हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल/प्रकरण २ रीति-ग्रंथकार कवि

 

प्रकरण २
रीति-ग्रंथकार कवि

हिंदी साहित्य की गति का ऊपर जो संक्षिप्त उल्लेख हुआ उससे रीतिकाल की सामान्य प्रकृति का पता चल सकता है। अब इस काल के मुख्य-मुख्य कवियों का विवरण दिया जाता है।

(१) चिंतामणि त्रिपाठी––ये तिकवाँपुर (जि॰ कानपुर) के रहनेवाले और चार भाई थे––चिंतामणि, भूषण, मतिराम और जटाशंकर। चारों कवि थे, जिनमें प्रथम तीन तो हिंदी साहित्य में बहुत यशस्वी हुए। इनके पिता का नाम रत्नाकर त्रिपाठी था। कुछ दिन से यह विवाद उठाया गया है कि भूषण न तो चिंतामणि और मतिराम के भाई थे, न शिवाजी के दरबार में थे। पर इतनी प्रसिद्ध बात का जब तक पर्याप्त विरुद्ध प्रमाण न मिले तब तक वह अस्वीकार नहीं की जा सकती। चिंतामणिजी का जन्मकाल संवत् १६६६ के लगभग और कविता-काल संवत् १७०० के आसपास ठहरता है। इनका 'कविकुलकल्पतरु' नामक ग्रंथ सं॰ १७०७ का लिखा है। इनके संबंध में शिवसिंहसरोज में लिखा है कि ये "बहुत दिन तक नागपुर में सूर्य्यवंशी भोसला मकरंद शाह के यहाँ रहे और उन्हीं के नाम पर 'छंदविचार' नामक पिंगल का बहुत भारी ग्रंथ बनाया और 'काव्य-विवेक', 'कविकुल-कल्पतरू', 'काव्यप्रकाश, 'रामायण' ये पाँच ग्रंथ इनके बनाए हमारे पुस्तकालय में मौजूद हैं। इनकी बनाई रामायण कवित्त और नाना अन्य छंदों मे बहुत अपूर्व है। बाबू रुद्रसाहि सोलंकी, शाहजहाँ बादशाह और जैनदी अहमद ने इनको बहुत दान दिए हैं। इन्होंने अपने ग्रंथ में कहीं-कहीं अपना नाम मणिमाल भी कहा है।"

ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि चिंतामणि ने काव्य के सब अंगों पर ग्रंथ लिखे। इनकी भाषा ललित और सानुप्रास होती थी। अवध के पिछले कवियों की भाषा देखते हुए इनकी ब्रजभाषा विशुद्ध दिखाई पड़ती है। विषय-वर्णन की प्रणाली भी मनोहर है। ये वास्तव में एक उत्कृष्ट कवि थे। रचना के कुछ नमूने लीजिए––

येई उधारत हैं तिन्हैं जे परे मोह-महोदधि के जल-फेरे।
जे इनको पल ध्यान धरैं मन, ते न परैं कबहूँ जम घेरे
राजै रमा रमनी उपधान, अझै बरदान रहैं जन नेरे।
हैं बलभार उदंड भरे, हरि के भुजदंड सहायक मेरे॥


इक आजु मैं कुंदन-बेलि लखी, मनिमंदिर की रुचिबृंद भरैं।
कुरविंद के पल्लव इंदु तहाँ, अरविंदन तें मंकरद झरैं॥
उत बुंदन के मुकुतागन ह्वै, फल सुंदर भ्वै पर आनि परैं।
लखि यों दुति कंद अनंद कला, नदनंद सिलाद्रव रूप धरैं॥


आँखिन मूँदिबे के मिस आनि, अचानक पीठ उरोज लगावै।
केहूँ कहूँ मुसकाथ चितै, अँगराय अनूपम अंग दिखावै॥
नाह हुई छले सों छतियाँ, हँसि भौंह चढ़ाय अनंद बढावै।
जोबन के मद मत्त तिया,हित सों पति को नितं। चित्त चुरावै॥


(२) बेनी––ये असनी के बंदीजन थे और संवत् १७०० के आसपास विद्यमान थे। इनका कोई ग्रंथ नहीं मिलता पर फुटकल कवित्त बहुत से सुने जाते है जिनसे यह अनुमान होता है कि इन्होंने नखशिख और षट्ऋतु पर पुस्तकें लिखी होगी। कविता इनकी साधारणतः अच्छी होती थी; भाषा चलती होने पर भी अनुप्रासयुक्त होती थी। दो उदाहरण नीचे दिए जाते है––

छहरै सिर पै छबि मोरपखा, उनकी नथ के मुकुता थहरैं।
फहरै पियरो पट बेनी इतै, उनकी चुनरी के झबा झहरैं॥
रसरंग भिरै अभिरे हैं तमाल, दोऊ रसख्याल चहैं लहरैं।
नित ऐसे सनेह सों राधिका स्याम हमारे हिए में सदा बिहरैं।


कवि बेनी नई उनई है घटा, मोरवा वन बोलन कूकन री।
छहरै बिजुरी छिति-मंडल छ्वै, लहरै मन मैन-भभूकन री॥
पहिरौ चुनरी चुनिकै दुलही, सँग लाल के झुलहु झूकन री।
ऋतु पावस यों ही बितावत हौं, मरिहौ, फिर बावरि! हूकन री॥

(३) महाराज जसवंतसिंह––ये मारवाड़ के प्रसिद्ध महाराज थे जो अपने समय के सबसे प्रतापी हिंदू नरेश थे और जिनका भय औरंगजेब को बराबर बना रहता था। इनका जन्म संवत् १६८३ में हुआ। ये शाहजहाँ के समय में ही कई लड़ाइयों पर जा चुके थे। ये महाराज गजसिंह के दूसरे पुत्र थे और उनकी मृत्यु के उपरांत संवत् १६९५ में गद्दी पर बैठे। इनके बड़े भाई अमरसिंह अपने उद्धत स्वभाव के कारण पिता द्वारा अधिकारच्युत कर दिए गए थे। महाराज जसवंतसिंह बड़े अच्छे साहित्यमर्मज्ञ और तत्त्वज्ञान-संपन्न पुरुष थे। उनके समय में राज्य भर में विद्या की बड़ी चर्चा रही और अच्छे-अच्छे कवियों और विद्वानों का बराबर समागम होता रहा। महाराज ने स्वयं तो ग्रंथ लिखे ही; अनेक विद्वानों और कवियों से न जाने कितने ग्रंथ लिखाए। औरंगजेब ने इन्हें कुछ दिनों के लिये गुजरात का सूबेदार बनाया था। वहाँ से शाइस्ताखाँ के साथ ये छत्रपति शिवाजी के विरुद्ध दक्षिण भेजे गए थे। कहते हैं कि चढ़ाई में शाइस्ताखाँ की जो दुर्गति हुई वह बहुत कुछ इन्हीं के इशारे से। अंत में ये अफगानों को सर करने के लिये काबुल भेजे गए जहाँ संवत् १७३५ में इनका परलोकवास हुआ।

ये हिंदी-साहित्य के प्रधान आचार्यों में माने जाते हैं और इनका 'भाषा-भूषण' ग्रंथ अलंकारों पर एक बहुत ही प्रचलित पाठ्य ग्रंथ रहा है। इस ग्रंथ को इन्होंने वास्तव में आचार्य्य के रूप में लिखा है, कवि के रूप में नहीं। प्राक्कथन में इस बात का उल्लेख हो चुका है कि रीतिकाल के भीतर जितने लक्षण-ग्रंथ लिखनेवाले हुऐ वे वास्तव में कवि थे और उन्होंने कविता करने के उद्देश्य से ही वे ग्रंथ लिखे थे, न कि विषय-प्रतिपादन की दृष्टि से। पर महाराज जसवंतसिंहजी इस नियम के अपवाद थे। वे आचार्य्य की हैसियत से ही हिंदी-साहित्य क्षेत्र मे आए, कवि की हैसियत से नही। उन्होंने अपना 'भाषा-भूषण' बिलकुल 'चंद्रालोक' की छाया पर बनाया और उसी की संक्षिप्त प्रणाली का अनुसरण किया है। जिस प्रकार चंद्रालोक में प्रायः एक ही श्लोक के भीतर लक्षण और उदाहरण दोनों का सन्निवेश है उसी प्रकार भाषा-भूषण में भी प्रायः एक ही दोहे में लक्षण और उदाहरण दोनों रखे गए हैं। इससे विद्यार्थियों को अलंकार कंठ करने में बड़ा सुबीता हो गया और 'भाषा-भूषण' हिंदी काव्य रीति के अभ्यासियों के बीच वैसा ही सर्वप्रिय हुआ जैसा कि संस्कृत के विद्यार्थियों के बीच चंद्रालोक। भाषा-भूषण बहुत छोटा सा ग्रंथ है।

भाषा-भूषण के अतिरिक्त जो और ग्रंथ इन्होंने लिखे हैं वे तत्त्वज्ञान-संबंधी हैं। जैसे––अपरोक्ष-सिद्धांत, अनुभव-प्रकाश, आनंद-विलास, सिद्धांत-बोध, सिद्धांतसार, प्रबोधचंद्रोदय नाटक। ये सब ग्रंथ भी पद्य में ही हैं, जिनसे पद्य-रचना की पूरी निपुणता प्रकट होती है। पर साहित्य से जहाँ तक संबंध है, ये आचार्य या शिक्षक के रूप में ही हमारे सामने आते हैं। अंलकार-निरूपण की इनकी पद्धति का परिचय कराने के लिये 'भाषा-भूषण' के दोहे नीचे दिए जाते हैं-

अत्युक्ति––अलंकार अत्युक्ति यह, बरनत अतिसय रूप।
जाचक तेरे दान तें भए कल्पतरु भूप॥


पर्य्यस्तापह्नुति––पर्यस्त जु गुन एक को, और विषय आरोप।
होइ सुधाधर नाहिं यह, बदन सुधाधर ओप॥

ये दोहे चंद्रालोक के इन श्लोकों की स्पष्ट छाया हैं।

अत्युक्तिरद्भुतातथ्यशौर्योदार्यादिवर्णनम्।
त्वयि दातरि राजेंद्र याचका कल्पशाखिनः॥
पर्यस्तापह्नुतिर्यत्र, धर्ममात्रं निषिध्यते।
नायं सुधांशुः किं तर्हि सुधांशुः प्रेयसीमुखम्॥

भाषा-भूषण पर पीछे तीन टीकाएँ रची गईं––'अलंकार रत्नाकर' नाम की टीका, जिसे बंसीधर ने संवत् १७९२ में बनाया, दूसरी टीका प्रतापसाहि की और तीसरी गुलाब कवि की 'भूषण-चंद्रिका'। (४) बिहारीलाल-ये माथुर चौबे कहे जाते हैं और इनका जन्म ग्वालियर के पास बसुवा गोविंदपुर गाँव में संवत् १६६० के लगभग माना जाता है। एक दोहे के अनुसार इनकी बाल्यावस्था बुंदेलखंड में बीती और तरुणावस्था में ये अपनी ससुराल मथुरा में आ रहे। अनुमानतः ये संवत् १७२० तक वर्तमान रहे। ये जयपुर के मिर्जा राजा जयसाह (महाराज जयसिंह) के दरबार में रहा करते थे। कहा जाता हैं कि जिस समय ये कवीश्वर जयपुर पहुँचे उस समय महाराज अपनी छोटी रानी के प्रेम में इतने लीन रहा करते थे कि राजकाज देखने के लिये महलों के बाहर निकलते ही न थे। इसपर सरदार की सलाह से बिहारी ने यह दोहा किसी प्रकार महाराज के पास भीतर भिजवाया-

नहिँ पराग नहिँ मधुर मधु, नहिँ विकास यहि काल।
अली कली ही सोँ बँध्यो, आगे कौन हवाल॥

कहते है कि इसपर महाराज बाहर निकले और तभी से बिहारी का मान बहुत अधिक बढ़ गया। महाराज ने बिहारी को इसी प्रकार के सरस दोहे बनाने की आज्ञा दी। बिहारी दोहे बनाकर सुनाने लगे और उन्हें प्रति दोहे पर एक एक अशरफी मिलने लगी। इस प्रकार सात सौ दोहे बने जो संगृहीत होकर 'बिहारी-सतसई' के नाम से प्रसिद्ध हुए।

शृंगाररस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान 'बिहारी-सतसई' का हुआ उतना और किसी का नहीं है इसका एक एक दोहा हिंदी-साहित्य में एक एक रत्न माना जाता है। इसकी पचासों टीकाएँ रची गईं। इन टीकाओं में ४-५ टीकाएँ तो बहुत प्रसिद्ध हैं-कृष्ण कवि की टीका जो कवित्तो में है, हरिप्रकाश टीका, लल्लूजी लाल की लालचंद्रिका, सरदार कवि की टीका और सूरति मिश्र की टीका (इन टीकाओं के अतिरिक्त बिहारी के दोहों के भाव पल्लवित करनेवाले छप्पय, कुंडलिया, सवैया आदि कई कवियों ने रचे। पठान सुलतान की कुंडलिया इन दोहों पर बहुत अच्छी है, पर अधूरी है। भारतेदु हरिश्चंद्र ने कुछ और कुंडलिया रचकर पूर्ति-करनी चाही थी। पं॰ अंबिकादत्त व्यास ने अपने 'बिहारी बिहार' में सब दोहों के भावों को पल्लवित करके रोला छंद लगाए हैं। पं॰ परमानंद ने 'शृंगारसप्तशती' के नाम से दोहों का संस्कृत अनुवाद किया है। यहाँ तक कि उर्दू शेरों में भी एक अनुवाद थोड़े दिने हुए बुदेलखंड के मुंशी देवीप्रसाद (प्रीतम) ने लिखा। इस प्रकार बिहारी-संबंधी एक अलग साहित्य ही खड़ा हो गया है। इतने से ही इस अर्थ की सर्वप्रियता का अनुमान हो सकता है। बिहारी का सबसे उत्तम और प्रामाणिक संस्करण बड़ी मार्मिक टीका के साथ थोड़े दिन हुए प्रसिद्ध साहित्य-मर्मज्ञ और ब्रजभाषा के प्रधान आधुनिक कवि बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर ने निकाला। जितने श्रम और जितनी सावधानी से यह संपादित हुआ है, आज तक हिंदी का और कोई ग्रंथ नहीं हुआ।

बिहारी ने सतसई के अतिरिक्त और कोई ग्रंथ नहीं लिखा। यही एक ग्रंथ उनकी इतनी बड़ी कीर्ति का आधार है। यह बात साहित्य क्षेत्र के इस तथ्य की स्पष्ट घोषणा कर रहा है कि किसी कवि का यश उसकी रचनाओं के परिमाण के हिसाब से नहीं होता, गुण के हिसाब से होता है। मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है, इसमें कोई संदेह नहीं। मुक्तक में प्रबंध के समान रस की धारा नहीं रहती जिसमें कथा-प्रसंग की परिस्थिति में अपने को भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है और हृदय में एक स्थायी प्रभाव ग्रहण करता है। इसमें तो रस के ऐसे छींटे पड़ते हैं जिनसे हृदय-कालिका थोड़ी देर के लिये खिल उठती है। यदि प्रबंधकाव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है। इसी से वह सभी समाजों के लिये अधिक उपयुक्त होता है। उसमें उत्तरोत्तर अनेक दृश्यों द्वारा संघटित पूर्ण जीवन या उसके किसी एक पूर्ण अंग का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि कोई एक रमणीय खंडदृश्य इस प्रकार सामने ला दिया जाता है कि पाठक या श्रोता कुछ क्षणों के लिये मंत्रमुग्ध सा हो जाता है। इसके लिये कवि को मनोरम वस्तुओं और व्यापारों का एक छोटा सा स्तवक कल्पित करके उन्हें अत्यंत संक्षिप्त और सशक्त भाषा में प्रदर्शित करना पड़ता है। अतः जिस कवि में कल्पना की समाहार-शक्ति के साथ भाषा की समास-शक्ति जितनी ही अधिक होगी उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी। इसी से वे दोहे ऐसे छोटे छंद में इतना रस भर सके हैं। इनके दोहे क्या हैं रस के छोटे-छोटे छींटे हैं। इसी से किसी ने कहा है-

सतसैया के दोहरे ज्यों लावक के तीर। देखत में छोटे लगैं बैधैं सकल सरीर॥

बिहारी की रसव्यंजना का पूर्ण वैभव उनके अनुभवों के विधान में दिखाई पड़ता है। अधिक स्थलों पर तो इनकी योजना की निपुणता और उक्ति कौशल के दर्शन होते हैं, पर इस विधान में इनकी कल्पना की मधुरता झलकती है। अनुभावों और हावों की ऐसी सुंदर योजना कोई शृंगारी कवि नहीं कर सका है। नीचे की हावभरी सजीव मूर्तियाँ देखिए-

बतरस-लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ। सौंह करै, भौंहनि हंसै, देन कहै, नटि जाई॥
नासा मोरि, नचाइ दृग, करी कका की सौंह। काँटे सी कसकै हिए, गड़ी कटीली भौंह॥
ललन चलन सुनि पलन में, अँसुवा झलकै आइ। भई लखाइ न सखिन्ह हू, झूठे ही जमुहाइ॥

भाव व्यंजना या रस-व्यंजना के अतिरिक्त बिहारी ने वस्तु-व्यंजना का सहारा भी बहुत लिया है-विशेषतः शोभा या कांति, सुकुमारता, विरहताप, विरह की क्षीणता आदि के वर्णन से कहीं कहीं इनकी वस्तु-व्यंजना औचित्य की सीमा का उल्लंघन करके खेलवाड़ के रूप में हो गई है, जैसे-इन दोहों में-

पत्रा ही तिथि पाइए, वा घर के चहुँ पास। नित प्रति पून्योई रहै, आनन-ओप-उजास॥
छाले परिबे के डरन सकै न हाथ छुँवाई। झिझकति हियैं गुलाब कैं, झवा झवावति पाइ॥
इत आवति, चलि जात उत, चली छ सातक हाथ। चढ़ी हिंडोरे सी रहै, लगी उसासन साथ॥
सीरे जतननि सिसिर ऋतु, सहि बिरहिनि तनताप। बसिबै कौ ग्रीषम दिनन, परयो परोसिनि पाप॥
आड़े दै आले बसन, जाड़े हूँ की राति। साहस कै कै नेहबस, सखी सबै ढिंग जाति॥

अनेक स्थानों पर इनके व्यंग्यार्थ को स्फुट करने के लिये बड़ी क्लिष्ट कल्पना अपेक्षित होती है। ऐसे स्थलों पर केवल रीति या रूढ़ि ही पाठक की सहायता करती है और उसे एक पूरे प्रसंग का आक्षेप करना पड़ता है। ऐसे दोहे बिहारी में बहुत से हैं। पर यहाँ दो एक उदाहरण ही पर्याप्त होंगे-

ढीठि परोसिनि ईठ ह्वै कहे जु गहे सयान। सबै संदसे कहि कह्यो मुसकाहट मैं मान॥
नए बिरह बढ़ती बिथा, खरी बिकल जिय बाल। बिलखी देखि परोसिन्यौं हरषि हँसी तिहि काल॥

इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि बिहारी का 'गागर में सागर' भरने को जो गुण इतना प्रसिद्ध है वह बहुत कुछ रूढ़ि की स्थापना से ही संभव हुआ है। यदि नायिकाभेद की प्रथा इतने जोर शोर से न चल गई होती तो बिहारी को इस प्रकार की पहेली बुझाने का साहस न होता।

अलंकारों की योजना भी इस कवि ने बड़ी निपुणता से की है। किसी-किसी दोहे में कई अलंकार उलझे पड़े है, पर उनके कारण कहीं भद्दापन नहीं आया है। 'असंगति' और 'विरोधाभास' की ये मार्मिक और प्रसिद्ध उक्तियाँ कितनी अनूठी हैं––

दृग अरुझत, टूटत कुटुम, जुरत-चतुर-चित प्रीति। परति गाँठ दुरजन हिए, दई नई यह रीति॥
तंत्रीनाद कवित्त रस, सरस राग रति रंग। अनबूड़े बूड़े, तिरे जे बूड़े सब अंग॥

दो एक जगह व्यंग्य अलंकार भी बड़े अच्छे ढंग से आए हैं। इस दोहे में रूपक व्यंग्य है––

करे चाह सों चुटकि कै, खरे उडौहैं मैन।‌‌ लाज नवाए तरफरत, करत खूँद सी नैन॥

शृंगार के संचारी भावों की व्यंजना भी ऐसी मर्मस्पर्शिनी है कि कुछ दोहे सहृदयों के मुँह से बार बार सुने जाते हैं। इस स्मरण में कैसी गंभीर तन्मयता है––

सघन कुंज, छाया सुखद, सीतल मंद समीर। मन ह्वै जात अजौं वहै, वा जमुना के तीर॥

विशुद्ध काव्य के अतिरिक्त बिहारी ने सूक्तियाँ भी बहुत सी कही हैं जिनमें बहुत सी नीति-संबंधिनी है। सूक्तियों में वर्णन-वैचित्र्य या शब्द-वैचित्र्य ही प्रधान रहता है अतः उनमें से कुछ एक की ही गणना असल काव्य में हो सकती है। केवल शब्द-वैचित्र्य के लिये बिहारी ने बहुत कम दोहे रचे है। कुछ दोहे यहाँ दिए जाते हैं––

यद्यपि सुंदर सुघर पुनि, सगुनौं दीपक-देह। तऊ प्रकास करै तितो, भरिए जितो सनेह॥
कनक कनक तें सौगुनी, मादकता अधिकाय। वह खांए बौराये नर, यह पाए बौराय॥
तोपर वारौं उरबसी, सुनि राधिके सुजान। तू मोइन के उर बसी, ह्वै उरबसी समान॥

बिहारी के बहुत से दोहे "आर्यासप्तशती" और "गाथासप्तशती" की छाया लेकर बने हैं, इस बात को पंडित पद्मसिंह शर्मा ने विस्तार से दिखाया है। पर साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि बिहारी ने गृहीत भावों को अपनी प्रतिभा के बल से किस प्रकार एक स्वतंत्र और कहीं कहीं अधिक सुंदर रूप दे दिया है।

बिहारी की भाषा चलती होने पर भी साहित्यिक है। वाक्यरचना व्यवस्थित है और शब्दों के रूपों का व्यवहार एक निश्चित प्रणाली पर है। यह बात बहुत कम कवियो में पाई जाती है। ब्रजभाषा के कवियो में शब्दों को तोड़ मरोड़कर विकृत करने की आदत बहुतों में पाई जाती हैं। 'भूषण' और 'देव' ने शब्दो का बहुत अंग भंग किया है और कहीं कहीं गढ़त शब्दों का व्यवहार किया है। बिहारी की भाषा इस दोष से भी बहुत कुछ मुक्त है। दो एक स्थल पर ही 'स्मर' के लिये 'समर', 'ककै' ऐसे कुछ विकृत रूप मिलेंगे। जो यह भी नहीं जानते कि क्रांति को 'संक्रमण' (अप० संक्रोन) भी कहते हैं, 'अच्छ' साफ के अर्थ में संस्कृत शब्द हैं, 'रोज' रुलाई के अर्थ में आगरे के आस पास बोला जाता है और कबीर, जायसी आदि द्वारा बराबर व्यवहृत हुआ हैं, 'सोनजाइ' शब्द 'स्वर्णजाती' से निकला है––जुही से कोई मतलब नहीं, संस्कृत में 'वारि' और 'वार' दोनो शब्द है और 'वार्द' का अर्थ भी बादल है, 'मिलान' पड़ाव या मुकाम के अर्थ में पुरानी कविता में भरा पड़ा है, चलती ब्रजभाषा में 'पिछानना' रूप ही आता है, 'खटकति' का रूप बहुवचन में भी यही रहेगा, यदि पचासों शब्द, उनकी समझ में न आएँ तो बेचारे बिहारी का क्या दोष?

