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लेखाञ्जलि


कालका स्रोत बहता चला जा रहा है। प्राचीन कालके लोग दिनमें सूर्यको और रात्रिमें ताराओं को देखकर इस स्रोतका विभाग करते थे। परन्तु दिन-रातके काल भी तो छोटे नहीं होते; उनके विभागकी भी तो आवश्यकता पड़ती है। इस कामको वे वक्ष, डण्डा या अपनी देहकी छाया से करते थे।

परन्तु छाया भी सूर्यसापेक्ष है। अर्थात बिना सूर्यके छाया नहीं हो सकती। जिस दिन मेघोंने कृपा की, उस दिन समय देखना दुःसाध्य हुआ। इसी कठिनता को दूर करनेके लिए ताम्री या घटीका प्रचलन हुआ था। ताँबेके घड़ेके नीचेवाले भागसे घटी-यन्त्र बनाया जाता था। घड़ेके पैदे में बहुत छोटा-सा छेद होता था। घड़ा पानी के ऊपर रख दिया जाता था। पानी धीरे-धीरे घड़ेमें भरने लगता था। यहांतक कि कुछ देरमें वह डूब जाता था। घड़ा इतना बड़ा बनाया जाता था जिसमें वह दिन-रातमें आठ बार डूब सके। जितने समय में घड़ा पानीमें एक बार डूब जाता था उतने समयको लोग घड़ी, घटी या घटिका कहते थे। घड़े में सात "पल" तक पानी भर सकता था। इसीलिए एक घड़ीमें सात पल माने गये थे। ऋग्वेदाङ्ग ज्योतिषमें घटीके बदले प्रस्थ शब्द आया है। विष्णु-पुराणमें भी प्रस्थ-संज्ञा आई है। जल, तेल आदि प्रवाही पदार्थ जिस पात्रके द्वारा नापे जाते थे उसे लोग प्रस्थ कहते थे। इससे जान पड़ता है कि हमारे देशमें घटी-यन्त्रका व्यवहार बहुत प्राचीन कालसे है।

परन्तु जिस यन्त्रके द्वारा काल-ज्ञान होनेके लिए लोगोंको बैठे रहना पड़े, वह सबके व्यवहार-योग्य कभी नहीं हो सकता। इसीलिये लल्ल