हिंदी साहित्य का इतिहास/भक्तिकाल/प्रकरण ४ सगुण धारा/रामभक्ति-शाखा

 

प्रकरण ४
सगुण धारा

रामभक्ति-शाखा

जगत्प्रसिद्ध स्वामी शंकराचार्यजी ने जिस अद्वैतवाद का निरूपण किया था वह भक्ति के सन्निवेश के उपयुक्त न था। यद्यपि उसमें ब्रह्म की व्यावहारिक सगुण सत्ता का भी स्वीकार था, पर भक्ति के सम्यक् प्रसार के लिये जैसे दृढ़ आधार की आवश्यकता थी वैसा दृढ़ आधार स्वामी रामानुजाचार्य्य जी (सं॰ १०७३) ने खड़ा किया। उनके विशिष्टाद्वैतवाद के अनुसार चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म के ही अंश जगत् के सारे प्राणी हैं जो उसी से उत्पन्न होते हैं और उसी में लीन होते है। अतः इन जीवो के लिये उद्धार का मार्ग यही है कि वे भक्ति द्वारा उस अशी का सामीप्य लाभ करने का यत्न करें। रामानुजजी की शिष्य-परंपरा देश में बराबर फैलती गई और जनता भक्तिमार्ग की ओर अधिक आकर्षित होती रही। रामानुजजी के श्री संप्रदाय में विष्णु या नारायण की उपासना है। इस संप्रदाय मे अनेक अच्छे साधु महात्मा बराबर होते गए।

विक्रम की १४वीं शताब्दी के अंत में वैष्णव श्री संप्रदाय के प्रधान आचार्य्य श्री राघवानंद जी काशी में रहते थे। अपनी अधिक अवस्था होते देख वे बराबर इस चिंता में रहा करते कि मेरे उपरांत संप्रदाय के सिद्धात की रक्षा किस प्रकार हो सकेगी। अंत में राघवानंदजी रामानंदजी को दीक्षा प्रदान कर निश्चित हुए और थोड़े दिनों में परलोकवासी हुए। कहते है कि रामानंदजी ने भारतवर्ष का पर्यटन करके अपने संप्रदाय का प्रचार किया।

स्वामी रामानंदजी के समय के संबंध में कहीं कोई लेख न मिलने से हमें उसके निश्चय के लिये कुछ आनुषंगिक बातों का सहारा लेना पड़ता है। वैरागियों की परंपरा में रामानंदजी का मानिकपुर के शेख तकी पीर के साथ वाद-विवाद होना माना जाता है। ये शेख तकी दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोदी के समय में थे। कुछ लोगो का मत है कि वे सिकंदर लोदी के पीर (गुरु) थे और उन्हीं के कहने से उसने कबीर साहब को जंजीर से बाँधकर गंगा में डुबाया था। कबीर के शिष्य धर्मदास ने भी इस घटना का उल्लेख इस प्रकार किया है––

साह सिकंदर जल में बोरे, बहुरि अग्नि परजारे। मैमत हाथी आनि झुकाये, सिंहरूप दिखराये॥
निरगुन कयै, अभयपद गावैं, जीवन को समझाए। काजी पंडित सबै हराए, पार कोउ नहिं पाये॥

शेख तकी और कबीर का संवाद प्रसिद्ध ही है। इससे सिद्ध होता है कि रामानंदजी दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोदी के समय में वर्त्तमान थे। सिकंदर लोदी, संवत् १५४६ से संवत् १५७४ तक गद्दी पर रहा। अतः इन २८ वर्षा के काल-विस्तार के भीतर––चाहे आरंभ की ओर, चाहे अंत की ओर––रामानंदजी का वर्त्तमान रहना ठहरता है।

कबीर के समान सेन भगत भी रामानंदजी के शिष्यों में प्रसिद्ध है। ये सेन भगत बाँधवगढ़-नरेश के नाई थे और उनकी सेवा किया करते थे। ये कौन बाँधवगढ़-नरेश थे, इसका पता 'भक्तमाल-रामरसिकावली' में रीवाँ-नरेश महाराज रघुराजसिंह ने दिया है––

बाँधवगढ़ पूरब जो गायो। सेन नाम नापित तहँ जायो॥
ताकी रहै सदा यह रीती। करत रहै साधुन सों प्रीती॥
तहँ को राजा राम बघेला। बरन्यो जेहि कबीर को चेला॥
करै सदा तिनको सेवकाई। मुकर दिखावे तेल लगाई॥

रीवाँ-राज्य के इतिहास में राजा राम या रामचंद्र का समय संवत् १६११ से १६४८ तक माना जाता है। रामानंदजी से दीक्षा लेने के उपरांत ही सेन पक्के भगत हुए होंगे। पक्के भक्त हो जाने पर ही उनके लिये भगवान् के नाई का रूप धरनेवाली बात प्रसिद्ध हुई होगी। उक्त चमत्कार के समय वे राज-सेवा में थे। अतः राजा रामचंद्र से अधिक से अधिक ३० वर्ष पहले यदि उन्होने दीक्षा ली हो तो संवत् १५७५ या १५८० तक रामानंदजी का वर्त्तमान रहना ठहरता है। इस दशा में स्थूल रूप से उनका समय विक्रम की १५वीं शती के चतुर्थ और १६वीं शती के तृतीय चरण के भीतर माना जा सकता है।

'श्रीरामार्चन-पद्धति' में रामानंदजी ने अपनी पूरी गुरु-परंपरा दी हैं। उसके अनुसार रामानुजाचार्य जी रामानंदजी से १४ पीढ़ी ऊपर थे। रामानुजाचार्यजी का परलोकवास संवत् ११९४ में हुआ। अब १४ पीढ़ियों के लिये यदि हम ३७० वर्ष रखें तो रामानंदजी का समय प्रायः वही आता है। जो ऊपर दिया गया है। रामानंदजी की और कोई वृत्त ज्ञात नहीं है।

तत्त्वत: रामानुजाचार्य के मतावलंबी होने पर भी अपनी उपासनापद्धति का इन्होने विशेष रूप रखा। इन्होने उपासना के लिये बैकुठ-निवासी बिष्णु का स्वरूप न लेकर लोक में लीला-विस्तार करने वाले उनके अवतार राम का आश्रय लिया। इनके इष्टदेव राम हुए और मूलमंत्र हुआ राम-नाम। पर इससे यह न समझना चाहिए कि इसके पूर्व देश में रामोपासक भक्त होते ही न थे। रामानुजाचार्य जी ने जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया उसके प्रवर्त्तक शठकोपाचार्य उनसे पाँच पीढ़ी पहले हुए है। उन्होने अपनी 'सहस्रगीति' में कहा है––"दशरथस्य सुत तं बिना अन्यशरणवान्नास्मि"। श्री रामानुज के पीछे उनके शिष्य कुरेश स्वामी हुए जिनकी "पंचस्तवी" में राम की विशेष भक्ति स्पष्ट झलकती है। रामानंदजी ने केवल यह किया कि विष्णु के अन्य रूपो में 'रामरूप' को ही लोक के लिये अधिक कल्याणकारी समझ छाँट लिया और एक सबल सप्रदाय का संगठन किया। इसके साथ ही साथ उन्होनें उदारतापूर्वक मनुष्य मात्र को इस सुलभ सगुण भक्ति का अधिकारी माना और देशभेद, वर्णभेद, जातिभेद आदि का विचार भक्तिमार्ग से दूर रखा। यह बात उन्होने सिद्बों या नाथ पंथियों की देखादेखी नही की, बल्कि भगवद्भक्ति के संबंध में महाभारत, पुराण आदि में कथित सिद्धांत के अनुसार की। रामानुज संप्रदाय से दीक्षा केवल द्विजातियों को दी जाती थी, पर स्वामी रामानंद ने राम-भक्ति का द्वार सब जातियों के लिये खोल दिया और एक उत्साही विरक्त दल का संघटन किया जो आज भी 'वैरागी' के नाम से प्रसिद्ध है। अयोध्या, चित्रकूट आदि आज भी वैरागियों के मुख्य स्थान हैं। भक्ति-मार्ग में इनकी इस उदारता का अभिप्राय यह कदापि नहीं है––जैसा कि कुछ लोग समझा और कहा करते हैं––कि रामानंदजी वर्णाश्रम के विरोधी थे। समाज के लिये वर्ण और आश्रम की व्यवस्था मानते हुए वे भिन्न भिन्न कर्त्तव्यों की योजना स्वीकार करते थे। केवल उपासना के क्षेत्र में उन्होंने सब को समान अधिकार स्वीकार किया। भगवद्भक्ति में वे किसी भेदभाव को आश्रय नहीं देते थे। कर्म के क्षेत्र में शास्त्र-मर्यादा इन्हें मान्य थी; पर उपासना के क्षेत्र में किसी प्रकार का लौकिक प्रतिबंध ये नही मानते थे। सब जाति के लोगों को एकत्र कर राम-भक्ति का उपदेश ये करने लगे और राम-नाम की महिमा सुनाने लगे।

रामानंदजी के ये शिष्य प्रसिद्ध है––कबीरदास, रैदास, सेन नाई और गाँगरौनगढ़ के राजा पीपा, जो विरक्त होकर पक्के भक्त हुए।

रामानंदजी के रचे हुए केवल दो संस्कृत के ग्रंथ मिलते है––वैष्णवमताब्ज भास्कर और श्रीरामार्चन-पद्धति। और कोई ग्रंथ इनका आज तक नहीं मिला है।

इधर साप्रदायिक झगड़े के कारण कुछ नए ग्रंथ रचे जाकर रामानंदजी के नाम से प्रसिद्ध किए गए हैं––जैसे, ब्रह्मसूत्रों पर आनंद भाष्य और भगवद्गीताभाष्य––जिनके संबंध में सावधान रहने की आवश्यकता है। बात यह है कि कुछ लोग रामानुज-परंपरा से रामानंदजी की परंपरा को बिल्कुल स्वतंत्र और अलग सिद्ध करना चाहते हैं। इसी से रामानंदजी को एक स्वतंत्र आचार्य प्रमाणित करने के लिये उन्होंने उनके नाम पर एक वेदांत भाष्य प्रसिद्ध किया हैं। रामानंदजी समय समय पर विनय और स्तुति के हिंदी पद भी बनाकर गाया करते थे। केवल दो-तीन पदों का पता अब तक लगा है। एक पद तो यह हैं जो हनुमान् जी की स्तुति में हैं––

आरति कीजै हनुमान चला की। दुष्टदलन रघुनाथ कला की॥
जाके बल-भर ते महि काँपे। रोग सोग जाकी सिमा न चाँपै॥
अंजनी-सुत महाबल-दायक। साधु संत पर सदा सहायक॥
बाएँ भुजा सा असुर सँहारी। दहिन भुजा सब संत उबारी॥
लछिमन वरति में मूर्छि परयो। पैठि पताल जमकातर तरओ॥

आनि सजीवन प्रान उबारयो। मही सब्रत कै भुजा उपारयो॥
गाढ़ परे कपि सुमिरों तोही। होहु दयाल देहु जस मोही॥
लंकाकोट समुंदर खाई। जात पवनसुत बार न लाई॥
लंक प्रजारि असुर सच मारयो। राजा राम के काज सँवारयो॥
घंटा ताल झालरी बाजै। जगमग जोति अवधपुर छाजै॥
जो हनुमानजी की आरति गावै। बसि बैंकुंठ अरमपद पावै॥
लंक बिधंस कियौ रघुराई। रामानंद आरती गाई॥
सुर नर मुनि सब करहिं आरती। जै जै जै हनुमान लाल की॥

स्वामी रामानंद का कोई प्रामाणिक वृत्त न मिलने से उनके संबंध में कई प्रकार के प्रवादों के प्रचार का अवसर लोगो को मिला है। कुछ लोगों का कहना है कि रामानद जी अद्वैतियो के ज्योतिर्मठ के ब्रह्मचारी थे। इस संबंध में इतना ही कही जा सकता है कि यह संभव है कि उन्होंने ब्रह्मचारी रहकर कुछ दिन उक्त मठ से वेदांत का अध्ययन किया हो, पीछे रामानुजाचार्य के सिद्धांतों की ओर आकर्षित हुए हैं।

दूसरी बात तो उनके संबंध में कुछ लोग इधर-उधर कहते सुने जाते है। वह यह है कि उन्होंने बारह वर्ष तक गिरनार या आबू पर्वत पर योग-साधना करके सिद्धि प्राप्त की थी। रामानंदजी के जो दो ग्रंथ प्राप्त हैं तथा उनके संप्रदाय में जिस ढंग की उपासना चली आ रही है उससे स्पष्ट है कि वे खुलें हुए विश्व के बीच भगवान की कला की भावना करने वाले विशुद्ध वैष्णव भक्तिमार्ग के अनुयायी थे, घट के भीतर ढूँढ़।ने वाले योगमार्गी नहीं। इसलिये योग-साधनावाली प्रसिद्धि का रहस्य खोलना आवश्यक है।

भक्तमाल में रामानंदजी के बारह शिष्य कहे गए है––अनंतानंद, सुखानंद, सुरसुरानंद, नरहर्यानंद, भावानंद, पीपा, कबीर, सेन, धना, रैदास, पद्मावती और सुरसुरी।