बिहारी ने यद्यपि लक्षण-ग्रंथ के रूप में अपनी 'सतसई' नहीं लिखी है, पर 'नख-शिख', 'नयिकाभेद', 'षट्ऋतु' के अंतर्गत उनके सब शृंगारी दोहे आ जाते हैं और कई टीकाकारों ने दोहों को इस प्रकार के साहित्यिक क्रम के साथ रखी भी है। जैसा कि कहा जा चुका है, दोहो को बनाते समय बिहारी का ध्यान लक्षणों पर अवश्य था। इसीलिये हमने बिहारी को रीतिकाल के फुटकल कवियों में न रख उक्त काल के प्रतिनिधि कवियों में ही रखा है।

बिहारी की कृति का मूल्य जो बहुत अधिक आँका गया है उसे अधिकतर रचना की बारीकी या काव्यांगो के सूक्ष्म विन्यास की निपुणता की ओर ही मुख्यतः दृष्टि रखनेवाले पारखियों के पक्ष से समझना चाहिए-उनके पक्ष से समझना चाहिए जो किसी हाथी-दाँत के टुकड़े पर महीन बेल-बूटे देख घंटो 'वाह वाह' किया करते हैं। पर जो हृदय के अंतस्तल पर मार्मिक प्रभाव चाहते है, किसी भाव की स्वच्छ निर्मल धारा में कुछ देर अपना मने मग्न रखना चाहते हैं, उनका संतोष बिहारी से नहीं हो सकता। बिहारी का काव्य हृदय में किसी ऐसी लय या संगीत का संचार नहीं करता जिसकी स्वरधारा कुछ काल तक गूँजती रहे। यदि धुले हुए भावों का आभ्यंतर प्रवाह बिहारी में होता तो वे एक एक दोहे पर ही सुतोष न करते। मार्मिक प्रभाव का विचार करें तो देव और पद्माकर के कवित्त सवैयों का सा गूँजनेवाला प्रभाव बिहारी के दोहो का नहीं पड़ता।

दूसरी बात यह कि भावों का बहुत उत्कृष्ट और उदात्त स्वरूप बिहारी में नहीं मिलता। कविता उनकी शृंगारी है, पर प्रेम की उच्च भूमि पर नहीं। पहुँचती, नीचे ही रह जाती है।

(५) मंडन––ये जैतपुर (बुंदेलखंड) के रहनेवाले थे और संवत् १७१६ में राजा मंगदसिंह के दरबार में वर्तमान थे। इनके फुटकल कवित्त सवैए बहुत सुने जाते हैं, पर कोई ग्रंथ अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है। पुस्तकों की खोज में इनके पाँच ग्रंथों का पता लगा है––रस-रत्नावली, रस-विलास, जनक-पचीसी, जानकी जू को ब्याह, नैन-पचासा।

प्रथम दो ग्रंथ रसनिरूपण पर है, यह उनके नामों से ही प्रकट होता हैं। संग्रह-ग्रंथों में इनके कवित्त-सवैए बाबर मिलते हैं। "जेइ जेइ सुखद दुखद अब तेइ तेइ कवि मंडन बिछुरत जदुपत्ती" यह पद भी इनका मिलता है। इससे जान पड़ता है कि कुछ पद भी इन्होंने रचे थे। जो पद्य इनके मिलते हैं उनसे ये बड़ी सरस कल्पना के भावुक कवि जान पड़ते है। भाषा इनकी बड़ी ही स्वाभाविक, चलती और व्यंजनापूर्ण होती थी। उसमे और कवियो का सा शब्दाडंबर नही दिखाई पड़ता। यह सवैया देखिए––

अलि हौं तौ गई जमुना जल को सो कहा कहौं बीर! बिपत्ति परी।
घहराय कै कारी घटा उनई, इतनेई में गागरि सीस धरी॥
रपट्यो पग, घाट चढ्यो न गयो, कवि मंडन ह्वै कै बिहाल गिरी।
चिर जीवहु नंद के बारो, अरी, गहि बाहँ गरीब ने ठाढ़ी करी॥

(६) मतिराम––ये रीतिकाल के मुख्य, कवियों में हैं और चिंतामणि तथा भूषण के भाई परंपरा से प्रसिद्ध है। ये तिकवाँपुर (जिला कानपुर) में संवत् १६७४ के लगभग उत्पन्न हुए थे और बहुत दिनों तक जीवित रहे। ये बूँदी के महाराज भावसिंह के यहाँ बहुत काल तक रहे और उन्हीं के आश्रय में अपना 'ललितललाम' नामक अलंकार को ग्रंथ संवत् १७१६ और १७४५ के बीच किसी समय बनाया। इनका 'छंदसार' नामक पिंगल का ग्रंथ महाराज शंभुनाथ सोलंकी को समर्पित है। इनका परम मनोहर ग्रंथ 'रसराज' किसी को समर्पित नहीं हैं। इनके अतिरिक्त इनके दो ग्रंथ और है––'साहित्यसार' और 'लक्षण-शृंगार'। बिहारी सतसई के ढंग पर इन्होने एक 'मतिराम-सतसई' भी बनाई जो हिंदी-पुस्तकों की खोज में मिली है। इसके दोहे सरसता में बिहारी के दोहों के समान ही हैं।

मतिराम की रचना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसकी सरसता अत्यंत स्वाभाविक हैं, न तो उसमें भावों की कृत्रिमता है, न भाषा की। भाषा शब्दाडंबर से सर्वथा मुक्त है––केवल अनुप्रास के चमत्कार के लिये अशक्त शब्दों की भर्ती कहीं नहीं है। जितने शब्द और वाक्य हैं वे सब भावव्यंजना में ही प्रयुक्त हैं। रीति ग्रंथवाले कवियों में इस प्रकार की स्वच्छ, चलती और स्वाभाविक भाषा कम कवियों में मिलती है, कहीं कहीं वह अनुप्रास के जाल में बेतरह जकड़ी पाई जाती हैं। सारांश यह कि मतिराम की सी रसस्निग्ध और प्रसादयूर्ण भाषा रीति का अनुसरण करनेवालों में बहुत ही कम मिलती है।

भाषा के ही समान मतिराम के न तो भाव कृत्रिम है और न उनके व्यंजक व्यापार और चेष्टाएँ। भावों को असमान पर चढ़ाने और दूर की कौड़ी जाने के फेर में ये नहीं पड़े हैं। नायिका के विरहताप को लेकर बिहारी के समान मजाक इन्होने नहीं किया है। इनके भाव-व्यंजक व्यापारों की शृंखला सीधी और सरल है, बिहारी के समान चक्करदार नहीं। वचन-वक्रता भी इन्हें बहुत पसंद न थी। जिस प्रकार शब्द-वैचित्र्य को ये वास्तविक काव्य से पृथक् वस्तु मानते थे, उसी प्रकार खयाल की झूठी बारीकी को भी। इनका सच्चा कवि-हृदय था। ये यदि समय की प्रथा के अनुसार रीति की बँधी लीकों पर चलने के लिये विवश न होते, अपनी स्वाभाविक प्रेरणा के अनुसार चलने पाते, तो और भी स्वाभाविक और सच्ची भाव-विभूति दिखाते, इसमें कोई संदेह नही। भारतीय-जीवन से छाँटकर लिए हुए इनके मर्मस्पर्शी चित्रों में जो भाव भरे हैं, वे समान रूप से सबकी अनुभूति के अंग है।

'रसराज' और 'ललितललाम', मतिराम के ये दो ग्रंथ-बहुत प्रसिद्ध है, क्योंकि रस और अलंकार की शिक्षा में इनका उपयोग बराबर होता चला आया है। वास्तव में अपने विषय के ये अनुपम ग्रंथ है। उदाहरणों की रमणीयता से अनायास रसों और अलंकारों का अभ्यास होता चलता है। 'रसराज' का तो कहना ही क्या है। 'ललितललाम' में भी अलंकारों के उदाहरण बहुत सरस और स्पष्ट है। इसी सरसता और स्पष्टता के कारण ये दोनों ग्रंथ इतने सर्वप्रिय रहे हैं। रीति-काल के प्रतिनिधि कवियों में पद्माकर को छोड़ और किसी कवि में मतिराम की सी चलती भाषा और सरल व्यंजना नहीं मिलती। बिहारी की प्रसिद्धि का कारण बहुत कुछ उनका वाग्वैदग्ध्य है। दूसरी बात यह है कि उन्होंने केवल दोहे कहे हैं, इससे उनमें वह नादसौंदर्य नहीं आ सका है जो कवित्त सवैए की लय के द्वारा संघटित होता है।

मतिराम की कविता के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं––

कुंदन को रँग फीको लगै, झलकै अति अंगनि चारु गोराई।
आँखिन में अलसानि, चितौन मे मंजु विलासन की सरसाई॥
को बिनु मोल बिकात नहीं मतिराम लहे मुसकानि-मिठाई।
ज्यों ज्यों निहारिए नेरे ह्वै नैननि त्यौं त्यौं खरी निकरै सी निकाई॥



क्यों इन आँखिन सों, निहसंक ह्वै मोहन को तन पानिप पीजै?
नेकु निहारे कलंक लगै यदि गाँव बसे कहु कैसे कै जीजै?

होत रहैं मन यों मतिराम, कहूँ बन जाय बडों तप कीजै।
ह्वै बनमाल हिए लगिए अरु ह्वै मुरली अधरारस पीजै॥



केलि कै राति अघाने नहीं दिन ही में लला पुनि घात लगाई।
'प्यास लगी, कोउ पानी दै जाइयो', भीतर बैठि कै बान सुनाई॥
जेठी पठाई गई दुलही, हँसि हेरि हरैं मतिराम बुलाई।
कान्ह के बोल पे कान न दीन्ही, सुनेह की देहरि पै धरि आई॥



दो अनंद सो आँगन माँझ बिराजै असाढ़ की साँझ सुहाई।
प्यारी के बूझत और तिया को अचानक नाम लियो रसिकाई॥
आई उनै मुँह में हँसी, कोहि तिया पुनि चाप सी भौंह चढ़ाई।
आँखिन तें गिरे आँसू के बूँद, सुहास गयो उड़ि हँस की नाई॥



सूबन को मेटि दिल्ली देस दलिबे को चूम,
सुभट समूह निसि वाकी उमहति है।
कहै मतिराम ताहि रोकिबे को संगर में,
काहू के न हिम्मत हिम में उलहति है॥
सबुसाल नंद के प्रताप की लपट सब,
गरब गनीम-बरगीन को दहति हैं।
पति पातसाह की, इजति उमरावन की,
राखी रैया राव भावसिंह की रहति है॥


(७) भूषण––वीररस के ये प्रसिद्ध कवि चिंतामणि और मतिराम के भाई थे। इनका जन्मकाल संवत् १६७० है। चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्र ने इन्हें कविभूषण की उपाधि दी थी। तभी से ये भूषण के नाम से ही प्रसिद्ध हो गए। इसका असल नाम क्या था, इसका पता नहीं। ये कई राजाओं के यहाँ रहे। अंत में इनके मन के अनुकूल आश्रयदाता, जो इनके वीर-काव्य के नायक हुए, छत्रपति महाराज-शिवाजी-मिले। पन्ना के महाराज छत्रसाल के यहाँ भी इनका बड़ा नाम हुआ। कहते है कि महाराज, छत्रसाल ने इनकी पालकी में अपनी कंधा लगाया था जिसपर इन्होंने कहा था––"सिवा को बखानौं कि बखानौं छत्रसाल को।" ऐसा प्रसिद्ध है कि इन्हें एक एक छंद पर शिवाजी से लाखों रुपए मिले। इनका परलोकवास सं॰ १७७२ में माना जाता है।

रीति-काल के भीतर शृंगार रस की ही प्रधानता रही। कुछ कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की स्तुति में उनके प्रताप आदि के प्रसंग में उनकी वीरता का भी थोड़ा बहुत वर्णन अवश्य किया है पर वह शुष्क प्रथा-पालन के रूप में ही होने के कारण ध्यान देने योग्य नहीं है। ऐसे वर्णनों के साथ जनता की हार्दिक सहानुभूति कभी हो नहीं सकती थी। पर भूषण ने जिन दो नायकों की कृति को अपने वीरकाव्य का विषेय बनाया वे अन्याय दमन मैं तत्पर, हिंदूधर्म के संरक्षक, दो इतिहास-प्रसिद्ध वीर थे। उनके प्रति भक्ति और संमान की प्रतिष्ठा हिंदू-जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गई। इसी से भूषण के वीररस के उद्गार सारी जनता के हृदय की संपत्ति हुए। भूषण की कविता कवि-कीर्ति संबंधी एक अविचल सत्य का दृष्टांत है। जिसकी रचना को जनता का हृदय स्वीकार करेंगा उस कवि की कीर्ति तब तक बराबर बनी रहेगी जब तक स्वीकृति बनी रहेगी। क्या संस्कृत साहित्य में, क्या हिंदी-साहित्य में, सहस्त्रों कवियों ने अपने आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा में ग्रंथ रचे जिनका आज पता तर्क नहीं है। पुराना वस्तु खोजनेवालों को ही कभी कभी किसी राजा के पुस्तकालय में, कहीं किसी घर के कोने में, उनमे से दो चार इधर-उधर मिल जाते हैं। जिस भोज ने दान दे देकर अपनी इतनी तारीफ कराई उसके चरित-काव्य भी कवियों ने लिखे होंगे। पर उन्हें आज कौन जानता है?

शिवाजी और छत्रसाल की वीरता के वर्णनों को कोई कवियों की झूठी खुशामद नहीं कह सकता। वे अभयदाताओं की प्रशंसा की प्रथा के अनुसरण मात्र नहीं हैं। इन दो वीरों की जिस उत्साह के साथ सारी हिंदू-जनता स्मरण करती है उसी की व्यंजन भूषण ने की है। वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि है। जैसा कि आरंभ में कहा गया है, शिवाजी के दरबार में पहुँचने के पहले वे और राजाओं के पास भी रहे। उनके प्रताप आदि की प्रशंसा भी उन्हें अवश्य ही करनी पड़ी होगी। पर वह झूठी थी, इसी से टिक न सकी। पीछे से भूषण को भी अपनी उन रचनाओं से विरक्ति ही हुई होगी। इनके 'शिवराजभूषण', 'शिवावावनी' और 'छत्रसाल दसक' ये ग्रंथ ही मिलते हैं। इनके अतिरिक्त ३ ग्रंथ और कहे जाते हैं––'भूषण उल्लास', 'दूषण उल्लास' और 'भूषण हजारा'।

जो कविताएँ इतनी प्रसिद्ध है उनके संबंध में यहाँ यह कहना कि वे कितनी ओजस्विनी और वीरदर्पपूर्ण हैं, षिष्टपेषण मात्र होगा। यहाँ इतना ही कहना आवश्यक है कि भूषण वीररस के ही कवि थे। इधर इनके दो चार कवित्त शृंगार के भी मिले है, पर दे गिनती के योग्य नहीं हैं। रीति काल के कवि होने के कारण भूषण ने अपना प्रधान ग्रंथ 'शिवराज-भूषण' अलंकार के ग्रंथ के रूप में बनाया। पर रीति ग्रंथ की दृष्टि से, अलंकार-निरूपण के विचार से यह उत्तम ग्रंथ नहीं कहा जा सकता। लक्षणों की भाषा भी स्पष्ट नहीं है और उदाहरण भी कई स्थलों पर ठीक नहीं हैं। भूषण की भाषा में ओज की मात्रा तो पूरी है पर वह अधिकतर अव्यवस्थित है। व्याकरण का उल्लंघन प्राय: है और वाक्य-रचना-भी कहीं कहीं गड़बड़ है। इसके अतिरिक्त शब्दों के रूप भी बहुत-बिगाड़े गए हैं और कहीं कहीं बिल्कुल गढ़ंत के शब्द रखे गए है। पर जो कवित्त इन दोषों से मुक्त है वे, बड़े ही, सशक्त और प्रभावशाली हैं। कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं––

इंद्र जिमि जंभ पर, बाड़व सु अंभ पर,
रावन संदर्भ पर रघुकुल राज हैं।
पौन बारिवाह पर, संभु रतिनाह पर,
ज्यों सहस्राहु पर राम द्विजराज़ है॥
दावा द्रुमदंड पर, चीता मृगझुंड पर,
भूषण बितुंड पर जैसे मृगराज हैं।
तेज तम-अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,
त्यों मलैच्छ-बंस पर सेर सिवराज हैं॥

 

डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी सी रहति छाती,
बाढ़ी मरजाद जस हद हिंदुवाने की।
कढ़ि गई रैयत के मन की कसक सब,
मिटि गई ठसक तमाम तुरकाने की॥
भूषन भनत दिल्लीपति दिल धक धक,
सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की
मोटी भई चंढी, बिन चोटी के चबाय सीस,
खोटी भई संपत्ति चकत्ता के घराने की॥


सबन के ऊपर ही ठाढो रहिबे के जोग,
ताहि खरो कियो जाय जारन के नियरे।
जानि गैर-मिसिल गुसीले गुसा धारि उर,
कीन्हों ना सलाम, न बचन बोले सियरे॥
भूषन भनत महाबीर बलकन लाग्यो,
सारी पातसाही के उढाय गए जियरे।
तमक तें लाल मुख सिंवा को निरखि भयो,
स्याह मुख नौरंग, सिपाह-मुख पियरे॥


दारा की न दौर यह, रार नहीं खजुबे की,
बाँधिबो नहीं है कैधौं मीर सहवाल को।
मठ विश्वनाथ को, न बास ग्राम गोकुल को,
देवी को न देहरा, न मंदिर गोपाल को॥
गाढे गढ़ लीन्हें अरु बैरी कतलाम कीन्हें,
ठौर ठौर हासिल उगाहत हैं साल को।
बूड़ति है दिल्ली सो सँभारे क्यों न दिल्लीपति,
धक्का आनि लाग्यो सिवराज महाकाल को॥


चकित चकत्ता चौंकि चौंकि उठै बार-बार,
दिही दहसति चितै चाहि करषति है।
बिलखि बदन बिलखत बिजैपुर पति,
फिरत फिरंगिन की नारी प्रकृति है॥
थर थर काँपत कुतुब साहि गोलकुंडा,
हहरि हबस भूप भीर भरकति है।
राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि,
केते बादसाहन की छाती धरकति है॥


जिहि फन फूतकार उड़त पहार भार,
कूरम कठिन जनु कमल बिदलिगौ।
विषजाल ज्वालामुखी लवलीन होता जिन,
झारन चिकारि मद दिग्गज उगलिगो॥
कीन्हों जिहि पान पयपान सो जहान कुल,
कोलहू उछलि जलहिंधु खलभलिगो।
खग्ग खगराज महाराज सिवराजजूं को,
अखिल भुजंग मुगलछल निगलिगो॥

(८) कुलपति मिश्र––ये आगरे के रहनेवाले माथुर चौबे थे, और महाकवि बिहारी के भानजे प्रसिद्ध हैं। इनके पिता का नाम परशुराम मिश्र था। कुलपतिजी जयपुर के महाराज जयसिंह (बिहारी के आश्रयदाता) के पुत्र महाराज रामसिंह के दरबार में रहते थे। इनके 'रसरहस्य' का रचनाकाल कार्तिक कृष्ण ११ संवत् १७२७ है। अब तक इनका यही ग्रंथ प्रसिद्ध और प्रकाशित हैं। पर खोज में इनके निम्नलिखित ग्रंथ और मिले हैं––

द्रोणपर्व (स॰ १७३७), युक्ति-तरंगिणी (१७४३) नखशिख, संग्रामसार, रस रहस्य (१७२४)।

अतः इनका कविता-काल सं॰ १७२४ और सं॰ १७४३ के बीच ठहरता है। रीति-काल के कवियों में ये संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे। इनका 'रसरहस्य' मम्मट के काव्यप्रकाश को छायानुवाद है। साहित्यशास्त्र का अच्छा ज्ञान रखने के कारण इनके लिये यह स्वाभाविक था कि ये प्रचलित लक्षण-ग्रंथो की अपेक्षा अधिक प्रौढ़ निरूपण का प्रयत्न करें। इसी उद्देश्य से इन्होंने अपना 'रस-रहस्य' लिखा। शास्त्रीय निरूपण के लिये पद्य उपयुक्त नहीं होता, इसका अनुभव इन्होंने किया, इससे कहीं कहीं कुछ गद्य वार्तिक भी रखा। पर गद्य परिमार्जित न होने के कारण जिस उद्देश्य से इन्होंने अपना यह ग्रंथ लिखा वह पूरा न हुआ। इस ग्रंथ का जैसा प्रचार चाहिए था, न हो सका। जिस स्पष्टता से 'काव्यप्रकाश' में विषय प्रतिपादित हुए है वह स्पष्टता इनके भाषा-गद्यपद्य में न आ सकी। कहीं कहीं तो भाषा और वाक्य-रचना दुरूह हो गई है।

यद्यपि इन्होंने शब्दशक्ति और भावादि-निरूपण में लक्षण उदाहरण दोनों बहुत कुछ काव्यप्रकाश के ही, दिए हैं पर अलंकार प्रकरण में इन्होंने प्रायः अपने आश्रयदाता महाराज रामसिंह की प्रशंसा के स्वरचित उदाहरण दिए हैं। ये ब्रजमंडल के निवासी थे अतः इनको ब्रज की चलती भाषा पर अच्छा अधिकार होना ही चाहिए। हमारा अनुमान है, जहाँ इनको अधिक स्वच्छंदता रही होगी वहाँ इनकी रचना और सरस होगी। इनकी रचना का एक नमूना दिया जाता है।

ऐसिय कुंज बनीं छबिपुंज, रहै अलिगुज्रत यों सुख लीजै।
नैन बिसाल हिए बनमाल बिलोकत रूप-सुधा भरि पीजै॥
जामिनि-जाम की कौन कहै, जुग जात न जानिए ज्यों छिन छीजै।
आनँद यों उमग्योई रहै, पिय मोहन को मुख देखियो कीजै॥

(९) सुखदेव मिश्र––दौलतपुर (जि॰ रायबरेली) में इनके वंशज अब तक हैं। कुछ दिन हुए उसी ग्राम के निवासी सुप्रसिद्ध पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इनका एक अच्छा जीवनवृत्त 'सरस्वती' पत्रिका में लिखा था। सुखदेव मिश्र को जन्मस्थान 'कपिला' था जिसका वर्णन इन्होंने अपने "वृत्तविचार" में किया। इनका कविता-काल संवत् १७२० से १७६० तक माना जा सकता है। इनके सात ग्रंथों का पता अब तक है–– वृत्तविचार (संवत् १७२८), छंदविचार, फाजिलअली-प्रकाश, रसार्णव, शृंगारलता, अध्यात्म-प्रकाश (संवत् १७५५), दशरथ राय।

अध्यात्म-प्रकाश में कवि ने ब्रह्मज्ञान-संबंध बातें कहीं हैं जिससे यह जनश्रुति पुष्ट होती है कि वे एक नि:स्पृह विरक्त साधु के रूप में रहते थे।

