लेखाञ्जलि/६—स्वयंवह-यंत्र

लेखाञ्जलि
महावीर प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ३५ से – ४६ तक

 
६—स्वयंवह-यंत्र

नई चालकी घड़ियोंके प्रचारसे ठीक समय जानने में लोगोंको बहुत सुभीता हो गया है। ये घड़ियाँ पहले-पहल योरपमें बनी थीं और वहों से हिन्दुस्तानमें पाई। इनका प्रचार हुए सौ डेढ़ सौ वर्ष से अधिक नहीं हुए। परन्तु उसके पहले, अथवा प्राचीन कालमें भी, निश्चित समय जाननेका साधन लोगोंके पास अवश्य था। जिस यंत्रके द्वारा प्राचीन काल के लोग समय निश्चित कर सकते थे उसका नाम स्वयंवह-यंत्र था। यह यंत्र कई प्रकारका होता था। केवल भारतवर्ष हीमें नहीं, किन्तु अन्यान्य देशोंमें भी लोग इसको काममें लाते थे। सुनते हैं कि कहीं-कहीं अब भी समय देखनेका काम इसी यन्त्रसे लिया जाता है।

कई वर्ष हुए, राजशाहीमें, बङ्ग-साहित्य परिषद्का वार्षिक अधिवेशन हुआ था। उसमें अध्यापक योगेशचन्द्रराय ने स्वयंवह-यंत्रोंके विषयमें एक लेख पढ़ा था। उस लेखमें अध्यापक महाशय ने कितनी ही उपयोगी और ज्ञातव्य बातें कही है। इसलिए उसका भावार्थ आज हम पाठकोंको सुनाते हैं।
कालका स्रोत बहता चला जा रहा है। प्राचीन कालके लोग दिनमें सूर्यको और रात्रिमें ताराओं को देखकर इस स्रोतका विभाग करते थे। परन्तु दिन-रातके काल भी तो छोटे नहीं होते; उनके विभागकी भी तो आवश्यकता पड़ती है। इस कामको वे वक्ष, डण्डा या अपनी देहकी छाया से करते थे।

परन्तु छाया भी सूर्यसापेक्ष है। अर्थात बिना सूर्यके छाया नहीं हो सकती। जिस दिन मेघोंने कृपा की, उस दिन समय देखना दुःसाध्य हुआ। इसी कठिनता को दूर करनेके लिए ताम्री या घटीका प्रचलन हुआ था। ताँबेके घड़ेके नीचेवाले भागसे घटी-यन्त्र बनाया जाता था। घड़ेके पैदे में बहुत छोटा-सा छेद होता था। घड़ा पानी के ऊपर रख दिया जाता था। पानी धीरे-धीरे घड़ेमें भरने लगता था। यहांतक कि कुछ देरमें वह डूब जाता था। घड़ा इतना बड़ा बनाया जाता था जिसमें वह दिन-रातमें आठ बार डूब सके। जितने समय में घड़ा पानीमें एक बार डूब जाता था उतने समयको लोग घड़ी, घटी या घटिका कहते थे। घड़े में सात "पल" तक पानी भर सकता था। इसीलिए एक घड़ीमें सात पल माने गये थे। ऋग्वेदाङ्ग ज्योतिषमें घटीके बदले प्रस्थ शब्द आया है। विष्णु-पुराणमें भी प्रस्थ-संज्ञा आई है। जल, तेल आदि प्रवाही पदार्थ जिस पात्रके द्वारा नापे जाते थे उसे लोग प्रस्थ कहते थे। इससे जान पड़ता है कि हमारे देशमें घटी-यन्त्रका व्यवहार बहुत प्राचीन कालसे है।

परन्तु जिस यन्त्रके द्वारा काल-ज्ञान होनेके लिए लोगोंको बैठे रहना पड़े, वह सबके व्यवहार-योग्य कभी नहीं हो सकता। इसीलिये लल्ल