अनंतानंदजी के शिष्य कृष्णदास पयहारी हुए जिन्होंने गलता (अजमेर राज्य, राजपूताना) में रामानंद संप्रदाय की गद्दी स्थापित की। यही पहली और सबसे प्रधान गद्दी हुई। रामानुज संप्रदाय के लिये दक्षिण में जो महत्त्व तोताद्रि को था वही महत्व रामानंदी संप्रदाय के लिये उत्तर-भारत में गलता को प्राप्त हुआ। वह 'उत्तर तोताद्रि' कहलाया। कृष्णदास पयहारी राजपूताने की ओर के दाहिमा (दाधीच्य) ब्राह्मण थे। जैसा कि आदिकाल के अंतर्गत दिखाया जा चुका है, भक्ति-आदोलन के पूर्व, देश में––विशेषतः राजपूताने में––नाथपंथी कनफटे योगियों का बहुत प्रभाव था जो अपनी सिद्धि की धाक जनता पर जमाए रहते थे[]। जब सीधे-सादे वैष्णव भक्तिमार्ग का आंदोलन देश में चला तब उसके प्रति दुर्भाव रखना उनके लिये स्वाभाविक था। कृष्णदास पयहारी जब पहले-पहल गलता पहुँचे तब, वहाँ की गद्दी नाथपंथी योगियों के अधिकारी में थी। वे रात भर टिकने के विचार से वहीं धूनी लगाकर बैठ गए। पर कनफटो ने उन्हें उठा दिया। ऐसा प्रसिद्ध है कि इसपर पयहारीजी ने भी अपनी सिद्धि दिखाई और वे धूनी के आग एक कपड़े में उठाकर दूसरी जगह जा बैठे। यह देख योगियों का महंत बाघ बनकर उनकी ओर झपटा। इस पर पयहारीजी के मुँह से निकला कि "तू कैसा गदहा है?"। वह महंत तुरंत गदहा हो गया और कनफटों की मुद्राए उनके कानो से निकल निकलकर पयहारी जी के सामने इकट्ठी हो गई। आमेर के राजा पृथ्वीराज के बहुत प्रार्थना करने पर महंत फिर आदमी बनाया गया। उसी समय राजा पयहारीजी के शिष्य हो गए और गलता की गद्दी पर रामानंदजी वैष्णवों का अधिकार हुआ।

नाथपंथी योगियों के कारण जनता के हृदय में योग-साधना और सिद्धि के प्रति आस्था जमी हुई थी। इससे पयहारीजी की शिष्य परंपरा में योग-साधना का भी कुछ समावेश हुआ। पयहारीजी के दो प्रसिद्ध शिष्य हुए––अग्रदास और कील्हदास। इन्हीं कील्हदास की प्रवृत्ति रामभक्ति के साथ साथ योगाभ्यास की ओर भी हुई जिससे रामानंदजी की वैरागी-परंपरा की एक शाखा में योगसाधना का भी समावेश हुआ। यह शाखा वैरागियों में 'तपसी शाखा' के नाम से प्रसिद्ध हुई। कील्हदास के शिष्य द्वारकादास ने इस शाखा को और पल्लवित किया। उनके संबंध में भक्तमाल में ये वाक्य है––

'अष्टांग जोग तन त्यागियो द्वारकादास, जानै दुनी'

जब कोई शाखा चल पड़ती है तब आगे चलकर अपनी प्राचीनता सिद्ध करने के लिये वह बहुत सी कथाओ का प्रचार करती है। स्वामी रामानंदजी के बारह वर्ष तक योग-साधना करने की कथा इसी प्रकार की है जो बैरागियो की 'तपसी शाखा' में चली। किसी शाखा की प्राचीनता सिद्ध करने का प्रयत्न कथाओं की उद्भावना तक ही नहीं रह जाता। कुछ नए ग्रंथ भी संप्रदाय के मूल प्रवर्त्तक के नाम से प्रसिद्ध किए जाते हैं। स्वामी रामानंदजी के नाम से चलाए हुए ऐसे दो रद्दी ग्रंथ हमारे पास हैं––एक का नाम है योग-चिंतामणि; दूसरे का रामरक्षा-स्तोत्र। दोनों के कुछ नमूने देखिए––

(१)

विकट कटक रे भाई। कायां चढा न जाई।
जहँ नाद बिंदु का हाथी। सतगुर ले चले साथी।
जहाँ है अष्टदल कमल फूला। हसा सरोवर में भूला।
शब्द तो हिरदय बसे, शब्द नयनों बसे,
शब्द की महिमा चार बेद गाई।
कहै गुरु रामानंद जी, सतगुर दया करि मिलिया,
सत्य का शब्द सुनु रे भाई।
सुरत-नगर करै सयल। जिसमें है आत्मा का महल॥

––योगचिंतामणि से।

(२)

संध्या तारिणी सर्वदुःख-विदारिणी।

संध्या उच्चरै विघ्न टरै। पिंड प्राण कै रक्षा श्रीनाथ निरंजन करै। नाद नाद सुषुम्ना के साल साज्या। चाचरी, भूचरी, खेचरी, अगोचरी, उनमनी पाँच मुद्रा सधत साधुराजा।

डरे डूंगरे जले और थेले बाटे घाटे औघट निरंजन निराकार रक्षा करे। बाध बाधिनी का करो मुख काला। चौंसठ जोगिनी मारि कुटका किया, अखिल ब्रह्मांड तिहुँलोक में दुहाई फिरिबा करै। दास रामानंद ब्रहा चीन्हा, सोइ निज तत्त्व ब्रह्मज्ञानी।

––रामरक्षा-स्तोत्र से।

झाड़-फूँक के काम के ऐसे ऐसे स्तोत्र भी रामानंदजी के गले मढ़े गए है! स्तोत्र के आरंभ में जो 'संध्या' शब्द है, नाथपंथ से उसका पारिभाषिक अर्थ है––'सुपुम्ना नाड़ी की संधि में प्राण का जाना।' इसी प्रकार 'निरंजन' भी गोरखपंथ मे उस ब्रह्म के लिये एक रूढ़ शब्द है जिसकी स्थिति वहाँ मानी गई है जहाँ नाद और बिंदु दोनों का लय हो जाता है––

नादकोटि सहस्राणि बिन्दुकोटि शतानि च। सर्वे तत्र लयं यान्ति यत्र देवो निरजनः॥

'नाद' और 'बिंदु' क्या है, यह नाथपंथ के प्रसंग में दिखाया जा चुका है[]

सिखों के 'ग्रंथ-साहब' में भी निर्गुण उपासना के दो पद रामानंद के नाम के मिलते हैं। एक यह है––

कहाँ जाइए हो घरि लागो रंग। मेरो चंचल मन भयो अपंग॥
जहाँ जाइए तहँ जल पषान। पूरि रहे हरि सब समान॥
वेद स्मृति सब मेल्हे जोइ। जहाँ जाइए हरि इहाँ न होई॥
एक बार मन भयो उमंग। घसि चोवा चंदन वारि अंग॥
पूजत चाली ठाइँ ठाइँ। सो ब्रह्म बतायो गुरु आप माइँ॥
सतगुर मैं बलिहारी तोर। सकल विकल भ्रम जारे मोर॥
रामानंद रमै एक ब्रह्म। गुरु कै एक सबद काटै कोटि क्रम्म॥

इस उद्वरण से स्पष्ट है कि ग्रंथ-साहब में उद्धत दोनों पद भी वैष्णव भक्त रामानंदजी के नहीं है; और किसी रामानंद के हों तो हो सकते हैं।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, वास्तव में रामानंदजी के केवल दो संस्कृत ग्रंथ ही आज तक मिले है। 'वैष्णव-मताब्जभास्कर' में रामानंदजी के शिष्य सुरसुरानंद ने नौ प्रश्न किए हैं जिनके उत्तर में रामतारकं मंत्र की विस्तृत व्याख्या, तत्वोपदेश, अहिंसा का महत्त्व, प्रपत्ति, वैष्णवों की दिनचर्या, षोडशोपचार पूजन इत्यादि विषय हैं।

अर्चावतारों के चार भेद––स्वयंव्यक्त, दैव, सैद्व और मानुष––करके कहा गया है कि वे प्रशस्त देशों (अयोध्या, मथुरा आदि) में श्री सहित सदा यह पदावली अँगरेजी-समीक्षा-क्षेत्र में प्रचलित The True, the Good and the Beautiful का अनुवाद है, जिसका प्रचार पहले पहल ब्रह्मोसमाज में, फिर बँगला और हिंदी की आधुनिक समीक्षाओं में हुआ, यह हम अपने 'काव्य में रहस्यवाद' के भीतर दिखा चुके है।

यह बात अवश्य है कि 'गोसाई चरित्र' में जो वृत्त दिए गए हैं, वे अधिकतर वे ही है जो परंपरा से प्रसिद्ध चले आ रहे है।

गोस्वामीजी का एक और जीवन-चरित, जिसकी सूचना मर्यादा पत्रिका की ज्येष्ठ १९६९ की संख्या में श्रीयुत इंद्रदेव नारायणजी ने दी थी, उनके एक दूसरे शिष्य महात्मा रघुवरदासजी का लिखा 'तुलसी-चरित' कहा जाता है। यह कहाँ तक प्रामाणिक है, नहीं कहा जा सकता। दोनो चरितो के वृत्तातों में परस्पर बहुत कुछ विरोध है। बाबा बेनीमाधवदास के अनुसार गोस्वामीजी के पिता जमुना के किनारे दुबे पुरवा नामक गाँव के दूबे और मुखिया थे और इनके पूर्वज पत्यौजा ग्राम से यहाँ आए थे। पर बाबा रघुबरदास के 'तुलसीचरित' में लिखा है कि सरवार में मझौली से तेईस कोस पर कसया ग्राम में गोस्वामीजी के प्रपितामह परशुराम मिश्र––जो गाना के मिश्र थे––रहते थे। वे तीर्थाटन करते करते चित्रकूट पहुँचे और उसी ओर राजापुर में बस गए। उनके पुत्र शंकर मिश्र हुए। शंकर मिश्र के रुद्रनाथ मिश्र और रुद्रनाथ मिश्र के मुरारि मिश्र हुए जिनके पुत्र तुलाराम ही आगे चलकर भक्त चूड़ामणि गोस्वामी तुलसीदासजी हुए।

दोनों चरितों में गोस्वामीजी का जन्म संवत् १५५४ दिया हुआ है। बाबा बेनीमाधवदास की पुस्तक में तो श्रावण शुक्ला सप्तमी तिथि भी दी हुई है। पर इस संवत् को ग्रहण करने से तुलसीदासजी की आयु १२६-१२७ वर्ष आती है। जो पुनीत आचरण के महात्माओं के लिये असंभव तो नहीं कही जा सकती। शिवसिंहसरोज में लिखा है कि गोस्वामीजी संवत् १५८३ के लगभग उत्पन्न हुए थे। मिरजापुर के प्रसिद्ध रामभक्त और रामायणी पं॰ रामगुलाम द्विवेदी भक्तों की जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म संवत्, १५८९ मानते थे। इसी सबसे पिछले संवत् को ही डा॰ ग्रियर्सन ने स्वीकार किया है। इनका सरयूपारी ब्राह्मण होना तो दोनों चरितों में पाया जाता है, और सर्वमान्य है। "तुलसी परासर गोत दुबे पतिऔजा के" यह वाक्य भी प्रसिद्ध चला आता है और पंडित रामगुलाम ने भी इसका समर्थन किया है। उक्त प्रसिद्धि के अनुसार गोस्वामीजी के पिता का नाम आत्माराम दूबे और माता का नाम हुलसी था। माता के नाम के प्रमाण मे रहीम का यह दोहा कहा जाता है––

सुरतिय, नरतिय, नागतिय, सब चाहति अस होय।
गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सी सुत होय॥

