अनिवार्य नहीं, सृष्टि से गृढ़-अगृढ़ मार्मिक तथ्यों के चयन द्वारा भी किसी भावना को मर्मस्पर्श स्वरूप प्राप्त हो जाता हैं, इनका अनुभव शायद पंतजी को इस एक धारा में चलनेवाली लंबी कविता के भीतर हुआ है। इसी से कहीं कहीं हम सीधे-सादे रूप में चुने हुए मार्मिक तथ्यों का समाहार मात्र पाते हैं, जैसे––

तुम नृशस-नृप से जगती पर चट अनियंत्रित
करते हो ससृति के उत्पीड़ित, पद-मर्दित,
नन्न नगर कर, भन्न भवन प्रतिमाएँ खंडित,
हर लेते हो विभव, कला-कौशल चिर-संचित।
आधि-व्याधि, वहु वृष्टि, वात-उत्तात अनंगल।
वहृि, बाढ़, भूकंप-तुम्हारे विपुल सैन्य-दल।

चित्रमयी लाक्षणिक भाषा तथा रूपक आदि का भी बहुत ही सफल प्रयोग इस रचना के भीतर हुआ है। उसके द्वारा तीव्र मर्म-वेदना जगानेवाली शक्ति की पूरी प्रतिष्ठा हुई है। दो एक उदाहरण लीजिए––

अहे निष्ठुर परिवर्त्तन।
xx
अहे वासुकी सहलफन!

लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरंतर।
छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर।
शत शत फेनोच्छ्वसित, स्फोत फूत्कार भयंकर
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर।
मृत्यु तुम्हारा गरल दत्त, कचुक कल्पासर।
अखिल विश्व ही विवर, चक्र कुंडल दिड-मंडल।


[ ७०५ ]

मृदुल होठो का हिमजल-हास उड़ा जाता नि:श्वास समीर;
सरल भौहों का शरदाकाश घेर लेते घन घिर गंभीर।
xxxx
विश्वमय हें परिवर्तन!
अतल से उमर अकृल, अपार
मेघ से विपुलाकार
दिशावधि में पल विविध प्रकार
अतल में मिलते तुम अविकार।

पहले तो कवि लगातार सुख का दुःख में, उत्थान का पतन में, उल्लास का विषाद में, सरस सुषमा का शुष्कता और ग्लानता में परिवर्तन सामने लाकर हाहाकार का एक विश्व-व्यापक स्वर सुनता हुआ क्षोभ से भर जाता है, फिर परिवर्तन के दूसरे पक्ष पर भी––दुःखदशा से सुखदशा की प्राप्ति पर भी––थोड़ा दृष्टिपात करके चिंतनोन्मुख होता है और परिवर्तन को एक महाकरुण कांड के रूप में देखने के स्थान पर सुख-दुःख की उलझी हुई समस्या के रूप में देखता है, जिसकी पूर्ति इस व्यक्त जगत् में नहीं हो सकती, जिसका सारा रहस्य इस जीवन के उस पार ही खुल सकता है––

आज का दुख, कल का आह्वाद
और कल का सुख, आज विषाद;
समस्या स्वप्न गूढ संसार,
पूर्ति जिसकी उस पार।

इस प्रकार तात्विक दृष्टि से जगत् के द्वंद्वात्मक विधान को समझकर कवि अपने मन को शांत करता है––

मूँदती नयन मृत्यु की रात खोलती नव जीवन को प्रात।
म्लान कुसुमों की मृदु मुसकान फलों में फलती फिर अम्लान।
xxxx
स्वीय कर्मों ही के अनुसार एक गुण फलता विविध प्रकार।
कहीं राखी बनता सुकुमार कहीं बेडी का भार,
xxxx

[ ७०६ ]

बिना दुख के सब सुख नि:सार, बिना आँसू के जीवन भार।
दीन दुर्बल हे रेे संसार; इसी से क्षमा, दया औ प्यार।

और जीवन के उद्देश्य का भी अनुभव करता हैं––

वेदना ही में तप कर प्राण, दमक दिखलाते स्वर्ण-हुलास।
xxxx
अलभ हे इष्ट, अतः अनमोल। साधना ही जीवन का मोल।

जीवन का एक सत्य स्वरूप लेकर अत्यंत मार्मिक अर्थ-पथ पर संबद्ध रूप में चलने के कारण, कल्पना की क्रीड़ा और वाग्वैचित्र्य पर प्रधान लक्ष्य न रहने के कारण इस 'परिवर्तन' नाम की सारी कविता का एक समन्वित प्रभाव पड़ता है।

'पल्लव' के उपरांत 'गुंजन' में हम पंत जी को जगत् और जीवन के प्रकृत क्षेत्र के भीतर और बढ़ते हुए पाते हैं, यद्यपि प्रत्यक्ष बोध से अतृप्त होकर कल्पना की रुचिरता से तृप्त होने और बुद्धि-व्यापार से क्लांत होकर रहस्य की छाया में विश्राम करने की प्रवृत्ति भी साथ ही साथ बनी हुई है। कवि जीवन का उद्देश्य बताता है इस चारों ओर खिले हुए जगत् की सुषमा में अपने हृदय को सपन्न करना––

क्या यह जीवन? सागर में जलभार मुखर भर देना!
कुसुमित पुलिनों की क्रीड़ा वीणा से तनिक न लेना?