आदि ज्योतिषियोंने अपनी इच्छाके अनुसार घटी बनानेकी सलाह दी है। ब्रह्मगुप्तने,जो ईसाकी सातवीं शताब्दीमें वर्तमान थे, एक अन्य प्रकारके घटी-यंत्रका उल्लेख किया है। वे कहते हैं कि एक नलक (शीशेका पात्र) बनाना चाहिये। उसके नीचे एक छेद करके उसे पानीसे भर देना चाहिए। बहता हुआ पानी जितना-जितना कम होकर एक-एक घड़ीमें नलके जिस-जिस स्थानपर पहुँचता जाय उसी-उसी स्थानपर अङ्क लगा देने चाहिये। इससे सहज हीमें काल ज्ञान हो सकता है। परन्तु नाड़िका-यन्त्रमें यह असुविधा नहीं है। मालूम होता है कि इस नाड़िकायन्त्रके नामहीसे घटी या घड़ीका नाम नाड़ी या नाडिका पड़ा है।

केवल इसी देशमें नहीं, किन्तु प्राचीन मिस्र, बेबीलोनिया, यूनान और योरपके अन्यान्य देशोंमें मी जल-स्राव देखकर समय जाननेकी रीति प्रचलित थी। प्राचीन कालहीमें क्यों, ईसाकी सोलहवीं शताब्दीमें डेनमार्क देशके प्रसिद्ध ज्योतिर्विद तापकोब्राहिकी वेधशालामें जल-घड़ीके द्वारा कालका परिमाण,जाना जाता था। चीन और भारतवर्षमें अब भी इसका रिवाज है। पर, हम लोगोंकी ताम्री (घटी) और योरपकी जल-घड़ीमें एक भेद है। वह यह कि इस देशकी ताम्रीमें जलप्रवेश देखकर और योरपमें उससे जलनिस्सरण देखकर काल-ज्ञान होता था। छेदके द्वारा किसी बर्तनसे परिमित जल निकलनेमें सदा एक-सा समय नहीं लगता; क्योंकि बर्तनमें पानी जितना ही कम होता जायगा पानीके बहनेका वेग भी उतना ही कम होता जायगा। इसलिए जलपात्रको सदा जलपूर्ण रखना पड़ता था।
इन दोनोंमें और भी भेद है। यूनानी लोग सूर्योदयसे लेकर सूर्यास्ततक दिन मानते थे। उसे वे बारह भागोंमें विभक्त करते थे। वैसे एक भागका नाम घण्टा था। इसलिए गर्मी में उनका घण्टा बड़ा ओर जाड़ोंमें छोटा होता था। ऐसी असमान-समय-ज्ञापक जल-घड़ी बनाना सहज काम न था। हमारे यहाँ यह असुविधा न थी।

पूर्वकालमें नाडिका-यन्त्रसे जल-स्रावके द्वारा नाना प्रकारके यन्त्र चल सकते थे। लल्ल, ब्रह्मगुप्त, भास्कर आदि प्रसिद्ध प्राचीन ज्योतिषियोंने ऐसे कितने ही यन्त्रोंका वर्णन किया है। महामहोपाध्याय सामन्त चन्द्रशेखरसिंहने भी एक ऐसे ही यन्त्रकी रचना की है। जो यंत्र आप-ही-आप घूमे, अथवा जिसे कोई मनुष्य न चलावे, उसे प्राचीन कालके लोग स्वयंवह-यन्त्र कहते थे। सामन्त महाशयने अपना स्वयंवह-यंत्र अपनी बुद्धिके बलपर बनाया है; किसी ग्रन्थके सहारे नहीं। उनके यन्त्रका एक चक्र दो आधारों पर स्थिर रहता है। चक्रके घेरेमें एक डोरा लिपटा रहता है। डोरेका एक सिरा चक्रसे बंधा रहता है और दूसरे सिरेमें पारायुक्त एक गोलक बँधा रहता है। यह गोलक एक बड़े जलकुण्डमें तैरा करता है। कुण्डका पानी जैसे-जैसे बहता जाता है वैसे-ही-वैसे गोलक भी नीचे गिरता जाता है। साथ ही धागा बँधा हुआ चक्र भी धीरे-धीरे घमता जाता है।