तुलसीदासजी ने कवितावली में कहा है कि "मातु पिता जग जाइ तज्यो विधिहू न लिख्यों कछु भाले भलाई।" इसी प्रकार विनयपत्रिका में भी ये वाक्य है––"जनक जननी तज्यो जनमि, करम बिनु बिधिहु सृज्यो अवडेरे" तथा "तनुजन्यो कुटिल कीट ज्यों, तज्यो मातु पिता हू"। इन वचनों के अनुसार यह जनश्रुति चल पड़ी कि गोस्वामीजी अभुक्तमूल में उत्पन्न हुए थे, इससे उनके माता पिता ने उन्हे त्याग दिया था। उक्त जनश्रुति के अनुसार गोसाई चरित्र में लिखा है कि गोस्वामीजी जब उत्पन्न हुए तब पाँच वर्ष के बालक के समान थे और उन्हें पूरे दाँत भी थे। वे रोए नहीं, केवल 'राम' शब्द उनके मुँह से सुनाई पड़ा। बालक को राक्षस समझ पिता ने उसकी उपेक्षा की। पर माता ने उसकी रक्षा के लिये उद्विग्न होकर उसे अपनी एक दासी मुनिया को पालने पोसने का दिया और वह उसे लेकर अपनी ससुराल चली गई। पाँच वर्ष पीछे जब मुनिया भी मर गई तब राजापुर में बालक के पिता के पास संवाद भेजा गया पर उन्होंने बालक लेना स्वीकार न किया। किसी प्रकार बालक का निर्वाह कुछ दिन हुआ। अंत में बाबा नरहरिदास ने उसे अपने पास रख लिया और शिक्षा-दीक्षा दी। इन्हीं गुरु से गोस्वामीजी रामकथा सुना करते थे। इन्हीं अपने गुरु बाबा नरहरिदास के साथ गोस्वामीजी काशी में आकर पंचगंगा घाट पर स्वामी रामानंदजी के स्थान पर रहने लगे। वहाँ पर एक परंम विद्वान् महात्मा शेषसनातनजी रहते थे जिन्होंने तुलसीदासजी को वेद, वेदांत, दर्शन, इतिहास-पुराण आदि में प्रवीण कर दिया। १५ वर्ष तक अध्ययन करके गोस्वामीजी, फिर अपनी जन्मभूमि राजापुर को लौटे; पर वहाँ इनके परिवार में कोई नहीं रह गया था और घर भी गिर गया था। निवास करते हैं। जातिभेद, क्रिया-कलाप आदि की अपेक्षा न करने वाले भगवान् की शरण में सबको जाना चाहिए––

प्राप्तु परा सिद्धिमकिंचनो जनो-द्विजादिच्छंछरणं हरिं ब्रजेत्।
परम दयालु स्वगुणानपेक्षितक्रियाकलापादिकजातिभेदम्॥


गोस्वामी तुलसीदासजी––यद्यपि स्वामी रामानंदजी की शिष्य परंपरा के द्वारा देश के बड़े भाग में रामभक्ति की पुष्टि निरंतर होती आ रही थी। और भक्त लोग फुटकल पदो में राम की महिमा गाते आ रहे थे पर हिंदी साहित्य के क्षेत्र में इस भक्ति का परमोज्ज्वल प्रकाश विक्रम की १७वी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में गोस्वामी तुलसीदासजी की वाणी द्वारा स्फुरित हुआ। उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा ने भाषा-काव्य की सारी प्रचलित पद्धतियों के बीच अपना चमत्कार दिखाया। सारांश यह कि रामभक्ति का वह परम विशद साहित्यिक संदर्भ इन्ही भक्त-शिरोमणि द्वारा संघटित हुआ जिससे हिंदी-काव्य की प्रौढ़ता के युग का आरंभ हुआ।

'शिवसिंह-सरोज' में गोस्वामीजी के एक शिष्य बेनीमाधवदास कृत 'गोसाई चरित्र' का उल्लेख है। इस ग्रंथ का कहीं पता न था। पर कुछ दिन हुए सहसा यह अयोध्या से निकल पड़ा। अयोध्या में एक अत्यंत निपुण दल है जो लुप्त पुस्तकों और रचनाओं को समय समय पर प्रकट करता रहता है। कभी नंददास कृत तुलसी की वंदना का पद प्रकट होता है जिसमें नंददास कहते है––

श्रीमत्तुलसीदास स्वगुरु भ्राता-पद बंदे।
**
नंददास के हृदय-नयन को खोलेउ सोई॥

कभी सूरदासजी द्वारा तुलसीदास जी की स्तुति का यह पद प्रकाशित होता है––

धन्य भाग्य मम संत सिरोमनि चरन-कमल तकि आयउँ।

दया-दृष्टि तें मम दिसि हेरेउ, तत्त्व-स्वरूप लखायो।
कर्म उपासन-ज्ञान-जनित भ्रम संसय-मूल नसायो॥

[]

इस पद के अनुसार सूरदास का 'कर्म-उपासन-ज्ञान-जनित भ्रम' बल्लभाचार्यजी ने नहीं, तुलसीदासजी ने दूर किया था। सूरदासजी तुलसीदासजी से अवस्था में बहुत बड़े थे और उनसे पहले प्रसिद्ध भक्त हो गए थे, यह सब लोग जानते है।

ये दोनों पद 'गोसाई चरित्र' के मेल में है, अतः मैं इन सब का उद्गम एक ही समझता हूँ। 'गोसाई चरित्र' में वर्णित बहुत सी बाते इतिहास के सर्वथा विरुद्ध पड़ती है, यह बा० माताप्रसाद गुप्त अपने कई लेखों में दिखा चुके हैं। रामानंदजी की शिष्य-परंपरा के अनुसार देखें तो भी तुलसीदास के गुरु का नाम नरहर्यानंद और नरहर्यानंद के गुरु का नाम अनंतानद (प्रिय शिष्य अनंतानंद हते। नरहर्यानंद सुनाम छते) असंगत ठहरता है। अनतानंद और नरहर्यानंद दोनो रामानंदजी के बारह शिष्यों में थे। नरहरिदास को अलबत कुछ लोग अनंतानंद की शिष्य कहते हैं, पर भक्तमाल के अनुसार अनंतानंद के शिष्य श्रीरंग के शिष्य थे। गिरनार में योगाभ्यासी सिद्ध रहा करते हैं, 'तपसी शाखा' की यह बात भी गोसाई-चरित्र में आ गई है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि तिथि, बार आदि ज्योतिष की गणना से बिलकुल ठीक मिलाकर तथा तुलसी के संबंध में चली आती हुई सारी जन-श्रुतियों का समन्वय करके सावधानी के साथ इसकी रचना हुई है, पर एक ऐसी पदावली इसके भीतर चमक रही है जो इसे बिल्कुल आजकल की रचना घोषित कर रही हैं। यह है 'सत्यं, शिवं, सुंदरम्'। देखिए––

देखिन तिरषित दृष्टि तें सब जने, कीन्ही सही संकरम् ।
दिव्याषर सों लिख्यो, पढैं धुनि सुने, सत्यं शिवं सुंदरम्॥

यमुना पार के एक ग्राम के रहनेवाले भारद्वाज गोत्री एक ब्राह्यण यमद्वितीया को राजापुर में स्नान करने आए। उन्होंने तुलसीदासजी की विद्या, विनय और शील पर मुग्ध होकर अपनी कन्या इन्हें व्याह दी। इस पत्नी के उपदेश से गोस्वामीजी का विरक्त होना और भक्ति की सिद्धि प्राप्त करना प्रसिद्ध है। तुलसीदासजी अपनी इस पत्नी पर इतने अनुरक्त थे कि एक बार उसके मायके चले जाने पर वे बढ़ी नदी पार करके उससे जाकर मिले। स्त्री ने उस समय ये दोहे कहे––

लाज न लागत आपको दौरे आयहु साथ। धिक धिक ऐसे प्रेम को कहा कहौं मैं नाथ॥
अस्थि-चर्म-मय देह मम तामै जैसी प्रीति। तैसी जौ श्रीराम महँ होति न तौ भवभीति॥

यह बात तुलसीदासजी को ऐसी लगी कि वे तुरंत काशी आकर विरक्त हो गए। इस वृत्तात को प्रियादासजी ने भक्तमाल की अपनी टीका में दिया हैं। और 'तुलसी चरित्र' और 'गोसाई चरित्र' में भी इसका उल्लेख है।

गोस्वामीजी घर छोड़ने पर कुछ दिन काशी में, फिर काशी से अयोध्या जाकर रहे। उसके पीछे तीर्थयात्रा करने निकले और जगन्नाथपुरी, रामेश्वर, द्वारका होते हुए बदरिकाश्रम गए। वहाँ से ये कैलास और मानसरोवर तक निकल गए। अंत में चित्रकूट आकर ये बहुत दिनों तक रहे जहाँ अनेक संतों से इनकी भेंट हुई। इसके अनतर संवत् १६३१ में अयोध्या जाकर इन्होने रामचरितमानस का आरंभ किया और उसे २ वर्ष ७ महीने में समाप्त किया। रामायण का कुछ अंश, विशेषतः किष्किंधाकांड, काशी में रचा गया। रामायण समाप्त होने पर ये अधिकतर काशी में ही रहा करते थे। वहाँ अनेक शास्त्रज्ञ विद्वान् इनसे आकर मिला करते थे क्योंकि इनकी प्रसिद्धि सारे देश में हो चुकी थी। ये अपने समय के सबसे बड़े भक्त और महात्मा माने जाते थे। कहते है कि उस समय के प्रसिद्ध विद्वान् मधुसूदन सरस्वती से इनसे वाद हुआ। था जिससे प्रसन्न होकर उन्होनें इनकी स्तुति में यह श्लोक कहा था––

आनंदकानने कश्चिज्जङ्गमस्तुल्सीतरुः। कवितामंजरी यस्य रामभ्रमरभूषिता॥

गोस्वामीजी के मित्रों और स्नेहियों में नवाब अब्दुर्रहीम खानखाना, महाराज मानसिंह, नाभाजी और मधुसूदन सरस्वती आदि कहे जाते है। 'रहीम' से इनसे समय समय पर दोहों में लिखा-पढ़ी हुआ करती थी। काशी में इनके सबसे बड़े स्नेही और भक्त भदैनी के एक भूमिहार जमींदार टोडर थे जिनकी मृत्यु पर इन्होंने कई दोहे कहें हैं––

चार गाँव को ठाकुरो मन को महामहीप। तुलसी या कलिकाल में अथए टोडर दीप॥
तुलसी रामसनेह सिर पर भारी भारु। टोडर काँवा नहिं दियो, सब कहि रहे 'उतारु'॥
रामधाम टोडर गए, तुलसी भए असोच। जियबो प्रीत पुनीत बिनु, यहै जानि संकोच॥

गोस्वामीजी की मृत्यु के संबंध में लोग यह दोहा कहा करते हैं––

संवत् सोरह सै असी, असी गंग के तीर। श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर॥

पर बाबा बेनीमाधवदास की पुस्तक में दूसरी पंक्ति इस प्रकार हैं या कर दी गई है––

श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो शरीर॥

यह ठीक तिथि हैं क्योंकि टोडर के वंशज अब तक इसी तिथि को गोस्वामी जी के नाम सीधा दिया करते हैं।

'मैं पुनि निज गुरु सन सुनी, कथा सो सूकर खेत' को लेकर कुछ लोग गोस्वामी जी का जन्मस्थान ढूँढ़ने एटा जिले के सोरो नामक स्थान तक सीधे पच्छिम दौड़े हैं। पहले पहल उस ओर इशारा स्व० लाला सीताराम ने (राजापुर के) अयोध्याकांड के स्व-संपादित संस्करण की भूमिका में दिया था। उसके बहुत दिन पीछे उसी इशारे पर दौड़ लगी और अनेक प्रकार के कल्पित प्रमाण सोरों को जन्मस्थान सिद्ध करने के लिये तैयार किए गए। सारे उपद्रव की जड़ है 'सूकर खेत' जो भ्रम से सोरो समझ लिया गया। 'सूकर छेत्र' गोंडे के जिले में सरजू के किनारे एक पवित्र तीर्थ है, जहाँ आसपास के कई जिलों के लोग स्नान करने जाते हैं और मेला लगता है।

जिन्हें भाषा की परख है उन्हें यह देखते देर न लगेगी कि तुलसीदासजी की भाषा में ऐसे शब्द, जो स्थान-विशेष के बाहर नहीं बोले जाते है, केवल दो स्थानो के है––चित्रकूट के आसपास के और अयोध्या के आसपास के। किसी कवि की रचना में यदि किसी स्थान-विशेष के भीतर ही बोले जाने वाले अनेक शब्द मिले तो उस स्थान-विशेष से कवि का निवास-संबंध मानना चाहिए। इस दृष्टि से देखने पर यह बात मन में बैठ जाती हैं कि तुलसीदास का जन्म राजापुर में हुआ जहाँ उनकी कुमार अवस्था बीती। सरवरिया होने के कारण उनके कुल के तथा संबंधी अयोध्या, गोंडा, बस्ती के आसपास थे, जहाँ उनका आना-जाना बराबर रहा करता था‌। विरक्त होने पर वे अयोध्या में ही रहने लगे थे। 'रामचरितमानस' में आए हुए कुछ शब्द और प्रयोग नीचे दिए जाते है जो अयोध्या के आसपास ही (बस्ती, गोंडा आदि के कुछ भागों में) बोले जाते है––

माहुर=विष। सरौं=कसरत; फहराना या फरहराना=प्रफुल्लचित्त होना (सरौं करहिं पायक फहराई)। फुर=सच। अनभल ताकना=बुरा मानना (जेहि राउर अति अनभल ताका)। राउर, रउरेहि=आपको (भलउ कहत दुख रउरेहि लागा)। रमा लहीं=रमा ने पाया (प्रथम पुरुष, स्त्री॰, बहुवचन; उ॰––भरि जनम जे पाए न ते परितोष उमा रमा लही)। कूटि=दिल्लगी, उपहास।

इसी प्रकार ये शब्द चित्रकूट के आसपास तथा बघेलखंड में ही (जहाँ की भाषा पूरबी हिंदी या अवधी ही है) बोले जाते हैं––

कुराय=वे गड्ढे जो करेल (पोली जमीन) में बरसात के कारण जगह-जगह पड़ जाते है (काँच कुराय लपेटन लोटन ठाँवहिं ठाँव बझाऊ रे।––विनय॰)।