पर इस जगत् में सुख-सुषमा के साथ दुःख भी तो है। उसके इस सुख दुःखात्मक स्वरूप के साथ कवि अपने हृदय का सांमजस्य कर लेता है––

सुख दुख के मधुर मिलन से यह जीवन हो परिपूरन,
फिर घन में ओझल हो शशि फिर शशि से ओझल हो घन।

कवि वर्तमान जगत् की इस अवस्था से असंतुष्ट है कि कहीं तो सुख की अति हैं, कहीं दुःख की। वह सम भाव चाहता है––

जग पीड़ित है अति-दुख से जग पीड़ित रे अति-सुख से।
मानव-जग में बँट जावें दुख सुख से औ सुख दुख है।

[ ७०७ ]'मानव' नाम की कविता में जीवन-सौंदर्य की नूतन भावना का उदय कवि, अपने मन में इस प्रकार चाहता है––

मेरे मन के मधुबन में सुषमा के शिशु मुसकाओ।
नव नव साँसों का सौरभ नव मुँख का सुख बरसाओं।

बुद्धिपक्ष ही प्रधान हो जाने से हृदयपक्ष जिस प्रकार दब गया है और श्रद्धाविश्वास का ह्रास होता जा रहा है, इसके विरुद्ध योरप के अनातोले फ्रांस आदि कुछ विचारशील पुरुषों ने जो आंदोलन उठाया उसका आभास भी पंतजी की इन पंक्तियों में मिलता है।

सुंदर विश्वासों से ही बनता रे सुखमय जीवन।

"नौका-विहार" का वर्णन अप्रस्तुत आरोपों से अधिक अच्छादित होने पर भी, प्रकृति के प्रत्यक्ष रूपों की ओर कवि का खिंचाव सूचित करता है––

जैसे, और जगह वैसे ही गुंजन में भी पंतजी की रहस्य भावना अधिकतर स्वाभाविक पथ पर पाई जाती है। दूर तक फैले हुए खेतों, और मैदानों के छोर पर वृक्षावलि की जो धुँधली हरिताभ-रेखा-सी क्षितिज से, मिली, दिखाई पड़ती है उसके उधर किसी-मधुर लोक की कल्पना स्वभावतः होती है––

दूर उन खेतों के उस पार, जहाँ तक गई नील झंकार,
छिपा छायावन में सुकुमार स्वर्ग की परियो का संसार।

कवि की रहस्य-दृष्टि प्रकृति की आत्मा––जगत् के रूपों और व्यापारों में व्यक्त होनेवाली आत्मा––की ओर ही जाती हैं जो "निखिल छवि की छवि है" और जिसका "अखिल जग-जीवन हास-विलास" है। इस व्यक्ति प्रसार के बीच उसका आभास पाकर कुछ क्षण के लिये आनंद-मग्न होना ही मुक्ति है, जिसकी साधना सरल और स्वाभाविक है, हठयोग की-सी चक्करदार-नहीं। मुक्ति के लोभ से अनेक प्रकार की चक्करदार-साधना तो, बंधन-है––

है सहज-मुक्ति का मधु क्षण, पर कठिन मुक्ति का बंधन।

कवि अपनी इस मनोवृत्ति को एक जगह इस प्रकार स्पष्ट भी करता है [ ७०८ ]वह कहता है कि इस जीवन की तह में जो परमार्थ तत्व छिपा हुआ कहा जाता है उसे पकड़ने और उसमें लीन होने के लिये बहुत-से लोग अंतर्मुख होकर गहरी गहरी डुबकियाँ लगाते है; पर मुझे तो उसके व्यक्त आभास ही रुचिकर हैं, अपनी पृथक् सत्ता विलीन करते भय-सा लगता है––

सुनता हूँ इस निस्तल जल में रहती मछली मोतीवाली;
पर मुझे डूबने का भय है; भाती तट की चल जल-माली।
आएगी मेरे पुलिनों पर वह मोती की मछली सुंदर।
मैं लहरों के तट पर बैठा देखूँगा उनकी छवि जी भर॥

कहने का तात्पर्य यह कि पंतजी की स्वाभाविक रहस्य-भावना को 'प्रसाद' और 'महादेवी वर्मा' की सांप्रदायिक रहस्य-भावना से भिन्न समझना चाहिए। पारमार्थिक ज्ञानोदय को अवश्य उन्होंने 'कुछ भी आज न लूँगी मोल' नामक गीत में प्रकृति की सारी विभूतियों से श्रेष्ठ कहा है। रहस्यात्मकता की अपेक्षा कवि में दार्शनिकता अधिक पाई जाती है। 'विहँग के प्रति' नाम की कविता में कवि ने अव्यक्त प्रकृति के बीच चैतन्य के सान्निध्य से, शब्द-ब्रह्म के संचार या स्पंदन (Vibration) से सृष्टि के अनेक रूपात्मक विकास का बड़ा ही सजीव चित्रण किया हैं––

मुक्त पंखों में उड दिन रात सहज स्पंदित कर जग के प्राण;
शून्य नभ में भर दी अज्ञात, मधुर जीवन की मादक तान।
xxxx
छोड़ निर्जन का निभृत निवास, नीड़ में बँध जग के आनंद,
भर दिए कलरव से दिशि-आस गृहों में कुसुमित, मुदित, अमंद।
रिक्त होते जब जब तरुवास, रूप धर तू नव नव तत्काल,
नित्य नादित रखता सोल्लास, विश्व के अक्षयवट की डाल।

'गुंजन' में भी पंतजी की प्रतिभा बहुत ही व्यंजक और रमणीय साम्य जगह जगह सामने लाती है, जैसे––

खुल खुल नव नव इच्छाएँ फैलातीं जीवन के दल
गा गा प्राणों का मधुकर पीता मधुरस परिपूरण।

[ ७०९ ]इसी प्रकार लक्षणा के सहारे बहुत ही अर्थगर्भित और व्यंजक साम्य इन पंक्तियों में हम पाते हैं––

यह शैशव का सरल हास है सहसा उर से है आ जाता।
यह ऊषा का नव विकास है जो रज को है रजत बनाता।
यह लघु लहरों को विलास है कलानाथ जिसमें खींच आता।

कवि का भाव तो इतना ही है कि बाल्यावस्था में यह सारी पृथ्वी कितनी सुंदर और दीप्तिपूर्ण दिखाई देती है, पर व्यंजना बड़े ही मनोहर ढंग से हुई है। जिस प्रकार अरुणोदय में पृथ्वी का एक एक कण स्वर्णम दिखाई देता है उसी प्रकार बाल-हृदय को यह सारी पृथ्वी दीप्तिमयी लगती। जिस प्रकार सरोवर के हलके हलके हिलोरों में चंद्रमा (उसका प्रतिबिंब) उतरकर लहराता दिखाई देता है उसी प्रकार बाल-हृदय की उमंगों में स्वर्गीय दीप्ति फैली जान पड़ती है।

