लेखाञ्जलि
महावीर प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ २८ से – ३४ तक

 


५--महाप्रलय।

इस विषयका एक लेख "प्रवासी" में निकल चुका है। वह महत्त्वका है। अतएव उसका सारांश सुन लीजिये। महाभारतमें लिखा है—

ततो दिनकरैदीप्तैः सप्तभिर्मनुजाधिप।
पीयते सलिलं सर्व समुद्रेषु सरित्सु च॥
यश्च काष्ठं तृणञ्चापि शुष्कं चाच भारत।
सर्व तद्भस्मसाद्भूतं दृश्यते भरतर्षम॥
तत: संवर्तको वह्निर्वायुना सह भारत।
लोकमाविशते पूर्वमादित्यरुपशोषितम्॥
ततः स पृथ्वी भित्वा प्रविश्य च रसातलम्।
देवदानवयक्षाणां भयं जनयते महत्॥
निदहन्नागलोकञ्च यश्च किञ्चित् क्षिताविह्।
अघस्तात् पृथिवीपाल सर्वं नाशयते क्षणात्॥
महाभारत। वनपर्व। १८८ अध्याय । ६५-७१ श्लोक।



अर्थात्—इसके बाद (प्रलयकालमें) चमकते हुए सात सूर्य नदियों और समुद्रों के सब जल को सोक लेंगे। सूखे और गीले सब तृण भस्म हो जायेंगे। इसके साथ ही संवर्तक नामक अग्नि वायु के साथ पृथ्वीपर आकर पाताल में प्रवेश कर जायगी। उससे देव, दानव और यक्ष बहुत डरेंगे। यही अग्नि नाग-लोक और पृथ्वीके सब पदार्थों को ध्वंस कर डालेगी।

ईसाइयों के धर्म-ग्रन्थ बाइबिलमें लिखा है—

"Moreover, the light of the moon shall be as the light of the sun, and the light of the sun shall be sevenfold as the light of the seven days in the day the Lord bindeth the breach of his people, and healeth the stroke of their wound."

Isaiah (Chapter 30, V. 26)

अर्थात्—प्रलयके दिन चन्द्रमा सूर्यकी तरह प्रकाशमान हो जायगा और सूर्य सात दिनके इकट्टे प्रकाश की तरह सतगुना प्रकाशमान होगा।

अन्तिम परिणाम के सम्बन्ध में पूर्व और पश्चिम के दो अतिप्राचीन ग्रन्थों का मेल बड़ा ही विस्मयकर है।

अब प्रश्न हो सकता है कि महाप्रलय के सम्बन्धमें प्राचीन ऋषियोंने जो भविष्यवाणी कही है वह क्या विज्ञान-सम्मत है? एक दल के लोग कहते हैं कि ऋषि लोग अभ्रान्त थे। इसलिए पृथ्वीका ध्वंसशास्त्र में लिखी हुई विधि के अनुसार ही होगा। ऐसे लोगोंकी युक्तिके विषयमें हम कुछ नहीं कहना चाहते। परन्तु जिस दलके लोग विज्ञान-


की सहायतासे ऊपर लिखी हुई प्राचीन उक्तियों की सत्यता सिद्ध करना चाहते हैं, यहांपर हम उन्हीं लोगों की बातों पर विचार करते हैं।

इस दलके कुछ लोगोंका कथन है कि पृथ्वी के भीतरकी अग्नि ही पृथ्वी को ध्वंस करेगी, अर्थात् पृथ्वी अपने ही तापसे भस्म हो जायगी। इस तरह ऋषिवाक्य भी सत्य हो जायगा। परन्तु यह सिद्धान्त विज्ञान-सम्मत नहीं हो सकता; क्योंकि इस बात के कई प्रमाण पाये जाते हैं कि पृथ्वी के भीतर का ताप दिन-पर-दिन कम होता जाता है। इसलिए उसके द्वारा पृथ्वीका ध्वंस होना असम्भव है। इस दलके अन्य लोगों का मत है कि पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य्यसे हुई है। यह सूर्य ही अकस्मात् प्रज्वलित होकर पृथ्वीको ध्वंस कर देगा। वास्तवमें यही मत आलोचनाके योग्य है।