सुआर=सूपकार, रसोइया।

ये शब्द और प्रयोग इस बात का पता देते है कि किन-किन स्थानों की बोली गोस्वामीजी की अपनी थी। आधुनिक काल के पहले साहित्य या काव्य की सर्वमान्य व्यापक भाषा ब्रज ही रही है, यह तो निश्चित है। भाषा-काव्य के परिचय के लिये प्रायः सारे उत्तर भारत के लोग बराबर इसका अभ्यास करते थे और अभ्यास द्वारा सुंदर रचना भी करते थे। ब्रजभाषा में रीतिग्रंथ लिखनेवाले चिंतामणि, भूषण, मतिराम, दास इत्यादि अधिकतर कवि अवध के थे और ये ब्रजभाषा के सर्वमान्य कवि माने जाते हैं। दासजी ने तो स्पष्ट व्यवस्था ही दी है कि 'ब्रजभाषा हेतु ब्रजवास ही न अनुमानौ'। पर पूरबी हिंदी या अवधी के संबंध में यह बात नहीं है। अवधी भाषा में रचना करने वाले जितने कवि हुए है सब अवध या पूरब के थे। किसी पछाहीं कवि ने कभी पूरबी हिंदी या अवधी पर ऐसा अधिकार प्राप्त नहीं किया कि उसमे रचना कर सके। जो बराबर सोरों को पछाहीं बोली (ब्रज) बोलता आया होगा वह 'जानकीमंगल' और 'पार्वतीमंगल' की सी ठेठ अवधी लिखेगा, 'मानस' ऐसे महाकाव्य की रचना अवधी मे करेगा और व्याकरण के ऐसे देशबद्ध प्रयोग करेगा जैसे ऊपर दिखाए गए हैं? भाषा के विचार में व्याकरण के रूपों का मुख्यतः विचार होता है।

भक्त लोग अपने को जन्म-जन्मांतर से अपने आराध्य इष्टदेव का सेवक मानते हैं। इसी भावना के अनुसार, तुलसी और सूर दोनों ने कथा-प्रसंग के भीतर अपने को गुप्त या प्रकट रूप में राम और कृष्ण के समीप तक पहुँचाया हैं। जिस स्थल पर ऐसा हुआ है वहीं कवि के निवासस्थान का पूरा संकेत भी है। 'रामचरितमानस' के अयोध्याकांड में वह स्थल देखिए जहाँ प्रयाग से चित्रकूट जाते हुए राम जमुना पार करते है और भरद्वाज के द्वारा साथ लगाए हुए शिष्यों को विदा करते है। राम-सीता तट पर के लोगों से बातचीत कर ही रहे हैं कि––

तेहि अवसर एक तापस आवा। तेजपुंज लघु बयस सुहावा॥
कवि अलषित-पति वेष बिरागी। मन क्रम बचन राम-अनुरागी॥

सजल नयन तन पुलक निज इष्ट देउ, पहिचानि।
परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि॥

यह तापस एकाएक आता है। कब जाता है, कौन है, इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है। बात यह है कि इस ढंग से कवि ने अपने को ही तापस रूप में राम के पास पहुँचाया है और ठीक उसी प्रदेश में जहाँ के वे निवासी थे, अर्थात् राजापुर के पास।

सूरदास ने भी भक्तों की इस पद्धति का अवलंबन किया है। यह तो निर्विवाद है कि वल्लभाचार्यजी से दीक्षा लेने के उपरांत सूरदासजी गोवर्द्धन पर श्रीनाथजी के मंदिर में कीर्तन किया करते थे। अपने सूरसागर के दशम स्कंध के आरंभ में सूरदास ने श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये अपने को ढाढी के रूप से नंद के द्वार पर पहुँचाया है––

नंद जु! मेरे मन आनंद भयो, हौं गोवर्द्धन तें आयो।
तुम्हरे पुत्र भयो मैं सुनि कै अति आतुर उठि धायो॥
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जब तुम मदनमोहन करि टेरौ, यह सुनि कै घर जाउँ।
हौं तौ तेरे घर को ढाढी, सूरदास मेरो नाउँ॥

सब का सांराश यह कि तुलसीदास का जन्मस्थान राजापुर जो प्रसिद्ध चला आता है, वही ठीक है।

एक बात की ओर और ध्यान जाता है। तुलसीदासजी रामानंद-संप्रदाय की बैरागी परंपरा में नहीं जान पड़ते। उक्त संप्रदाय के अतंर्गत जितनी शिष्य परपराएँ मानी जाती है उनमें तुलसीदासजी का नाम कही नहीं है। रामानंद परंपरा से संमिलित करने के लिये उन्हे नरहरिदास का शिष्य बताकर जो परंपरा मिलाई गई हैं, वह कल्पित प्रतीत होती हैं। वे रामोपासक-वैष्णव अवश्य थे, पर स्मार्त्त वैष्णव थे।

गोस्वामीजी के प्रादुर्भाव को हिंदी-काव्य के क्षेत्र में एक चमत्कार समझना चाहिए। हिंदी-काव्य की शक्ति का पूर्ण प्रसार इनकी रचनाओं में हीं पहले पहल दिखाई पडा। वीरगाथा-काल के कवि अपने संकुचित क्षेत्र में काव्य-भाषा के पुराने रूप को लेकर एक विशेष शैली की परंपरा निभाते आ रहे थे। चलती भाषा का संस्कार और समुन्नति उनके द्वारा नहीं हुई। भक्तिकाल में आकर भाषा के चलते रूप को समाश्रय मिलने लगा। कबीरदास ने चलती बोली में अपनी वाणी कही। पर वह बोली बेठिकाने की थी। उसका कोई नियत रूप न था। शौरसेनी अपभ्रंश या नागर अपभ्रंश का जो सामान्य रूप साहित्य के लिये स्वीकृत था उससे कबीर का लगाव न था। उन्होंने नाथपंथियो की 'सधुक्कडी भाषा' का व्यवहार किया जिसमे खड़ी बोली के बीच राजस्थानी और पंजाबी का मेल था। इसका कारण यह है कि मुसलमानों की बोली पंजाबी या खड़ी बोली हो गई थी और निर्गुणपंथी साधुओं का लक्ष्य मुसलमानों पर भी प्रभाव डालने का था। अतः उनकी भाषा में अरबी और फारसी के शब्दों का भी मनमाना प्रयोग मिलता है। उनका कोई साहित्यक लक्ष्य न था और वे पढ़े लिखे लोगों से दूर ही दूर अपना उपदेश सुनाया करते थे।

साहित्य की भाषा में, जो वीरगाथा-काल के कवियों के हाथ में बहुत कुछ अपने पुराने रूप में ही रही, प्रचलित भाषा के संयोग से नया जीवन सगुणोंपासक कवियों द्वारा प्राप्त हुआ। भक्तवर सूरदासजी ब्रज की चलती भाषा को परंपरा से चली आती हुई काव्यभाषा के बीच पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित करके साहित्यिक भाषा को लोकव्यवहार के मेल में लाए। उन्होने परंपरा से चली आती हुई काव्य-भाषा का तिस्कार न करके उसे एक नया चलता रूप दिया। सूरसागर को ध्यानपूर्वक देखने से उसमें क्रिया के कुछ पुराने रूप, कुछ सर्वनाम (जैसे, जासु-तासु, जेहि-तेहि) तथा कुछ प्राकृत के शब्द पाए जायेंगे। सारांश यह कि वे परंपरागत काव्य-भाषा को बिलकुल अलग करके एकबारगी नई चलती बोली लेकर नहीं चले। भाषा का एक शिष्ट-सामान्य रूप उन्होंने रखा जिसका व्यवहार आगे चलकर बराबर कविता में होता आया। यह तो हुई ब्रजभाषा की बात है इसके साथ ही पूरबी बोली या अवधी भी साहित्य-निर्माण की ओर अग्रसर हो चुकी थी। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अवधी की सबसे पुरानी रचना ईश्वरदास की 'सत्यवती कथा' है[]। आगे चलकर 'प्रेममार्गी शाखा' के मुसलमान कवियों ने भी अपनी कहानियों के लिये अवधी भाषा ही चुनी। इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने समय में काव्य-भाषा के दो रूप प्रचलित पाए––एक ब्रज और दूसरी अवधी। दोनों में उन्होंने समान अधिकार के साथ रचनाएँ कीं।

भाषा-पद्य के स्वरूप को लेते हैं तो गोस्वामीजी के सामने कई शैलियाँ प्रचलित थीं जिनमें से मुख्य ये हैं––(क) वीरगाथा-काल की छप्पय पद्धति, (ख) विद्यापति और सूरदास की गीत-पद्धति, (ग) गंग आदि भाटो की कवित्त-सवैया-पद्धति, (घ) कबीरदास की नीति-सबधी बानी की दोहा-पद्धति जो अपभ्रंश काल से चली आती थी, और (ड) ईश्वरदास की दोहे-चौपाई वाली प्रबंध-पद्धति। इस प्रकार काव्य-भाषा के दो रूप और रचना की पाँच मुख्य शैलियाँ साहित्यक्षेत्र में गोस्वामीजी को मिलीं। तुलसीदासजी के रचना-विधान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा के बल से सबके सौंदर्य की पराकाष्ठा अपनी दिव्य वाणी में दिखाकर साहित्यक्षेत्र में प्रथम पद के अधिकारी हुए। हिंदी कविता के प्रेमी मात्र जानते हैं कि उनका ब्रज और अवधी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। ब्रजभाषा का जो माधुर्य हम सूरसागर में पाते हैं वही माधुर्य और भी संस्कृत रूप में हम गीतांवली और कृष्णगीतावली में पाते हैं। ठेठ अवधी की जो मिठास हमें जायसी की पदमावत में मिलती है। वही जानकीमंगल, पार्वतीमगंल, बरवारामायण और रामललानहछू में हम पाते हैं। यह सूचित करने की आवश्यकता नहीं कि न तो सूर का अवधी पर अधिकार था और न जायसी का ब्रजभाषा पर।

प्रचलित-रचना-शैलियों पर भी उनका इसी प्रकार का पूर्ण अधिकार हम पाते हैं।

(क) वीर-गाथा काल की छप्पय पद्धति पर इनकी रचना थोड़ी है, पर इनकी निपुणता पूर्ण रूप से प्रदर्शित करती है; जैसे––

कतहुँ विटप भूधर उपारि परसेन बरक्खत। कतहुँ बाजि सों बाजि मर्दि गजराज करक्खत॥
चरन चोट चटकन चकोट अरि उर सिर बज्जत। बिकट कटक विद्दरत वीर वारिद जिमि गज्जत॥

लंगूर लपेटत पटकि भट,'जयति राम जय' उच्चरत।
तुलसीदास पवननंदन अटल जुद्ध क्रुद्ध कौतुक करत॥

डिगति उर्वि अति गुर्वि, सर्व पब्वै समुद्रसर। व्याल बधिर तेहिं काल, बिकल दिगपाल चराचर॥
दिग्गयद लरखरत, परत दसकंठ मुक्ख भर। सुरविमान हिमभानु, संघटित होत परस्पर॥

चौके विरंचि सकर सहित, कोल कमठ अहि कलमल्यौ।
ब्रह्यंड खंड कियो चंढ धुनि,जबहिं राम सिवधनु दल्यौ॥

(ख) विद्यापति और सूरदास की गीत-पद्धति पर इन्होंने बहुत विस्तृत और बड़ी सुंदर रचना की है। सूरदासजी की रचना में संस्कृत की 'कोमल कांत पदावली' और अनुप्रासों की वह विचित्र योजना नहीं है जो गोस्वामीजी की रचना में हैं। दोनों भक्त-शिरोमणियों की रचना में यह भेद ध्यान देने योग्य है। और इसपर ध्यान अवश्य जाता है। गोस्वामीजी की रचना अधिक संस्कृतगर्भित है पर इसका यह अभिप्राय नहीं है कि इनके पदों में शुद्ध देशभाषा का माधुर्य नहीं है। इन्होंने दोनों प्रकार की मधुरता का बहुत ही अनूठा मिश्रण किया है। विनयपत्रिका के प्रारंभिक स्तोत्रों में जो संस्कृत पदविन्यास हैं। उसमें गीतगोविंद के पदविन्यास से इस बात की विशेषता है कि वह विषम है और रस के अनुकूल, कहीं कोमल और कहीं कर्कश देखने में आता है। हृदय के विविध भावों की व्यंजना गीतावली के मधुर पदों में देखने योग्य है। कौशल्या के सामने भरत अपनी आत्मग्लानि की व्यंजना किन शब्दों में करते हैं, देखिए––

जौ हौं मातु मते महँ ह्वै हौं।
तौं जननी जग में या मुख की कहाँ कालिमा ध्वैहौं?
क्यौं हौं आजु होत सुचि सपथनि, कौन मानिहै साँची?
महिमा-मृगी कौन सुकृती की खल बच बिसिपन्ह बाँची?