किसी चीज़के हिलनेसे सम्वन्ध रखनेवाली अन्य चीजें भी हिलने लगती हैं। हमारे प्राचीन आचार्यों ने नाड़िका-यन्त्र की सहायतासे ग्रहों और नक्षत्रों का चक्र तक घुमा डाला था। आजकल के विद्यालयों में बिलायती 'ओरेरी' यन्त्र जैसा होता है, प्राचीनकालमें गोलकयन्त्र मी

वैसा ही था। वह जल-स्रावके द्वारा घूमता था। इसलिए उसमें बड़े भारी शिल्पनैपुण्य की आवश्यकता थी। उसके द्वारा लग्नों आदिका भी ज्ञान हो सकता था।

हम यह कह आये हैं कि लल्ल और ब्रह्मगुप्तने बहुतसे काल-ज्ञापक यन्त्रों का उल्लेख किया है। उनमेंसे एक नर-यन्त्र भी है! एक मनुष्यमूर्त्तिके मध्य भागसे लेकर मुंहतक एक सूराख होता है। उसके पेट में डोरीकी एक पिण्डी रक्खी रहती है। डोरीका एक सिरा सूराखसे होते और मुंहमें लगी हुई नलोंको पार करते हुए बाहर आकर लटकता है। उसी सिरेमें पारायुक्त एक गोलक बँधा रहता है। यह गोलक एक कुण्डके पानी पर तैरा करता है। कुण्डसे जल जितना ही बहता जायगा, मनुष्य-मूर्तिके मुंहसे उनती ही डोरी निकलती आवेगी। एक-एक दण्डमें डोरी जितनी-जितनी बाहर निकलती है उतनी-ही-उतनी दूरपर उसमें गाँठे लगी रहती हैं। एक दण्डमें एक गांठ, दोमें दो गाँठे और तीनमें तीन गाँठे बाहर होती हैं। जिस समय जितनी गाँठे बाहर निकलती हैं उस समय उतने ही दण्ड बीत चुके, यह बात लोग देखते ही समझ जाते हैं।

इस प्रकारके किसी यन्त्रमें एक नर-मूर्ति दूसरी नर-मूर्ति के मुंहपर पानी फेंकती है किसी यन्त्रमें वह अपने मुंहसे बधूके मुंहपर गुटिका फेंकता है; किसी यन्त्रमें दो मनुष्य मल्ल-युद्ध करते हैं; किसीमें मोर सांपको निगलता है किसीमें मुगरी घण्टेपर पड़ती है इत्यादि। इन सब कौतुक-जनक यन्त्रोंका उद्देश कालज्ञापनके सिवा और कुछ न था। आज-कल जैसे विलायती घड़ियोंमें नर-नारियों की मूर्तियां

अपने विशेष अङ्ग चलाकर लोगोंको विस्मित करती हैं वैसे ही प्राचीन समयमें जल-घड़ियाँ भी करती थीं। आज-कलकी तरह प्राचीन कालमें भी घण्टे बजते थे।

कहते हैं कि प्राचीन कालमें अलेग्ज़ांड्रियाके किसी ज्योतिषी ने कुण्डसे जल बहाकर एक घटाङ्कित चक्र चलाया था। ईसाकी छठी शताव्दीमें कुस्तुनतुनिया-नगरमें किसीने एक ऐसा यन्त्र बनाया था जिसमें एकसे लेकर बारह तक बजते थे। नवीं शताब्दीमें सम्राट शार्लमैनने फारिसके बादशाहको एक जल-घड़ी उपहारमें भेजी थी। उसमें बारहों घण्टे प्रकट करनेके लिये बारह द्वार थे। एक-एक घण्टे में एक-एक दरवाजा खुलता था और जितना बजा होता था उतनी ही गुटिकायें निकल- निकलकर एक ढोलकपर पड़ती और उसे बजाती थीं।