काशी से विद्याध्ययन करके लौटने पर ये असोथर (जि॰ फतेहपुर) के राजा भगवंतराय खीची तथा डौंड़िया-खेरे के राव मर्दनसिंह के यहाँ रहे। कुछ दिनों तक ये औरगंजेब के मंत्री फाजिलअलीशाह के यहाँ भी रहे। अंत में मुरारमऊ के राजा देवीसिंह के यहाँ गए जिनके बहुत आग्रह पर ये सकुटुंब दौलतपुर में जा बसे। राजा राजसिंह गौड़ ने इन्हें 'कविराज' की उपाधि दी। थी। वास्तव में ये बहुत प्रौढ़ कवि थे और आचार्यत्व भी इनमें पूरी था। छदःशास्त्र पर इनका सा विशद निरूपण और किसी कवि ने नहीं किया हैं। ये जैसे पंडित थे वैसे ही काव्यकला में भी निपुण थे। "फाजिलअली-प्रकाश" और "रसार्णव" दोनों में शृंगाररस के उदाहरण बहुत ही सुंदर हैं। दो नमूने लीजिए––

ननद निनारी, सासु मायके सिधारी,
अहै रैनि अँधियारी भरी, सूझत न करु है।
पीतम को गौन कबिराज न सोहीत मौन,
दारुन बहत पौन, लाग्यो मेघ झरु है॥
संग ना सहेली, बैस नवल अकेली,
तन पुरी तलवेली-महा, लाग्यो मैन-सरु है।
भई, अधिरात, मेरो जियरा डरात,
जागु जागु रे बटोही! यहाँ चोरन को डर है॥


जोहै जहाँ मगु नंदकुमार, तहाँ चलि चंदमुखी सुकुमार है।
मोतिन ही को कियो गहनो सब, फूलि रही जनु कुंद की डार है॥
भीतर ही जो लखी, सो लखी अब बाहिर जाहिर होति न दार है।
जोन्ह सी जोन्हैं गई मिलि यों, मिलि जाति ज्यौ दूध में दूध की धार है॥

(१०) कालिदास त्रिवेदी––ये अंतर्वेद के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका विशेष वृत्त ज्ञात नहीं। जान पड़ता है कि संवत् १७४५ वाली गोलकुंडे की चढ़ाई में ये औरंगजेब की सेना में किसी राजा के साथ गए थे। इस लड़ाई को औरंगजेब की प्रशंसा से युक्त वर्णन इन्होंने इस प्रकार किया––

गढ़न गढ़ी से गढ़ी, महल मढ़ी से मढ़ि,
बीजापुर ओप्यो दलमलि सुघराई में।
कालिदास कोप्यो वीर औलिया अलमगीर,
तीर तरवारि गहि पुहमी पराई में॥
बूँद तें निकसि महिमंडल घमंड मची,
लोहू की लहरि हिमगिरि की तराई में।
गाडि के सुझंडा आड कीनी बादसाही, तातें,
डकरी चमुंडा गोलकुंडा की लराई में॥

कालिदास का जंबू-नरेश जोगजीत सिंह के यहाँ भी रहना पाया जाता है। जिनके लिये संवत् १७४९ में इन्होंने 'वरवधू-विनोद' बनाया। यह नायिकाभेद और नखशिख की पुस्तक है। बत्तीस कवितो की इनकी एक छोटी सी पुस्तक 'जँजीराबंद' भी है। 'राधा-माधव-बुधमिलन-विनोद' नाम का एक कोई और ग्रंथ इनका खोज में मिला है। इन रचनाओं के अतिरिक्त इनका बड़ा संग्रहग्रंथ 'कालिदास हजारा' बहुत दिनों से प्रसिद्ध चला आता है। इस संग्रह के संबंध में शिवसिंहसरोज में लिखा है कि इसमें संवत् १४८१ से लेकर संवत् १७७६ तक के २१२ कवियों के १००० पद्य संगृहीत हैं। कवियों के काल आदि के निर्णय में यह ग्रंथ बड़ा ही उपयोगी है। इनके पुत्र कवींद्र और पौत्र दूलह भी बड़े अच्छे कवि हुए।

ये एक अभ्यस्त और निपुण कवि थे। इनके फुटकल कवित्त इधर उधर बहुत सुने जाते है जिनसे इनकी सरस हृदयता का अच्छा परिचय मिलता है। दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं––

चूमौं करकज मंजु अमल अनूप तेरो,
रूप के निधान, कान्ह! मो तन निहारि दै।

कालिदास कहै मेरे पास हरै हेरि हेरि,
माथे धरि मुकुट, लकुट कर डारि दै॥
कुँवर कन्हैया मुखचंद्र की जुन्हैया, चारु,
लोचन-चकोरन को प्यासन निवारि दै।
मेरे कर मेहँदी लगी है, नंदलाल प्यारे!
लट उरझी है नकबेसर सँभारि दै॥


हाथ हँसि दीन्हौं भीति अंतर वरसि प्यारी,
देखत ही छको मति कान्हर प्रवीन की।
निकस्यो झरोखे माँझ बिगस्यौ कमल सम,
ललित अँगूठी तामें चमक चुनील की॥
कालिदास तैसी लाल मेंहँदी के बुंदन की,
चारु नख-चंदन की लाल अँगुरीन की।
कैसी छवि छाजति है छाप और छलान की सु
कंकन चुरीन की जडाऊ पहुँचीन की॥

(११) राम––शिवसिंहसरोज में इनका जन्म-संवत् १७०३ लिखी हैं और कहा गया है कि इनके कवित्त कालिदास के हजारा में हैं। इनका नायिकाभेद का एक ग्रंथ शृंगारसौरभ है जिसकी कविता बहुत ही मनोरम हैं। खोज में एक "हनुमान नाटक" भी इनका पाया गया है। शिवसिंह के अनुसार इनका कविता-काल संवत् १७३० के लगभग माना जा सकता है। एक कवित्त नीचे दिया जाता है––

उमड़ि घुमडिं घन छोंडत अखंड धार,
चंचला उठति तामें तरजि तरजि कै।
बरही पपीहा भेक पिक खग टेरत हैं,
धुनि सुनि प्रान उठे लरजि लरजि कै॥
कहै कवि राम लखि चमक खदोतन की,
पीतम को रहीं मैं तो बरजि बरजि कै।

लागे तर तावन बिना री मनभावन के,
सावन दुवन आयो गरजि गरजि कै॥

(१२) नेवाज––ये अंतर्वेद के रहनेवाले ब्राह्मण थे और संवत् १७३७ के लगभग वर्तमान थे। ऐसा प्रसिद्ध है कि पन्ना-नरेश महाराज छत्रसाल के यहाँ ये किसी भगवत् कवि के स्थान पर नियुक्त हुए थे जिसपर भगवत् कवि ने यह फबती छोड़ी थी––

भली आजु कलि करत हौ, छत्रसाल महराज।
जहँ भगवत गीता पढ़ी, तहँ कवि पढ़त नेवाज॥

शिवसिंह ने नेवाज का जन्म संवत् १७३९ लिखा है जो ठीक नहीं जान पड़ता क्योकि इनके 'शकुंतला नाटक' का निर्माण-काल संवत् १७३७ है। दो और नेवाज हुए हैं जिनमें एक भगवंतराय खींची के यहाँ थे। प्रस्तुत नेवाज का औरंगजेब के पुत्र अजमशाह के यहाँ रहना भी पाया जाता है। इन्होंने 'शकुंतला नाटक' का आख्यान दोहा, चौपाई, सवैया आदि छंदो में लिखा। इनके फुटकल कवित्त बहुत स्थानों पर संगृहीत मिलते हैं जिनसे इनकी काव्यकुशलता और सहृदयता टपकती है। भाषा इनकी बहुत परिमार्जित, व्यवस्थित और भावोपर्युक्त है। उसमें भरती के शब्द और वाक्य बहुत ही कम मिलते हैं। इनके अच्छे शृंगारी कवि होने में संदेह नहीं। संयोग-शृंगार के वर्णन की प्रवृत्ति इनकी विशेष जान पड़ती है जिसमें कहीं कहीं ये अश्लीलता की सीमा के भीतर जान पड़ते हैं। दो सवैए इनके उद्धृत किए जाते हैं––

देखि हमैं सब आपुस में जो कछू मन भावै सोई कहती हैं।
ये घरहाई लुगाई सबै निसि द्यौस नेवाज हमैं दहती हैं॥
बातैं चवाव भरी सुनि कै रिस आवति, पै चुप ह्वै रहती है।
कान्ह पियारे तिहारे लिये सिगरे ब्रज को हँसिबो सहती हैं॥


आगे तौ कीन्हीं लगालगी लोयन, कैसे छिपै अजहूँ जौं छिपावति।
तू अनुराग को सोध कियो, ब्रज की बनिता सब यों ठहरावति॥
कौन सँकोच रह्यो है, नेवाज, जो तु तरसै, उनहू तरसावति।
बाबरी! जो पै कलंक लग्यो तौ निसंक ह्वै क्यौं नहिं अंक लगावति॥

(१३) देव––ये इटावा के रहनेवाले सनाढ्य ब्राह्मण थे। कुछ लोगों ने इन्हें कान्यकुब्ज सिद्ध करने का भी प्रयत्न किया है। इनका पूरा नाम देवदत्त था। 'भावविलास' का रचनाकाल इन्होंने १७४६ दिया है और उस ग्रंथ-निर्माण के समय अपनी अवस्था सोलह ही वर्ष की कही है। इस हिसाब से इनका जन्म-संवत् १७३० निश्चित होता है। इसके अतिरिक्त इनका और कुछ वृत्तांत नहीं मिलता। इतना अवश्य अनुमित होता है कि इन्हें कोई अच्छा उदार आश्रयदाता नहीं मिला जिसके यहाँ रहकर इन्होंने सुख से कालयापन किया हो। ये बराबर अनेक रईसों के यहाँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहे, पर कहीं जमे नहीं। इसका कारण या तो इनकी प्रकृति की विचित्रता मानें या इनकी कविता के साथ उस काल की रुचि का असामंजस्य। इन्होंने अपने 'अष्टयाम' और 'भावविलास' को और औरंगजेब के बड़े पुत्र आजमशाह को सुनाया था जो हिंदी-कविता के प्रेमी थे। इसके पीछे इन्होंने भवानीदत्त वैश्य के नाम पर "भवानीविलास" और कुशलसिंह के नाम पर 'कुशलविलास' की रचना की। फिर मर्दनसिंह के पुत्र राजा उद्योतसिंह वैस के लिये 'प्रेमचंद्रिका' बनाई। इसके उपरांत ये बराबर अनेक प्रदेशों में भ्रमण करते रहे। इस यात्रा के अनुभव का इन्होंने अपने 'जाति-विलास' नामक ग्रंथ में कुछ उपयोग किया। इस ग्रंथ में भिन्न-भिन्न जातियों और भिन्न-भिन्न प्रदेशों की स्त्रियों को वर्णन है। पर वर्णन में उनकी विशेषताएँ अच्छी तरह व्यक्त हुई हों, यह बात नहीं है। इतने पर्यटन के उपरांत जान पड़ता है कि इन्हें एक अच्छे आश्रयदाता राजा भोगीलाल मिले जिनके नाम पर संवत् १७८३ में इन्होंने 'रसविलास' नामक ग्रंथ बनाया। इन राजा भोगीलाल की इन्होंने अच्छी तारीफ की है, जैसे, "भोगीलाल भूप लाख पाखर लेवैया जिन्ह लाखन खरचि रचि आखर खरीदे हैं।"

रीति काल के प्रतिनिधि कवियों में शायद सबसे अधिक ग्रंथ-रचना देव ने की है। कोई इनकी रची पुस्तकों की संख्या ५२ और कोई ७२ तक बतलाते हैं। जो हो, इनके निम्नलिखित ग्रंथों का तो पता है––

(१) भाव-विलास, (२) अष्टयाम, (३) भवानी-विलास, (४) सुजानविनोद, (५) प्रेम-तरंग, (६) राग-रत्नाकर, (७) कुशल-विलास, (८) देव-चरित्र, (९) प्रेम-चंद्रिका, (१०) जाति-विलास, (११) रस-विलास, (१२) काव्य-रसायन या शब्द-रसायन, (१३) सुख-सागर-तरंग, (१४) वृक्ष-विलास, (१५) पावस-विलास, (१६) ब्रह्म-दर्शन पचीसी, (१७) तत्व-दर्शन पचीसी, (१८) आत्म-दर्शन पचीसी, (१९) जगद्दर्शन पचीसी, (२०) रसानंद लहरी, (२१) प्रेमदीपिका, (२२) सुमिल-विनोद, (२३) राधिका-विलास, (२४) नीति शतक और (२५) नख-शिख-प्रेमदर्शन।

ग्रंथों की अधिक संख्या के संबंध में यह जान रखना भी आवश्यक है कि देवजी अपने पुराने ग्रंथों के कवित्तों को इधर उधर दूसरे क्रम से रखकर एक नया ग्रंथ प्रायः तैयार कर दिया करते थे। इससे वे ही कवित्त बार बार इनके अनेक ग्रंथों में मिलेंगे। 'सुखसागर तरंग' तो प्रायः अनेक ग्रंथों से लिए हुए कवित्तों का संग्रह है। 'राग-रत्नाकर' में राग-रागिनियो के स्वरूप का वर्णन है। 'अष्टयाम' तो रात-दिन के भोग-विलास की दिनचर्या है जो मानो उस काल के अकर्मण्य और विलासी राजाओं के सामने कालयापन-विधि का ब्योरी पेश करने के लिये बनी थी। 'ब्रह्मदर्शन-पचीसी' और 'तत्त्व-दर्शन-पचीसी' में जो विरक्ति का भाव हैं वह बहुत संभव है कि अपनी कविता के प्रति लोक की उदासीनता देखते देखते उत्पन्न हुई हो।

ये आचार्य और कवि दोनों रूपों में हमारे सामने आते हैं। यह पहले ही कहा जा चुका है कि आचार्यत्व के पद के अनुरूप कार्य करने में रीतिकाल के कवियों में पूर्ण रूप से कोई समर्थ नहीं हुआ। कुलपति और सुखदेव ऐसे साहित्य-शास्त्र के अभ्यासी पंडित भी विशद रूप में सिद्धांत-निरूपण का मार्ग नहीं पा सकें। बात यह थी कि-एक तो ब्रजभाषा का विकास काव्योपयोगी रूप में ही हुआ; विचार-पद्धति के उत्कर्ष-साधन के योग्य-वह न हो पाई। दूसरे उस समय पद्य में ही लिखने की परिपाटी थी। अतः आचार्य के रूप में देव को भी कोई विशेष स्थान नहीं दिया जा सकता। कुछ लोगो ने भक्तिवश अवश्य और बहुत सी बातों के साथ इन्हें कुछ शास्त्रीय उद्भावना को श्रेय भी देना चाहा है। वे ऐसे ही लोग हैं जिन्हें "तात्पर्य वृत्ति" एक नया नाम मालूम होता है और जो संचारियों में एक 'छल' और बढ़ा हुआ देखकर चौकते हैं। नैयायिकों की तात्पर्य-वृत्ति बहुत काल से प्रसिद्ध चली आ रही है। और वह संस्कृत के सब साहित्य-मीमांसकों के सामने थी। तात्पर्य-वृत्ति वास्तव में वाक्य के भिन्न-भिन्न पदों (शब्दों) के वाक्यार्थ को एक में समन्वित करनेवाली वृत्ति मानी गई है अतः वह अभिधा से भिन्न नहीं, वाक्यगत अभिधा ही है। रहा 'छलसंचारी'; वह संस्कृत की 'रसतरंगिणी' से; जहाँ से और बातें ली गई हैं, लिया गया है। दूसरी बात यह कि साहित्य के सिद्धांतग्रंथों से परिचित मात्र जानते हैं कि गिनाए हुए ३३ संचारी उपलक्षण मात्र हैं, संचारी और भी कितने हो सकते हैं।

अभिधा, लक्षणा आदि शब्दशक्तियों का निरूपण हिंदी के रीति-ग्रंथों में प्रायः कुछ भी नहीं हुआ है। इस विषय का सम्यक् ग्रहण और परिपाक जरा है भी कठिन है। इस दृष्टि से देवजी के इस कथन पर कि––

अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणा लीन।
अधम व्यंजना रस-बिरस, उलटी कहत नवीन॥

यहाँ अधिक कुछ कहने का अवकाश नहीं। व्यंजना की व्याप्ति कहाँ तक है, उसकी किस-किस प्रकार क्रिया होती है, इत्यादि बातों का पूरा विचार किए बिना कुछ कहना कठिन है। देवजी का यहाँ 'व्यंजना' से तात्पर्य पहेली बुझौवलवाली "वस्तुव्यंजना" का ही जान पड़ता है। यह दोहा लिखते समय उसी का विकृत रूप उनके ध्यान में था।

कवित्व-शक्ति और मौलिकता देव में खूब थी पर उनके सम्यक् स्फुरण में उनकी रुचि विशेष प्रायः बाधक हुई है। कभी कभी वे कुछ बड़े और पेचीले मजमून का हौसला बाँधते थे पर अनुप्रास के आडंबर की रुचि बीच ही में उसका अंग-भंग करके सारे पद्य को कीचड़ में फँसा छकड़ा बना देती थी। भाषा में कहीं-कहीं स्निग्ध प्रवाह न आने का एक कारण यह भी था। अधिकतर इनकी भाषा में प्रवाह पाया जाता है। कहीं-कहीं शब्दव्यय बहुत अधिक है और अर्थ अल्प। अक्षर-मैत्री के ध्यान से इन्हें कहीं-कहीं अशक्त शब्द रखने पड़ते थे जो कभी-कभी अर्थ को आच्छन्न करते थे। तुकांत और अनुप्रास के लिये ये कहीं-कहीं शब्दों को ही तोड़ते मरोड़ते न थे, वाक्य को भी अविन्यस्त कर देते थे। जहाँ अभिप्रेत भाव का निर्वाह पूरी तरह हो पाया है, या जहाँ उसमें कम बाधा पड़ी है, वहाँ की रचना बहुत ही सरस हुई है। इनका सा अर्थ-सौष्ठव और नवोन्मेष विरले ही कवियों में मिलता है। रीतिकाल के कवियो में ये बड़े ही प्रगल्भ और प्रतिभा-संपन्न कवि थे, इसमें संदेह नहीं। इस काल के बड़े कवियो में इनका विशेष गौरव का स्थान है। कहीं-कहीं इनकी कल्पना बहुत सूक्ष्म और दूरारूढ़ है। इनकी कविता के कुछ उत्तम उदाहरण नीचे दिए जाते हैं।


सूनो कै परम पद, ऊनो कै अनंत मद,
नूनो कै नदीस नद, इंदिरा झुरै परी।
महिमा मुनीसन की, संपति दिगीसन की,
ईसन की सिद्धि ब्रजवीथी बिथुरै परी॥
भादों की अँधेरी अधिराति मथुरा के पथ,
पाय के सँयोग 'देव' देवकी दुरै परी।
पारावार पूरन अपार परब्रह्म-रासि,
जसुदा के कोरै एक बारही कुरै परी॥


डार द्रुम पलना, बिछौना नवपल्लव के,
सुमन झँगूला सोहै तन छबि भारी दै।
पवन झुलावै, केकी कीर बहरावैं देव,
कोकिल हलावै हुलसावै कर तारी दै॥
पूरित पराग सों उतारो करै राई लोन,
कँजकली-नायिका लतानि सिर सारी दै।
मदन महीप जू को बालक बसत तोहि,
प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै॥


सखी के सकोच, गुरु-सोच मृगलोचनि
रिसानी पिय सों जो उन नेकु हँसि छुयो गात।
दैव वै सुभाय मुसकाय उठि गए, यहाँ
सिसकि सिसकि निसि खोई, रोय पायो प्रात॥
को जानै, री बीर! बिनु बिरही बिरह-बिथा,
हाय हाय करि पछिताय न कछू सुहात।
बड़े बड़े नैनन सों आँसू भरि-भरि ढरि
गोरो-गोरो मुख आज ओरो सो बिलानो जात॥


झहरि झहरि झीनी बूँद हैं परति मानों,
घहरि घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कह्यो स्याम मो सौं 'चली झूलिबे को आज'
फूली ना समानी भई ऐसी हौ मगन मैं॥
चाहत उठ्योई उठि गई सो निगोडी नींद,
सोय गए भाग मेरे जागि वा जगन में।
आँख खोलि देखौं तौ न धन हैं, न धनश्याम
वेई छाई बूँदै मेरे आँसु ह्वै दृगन मे॥


साँसन ही में समीर गयो अरु आँसुन ही सब नीर गयो ढरी।
तेज गयो गुन लै अपनो अरु भूमि गई तनु की तनुता करि॥
'देव' जियै मिलिबेई की आस कै, आसहु पास अकास रह्यो भरि।
जा दिन तें मुख फेरि हरै हँसि हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि॥


जब तें कुँवर कान्ह रावरी, कलानिधान!
कान पूरी वाके कहूँ सुजस कहानी सी।
तब ही तें देव देखी देवता सी हँसति सी,
रीझति सी, खीझति सी, रूठति रिसानी सी॥

छोही सी, छली सी, छीन लीनी सी, छकी सी, छिन
जकी सी, टकी सी, लगी थकी थहरानी सी।
बीधी सी, बँधी सी, विष बूड़ति बिमोहित सी,
बैठी बाल बकती, बिलोकति बिकानी सी॥


'देव' मैं सीस बसायो सनैह सों, भाल मृगम्मद-बिंदु कै भाख्यो।
कंचुकि में चुपयो करि चोवा, लगाय लियो उर सों अभिलाख्यो॥
लै मखतूल गुहे गहने, रस मूरतिवत सिंगार कै चाख्यो।
साँवरे लाल को साँवरो रूप मैं नैनन को कजरा करि राख्यो॥


धार में धाय धँसी निरधार ह्वै, जाय फँसी, उक़सीं न उधेरी।
री! अगराथ गिरी गहिरी, गहि फेरे फिरी न, घिरीं नहिं घेरी॥
'देव', कछू अपनो बस ना, रस-लालच लाल चितै भई चेरी।
बेगि ही बूडि गई पँखियाँ, अँखियाँ मधु की मखियाँ भई मेरी॥

(१४) श्रीधर या मुरलीधर––ये प्रयाग के रहनेवाले ब्राह्मण थे और सवत् १७३७ के लगभग उत्पन्न हुए थे। यद्यपि अभी तक इनका "जगनामा" ही प्रकाशित हुआ है जिसमें फर्रुखसियर और जहाँदार के युद्ध का वर्णन है, पर स्वर्गीय बाबू राधाकृष्णदास ने इनके, बनाए कई रीति-ग्रंथों का उल्लेख किया है; जैसे, नायिकाभेद, चित्रकाव्य आदि। इनका कविताकाल संवत् १७६० के आगे माना जा सकता हैं।

(१५) सूरति मिश्र––ये आगरे के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, जैसा कि इन्होंने स्वयं लिखा है–– "सूरति मिश्र कनौजिया, नगर आगरे बास"। इन्होंने 'अलंकारमाला' संवत् १७६६ में और बिहारी सतसई की 'अमरचंद्रिका' टीका संवत् १७९४ में लिखी। अतः इनका कविता काल विक्रम की अठारहवी शताब्दी को अंतिम चरण माना जा सकता है।

ये नसरुल्लाखाँ नामक सरदार के यहाँ तथा दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के दरबार में आया जाया करते थे। इन्होंने 'बिहारी-सतसई', 'कविप्रिया' और 'रसिकप्रिया' पर विस्तृत टीकाएँ रची हैं जिनसे इनके साहित्य-ज्ञान और मासिकता का अच्छा परिचय मिलता है। टीकाएँ ब्रजभाषा गद्य में है। इन टीकाओं के अतिरिक्त इन्होंने 'वैताल-पंचविंशति' का ब्रजभाषा गद्य में अनुवाद किया है और निम्नलिखित रीति-ग्रंथ रचे है––

