हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण ३ बोधा

[ ३७३ ](२९) बोधा––ये राजापुर (जि॰ बाँदा) के रहनेवाले सरयूपारी ब्राह्मण थे। पन्ना दरबार में इनके संबंधियों की अच्छी प्रतिष्ठा थी। उसी संबंध से ये बाल्यकाल ही में पन्ना चले गए। इनका नाम बुद्धिसेन था, पर महाराज इन्हें प्यार से 'बोधा' कहने लगे और वही नाम इनका प्रसिद्ध हो गया। भाषाकाव्य के अतिरिक्त इन्हें संस्कृत और फारसी का भी अच्छा बोध था। शिवसिंहसरोज में इनका जन्म-संवत् १८०४ दिया हुआ है। इनका कविता-काल संवत् १८३० से १८६० तक माना जा सकता है।

बोधा एक बडे़ रसिक जीव थे। कहते हैं कि पन्ना दरबार में सुभान (सुबहान) नाम की एक वेश्या थी जिसपर इनका प्रेम हो गया। इसपर रुष्ट होकर महाराज ने इन्हें ६ महीने देश-निकाले का दंड दिया। सुभान के वियोग में ६ महीने इन्होंने बड़े कष्ट से बिताए और उसी बीच में "विरह-बारीश" नामक एक पुस्तक लिखकर तैयार की। ६ महीने पीछे जब ये फिर दरबार में लौटकर आए, तब अपने "विरह-बारीश" के कुछ कवित्त सुनाए। महाराज ने प्रसन्न होकर इनसे कुछ माँगने को कहा। इन्होंने कहा "सुभान अल्लाह"। महाराज ने प्रसन्न होकर सुभान को इन्हें दे दिया और इनकी मुराद पूरी हुई।

'विरह-बारीश' के अतिरिक्त "इश्कनामा" भी इनकी एक प्रसिद्ध पुस्तक है। इनके बहुत से फुटकल कवित्त सवैए इधर उधर पाएं जाते है। बोधा एक रसोन्मत्त कवि थे, इससे इन्होंने कोई रीतिग्रंर्थ न लिखकर अपनी मौज के अनुसार फुटकल पद्यों की ही रचना की है। ये अपने समय के एक प्रसिद्ध कवि थे। प्रेममार्ग के निरूपण में इन्होंने बहुत से पद्य कहे है। 'प्रेम की पीर' की व्यंजना भी इन्होंने बड़ी मर्मस्पर्शिनी युक्ति से की है। यत्र तत्र व्याकरण-दोष रहने पर भाषा इनकी चलती और मुहावरेदार होती थी। उससे प्रेम की उमंग छलकी पड़ती है। इनके स्वभाव में फक्कड़पन भी कम नहीं था। 'नेजे', 'कटारी' और 'कुरबान' वाली बाजारु ढंग की रचना भी इन्होंने कहीं कहीं की है। जो कुछ हो, ये भावुक और रसज्ञ कवि थे, इसमें कोई संदेह नही। कुछ पद्य इनके नीचे दिए जाते है––

अति खीन मृनाल के तारहु तें तेहि ऊपर पाँव दै आवनो है।
सुई-बेह कै द्वार सकै न तहाँ परतीति को ठाँडों लदावनो है॥

[ ३७४ ]

कवि बोधा अनी घनी नेजहु तें चढ़ि तापै न चित्त डरावनो है।
यह प्रेम को पंथ कराल महा तरवारि की धार पै धावनो हैं॥


एक सुभान के आनन पै कुरबान जहाँ लगि रूप जहाँ को।
कैयो सतऋतु की पदवी लुटिए लखि कै मुसाहट ताको॥
सोक जरा गुजरा न जहाँ कवि बोधा जहाँ उजरा न तहाँ को।
जान मिलै तो जहान मिलै, नहिं जान मिलै तौ जहान कहाँ को॥