शिल्पकारका मन एक हो विषय में सीमाबद्ध नहीं रहता। जो एक यन्त्रका आविष्कार कर सकता है, वह कभी-कभी अन्य यन्त्र भी बना सकता है। प्राचीन आर्यों ने पारा, जल, तेल इत्यादि की सहायतासे चक्र चलानेकी चेष्टा की थी। ऐसे स्वयंवह-यन्त्रका उल्लेख पहले-पहल लल्ल ने, छठी शताब्दीमें, किया है। उनके बाद ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य (बारहवीं शताब्दी) ने भी भिन्न प्रकार से उसीका वर्णन किया है। आगे हम भास्करके यन्त्र-वर्णन का मतलब देते हैं।

पहले बिना गांठ और कीलके काठका एक छोटा-सा चक्र भ्रमयन्त्र से बनाना चाहिये। इसके बाद उसके घेरेमें एक ही नापके, एकहीसे छेड़वाले और एकहीसे गुरुत्वके आरे लगाना चाहिये। ये

सब आरे नदीके आवर्तके सदृश एक ही ओर कुछ-कुछ झुके हों। आरोंके आधे अंशमें पारा भरकर उनके छेदोंको बन्द कर देना चाहिये। ऐसा चक्र दो आधारों पर स्थित करनेपर, आप-ही-आप घूमेगा; क्योंकि यन्त्रके एक ओर पारा आरोंके मूलमें और दूसरी ओर आगेके सिरेपर दौड़ेगा। शेषोक्त आरे के पारे के आकर्षणसे चक्र आप-ही-आप घूमेगा।

परन्तु यह है क्या व्यापार? क्या यह सदावह-यन्त्र है जिसकी निन्दा आधुनिक वैज्ञानियों ने जो खोलकर की है? या इसमें और भी कोई गुप्त बात है? स्वयंवह-यन्त्र का रहस्य कहीं खुल न जाय, इस आशङ्कासे सूर्य-सिद्धान्तमें उसे गुप्त रखनेके लिये शिष्यको बार-बार ताकीद की गई है। शिल्प-कौशल प्रकाशित हो जानेका जिन्हें इतना डर है वे अवश्य ही कोई बात खोलकर नहीं कह सकते। इसीलिए उन्होंने कहा है कि पारे, जल और तेल आदिका प्रयोग जानना मुश्किल काम है। भास्करके टीकाकार रङ्गनाथ,जो सत्रहवीं शताब्दी में हुए है, कहते हैं—"स्वयंवह-यन्त्र एक असाधारण चीज है। मनुष्यके लिए उसका बनाना असाध्य है। इसीलिए वह दुर्लभ है। यदि ऐसा न होता तो वह प्रत्येक घरमें पाया जाता। समुद्र-पारवासी फिरङ्गियोंको स्वयंवह-विद्या में अच्छा अभ्यास है। वह कुहक-विद्याके अन्तर्गत है।"

अच्छा, यह कुहक-विद्या क्या चीज है? क्या कुहक की तरह स्वयंवह-विद्या भी गुप्त है? वर्णन करनेके ढङ्गसे तो जान पड़ता है कि स्वयंवह-यन्त्र योरपके सदावह-आवर्त-चक्रसे मिलता-जुलता है। उसमें यह माना गया है कि चक्र आवर्त्ताकार आरों की गोलियों के भार से घूमता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रकार चक्रका घूमना असम्भव है।

भास्करने अन्य दो प्रकारके स्वयंवह-यन्त्रोंका भी वर्णन किया है। इन दोनों का वर्णन ब्रह्मगुप्तके ग्रन्थमें नहीं है। एकका वर्णन सुनिये। भ्रम-यन्त्रके द्वारा चक्रके घेरेमें दो अङ्गुल गहरी और दो अङ्गुल चौड़ी एक नली बनाकर उसे दो आधारों पर रक्खो। नलीके ऊपर ताड़के पत्ते मोमसे जोड़ दो। इसके बाद ताड़के पत्ते में छेद करके नलीमें पाग भर दो। फिर दूसरी जगह छेद करके नली के एक ओर पानी भरो। तब छेद बन्द कर दो। बस जलसे आकृष्ट चक्र आप-ही-आप घूमेगा। पारा द्रव होनेपर भी भारी होता है। इसलिए जल उसे हटा न सकेगा।