'गुंजन' में हम कवि का जीवनक्षेत्र के भीतर अधिक प्रवेश ही नहीं, उसकी काव्यशैली को भी अधिक सयत और व्यवस्थित पाते हैं। प्रतिक्रिया की झोंक में अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्र्य आदि के अतिशय प्रदर्शन की जो प्रवृत्ति हम 'पल्लव' में पाते हैं वह 'गुंजन' में नहीं है। उसमें काव्यशैली अधिक संगत, संयत और गंभीर हो गई है।

'गुंजन' के पीछे तो पंतजी वर्तमान जीवन के कई पक्षों को लेकर चलते दिखाई पड़ते है। उनके 'युगांत' में हम देश के वर्तमान जीवन में उठे हुए स्वरों की मीठी प्रतिध्वनि जगह-जगह पाते हैं। कहीं परिवर्तन की प्रबल आकांक्षा है, कहीं श्रमजीवियों की दशा की झलक है, कहीं तर्क-वितर्क छोड़ श्रद्धा-विश्वासपूर्वक जीवनपथ पर साहस के साथ बढ़ते चलने की ललकार है, कहीं 'बापू के प्रति' श्रद्धांजलि है। 'युगांत' में कवि स्वप्नों से जगकर यह कहता हुआ सुनाई पड़ता है––

जो सोए स्वप्न के तम में वे जागेंगे––यह सत्य बात।
जो देख चुके जीवन-निशीथ वे देखेंगे जीवन-प्रभात।

'युगांत' में कवि को हम केवल रूप-रंग, चमक-दमक, सुख-सौरभवाले सौंदर्य से आगे बढ़कर जीवन-सौंदर्य की सत्याश्रित कल्पना में प्रवृत्त पाते हैं। [ ७१० ]उसे बाहर जगत् में 'सौंदर्य, स्नेह, उल्लास' का अभाव दिखाई पड़ा है। इससे वह जीवन की सुंदरता की भावना मन में करके उसे जगत् में फैलाना चाहता है––

सुंदरता, का आलोक स्त्रोत है फूट पड़ा मेरे मन में,
जिससे नव जीवन, का प्रभात होगा फिर जग के आँगन में।
xxxx
में सृष्टि एक, रच रहा नवल भावी मानव के हित, भीतर।
सौंदर्य, स्नेह, उल्लाल मुझे मिल सका नही जग में बाहर।

अब कवि प्रार्थना करता है कि––

जग-जीवन में, जो चिर महान् सौंदर्यपूर्ण औ सत्यप्राण।
मैं उसका प्रेमी बनूँ नाथ! जिसमें मानव-हित हो, समान।

नीरस और टूठे जगत् में क्षीण कंकालों के लोक में वह जीवन का वसंत विकास चाहता––

कंकाल-जाल-जग में फैले फिर नवल रुधिर, पल्लव-लाली।

ताजमहल के कला-सौंदर्य को देख अनेक, कवि मुग्ध हुए हैं। पर करोड़ों की संख्या में भूखों मरती जनता के बीच ऐश्वर्य-विभूति के उस विशाल आडंबर के खड़े होने की भावना से क्षुब्ध होकर युगांत के बदले हुए पंतजी कहते हैं––

हाय! मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन!
जब विप्पण निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन।
xxxx
मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति।
आत्मा का अपमान, प्रेत औ छाया से रति।
शव को दें हम रूप-रंग, आदर मानव का।
मानव को हम कुत्सित-चित्र बनावें शव का।

'पल्लव' में कवि अपने व्यक्तित्व के घेरे में बँधा हुआ, 'गुंजन' में कभी-कभी उसके बाहर शौर 'युगांत' में लोक के बीच, दृष्टि फैलाकर आसन जमाता [ ७११ ]हुआ दिखाई पड़ता है। 'गुंजन' तक वह जगत् से अपने लिये सौंदर्य और आंनद का चयन करता प्रतीत होता है; 'युगांत' में आकर वह सौंदर्य और आंनद का जगत् में पूर्ण प्रसार देखना चाहता है। कवि की सौंदर्य-भावना अब व्यापक होकर मंगल-भावना के रूप में परिणत हुई है। अब तक कवि लोकजीवन के वास्तविक शीत और ताप से अपने हृदय को बचाता-सा आता रहा; अब उसने अपना हृदय खुले जगत् के बीच रख दिया है कि उसपर उसकी गतिविधि का सच्चा और गहरा प्रभाव पड़े। अब वह जगत् ओर जीवन में जो कुछ सौंदर्य, माधुर्य प्राप्त है अपने लिये उसका स्तवक बनाकर तृप्त नहीं हो सकता। अब वह दुःख-पीड़ा, अन्याय-अत्याचार के अंधकार को फाड़-कर मंगलज्योति फूटती देखना चाहता है––मंगल का अमंगल के साथ वह संघर्ष देखना चाहता है, जो गत्यात्मक जगत् का कर्म-सौंदर्य हैं।

संध्या होने पर अब कवि का ध्यान केवल प्रफुल्ल प्रसून, अलस गंधवाह, रागरंजित और दीप्त दिगंचल तक ही नहीं रहता। वह यह भी देखता है कि––

बाँसों का झुरमुट, संध्या का झुटपुट
xxxx
ये नाप रहे निज घर का मग
कुछ श्रमजीवी घर डगमग ढंग
भारी है जीवन, भारी पग!

जो पुराना पड़ गया है, जीर्ण और जर्जर हो गया है और नवजीवन-सौंदर्य लेकर आनेवाले युग के उपयुक्त नहीं है उसे पंतजी बड़ी निर्ममता के साथ हटाना चाहते हैं––

द्रुत झरो जगत् के जीर्णं पत्र। हे स्त्रस्त,ध्वस्त! हे शुष्क, शीर्ण!
हिम-ताप-पीत, मधु बात-भीत, तुम वीत-राग, जड़ पुराचीन!


झरें जाति-कुल-वर्ण-पर्ण-घन। अंधः नीड़ से रूढ-रीति छन।

इस प्रकार कवि की वाणी में लोकमंगल की आशा और आकांक्षा के साथ[ ७१२ ]घोर 'परिवर्तनवाद' का स्वर भी भर रहा है। गत युग के अवशेषों ध्वस्त दल का अत्यंत रौद्र आग्रह प्रकट किया गया है––

गर्जन कर मानव केसरि!
प्रखर नखर नत्र जीवन की लालसा गडा कर।
छिन्न भिन्न कर दें गत युग के शव को दुर्धर!