'कबहूँ मिलिबो, कबहूँ मिलिबो' वह धीरज ही में धरैबो करै।
उरतें कढ़ि आवै,गरे तें फिरैं, मन की मन ही में सिरैबो करै॥
कवि बोधा न चाँड सरी कबहूँ, नितही हरवा सो हिरैबो करै।
सहते ही बनै, कहते न बनै, मन ही मन पीर पिरैबो करै॥


हिलि मिलि जानै तासों मिलि कै जनावै हेत,
हिसको न जानै ताको हितू न विसाहिए।
होय मगरूर तापै दूनी मगरूरी कीजै,
लघु ह्वै चलै जो तासों लधुता निवाहिए॥
बोधा कवि नीति को निबेरो यही भाँति अहै,
आपको सराहै ताहि आपहू सराहिए।
दाता कहा, सूर कहा, सुंदर सुजान कहा,
।आपको न चाहै ताके बाप को न चाहिए॥

(३०) रामचंद्र––इन्होंने अपना कुछ भी परिचय नहीं दिया है। भाषा महिम्न के कर्ता काशीवासी मनियारसिंह ने अपने को "चाकर अखंडित श्रीरामचंद्र पंडित के" लिखा है। मनियारसिंह ने अपना "भाषा-महिम्न" संवत् १८४१ में लिखा। अतः इनका समय संवत् १८४० माना जा सकता है। इनकी एक ही पुस्तक "चरणचंद्रिका" ज्ञात है। जिस पर इनका सारा यश स्थिर है। यह भक्ति-रसात्मक ग्रंथ केवल ६२ कवित्तों का है। इसमें [ ३७५ ]पार्वतीजी के चरणों का वर्णन अत्यंत रुचिर और अनूठे ढंग से किया गया है। इस वर्णन से अलौकिक सुषमा, विभूति, शक्ति और शांति फूटी पड़ती है। उपास्य के एक अंग में अनंत ऐश्वर्य की भावना भक्ति की चरम भावुकता के भीतर ही संभव हैं। भाषा लाक्षणिक और पांडित्यपूर्ण है। कुछ और अधिक न कहकर इनके दो कवित्त ही सामने रख देना ठीक है––

नूपुर बजत मानि मृग से अधीन होत,
मीन होत जानि चरनामृत-झरनि को।
खंजन से नचैं देखि सुषमा सरद की सी,
सचैं मधुकर से पराग केसरनि को॥
रीझि रीझि तेरी पदछबि पै तिलोचन के,
लोचन ये अब धारैं केतिक धरनि को।
फूलत कुमुद से मयंक से निरखि नख,
पंकज से खिलैं लखि तरवा-तरनि को॥


मानिए करींद्र जो हरींद्र को सरोष हर,
मानिए तिमिर घेरै भानु किरनन को।
मानिए चटक बाज जुर्रा को पटकि मारै,
मानिए भटकि डारै भेक भुजगन को॥
मानिए कहै जो वारिधार पै दवारि औ
अंगार बरसाइबो बतावै बारिदन को।
मानिए अनेक विपरीत की प्रतीत, पै न
भीति आई मानिए भवानी-सेवकन को॥

(३१) मंचित––ये मऊ (बुँदेलखंड) के रहनेवाले ब्राह्मण थे और संवत् १८३६ में वर्तमान थे। इन्होंने कृष्ण-चरित संबधी दो पुस्तकें लिखी हैं––सुरभी-दानलीला और कृष्णायन। सुरभी-दानलीला में बाललीला, यमलार्जुन-पतन और दान-लीला का विस्तृत वर्णन सार छंद में किया गया है। इसमें श्रीकृष्ण का नखशिख भी बहुत अच्छा कहा गया है। कृष्णायन [ ३७६ ]तुलसीदासजी की रामायण के अनुकरण पर दोहों चौपाइयों में लिखी गई है। इन्होंने गोस्वामीजी की पदावली तक का अनुकरण किया है। स्थान-स्थान पर भाषा अनुप्रासयुक्त और संस्कृत-गर्भित है, इससे ब्रजवासीदास की चौपाइयों की अपेक्षा इनकी चौपाइयाँ गोस्वामीजी की चौपाइयों से कुछ अधिक मेल खाती हैं। पर यह मेल केवल कहीं कहीं दिखाई पड़ जाती है। भाषा-मर्मज्ञ को दोनों का भेद बहुत जल्दी स्पष्ट हो जाता है। इनकी भाषा ब्रज है, अवधी नहीं। इसमें वह सफाई और व्यवस्था कहाँ? कृष्णायन की अपेक्षा इनकी सुरभी-दानलीला की रचना अधिक सरस हैं। दोनों से कुछ अवतरण नीचे दिए जाते हैं––