क्या इसका यह मतलब है कि पारा नीचे ही रहेगा; जल पारेको ठेलेगा, इससे चक्र घूमेगा? यदि यही अर्थ ठीक हो, तो काल्पनिक सदावह-यन्त्रका यह एक अच्छा नमूना है।

इस काल्पनिक यन्त्रके साथ बीसवीं शताब्दीके इंगलेंडके एक सदावह-यन्त्रकी तुलना कोजिये। एक कुण्डमें पारा है और कुण्डकी दाहिनी तरफ़ एक नलमें जल है। पारावाले कुण्डके ऊपर एक चक्र है और भीतर भी एक चक्र है। एक सूत्र दोनों चक्रोंको वेष्टन किये हुए है। सूत्रमें छोटी-छोटी गाँठे-सी हैं। वे पानीमें उतराकर ऊपर उठेगी। इसके साथ ही दोनों चक्र मी घूमेंगे।

भास्कराचार्य के एक और भी स्वयंवह-यन्त्रका वर्णन सुनिये— एक चक्रके घेरेमें घटियां बँधी हुई हैं। इस चक्रको दो आधारोंपर रखिये। ताम्रादि धातुसे बने हुए अङ्कुश के आकारके एक नलसे कुण्डका जल घटियोंमें जायगा। तब भरी हुई घटियोंसे आकृष्ट होकर चक्र घूमने लगेगा। चक्रसे घिरा हुआ जल यदि चक्रके नीचेकी नलीके द्वारा फिर कुण्डमें चला जाय तो कुण्डमें फिर जल भरने की आवश्यकतान रहेगी।

यहाँपर भास्कराचार्यने टेढ़े आकारके अङ्कुश यन्त्र या "कुक्कुटनाड़ी" का प्रयोग बतलाया है। छिन्न कमल या कमलिनीकी नालसे उन्होंने कुक्कट-नाड़ी का दृष्टान्त भी दिया है। उन्होंने कहा है कि इस कुक्कुट-नाड़ीको शिल्पी लोग अच्छी तरह जानते हैं। "चक्रच्युतं तदुदकं कुण्डे याति प्रणालिकया"—कहकर उन्होंने नीचेका जल ऊपर जानेकी सम्भावना की है। योरपमें आजकल भी ऐसे यन्त्र पाये जाते हैं।

भास्कराचार्य स्वयंवह-यन्त्रको खिलौनेकी तरह समझते थे। इसी लिए लल्ल और ब्रह्मगुप्तके स्वयंवह-यन्त्रोंको ग्राम्य कहकर उन्होंने उनकी निन्दा की है। क्योंकि वे सापेक्ष हैं अर्थात् जल न रहनेपर फिर उनमें जल डालना पड़ता है। जिस यन्त्रमें कोई चमत्कारकारिणी युक्ति हो वह, भास्करकी रायमें, ग्राम्य नहीं।

पूर्वोक्त बातोंसे मालूम हुआ कि प्राचीन कालके लोग स्वयंवह-यन्त्र उसे कहते थे जिसे चलानेके लिए किसी मनुष्यकी आवश्यकता न पड़े और जो एक बार चलनेपर बराबर चलता रहे। अर्थात् स्वयंवह-को वे सदावह भी बनाना चाहते थे। आधुनिक विज्ञानकी राय है कि कोई चीज सदा नहीं चल सकती। जिस यन्त्रमें जितनी शक्ति होती है उतनी ही बनी रहती है, घटती-बढ़ती नहीं। पूर्वकालके लोग (केवल इसी देशके नहीं किन्तु योरपके भी) समझते थे कि चक्र और दण्डके योगसे मनमाने काम लिये जा सकते हैं। प्रकृतिने अपने रहस्योंको गुप्त रक्खा है। हम नित्य देखते हैं कि नदी बहती है, हवा चलती है, वृक्षोंमें फल लगते हैं, आकाशमें मेघ आते हैं। किसी काममें विराम नहीं। आकर्षण, विकर्षण सङ्कोचन, प्रसारण, संसक्ति और आसक्ति तथा समस्त आणविक क्रियाएं गुप्तबलका बाह्य विकाश हैं। कुछ भी हो, आधुनिक विज्ञान स्पष्ट कह रहा है कि चाहे जो शक्ति काम करे, उसका परिणाम विराम ही है; किसी समय वह ज़रूर ही बन्द हो जायगी। हमारी देह, जो अपना जीर्णोद्धार आप ही करती है, कैसे कौशलसे बनाई गई है, परन्तु उसके कामोंका भी विराम है। फिर मानवरचित यन्त्रोंका विराम क्यों न होगा? आधुनिक विज्ञानके उन्नायक योरप और अमेरिकामें भी लोग सदावह-यन्त्रके आविष्कार-प्रलोभनमें अबतक फंसते जाते हैं।