१––अलंकार माला, २––रसरत्न माला ३––सरस रस, ४––रस-ग्राहक चद्रिका ५––नख शिख, ६––काव्य सिद्धांत, ७––रस-रत्नाकर।

अलंकार-माला की रचना इन्होंने 'भाषाभूषण' के ढंग पर की है। इसमें भी लक्षण और उदाहरण प्रायः एक ही दोहे में मिलते हैं। जैसे––

(क) हिम सो, हर के हास सो जस मालोपम ठानि॥
(ख) सो असँगति, कारन अवर, कारज औरे थान॥
चलि अहि श्रुति आनहि डसत, नसत और के प्रान॥

इनके ग्रंथ सब मिले नहीं हैं। जितने मिले है उनसे ये अच्छे साहित्यमर्मज्ञ और कवि जान पड़ते हैं। इनकी कविता में तो कोई विशेषता नही जान पढती पर साहित्य का उपकार इन्होंने बहुत कुछ किया है। 'नख-शिख' से इनका एक कवित्त दिया जाता है––

तेरे ये कपोल बाल अतिही रसाल,
मन जिनकी सदाई उपमा बिचारियत है।
कोऊ न समान जाहि कीजै उसमान,
अरु बापुरे मधूकन की देह जारियत है॥
नेकु दरपन समता की चाह करी कहूँ,
भए अपराधी ऐसो चित्त धारियत है।
'सूरति' सो याही तें जगत-बीच आजहूँ लौ
उनके बदन पर छार ढारियत है॥

(१६) कवींद्र (उदयनाथ)––ये कालिदास त्रिवेदी के पुत्र थे और संवत् १७३६ कें लगभग उत्पन्न हुए थे। इनका "रसचंद्रोदय" नामक ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त 'विनोदचद्रिका' और 'जोगलीला' नामक इनकी दो और पुस्तकों का पता खोज मे लगा है। 'विनोदचंद्रिका' संवत् १७७७ और 'रसचंद्रोदय' संवत् १८०४ मे बना। अतः इनका कविता-काल संवत् १८०४ या उसके कुछ आगे तक माना जा सकता है। ये अमेठी के राजा हिम्मतसिंह और गुरुदत्तसिंह (भूपति) के यहाँ बहुत दिन रहे।

इनका 'रसचंद्रोदय' शृंगार का एक अच्छा ग्रंथ है। इनकी भाषा मधुर और प्रसादपूर्ण है। वणर्य विषय के अनुकूल कल्पना भी ये अच्छी करते थे। इनके दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं––

शहर मँझार ही पहर एक लागि जैहै,
छोरे पै नगर के सराय है उतारे की।
कहत कविंद मग माँझ ही परैगी साँझ,
खबर उड़ानी है बटोही द्वैक मारे की॥
घर के हमारे परदेस को सिधारे,
बातें दवा कै बिचारी हम रीति राहबारे की।
उतरो नदी के तीर, बर के तरे ही तुम,
चौंकौं जनि चौंकी तही पाहरू हमारे की॥


राजे रसमै री तैसी बरषा समै री चढ़ी,
चंचला नचै री चकचौंधा कौधा बारैं री।
व्रती व्रत हारैं हिए परत फुहारै,
कछू छोरैं कछू धारैं जलधर जल-धारैं री॥
भनत कविंद कु जभौन पौन सौरभ सो,
काके न कँपाय प्रान परहथ पारै री?
काम-कदुका से फूल डोलि डोलि ढारैं, मन,
औरै किए ढारैं ये कदंबन की ढारैं री॥

(१७) श्रीपति––ये कालपी के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इन्होंने संवत् १७७७ में 'काव्य-सरोज' नामक रीतिग्रंथ बनाया। इसके अतिरिक्त इनके निम्नलिखित ग्रंथ और है–– १––कविकल्पद्रुम, २––रस-सागर, ३––अनुप्रास-विनोद, ४––विक्रमविलास, ५––सरोज-कलिका, ६––अलंकार-गंगा।

श्रीपति ने काव्य के सब अंगों का निरूपण विशद रीति से किया हैं। दोषों का विचार पिछले ग्रंथों से अधिक विस्तार के साथ किया है और दोषों के उदाहरणों में केशवदास के बहुत से पद्य रखे हैं। इससे इनका साहित्यिक विषयों का सम्यक् और स्पष्ट बोध तथा विचार-स्वातंत्र्य प्रगट होता है। 'काव्य-सरोज' बहुत ही प्रौढ़ ग्रंथ है। काव्यांगों का निरूपण जिस स्पष्टता के साथ इन्होंने किया है उससे इनकी स्वच्छ बुद्धि का परिचय मिलता है। यदि गद्य में व्याख्या की परिपाटी चल गई होती तो आचार्यत्व ये और भी अधिक पूर्णता के साथ प्रदर्शित कर सकते। दासजी तो इनके बहुत अधिक ऋणी हैं। उन्होंने इनकी बहुत सी बातें ज्यों की त्यों अपने "काव्य निर्णय" में चुपचाप रख ली हैं। आचार्यत्व के अतिरिक्त कवित्व भी इनमें ऊँची कोटि का था। रचना-विवेक इनमें बहुत ही जाग्रत और रुचि अत्यंत परिमार्जित थी। झूठे शब्दाडंबर के फेर में ये बहुत कम पडे हैं। अनुप्रास इनकी रचनाओं में बराबर आए हैं पर उन्होंने अर्थ या भाव-व्यंजना में बाधा नहीं डाली है। अधिकतर अनुप्रास रसानुकूल वर्णविन्यास के रूप में आकर भाषा में कहीं ओज, कहीं माधुर्य घटित करते पाए जाते हैं। पावस ऋतु का तो इन्होंने बड़ा ही अच्छा वर्णन किया है। इनकी रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते है––

जलमरे ,झूमै मानौ झूमै परसत आय,
दसहू दिसान घूमै दामिनि लए लए।
धूरिधार धूमरे से, धूम से धुँधारे कारे,
धुरवान धारे धावैं छवि सों छए छए॥
श्रीपति सुकवि कहै घेरि घेरि घहराहि,
तकत अतन तन ताव तें तए तए।
लाल बिनु कैसे लाज-चादर रहैगी आज,
कादर करत मोहि बादर नए-नए॥



सारस के नादन को, बाद ना सुनात कहूँ,
नाहक ही बकवाद दादुर महा करै।
श्रीपति सुकवि जहाँ ओज ना सरोजन की,
फुल न फुलत जाहि चित दै चहा करै॥
बकन की बानी की बिराजति है राजधानी,
काई सों कलित पानी फेरत हह्वा करै।
घोंघन के जाल, जामे नरई सेवाल व्याल,
ऐसे पापी ताल को, मराल लै कहा करे?


घूँघट-उदयगिरिवर तें निकसि रूप,
सुधा सों कलित छवि-कीरति बगारो है।
हरिन डिठौना स्याम सुख सील बरपत,
करपन सोक, अति तिमिर विदारो है॥
श्रीपति बिलोकि सौति-बारिज मलिन होत,
हरषि कुमुद फूलै नंद को दुलारो है।
रजन मदन, तन गंजन विरह, बिवि,
खंजन सहित चंदवदन तिहारो है॥

(१८) वीर––ये दिल्ली के रहनेवाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होंने "कृष्णचंद्रिका" नामक रस और नायिकाभेद का एक ग्रंथ संवत् १७७९ में लिखा। कविता साधारण है। वीररस का एक कवित्त देखिए––

अरुन बदन और फरकैं बिसाल बाहु,
कौन को हियो है करै सामने जो रुख को।
प्रबल प्रचंड निसिचर फिरै धाए,
धूरि चाहत मिलाए दसकध-अंध मुख को॥
चमकै समरभूमि बरछी, सद्स फन,
कहत पुकारे लक-अक दीह दुख को।
बलकि बलकि बोलैं वीर रघुवर धीर,
महि पर मीडि मारौं आज दसमुख को॥

(१९) कृष्ण कवि––ये माथुर चौबे थे और बिहारी के पुत्र प्रसिद्ध हैं। इन्होंने बिहारी के आश्रयदाता महाराज जयसिंह के मंत्री, राजा आयामल्ल की आज्ञा से बिहारी-सतसई की जो टीका की उससे महाराज जयसिंह के लिये वर्तमानकालिक क्रिया का प्रयोग किया है और उनकी प्रशंसा भी की है। अतः यह निश्चित है कि यह टीका जयसिंह के जीवनकाल में ही बनी। महाराज जयसिंह संवत् १७९९ तक वर्तमान थे। अतः यह टीका संवत् १७८५ और १७९० के बीच बनी होगी। इस टीका में कृष्ण ने दोहों के भाव पल्लवित करने के लिये सवैए लगाए हैं और वार्तिक में काव्यांग स्फुट किए हैं। काव्यांग इन्होंने अच्छी तरह दिखाए हैं और वे इस टीका के एक प्रधान अंग हैं, इसी से ये रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों के बीच ही रखे गए हैं।

इनकी भाषा सरल और चलती है तथा अनुप्रास आदि की ओर बहुत कम झुकी है। दोहों पर जो सवैए इन्होंने लगाए हैं उनसे इनकी सहृदयता, रचनाकौशल और भाषा पर अधिकार अच्छी तरह प्रमाणित होता है। इनके दो सवैए देखिए––

"सीस मुकुट, कटि काछनी, कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन सदा, बसौ बिहारी लाल॥"

छवि सों फबि सोस किरीट बन्यो, रुचिसाल हिए बनमाल लसै।
कर कंजहि मंजु रली मुरली, कछनी कटि चारु प्रभा बरसै॥
कवि कृष्ण कहैं लखि सुंदर मूरिति यों अभिलाष हिए सरसै।
वह नंदकिसोर बिहारी सदा यहि बानिक मों हिय माँझ बसै॥


"थोरेई गुन रीझते बिसराई वह बानि।
तुमहू कान्ह मनौ भए आजुकालि के दानि॥"

ह्वै अति आरत मैं बिनती बहु बार, करी करुना रस-भीनी।
कृष्ण कृपानिधि दीन के बंधु सुनौ अपनी तुम काहे को कीनी॥
रीझते रंचक ही गुन सों वह बानि बिसारि मनो अब दीनी।
जानि परी तुमहू हरि जू! कलिकाल के दानिन की गति लीनी॥

(२०) रसिक सुमति––ये ईश्वरदास के पुत्र थे और सन् १७८५ में वर्तमान थे। इन्होंने "अलंकार-चंद्रोदय" नामक एक अलंकार-ग्रंथ कुवलयानंद के आधार पर दोहों में बनाया। पद्यरचना साधारणतः अच्छी है। 'प्रत्यनीक' का लक्षण और उदाहरण एक ही दोहे में देखिए––

प्रत्यनीक अरि सों न बस, अरि-हितूहि दुख देय।
रवि सों चलै न, कंज की दीपति ससि हरि लेय॥

(२१) गंजन––ये काशी के रहने वाले गुजराती ब्राह्मण थे। इन्होने संवत् १७८६ में "कमरुद्दीनखाँ हुलास" नामक शृंगाररस का एक-ग्रंथ बनाया जिसमें भावभेद, रसभेद के साथ षट्ऋतु का विस्तृत वर्णन किया है। इस ग्रंथ मे इन्होंने अपना पूरा वंश-परिचय दिया है और अपने प्रपितामह मुकुटराय के कवित्व की प्रशंसा की है। कमरुद्दीनखाँ दिल्ली के बादशाह के वजीर थे और भाषाकाव्य के अच्छे प्रेमी थे। इनकी प्रशंसा गंजन ने खूब जी खोलकर की है जिससे जान पड़ता है इनके द्वारा कवि का बड़ा अच्छा संमान हुआ था। उपर्युक्त ग्रंथ एक अमीर को खुश करने के लिये लिखा गया है इससे ऋतुवर्णन के अंतर्गत उसमें अमीरी शौक और आराम के बहुत से सामान गिनाए गए हैं। इस बात में ये ग्वाल कवि से मिलते जुलते हैं। इस पुस्तक में सच्ची भावुकता और प्रकृतिरंजन की शक्ति बहुत अल्प है। भाषा भी शिष्ट और प्रांजल नहीं। एक कवित्त नीचे दिया जाता है––

मीना के महल जरबाफ दर परदा हैं,
हलबी फनूसन में रोशनी चिराग की।
गुलगुली गिलम गरकआब पग होत,
जहाँ-बिछी मसनद लालन के दाम की॥
केती महताबमुखी खचित जवाहिरन,
गंजन सुकवि कहै बौरी अनुराग की।
एतमादुदौला कमरुद्दीनखाँ की मजलिस,
सिसिर में ग्रीषम बनाई बड़ भाग की॥

(२२) अलीमुहिबखाँ (प्रीतम)––ये आगरे के रहनेवाले थे। इन्होंने संवत् १७८७ में "खटमल-बाईसी" नाम की हास्यरस की एक पुस्तक लिखी। इस प्रकरण के आरंभ में कहा गया है कि रीतिकाल में प्रधानता शृंगाररस की रही। यद्यपि वीररस लेकर भी रीति-ग्रंथ रचे गए, पर किसी और रस को अकेला लेकर मैदान में कोई नहीं उतरा था। यह हौसले का काम हजरत अलीमुहिबखाँ साहिब ने कर दिखाया। इस ग्रंथ का साहित्यिक महत्व कई पक्षो में दिखाई पड़ता है। हास्य आलंबन-प्रधान रस है। आलंबन मात्र का वर्णन ही इस रस में पर्याप्त होता है। इस बात का स्मरण रखते हुए जब हम अपने साहित्यक्षेत्र मे हास के आलंबनों की परंपरा की जाँच करते हैं तब एक प्रकार की बँधी रूढ़ि सी पाते हैं। संस्कृत के नाटकों में खाऊपन और पेट की दिल्लगी बहुत कुछ बँधी सी चली आई। भाषा-साहित्य में कंजूसों की बारी आई। अधिकतर ये ही हास्यरस के आलंबन रहे। खाँ साहब ने शिष्ट हास का एक बहुत अच्छा मैदान दिखाया। इन्होंने हास्यरस के लिये खटमल को पकड़ा जिसपर यह संस्कृत उक्ति प्रसिद्ध है––

कमला कमले शेते, हरश्शेते हिमालये।
क्षीराब्धौ च हरिरिश्ते मन्ये मत्कुण-शंकया॥

क्षुद्र और महान् के अभेद की भावना उसके भीतर कहीं छिपी हुई है। इन सब बातों के विचार से हम खाँ साहब या प्रीतमजी को एक उत्तम श्रेणी का पथप्रदर्शक कवि मानते हैं । इनका और कोई ग्रंथ नहीं मिलता, न सही; इनकी "खटमल-बाईसी" ही बहुत काल तक इनका स्मरण बनाए रखने के लिये काफी है।

"खटमलबाईसी" के दो कवित्त देखिए––

जगत के कारन करन चारौ वेदन के,
कमल में बसे वै सुजान ज्ञान धरिकै।
पोषन अवनि, दुख-सोषन तिलोकन के,
सागर में जाय सोए सैस सेज करिकै॥
मदन जरायो जो, सँहारै दृष्टि ही में सृष्टि,
बसे हैं पहार बेऊ भाजि हरवरिं कै।

बिधि हरि हर, और इनतें न कोऊ, तेऊ,
खाट पै न सोवैं खटमलन कों डरिकैं॥



बाघन पै गयो, देखि बनन में रहे छपि,
साँपन पै गयो, ते पताल ठौर पाई है।
गजन पै गयो, धूल डारत हैं सीस पर,
बैदन पै गयो काहू दारू ना बताई है॥
जब हहराय हम हरि के निकट गए,
हरि मोसों कही तेरी मति भूल छाई है।
कोऊ ना उपाय, भटकन जनि डोलै, सुन,
खाट के नगर खटमल की दुहाई है॥



(२३) दास (भिखारीदास)––ये प्रतापगढ़ (अवध) के पास ट्योंगा गाँव के रहनेवाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होंने अपना वंश-परिचय पूरा दिया है। इनके पिता कृपालदास, पितामह वीरभानु, प्रपितामह, राय रामदास और वृद्धप्रपितामह राय नरोत्तमदास थे। दासजी के पुत्र अवधेशलाल और पौत्र गौरीशंकर थे जिनके अपुत्र मर जाने से वंशपरंपरा खंडित हो गई। दासजी के इतने ग्रंथो का पता लग चुका है––

रससारांश (संवत् १७९९), छंदोर्णव पिंगल (संवत् १७९९), काव्यनिर्णय (सवत् १८०३), शृंगारनिर्णय (संवत् १८०७), नामप्रकाश (कोश, संवत् १७९५), विष्णुपुराण भाषा (दोहे चौपाई मे), छंदप्रकाश, शतरंज-शतिका अमरप्रकाश (संस्कृत अमरकोष भाषा-पद्य में)।

'काव्यनिर्णय' में दासजी ने प्रतापगढ़ के सोमवंशी राजा पृथ्वीपतिसिंह के भाई बाबू हिदूपतिसिंह को अपना आश्रयदाता लिखा है। राजा पृथ्वीपति संवत् १७९१ में गद्दी पर बैठे थे और १८०७ में दिल्ली के वजीर सफदरजंग द्वारा छल से मारे गए थे। ऐसा जान पड़ता है कि संवत् १८०७ के बाद इन्होंने कोई ग्रंथ नहीं लिखा अतः इनका कविता-काल संवत् १७८५ से लेकर संवत् १८०७ तक माना जा सकता है। काव्यांगों के निरूपण में दासजी को सर्वप्रधान स्थान दिया जाता है। क्योंकि इन्होंने छंद, रस, अलंकार, रीति, गुण, दोष, शब्द-शक्ति आदि सब विषयों का औरों से विस्तृत प्रतिपादन किया है। जैसा पहले कहा जा चुका है, श्रीपति से इन्होंने बहुत कुछ लिया है[]। इनकी विषय-प्रतिपादन-शैली उत्तम है और आलोचन शक्ति भी इनमें कुछ पाई जाती है। जैसे, हिंदी काव्यक्षेत्र में इन्हें परकीया के प्रेम की प्रचुरता दिखाई पड़ी जो रस की दृष्टि से साभास के अंतर्गत आता है। बहुत से स्थलों पर तो राधा-कृष्ण का नाम आने से देवकाव्य का आरोप हो जाता है और दोष का कुछ परिहार हो जाता हैं। पर सर्वत्र ऐसा नहीं होता है इससे दासजी ने स्वकीया का लक्षण ही कुछ अधिक व्यापक करना चाहा और कहा––

श्रीमानन के भौन में भोग्य भामिनी और।
तिनहूँ को सुकियाहि में गनैं सुकवि-सिरमौर॥

पर यह कोई बडे महत्त्वं की उद्भावना नहीं कही जा सकती। जो लोग दासजी के दस और हावों के नाम लेने पर चौंके है उन्हें जानना चाहिए कि साहित्यदर्पण में नायिकाओं के स्वभावज अलंकार १८ कहे गए है––लीला, विलास, विच्छित्ति, विन्बोक, किलकिंचित, मोट्टायित, कुट्टमित, विभ्रम, ललित, विहृत, मद, तपन, मौग्ध्य, विक्षेप, कुतूहल, हसित, चकित और केलि। इनमें से अंतिम आठ को लेकर यदि दासजी ने भाषा में प्रचलित दस हावों में और जोड़ दिया तो क्या नई बात की? यह चौंकना तब तक बना रहेगा जब तक हिंदी में संस्कृत के मुल्य सिद्धांत-ग्रंथों के सब विषयों को यथावत् समावेश न हो जायगा और साहित्य-शास्त्र का सम्यक् अध्ययन न होगा।

अतः दासजी के आचार्यत्व के संबंध में भी हमारा यही कथन है जो देव आदि के विषय में। यद्यपि इस क्षेत्र में औरों को देखते दासजी ने अधिक काम किया है, पर सच्चे आचार्य का पूरा रूप इन्हें भी नहीं प्राप्त हो सका है। परिस्थिति से ये भी लाचार थे। इनके लक्षण भी व्याख्या के बिना अपर्याप्त और कहीं कहीं भ्रामक हैं और उदाहरण भी कुछ स्थलों पर अशुद्ध है। जैसे, उपादान-लक्षण लीजिए। इसका लक्षण भी गड़बड़ है और उसी के अनुरूप उदाहरण भी अशुद्ध है। अतः दासजी भी औरों के समान वस्तुतः कवि के रूप में ही हमारे सामने आते हैं।

दासजी ने साहित्यिक और परिमार्जित भाषा का व्यवहार किया है। शृंगार ही उस समय का मुख्य विषय रहा है। अतः इन्होंने भी उसका वर्णन-विस्तार देव की तरह बढ़ाया है। देव ने भिन्न भिन्न देशों और जातियों की स्त्रियों के वर्णन के लिये जाति-विलास लिखा जिसमे नाइन, धोबिनी, सब आ गई, पर दासजी ने रसाभास के डर से या मर्यादा के ध्यान से इनको आलंबन के रूप में न रखकर दूती के रूप में रखा है। इनके 'रससारांश' में नाइन, नटिन, धोबिन, कुम्हारिन, बरइन, सब प्रकार की दूतियाँ मौजूद हैं। इनमें देव की अपेक्षा अधिक रस-विवेक था। इनका शृंगार-निर्णय अपने ढंग का अनूठा काव्य है। उदाहरण मनोहर और सरस हैं। भाषा में शब्दाडंबर नहीं है। न ये शब्द-चमत्कार पर टूटे हैं, न दूर की सूझ के लिये व्याकुल हुए है। इनकी रचना कलापक्ष में संयत और भावपक्ष में रजंनकारिणी है। विशुद्ध काव्य के अतिरिक्त इन्होंने नीति की सूक्तियों भी बहुत सी कही हैं जिनमे उक्ति-वैचित्र्य अपेक्षित होता है। देव की सी ऊँची आकांक्षा या कल्पना जिस प्रकार इनमें कैसे पाई जाती है उसी प्रकार उनकी सी असफलता भी कहीं नहीं मिलती। जिस बात को ये जिस ढंग से––चाहे वह ढंग बहुत विलक्षण न हो––कहना, चाहते थे उस बात को उस ढंग से कहने की पूरी सामर्थ्य इनमें थी। दासजी ऊँचे दरजे के कवि थे। इनकी कविता के कुछ नमूने लीजिए––

वाही घरी तें न सान रहै; न गुमान रहै, न रहै सुघराई।
दास न लाज को साज रहै न रहै तनकौ घरकाज की घाई॥
ह्याँ दिखसाध निवारे रहौं तब ही लौं भटू सब भाँति भलाई।
देखत कान्हैं न चेत रहै, नहिं चित्त रहै, न रहै चतुराई॥



नैननको तरसैए कहाँ लौं, कहाँ लौ हियो बिरहागि मैं तैए?
एक धरी न कहूँ कल पैए, कहाँ ठगि प्रानन को कलपैए?