ऐसे स्थलों को देख यह संदेह हो सकता है कि कवि अपनी वाणी को केवल आदोलनों के पीछे लग रहा है या अपनी अनुभूति की प्रेरणा से परिचालित कर रहा है। आशा है कि पंतजी अपनी लोकमंगल-भावना को ऐसे स्वाभाविक मर्मपथ पर ले चलेंगे जहाँ इस प्रकार के संदेह का अवसर न रहेगा।

'युगांत' में नर-जीवन की वर्तमान दशा की अनुभूति ही सर्वत्र नहीं है। हृदय की नित्य और स्थायी वृतियों की व्यंजना भी, कल्पना की पूरी रमणीयता के साथ, कई रचनाओं में मिलती है। सबसे ध्यान देने की बात यह है कि 'बाद' की लपेट से अपनी वाणी को कवि ने एक प्रकार से मुक्त कर लिया है। चित्रभाषा और लाक्षणिक वैचित्र्य के अनावश्यक प्रदर्शन की वह प्रवृत्ति अब नहीं हैं जो भाषा और अर्थं की स्वाभाविक गति में बाधक हो। 'संध्या', 'खद्योत', 'तितली', 'शुक्र' इत्यादि रचनाओं में जो रमणीय कल्पनाएँ हैं उनमें दूसरे के हृदय में ढलने की पूरी द्रवणशीलता है। 'तितली' के प्रति यह संबोधन लीजिए––

प्रिय तितली! फूल-सी ही फूली
तुम किस सुख में हो रही ढोल?
xxxx
क्या फूलों से ली, अनिल-कुसुम!
तुमने मन के मधु को मिठास?

हवा में उड़ती रंग-विरंगी तितलियों के लिये 'अनिल-कुसुम' शब्द की रमणीयता सबका हृदय स्वीकार करेगा। इसी प्रकार 'खद्योत' के सहसा चमक उठने पर यह कैसी सीधी-सादी सुंदर भावना है।

अँधियाली घाटी में सहसा हरित स्फुलिंग सदृश फूटा वह।

[ ७१३ ]'युगवाणी' में तो वर्तमान जगत् में सामाजिक व्यवस्था के संबंध में प्रायः जितने वाद, जितने आंदोलन उठे हुए है सबका समावेश किया गया है। इन नाना वादों के संबंध में अच्छा तो यह होता कि उनके नामों का, निर्देश न करके, उनके भीतर जो जीवन का सत्याश है उसका मार्मिक रूप सामने रख दिया जाता। ऐसा न होने से जहाँ इन वादों के नाम आए है वहाँ कवि का अपना रूप छिपा-सा लगता है। इन वादों को लेकर चले हुए आंदोलनों में

कवि को मानवता के नूतन विकास का आभास मिलता दिखाई पड़ा है। उस आगामी विकास के कल्पित स्वरूप के प्रति तीव्र आकर्षण प्रकट किया गया है। जो वर्तमान पाश्चात्य साहित्य-क्षेत्र की एक रूढ़ि (worship of the future) के मेल में है। अतः लोक के भावी स्वरूप के सुंदर चित्र के प्रति व्यंजित ललक या प्रेम को कोई चाहे तो उपयोगिता की दृष्टि से कल्पित एक आदर्श भाव का उदाहरण मात्र कह सकता है। इसी प्रकार अतीत के सारे अवशेषों को सर्वथा ध्वस्त देखने की रोषपूर्ण आकुलता का ध्यान भी मनुष्य की स्थायी अंत:प्रकृति के बीच कहीं मिलेगा, इसमें संदेह है।

बात यह है कि इस प्रकार के भाव वर्तमान की विषम स्थिति से क्षुब्ध, कर्म में तत्पर मन के भाव हैं। ये कर्म-काल के भीतर जगे रहते हैं। कर्म में रत मनुष्य के मन में सफलता की आशा, अनुमित भविष्य के प्रति प्रबल अभिलाष,बाधक वस्तुओं के प्रति रोष आदि का संचार होता है। ये भाव व्यावहारिक है, अर्थ-साधना को प्रक्रिया से संबंध रखते हैं और कर्म-क्षेत्र में उपयोगी माने जाते हैं। पंतजी ने वर्तमान को जगत् का कर्म-काल मानकर उसके अनुकूल भावों का स्वरूप सामने रखा है। सारांश यह कि जिस मन के भीतर कवि ने इन भावों को अवस्थान किया है वह 'कर्म का मन' है।

इस रूप में कवि यदि लोक-कर्म में प्रवृत्त नहीं तो कम से कम कर्मक्षेत्र में उतरे हुए लोगों के साथ चलता दिखाई पड़ रहा है। स्वतंत्र द्रष्टा का रूप उसका नहीं रह गया है। उसका तो "सामूहिकता ही निजत्व धन" है। सामूहिक धारा जिधर जिधर चल रही है उधर उधर उसका स्वर भी मिला सुनाई पड़ रहा है। कहीं वह 'गत संस्कृति के गरल' धनपतियों के अंतिम क्षण बता रहा है, कहीं मध्यवर्ग को 'संस्कृति का दास और उच्च वर्ग की सुविधा का [ ७१४ ]'शाख्रोक्त प्रचारक' तथा श्रमजीवियों को 'लोकक्रांति का अग्रदूत' और नव्य सभ्यता का उपासक कह रहा है और कहीं पुरुषों के अत्याचार से पीड़ित स्त्री जाति की यह दशा सूचित कर रहा है––

पशु-बल से कर जन शासित,
जीवन के उपकरण सदृश।
नारी भी कर ती अधिकृत?
xxx
अपने ही भीतर छिप छिप
जग से हो गई तिरोहित।

