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लेखाञ्जलि


अपने विशेष अङ्ग चलाकर लोगोंको विस्मित करती हैं वैसे ही प्राचीन समयमें जल-घड़ियाँ भी करती थीं। आज-कलकी तरह प्राचीन कालमें भी घण्टे बजते थे।

कहते हैं कि प्राचीन कालमें अलेग्ज़ांड्रियाके किसी ज्योतिषी ने कुण्डसे जल बहाकर एक घटाङ्कित चक्र चलाया था। ईसाकी छठी शताव्दीमें कुस्तुनतुनिया-नगरमें किसीने एक ऐसा यन्त्र बनाया था जिसमें एकसे लेकर बारह तक बजते थे। नवीं शताब्दीमें सम्राट शार्लमैनने फारिसके बादशाहको एक जल-घड़ी उपहारमें भेजी थी। उसमें बारहों घण्टे प्रकट करनेके लिये बारह द्वार थे। एक-एक घण्टे में एक-एक दरवाजा खुलता था और जितना बजा होता था उतनी ही गुटिकायें निकल- निकलकर एक ढोलकपर पड़ती और उसे बजाती थीं।

शिल्पकारका मन एक हो विषय में सीमाबद्ध नहीं रहता। जो एक यन्त्रका आविष्कार कर सकता है, वह कभी-कभी अन्य यन्त्र भी बना सकता है। प्राचीन आर्यों ने पारा, जल, तेल इत्यादि की सहायतासे चक्र चलानेकी चेष्टा की थी। ऐसे स्वयंवह-यन्त्रका उल्लेख पहले-पहल लल्ल ने, छठी शताब्दीमें, किया है। उनके बाद ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य (बारहवीं शताब्दी) ने भी भिन्न प्रकार से उसीका वर्णन किया है। आगे हम भास्करके यन्त्र-वर्णन का मतलब देते हैं।

पहले बिना गांठ और कीलके काठका एक छोटा-सा चक्र भ्रमयन्त्र से बनाना चाहिये। इसके बाद उसके घेरेमें एक ही नापके, एकहीसे छेड़वाले और एकहीसे गुरुत्वके आरे लगाना चाहिये। ये