इसी प्रकार चित्रकूट में राम के सम्मुख जाते हुए भरत की दशा का भी सुंदर चित्रण है––

विलोके दूरि तें दोउ वीर।
मन अगहुँड तन पुलक सिथिल भयो, नयन-नलिन भरे नीर।
गड़त गोड़ मनो सकुच पंक महँ, कढ़त प्रेमबल धीर॥

'गीतावली' की रचना गोस्वामीजी ने सूरदासजी के अनुकरण पर की है। बाललीला के कई एक पद ज्यों के त्यों सूरसागर में भी मिलते है, केवल 'राम','श्याम' का अंतर है। लंकाकांड तक तो कथा की अनेकरूपता के अनुसार मार्मिक स्थलों का जो चुनाव हुआ है वह तुलसी के सर्वथा अनुरूप है। पर उत्तरकांड में जाकर सूर-पद्धति के अतिशय अनुकरण के कारण उनका गंभीर व्यक्तित्व तिरोहित सा हो गया है। जिस रूप में राम को उन्होंने सर्वत्र लिया है, उसका भी ध्यान उन्हें नहीं रह गया है। 'सूरसागर' में जिस प्रकार गोपियों के साथ श्रीकृष्ण हिंडोला झूलते हैं, होली खेलते हैं, वही करते राम भी दिखाए गए है। इतना अवश्य है कि सीता की सखियों और पुरनारियों का राम की और पूज्यभाव ही प्रगट होता है। राम की नख-शिख शोभा का अलंकृत वर्णन भी सूर की शैली पर बहुत से पदो में लगातार चला गया है। सरयूतट के इस आनंदोत्सव को आगे चलकर रसिक लोग क्या रूप देंगे, इसका ख्याल गोस्वामीजी को न रहा।

(ग) गंग आदि भाटों की कवित्त-सवैया-पद्धति पर भी इसी प्रकार सारा रामचरित गोस्वामीजी कह गए है जिसमें नाना रसों का सन्निवेश अत्यंत विशद रूप में और अत्यंत पुष्ट और स्वच्छ भाषा में मिलता है। नाना रसमयी रामकथा तुलसीदासजी ने अनेक प्रकार की रचनाओं में कही है। कवितावली में रसानुकूल शब्द-योजना बड़ी सुंदर है। जो तुलसीदासजी ऐसी कोमल भाषा का व्यवहार करते है––

राम को रूप निहारत जानकि, कंकन के नग की परिछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही, पल डारतिं नाहीं॥



गोरो गरूर गुमान भरो यह, कौसिक, छोटो सो ढोटो है काको?



जल को गए लक्खन, है लरिको, परिखौं, पिय, छाँह घरीक ह्वै ठाढें।
पोंछि पसेउ वयारि करौं, अरु पायँ पखारिहौं भूभुरि डाढें॥

वे ही वीर और भयानक के प्रसंग में ऐसी शब्दावली का व्यवहार करते है––

प्रबल प्रचंड बरिबंड बाहुदंड वीर,
धाए जातुधान, हनुमान लियो घेरिकै।
महाबल पुंज कुंजरारि ज्यों गरजि भट,
जहाँ तहाँ पटके लँगूर फेरि फेरिकै॥
मारे लात, तोरे गात, भागे जात, हाहा खात,
कहैं तुलसीस "राखि राम की सौं" टेरिकै।
ठहर ठहर परे, कहरि कहरि उठै,
हहरि हहरि हर, सिद्ध हँसे हेरिकै॥


बालधी बिसाल बिकराल ज्वाल लाल मानौ,
लक लीलिबे को काल रसना पसारी है।
कैधौं व्योम-वीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
वीररस वीर तरवारि सी उधारी है॥

(घ) नीति के उपदेश की सूक्तिपद्धति पर बहुत से दोहे रामचरितमानस और दोहावली में मिलेंगे जिनमें बड़ी मार्मिकता से और कहीं कहीं बड़े रचनाकौशल से व्यवहार की बातें कही गई हैं और भक्ति प्रेम की मर्यादा दिखाई गई है।

रीझि आपनी बूझि पर, खीझि विचार-विहीन। ते उपदेस न मानहीं, मोह-महोदधि मीन॥
लोगन भलो मनाव जो, भलो होन की आस। करत गगन को गेंडुआ, सो सठ-तुलसीदास॥
की तोहि लागहि राम प्रिय, की तु राम-प्रिय होइ। दुइ महँ रुचै जो सुगम सोइ कीबे तुलसी तोहि॥

(ङ) जिस प्रकार चौपाई दोहे के क्रम से जायसी ने अपना पदमावत नाम का प्रबंधकाव्य लिखा उसी क्रम पर गोस्वामीजी ने अपना परम प्रसिद्ध काव्य रामचरितमानस, जो लोगों के हृदय को हार बनता चला आता है, रचा। भाषा वही अवधी है, केवल पद-विन्यास का भेद है। गोस्वामीजी शास्त्र-पारगत विद्वान् थे अतः उनकी शब्द-योजना साहित्यिक और संस्कृत-गर्भित है। जायसी में केवल ठेठ अवधी का माधुर्य है, पर गोस्वामीजी की रचना में संस्कृत की कोमल पदावली का भी बहुत ही मनोहर मिश्रण है। नीचे दी हुई कुछ चौपाइयों में दोनों की भाषा का भेद स्पष्ट देखा जा सकता है––

जब हुँत कहिगा पंखि सँदेसी। सुनिउँ कि आवा है परदेसी॥
तब हुँत तुम्ह बिनु रहै न जीऊ। चातक भइउँ कहत पिउ पीऊ॥
भइउँ बिरह जरि कोइलि कारी। डार डार जो कूकि पुकारी॥

––जायसी

अमियमूरिमय चूरन चारू। समन सकल भवरुज परिवारू॥
सुकृतसंभु तनु विमल विभूती। मजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन-मन-मंजु-मुकुर-मल-हरनी। किए तिलक गुन-गन-बस-करनी॥

––तुलसी

सारांश यह कि हिंदी काव्य की सब प्रकार की रचनाशैली के ऊपर गोस्वामीजी ने अपना ऊँचा शासन प्रतिष्ठित किया है। यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं।

अब हम गोस्वामीजी के वर्णित विषय के विस्तार का विचार करेंगे। यह विचार करेगे कि मानव-जीवन की कितनी अधिक दशाओ का सन्निवेश उनकी कविता के भीतर है। इस संबंध में हम यह पहले ही कह देना चाहते हैं कि अपने दृष्टिविस्तार के कारण ही तुलसीदासजी उत्तरी भारत की समग्र जनता के हृदय-मंदिर में पूर्ण प्रेम-प्रतिष्ठा के साथ विराज रहे हैं। भारतीय जनता का प्रतिनिधि कवि यदि किसी को कह सकते हैं तो इन्ही महानुभाव को। और कवि जीवन का कोई एक पक्ष लेकर चले हैं––जैसे, वीरकाल के कवि उत्साह को; भक्तिकाल के दूसरे कवि प्रेम और ज्ञान को; अलंकार-काल के कवि दांपत्य प्रणय या शृंगार को। पर इनकी वाणी की पहुँच मनुष्य के सारे भावों और व्यवहारों तक है। एक ओर तो वह व्यक्तिगत साधना के मार्ग में विरागपूर्ण शुद्ध भगवद्भक्ति का उपदेश करती है, दूसरी शोर लोकपक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्त्तव्यों का सौंदर्य दिखाकर मुग्ध करती है। व्यक्तिगत साधना के साथ ही साथ लोकधर्म की अत्यंत उज्ज्वल छटा उसमें वर्त्तमान है।

पहले कहा जा चुका है कि निर्गुण-धारा के संतों की बानी में किस प्रकार लोकधर्म की अवहेलना छिपी हुई थी। सगुण-धारा के भारतीय पद्धति के भक्तों में कबीर, दादू आदि के लोकधर्म-विरोधी स्वरूप को यदि किसी ने पहचाना। तो गोस्वामीजी ने। उन्होंने देखा कि उनके वचनों से जनता की चित्तवृत्ति में ऐसे घोर विकार की आशंका है जिससे समाज विशृंखल हो जायगा, उसकी मर्यादा नष्ट हो जायगी। जिस समाज से ज्ञानसंपन्न शास्त्रज्ञ विद्वानों, अन्याय और अत्याचार के दमन में तत्पर वीरों, पारिवारिक कर्त्तव्यों का पालन करने वाले उच्चाशय व्यक्तियों, पति-परायणा सतियों, पितृभक्ति के कारण अपना सुखसर्वस्व त्यागनेवाले सत्पुरुषों, स्वामी की सेवा में मर मिटनेवाले सच्चे सेवकों, प्रजा का पुत्रवत् पालन करनेवाले शासकों आदि के प्रति श्रद्धा और प्रेम का भाव उठ जायगा उसका कल्याण कदापि नहीं हो सकता। गोस्वामीजी को निर्गुण-पंथियों की बानी में लोकधर्म की उपेक्षा का भाव स्पष्ट दिखाई पड़ा। साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि बहुत से अनधिकारी और अशिक्षित वेदांत के कुछ चलते शब्दों को लेकर, बिना उनका तात्पर्य समझे, यों ही 'ज्ञानी' बने हुए, मूर्ख जनता को लौकिक कर्त्तव्यों से विचलित करना चाहते है और मूर्खता-मिश्रित अहंकार की वृद्वि कर रहे है। इसी दशा को लक्ष्य करके उन्होंने इस प्रकार के वचन कहे हैं––

श्रुति सम्मत हरिभक्तिपथ सजुत विरति विवेक।
नहि परिहरहिं विमोहबस, कल्पहिं पंथ अनेक॥
साखी सबदी दोहरा कहि कहनी उपखान।
भगति निरूपहिं भगत कलि निंदहिं वेद पुरान॥
बादहिं शूद्र द्विजन सन हम तुमतें कछु घाटि।
जानहि ब्रह्म सो बिप्रवर, आँखि देखावहिं डाटि॥

इसी प्रकार योगमार्ग से भक्तिमार्ग का पार्थक्य गोस्वामीजी ने बहुत स्पष्ट शब्दों में बताया है। योगमार्ग ईश्वर को अंतस्थ मानकर अनेक प्रकार की अतस्साधनाओं में प्रवृत्त करता हैं। सगुण भक्तिमार्गी ईश्वर को भीतर और बाहर सर्वत्र मानकर उनकी कला का दर्शन खुले हुए व्यक्त जगत् के बीच करता है। वह ईश्वर को केवल मनुष्य के क्षुद्र घट के भीतर ही नहीं मानता। इसी से गोस्वामीजी कहते हैं––

अंतर्जामिहु तें बड़ बाहिरजामी हैं राम, जो नाम लिए तें।
पैज परे प्रहलादहु को प्रगटे प्रभु पाहन तें, न हिंए तें॥

'घट के भीतर' कहने से गुह्य या रहस्य की धारणा फैलती है जो भक्ति के सीधे स्वाभाविक मार्ग में बाधा डालती है। घट के भीतर साक्षात्कार करने की बात कहने वाले प्रायः अपने को गूढ रहस्यदर्शी प्रकट करने के लिये सीधी सादी बात को भी रूपक बाँधकर-और टेढ़ी पहेली बनाकर कहा करते हैं। पर इस प्रकार के दुराव-छिपाव की प्रवृत्ति को गोस्वामीजी भक्ति का विरोधी मानते है। सरलता या सीधेपन को वे भक्ति का नित्य लक्षण कहते हैं––मन की सरलता, वचन की सरलता और कर्म की सरलता, तीनों को––

सूबे मन, सूधे बचन, सूधी सब करतूति। तुलसी सूधी सकल बिधि, रघुवर-प्रेम-प्रसूति॥

वे भक्ति के मार्ग को ऐसा नहीं मानते जिसे 'लखै कोइ बिरलै'। वे उसे ऐसा सीधासादा स्वाभाविक मार्ग बताते हैं जो सबके सामने दिखाई पड़ता है। वह संसार में सबके लिये ऐसा ही सुलभ है जैसे अन्न और जल––

निगम अगम, साहब सुगम, राम साँचिली चाह।
अबु असन अवलोकियत सुलभ सबहि जग मोह॥

अभिप्राय यह कि जिस हृदय से भक्ति की जाती है वह सबके पास है। हृदय की जिस पद्धति से भक्ति की जाती है वह भी वही है जिससे माता-पिता की भक्ति, पुत्र-कलत्र का प्रेम किया जाता है। इसी से गोस्वामी जी चाहते हैं कि––

यहि जग महँ जहँ लगि या तन की प्रीति-प्रतीति सगाई।
सो सब तुलसीदास प्रभु ही सों होहु सिमिटि इक ठाई॥

नाथपंथी रमते जोगियों के प्रभाव से जनता अंधी भेड़ बनी हुई तरह-तरह की करामतों को साधुता का चिह्न मानने लगी थी और ईश्वरोन्मुख साधना को कुछ बिरले रहस्यदर्शी लोगों का ही कामे समझने लगी थी। जो हृदय सबके पास होता है वही अपनी स्वाभाविक वृत्तियों द्वारा भगवान् की ओर लगाया जा सकता है, इस बात पर परदा-सा डाल दिया गया था। इससे हृदय रहते भी भक्ति का सच्चा स्वाभाविक मार्ग लोग नहीं देख पाते थे। यह पहले कहा जा चुका है कि नाथपंथ का हठयोग-मार्ग हृदयपक्ष-शून्य है[]। रागात्मिक वृत्ति से उसका कोई लगाव नहीं। अतः रमते जोगियों की रहस्यभरी बानियँ सुनते सुनते जनता के हृदय में भक्ति की सच्ची भावना दब गई थी, उठने ही नहीं पाती थी। लोक की इसी दशा को लक्ष्य करके गोस्वामीजी को कहना पड़ा था कि––

