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स्वयंवह-यन्त्र


सब आरे नदीके आवर्तके सदृश एक ही ओर कुछ-कुछ झुके हों। आरोंके आधे अंशमें पारा भरकर उनके छेदोंको बन्द कर देना चाहिये। ऐसा चक्र दो आधारों पर स्थित करनेपर, आप-ही-आप घूमेगा; क्योंकि यन्त्रके एक ओर पारा आरोंके मूलमें और दूसरी ओर आगेके सिरेपर दौड़ेगा। शेषोक्त आरे के पारे के आकर्षणसे चक्र आप-ही-आप घूमेगा।

परन्तु यह है क्या व्यापार? क्या यह सदावह-यन्त्र है जिसकी निन्दा आधुनिक वैज्ञानियों ने जो खोलकर की है? या इसमें और भी कोई गुप्त बात है? स्वयंवह-यन्त्र का रहस्य कहीं खुल न जाय, इस आशङ्कासे सूर्य-सिद्धान्तमें उसे गुप्त रखनेके लिये शिष्यको बार-बार ताकीद की गई है। शिल्प-कौशल प्रकाशित हो जानेका जिन्हें इतना डर है वे अवश्य ही कोई बात खोलकर नहीं कह सकते। इसीलिए उन्होंने कहा है कि पारे, जल और तेल आदिका प्रयोग जानना मुश्किल काम है। भास्करके टीकाकार रङ्गनाथ,जो सत्रहवीं शताब्दी में हुए है, कहते हैं—"स्वयंवह-यन्त्र एक असाधारण चीज है। मनुष्यके लिए उसका बनाना असाध्य है। इसीलिए वह दुर्लभ है। यदि ऐसा न होता तो वह प्रत्येक घरमें पाया जाता। समुद्र-पारवासी फिरङ्गियोंको स्वयंवह-विद्या में अच्छा अभ्यास है। वह कुहक-विद्याके अन्तर्गत है।"

अच्छा, यह कुहक-विद्या क्या चीज है? क्या कुहक की तरह स्वयंवह-विद्या भी गुप्त है? वर्णन करनेके ढङ्गसे तो जान पड़ता है कि स्वयंवह-यन्त्र योरपके सदावह-आवर्त-चक्रसे मिलता-जुलता है।