पंतजी ने समाजवाद के प्रति भी रूचि दिखाई है और 'गांधीवाद' के प्रति भी। ऐसा प्रतीत होती हैं कि लोक-व्यवस्था के रूप में तो 'समाजवाद' की बातें उन्हें पसंद हैं और व्यक्तिगत साधना के लिये 'गाँधीवाद' की बातें। कवि की दृष्टि में सब जीवों के प्रति आत्मभाव ही जीव-जगत् की 'मनुष्यत्व में परिणति' हैं। मनुष्य की अपूर्णता ही उसकी शोभा हैं। 'दुर्बलताओं से शोभित मनुष्यत्व सुरत्व से दुर्लभ हैं। 'पूर्ण सत्य' और असीम को ही श्रद्धा के लिये ग्रहण करने के फेर में रहना सभ्यता की बड़ी भारी व्याधि है। सीमाओं के द्वारा, उन्हीं की रेखाओं से, मंगल-विधायक आदर्श बनकर खड़े होते हैं। 'मानवपन’ में दोष है, पर उन्हीं दोषों की रगड़ खाकर वह मँजता है, शुद्ध होता है––

व्याधि सभ्यता की है निश्चित पूर्ण सत्य का पूजन;
प्राणहीन वह कला, नहीं जिसमें अपूर्णता शोभन।
सीमाएँ आदर्श सकल, सीमा-विहीन यह जीवन,
दोषों से ही दोष-शुद्ध है मिट्टी का मानवपन।

'समाजवाद' की बातें कवि ने ग्रहण की हैं पर अपना चिंतन स्वतंत्र रखा हैं। समाजवाद और संघवाद (Communism) के साथ लगा हुआ 'संकीर्ण भौतिकवाद' उसे इष्ट नहीं। पारमार्थिक दृष्टि से वह परात्परवादी है। आत्मा और भूतों के बीच संबंध स्थापित करनेवाला तत्व वह दोनों से परें बताता है–– [ ७१५ ]

आत्मा और भूतों में स्थापित करता कौन समत्व।
बहिरंतर, आत्मा-भूतों से है अतीत वह तत्व।
भौतिक आध्यात्मिकता केवल उसके दो कूल।
व्यक्ति-विश्व से, स्थूल-सूक्ष्म से परे सत्य के मूल।

यह परात्पर-भाव कवि की वर्त्तमान काव्यदृष्टि के कहाँ तक मेल में है, यह दूसरी बात है। पर जब हम देखते हैं कि उठे हुए सामयिक आंदोलन प्रायः एकांगदर्शी होते हैं, एक सीमा से दूसरी सीमा की और उन्मुख होते हैं तब उनके द्वारा आगामी भव-संस्कृति की जो हरियाली कवि को सूझ रही हैं वह निराधार-सी लगती हैं। हम तो यही चाहेगे कि पंतजी आंदोलनों की। लपेट से अलग रहकर जीवन के नित्य और प्रकृत स्वरूप को लेकर चलें और उसके भीतर लोक-मंगल की भावना का अवस्थान करें।

जो कुछ हो, यह देखकर प्रसन्नता होती हैं कि 'छायावाद' के बंधे घेरे से निकलकर पंतजी ने जगत् की विस्तृत अर्थ भूमि पर स्वाभाविक स्वछंदता के साथ विचरने का साहस दिखाया है। सामने खुले हुए रूपात्मक व्यक्त जगत् से ही सच्ची भावनाएँ प्राप्त होती हैं, 'रूप ही उर में मधुर भाव बन जाता' है, इस 'रूप-सत्य' का साक्षात्कार कवि ने किया है।

'युगवाणी' में नर-जीवन पर ही विशेष रूप से दृष्टि जमी रहने के कारण कवि के सामने प्रकृति का वह रूप भी आया है जिससे मनुष्य को लड़ना पड़ा है––

वहि, बाढ़, उल्का झंझा की भीषण सू घर
कैसे रह सकता है कोमल मनुष्य कलेवर।

'मानवता' के व्यापक संबंध की अनुभूति के मधुर प्रभाव से 'दो लड़के' में कवि को पासी के दो नंग-धडंग बच्चे प्यारे लगे हैं जो––

जल्दी से टीले के नीचे उधर, उतर कर
हैं चुन ले जाते कूड़े से निधियाँ, सुंदर––
सिगरेट के खाली डिब्बे पन्नी चमकीली,
फीतों के टुकड़े; तसवीरें नीली पीली।

किन्तु नरक्षेत्र के भीतर पंतजी की दृष्टि इतनी नहीं बँध गई है कि चराचर के [ ७१६ ]साथ अधिक व्यापक संबंध की अनुभूति मंद पड़ गई हो। 'युगवाणी' में हम देखते हैं कि हमारे जीवन-पथ के चारों ओर पड़नेवाली प्रकृति की साधारण से साधारण, छोटी से छोटी वस्तुओं को भी कवि ने कुछ अपनेपन से देखा है। 'समस्त पृथ्वी पर निर्भय विचरण करती जीवन की अक्षय चिनगी' चींटी का अत्यंत कल्पनापूर्ण वर्णन हमें मिलता है। कवि के हृदय-प्रसार का सबसे सुंदर प्रमाण हमें 'दो मित्र' में मिलता है जहाँ उसने एक टीले पर पास-पास खड़े चिलबिल के दो पेड़ों को बड़ी मार्मिकता के साथ दो मित्रों के रूप में देखा है––

उस निर्जन टीले पर
दोनों चिलबिल
एक दूसरे से मिल
मित्रों-से हैं खड़े,
मौन मनोहर।
दोनों पादप
सह वर्षातप
हुए साथ ही बड़े
दीर्घ सुदृढ़तर।

शहद चाटनेवालों और गुलाब की रूह सूँघनेवालों को चाहे इसमें कुछ न मिले; पर हमें तो इसके भीतर चराचर के साथ मनुष्य के संबंध की बड़ी प्यारी भावना मिलती है। 'झंझा में नीम' का चित्रण भी बड़ी स्वाभाविक पद्धति पर है। पंतजी को 'छायावाद' और 'रहस्यवाद' से निकलकर स्वाभाविक स्वच्छंदता (True Romanticism) की ओर बढ़ते देख हमें अवश्य संतोष होता है।