वर्तमान विज्ञानसे प्राचीन विज्ञानकी तुलना करना ठीक नहीं। बड़े आश्चर्यकी बात है कि किसी-किसी पाश्चात्य पडिण्तने सूर्यसिद्धांतमें स्वयंवहका नाम देखकर ही प्राचीन आर्योंकी ज्ञान-गरिमाकी दिल्लगी उड़ाई है। परन्तु ऊपर जो कुछ लिखा गया है उससे आप समझ सकते हैं कि सब स्वयंवह-यन्त्र एक ही तत्वपर नहीं निर्मित हुए। प्राचीन आर्योंकी प्रशंसा इस बातकी करनी चाहिये कि उन्होंने जलचक्रका निर्माण करके उसके द्वारा गति सम्पादन की। विलायती क्लाक घड़ीको जिस तरह स्वयंवह नहीं कह सकते उसी तरह भास्करके स्वयंवह-यन्त्रों को भी स्वयंवह नहीं मान सकते। गुरु-द्रव्यकी निम्न-गतिके द्वारा चक्र-भ्रमण कराना ही समस्त स्वयंवह-यन्त्रोंका मूल तत्व है। सत्रहवीं शताब्दीमें हाइगेन्स नामक एक विद्वान्‌ने दोलक (Pendulum) प्रयोग कर क्लाक घड़ीको सच्चा कालमानयन्त्र बनाया। यदि हम प्राचीन आर्योंको बिना दोलककी 'क्लाक' का आविष्कर्ता कहें तो अनुचित नहीं। कौन कह सकता है कि क्लाक-घड़ीका मूल-सूत्र इस देशसे विदेश नहीं गया?*[]

बड़े अफ़सोसकी बात है कि डेढ़ हज़ार वर्ष पहले जिस ज्ञान और जिस प्रयोग-कुशलताकी इस देशमें इतनी प्रचुरता थी उसका क्रमशः विकाश नहीं हुआ। वर्तमान कालमें तो उलटा उसका लोप हो गया है। जल-प्रवाहमें जो शक्ति छिपी है उसे प्राचीन कालके लोग अच्छी तरह जानते थे। परन्तु हमलोग, आधुनिक पाश्चात्य विज्ञानकी सहायता पाकर भी, प्रयोग-कुशल शिल्पी नहीं बन सके। हमारी सुजला भारत-भूमिकी खेती जब सूखने लगती है तब, हा अन्न, हा अन्न, कहकर हमलोग चिल्लाने लगते हैं; विपत्ति-निवारणका कुछ उपाय नहीं करते। हम जानते हैं कि वायु चलती है। परन्तु उसमें जो शक्ति सञ्चित है उससे कार्यसिद्धिका मार्ग हमें नहीं सूझ पड़ता। यदि सूर्य भगवान् हमारे समान अपात्रोंके देशमें इतना ताप वितरण न करते तो अच्छा होता; क्योंकि हमलोग ऐसे दानका भोग नहीं जानते। रामायणमें लिखा है कि इन्द्र, वरुण, पवन, अग्नि आदिको रावणने अपना दास बना रक्खा था, पर हम इस बातको जानकर भी अजान बने बैठे हैं।

[अगस्त १९२५]

 

  1. *"He (Waltherus) is also the first astronomer who used clocks moved by weights for the purpose of measuring time. These pieces of mechanism were introduced originally from eastern countries."

    Grant's History of Physical Astronomy