कुंडल लोल अमोल कान के छुवत कपोलन आवैं।
डुलैं आप से खुलैं जोर छबि बरबस मनहिं चुरावैं॥
खौर बिसाल भाल पर सोभित केसर की चित भावैं‌।
ताके बीच बिंदु रोरी को, ऐसो बेस बनावें॥
भ्रुकुटी बंक नैन खंजन से कंजन गंजनवारे।
मद भंजन खग-मीन सदा जे मनरंजन अनियारे॥

(सुरभी-दानलीला से)

अचरज अमित भयो लखि सरिता। दुतिय ने उपमा कहि सम-चरिता॥
कृष्णदेव कहँ प्रिय जमुना सी। जिमि गोकुल गोलोक-प्रकासी॥
अति विस्तार पार, पय पावन। उभय करार घाट मन भावन॥
बनचर बनज बिपुल बहु पच्छी। अलि-अवली-धुनि-सुनि अति अच्छी॥
नाना जिनिस जीव सरि सेवैं। हिंसाहीन असन सुचि जेवैं॥

(कृष्णायन)

(३२) मधुसूदनदास––ये माथुर चौबे थे। इन्होंने गोविंददास नामक किसी व्यक्ति के अनुरोध से संवत् १८३९ में "रामाश्वमेध" नामक एक बड़ा और मनोहर प्रबंधकाव्य बनाया जो सब प्रकार से गोस्वामीजी के रामचरितमानस का परिशिष्ट ग्रंथ होने के योग्य है। इसमें श्रीरामचंद्र द्वारा अश्वमेध-यज्ञ का अनुष्ठान, घोड़े के साथ गई हुई सेना के साथ सुबाहु, दमन, विद्युन्माली [ ३७७ ]राक्षस, वीरमणि, शिव, सुरथ आदि का घोर युद्ध; अंत में राम के पुत्र लव और कुश के साथ भयंकर संग्राम, श्रीरामचंद्र द्वारा युद्ध का निवारण और पुत्रों सहित सीता का अयोध्या में आगमन; इन सब प्रसंगों का पद्मपुराण के आधार पर बहुत ही विस्तृत और रोचक वर्णन है। ग्रंथ की रचना बिलकुल रामचरितमानस की शैली पर हुई है। प्रधानता दोहों के साथ चौपाइयों की है, पर बीच बीच में गीतिका आदि और छंद भी है। पद-विन्यास और भाषासौष्ठव रामचरितमानस का सा ही है। प्रत्यय और रूप भी बहुत कुछ अवधी के रखे गए हैं। गोस्वामीजी की प्रणाली के अनुसरण में, मधुसूदनदासजी को पूरी सफलता हुई है। इनकी प्रबंधकुशलता, कवित्व-शक्ति और भाषा की शिष्टता तीनों उच्च कोटि की हैं। इनकी चौपाइयाँ अलबत्तः गोस्वामीजी की चौपाइयों में बेखटके मिलाई जा सकती हैं। सूक्ष्म दृष्टि वाले भाषा मर्मज्ञो को केवल थोड़े ही ऐसे स्थलों में भेद लक्षित हो सकता है जहाँ बोलचाल की छाया होने के कारण भाषा का असली रूप अधिक स्फुटित है। ऐसे स्थलो पर गोस्वामीजी के अवधी के रूप और प्रत्यय न देखकर भेद का अनुभव हो सकता है। पर जैसा कहा जा चुका है, पदविन्यास की प्रौढ़ता और भाषा का सौष्ठव गोस्वामीजी के मेल का है।