सौरजगत् में प्रायः हर साल तूफान आते हैं। उन्होंके कारण सूर्य में धब्बे दिखाई देते हैं। इसमें शक नहीं कि तूफान बड़े ही विकट और भयङ्कर होते हैं। लाखों मील दूर होनेपर भी उनका प्रभाव पृथ्वीपर पड़ता है। परन्तु ऐसे सौरोत्पातका एक भी लक्षण अबतक देखने में नहीं आया, जिससे पृथ्वीके एकदम ध्वंस हो जानेकी सम्भावना हो। इसलिए ऐसा मालूम होता है कि सूर्य केवल अपनी ही अग्निसे पृथ्वी को ध्वंस नहीं कर सकता। सूर्य्य तभी एकदम प्रज्वलित हो सकता है जब उसका सङ्घर्षण किसी बाहरी तारे या पिण्डके साथ हो। इसके सिवा किसी अन्य उपायसे पृथ्वीको ध्वंस करनेकी शक्ति रखनेवाला ताप सूर्यमें नहीं आ सकता।
किसी नूतन तारेका आकस्मिक आविर्भाव ज्योतिषशास्त्र के इतिहासमें कोई नई बात नहीं। अभी कुछ ही वर्ष बीते होंगे, जब वृषराशिके पास एक नया तारा पैदा हो गया था। ज्योतिषियोंका कथन है कि दो अनुज्ज्वल तारोंके सङ्घर्षण से यह तारा उत्पन्न हुआ था। इसलिए क्या यह सम्भव नहीं कि हमारा सूर्य भी किसी ऐसे ही तारेसे धक्का खाकर जल उठे?

इस प्रश्नका उत्तर देना सहज नहीं। हम लोगों के पहचाने हए प्रायः सभी तेजस्क पिण्ड सौरजगत् से बहुत दूर हैं। यदि सूर्य हजारों वर्षतक उनकी ओर बड़ी तेजी से दौड़े तो भी उन्हें नहीं पा सकता। दक्षिणी आकाशकी एक राशिका एक तारा हमलोगों के अत्यन्त निकट है। ज्योतिषियों ने हिसाब लगाकर बतलाया है कि सूर्य यदि प्रति सेकेण्ड दस मीलकी चालसे उस निकटतम तारेकी ओर चले तो कोई अस्सो हज़ार वर्षमें उसके पास पहुंच सकता है। अस्सी हज़ार वर्ष बाद सूर्यका सङ्घर्षण किसी तारे के साथ होगा या नहीं, इसकी आलोचना यदि न की जाय तो भी कोई हर्ज नहीं। हाँ, दो चार हजार वर्षके अन्दर सौरजगत् में कोई विपद आवेगी या नहीं, इसकी आलोचना करना आवश्यक है।

ज्योतिषियों का कथन है कि आँखों या दूरबीन के द्वारा जितने तारे या ग्रह देखे जाते हैं उनके सिवा एक जाति के और भी पिण्ड है जो सदा आकाश में घूमा करते हैं। आकार-प्रकार में वे मामूली नक्षत्रों हीकी तरह हैं। उष्णता और प्रकाश फैलाते-फैलाते वे अनुज्ज्वल हो गये हैं। इसलिए हमलोग उन्हें नहीं देख सकते हैं। अत-

एव अब यह प्रश्न हो सकता है कि सूर्य किसी ऐसे अनुज्ज्वल तारे के सहर्ष से क्या प्रज्वलित नहीं हो सकता? इसके उत्तर में आधुनिक ज्योतिषी कहते हैं कि यदि किसी समय सूर्यके तापाधिक्य से पृथ्वीका ध्वंस होना सम्भव है तो किसी अनुज्ज्वल तारेके सङ्घर्ष हीसे यह बात हो सकती है। वृहस्पति, शनि इत्यादि ग्रह अपने छोटे-छोटे उपग्रहों को लेकर जैसे आकाशमें दौरा लगाते हैं, वैसेही सूर्य भी अपने समस्त सौर-परिवारके साथ आकाशकी एक ओर दौड़ा करता है। सूर्यकी इस गतिका पता लगनेके बाद कुछ दिनों तक विद्वानोंमें इस बातपर तर्क-वितर्क होता रहा था कि सूर्यको गति किस ओर है। कुछ ही समय पूर्व यह तर्क-द्वन्द्व समाप्त हुआ है। सब विद्वानों ने एकमत होकर मान लिया है कि सौरजगत् प्रति सेकण्ड दस मीलकी चालसे अभिजित् नक्षत्रकी ओर दौड़ रहा है। इसलिए यदि सूर्य और अभिजित् नक्षत्रके बीचमें कोई अनुज्ज्वल तारा आ जायगा तो दोनों के संघर्षसे एक विकट अग्निकाण्ड उपस्थित होगा, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं।

अध्यापक गोर (Gore) एक विख्यात अँगरेज़ ज्योतिषी हैं। यह सोचकर कि भविष्यत् में सूर्य के साथ किसी अनुज्ज्वल तारे का संघर्ष होना बिलकुल सम्भव नहीं, उन्होंने इसके सम्बन्धमें कुछ दिन हुए गणना करना प्रारम्भ किया था। उसका फल प्रकाशित हो गया है। सूर्य और अभिजित् नक्षत्र के बीच में किसी स्थानपर सूर्य हीकी तरह बृहत् और गतिशील एक अनुज्ज्वल नक्षत्र का अस्तित्व मानकर गणना प्रारम्भ की गई थी। हिसाब लगानेपर