गोरख जगायों जोग, भगति भगायो लोग।

गोस्वामीजी की भक्ति-पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वागपूर्णता। जीवन के किसी पक्ष को सर्वथा छोड़कर वह नही चलती है। सब पक्षों के साथ उसका सामंजस्य् है। न उसका कर्म या धर्म से विरोध है, न ज्ञान से। धर्म तो उसका नित्य लक्षण है। तुलसी की भक्ति को धर्म और ज्ञान दोनों की रसानुभूति कह सकते है। योग का भी उसमें समन्वय है, पर उतने ही का जितना ध्यान के लिये, चित्त को एकाग्र करने के लिये आवश्यक है।

प्राचीन भारतीय भक्तिमार्ग के भीतर भी उन्होंने बहुत सी बढ़ती हुई बुराइयों को रोकने का प्रयत्न किया। शैवों और वैष्णवों के बीच बढ़ते हुए विद्वेष को उन्होंने अपनी सामंजस्य-व्यवस्था द्वारा बहुत कुछ रोका जिसके कारण उत्तरीय भारत में वह वैसा भयंकर रूप में धारण कर सका जैसा उसने दक्षिण में किया। यहीं तक नहीं, जिस प्रकार उन्होंने लोकधर्म और भक्तिसाधना को एक में संमिलित करके दिखाया उसी प्रकार कर्म, ज्ञान और उपासना के बीच भी सामजस्य उपस्थित किया। 'मानस' के बालकांड में संत-समाज का जो लंबा रूपक है, वह इस नाते को स्पष्ट रूप में सामने लाता है। भक्ति की चरम सीमा पर पहुँचकर भी लोकपक्ष उन्होंने नहीं छोड़ा। लोकसंग्रह का भाव उनकी भक्ति का एक अंग था। कृष्णोपासक भक्तों में इस अंग की कमी थी। उनके बीच उपास्य और उपासक के संबंध की ही गूढ़ातिगूढ़ व्यंजना हुई; दूसरे प्रकार के लोक-व्यापक नाना संबंधों के कल्याणकारी सौंदर्य की प्रतिष्ठा नहीं हुई। यही कारण है कि इनकी भक्ति-रस भरी वाणी जैसी मंगलकारिणी मानी गई वैसी और किसी की नहीं। आज राजा से रंक तक के घर में गोस्वामीजी का रामचरितमानस विराज रहा है और प्रत्येक प्रसंग पर इनकी चौपाइयाँ कहीं जाती हैं।

अपनी सगुणोपासना का निरूपण गोस्वामीजी ने कई ढंग से किया है। रामचरितमानस में नाम और रूप दोनो को ईश्वर की उपाधि कहकर वे उन्हें उसकी अभिव्यक्ति मानते हैं––

नाम रूप दुह ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥
नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाखी॥

दोहावली में भक्ति की सुगमता बड़े ही मार्मिक ढंग से गोस्वामीजी ने इस दोहे के द्वारा सूचित की है––

की तोहि लागहिं राम प्रिय, की तु राम-प्रिय होहि।
दुई मँह रुचै जो सुगम होइ, कीबे तुलसी तोहि॥

इसी प्रकार रामचरितमानस के उत्तरकांड में उन्होंने ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को कहीं अधिक सुसाध्य और आशुफलदायिनी कहा है।

रचना-कौशल, प्रबंध-पटुता, सहृदयता इत्यादि सब गुणों का समाहार हमें रामचरित मानस में मिलता है। पहली बात जिसपर ध्यान जाता है, वह हैं। कथा-काव्य के सब अवयवो का उचित समीकरण। कथा-काव्य या प्रबंध-काव्य के भीतर इतिवृत्त, वस्तु-व्यापार-वर्णन, भावव्यंजना और संवाद, ये अवयव होते है। न तो अयोध्यापुरी की शोभा, बाललीला, नखशिख, जनक की वाटिका, अभिषेकोत्सव इत्यादि के वर्णन बहुत लंबे होने पाए है, न पात्रों के संवाद, न प्रेम शोक आदि भावों की व्यंजना। इतिवृत्त की शृंखला भी कहीं से टूटती नहीं है।

दूसरी बात है कथा के मार्मिक स्थलों की पहचान। अधिक विस्तार हमें ऐसे ही प्रसंगों का मिलता है जो मनुष्य मात्र के हृदय को स्पर्श करनेवाले है––जैसे, जनक की वाटिका में राम-सीता का परस्पर दर्शन, रामवनगमन, दशरथमरण, भरत की आत्मग्लानि, वन के मार्ग में स्त्री-पुरुषो की सहानुभूति, युद्ध, लक्ष्मण को शक्ति लगना, इत्यादि।

तीसरी बात है प्रसंगानुकूल भाषा। रसों के अनुकूल कोमल-कठोर पदों की योजना तो निर्दिष्ट रूढ़ि ही है। उसके अतिरिक्त गोस्वामीजी ने इस बात का भी ध्यान रखा है कि किस स्थल पर विद्वानों या शिक्षितों की संस्कृत-मिश्रित भाषा रखनी चाहिए और किस स्थल पर ठेठ बोली। घरेलू प्रसंग समझकर कैकेयी और मंथरा के संवाद में उन्होले ठेठ बोली और स्त्रियों में विशेष चलते प्रयोगों का व्यवहार किया है। अनुप्रास की ओर प्रवृत्ति तो सब रचनाओं में स्पष्ट लक्षित होती है।

चौथी बात है शृंगार रस का शिष्ट-मर्यादा के भीतर बहुत ही व्यंजक वर्णन।

जिस धूमधाम से 'मानस' की प्रस्तावना चली हैं उसे देखते ही ग्रंथ के महत्त्व का आभास मिल जाता है। उससे साफ झलकता है कि तुलसीदासजी अपने ही तक दृष्टि रखनेवाले भक्त न थे, संसार को भी दृष्टि फैलाकर देखनेवाले भक्त थे। जिस व्यक्त जगत् के बीच उन्हे भगवान् के राम-रूप की कला का दर्शन कराना था, पहले चारो ओर दृष्टि दौड़ाकर उसके अनेक रूपात्मक स्वरूप को उन्होंने सामने रखा हैं। फिर उसके भले-बुरे पक्षों की विषमता देख-दिखाकार अपने मन का यह कहकर समाधान किया है––

सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग-जलधि अगाधू॥

इसी प्रस्तावना के भीतर तुलसी ने अपनी उपासना के अनुकूल विशिष्टाद्वैत सिद्धात का भी आभास यह कहकर दिया––

सिया-राम-मय सब जग जानी। करौं प्रनाम जोरि जुग पानी॥

जगत् को केवल राममय न कहकर उन्होंने 'सिया-राम-मय' कहा है। सीता, प्रकृतिस्वरूपा हैं और राम ब्रह्म है; प्रकृति अचित् पक्ष है और ब्रहा चित् पक्ष। अतः पारमार्थिक सत्ता चिदचिद्विशिष्ट है, यह स्पष्ट झलकता है। चित् और अचित् वस्तुतः एक ही हैं, इसका निर्देश उन्होंने

गिरा अर्थ, जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न।
बंदौ सीता-राम-पद जिनहिं परम प्रिय खिन्न॥


कहकर किया है।

'रामचरितमानस' के भीतर कहीं-कहीं घटनाओं के थोड़े ही हेर-फेर तथा स्वकल्पित संवादों के समावेश के अतिरिक्त अपनी ओर से छोटी-मोटी घटनाओं या प्रसगों की नई कल्पना तुलसीदासजी ने नहीं की हैं। 'मानस' में उनका ऐसा न करना तो उनके उद्देश्य के अनुसार बहुत ठीक है। राम के प्रामाणिक चरित द्वारा वे जीवन भर बना रहने वाला प्रभाव उत्पन्न करना चाहते थे, और काव्यों के समान केवल अल्पस्थायी रसानुभूति मात्र नहीं। 'ये प्रसंग तो केवल तुलसी द्वारा कल्पित हैं', यह धारणा उन प्रसंगों का कोई स्थायी प्रभाव श्रोंताओं या पाठकों पर न जमने देती। पर गीतावली तो प्रबंध-काव्य न थी । उसमें तो सूर के अनुकरण पर वस्तु-व्यापार-वर्णन का बहुत विस्तार हैं। उसके भीतर छोटे छोटे नूतन प्रसंगों की उद्भावना को पूरा अवकाश था, फिर भी कल्पित घटनात्मक प्रसंग नहीं पाए जाते। इससे यही प्रतीत होता है कि उनकी प्रतिभा अधिकतर उपलब्ध प्रसंगों को लेकर चलनेवाली थी; नए नए तोड़ें मरोड़ें, गए है। पर गोस्वामीजी की वाक्य-रचना अत्यंत प्रौढ़ और सुव्यवस्थित है, एक भी शब्द फालतू नहीं। खेद है कि भाषा की यह सफाई पीछे होनेवाले बहुत कम कवियों में रह गई। सब रसों की सम्यक् व्यंजना इन्होंने की है, पर मर्यादा का उल्लंघन कहीं नहीं किया है। प्रेम और शृंगार का ऐसा वर्णन जो बिना किसी लज्जा और संकोच के सबके सामने पढ़ा जा सके, गोस्वामीजी का ही है। हम निस्संकोच कह सकते है कि यह एक कवि ही हिंदी को एक प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिये काफी है।


(२) स्वामी अग्रदास––रामानंदजी के शिष्य अनंतानंद और अनंतानंद के शिष्य कृष्णदास पयहारी थे। कृष्णदास पयहारी के शिष्य अग्रदासजी जी थे। इन्हीं अग्रदासजी के शिष्य भक्तमाल के रचयिता प्रसिद्ध नाभादासजी थे। गलता (राजपूताना) की प्रसिद्ध गद्दी का उल्लेख पहले हो चुका है[]। वहीं ये भी रहा करते थे और संवत् १६३२ के लगभग वर्त्तमान थे। इनकी बनाई चार पुस्तकों का पता है––

१––हितोपदेश उपखाणाँ बावनी।

२––ध्यानमंजरी।

३––रामध्यान-मंजरी।

४––कुंडलिया।

इनकी कविता उसी ढंग की है जिस ढंग की कृष्णोपासक नंददासजी की। उदाहरण के लिये यह पद्य देखिए––

कुंडल ललित कपोल जुगल अस परम सुदेशा। तिनको निरखि प्रकास लजत राकेस दिनेसा॥
मेचक कुटिल विसाल सरोरुह नैन सुहाए। मुख-पंकज के निकट मनो अलि-छौना आए॥

इनका एक पद भी देखिए––

पहरे राम तुम्हारे सोवत। मैं मतिमंद अंध नहिं जोवत॥
अपमारग मारग महि जान्यो। इंद्री पोषि पुरुषारथ मान्यो॥
औरनि के बल अनत प्रकार। अगरदास के राम अधार॥

(३) नाभादासजी––ये उपर्युक्त अग्रदासजी के शिष्य बड़े भक्त और साधुसेवी थे। ये संवत् १६५७ के लगभग वर्त्तमान थे और गोस्वामी तुलसीदासजी की मृत्यु के बहुत पीछे तक जीवित रहे। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ भक्तमाल संवत् १६४२ के पीछे बना और सं॰ १७६९ में प्रियादासजी ने उसकी टीका लिखी। इस ग्रंथ में २०० भक्तों के चमत्कार-पूर्ण चरित्र ३१६ छप्पयों में लिखे गए हैं। इन चरित्रों में पूर्ण जीवनवृत्त नहीं है, केवल भक्ति की महिमा-सूचक बातें दी गई हैं। इसका उद्देश्य भक्तों के प्रति जनता में पूज्य-बुद्धि का प्रचार जान पड़ता है। वह उद्देश्य बहुत अंशों में सिद्ध भी हुआ। आज उत्तरीय भारत के गाँव गाँव में साधुवेशधारी पुरुषों को शास्त्रज्ञ विद्वानों और पंडितों से कहीं बढ़कर जो सम्मान और पूजा प्राप्त है, वह बहुत कुछ भक्तों की करामातों और चमत्कारपूर्ण वृत्तातों के सम्यक् प्रचार से।