सिय-रघुपति-पदकंज पुनीता। प्रथमहिं बंदन करौं सप्रीता॥
मृदु मंजुल सुंदर सब भाँती। ससि-कर-सरिस सुभग नख-पाँती॥
प्रणत कल्पतरु तर सब ओरा। दहन अज्ञ तम जन-चितचोरा॥
बिबिध कलुष कुंजर घनघोरा। जगप्रिसद्ध केहरि बरजोरा॥
चिंतामणि पारस सुरधेनू। अधिक कोटि गुन अभिमत देनू॥
जन-मन-मानस रसिक मराला। सुमिरत भंजन बिपति बिसाला॥



निरखि कालजित कोपि अपारा। विदित होय करि गदा प्रहार॥
महावेगयुत आवै सोई। अष्टधातुमय जाय न जोई॥
अयुत भार भरि भार प्रसाना। देखिय जमपति-दंड समाना॥
देखि नाहि लव हनि इषु चडा। कीन्हीं तुरत गदा त्रय खंडा॥
जिमि नभ माँह मेघ-समुदाई। बरषहिं बारि महा झरि लाई॥

[ ३७८ ]

तिमि प्रचंड सायक जनु ब्याला। हने कीस-तन लव तेहि काला॥
भए विकल अति पवन कुमारा। लगे करन तब हृदय बिचारा॥

(३३) मनियार सिंह––ये काशी के रहनेवाले क्षत्रिय थे इन्होंने देव पक्ष में ही कविता की है और अच्छी की है। इनके निम्नलिखित ग्रंथो का पता है––

महिम्न भाषा, सौंदर्य लहरी (पार्वती या देवी की स्तुति), हनुमत छबीसी, सुंदरकांड। भाषा महिम्न इन्होंने संवत् १८४१ में लिखा। इनकी भाषा सानुप्रास, शिष्ट और परिमार्जित हैं और उसमें ओज भी पूरा है। ये अच्छे कवि हो गए हैं। रचना के कुछ उदाहरण लीजिए––

मेरो चित्त कहाँ दीनता में अति दूबरो है,
अधरम-घूमरो न सुधि के सँभारे पै।
कहाँ तेरी ऋद्धि कवि बुद्ध-धारा-ध्वनि तें,
त्रिगुण तें, परे ह्वै दिखात निरधारे पै॥
मनियार यातें मति थकित जकित ह्वै के,
भक्तिबस धरि उर धीरज बिचारे पै।
बिरची कृपाल वाक्यमाल या पुहुपदंत,
पूजन करन काज चरन तिहारे पै॥


तेरे पद-पंकज-पराग राज-राजेश्वरी।
वेद-बंदनीय बिरुदावलि बढी रहै।
जाकी किनुकाई पाय धाता ने धरित्री रची,
जापै लोक लोकन की रचना कढ़ी रहै॥
मनियार जाहि विष्णु सेवैं सर्व पोषत में,
सेस हू के सदा सीस सहस मढ़ी रहै।
सोई सुरासुर के सिरोमनि सदाशिव के,
भसम के रूप ह्वै सरीर पै चढ़ी रहै॥


[ ३७९ ]

अभय कठोर बानी सुनि लछमन जू की,
मारिबे को चाहि जो सुधारि खल तरवारि।
वीर हनुमंत तेहि गरजि सुहास करि,
उपटि पकरि ग्रीव भूमि लै परे पछारि॥
पुच्छ तें लपेटि फेरि दंतन दरदराइ,
नखन बकोटि चोंथि देत महि डारि डारि।
उदर बिदारि मारि लुत्थन को टारि बीर,
जैसे मृगराज गजरान, डारै फारि फारि॥