मालूम हुआ कि जब सूर्य और इस कल्पित नक्षत्र का फासला एक अरब पचास करोड़ मील रह जायगा तब इस नक्षत्र के दर्शन हम लोगों को होंगे। अर्थात् उस समय वह सूर्यके प्रकाशसे प्रकाशित हो जायगा और हम लोगों को नवम श्रेणी के तारे के समान दिखाई पड़ेगा। जब दो गतिशील पदार्थ एक दूसरे के निकट होने लगते हैं तब माध्याकर्षण के नियमानुसार उनकी चाल अधिक तेज़ हो जाती है। इस हिसाबसे सूर्य और उस कल्पित नक्षत्र के बीचकी दूरी एक अरब पचास करोड़ मील में से एक अरब चवालीस करोड़ मील तय करने में, दोनोंको सिर्फ बारह वर्ष लगेंगे। अर्थात बारह वर्ष बाद दोनों के बीच का फासला सिर्फ छः करोड़ मील रह जायगा। उस समय यह कल्पित नक्षत्र पंचम श्रेणी के नक्षत्र की तरह दिखाई देगा। पंचम श्रेणीके नक्षत्र बहुत उज्ज्वल नहीं होते। इसलिए सूर्य के इतना निकट आनेपर भी सर्वसाधारण भी उसे दूरबीन की सहायताके बिना न देख सकेंगे। पर इसके बाद दोनोंका फासला इतनी जल्दी कम होने लगेगा कि बादके चार वर्षों में बृहस्पति की कक्षा के निकट आकर यह नक्षत्र दो शुक्रों और चार बृहस्पतियों के समान उज्ज्वल हो जायगा। उस समय इसे द्वितीय चन्द्रमाकी तरह आकाशमें उदित देखकर पृथ्वीवासी अवश्य ही विस्मित होंगे।

इसके बाद सौरजगत् कितने वेगसे उस सहायक नक्षत्र के निकट होने लगेगा, इसका हिसाब भी गोर साहबने लगाया है। आप कहते हैं कि ५१ दिनमें पृथ्वी की कक्षा पार करके यह नक्षत्र इतने प्रबल वेगसे सूर्य को धक्का देगा कि सौरजगत् क्षणभर में ध्वंस हो जायेगा।
यहाँपर यह प्रश्न हो सकता है कि सूर्यको धक्का देनेके पहले यह संहारक नक्षत्र जब पृथ्वीको कक्षाके निकट होगा तब इसके आकर्षणसे पृथ्वीका कोई अनिष्ट हो सकता है या नहीं। गोर साहबने इसके सम्बन्धमें भी गणना की है। उससे मालूम होता है कि यदि यह नक्षत्र किसी सालकी इक्कीसवीं जूनको भूकक्षा के निकट होगा तो सूर्यके पास पहुचनेके पहले ही वह पृथ्वीको टक्कर मारकर ध्वंस कर देगा। इस दशामें यह नक्षत्र इतने जोरसे पृथ्वीको खींचेगा कि सूर्य उसके आकर्षण को किसी तरह न रोक सकेगा। यदि यह नक्षत्र तिरछी चालसे सौरजगत् में प्रवेश करेगा, तो पृथ्वीकी क्या दशा होगी, गोर साहबने इसका भी हिसाब लगाया है। आपके कथना- नुसार इस नाक्षत्रिक संहारसे सूर्य तो बच सकता है, पर हमारी पथ्वीका निरापद रहना असम्भव है। इसलिए मालूम होता है कि महाभारत और बाइबिल ने सैकड़ों वर्ष पहले पथ्वीके अन्तिम परिणामके सम्बन्ध में जो सिद्धान्त स्थिर किये हैं वे एक-दम असम्भव नहीं।

ज्योतिष शास्त्रकी उन्नतिके साथ-साथ नक्षत्रोंका पर्यवेक्षण करने के उपयोगी बहुतसे यन्त्रोंका आविष्कार हो गया है। इसलिए अब यदि किसी नये नक्षत्र का आविर्भाव होता है तो वह घटना तुरन्त जान ली जाती है। सौरजगत्के गन्तव्य स्थान में, बहुत अनुसन्धान करने पर भी, किसी नये नक्षत्र का पता नहीं लगा। इसलिए गोर साहब के कथनानुसार यह प्रकट है कि अभी बहुत समयतक पृथ्वीके ध्वंस होनेकी कोई सम्भावना नहीं। हां, यदि कभी पूर्वोक्त प्रकारका कोई नक्षत्र देख पड़े,को उसके सोलहवें वर्ष पथ्वीका ध्वंस निश्चय समझना चाहिए।