श्री सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'––पहले कहा जा चुका है कि 'छायावाद' ने पहले बँगला की देखादेखी अँगरेजी ढंग की प्रगीत पद्धति का अनुसरण किया। प्रगीत पद्धति में नाद-सौंदर्य की ओर अधिक ध्यान रहने से संगीत-तत्व का अधिक समावेश देखा जाता है। परिणाम यह होता है कि [ ७१७ ]समन्वित अर्थ की ओर झुकाव कम हो जाता है। हमारे यहाँ संगीत राग-रागिनियों में बँधकर चलता आया है; पर योरप में उस्ताद लोग तरह तरह की स्वर-लिपियों की अपनी नई नई योजनाओं का कौशल दिखाते हैं। जैसे और सब बातों की, वैसे ही संगीत के अँगरेजी ढंग की भी नकल पहले पहल बंगाल में शुरू हुई। इस नए ढंग की ओर निरालाजी सबसे अधिक आकर्षित हुए और अपने गीतों में इन्होंने उसका पूरा जौहर दिखाया। संगीत को काव्य के और काव्य को संगीत के अधिक निकट लाने का सबसे अधिक प्रयास निरालाजी ने किया है।

एक तो खड़ी बोली, दूसरे स्वरों की घटती बढ़ती के साथ मात्राओं का स्वेच्छानुसार विभाग। इसके कारण 'गवैयों की जबान को सख्त परेशानी होगी" यह बात निरालाजी ने आप महसूस की है। गीतिका में इनके ऐसे ही गीतों का संग्रह है जिनमें कवि का ध्यान संगीत की और अधिक है, अर्थ-समन्वय की ओर कम। उदाहरण––

अभरण भर वरण-गान
वन-वन उपवन-उपवन
जाग छवि, खुले प्राण।
xxx
मधुप-निकर कलरव भर,
गीत-मुखर पिक-प्रिय-स्वर,
स्मर-शर हर केसर-झर,
मधुपूरित गंध, ज्ञान।

जहाँ कवि ने अधिक या कुछ पेचीले अर्थ रखने का प्रयास किया है। वहाँ पद-योजना उस अर्थ को दूसरों तक पहुँचाने में प्रायः अशक्त या उदासीन पाई जाती है। गीतिका का यह गीत लीजिए––

कौन तम के पार? (रे कह)
अखिल-पल के स्रोत, जल-जग,
गगन-घन-घन-धार (रे कह)

[ ७१८ ]

गोप-व्याकुल-कूल-उर सर,
लहर-कच कर कमल-सुरा पर
हर्ष अलि हर रर्ण्श-शर सर
गूँज बराबर! (रे कह)
निशा-प्रिय-उर शवन सुख-धन
सार, या कि असार? (रे कह)

इसमें आई हुई "अखिल पल के स्रोत जल-जग", "हर्ष-अलि हर स्पर्श-शर" "निशा-प्रिय-उर-शयन सुख-धन" इत्यादि पदावलियों का जो अर्थ कवि को स्वयं समझना पड़ा है वह उन पदावलियों से जबरदस्ती निकाला जान पड़ता है। जैसे––"हर्ष-अलि हर स्पर्श-शर=आंनदरूपी भौंरा स्पर्श का चुभा तीर हर रहा है (तीर के निकलने से भी एक प्रकार का स्पर्श होता है। जो और सुखद है; तीर रूप का चुभा तीर है)। निशा-प्रिय-उर-शयन सुख-धन= निशा का प्रियतम के उर पर शयन।"

निराला जी पर बंगभाषा की काव्य शैली का प्रभाव समास में गुंफित पद-वल्लरी, क्रियापद के लोप आदि से स्पष्ट झलकती है। लाक्षणिक वैलक्षण्य लाने की प्रवृत्ति इनमे उतनी नहीं पाई जाती जितनी 'प्रसाद' और 'पंत' में।

सबसे अधिक विशेषता आपके पद्यों में चरणों की स्वच्छंद विषमता है। कोई चरण बहुत लंबा, कोई बहुत छोटा, कई मंझोला देखकर ही बहुत से लोग 'रबर छंद', 'केचुवा छंद' आदि कहने लगे थे। बेमेल चरणों की विलक्षण आजमाइश इन्होंने सब से अधिक की हैं। 'प्रगल्भ प्रेम' नाम की कविता में अपनी प्रेयसी कल्पना या कविता का आह्वान करते हुए इन्होंने कहा है––

आज नहीं हैं मुझे और कुछ चाह,
अर्द्ध-विकच इस हृदय-अमल में आ तू
प्रिये! छोड़कर बंधनमय छंदों की छोटी राह।
गज गामिनी वह पथ तेरा संकीर्ण,

कंटकाकीर्ण।

बहु वस्तु स्पर्शिनी प्रतिभा निरालीजी में है। 'अज्ञात प्रिय' की ओर [ ७१९ ]इशारा करने के अतिरिक्त इन्होंने जगत् के अनेक प्रस्तुत रूपों और व्यापारों को भी अपनी सरस भावनाओं के रंग में देखा है। 'विस्मृति की नींद से जगा-नेवाले' 'पुरातन के मलिन साज' खँडहर से वे जिज्ञासा करते हैं कि "क्या-तुम––

ढीले, करते हौं भव-बंधन नर-नारियों के?

अथवा


हो मलते कलेजा पड़े, जरा-जीर्ण
निर्निमेष-नयनों से।
बाट जोहते हो तुम मृत्यु की,
अपनी संतानों से बुंद भर पानी को तरसते हुए।

इसी प्रकार 'दिल्ली' नाम की कविता में दिल्ली की भूमि पर दृष्टि डालते हुए "क्या यह वही देश है?" कहकर कवि अतीत की कुछ इतिहास प्रसिद्ध बातों और व्यक्तियों को बड़ी सजीवता के साथ मन में लाता है––

नि:स्तब्ध मीनार
मौन हैं मकबरे––
भय में आशा को जहाँ मिलते थे समाचार।
टपक पड़ता था जहाँ आँसुओं में सच्चा प्यार॥

यमुना को देखकर प्रत्यभिज्ञा का उदय हम इस रूप में पाते है––

मधुर मलय में यहीं
गूँजी थी एक वह जो तान,
xxxx
कृषघन अलक में
कितने प्रेमियों का यहाँ पुलक समाया था।

समाज में प्रचलित ढोंग का बड़ा चूभता दृश्य गोमती के किनारे कवि ने देखा है जहाँ एक पुजारी भगत ने बंदरों को तो मालपुआ खिलाया और एक कंगाल भिक्षुक की ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं। [ ७२० ]जिस प्रकार निरालाजी को छंद के बंधन अरुचिकर हैं उसी प्रकार समाजिक बंधन भी। इसीसे सम्राट् एडवर्ड की एक प्रशस्ति लिखकर उन्होंने उन्हें एक वीर के रूप में सामने रखा है जिसने प्रेम के निमित्त साहसपूर्वक पद-मर्यादा के समाजिक बंधन को दूर फेंका है।