(३४) कृष्णदास––ये मिरजापुर के रहनेवाले कोई कृष्णभक्त जान पड़ते हैं। इन्होंने संवत् १८५३ में "माधुर्य लहरी" नाम की एक बड़ी पुस्तक ४२० पृष्ठों की बनाई जिसमें विविध छंदो में कृष्णचरित का वर्णन किया गया है। कविता इनकी साधारणतः अच्छी है। एक कवित्त देखिए––

कौन काज लाज ऐसी करै जो अकाज अहो,
बार बार कहो नरदेव कहाँ पाइए।
दुर्लभ, समाज मिल्यो सफल सिद्धांत जानि,
लीला गुन नाम धाम रूप सेवा गाइए॥
बानी की सयानी सब पानी में बहाय दीजै,
जानी सो न रीति जासों दंपति रिझाइए।
जैसी जैसी गही जिन लही तैसी नैननहू,
धन्य धन्य राधाकृष्ण नित ही गनाइए॥

(३५) गणेश––ये नरहरि बंदीजन के वंश में लाल कवि के पौत्र और गुलाब कवि के पुत्र थे। ये काशीराज महाराज उदितनारायणसिंह के दरबार में थे और महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायणसिंह के समय तक जीवित रहे। इन्होंने तीन ग्रंथ लिखे–१––वाल्मीकी रामायण श्लोकार्थ प्रकाश। (बालकांड समग्र और किष्किंधा के पाँच अध्याय) २––प्रद्युम्नविजय नाटक। ३––हनुमत् पचीसी।

प्रद्युम्नविजय नाटक समग्र पद्यबद्ध हैं और अनेक प्रकार के छंदों में सात [ ३८० ]अंको में समाप्त हुआ है। इसमें दैत्यों के वज्रनाभपुर नामक नगर में प्रद्युम्न के जाने और प्रभावती से गांधर्व विवाह होने की कथा हैं। यद्यपि इसमे पात्रप्रवेश, विष्कंभक, प्रवेशक आदि नाटक के अंग रखे गए हैं पर इतिवृत्त का भी वर्णन पद्य में होने के कारण नाटकत्व नहीं आया है। एक उदाहरण दिया जाता है––


ताही के उपरांत कृष्ण इंद्र आवत भए।
भेंटि परस्पर कांत बैठ सभासद मध्य तहँ॥

बोले हरि इंद्र सों बिनै कै कर जोरि दोऊ,
आजु दिग्विजय हमारे हाथ आयो है।
मेरे गुरु लोग सब तोषित भए हैं आजु,
पूरो तप दान, भाग्य सफल सुहायो है॥
कारज समस्त सरे, मंदिर में आए आप,
देवन के देव मोहि धन्य ठहरायो है।
सो सुनि पुरंदर उपेंद्र लखि आदर सों,
बोले सुनौ बंधु! दानवीर नाम पायो है॥

(३६) सम्मन––ये मल्लावाँ (जि॰ हरदोई) के रहनेवाले ब्राह्मण थे और संवत् १८३४ में उत्पन्न हुए थे। इनके नीति के दोहे गिरिधर की कुंडलियाँ के समान गाँवों तक में प्रसिद्ध हैं। इनके कहने के ढंग मे कुछ मार्मिकता है। "दिनों के फेर" आदि के संबंध में इनके मर्मस्पर्शी दोहे स्त्रियों के मुँह से बहुत सुने जाते हैं। इन्होंने संवत् १८७९ में "पिंगल काव्य-भूषण" नामक एक रीति-ग्रंथ भी बनाया। पर ये अधिकतर अपने दोहों के लिये ही प्रसिद्ध है। इनका रचनाकाल संवत् १८६० से १८८० तक माना जा सकता है। कुछ दोहे देखिए––

निकट रहे आदर घटै, दूर रहे दुख होय।
सम्मन या संसार में, प्रीति करो जनि कोय॥
सम्मन चहौ सुख देह कौ तौ छाँड़ी ये चारि।
चोरी, चुगुली, जामिनी और पराई नारि॥

[ ३८१ ]

सम्मन मीठी बात सों होत सबै सुख पूर।
जेहि नहिं सीखो बोलिबो, तेहि सीखो सब धूर॥