आवै यही अब जी में विचार सखी चलि सौतिहुँ, के घर जैए।
मान घटे तें कहा घटिहै जु पै प्रानपियारे को देखन पैए॥



ऊधो! तहाँ ई चलौ लै हमें जहँ कूबरि-कान्ह बसैं एक ठोरी।
देखिय दास अघाय अघाय तिहारे प्रसाद मनोहर जोरी॥
कूबरी सों कछु पाइए मंत्र, लगाइए कान्ह सों प्रीति की डोरी।
कूबरि-भक्ति बढ़ाइए बंदि, चढ़ाइए चंदन बंदन रोरी॥



कढ़िकै निलंक पैठि जाति झुंड झुंडन में,
लोगन को देखि दास आनँद पगति है।
दौरि दौरि जहीं तहीं लाल करि ढारति है,
अंक लगि कंठ लगिबे को उमगति है॥
चमक-झमक-वारी, ठमक-जमक वारी,
रमक-तमक-वारी जाहिर जगति है।
राम! असि रावरे की रन में नरन मैं––
निलज बनिता सी होरी खेलन लगति है॥



अब तो बिहारी के वे बानक गए री, तेरी
तन-दुति-केसर को नैन कसमीर भो।
श्रौन तुव बानी स्वाति-बूँदन के चातक में,
साँसन को भरिबो द्रुपदजा को चीर भो॥
हिय को हरष मरु घरनि को नीर भो, री!
जियरो मनोभव-सरन को तुनीर भो।
एरी! बेगि करिकै मिलापु थिर थापु, न तौ,
आपु अब चहत अतनु को सरीर भो॥


अँखियाँ हमारी दईमारी सुधि बुधि हारीं,
मोहू तेँ जु न्यारी दास रहै सब काल में।
कौन गहै ज्ञानै, काहि सौंपत सयाने, कौन
लोक ओक जानै, ये नहीं हैं निज हाल में॥
प्रेम पनि रहीं, महामोह में उमगि रहीं,
ठीक ठगि रही, लगि रहीं बनमाल में।
लान को अँचै कै, कुलधरम पचै कै वृथा,
बंधन सँचे, कै भई मगन गोपाल में॥

(२४) भूपति (राजा गुरुदत्तसिंह)––ये अमेठी के राजा थे। इन्होंने संवत् १७९१ मे शृंगार के दोहों की एक सतसई बनाई। उदयनाथ कवींद्र इनके यहाँ बहुत दिनो तक रहे। ये महाशय जैसे सहृदय और काव्य-मर्मज्ञ थे वैसे ही कवियों की आदर-संमान करने वाले थे। क्षत्रियों की वीरता भी इनमें पूरी थी। एक बार अवध के नवाब सआदतखाँ से ये बिगड़ खड़े हुए। सआदतखाँ ने जब इनकी गढ़ी घेरी तब ये बाहर सआदतखाँ के सामने ही बहुतों को मारकाटकर गिराते हुए जंगल की ओर निकल गए। इसका उल्लेख कवींद्र ने इस प्रकार किया है––

समर अमेठी के सरेष गुरुदत्तसिंह,
सादत की सेना समरसेन सों भानी है।
भनत कवींद्र काली हुलसी असीसन को ,
सीसन को ईस की जमाति सरसानी है॥
तहाँ एक जोगिनी सुभट खोपरी लै उड़ी,
सोनित पियत ताकी उपमा बखानी है
प्यालो लै चिनी को नीके जोबन-तरंग मानो,
रंग हेतु पीवत मजीठ मुगलानी है॥

'सतसई के अतिरिक्त भूपतिजी ने 'कंठाभूषण' और 'रसरत्नाकर' नाम के दो रीति-ग्रंथ भी लिखे थे जो कहीं देखे नहीं गए हैं। शायद अमेठी में हों। सतसई के दोहे दिए जाते है––

घूँघट पट की आड़ है हँसति जबै वह दार।
ससि-मंडल में कढ़ति, छनि जनु पियूष की धार॥
भए रसाल रसाल हैं, भरे पुहुष मकरंद।
मान-सान तोरत तुरत, भ्रमत भ्रमर मद-मदं॥

(२५) तोषनिधि––ये एक प्रसिद्ध कवि हुए हैं। ये शृंगवेरपुर (सिंगरौर, जिला इलाहाबाद) के रहनेवाले चतुर्भुज शुक्ल के पुत्र थे। इन्होंने संवत् १७९१ में 'सुधानिधि' नामक एक अच्छा बड़ा ग्रंथ रसभेद और भाव-भेद को बनाया। खोज में इनकी दो पुस्तकें और मिली हैं—विनयशतक और नखशिख। तोषजी ने काव्यांगों के बहुत अच्छे लक्षण और सरस उदाहरण दिए हैं। उठाई हुई कल्पना का अच्छा निर्वाह हुआ है और भाषा स्वाभाविक प्रवाह के साथ आगे बढ़ती है। तोषजी एक बड़े ही सहृदय और निपुण कवि थे। भावों का विधान सघन होने पर भी कहीं उलझा नहीं है। बिहारी के समान इन्होंने भी कहीं कहीं ऊहात्मक अत्युक्ति की है। कविता के कुछ नमूने दिए जाते हैं––



भूषन-भूषित दूषन-हीन प्रवीन महारस मैं छबि छाई।
पूरी अनेक पदारथ तें जेहि में परमारथ स्वारथ पाई॥
और उफतैं मुकतैं उलही कवि तोष अनोष-धरी चतुराई।
होत सबै सुख की जनिता बनि अवति जौं बनिता कविताई॥



एक कहैं हँसि ऊधवजू! ब्रज की जुवती तजि चंद्रप्रभा सी।
जाय कियो कह तोष प्रभू! एक प्रानप्रिया लहि कंस की दासी॥
जो हुते कान्ह प्रवीन महा सो हहा! मथुरा में कहां मति नासी।
जीव नहीं उबियात जबै ढिग पौढ़ति हैं कुबिजा कछुवा सी?



श्रीहरि की छवि देखिबे को अँखियाँ प्रति रोमहि में करि देतो।
बैनन के सुनिबे हित स्रौत जितै-तित सो करतौ करि हेतो॥
मो ढिग छाँडि न काम कहूँ रहै तोष कहै लिखितो बिधि एतौ।
तौ करतार इती करनी करिकै कलि में कल कीरति लेतो॥

तौ तन में रवि को प्रतिबिंब परै किरनै सो घनी सरसाती।
भीतर हू रहि जात नहीं, अँखियाँ चकचौंधि ह्वै जाति हैं राती॥
बैठि रहौ, बलि, कोठरी में कह तोष करौं विनती बहु भाँती।
सारसी-नैनि लै आरसी सो अँग काम कहा कढिं घाम में जाती?

(२६-२७) दलपतिराय और बंसीधर––दलपतिराय महाजन और बंसीधर ब्राह्मण थे। दोनों अहमदाबाद (गुजरात) के रहने वाले थे। इन लोगों ने संवत् १७९२ में उदयपुर के महाराणा जगतसिंह के नाम पर "अलंकाररत्नाकर" नामक ग्रंथ बनाया। इसका आधार महाराज जसवंतसिंह का 'भाषाभूषण' है। इसका 'भाषाभूषण' के साथ प्रायः वही संवैध है जो 'कुवलयानंद' का 'चंद्रालोक' के साथ। इस ग्रंथ में विशेषता यह है कि इसमें अलंकारों का स्वरूप समझाने का प्रयत्न किया गया है। इस कार्य के लिये गद्य व्यवहृत हुआ है। रीतिकाल के भीतर व्याख्या के लिये कभी कभी गद्य का उपयोग कुछ ग्रंथकारों की सम्यक् 'निरूपण' की उत्कंठा सूचित करता है। इस उत्कठा के साथ ही गद्य की उन्नति की आकांक्षा का सूत्रपात समझना चाहिए जो सैकड़ों वर्ष बाद पूरी हुई।

'अलंकार-रत्नाकर' में उदाहरणों पर अलंकार घटाकर बताए गए हैं और उदाहरण दूसरे अच्छे कवियो के भी बहुत से हैं। इससे यह अध्ययन के लिये बहुत उपयोगी हैं। दंडी आदि कई संस्कृत आचार्यों के उदाहरण भी लिए गए है। हिंदी कवियों की लंबी नामावली ऐतिहासिक खोज में बहुत उपयोगी है।

कवि भी ये लोग अच्छे थे। पद्य-रचना निपुणता के अतिरिक्त इसमें भावुकता और बुद्धि-वैभव दोनों है। इनका एक कवित्त नीचे दिया जाता है––

अरुन हरौल नभ-मंडल-मुलुक पर
चढयो अक्क चक्कवै कि तानि कै किरिन-कोर।
आवत ही साँवत नछत्र जोय धाय धाय,
घोर घमसान करि काम आए ठौर ठौर॥
ससहर सेत भयो, सटक्यो सहमि ससी,
आमिल-उलूक जाय गिरे कंदरन ओर।

दुंद देखि अरविंद बंदीखाने तें भगाने,
पायक पुलिंद वै मलिंद मकरंद-चोर॥


(२८) सोमनाथ––ये माथुर ब्राह्मण थे और भरतपुर के महाराज बदनसिंह के कनिष्ठ पुत्र प्रतापसिंह के यहाँ रहते थे। इन्होंने संवत् १७९४ में 'रसपीयूषनिधि' नामक रीति का एक विस्तृत ग्रंथ बनाया जिसमें पिंगल, काव्यलक्षण, प्रयोजन, भेद, शब्दशक्ति, ध्वनि, भाव, रस, रीति, गुण, दोष इत्यादि सब विषयों का निरूपण है। यह दासजी के काव्य-निर्णय से बड़ा ग्रंथ है। काव्यांग-निरूपण में ये श्रीपति और दास के समान ही है। विषय को स्पष्ट करने की प्रणाली इनकी बहुत अच्छी है।

विषय-निरूपण के अतिरिक्त कवि-कर्म में भी ये सफल हुए हैं। कविता में ये अपना उपनाम 'ससिनाथ' भी रखते थे। इनमें भावुकता और सहृदयता पूरी थी, इससे इनकी भाषा मे कृत्रिमता नहीं आने पाईं। इनकी एक अन्योक्ति कल्पना की मार्मिकता और प्रसादपूर्ण, व्यंग्य के कारण प्रसिद्ध है। सघन और पेचीले मजमून गाँठने के फेर में न पड़ने के कारण इनकी कविता को साधारह समझना सहृदयता के सर्वथा विरुद्ध है। 'रसपियूष-निधि' के अतिरिक ग्वोज में इनके तीन और ग्रंथ मिले हैं––

कृष्ण लीलावती पंचाध्यायी (संवत् १८००)
सुजान-विलास (सिंहासन-बत्तीसी, पद्य में; संवत् १८०७)
माधव-विनोद नाटक (संवत् १८७९)

उक्त ग्रंथों के निर्माण-काल की ओर ध्यान देने से इनका कविता-काल-संवत् १७९० से १८१० तक ठहरता है।

रीतिग्रंथ और मुक्तक-रचना के-सिवा इस सत्कवि ने प्रबंधकाव्य की ओर भी ध्यान दिया। सिंहासन बत्तीसी के अनुवाद को यदि हम काव्य न माने तो कम से कम पधप्रबंध अवश्य ही कहना पड़ेगा। 'माधव-विनोद' नाटक शायद मालती-माधव के आधार लिखा हुआ प्रेमप्रबंध है। पहले कहा जा चुका है कि कल्पित कथा लिखने की प्रथा हिंदी के कवियों के प्रायः नहीं के बराबर रहीं। जहाँगीर के समय में संवत् १६७३ में बना पुहकर कवि का 'रसरत्न' ही अबतक नाम लेने योग्य कल्पित प्रबधकाव्य था। अतः सोमनाथजी को यह प्रयत्न उनके दृष्टि-विस्तार का परिचायक है। नीचे सोमनाथजी की कुछ कविताएँ दी जाती है––

दिसि विदिसन तें उमडि मढ़ि लीनो नभ,
छाँडि दीने धुरवा जवासै-जूथ जरि गे।
डहडहे भए द्रुम रंचक हवा के गुन,
कहूँ कहूँ मोरवा पुकारि मोद भरि गे॥
रहि गए चातक जहाँ के तहाँ देखत ही,
सोमनाथ कहै बूँदाबूँदि हूँ न करि गे।
सोर भयो घोर चारों ओर महिमंडल में,
'आए, घन, आए घन', आयकै उवरि गे‍॥


प्रीति नई निंत कीजत है, सब सों छलि की बतरानि परी है।
सीखी डिठाई कहाँ ससिनाथ, हमैं दिन द्वैक तें जानि परी है॥
और कहा लहिए, सजनी! कठिनाई गरै अति आनि परी है।
मानत है बरज्यों न कछु अब ऐसी सुजानहिं बानि परी है॥


झमकतु बदन मतंग कुंभ उत्तंग अंग बर।
बंधन बलित भुसुंड कुंडलित सुंड सिद्धिधर॥
कंचन मनिमय मुकुट जगमगै सुधर सीस पर।
लोचन तीनि बिसाल चार भुज ध्यावत सुर नर॥
ससिनाथ नंद स्वच्छंद निति कोटि-बिघन-छरछंद-हर।
जय बुद्धि-बिलंब अमंद दुति इंदुभाल आंनदकर॥

(२९) रसलीन––इनका नाम सैयद गुलाम नबी था। ये प्रसिद्ध बिलग्राम (जि॰ हरदोई) के रहने वाले थे, जहाँ अच्छे अच्छे विद्वान् मुसलमान होते आए हैं। अपने नाम के आगे 'बिलगरामी' लगाना एक बड़े संमान की बात यहाँ के लोग समझते थे। गुलाम नबी ने अपने पिता का नाम बाकर लिखा है। इन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "अंगदर्पण" संवत् १७९४ में लिखी जिसमें अंगों का, उपमा-उत्प्रेक्षा से युक्त चमत्कारपूर्ण वर्णन है। सूक्तियों के चमत्कार के लिये यह ग्रंथ काव्य-रसिकों में बराबर विख्यात चला आया है। यह प्रसिद्ध दोहा जिसे जनसाधारण बिहारी का समझा करते हैं, अंगदर्पण का ही है––

अमिय, हलाहह, मद भरे, सेत, स्याम, रतनार।
जियत, मरत, झुकि झुकि परत, जेहिं चितवत इक बार॥

'अंगदर्पण' के अतिरिक्त रसलीनजी ने सं॰ १७९८ में 'रसप्रबोध' नामक रसनिरूपण का ग्रंथ दोहों में बनाया। इसमें ११५५ दोहे हैं और रस, भाव,-नायिकाभेद, षट्ऋतु, बारहमासा आदि अनेक प्रसंग आए है। इस विषय का अपने ढंग का यह छोटा सा अच्छा ग्रंथ है। रसलीन ने स्वयं कहा है कि इस छोटे ग्रंथ को पढ़ लेने पर रस का विषय जानने के लिये और ग्रंथ पढ़ने की आवश्यकता न रहेगी। पर यह-ग्रंथ अंगदर्पण के ऐसा प्रसिद्ध न हुआ।

रसलीन ने अपने को दोहों की रचना तक ही रखा जिनमे पदावली की गति द्वारा नाद-सौंदर्य का अवकाश बहुत ही कम रहता है चमत्कार और उक्ति वैचित्र्य की ओर इन्होंने अधिक ध्यान रखा। नीचे इनके कुछ दोहे दिए जाते हैं––

धरति न चौकी नगजरी, यातें उर में लाय।
छाँह परे पर-पुरुष की, जनि तिय-धरम नसाय॥
चख चलि स्तत्रवन मिल्यो चहत, कच बढि छुवन छवानि।
कटि निज दरब धरयो चहत, वक्षस्थल में आनि॥
कुमति चंद प्रति द्यौस बढ़ि, मास मास कढ़ि, आय।
तुव मुख-मधुराई लखे फीको परि घटि जाय॥
रमनी-मन पावत नहीं लाज प्रीति को अंत।
दुहूँ ओर ऐंचो रहै, जिमि बिबि तिय को कंत॥
तिय-सैसव-जोवन मिले, भेद न जान्यो जात।
प्रात समय निसि द्यौस के दुवौ भाव दरसात॥

(३०) रघुनाथ––ये बंदीजन एक प्रसिद्ध कवि हुए हैं जो काशिराज महाराज बरिबंडसिंह की सभा को सुशोभित करते थे। काशी-नरेश ने इन्हें चौरा ग्राम दिया था। इनके पुत्र गोकुलनाथ; पौत्र गोपीनाथ और गोकुलनाथ के शिष्य मणिदेव ने महाभारत का भाषा-अनुवाद किया जो काशिराज के पुस्तकालय में है। शिवसिंहजी ने इनके चार ग्रंथों के नाम लिखे हैं––

काव्य-कलाधर, रसिकमोहन, जगतमोहन, और इश्क-महोत्सव। बिहारी सतसई की एक टीका का भी उल्लेख उन्होंने किया है। इसकी कविता-काल संवत् १७९० से १८१० तक समझना चाहिए।

'रसिकमोहन' (स॰ १७९६) अलंकार का ग्रंथ है। इसमें उदाहरण केवल शृंगार के ही नहीं है, वीर आदि अन्य रसों के भी बहुत अधिक है। एक अच्छी विशेषता तो यह है कि इसमें अलंकारों के उदाहरण में जो पद्य आए हैं उनके प्रायः सब चरण प्रस्तुत अलंकार के सुंदर और स्पष्ट उदाहरण होते हैं। इस प्रकार इनके कवित्त या सवैया का सारा कलेवर अलंकार को उदाहृत करने में प्रयुक्त हो जाता है। भूषण आदि बहुत से कवियों ने अलंकारों के उदाहरण में जो पद्य रखे है उनका अंतिम या और कोई चरण ही वास्तव में उदाहरण होता है। उपमा के उदाहरण में इनका यह प्रसिद्ध कवित्त लीजिए––

फूलि उठे, कमल से अमल हितू के नैन,
कहै रघुनाथ भरे चैनरस सिय रे।
दौरि आए भौंर से करत गुनी गुनगान,
सिद्ध से सुजान सुखसागर सों नियरे॥
सुरभी सी खुलन सुकवि की सुमति लागी,
चिरिया सी जागी चिंता जनक के जियरे।
धनुष पै ठाढें राम रवि से लसत आजु,
भोर कैसे नखत नरिंद भए पियरे॥

"काव्य-कलाधर" (सं॰ १८०२) रस का ग्रंथ है। इसमें प्रथानुसार भावभेद, रसभेद, थोड़ा बहुत कहकर नायिकाभेद, और नायकभेद का ही विस्तृत वर्णन है। विषय-निरूपण इसका उद्देश्य नहीं जान पड़ता। 'जगत्मोहन' (सं॰ १८०७) वास्तव में एक अच्छे प्रतापी और ऐश्वर्यवान् राजा की दिनचर्या बताने के लिये लिखा गया है। इसमें कृष्ण भगवान् की १२ घंटे की दिनचर्या कही गई है। इसमें ग्रंथकार ने अपनी बहुज्ञता अनेक विषयो––जैसे राजनीति सामुद्रिक, वैद्यक, ज्योतिष, शालिहोत्र, मृगया, सेना, नगर, गढ़-रक्षा, पशुपक्षी, शतरंज इत्यादि––के विस्तृत और अरोचक वर्णनों द्वारा प्रदर्शित की है। इस प्रकार वास्तव में पद्य में होने पर भी यह काव्यग्रंथ नहीं है। 'इश्क-महोत्सव' में आपने 'खड़ी बोली' की रचना का शौक दिखाया है। उससे सूचित होता है कि खड़ी बोली की धारणा तब तक अधिकतर उर्दू के रूप में ही लोगों को थी।

कविता के कुछ नमूने उद्धृत किए जाते हैं––

ग्वाल संग जैबो ब्रज, गैयन चरैबौ ऐबो,
अब कहा दाहिने ये नैन फरकत हैं।
मोतिन की माल वारि डारौं गुंजमाल पर,
कुंजन की सुधि आए हियो धरकत हैं॥
गोबर को गारो रघुनाथ कछू यातें भारो,
कहा भयो महलनि मनि मरकते हैं।
मंदिर हैं मंदर तें ऊँचे मेरे द्वारका के,
ब्रज के खरिक तऊ हियें खरकत हैं॥


कैधौं सेस देस तें निकसि पुहुमी पै आय,
बदन उचाय बानी जस-असपंद की।
कैधौं छिति चँवरी उसीर की दिखावति है,
ऐसी सोहै उज्ज्वल किरन जैसे चंद की॥
आनि दिनपाल श्रीनृपाल नंदलाल जू को,
कहैं रघुनाथ पाय सुघरी अनंद की।
छूटत फुहारे कैधौं फूल्यो है कमल, तासों
अमल अमंद कढ़ै धार मकरँद की॥


सुधरे सिलाह राखै, वायु वेग वाह राखै,
रसद की राह राखै, राखे रहै बैन को।
चोर को समाज राखै बजा औ नजर, राखै,
खबरी के काज बहुरूपी हर फन को॥
आगम-भखैया राखै, सगुन-लेवैया राखै,
कहैं रघुनाथ औ बिचार बीच मन को।
बाजी हारै कबहूँ न औसर के परे जौन,
ताजी राखै प्रजन को, राजी सुभटन को॥


आप दरियाव, पास नदियों के जाना नहीं,
दरियाव, पास नदी होयगी सो धावैगी।
दरखत बेलि-आसरे को कभी राखता न,
दरखत ही के आसरे को बेलि पावैगी॥
मेरे तो लायक जो था कहना सो कहा मैंने,
रघुनाथ मेरी मति न्याव ही की गावैगी।
वह मुहताज आपकी है; आप उसके न,
आप क्यों चलोगे? वह आप पास आवैगीं॥

(३१) दूलह––ये कालिदास त्रिवेदी के पौत्र और उदयनाथ 'कवीद्र' के पुत्र थे। ऐसा जान पड़ता है कि ये अपने पिता के सामने ही अच्छी कविता करने लगे थे। ये कुछ दिनो तक अपने पिता के सम-सामयिक रहे। कवींद्र के रचे ग्रंथ १८०४ तक के मिले है‌। अतः इनका कविता-काल संवत् १८०० से लेकर संवत् १८२५ के आसपास तक माना जा सकता है। इनका बनाया एक ही ग्रंथ "कविकुल-कंठाभरण" मिला है जिसमें निर्माण-काल नहीं दिया है। पर इनके फुटकल कवित्त और भी सुने जाते हैं।

"कविकुल-कंठाभरण" अलंकार का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसमें यद्यपि लक्षण और उदाहरण एक ही पद्य में कहे गए है पर कवित्त और सवैया के समान बड़े छंद लेने से अलंकार-स्वरूप और उदाहरण दोनों के सम्यक् कथन के लिये पूरा अवकाश मिला है। भाषाभूषण आदि दोहों में रचे हुए इस प्रकार के ग्रंथों से इसमें यही विशेषता है। इसके द्वारा सहज में अलंकारों का चलता बोध हो सकता है। इसी से दूलहजी ने इसके संबंध में आप कहा है––

जो या कंठाभरण को, कंठ करै चित लाय।
सभा मध्य सोभा लहै, अलंकृती ठहराय॥

इनके कविकुल-कंठाभरण में केवल ८५ पद्य हैं। फुटकल जो कवित्त मिलते हैं वे अधिक से अधिक १५ या २० होंगे। अतः इनकी रचना बहुत थोड़ी है; पर थोड़ी होने पर भी उसने इन्हें बड़े अच्छे और प्रतिभा-संपन्न कवियों की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है। देव, दास, मतिराम आदि के साथ दूलह का भी नाम लिया जाता है। इनकी इस सर्वप्रियता का कारण इनकी रचना की मधुर कल्पना, मार्मिकता और प्रौढ़ता है। इनके वचन अलकारों के प्रमाण में भी सुनाए जाते है और सहृदय श्रोताओं के मनोरंजन के लिये भी। किसी कवि ने इनपर प्रसन्न होकर यहाँ तक कहा है कि "और बराती सकल कवि, दूलह दूलहराय"।

इनकी रचना के कुछ उदाहरण लीजिए––

माने सनमाने तेइ माने सनमाने सन,
मानै सनमाने सनमान पाइयतु है।
कहैं कवि दूलह अजाने अपमाने,
अपमान सों सदन तिनही को छाइयतु है॥
जानत हैं जेऊ ते जाते हैं बिराने द्वार,
जानि बूझि भूले तिनको सुनाइयतु है।
कामबस परे कोऊ गहत गरूर तौ वा,
अपनी जरूर जाजरूर जाइयतु है॥


धरी जब बाहीं तब करी तुम 'नाहीं',
पायँ दियौ पलकाही 'नाहीं नाहीं' कै सुहाई हौ।
बोलत मैं नाहीं, पट खोलत में नाहीं,
कवि दूलह, उछाही लाख भाँतिन लहाई हौ॥,

चुंबन में नाहीं, परिरंभन में नाहीं,
सब असन बिलासन में नाहीं ठीक ठाई हौ॥
मेलि गलबाहीं, केलि कीन्हीं चितबाही, यह
'हा' तें भली 'नाही' सो कहाँ ते सीखि आई हौ॥


उरज उरज धँसे, बसे उर आड़े लसे,
बिन गुन माल गरे धरे छवि छाए हौ।
नैन कवि दूलह हैं राते, तुतराते बैन,
देखे सुने सुख के समूह सरसाए हों॥
जाधक सों लाल भाल पलकन पीकलीकी,
प्यारे ब्रज चंद सुचि सूरज सुहाए हौ।
होत अरुनोद यहि कोद मति बसी आजु,
कौन घरबसी घर बसी करि आए हौ?