रहस्यवाद से संबंध रखने वाली निरालाजी की रचनाएँ आध्यात्मिकता का वह रूप-रंग लेकर चली हैं जिसका विकास बंगाल में हुआ। रचना के प्रारंभिक काल में इन्होंने स्वामी विवेकानंद और श्रीरवींद्रनाथ ठाकुर की कुछ कविताओं के अनुवाद भी किए हैं। अदैतवाद के वेदांती स्वरूप को ग्रहण करने के कारण इन रहस्यात्मक रचनाओं में भारतीय दार्शनिक निरूपण की झलक जगह जगह मिलती है। इस विशेषता को छोड़ दें तो इनकी रहस्यात्मक कविताएँ भी उसी प्रकार माधुर्य-भावना को लेकर चली हैं जिस प्रकार और छायावादी कवियों की। 'रेखा' नाम की कविता में कवि ने प्रथम प्रेम के उदय का जो वर्णन किया हैं वह सर्वत्र एक ही चेतन सत्ता की अनुभूति के रूप में सामने आता है––

यौवन के तीर पर प्रथम था आया जब
स्रोत सौंदर्य का,
बीचियों में कलरव सुख-चुंबित प्रणय का
या मधुर आकर्षणमय
मज्जनावेदन मृदु फूटता सागर में
xxx
सब कुछ तो था असार
अस्तु, वह प्यार है?
सब चेतन को देखता
स्पर्श में अनुभव––रोमांच,
हर्ष रूप में––परिचय।
xxx
खींचा उसी ने था हृदय यह
जड़ों में चेतन मति कर्षण मिलता कहाँ

[ ७२१ ]'तुलसीदास' निरालाजी की एक बड़ी रचना है जो अधिकांश अंतर्मुख प्रबंध के रूप में है। इस ग्रंथ में कवि ने जिस परिस्थिति में गोस्वामीजी उत्पन्न हुए उसका बहुत ही चटकीला और रंगीन वर्णन करके चित्रकूट की प्राकृतिक छटा के बीच किस प्रकार उन्हें आनंदमयी सत्ता का बोध हुआ और नवजीवन प्रदान करनेवाले गान की दिव्य प्रेरणा हुई उसका अंतर्वृत्ति के आंदोलन के रूप में वर्णन किया है।

'भविष्य का सुखस्वप्न' आधुनिक योरोपीय साहित्य की एक रूढ़ि है। जगत् की जीर्ण और प्राचीन व्यवस्था के स्थान पर नूतन सुखमयी व्यवस्था के निकट होने के आभास का वर्णन निरालाजी की 'उद्बोधन' नाम की कविता में मिलती है। इसी प्रकार श्रमजीवियों के कष्टों की समानुभूति लिए हुए जो लोक-हितवाद का आंदोलन चला है उसपर भी अब निराला जी की दृष्टि गई है––

वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर।

इस प्रकार की-रचनाओं में भाषा बोलचाल की पाई जाती। पर निरालाजी की भाषा अधिकतर संस्कृत की तत्सम पदावली से जुड़ी हुई होती है जिसका नमूना "राम की शक्तिपूजा" में मिलता है। जैसा पहले कह चुके हैं, इनकी भाषा में व्यवस्था की कमी प्रायः रहती है जिससे अर्थ या भाव व्यक्त करने में वह कहीं कहीं बहुत ढीली पड़ जाती।



श्री महादेवी वर्म्मा—छायावादी कहे जानेवाले कवियों में महादेवीजी ही रहस्यावाद के भीतर रही हैं। उस अज्ञात प्रियतम के लिये वेदना ही इनके हृदय का भाव-केंद्र है जिससे अनेक प्रकार की भावनाएँ छूट छूटकर झलक मारती रहती हैं। वेदना से इन्होंने अपना स्वाभाविक प्रेम व्यक्त किया है, उसी के साथ वे रहना चाहती हैं। उसके आगे मिलन-सुख को भी वे कुछ नहीं गिनतीं। वे कहती हैं कि—"मिलन का मत नाम ले मैं विहर में चिर हूँ"। इस वेदना को लेकर इन्होंने हृदय की ऐसी ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखी हैं जो [ ७२२ ]लोकोत्तर है। कहाँ तक वे वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की स्मणीय कल्पना हैं यह नहीं कह जा सकता।

एक पक्ष में अनंत सुषमा, दूसरे पक्ष में अपार वेदना विश्व के छोर हैं जिनके बीच उसकी अभिव्यक्ति होती हैं––

यह दोनों दो ओरें थीं
संसृति की चित्रपटी की;
उस बिन मेरा दुख सूना,
मुझ बिन वह सुषमा फीकी।

पीड़ा का चसका इतना है कि––


तुमको पीड़ा में ढूँढा।
तुममें ढूँढूँगी पीड़ा।

इनकी रचनाएँ समय समय पर संग्रहों में निकली हैं––नीहार, रश्मि, नीरजा और सांध्य गीत। अब इन सब का एक में बड़ा संग्रह 'यामा' के नाम से बड़े आकर्षक रूप में निकला है। गीत लिखने में जैसी सफलता महादेवीजी को हुई वैसी और किसी को नहीं। न तो भाषा का ऐसा स्निग्ध और प्राजल प्रवाह और कहीं मिलता है, न हृदय की ऐसी भाव-भंगी। जगह जगह ऐसी ढली हुई और अनूठी व्यंजना से भरी हुई पदावली मिलती है कि हृदय खिल उठता है।