नाभाजी को कुछ लोग डोम बताते हैं, कुछ क्षत्रिय। ऐसा प्रसिद्ध है कि वे एक बार गो॰ तुलसीदासजी से मिलने काशी गए। पर उस समय गोस्वामीजी ध्यान में थे, इससे न मिल सके। नाभाजी उसी दिन वृंदावन चले गए। ध्यान भंग होने पर गोस्वामीजी को बड़ा खेद हुआ और वे तुरंत नाभीजी से मिलने वृंदावन चल दिए। नाभीजी के यहाँ वैष्णवों का भंडारा था जिसमे गोस्वामीजी बिना बुलाए जा पहुँचे। गोस्वामीजी यह समझकर कि नाभाजी ने मुझे अभिमानी न समझा हो, सबसे दूर एक किनारे बुरी जगह बैठ गए। नाभाजी ने जान-बूझकर उनकी ओर ध्यान न दिया। परसने के समय कोई पात्र न मिलता था जिसमे गोस्वामीजी को खीर दी जाती। यह देखकर गोस्वामीजी एक साधु का जूता उठा लाए और बोले, "इससे सुदंर पात्र मेरे लिये और क्या होगा?" इस पर नाभाजी ने उठाकर उन्हें गले लगा लिया और गद्गद हो गए। ऐसा कहा जाता है कि तुलसी-संबंधी अपने प्रसिद्ध छप्पय के अंत में पहले नाभाजी ने कुछ चिढ़कर यह चरण रखा था––"कलि कुटिल जीव तुलसी भए बालमीकि अवतार धरि।" यह वृत्तांत कहाँ तक ठीक है, नहीं कहा जा सकता, क्योंकि गोस्वामीजी खान-पान का विचार रखनेवाले स्मार्त्त वैष्णव थे। तुलसीदासजी के संबंध में नाभाजी का प्रसिद्ध छप्पय यह है–– प्रसंगो की उद्भावना करनेवाली नहीं। उनको कल्पना वस्तुस्थिति को ज्यों की त्यों लेकर उसके मार्मिक स्वरूपों के उद्घाटन में प्रवृत्त होती थी, नई वस्तुस्थिति खड़ी करने नहीं जाती थी। गोपियो को छकानेवाली कृष्णलीला के अंतर्गत छोटी मोटी कथा के रूप में कुछ दूर तक मनोरंजक और कुतूहलप्रद ढंग से चलनेवाले नाना प्रसंगों की जो नवीन उद्भावना सूरसागर में पाई जाती है, वह तुलसी के किसी ग्रंथ मे नहीं मिलती।

'रामचरितमानस' में तुलसी केवल कवि के रूप में ही नहीं, उपदेशक के रूप में भी सामने आते है। उपदेश उन्होने किसी न किसी पात्र के मुख से कराए है, इससे काव्यदृष्टि से यह कहा जा सकता है कि वे उपदेश पात्र के स्वभाव-चित्रण के साधनरूप है। पर बात यह नहीं है। उपदेश उपदेश के लिये ही है।

गोस्वामी के रचे बारह ग्रंथ प्रसिद्ध है जिनमें ५ बड़े और ७ छोटे है। दोहावली, कवित्तरामायण, गीतावली, रामचरितमानस, विनयपत्रिका, बड़े ग्रंथ है तथा रामलला-नहछू, पार्वतीमंगल, जानकीमंगल, बरवै रामायण, वैराग्य-सदीपिनी, कृष्णगीतावली, और रामाज्ञा-प्रश्नावली छोटे। पंडित रामगुलाम द्विवेदी ने, जो एक प्रसिद्ध भक्त और रामायणी हो गए हैं, इन्ही बारह ग्रंथों को गोस्वामीजी कृत माना है। पर शिवसिंहसरोज में दस और ग्रंथों के नाम गिनाए गए है, यथा––रामसतसई, संकटमोचन, हनुमानबाहुक, रामसलाका, छंदावली, छप्पय रामयण, कड़खा रामायण, रोलारामायण, झूलना रामायण और कुंडलिया रामायण। इनमे से कई एक तो मिलते ही नहीं। हनुमानबाहुक को पंडित रामगुलामजी ने दोहावली के ही अतर्गत लिया है। रामसतसई में सात सौ से कुछ अधिक दोहे हैं जिनमे से डेढ़ सौ के लगभग दोहावली के ही है। अधिकांश दोहे उसमे कुतूहलवर्द्धक, चातुर्य लिए हुए और क्लिष्ट है। यद्यपि दोहावली में भी कुछ दोहे इस ढंग के है, पर गोस्वामी जी ऐसे गंभीर, सहृदय और कलामर्मज्ञ महापुरुष का ऐसे पद्यों का इतना बड़ा ढेर लगाना समझ में नहीं आता। जो हो, बाबा बेनीमाधवदास के नाम पर प्रणीत चरित में भी रामसतसई का उल्लेख हुअा है। कुछ ग्रंथों के निर्माण के संबंध में जो जनश्रुतियाँ प्रसिद्ध हैं, उनका उल्लेख भी यहाँ आवश्यक है। कहते हैं कि बरवा रामायण गोस्वामीजी ने अपने स्नेही मित्र अब्दुर्रहीम खानखाना के कहने पर उनके बरवा (बरवै नायिका-भेद) को देखकर बनाया था। कृष्णगीतावली वृंदावन की यात्रा के अवसर पर बनी कही जाती हैं। पर बाबा बेनीमाधवदास के 'गोसाई-चरित' के अनुसार रामगीतावली और कृष्णगीतावली दोनो ग्रंथ चित्रकूट में उस समय के कुछ पीछे लिखे गए जब सूरदासजी उनसे मिलने वहाँ गए थे। गोस्वामीजी के एक मित्र पंडित गंगाराम ज्योतिषी काशी में प्रह्लादघाट पर रहते थे। रामाज्ञा-प्रश्न उन्हीं के अनुरोध से बना माना जाता है। हनुमानबाहुक से तो प्रत्यक्ष है कि वह बाहुओं में असह्य पीड़ा उठने के समय रचा गया था। विनयपत्रिका के बनने का कारण यह कहा जाता है कि जब गोस्वामीजी ने काशी में रामभक्ति की गहरी धूम मचाई तब एक दिन कलिकाल तुलसीदासजी को प्रत्यक्ष आकर धमकाने लगा और उन्होंने राम के दरबार में रखने के लिये यह पत्रिका या अर्जी लिखीं।

गोस्वामीजी की सर्वागपूर्ण काव्यकुशलता का परिचय आरंभ में ही दिया जा चुका है। उनकी साहित्य-मर्मज्ञता, भावुकता और गंभीरता के संबंध में इतना जान लेना और भी आवश्यक है कि उन्होने रचना-नैपुण्य का भद्दा प्रदर्शन कहीं नहीं किया है और न शब्द-चमत्कार आदि के खेलवाड़ों में वे फँसे है। अलंकारो की योजना उन्होने ऐसे मार्मिक ढंग से की है की वे सर्वत्र भावों या तथ्यों की व्यजना को प्रस्फुटित करते हुए पाए जाते है, अपनी अलग चमक-दमक दिखाते हुए नहीं। कहीं कहीं लंबे लंबे साग रूपक बाँधने में अवश्य उन्होंने एक भद्दी परंपरा का अनुसरण किया है। दोहावली के कुछ दोहो के अतिरिक्त और सर्वत्र भाषा का प्रयोग उन्होंने भावों और विचारों को स्पष्ट रूप में रखने के लिये किया है, कारीगरी दिखाने के लिये नहीं। उनकी सो भाषा की सफाई और किसी कवि में नहीं। सूरदास में ऐसे वाक्य के वाक्य मिलते हैं जो विचार धारा आगे बढ़ाने में कुछ भी योग देते नही पाए जाते, केवल पादपूर्त्यर्थ ही लाए हुए जान पड़ते है। इसी प्रकार तुकात के लिये शब्द

त्रेता काव्य-निबध करी सत कोटि रमायन। इक अक्षर उच्चरे ब्रह्महत्यादि-परायन॥
अब भक्तन सुखदैन बहुरि लीला बिस्तारी। रामचरनरसमत्त रहत अहनिसि व्रतधारी॥

संसार अपार के पार को सुगम रूप नौका लियो।
कलि कुटिल जीव निस्तार-हितवालमीकि तुलसी भयो॥

अपने गुरु अग्रदास के समान इन्होने भी रामभक्ति-संबंधिनी कविता की है। ब्रजभाषा पर इनका अच्छा अधिकार था और पद्यरचना में अच्छी निपुणता थी। रामचरित-संबधी इनके पदों एक छोटा-सा संग्रह अभी थोडे दिन हए प्रास हुआ है।

इन पुस्तकों के अतिरिक्त इन्होने दो 'अष्टयाम' भी बनाए––एक ब्रजभाषा-गद्य में दूसरा रामचरितमानस की शैली पर दोहा-चौपाइयों में। दोनो के उदाहरण नीचे दिए जाते है––

(गद्य)––तब श्री महाराजकुमार प्रथम श्री वसिष्ठ महाराज के चरन छुइ प्रनाम करत भए। फिरि अपर वृद्ध समाज तिनको प्रनाम करत भए। फिरि श्री राजाधिराज जू को जोहार करिकै श्री महेंद्रनाथ दशरथ जू के निकट बैठत भए।

(पद्य)––

अवधपुरी की सोभा जैसी। कहि नहिं सकहिं शेष श्रुति तैसी॥
रचित कोट कलधौत सुहावन। विविध रंग मति अति मन भावन॥
चहुँ दिसि विपिन प्रमोद अनूपा। चतुरवीस जोजन रस रूपा॥
सुदिसि नगर सरजू सरि पावनि। मनिमय तीरथ परम सुहावनि॥
विगसे जलजा, भृंग रसभूले। गुजत जल समूह दोउ कूले॥

परिखा प्रति चहुँ दिसि लसति, कंचन कोट प्रकास।
विविध भाँति नग जगमगत, प्रति गोपुर पुर पास॥

(४) प्राणचंद्र चौहान––संस्कृत में रामचरित-संबंधी कई नाटक हैं जिनमें कुछ तो नाटक के साहित्यिक नियमानुसार है और कुछ केवल संवाद-रूप में होने के कारण नाटक कहे गए है। इसी पिछली पद्धति पर संवत् १६६७ में इन्होने रामायण महानाटक लिखा। रचना का ढंग नीचे उद्धृत अंश से ज्ञात हो सकता है––

कार्तिक मास पच्छ उजियारा। तीरथ पुन्य सोम कर वारा॥
ता दिन कथा कीन्ह अनुमाना। शाह सलेम दिलीपति थाना॥
संवत सोरह सै सत साठा। पुन्य प्रगास पाय भय नाठा॥
जो सारद माता करु दाया। बरनौं आदि पुरुष को माया॥
जेहि माया कह मुनि जगभूला। ब्रह्मा रहे कमल के फूला॥
निकसि न सक माया कर बाँधा। देषहु कमलनाल के राँधा॥
आदि पुरुष बरनौ केहि भाँती। चाँद सुरज तहँ दिवस न राती॥
निरगुन रूप करै सिव ध्याना। चार वेद गुन जोरि बखाना॥
तीनों गुन जानै संसारा। सिरजै पालै भजनहारा॥
श्रवन बिना सो अस बहुगुना। मन में होइ सु पहले सुना॥
देषै सब पै आहि न आँषी। अंधकार चोरी के सापी॥
तेहि कर दहुँ को करै बषाना। जिहि कर मर्म वेद नहिं जाना॥
माया सीव भो कोउ न पारा।। शंकर पँवरि बीच रोइ हारा॥

(५) हृदयराम––ये पंजाब के रहने वाले और कृष्णदास के पुत्र थे। इन्होंने संवत् १६८० में संस्कृत के हनुमन्नाटक के आधार पर भाषा हनुमन्नाटक लिखा जिसकी कविता बड़ी सुंदर और परिमार्जित है। इसमें अधिकतर कवित्त और सवैयों में बड़े अच्छे संवाद हैं। पहले कहा जा चुका है कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने समय की सारी प्रचलित काव्य-पद्धतियों पर रामचरित का गान किया। केवल रूपक या नाटक के ढंग पर उन्होने कोई रचना नहीं की। गोस्वामीजी के समय में ही उनकी ख्याति के साथ साथ रामभक्ति की तरंगे भी देश के भिन्न भिन्न भागों में उठ चली थी। अतः उस काल के भीतर ही नाटक के रूप में कई रचनाएँ हुई जिनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध हृदयराम का हनुमान्नाटक है।

नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं––

देखन जौ पाऊँ तौ पठाऊँ जमलोक हाथ
दूजो न लगाऊँ वार करौं एक कर को।
मीजि मारों उरे ते उखारि भुँजदंड, हाड
तोंरि डारौं बर अवलोकि रघुबर को॥

कासों राग द्विज को, रिसात भहरात राम,
अति थहरात गात लागत हैं धरको।
सीता को सँताप मेटि प्रगट प्रताप कीनो,
को है वह आप चाप तोज्यों जिन हर को॥



जानकी को मुख न विलोक्यो ताते कुंडल
न जानत हौं, वीर पायँ छुवै रघुराई के।
हाथ जो निहारे नैन फूटियो हमारे,
ताते कंकन न देखे, बोल कह्यो सतभाइ के॥
पायँन के परिवे कौ जाते दास लछमन
याते पहिचानत है भूषन जे पायँ के॥
बिछुआ हैं एई, अरु झाँझ हैं एई जुग,
नूपर है तेई राम जानत जराइ के॥