सारी की सरौंट सब सारी में मिलाय दीन्हीं,
भूषन की जेब जैसे जेब जहियतु है।
कहे कवि दूलह छिपाए रदछद मुख,
नेह देखे सौतिन की देह दहियतु है॥
बाला चित्रसाला तें निकसि गुरुजन आगे,
कीन्हीं चतुराई सो लखाई लहियतु है।
सारिका पुकारे "हम नाहीं, हम नाहीं",
"एजू! राम राम कहौं", 'नाहीं नाहीं' कहियतु है॥


फल विपरीत को जतन सों 'बिचित्र';
हरि उँचे होत वामन भे बलि के सदन में।
आधार बड़े तें बड़ों आधेय 'अधिक' 'जानौ,
चरन समायो नाहिं चौदहो भुवन में॥

छाया छत्र ह्वै करि करति महिपालन को,
पालन को पूरो फैलो रजत अपार ह्वै।
मुकुत उदार ह्वै लगत सुख श्रीनन में,
जगत जगत हंस, हास, हीरहार ह्वै॥
ऋषिनाथ सदानंद-सुजस, बिलंद,
तमवृंद के हरैया चंदचंद्रिका मुढार ह्वै।
हीतल को सीतल करत धनसार ह्वै,
महीतल को पावन करत गंगधार ह्वै॥

(३७) बैरीसाल––ये असनी के रहनेवाले ब्रह्मभट्ट थे। इनके वंशधर अब तक असनी में हैं। इन्होंने 'भाषाभरण' नामक एक अच्छा अलंकार-ग्रंथ सं॰ १८२५ में बनाया जिसमें प्रायः दोहे ही हैं। दोहे बहुत सरस हैं और अलंकारों के अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। दो दोहे उद्धृत किए जाते हैं––

नहिं कुरंग नहिं ससक यह, नहिं कलंक, नहि पंक।
बीस बिसे बिरहा दही, गडी दीठि ससि अंक॥
करत कोकनद मदहि रद, तुव पद हर सुकुमार।
भए अरुन अति दबि मनो पायजेब के भार॥

(३८) दत्त––ये माढ़ी (जिला कानपुर) के रहनेवाले ब्राह्मण थे और चरखारी के महाराज खुमानसिंह के दरबार में रहते थे। इनका कविता-काल भवत् १८३० माना जा सकता है। इन्होंने 'लालित्यलता' नाम की एक अलंकार की पुस्तक लिखी है जिससे ये बहुत अच्छे कवि जान पड़ते हैं। एक सवैया दिया जाता हैं––

ग्रीषम में तपै भीषम भानु, गई बनकुंज सखीन की भूल सों।
धाम सों बामलता मुरझानी, बयारि करैं धनश्याम दुकूल सों॥
कंपत यों प्रकाट्यो तन स्वेद उरोजन दत्त जू ठोढ़ी के मूल सों।
ह्वै अरविंद-कलीन पै मानो तिरै मकरंद गुलाब के फूल सों॥

(३९) रतन कवि––इनका वृत्त कुछ ज्ञात नहीं। शिवसिंह ने इनका जन्मकाल सं॰ १७९८ लिखा है। इससे इनका कविता-काल सं॰ १८३० के आसपास माना जा सकता है। ये श्रीनगर (गढ़वाल) के राजा फतहसाहि के यहाँ रहते थे। उन्हीं के नाम पर 'फतेहभूषण' नामक एक अच्छा अलंकार का ग्रंथ इन्होंने बनाया। इसमें लक्षणा, व्यंजना, काव्यभेद, ध्वनि, रस, दोष आदि का विस्तृत वर्णन है। उदाहरण में शृंगार के ही पद्य न रखकर इन्होंने अपने राजा की प्रशंसा के कवित्त बहुत रखे है। संवत् १८२७ मे इन्होंने 'अलंकारदर्पण' लिखा। इनका निरूपण भी विशद है और उदाहरण भी बहुत ही मनोहर और सरस हैं। ये एक उत्तम श्रेणी के कुशल कवि थे, इसमे संदेह नहीं। कुछ नमूने लीजिए––

बैरिन की बाहिनी को भीषन निदाघ रवि,
कुबलय केलि को सरस सुधाकरु है।
दान-झरि सिंधुर है, जग को बसुंधर है,
बिबुध कुलनि को फलित कामतरु है॥
पानिप मनिन को, रतन रतनाकर को,
कुबेर पुन्य जनन को, छमा महीधरु है।
अंग को सनाह, बन-राह को रमा को नाह,
महाबार फतेहसाह एकै नरबरु है॥


काजर की कोरवारै भारे अनियारे नैन,
कारे सटकारे बार छहरे छवानि छवै।
श्याम सारी भीतर भभक गोरे गातन की,
ओपवारी न्यारी रही बदन उजारी ह्वै॥
मृगमद बेंदी भाल में दी, याही आभरन,
हरन हिए को तू है रंभा रति ही अवै।
नीके नथुनी के तैसे सुंदर सुहात मोती,
चंद पर च्वै रहैं सु मानो सुधाबुंद द्वै॥

(४०) नाथ (हरिनाथ)––ये काशी के रहनेवाले गुजराती ब्राह्मण थे। इन्होंने संवत् १८२६ में "अलंकार-दर्पण" नामक एक छोटा सा ग्रंथ

आधेय अधिक तें आधार की अधिकताई,
"दूसरो अधिक" आयो ऐसो गननन में।
तीनों लोक तन में, अमान्थो ना गगन में,
बसैं ते संत-मन में, कितेक कहौ मन में॥


(३२) कुमारमणिभट्ट––इनका कुछ वृत्त ज्ञात नहीं। इन्होंने संवत् १८०३ के लगभग "रसिक रसाल" नामक एक बहुत अच्छा रीतिग्रंथ बनाया। ग्रंथ में इन्होंने अपने को हरिवल्लभ का पुत्र कहा है। शिवसिंह ने इन्हें गोकुलवासी कहा है। इनका एक सवैया देखिए––

गावैं वधू मधुरै सुर गीतन, प्रीतम सँग न बाहिर आई।
छाई कुमार नई छिति में छवि, मानो बिछाई नई दरियाई॥
ऊँचे अटा चढ़ि देखि चहूँ दिलि बोली यों बाल गरो भरि आई।
कैसी करौं हहरैं हियरा, हरि आए नहीं उलहीं हरिआई॥

(३३) शंभुनाथ मिश्र––इस नाम के कई कवि हुए हैं जिनमें से एक संवत १८०६ में, दूसरे १८६७ में और तीसरे १९०१ में हुए हैं। यहाँ प्रथम का उल्लेख किया जाता है, जिन्होंने 'रसकल्लोल', 'रसतरंगिणी' और 'अलंकारदीपक' नामक तीन रीतिग्रंथ बनाए हैं। ये असोथर (जि॰ फतेहपुर) के राजा भगवंतराव खीची के यहाँ रहते थे। 'अलंकारदीपक' में अधिकतर दोहे हैं, कवित्त सवैया कम। उदाहरण शृंगार-वर्णन में अधिक प्रयुक्त न होकर आश्रयदाता के यश और प्रताप-वर्णन में अधिक प्रयुक्त है। एक कवित्त दिया जाता है––

आजु चतुरंग महाराज सेन साजत ही,
धौंसा की धुकार धूरि परी मुँह माही के।
भय के अजीरन तें जीरन उजीर भए,
सूल उठी उर में अमीर जाहीं ताही के॥
बीर खेत बीच बरछी लै बिरुझानी, इतै
धीरज न रह्यो संभु कौन हू सिपाही के।

भूप भगवंत बीर ग्वाही कै खलक सब,
स्याही लाई बदन तमाम पातसाही के॥

(३४) शिवसहायदास––ये जयपुर के रहने वाले थे। इन्होंने सवत् १८०९ में 'शिवचौपाई' और 'लोकोक्तिरस कौमुदी' दो ग्रंथ बनाए। लोकोक्तिरसकौमुदी में विचित्रता यह है कि पखानों या कहावतों को लेकर नायिकाभेद कहा गया है, जैसे––

करौ रुखाई नाहिंन बाम। बेगिहिं लै आऊँ घनस्याम॥
कहे पखानो भरि अनुराग। बाजी ताँत, कि बूझयौ राग॥
बोलै निठुर पिया बिनु दोस। आपुहि तिय बैठी गहि रोस॥
कहै पखानो जेहि गहि मोन। बैल न कूद्यो, कूदी गौन॥

(३५) रूपसाहि––ये पन्ना के रहने वाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होने संवत् १८१३ में 'रूपविलास', नामक एक ग्रंथ लिखा जिसमे दोहे में ही कुछ पिंगल, कुछ अलंकार, कुछ नायिकाभेद आदि। दो दोहे नमूने के लिये दिए जाते हैं––

जगमगाति सारी जरी, झलमल भूषन-जोति।
भरी दुपहरी तिया की, भेंट पिया सों होति॥
लालन बेगि चलौ न क्यों? बिना तिहारे बाल।
मार मरोरनि सो मरति, करिए परसि निहाल॥


(३६) ऋषिनाथ––ये असनी के रहनेवाले बंदीजन, प्रसिद्ध कवि ठाकुर के पिता और सेवक के प्रपितामह थे। काशिराज के दीवान सदानंद और रघुवर कायस्थ के आश्रय में इन्होने 'अलंकारमाणि-मंजरी' नाम की एक अच्छी पुस्तक बनाई जिसमें दोहों की संख्या अधिक है यद्यपि बीच बीच में घनाक्षरी और छप्पय भी है। इसकी रचना-काल स॰ १८३१ है जिससे यह इनकी वृद्धावस्था का ग्रंथ जान पड़ता है। इनका कविता-काल सं॰ १७९० से १८३१ तक माना जा सकता है। कविता ये अच्ची करते थे। एक कवित्त दिया जाता है––

छाया छत्र ह्वै करि करति महिपालन को,
पालन को पूरो फैलो रजत अपार ह्वै।
मुकुत उदार ह्वै लगत सुख श्रौनन में,
जगत जगत हंस, हास, हीरहार ह्वै॥
ऋषिनाय सदानंद-सुजस बिलंद,
तमवृंद के हरैया चंदचंद्रिका सृढार ह्वै।
हीतल को सीतल करत घनसार ह्वै,
महीतल को पावन करत गंगधार है॥

(३७) बैरीसाल––ये असनी के रहनेवाले ब्रह्मभट्ट थे। उनके वंशधर अब तक असनी में है। इन्होंने 'भाषाभरण' नामक एक अच्छा अलंकार-ग्रंथ स॰ १८२५ में बनाया जिसमें प्रायः दोहे ही हैं। दोहे बहुत सरस हैं और अलंकारों के अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। दो दोहे उद्धृत किए जाते हैं––

नहिं कुरंग नहिं ससक यह, नहिं कलंक, नहिं पक।
बीस बिसे बिरहा दही, गडी दीठि ससि अंक॥
करत कोकनद मदहि रद, तुव पद हर सुकुमार।
भए अरुन अति दबि मनो पायजेब के भार॥

(३८) दत्त––ये माढ़ी (जिला कानपुर) के रहने वाले ब्राह्मण थे और चरखारी के महाराज खुमानसिंह के दरबार में रहते थे। इनका कविता-काल संवत् १८३० माना जा सकता है। इन्होंने 'लालित्यलता' नाम की एक अलंकार की पुस्तक लिखी है जिससे ये बहुत अच्छे कवि जान पड़ते है। एक सवैया दिया जाता है––

ग्रीषम में तपै भीषम भानु, गई बनकुंज सखीन की भूल सों।
घाम सों बाम-लता मुरझानी, बयारि करैं घनश्याम दुकूल सों॥
कंपत यों प्रकट्यो तन स्वेद उरोजन दत्त जू ठोढ़ी के मूल सों।
द्वै अरविंद-कलीन पै मानो गिरै मकरंद गुलाब के फूल सों॥

(३९) रतन कवि––इनका वृत्त कुछ ज्ञात नहीं। शिवसिंह ने इनका जन्मकाल सं॰ १७९८ लिखा है। इससे इनका कविता-काल सं॰ १८३० के आसपास माना जा सकता है। ये श्रीनगर (गढ़वाल) के राजा फतहसाहि के यहाँ रहते थे। उन्हीं के नाम मर 'फतेहभूषण', नामक एक अच्छा अलंकार का ग्रंथ इन्होंने बनाया। इसमें लक्षणा, व्यंजना, काव्यभेद, ध्वनि, रस, दोष आदि का विस्तृत वर्णन है। उदाहरण में शृंगार के ही पद्य न रखकर इन्होंने अपने राजा की प्रशंसा के कवित्त बहुत रखे है। संवत् १८२७ में इन्होंने 'अलंकारदर्पण' लिखा। इनका निरूपण भी विशद है और उदाहरण भी बहुत ही मनोहर और सरस हैं। ये एक उत्तम श्रेणी के कुशल कवि थे, इसमे संदेह नहीं। कुछ नमूने लीजिए––

बैरिन की बाहिनी को भीषन निदाघ-रवि,
कुबलय केलि को सरस सुधाकरु है।
दान-झरि सिंधुर है, जग को बसुंधर है,
बिबुध कुलनि को फलित कामतरु है॥
पानिप मनिन को, रतन रतनाकर को,
कुबेर पुन्य जनन को, छमा महीधरु है।
अंग को सनाह, बनराह को रमा को नाह,
महाबाह फतेहसाह एकै नरबरु है॥


काजर की कोरवारे भारे अनियारे नैन,
कारे सटकारे बार छहरे छवानि छूवै।
स्याम सारी भीतर भभक गोरे गातन की,
ओपवारी न्यारी रही बदन उजारी ह्वै॥
मृगमद बेंदी भाल में दी, याही आभरन,
हरन हिए को तू है रंभा रति ही अवै।
नीके नथुनी के तैसे सुंदर सुहात मोती,
चंद पर च्वै रहै सु मानो सुधाबुंद द्वै॥

(४०) नाथ (हरिनाथ)––ये काशी के रहनेवाले गुजराती ब्राह्मण थे। इन्होंने संवत् १८२६ में "अलंकार-दर्पण" नामक एक छोटा सा ग्रंथ बनाया जिसमें एक-एक पद के भीतर कई कई उदाहरण है। इनका क्रम औरों से विलक्षण है। ये पहले अनेक दोहों में बहुत से लक्षण कहते गए हैं फिर एक साथ सबके उदाहरण कवित्त आदि में देते गए हैं। कविता साधारणतः अच्छी है। एक दोहा देखिए––

तरुनि लसति प्रकार तें, मालनि लसति सुबास।
गोरस गोरस देत नहिं गोरस चहति हुलास॥

(४१) मनीरास मिश्र––ये कन्नौज निवासी इच्छाराम मिश्र के पुत्र थे। इन्होंने संवत् १८२९ से 'छंदछप्पनी' और 'आनंदमंगल' नाम की दो पुस्तके लिखीं। 'आनंदमंगल' भागवत दशम स्कंध का पद्य में अनुवाद हैं। 'छदंछप्पनी' छंदःशास्त्र का बड़ा ही अनूठा ग्रंथ है।

(४२) चंदन––ये नाहिल पुवायाँ (जिला शाहजहाँपुर) के रहने वाले बंदीजन थे और गौड़ राजा केसरीसिंह के पास रहा करते थे। इन्होंने 'शृंगारसागर', 'काव्याभरण', 'कल्लोलतरंगिणी' ये तीन रीतिग्रंथ लिखे। इनके निम्नलिखित ग्रंथ और है––

(१) केसरीप्रकाश, (२) चंदन-सतसई, (३) पथिकबोध, (४) नखशिख, (५) नाममाला (क प), (६) पत्रिका-बोध, (७) तत्वसंग्रह, (८) सीतवसंत (कहानी), (९) कृष्णकाव्य, (१०) प्राज्ञ-विलास।

ये एक अच्छे चलते कवि जान पड़ते हैं। इन्होंने 'काव्याभरण' संवत् १८४५ में लिखा। फुटकल रचना तो इनकी अच्छी है ही। सीतवसंत की कहानी भी इन्होंने प्रबंधकाव्य के रूप में लिखी है। सीतवसंत की रोचक कहानी इन प्रातों में बहुत प्रचलित है। उसमें विमाता के अत्याचार से पीडित सीतवसंत नामक दो राजकुमारों की बड़ी लम्बी कथा है। इनकी पुस्तकों की सूची देखने से यह धारण होती है कि इनकी दृष्टि रीतिग्रंथों तक ही बद्ध न रहकर साहित्य के और अंगों पर भी थी।

ये फारसी के भी अच्छे शायर थे और अपनी तखल्लुस 'संदल' रखते थे। इनका 'दीवाने सुंदल' कहीं कहीं मिलता है। इनका कविता-काल संवत् १८२० से १८५० तक माना जा सकता है। इनका एक सवैया नीचे दिया जाता है––

ब्रजवारी गँवारी दै जानै कहा, यह चातुरता न लुगायने में।
पुनि बारिनी जानि अनारिनी है, रुचि एती न चंदन नायन में॥
छबि रंग सुरंग के बिंदु बने, लगैं इंद्रवधू लघुतायन में।
चित जो चहै दी चकि सी रहैं दी, केहि दी मेंहदी इन पायन में॥

(४३) देवकीनंदन––ये कन्नौज के पास मकरंदनगर ग्राम के रहनेवाले थे। इनके पिता का नाम शषली शुक्ल था। इन्होंने सं॰ १८४१ में 'शृंगारचरित्र' और १८५७ मे 'अवधूत-भूषण' और 'सरफराज-चद्रिका' नामक रस और अलंकार के ग्रंथ बनाए। संवत् १८४३ में ये कुँवर सरफराज गिरि नामक किसी धनाढ्य महंत के यहाँ थे जहाँ इन्होंने 'सरफराज-चद्रिका' नामक अलंकार का ग्रंथ लिखा। इसके उपरांत ये रुद्दामऊ (जिला हरदोई) के रईस अवधूत सिंह के यहाँ गए जिनके नाम पर 'अवधूत-भूषण' बनाया। इनका एक नखशिख भी है। शिवसिंह को इनके इस नखशिख को ही पता था, दूसरे ग्रथों का नहीं।

'शृंगारचरित्र' में रस, भाव, नायिकाभेद आदि के अतिरिक्त अलंकार भी आ गए हैं। 'अवधूत-भूषण' वास्तव में इसी का कुछ प्रवर्द्धत रूप है। इनकी भाषा मँजी हुई और भाव प्रौढ़ हैं। बुद्धि-वैभव भी इनकी रचना में पाया जाता है। कहीं कहीं कूट भी इन्होंने कहे है। कला-वैचित्र्य की ओर अधिक झुकी हुई होने पर भी इनकी कविता में लालित्य और माधुर्य पूरा है। दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं––

बैठी रंग-रावटी में हेरत पिया की बाट,
आए न बिहारी भई निपट अधीर मैं।
देवकीनंदन कहै स्याम घटा घिरि आई,
जानि गति प्रलय की ढरानी बहू, वीर! मैं॥
सैज पै सदासिव की मूरति बनाय पूजी,
तीनि डर तीनहू की करी तदबीर मैं।
पाखन में सामरे, सुलाखन में अखैवट,
ताखन में लाखन की लिखी तसवीर मैं॥


मोतिन की माल तोरि चीर, सब चीरि डारै,
फेरि कै न जैहौं आली, दुख विकरारे हैं।
देवकीनंदन कहै चोखे नागछौनन के,
अलकैं प्रसून नोचि नोचि निरबाने हैं॥
मानि मुख चंद-भाव चोंच दई अधरन,
तीनौ ये निकुंजन में एकै तार तारे हैं।
ठौर ठौर डोलत मराल मतवारे, तैसे,
मोर मतवारे त्यों चकोर मतवारे हैं॥

(४४) महाराज रामसिंह––ये नरवलगढ़ के राजा थे। इन्होंने रस और अलंकार पर तीन ग्रंथ लिखे हैं––अलंकार-दर्पण, रसनिवास (सं॰ १८३९) और रसविनोद (सं॰ १८६०) अलंकार-दर्पण दोहों में है। नायिकाभेद भी अच्छा है। ये एक अच्छे और प्रवीण कवि थे। उदाहरण लीजिए––

सोहत सुंदर स्याम सिर, मुकुट मनोहर जोर।
मनों नीलमनि सैल पर, नाचत राजत मोर॥
दमकन लागी दामिनी, करन लगे घर रोर।
बोलति माती कोइलै, बोलत माते मोर॥

(४५) भान कवि––इनके पूरे नाम तक का पता नहीं। इन्होंने संवत् १८४५, में 'नरेंद्र-भूषन' नामक अलंकार का एक ग्रंथ बनाया जिससे केवल इतना ही पता लगता है कि ये राजा जोरावरसिंह के पुत्र थे और राजा रनजोरसिंह बुंदेले के यहाँ रहते थे। इन्होंने अलंकारों के उदाहरण शृंगाररस के प्रायः बराबर ही वीर, भयानक, अद्भुत आदि रसो के रखे है। इससे इनके ग्रंथ में कुछ नवीनता अवश्य दिखाई पड़ती है जो शृंगार के सैकड़ों वर्ष के पिष्टपेषण से ऊबे हुए पाठक को विराम सा देती है। इनकी कविता में भूषण की सी फड़क और प्रसिद्ध शृंगारियों की सी तन्मयता और मधुरता तो नहीं है, पर रचना प्राय: पुष्ट और परिमार्जित है। दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं––

रन-मतवारे ये जोरावर दुलारे तब,
बाजत नगारे भए गालिब दिलीस पर।

दल के चलत भर भर होत चारों ओर,
चालति धरनि भारी भार सों फनीस पर॥
देखि कै समर-सनमुख भयो ताहि समै,
बरनत भान पैज कै कै बिसे बीस पर।
वेरी समसेर की सिफत सिंह रनजोर,
लखी एकै साथ हाथ अरिन के सीस पर॥