ऊपर 'छायावाद' के कुछ प्रमुख कवियों का उल्लेख हो चुका हैं। उनके साथ ही इस वर्ग के अन्य उल्लेखनीय कवि हैं––सर्वश्री मोहनलाल महतो 'वियोगी', भगवतीचरण वर्मा, रामकुमार वर्मा, नरेंद्र शर्मा और रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'। श्रीवियोगों की कविताएँ 'निर्माल्य', 'एकतारा' और 'कल्पना' में संग्रहीत हैं।श्रीभगवतीचरण की कविताओं के तीन संग्रह हैं––'मधुकण', 'प्रेम संगीत' और 'मानव'। श्री रामकुमार वर्मा ने पहले 'वीर हमीर' और 'चित्तौड़ की चिता' की रचना की थी जो छायावाद के भीतर नहीं आतीं। उनकी इस [ ७२३ ]प्रकार की कविताएँ 'अंजलि', 'रूपराशि', 'चित्ररेखा' 'चन्द्रकिरण' नाम के संग्रहों के रूप में प्रकाशित हुई हैं। श्री आरसीप्रसाद की रचनाओं का संग्रह 'कलापी' में हुआ है। श्री नरेंद्र के गीत उनके 'कर्ण फूल', 'शूल फूल', 'प्रभातफेरी' और 'प्रवासी के गीत' नामक संग्रहों में संकलित हुए हैं और श्री अंचल की कविताएँ 'मधूलिका' और 'अपराजिता' में संग्रह की गई हैं।


४––स्वच्छंद-धारा

छायावादी कवियों के अतिरिक्त वर्तमान काल में और भी कवि है जिनमें से कुछ ने यत्र-तत्र ही रहस्यात्मक भाव व्यक्त किए हैं। उनकी अधिक रचनाएँ छायावाद के अंतर्गत नहीं आतीं। उन सबकी अपनी अलग अलग विशेषता है। इस कारण उनको एक ही वर्ग में नहीं रखा जा सकता। सुभीते के लिये ऐसे कवियों की, समष्टि रूप से, 'स्वछंद धारा' प्रवाहित होती है। इन कवियों में पं॰ माखनलाल चतुर्वेदी ('एक भारतीय आत्मा'), श्री सियारामशरण गुप्त, पं॰ बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान, श्री हरिवंश राय 'बच्चन', श्री रामधारी सिंह 'दिनकर', ठाकुर गुरुभक्त सिंह और पं॰ उदयशंकर भट्ट मुख्य हैं। चतुर्वेदीजी की कविताएँ अभी तक अलग पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं हुई। 'त्रिधारा' नाम के संग्रह में श्री केशवप्रसाद पाठक और श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान की चुनी हुई कविताओं के साथ उनकी भी कुछ प्रसिद्ध कविताएँ उद्धृत की गई हैं। श्री सियारामशरण गुप्त ने आरंभ में 'मौर्य-विजय' खंडकाव्य लिखा था। उनकी कविताओं के ये संग्रह प्रसिद्ध हैं––दूर्वादल, विषाद, आर्द्रा, पाथेय और मृण्मयी। 'आत्मोत्सर्ग', 'अनाथ' और 'बापू' उनके अन्य काव्य है। श्री नवीन ने 'उर्मिला' के संबंध में एक काव्य लिखा है जिसका कुछ अंश अस्तंगत 'प्रभा' पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। उनकी फुटकल कविताओं का संग्रह 'कुंकुम' नाम से छपा है। श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान की कुछ कविताएँ, जैसा कहा जा चुका है, [ ७२४ ]'त्रिधारा' में संकलित है। 'मुकुल' उनकी शेष कविताओं का संग्रह है। श्री बच्चन ने 'खैयाम की मधुशाला' के उमर खैयाम की कविताओं का अँगरेजी के प्रसिद्ध कवि फिट्जेराल्ड कृत अँगरेजी अनुवाद के आधार पर, अनुवाद किया है। उनकी स्वतंत्र रचनाओं के कई संग्रह निकल चुके हैं। जैसे, 'तेरा हार', 'एकांत संगीत', 'मधुशाला', 'मधुबाला' और 'निशानियंत्रण' आदि। श्री दिनकर की पहली रचना है 'प्रणभंग'। यह प्रबंधकाव्य है। अभी उनके गीतों और कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित हुए हैं––'रेणुका' और 'हुंकार'। ठाकुर गुरुभक्त-सिंह की लय से प्रसिद्ध और श्रेष्ठ कृति 'नूरजहाँ' प्रबंध-काव्य है। उनकी कविताओं के कई संग्रह भी निकल चुके हैं। उनमें 'सरस सुमन', 'कुसुमु-कुंज', वंशीध्वनि' और 'वन-श्री' प्रसिद्ध है। पंडित उदयशंकर भट्ट ने 'तक्षशिला' और 'मानसी' काव्यों के अतिरित्त विविध कविताएँ भी लिखी हैं, जो 'राका' और 'विसर्जन' में संकलित हैं।

इस प्रकार वर्तमान हिंदी कविता का प्रवाह अनेक धाराओं में होकर चल रहा है।

 

  1. देखो पृष्ठ ५८१ ।
  2. देखिए "माधुरी" (ज्येष्ठ, अषाढ़ १९७०) में प्रकाशित मेरा "काव्य में प्राकृतिक दृश्य"।
  3. यह संवत् १९९७ में प्रकाशित हो गया।
  4. देखो पृष्ठ ५२८।
  5. Literature in the Century Nineteenth Century Series by A. B. De Mille.
  6. देखो पृ॰ ४४९–५०।
  7. देखो पृष्ठ ६४–६५ और ७७।
  8. विशेष देखो पृ॰ ५६८–७१ ।"
  9. देखो पृष्ठ ५७१–७२।
  10. देखो पृ॰ ६००–६०६।
  11. देखो पृ॰ ३३९–४०।
  12. देखो पृष्ठ ६४७।
  13. देखो पृष्ठ ६५४।
  14. देखो पृष्ठ ६४८।
  15. मादकता से आए तुम; संज्ञा से चले गए थे।
    उर्दू के प्रसिद्ध कवि अकबर ने भी कहा है––

    मैं मरीजे होश था, मस्ती ने अच्छा कर दिया।

  16. अवकाश=दिक्, Space
  17. आकाश-तरंग=Ether waves
  18. देखो पृ॰ १४०।
  19. देखो पृष्ठ ६९४।
  20. यही भाव इँग्लैंड के एक आधुनिक कवि और समीक्षक अबरक्रोंबे ने जो हाल में भरे हैं, इस प्रकार व्यक्त किया है––
    ..........So we are driven onward and upward in a wind of beauty.

    ––Abercrombe.