सातों सिधु, सातों लोक, सातों रिषि हैं ससोक,
सातों रवि-थोरे थोरे देखे न डरात मैं।
सातों दीप, सातों ईति काँप्योई करत और
सातों मत रात दिन प्रान हैं न गात मैं॥
सातो चिरजीव बरराइ उठे बार बार,
सातों सुर हाय हाय होत दिन रात मै।
सातहूँ पताल काल सबद कराल, राम
भेदे सात ताल, चाल परी, सात सात में॥



एहो हनू! कह्यौ श्री रघुवीर कछू सुधि है सिय की छिति माही।
है प्रभु लक कलक बिना सु बसै तहँ रावन बाग की छाँही॥
जीवति है? कहिबेई को नाथ, सु क्यों न मरी हमतें बिछुराही?
प्रान बसै पदपंकज में जम आवत है पर पावत नाही॥

रामभक्ति का एक अंग आदि रामभक्त हनुमानजी की उपासना भी हुई स्वामी रामानंदजी कृत हनुमानजी की स्तुति का उल्लेख हो चुका है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने हनुमानजी की वंदना बहुत स्थलों पर की है। 'हनुमानबाहुक' तो केवल हनुमानजी को ही संबोधन करके लिखा गया है। भक्ति के लिये किसी पहुँचे हुए भक्त का प्रसाद भी भक्तिमार्ग में अपेक्षित होता है। संवत् १६९६ में रायमल्ल पाँड़े ने 'हनुमचरित' लिखा। गोस्वामीजी के पीछे भी कई लोगों ने रामायणें लिखीं पर वे गोस्वामीजी की रचनाओं के सामने प्रसिद्धि न प्राप्त कर सकीं। ऐसा जान पड़ता है कि गोस्वामीजी की प्रतिभा का प्रखर प्रकाश सौ डेढ़ सौ वर्ष तक ऐसा छाया रहा कि रामभक्ति की अौर रचनाएँ उसके सामने ठहर न सकीं। विक्रम की १९वीं और २०वीं शताब्दी में अयोध्या के महंत बाबा रामचरणदास, बाबा रघुनाथदास, रीवाँ के महाराज रघुराजसिंह आदि ने रामचरित संबंधी विस्तृत रचनाएँ की जो सर्वप्रिय हुई। इस काल में रामभक्ति विषयक कुछ हुई। कविता बहुत कुछ हुई।

रामभक्ति की काव्यधारा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें सब प्रकार की रचनाएँ हुई, उसके द्वारा कई प्रकार की रचना-पद्धतियों को उत्तेजना मिली। कृष्णोपासी कवियों ने मुक्तक के एक विशेष अंग गीताकाव्य की ही पूर्ति की, पर रामचरित को लेकर अच्छे अच्छे प्रबंध-काव्य रचे गए।

तुलसीदासजी के प्रसंग में यह दिखाया जा चुका है कि रामभक्ति में भक्ति का पूर्ण स्वरूप विकसित हुआ है। प्रेम और श्रद्धा अर्थात् पूज्यबुद्धि दोनों के मेल से भक्ति की निष्पत्ति होती है। श्रद्धा धर्म की अनुगामिनी है। जहाँ धर्म का स्फुरण दिखाई पड़ता है वहीं श्रद्धा टिकती है। धर्म ब्रह्म के सत्स्वरूप की व्यक्त प्रवृत्ति है; उस स्वरूप की क्रियात्मक अभिव्यक्ति है, जिसका आभास अखिल विश्व की स्थिति में मिलता है।। पूर्ण भक्त व्यक्त जगत् के बीच सत् की इस सर्वशक्तिमयी प्रवृत्ति के उदय का, धर्म की इस मंगलमयी ज्योति के स्फुरण का, साक्षात्कार चाहता रहता है। इसी ज्योति के प्रकाश में सत् के अनंत रूप-सौंदर्य की भी मनोहर झाँकी उसे मिलती। लोक में जब कभी वह धर्म के स्वरूप को तिरोहित या आच्छादित देखता है ब मानो भगवान्त उसकी दृष्टि से––उसकी खुली हुई आँखों के सामने से––ओझल हो जाते है। और वह वियोग की आकुलता का अनुभव करता है। फिर जब अधर्म का अंधकार फाड़कर धर्म-ज्योति अमोघ शक्ति के साथ फूट पड़ती है तब मानो उसके प्रिय भगवान् का मनोहर रूप सामने आ जाता है और वह पुलकित हो उठता है। भीतर का 'चित्' जब बाहर 'सत्' का साक्षात्कार कर पाता है तब 'आनंद' का आविर्भाव होता है और 'सदानंद' की अनुभूति होती है।

यह हैं उस सगुण भक्तिमार्ग का प्रकृत पक्ष जो भगवान् के अवतार को लेकर चलता है और जिसका पूर्ण विकास तुलसी की रामभक्ति में पाया जाता है। 'विनयपत्रिका' में गोस्वामीजी ने लोक में फैले अधर्म, अनाचार, अत्याचार आदि का भीषण चित्र खींचकर भगवान् से अपना सत्स्वरूप, धर्मसंस्थापक स्वरूप, व्यक्त करने की प्रार्थना की है। उन्हें दृढ़ विश्वास है कि धर्म-स्वरूप भगवान् की कला का कभी न कभी दर्शन होगा। अतः वे यह भावना करके पुलकित हो जाते है कि सत्स्वरूप का लोकव्यक्त प्रकाश हो गया, रामराज्य प्रतिष्ठित हो गया और चारों ओर फिर मंगल छा गया।

रामराज भयो काज सगुन सुभ, राजा राम जगत-विजई हैं।
समरथ बड़ो सुजान सुसाहब, सुकृत-सेन हारत जितई हैं॥

जो भक्ति-मार्ग श्रद्धा के अवयव को छोड़कर केवल प्रेम को ही लेकर चलेगा, धर्म से उसका लगाव न रह जायगा। वह एक प्रकार से अधूरा रहेगा। शृंगारोपासना, माधुर्य्यभाव आदि की ओर उसका झुकाव होता जायगा और धीरे धीरे उसमें 'गुह्य, रहस्य' आदि का भी समावेश होगा‌। परिणाम यह होगा कि भक्ति के बहाने विलासिता और इंद्रियासक्ति की साधना होगी। कृष्णभक्ति शाखा कृष्ण भगवान् के धर्मस्वरूप को––लोकरक्षक और लोकरंजक स्वरूप को––छोड़कर केवल मधुर स्वरूप और प्रेमलक्षणा भक्ति की सामग्री लेकर चली। इससे धर्म-सौंदर्य के आकर्षण से वह दूर पड़ गई। तुलसीदासजी ने भक्ति को अपने पूर्ण रूप से, श्रद्धा-प्रेम-समन्वित रूप में,सबके सामने रखा और धर्म या सदाचार को उसका नित्य-लक्षण निर्धारित किया।

अत्यंत खेद की बात है कि इधर कुछ दिनों से एक दल इस राजभक्ति को भी शृंगारी भावनाओं में लपेटकर विकृत करने में जुट गया है। तुलसीदासजी के प्रसंग में हम दिखा आए हैं कि कृष्णभक्त सूरदासजी की शृंगारी रचना का कुछ अनुकरण गोस्वामीजी की 'गीतावली' के उत्तरकाड में दिखाई पड़ता है, पर वह केवल आनंदोत्सव तक रह गया है। इधर आकर कृष्णभक्ति शाखा का प्रभाव बहुत बढ़ा। विषय-वासना की ओर मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण कुछ दिनों से रामभक्ति-मार्ग के भीतर भी शृंगारी भावना का अनर्गल प्रवेश हो रहा है। इस शृंगारी भावना के प्रवर्त्तक थे रामचरितमानस के प्रसिद्ध टीकाकार जानकी घाट (अयोध्या) के रामचरणदासजी, जिन्होंने पति-पत्नी भाव की उपासना चलाई। इन्होने अपनी शाखा का नाम 'स्वमुखी' शाखा रखा। स्त्री-वेष धारण करके पति 'लाल साहब' (यह खिताब राम को दिया गया है) से मिलने के लिये सोलह शृंगार करना, सीता की भावना सपत्नी रूप में करना आदि इस शाखा के लक्षण हुए। रामचरणदासजी ने अपने मत की पुष्टि के लिये अनेक नवीन कल्पित ग्रंथ प्राचीन बताकर अपनी शाखा में फैलाए, जैसे––लोमश संहिता, हनुमत्संहिता, अमर रामायण, भुशुंडी रामायण, महारामायण (५ अध्याय) कोशलखंड, रामनवरत्न, महारासोत्सव सटीक (सं० १९०४ प्रिंटिंग प्रेस, लखनऊ में छपा)।

'कोशल खंड' में राम की रासलीला, विहार आदि के अनेक अश्लील वृत्त कल्पित किए गए हैं और कहा गया है कि रासलीला तो वास्तव में राम ने की थी। रामावतार में ९९ रास वे कर चुके थे। एक ही शेष था जिसके लिये उन्हें फिर कृष्ण रूप में अवतार लेना पड़ा। इस प्रकार विलास-क्रीडा में कृष्ण से कहीं अधिक राम को बढ़ाने की होड़ लगाई गई। गोलोक में जो नित्य रामलीला होती रहती है उससे कहीं बढ़ कर साकेत में हुआ करती है। वहाँ की नर्तकियों की नामावली में रंभा, उर्वशी आदि के साथ साथ राधा और चद्रावली भी गिना दी गई है।

रामचरणदास की इस शृंगारी उपासना में चिरान-छपरा के जीवारामजी ने थोड़ा हेरफेर किया। उन्होने पति-पत्नि-भावना के स्थान पर 'सखीभाव' रखा और अपनी शाखा का नाम 'तत्सुखी शाखा' रखा। इस 'सखीभाव' की उपासना का खूब प्रचार लक्ष्मण किला (अयोध्या) वाले युगलानन्यशरण ने किया। रीवाँ के महाराज रघुराजसिंह इन्हें बहुत मानते थे और इन्ही की संमति से उन्होंने चित्रकूट में 'प्रमोदवन' आदि कई स्थान बनवाए। चित्रकूट की भावना वृंदावन के रूप में की गई और वहाँ के कुंज भी ब्रज के से क्रीड़ाकुंज माने गए। इस रसिकपंथ का आजकल अयोध्या में बहुत जोर है और वहाँ के बहुत से मंदिरों में अब राम की 'तिरछी चितवन' और 'बाँकी अदा' के गीत गाए जाने लगे हैं। इस पंथ के लोगों का उत्सव प्रति वर्ष चैत्र कृष्ण नवमी को वहाँ होता है। ये लोग सीता-राम को 'युगल सरकार' कहा करते हैं और अपना आचार्य्य 'कृपानिवास' नामक एक कल्पित व्यक्ति को बतलाते हैं जिसके नाम पर एक 'कृपानिवास-पदावली' सं० १९०१ में छपी (प्रिंटिंग प्रेस, लखनऊ)। इसमें अनेक अत्यंत अश्लील पद हैं जैसे––

(१) नीबी करषत वरजति प्यारी।
रसलंपट सपुट कर जोरत, पद परसत पुनि लै बलिहारी॥

[पृ० १३८]


(२) पिय हँसि रस रस कचुकि खोलैं।
चमकि निवारति पानि लाडिली, मुरक मुरक मुख बोलैं॥

ऐसी ही एक और पुस्तक 'श्रीरामावतार-भजन-तरंगिणी' इन लोगों की ओर से निकली है जिसका एक भजन देखिए––

हमारे पिय ठाढे सरजू तीर।
छोड़ि लाज मैं जाय मिली जहँ खड़े लखन के बीर॥
मृदु मुसकाय पकरि कर मेरो खैंचि लियो तब चीर।
झाऊ वृक्ष की झाड़ी भीतर करन लगे रति धीर॥

भगवान् राम के दिव्य पुनीत चरित्र के कितने घोर पतन की कल्पना इन लोगों के द्वारा हुई है, यह दिखाने के लिये इतना बहुत है। लोकपावन आदर्श का ऐसा वीभत्स विपर्य्यय देखकर चित्त क्षुब्ध हो जाता है। रामभक्ति-शाखा के साहित्य का अनुसंधान करनेवालों को सावधान करने के लिये ही इस 'रसिक शाखा' का यह थोड़ा सा विवरण दे दिया गया है। 'गुह्य', 'रहस्य', 'माधुर्य्य भाव' इत्यादि के समावेश से किसी भक्तिमार्ग की यही दशा होती है। गोस्वामीजी ने शुद्ध, सात्त्विक और खुले रूप में जिस रामभक्ति का प्रकाश फैलाया था, वह इस प्रकार विकृत की जा रही है।


  1. देखो पृ० १५––१६
  2. देखो पृष्ठ १६––१७।
  3. ये दोनों पंक्तियाँ सूरदासजी के इस पद से खींच ली गई है––

    कर्म जोग पुनि ज्ञान-उपासन सब ही भ्रम भरमायो‌।
    श्री बल्लभ गुरु तत्त्व सुनायो लीला-भेद बतायो॥

    (सूरसागर-सारावली)

  4. देखो पृ० ७२।
  5. देखो पृ० ६१।
  6. देखो पृ॰ १२०।