घन से सघन स्याम, इंदु पर छाय रहे,
बैठी तहाँ असित द्विरेफन की पाँनि सी।
तिनके समीप तहाँ खंज की सी जोरी, लाल!
आरसी से अमल निहारे बहुत भाँति सी॥
ताके ढिग अमल ललौह बिबि विद्रुम से,
फरकति ओप जामैं मोतिन की कांति सी।
भीतर ते कढ़ति मधुर बीन कैसी धुनि,
सुनि करि भान परि कानन सुहाति सी॥

(४६) थान कवि––ये चंदन बंदीजन के भानजे थे और डौड़ियाखेरे (जिला रायबरेली) में रहते थे। इनका पूरा नाम थानराय था। इनके पिता निहालराय, पितामह महासिंह और प्रपितामह लालराय थे। इन्होंने संवत् १८५८ में 'दलेलप्रकाश' नामक एक रीतिग्रंथ चँड़रा (बैसवारा) के रईस दलेलसिंह के नाम पर बनाया। इस ग्रंथ में विषयों का कोई क्रम नहीं है। इसमें गणविचार, रस-भाव-भेद, गुणदोष आदि का कुछ निरूपण है और कहीं कहीं अलंकारों के कुछ लक्षण आदि भी दे दिए गए है। कहीं रागगिनियों के नाम आए, तो उनके भी लक्षण कह दिए। पुराने टीकाकारो की सी गति है। अंत में चित्रकाव्य भी रखे हैं। सारांश यह है कि इन्होंने कोई सर्वाोंगपूर्ण ग्रंथ बनाने के उद्देश्य से इसे नहीं लिखा है। अनेक विषयों में अपनी निपुणता का प्रमाण सा इन्होंने उपस्थित किया है। ये इसमें सफल हुए हैं, यह अवश्य कहना पड़ता है। जो विषय लिया है उसपर उत्तम कोटि काल संवत् १८४९ से १८८० तक माना जा सकता है। इनकी कविता के कुछ नमूने नीचे देखिए––

अलि टसे अधर सुगंध पाय आनन को,
कानन में ऐसे चारु चरन चलाए हैं।
फटि गई कंचुकी लगे तें कट कुंजन के,
वेनी बरहीन खोली, वार छवि छाए हैं॥
वेग तें गवन कोनो, धक धक होत सीनो,
ऊरव उसासैं तन सेट सरसाए हैं।
भली प्रीति पाली वनमाली के बुलावे को,
मेरे हेत्त आली बहुतेरे दुख पाए हैं॥


घर घर घाट घाट बाट बाट ठाट ठटे,
वेला औ कुवेला फिरैं चेला लिए आस पास।
कविन सों वाद करैं, भेद विन नाद करैं,
महा उनमाद करैं, वरम करम नास॥
बेनी कवि कहैं विभिचारिन को बादसाह,
अतन प्रकासत न सतन सरम तास।
ललना ललक, नैन मैन की झलक,
हँसि हेरत अलक रद खलक ललकदास॥


चींटी की चलावै को? मसा के मुख आपु जाय,
स्वास की पवन लागे कोसन भगत है।
ऐनक लगाए मरु मरु कै निहारे जात,
अनु परमानु की समानता खगत है॥
बेनी कवि कहै हाल कहाँ लौं बखान करौं,
मेरी जान ब्रह्म को विचारियो सुगत है।
ऐसे आम दीन्हे दयाराम मन मोद करि,
जाके आगे सरसों सुमेर सो लगत है॥

(४८) बेनी प्रवीन––ये लखनऊ के वाजपेयी थे और लखनऊ के बादशाह गाजीउद्दीन हैदर के दीवान राजा दयाकृष्ण कायस्थ के पुत्र नवल कृष्ण उर्फ ललनजी के आश्रय में रहते थे जिनकी आज्ञा से सं॰ १८७४ में इन्होंने 'नवरस-तरंग' नामक ग्रंथ बनाया। इसके पहले 'शृंगार-भूषण' नामक एक ग्रंथ ये बना चुके थे। ये कुछ दिन के लिये महाराज नाना राव के पास बिठूर भी गए थे और उनके नाम पर "नानाराव प्रकाश" नामक अलंकार का एक बड़ा ग्रंथ कविप्रिया के ढंग पर लिखा था। खेद है इनका कोई ग्रंथ अब तक प्रकाशित न हुआ। इनके फुटकल कवित्त इधर उधर बहुत कुछ संगृहीत और उद्धृत मिलते है। कहते हैं कि बेनी बंदीजन (भँड़ौवावाले) से इनसे एक बार कुछ वाद हुआ था जिसमें प्रसन्न होकर इन्होंने इन्हें 'प्रवीन' की उपाधि दी थी। पीछे से रुग्ण होकर ये सपत्नीक आबू चले गए और वहीं इनका शरीर-पात हुआ। इन्हें कोई पुत्र न था।

इनका 'नवरस-तरंग' बहुत ही मनोहर ग्रंथ है। उसमे नायिकाभेद के उपरांत रसभेद और भावभेद का संक्षेप में निरूपण हुआ है। उदाहरण और रसों के भी दिए हैं पर रीतिकाल के रससंबधी और ग्रंथों की भाँति यह शृंगार का ही ग्रंथ है। इसमें नायिकाभेद के अंतर्गत प्रेम-क्रीड़ा की बहुत सी सुंदर कल्पनाएँ भरी पड़ी हैं। भाषा इनकी बहुत साफ सुथरी और चलती है, बहुतो की भाषा की तरह लद्द, नहीं। ऋतुओं के वर्णन भी उद्दीपन की दृष्टि से जहाँ तक रमणीय हो सकते हैं किए हैं, जिनमें प्रथानुसार भोग-विलास की सामग्री भी बहुत कुछ आ गई है। अभिसारिका आदि कुछ नायिकाओ के वर्णन बड़े ही सरस हैं। ये ब्रजभाषा के मतिराम ऐसे कवियों के समकक्ष है और कहीं कहीं तो भाषा और भाव के माधुर्य में पद्माकर तक से टक्कर लेते है। जान पड़ता है, शृंगार के लिये सवैया ये विशेष उपयुक्त समझते थे। कविता के कुछ नमूने उद्धृत किए जाते है––

भोर ही न्योति गई ती तुम्हैं वह गोकुल गाँव की ग्वालिनि गोरी।
आधिक राति लौं बेनी प्रवीन कहा ढिग राखि करी बरजोरी॥
आवै हँसी मोहिं देखत लालन, भाल में दीन्हीं महावर घोरी।
एते बड़े ब्रजमंडल में न मिली कहुँ मांगेहु रंचक रोरी॥

की रचना की है। भाषा में मंजुलता और लालित्य है। हृत्व वर्णों की मधुर योजना इन्होंने बड़ी सुंदर की है। यदि अपने ग्रंथ को इन्होंने भानमती का पिटारा न बनाया होता और एक ढंग पर चले होते तो इनकी बड़े कवियों की सी ख्याति होती, इसमें संदेह नहीं। इनकी रचना के दो नमूने देखिए––

दासन पै दाहिनी परम हंसवाहिनी हौ,
पोथी कर, बीना सुरमंडल मढ़त है।
आसन कँवल, अंग अंबर धवल,
मुख चंद सो अवँल, रंग नवल चढ़त है॥
ऐसी मातु भारती की आरती करत थान,
जाको जस बिधि ऐसो पंडित पढ़त है।
ताकी दया-दीठि लाख पाथर निराखर के,
मुख ते मधुर मंजु आखर कढ़त है॥


कलुष-हरनि सुख-करनि सरनजन,
बरनि बरनि जस कहत धरनिधर।
कलिमल-कलित बलित-अध खलगन,
लहत परमपद कुटिल कपटतर॥
मदन-कदम सुर-सदन बदन ससि,
अमल नवल दुति भजन भगतधर।
सुरसरि! तब जल दरस परस करि,
सुर सरि सुभगति लहत अधम नर॥

(४७) बेनी बंदीजन––ये बैंती (जिला रायबरेली) के रहनेवाले थे और अवध के प्रसिद्ध वजीर महाराज टिकैतराय के आश्रय में रहते थे। उन्हीं के नाम पर इन्होंने "टिकैतराय प्रकाश" नामक अलंकार-ग्रंथ संवत् १८४९ में बनाया। अपने दूसरे ग्रंथ "रसविलास" में इन्होंने रस-निरूपण किया है। पर ये अपने इन दोनों ग्रंथों के कारण इतने प्रसिद्ध नहीं है जितने अपने भँड़ौवों के लिये। इनके मँड़ौवों का एक संग्रह "भँड़ौवा-संग्रह" के नाम से भारतजीवन प्रेस द्वारा प्रकाशित हो चुका है।

भँडौवा हास्यरस के अंतर्गत आता है। इसमें किसी की उपहासपूर्ण निंदा रहती है। यह प्रायः सब देशों में साहित्य का एक अंग रहा है। जैसे फारसी और उर्दू की शायरी में 'हजों' का एक विशेष स्थान है वैसे ही अँगरेजी में सटायर (Satire) का। पूरबी साहित्य में 'उपहास-काव्य' के लक्ष्य अधिकतर कंजूस अमीर या आश्रयदाता ही रहे हैं और योरपीय साहित्य में समसामयिक कवि और लेखक। इससे योरप के उपहास-काव्य में साहित्यिक मनोरंजन की सामग्री अधिक रहती थी। उर्दू-साहित्य में सौदा 'हजों' के लिये प्रसिद्ध है। उन्होंने किसी अमीर के दिए घोड़े की इतनी हँसी की है कि सुननेवाले लोट पोट हो जाते है। इसी प्रकार किसी कवि ने औरंगजेब की दी हुई हथिंनी की निंदा की है––

तिमिरलंग लइ मोल, चली बाबर के हलके।
रही हुमायूँ संग फेरि अकबर के दल के॥
जहाँगीर जस लियो पीठि को भार हटायो।
साहजहाँ करि न्याव ताहि पुनि माँड चटायो॥

बल-रहित भई, पौरुष थक्यो, भगी फिरत बन स्यार-डर।
औरंगजेब करिनी सोई लै दीन्हीं कविराल कर॥

इस पद्धति के अनुयायी बेनीजी ने भी कही बुरी रजाई पाई तो उसकी निंदा की, कहीं छोटे आम पाए तो उनकी निंदा जी खोल कर की।

पर जिस प्रकार उर्दू के शायर कभी-कभी दूसरे कवि पर भी छींटा दे दिया करते हैं, उसी प्रकार बेनीजी ने भी लखनऊ के ललकदास महत (इन्होंने 'सत्योपाख्यान' नामक एक ग्रंथ लिखा है, जिसमें रामकथा बड़े विस्तार से चौपाइयों में कही है) पर कुछ कृपा की है। जैसे "बाजे बाजे ऐसे डलमऊ में बसत जैसे मऊ के जुलाहे, लखनऊ के ललकदास"। इनका 'टिकैत-प्रकाश' संवत् १८४९ में और 'रसविलास’ संवत् १८७४ में बना। अतः इनका कविता

जान्यो न मैं ललिता अलि ताहि जो सोवत माहिं गई करि हाँसी।
लाए हिए नख केहरि के सम, मेरी तऊ नहिं नींद बिनासी॥
लै गई अंबर बेनी प्रवीन ओढ़ाय लटी दुपटी दुखरासी।
तोरि तनी, तन छोरि अभूषन भूलि गई गर देन को फाँसी॥
घनसार पटीर मिलै मिलै नीर चहै नन लावै न लावै चहै।
न बुझै बिरहागिनि झार झरी हू चहै घन लावै न लावै चहै॥
हम टेरि सुनावतीं बेनी प्रवीन चहै मन लावै न लावै चहै।
अब आवै विदेस तें पीतम गेह, चहैं धन लावै, न लावै चहै॥
काल्हि ही गूँथी बाबा की सौं मैं गजमोतिन की पहिरी अति आला।
आई कहाँ तें यहाँ पुखराज की, संग एई जमुना तट बाला॥
न्हात उतारी हौं बेनी प्रवीन, हँसैं सुनि बैनन नैन रसाला।
जानति ना अँग की बदली, सब सों "बदली बदली" कहै माला॥


सोभा पाई कुंजभौन जहाँ जहाँ कीन्हो गौन,
सरस सुगंध पौन पाई मधुपनि हैं।
बीथिन बिथोरे मुकुताइल मराल पाए,
आली दुसाल साल पाए अनगनि हैं॥
रैनि पाई चाँदनी फटक सी चटक रुख,
सुख पायो पीतम प्रवीन बेनी धनि है।
बैन पाई सारिका, पढ़न लागी कारिका,
सो आई अभिसारिका कि चारु चिंतामनि है॥

(४९) जसवंतसिंह द्वितीय––ये बघेल क्षत्रिय और तेरवाँ (कन्नौज के पास) के राजा थे और बड़े विद्या-प्रेमी थे। इनके पुस्तकालय में संस्कृत और भाषा के बहुत से ग्रंथ थे। इनका कविताकाल संवत् १८५६ अनुमान किया गया है। इन्होंने दो ग्रंथ लिखे––एक सालिहोत्र और दूसरा शृंगार-शिरोमणि। यहाँ इसी दूसरे ग्रंथ से प्रयोजन है, जो शृंगार रस का एक बड़ा ग्रंथ है। कविता साधारण है। एक कवित्त देखिए––

घनन के ओर, सोर चारों ओर मोरन के,
अति चितचोर तैसे अंकुर मुनै रहैं।
कोकिलन कूक हूक होति बिरहीन हिय,
लूक से जगत चीर चारन चुनै रहैं॥
झिल्ली झनकार तैसी पिकन पुकार डारी,
मारि डारी डारी द्रुम अंकुर सु नै रहैं।
लुनैं रहैं प्रान प्रानप्यारे जसवंत बिनु,
कारे पीरे लाल ऊदे बादर उनै रहैं॥

(५०) यशोदानंद––इनका कुछ भी वृत्त ज्ञात नहीं। शिवसिंहसरोज में जन्म संवत् १८२८ लिखा पाया जाता है। इनका एक छोटा-सा ग्रंथ "बरवै नायिका-भेद" ही मिलता है जो निस्संदेह अनूठा है और रहीमवाले से अच्छा नहीं तो उसकी टक्कर का है। इसमे ९ बरवा संस्कृत में और ५३ ठेठ अवधी भाषा में है। अत्यंत मृदु और कोमल भाव अत्यंत सरल और स्वाभाविक रीति से व्यंजित हैं। भावुकता ही कवि की प्रधान विभूति है। इस दृष्टि से इनकी यह छोटी सी रचना बहुत सी बड़ी बड़ी रचनाओं से मूल्य में बहुत अधिक है। कवियो की श्रेणी में ये निस्संदेह उच्च स्थान के अधिकारी हैं। इनके बरवै के नमूने देखिए––


(संस्कृत)यदि च भवति बुध-मिलनं किं त्रिदिवेन।
यदि च भवति शठ-मिलनं किं निरयेण॥



(भाषा)अहिरिनि मन कै गहिरिनि उतरु ने देई।
नैना करै मथनिया, मन मथि लेइ॥
तुरकिनि जाति हुरुकिनी अति इतराई।
छुवन न देइ इजरवा मुरि मुरि जाइ॥
पीतम तुम कचलोइया, हम गजबेलि।
सारस कै असि जोरिया फिरौं अकेलि॥

(५) करन कवि––ये षट्कुल कान्यकुब्जो के अंतर्गत पाँण्डे थे और छत्रसाल के वंशधर पन्ना-नरेश महाराज हिंदूपति की सभा में रहते थे। इनका कविता-काल संवत् १८६० के लगभग माना जा सकता है। इन्होंने 'साहित्यरस' और 'रसकल्लोल' नामक दो रीतिग्रंथ लिखे हैं। 'साहित्यरस' में इन्होंने लक्षणा, व्यंजना, ध्वनिभेद, रसभेद, गुण, दोष आदि काव्य के प्रायः सब विषयों का विस्तार से वर्णन किया है। इस दृष्टि से यह एक उत्तम रीतिग्रंथ है। कविता भी इसकी सरस और मनोहर है। इससे इनका एक सुविज्ञ कवि होना सिद्ध होता है। इनका एक कवित्त देखिए––

कंटकित होत गात बिपिन-समाज देखि,
हरी हरी भूमि हेरि हियो लरजतु है।
एते पै करन धुनि परति मयूरन की,
चातक पुकारि तेह ताप सरजतु है॥
निपट चवाई भाई बंधु जे बसत गाँव,
दाँव परे जानि कै न कोऊ बरजतु है।
अरज्यो न मानी तू, न गरज्यो चलत बार,
एरे घन बैरी! अब काहे गरजतु है॥


खल खंडन, मंडन धरनि, उद्धत उदित उदंड।
दलमंडन दारुन समर, हिंदुराज भुजदंड॥

(५२) गुरदीन पाँड़े––इनके संबंध में कुछ ज्ञात नहीं। इन्होंने संवत् १८६० में 'बागमनोहर' नामक एक बहुत ही बड़ा रीतिग्रंथ कविप्रिया की शैली पर बनाया। 'कवि-प्रिया' से इसमें विशेषता यह है कि इसमें पिंगल भी आ गया है। इस एक ही ग्रंथ में पिंगल, रस, अलंकार, गुण, दोष, शब्दशक्ति आदि सब कुछ अध्ययन के लिये रख दिया गया है। इससे यह साहित्य की एक सर्वांगपूर्ण ग्रंथ कहा जा सकता है। इसमें हर प्रकार के छंद है। संस्कृत के वर्ण-वृत्तों में बड़ी सुंदर रचना है। यह अत्यंत रोचक और उपादेय ग्रंथ है। कुछ पद्य देखिए––

मुख-ससी ससि दून कला धरे। कि मुकता-गन जावक में भरे।
ललित कुंदकली अनुहारि के। दसन हैं वृषभानु-कुमारि के॥
सुखद जंत्र कि भाल सुहाग के। ललित मंत्र किधौं अनुराग के।
भ्रुकुटियों वृषभानु-सुता लसैं। जनु अनंग-सरासन को हँसें॥
मुकुर तौ पर-दीपति को धनी। ससि कलंकित, राहु-बिथा घनी।
अपर ना उपमा जग में लहैं। तब प्रिया! मुख के सम को कहै?

(५३) ब्रह्मदत्त––ये ब्राह्मण थे और काशीनरेश महाराज उदितनारायण सिंह के छोटे भाई बाबू दीपनारायणसिंह के आश्रित थे। इन्होंने संवत् १८६० 'विद्वद्विलास' और १८६५ में 'दीपप्रकाश' नामक एक अच्छा अलंकार का ग्रंथ बनाया। इनकी रचना सरल और परिमार्जित है। आश्रयदाता की प्रशंसा में यह कवित्त देखिए––

कुसल कलानि में, करनहार कीरति को,
कवि कोविदन को कलप-तरुवर है॥
सील सममान बुद्धि विद्या को निधान ब्रह्म,
मतिमान इसन को मानसरवर है॥
दीपनारायन, अवनीप को अनुज प्यारो,
दीन दुख देखत हरत हरबर है।
गाहक गुनी को, निरबाहक दुनी को नीको,
गनी गज-बकस, गरीबपरवर है॥


(५४) पद्माकर भट्ट––रीतिकाल के कवियों में सहृदय-समाज इन्हें बहुत श्रेष्ठ स्थान देता आता है। ऐसा सर्वप्रिय कवि इस काल के भीतर बिहारी को छोड़ दूसरा नहीं हुआ। इनकी रचना की रमणीयता ही इस सर्वप्रियता का एकमात्र कारण है। रीतिकाल की कविता इनकी और प्रतापसाहि की वाणी द्वारा अपने पूर्ण उत्कर्ष को पहुँचकर फिर हृासोन्मुख हुई। अतः जिस प्रकार ये अपनी परंपरा के परमोत्कृष्ट कवि है उसी प्रकार प्रसिद्धि में अंतिम भी। देश में जैसा इनका नाम गूँजा वैसा फिर आगे चलकर किसी और कवि का नहीं।

ये तैलंग ब्राह्मण थे। इनके पिता मोहनलाल भट्ट का जन्म बाँदे में हुआ था। ये पूर्ण पंडित और अच्छे कवि भी थे जिसके कारण इनका कई राजधानियों में अच्छा समान हुआ था। ये कुछ दिनों तक नागपुर के महाराज रघुनाथराव (अप्पा साहब) के यहाँ रहे, फिर पन्ना के महाराज हिंदूपति के गुरु हुए और कई गाँव प्राप्त किए। वहाँ से ये फिर जयपुर-नरेश महाराजा प्रतापसिंह के यहाँ जा रहे जहाँ इन्हे 'कविराज-शिरोमणि' की पदवी और अच्छी जागीर मिली। उन्हीं के पुत्र सुप्रसिद्ध पद्माकरजी हुए। पद्माकरजी का जन्म संवत् १८१० में बाँदे में हुआ। इन्होंने ८० वर्ष की आयु भोगकर अंत में कानपुर में गंगातट पर संवत् १८९० में शरीर छोड़ा। ये कई स्थानो पर रहे। सुगरा के नोने अर्जुनसिंह ने इन्हें अपना मंत्रगुरु बनाया। संवत् १८४९ में ये गोसाईं अनूपगिरि उपनाम हिम्मत बहादुर के यहाँ गए जो बड़े अच्छे योद्धा थे और पहले बाँदे के नवाब के यहाँ थे, फिर अवध के बादशाह के यहाँ सेना के बड़े अधिकारी हुए थे। इनके नाम पर पद्माकरजी ने "हिम्मत बहादुर विरदावली" नाम की वीररस की एक बहुत ही फड़कती हुई पुस्तक लिखी। संवत् १८५६ में ये सितारे के महाराज रघुनाथराव (प्रसिद्ध राघोबा) के यहाँ गए और एक हाथी, एक लाख रुपया और दस गाँव पाए। इसके उपरांत पद्माकरजी जयपुर के महाराज प्रतापसिंह के यहाँ पहुँचे और वहाँ बहुत दिन तक रहे। महाराज प्रतापसिंह के पुत्र महाराज जगतसिंह के समय में भी ये बहुत काल तक जयपुर रहे और उन्हीं के नाम पर अपना ग्रंथ 'जग द्विनोद' बनाया। ऐसा जान पड़ता है जयपुर में ही इन्होंने अपनी अलंकार को ग्रंथ 'पद्माभरण' बनाया जो दोहों में है। ये एक बार उदयपुर के महाराणा भीमसिंह के दरबार में भी गए थे जहाँ इनका बहुत अच्छा संमान हुआ था। महाराणा साहब की आज्ञा से इन्होंने "गनगौर" के मेले का वर्णन किया था। महाराज जगतसिंह का परलोकवास संवत् १८६० में हुआ। अतः उसके अनंतर ये ग्वालियर के महाराज दौलतराव सिंधिया के दरबार में गए और यह कवित्त पढ़ा––

मीनागढ़ बुंबई सुमंद मंदराज बंग,
बंदर को बंद करि बंदर बसावैगो।

कहै पदमाकर कसकि कासमीर हू को,
पिंजर सों घेरि के कलिंजर छुडावैगो॥
बाँका नृप दौलत अलीजा महाराज कबौं,
सजि दल पकरि फिरंगिन दबावैगो।
दिल्ली दहपट्टि, पटना हू को झपट्ट करि,
कबहूँक लत्ता कलकत्ता को उड़ावैगो॥

सेधिया दरबार में भी इनका अच्छा मान हुआ। कहते है कि वहाँ सरदार ऊदाजी के अनुरोध से इन्होंने हितोपदेश का भाषानुवाद किया था। ग्वालियर से ये बूँदी गए और वहाँ से फिर अपने घर बाँदे में आ रहे। आयु के पिछले दिनों में ये रोगग्रस्त रहा करते थे। उसी समय इन्होंने "प्रबोध-पचासा" नामक विराग और भक्तिरस से पूर्ण ग्रंथ बनाया। अंतिम समय निकट जान पद्माकर जी गंगातट के विचार से कानपुर चले आए और वहीं अपने जीवन के शेष सात वर्ष पूरे किए। अपनी प्रसिद्ध 'गंगालहरी' इन्होंने इसी समय के बीच बनाई थी।

'राम-रसायन' नामक वाल्मीकि रामायण का आधार लेकर लिखा हुआ एक चरित-काव्य भी इनका दोहे चौपाइयों में है पर उसमें इन्हे काव्य संबधिनी सफलता नहीं हुई है। संभव है वह इनका न हो।

मतिरामजी के 'रसराज' के समान पद्माकरजी का 'जगद्विनोद' भी काव्य रसिको और अभ्यासियों दोनों का कंठहार रहा है। वास्तव में यह शृंगाररस का सार-ग्रंथ सा प्रतीत होता है। इनकी मधुर कल्पना ऐसी स्वाभाविक और हावभावपूर्ण मूर्तिविधान करती है कि पाठक मानो प्रत्यक्ष अनुभूति में मग्न हो जाता है। ऐसा सजीव मूर्त्ति-विधान करने वाली कल्पना बिहारी को छोड़ और किसी कवि में नहीं पाई जाती है। ऐसी कल्पना के बिना भावुकता कुछ नहीं कर सकती, या तो वह भीतर ही भीतर लीन हो जाती है अथवा असमर्थ पदावली के बीच व्यर्थ फड़फड़ाया करती है। कल्पना और वाणी के साथ जिस भावुकता का संयोग होता है वही उत्कृष्ट काव्य के रूप से विकसित हो सकती है। भाषा की सब प्रकार की शक्तियों पर इन कवि का अधिकार दिखाई पड़ता है। कहीं तो इनकी भाषा स्निग्ध, मधुर पदावली द्वारा एक सजीव भावभरी प्रेम-मूर्त्ति खड़ी करती है, कहीं भाव या रस की धारा बहाती है, कहीं अनुप्रासों की मिलित झंकार उत्पन्न करती है, कहीं वीरदर्प से क्षुब्ध वाहिनी के समान अकड़ती और कड़कती हुई चलती है और कहीं प्रशांत सरोवर के समान स्थिर और गंभीर होकर मनुष्यजीवन की विश्रांति की छाया दिखाती है। सारांश यह कि इनकी भाषा में वह अनेकरूपता है जो एक बड़े कवि में होनी चाहिए। भाषा की ऐसी अनेकरूपता गोस्वामी तुलसीदासजी में दिखाई पड़ती हैं।

अनुप्रास की प्रवृत्ति तो हिंदी के प्रायः सब कवियों में आवश्यकता से अधिक रही है। पद्माकरजी भी उसके प्रभाव से नहीं बचे है। पर थोड़ा ध्यान देने पर यह प्रवृत्ति इनमें अरुचिकर सीमा तक कुछ विशेष प्रकार के पद्यों में ही मिलेगी जिसमे ये जान बूझकर शब्द-चमत्कार प्रकट करना चाहते थे। अनुप्रास की दीर्घ शृंखला अधिकतर इनके वर्णनात्मक (Descriptive) पद्यों में पाई जाती है। जहाँ मधुर कल्पना के बीच सुंदर कोमल भाव-तरंग का स्पंदन है वहाँ की भाषा बहुत ही चलती, स्वाभाविक और साफ-सुथरी है, वहाँ अनुप्रास भी हैं तो बहुत संयत रूप में। भाव-मूर्त्ति-विधायिनी कल्पना का क्या कहना है? ये ऊहा के बल पर कारीगरी के मजमून बाँधने के प्रयासी कवि न थे, हृदय की सच्ची स्वाभाविक प्रेरणा इनमें थी। लाक्षणिक शब्दों के प्रयोग द्वारा कहीं कहीं ये मन की अव्यक्त भावना को ऐसा मूर्त्तिमान कर देते हैं कि सुननेवालो का हृदय आप से आप हामी भरता है। यह लाक्षणिकता भी इनकी एक बड़ी भारी विशेषता है।

पद्माकरजी की कविता के कुछ नमूने नीचे दिए जाते है––

फागु की भीर, अभीरिन में गहि गोविंदै लै गई भीतर गोरी।
भाई करी मन की पदमाकर, ऊपर नाई अबीर की झोरी॥
छीनि पितंबर कम्मर तें सु बिदा दई भीडि कपोलन रोरी।
नैन नवाय कही मुसुकाय, "लला फिर आइयो खेलने होरी"॥


आई संग आलिनँ के ननद पठाई नीठि,
सोहत सोहाई सीस ईड़री सुपट की।
कहै पदमाकर गँभीर जमुना के तीर,
लागी घट भरन नवेली नेह अटकी॥
ताही समय मोहन जो बाँसुरी बजाई, तामें
मधुर मलार गाई ओर बंसीवट की।
तान लागे लटकी, रही न सुधि घूँघट की,
घर की, न घाट की, न बाट की, न घट की॥


गोकुल के, कुल के, गली के गोप गाँवन के
जौ लगि कछु को कछू भारत भनै नहीं।
कहै पदमाकर परोस पिछवारन के
द्वारन के दौरे गुन औगुन गनै नहीं॥
तौ लौं चलि चातुर सहेली! याही कोद कहूँ
नीके कै निहारैं ताहि, भरत मनै नहीं।
हौं तो स्यामरंग मैं चोराइ चित चोराचोरी॥
बोरत तो बोरयो, पै निचोरत बनै नहीं॥


आरस सों आरत, सँभारत ने सीस-पट,
गजब गुजारति गरीबन की धार पर।
कहै पदमाकर सुरा सों सरसार तैसे,
बिथुरि बिराजै बार हीरन के हार पर॥
छाजत छबीले छिति छहरि छरा के छोर,
भोर उठि आई केलि-मंदिर के द्वार पर।
एक पग भीतर औ एक देहरी पै धरे,
एक कर कज, एक कर है किवार पर॥


मोहिं लखि सोवत बिथोरिनो सुबेनी बनी,
तोरिगो हिए को हार, छोरिंगो सुगैया को।
कहै पदमाकर त्यों घोरिगो घनेरो दुख,
बोरिंगो बिसासी आज लाज ही की नैया को॥
अहित अनैसो ऐसो कौन उपहास? यातें,
सोचन खरीं मैं परी जोवति जुन्हैया को।
बुझिहैं चवैया तब कैहौं कहा, दैया!
इत पारिगो को, मैया! मेरी सेज पै कन्हैया को?


एहो नंदलाल! ऐसी व्याकुल परी है बाल,
हाल ही चलौ तौ चलौ, जोरे जुरि जायगी।
कहै पदमाकर नहीं तौ ये झकोरे लगै,
औरे लौं अचाका बिनु घोरे घुरि जायगी॥
सीरे उपचारन घनेरे घनसारन सों,
देखते ही देखौ दामिनी लौं दुरि जायगी।
तौही लगि चैन जौ लौं चेतिहै न चंदमुखी,
चेलैंगी कहूँ तौ चाँदनी में चुरि जायगी॥


चालो सुनि चंदमुखी चित में सुचैन करि,
तित बन बागन घनेरे अलि धूमि रहै।
कहै पदमाकर मयूर मंजु नाचत है,
चाय सों चकोरनी चकोर चूमि चूमि रहे॥
कदम, अनार, आम, अगर, असोक-थोक,
लतनि समेत लोने लोने लगि भूमि रहे।
फुलि रहे, फलि रहे, फबि रहे, फैलि रहे,
झपि रहे, झलि रहे, झुकि रहे, झुमि रहे॥


तीखे तेगवाही जे सिपाही चढै़ घोड़न पै,
स्याही चढ़ै अमित अरिंदन की ऐल पै।
कहै पदमाकर निसान चढै़ हाथिन पै,
धूरि धार चढ़ै पाकसासन के सैल पै॥
साजि चतुरंग चमू जग जीतिबे के हेतु,
हिम्मत बहादुर चढ़त फर फैल पै।
लाली चढै़ मुख पै, बहाली चढै़ बाहन पै,
काली चढै़ सिंह पै, कपाली चढ़ै बैल पै॥


ऐ ब्रजचंद गोविंद गोपाल! सुन्यों क्यों न एते कलाम किए मैं।
त्यों पदमाकर आनँद के नद हौ, नँदनंदन! जानि लिए मैं॥
माखन चोरी कै खोरिन ह्वै चले भाजि कछु भय मानि जिए मैं।
दूरि न दौरि दुरयो जौ चहौ तौ दुरौ किन मेरे अँधेरे हिए मैं?

(५५) ग्वाल कवि––ये मथुरा के रहने वाले बदीजन सेवाराम के पुत्र थे। ये ब्रजभाषा के अच्छे कवि हुए है। इनका कविताकाल संवत् १८७९ से संवत् १९१८ तक है। अपना पहला ग्रंथ 'यमुना लहरी' इन्होंने संवत् १८७९ में और अंतिम अर्थ 'भक्तभावन' संवत् १९१९ में बनाया। रीतिग्रंथ इन्होंने चार लिखे है––'रसिकानंद’ (अलंकार), 'रसरंग' (संवत् १९०४) कृष्णज को नखशिख (संवत् १८८४) और 'दूषण-दर्पण' (संवत् १८९१)। इनके अतिरिक्त इनके दो ग्रंथ और मिले है––हम्मीर हठ (संवत् १८८१) और गोपी पच्चीसी।

और भी दो ग्रंथ इनके लिखे कहे जाते है––'राधा माधव-मिलन' और 'राधा-अष्टक'। 'कविहृदय-विनोद' इनकी बहुत सी कविताओं का संग्रह है।

रीतिकाल की सनक इनमें इतनी अधिक थी कि इन्हें 'यमुना लहरी' नामक देवस्तुति में भी नवरस शौर् षट्ऋतु सुझाई पड़ी है। भाषा इनकी चलती और व्यवस्थित है। वाग्विदग्धता भी इनके अच्छी है। षट्ऋतुओं का वर्णन इन्होंने विस्तृत किया है, पर वही शृंगारी उद्दीपन के ढंग का। इनके कवित्त लोगो के मुँह से अधिक सुने जाते है जिनसे बहुत से भोग-विलास के अमीरी सामान भी गिनाए गए हैं। ग्वाल कवि ने देशाटन अच्छा किया था और इन्हें भिन्न भिन्न प्रांतो की बोलियों का अच्छा ज्ञान हो गया था। इन्होंने ठेठ पूरबी हिंदी, गुजराती और पंजाबी भाषा में भी कुछ कवित्त सवैए लिखे हैं। फारसी अरबी शब्दों का इन्होंने बहुत प्रयोग किया है। सारांश यह कि ये एक विदग्ध और कुशल कवि थे पर कुछ फक्कड़पन लिए हुए। इनकी बहुत सी कविता बाजारी है। थोड़े से उदाहरण नीचे दिए जाते हैं––

ग्रीषम की गजब धुकी है धूप धाम धाम,
गरमी झुकी है जाम जाम अति तापिनी।
भीजे खस-बीजन झलेहू ना सुखात स्वेद,
गात ना सुहात, बात दावा सी डरापिनी॥
ग्वाल कवि कहै कोरे कुंभन तें कुपन तें,
लै लै जलधार बार बार मुख थापिनी।
जब पियो तब पियो, अब पियो फेरि अब,
पीवत हूँ पीवत मिटै न प्यास पापिनी॥


मोरन के सोरने की नेकौ न मरोर रही,
घोर हू रही न घन घने या फरद की।
अंबर अमल सर सरिता बिमल भल
पंक को न अंक औ न उड़न गरद की॥
ग्वाल कवि चित्त में चकोरने के चैन भए,
पंथिन की दूर भई, दूषन दरद की।
जल पर, थल पर, महल, अचल पर,
चाँदी सी चमकि रही चाँदनी सरद की॥


जाकी खूबखूबी खूब खूबन की खूबी यहाँ,
ताकी खूबखूबी खूबखुबी नभ गाहना।

जाकी बदजाती बदजाती यहाँ चारन में,
ताकी बदजाती बदजाती ह्वाँ उराहना॥
ग्वाल कवि वे ही परसिद्ध सिद्ध जो है जग,
वे ही परसिद्व ताकी यहाँ ह्वाँ सराहना।
जाकी यहाँ चाहना है ताकी वहाँ चाहना है,
जाकी यहाँ चाह ना है ताकी वहाँ चाह ना॥


दिया है खुदा ने खूब खुसी करो ग्वाल कवि,
खाव पियो, देब लेब, यही रह जाना है।
राजा राव उमराव केते बादशाह भए,
कहाँ तें कहाँ को गए, लग्यो न ठिकाना है॥
ऐसी जिंदगानी के भरोसे पै गुमान ऐसे,
देस देस घूमि घूमि मन बहलाना है।
आए परवाना पर चलै ना बहाना, यहाँ,
नेकी कर जाना, फेर आना है न जाना है॥


(५६) प्रतापसाहि––ये रतनसेन बंदीजन के पुत्र थे और चरखारी (बुदेलखंड) के महाराज विक्रमसाहि के यहाँ रहते थे। इन्होंने संवत् १८८२ में "व्यंग्वार्थ-कौमुदी" और संवत् १८८६ में "काव्य-विलास" की रचना की। इन दोनों परम प्रसिद्ध ग्रंथों के अतिरिक्त निम्नलिखित पुस्तकें इनकी बनाई हुई और है––

जयसिंह प्रकाश (सं॰ १८५२), शृंगार-मंजरी (सं॰ १८८९), शृंगार शिरोमणि (सं॰ १८९४), अलंकार-चिंतामणि (सं॰ १८९४), काव्य-विनोद (१८९६), रसराज की टीका (सं॰ १८९६), रत्नचंद्रिका (सतसई की टीका स॰ १८९६), जुगल नखशिख (सीताराम को नखशिख वर्णन), बलभद्र नखशिख की टीका।

इस सूची के अनुसार इनका कविता-काल सं॰ १८८० से १९०० तक ठहरता है। पुस्तकों के नाम से ही इनकी साहित्य-मर्मज्ञता और पांडित्य का अनुमान हो सकता है। आचार्यत्व में इनका नाम मतिराम, श्रीपति और दास के साथ आता है और एक दृष्टि से इन्होंने उनके चलाए हुए कार्य को पूर्णता को पहुँचाया था। लक्षणा व्यंजना के उदाहरणों की एक अलग पुस्तक ही 'व्यंग्यार्थ कौमुदी' के नाम से रची। इसमें कवित्त, दोहे, सवैये मिलाकर १३० पद्य हैं जो सब व्यंजना या ध्वनि के उदाहरण हैं। साहित्यमर्मज्ञ तो बिना कहे ही समझ सकते हैं कि ये उदाहरण अधिकतर वस्तुव्यंजना के ही होंगे। वस्तुव्यंजना को बहुत दूर तक घसीटने पर बड़े चक्करदार ऊहापोह का सहारा लेना पड़ता है और व्यंग्यार्थ तक पहुँच केवल साहित्यिक रूढ़ि के अभ्यास पर अवलंबित रहती है। नायिकाओं के भेदों, रसादि के सब अंगों तथा भिन्न-भिन्न बँधे उपमान का अभ्यास न रखनेवाले के लिए ऐसे पद्य पहेली ही समझिए। उदाहरण के लिए 'व्यंग्यार्थ कौमुदी' का यह सवैया लीजिए––

सीख सिखाई न मानति है, बर ही बस संग सखीन के आवै।
खेलत खेल नए जल में, बिना काम बृथा कत जाम बितावै॥
छोड़ि कै साथ सहेलिन को, रहि कै कहि कौन सवादहि पावै।
कौन परी यह बानि, अरी! नित नीरभरी गगरी ढरकावै॥

सहृदयों की सामान्य दृष्टि में तो वयःसंधि की मधुर क्रीड़ावृत्ति का यह एक परम मनोहर दृश्य है। पर फन में उस्ताद लोगों की ऑंखें एक और ही ओर पहुँचती हैं। वे इसमें से यह व्यंग्यार्थ निकालते हैं-घड़े के पानी में अपने नेत्र का प्रतिबिंब देख उसे मछलियों का भ्रम होता है। इस प्रकार का भ्रम एक अलंकार है। अत: भ्रम या भ्रांति अलंकार, यहाँ व्यंग्य हुआ। और चलिए। 'भ्रम' अलंकार में 'सादृश्य' व्यंग्य रहा करता है अतः अब इस व्यंग्यार्थ पर पहुँचे कि 'नेत्र मीन के समान हैं।' अब अलंकार का पीछा छोड़िए, नायिकाभेद की तरफ आइए। वैसा भ्रम जैसा ऊपर कहा गया है 'अज्ञात यौवना' को हुआ करता है। अतः ऊपर का सवैया अज्ञातयौवना का उदाहरण हुआ। यह इतनी बड़ी अर्थयात्रा रूढ़ि के ही सहारे हुई है। जब तक यह न ज्ञात हो कि कवि-परंपरा में आँख की उपमा मछली से दिया करते है, जब तक यह सब अर्थ स्फुट नहीं हो सकता।

प्रतापसाहीजी‌ का वह कौशल अपूर्व है कि उन्होंने एक रसग्रंथ के अनुरूप नायिकाभेद के क्रम से सब पद्य रखे हैं जिससे उनके ग्रंथ को जी चाहे तो नायिकाभेद का एक अत्यंत सरस और मधुर ग्रंथ भी कह सकते हैं। यदि हम आचार्यत्व और कवित्व दोनों के एक अनूठे संयोग की दृष्टि से विचार करते हैं। तो मतिराम, श्रीपति और दास से ये कुछ बीस ही रहते हैं। इधर भाषा की स्निग्ध सुख-सरल गति, कल्पना की मूर्तिमत्ता और हृदय की द्रवणशीलता मतिराम, श्रीपति और बेनी प्रवीन के मेल में जाती है तो उधर आचार्यत्व इन तीनो से भी और दास से भी कुछ आगे ही दिखाई पड़ता है। इनकी प्रखर प्रतिभा ने मानों पद्माकर के साथ साथ रीतिबद्ध काव्यकला को पूर्णता पर पहुँचाकर छोड़ दिया। पद्माकर की अनुप्रास-योजना कभी भी रुचिकर सीमा के बाहर जा पड़ी है, पर भावुक और प्रवीण की वाणी में यह दोष कही नहीं आने पाया है। इनकी भाषा में बड़ा भारी गुण यह है कि वह बराबर एक समान चलती है––उसमें न कहीं कृत्रिम आडंबर का अड़गा है, न गति का शैथिल्य और न शब्दों की तोड़-मरोड़। हिंदी के मुक्तक-कवियों में समस्यापूर्ति की पद्धति पर रचना करने के कारण एक अत्यंत प्रत्यक्ष दोष देखने में आता है। उनके अंतिम चरण की भाषा तो बहुत ही गँठी हुई, व्यवस्थित और मार्मिक होती है पर शेष तीनों चरणों में यह बात बहुत ही कम पाई जाती है। बहुत से स्थलों पर तो प्रथम तीन चरणों की वाक्यरचना बिल्कुल अव्यवस्थित और बहुत सी पदयोजना निरर्थक होती है। पर 'प्रताप' की भाषा एकरस चलती है। इन सब बातों के विचार से हम प्रतापजी की पद्माकरजी के समकक्ष ही बहुत बड़ा कवि मानते है।

प्रतापजी की कुछ रचनाएँ यहाँ उद्धृत की जाती हैं––

चंचलता अपनी तजि कै रस ही रस सों रस सुंदर पीजियो।
कोऊ कितेक कहै तुमसों तिनकी कही बातन को न पतीजियो॥

चीज चवाइन के सुनियो न यही इक मेरी कही नित कीजियो।
मंजुल मंजरी पैहो, मलिंद! विचारि कै भार सँभारि कै दीजियो॥


तड़पै तडिता चहुँ ओरन तें, छिति छाई समीरन की लहरैं।
मदमाते महा गिरिशृंगन पै गन मंजु मयूरन के कहरैं॥
इनकी करनी बरनी न परै, मगरूर गुमानन सौं गहरैं।
घन ये नभ मंडल में छहरैं, घहरैं कहुँ जाय, कहूँ ठहरैं॥


कानि करै गुरुलोगन की, न सखीन की सीखन ही मन लावति।
एड़ भरी अँगराति खरी, कत घूँघट में नए नैन नचावति॥
मंजन के दृग अंजन आँजति, अंग अनंग-उमंग बढ़ावति।
कौन सुभाव री तेरो परयो, खिन आँगन में खिन पौरि में आवति॥


कहा जानि, मन में मनोरथ विचार कौन,
चेति कौन काज, कौन हेतु उठि आई प्रात।
कहै परताप छिन डोलिवो पगन कहूँ,
अंतर को खोलिबो न बोलिबो हमैं सुहात॥
ननद जिठानी सतरानी, अनखानि अति,
रिस कै रिसानी, सो न हमैं कछू जानी जात।
चाहौ पल बैठी रहौ, चाहौ चठि जाव तौ न,
हमको हमारी परी, बूझै को तिहारी बात?


चंचल चपला चारु चमकत चारों ओर,
झूमि झूमि धुरवा धरनि परसत है।
सीतल समीर लगै दुखद बियौगिन्ह,
सँयोगिन्ह समाज सुखसाज, सरसत है॥
कहैं परताप अति निविड़ अँधेरी माँह,
मारग चलत नाहि नेकु दरसत है।


झुमडि झलानि चहुँ कोद तें उमहि आज,
धाराधर धारन अपार बरसत है॥


महाराज रामराज रावरो सजत दल,
होत मुख अमल अनंदित महेस के।
सेवत दरीन केते गब्बर गनीम रहैं,
पन्नग पताल त्योंही डरन खगेस के॥
कहैं परताप धरा धँसत त्रसत,
कसमसत कमठ-पीठि कठिन कलेस के।
कहरत कोल, दहरत है दिगीस दस,
लहरत सिंधु, थहरत फन सेस के॥

(५७) रसिक गोविंद––ये निबार्क संप्रदाय के एक महात्मा हरिव्यास की गद्दी के शिष्य थे और वृंदावन में रहते थे। हरिव्यासजी की शिष्यपरंपरा में सर्वेश्वरशरण देवजी बड़े भारी भक्त हुए है। रसिकगोविंदजी उन्हीं के शिष्य थे। ये जयपुर (राजपूताना) के रहने वाले और नटाणी जाति के थे। इनके पिता का नाम शालिग्राम, माता का गुमाना, चाचा का मोतीराम और बड़े भाई का बालमुकुंद था। इनका कविता-काल संवत् १८५० से १८९० तक अर्थात् विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से लेकर अंत तक स्थिर होता है। अब तक इनके ९ ग्रंथो का पता चला है––

(१) रामायण सूचनिका––३३ दोहों में अक्षर-क्रम से रामायण की कथा संक्षेप में कही गई है। यह सं॰ १८५८ के पहले की रचना है। इसके ढंग का पता इन दोहों से लग सकता है––

चकित भूप बानी सुनत, गुरु बसिष्ठ समुझाय।
दिए पुत्र तब, ताड़का मग में मारी जाय॥
छाँड़त सर मारिच उड्यो, पुनि प्रभु हत्यो सुबाह।
मुनि मख पूरन, सुमन सुर बरसत अधिक उछाह॥

  1. देखो पृ॰ २७२