हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण ३ ठाकुर

[ ३८१ ] (३७) ठाकुर––इस नाम के तीन कवि हो गए हैं जिनमें दो असनी के ब्रह्मभट्ट थे और एक बुंदेलखंड के कायस्थ। तीनों की कविताएँ ऐसी मिल जुल गई हैं कि भेद करना कठिन है। हाँ, बुंदेलखंडी ठाकुर की वे कविताएँ पहचानी जा सकती हैं जिनमें बुंदेलखंडी कहावते या मुहावरे आए हैं।

असनीवाले प्राचीन ठाकुर

ये रीतिकाल के आरभ में संवत् १७०० के लगभग हुए थे। इनका कुछ वृत्त नहीं मिलेता; केवल फुटकल कविताएँ इधर उधर पाई जाती है। संभव है इन्होंने रीतिबद्ध रचना न करके अपने मन की उमंग के अनुसार ही समय-समय पर कवित्त सवैए बनाए हो जो चलती और स्वच्छ भाषा में है। इनके ये दो सवैए बहुत सुने जाते हैं––

सजि सूहै दुलकन बिज्जुछटा सी अटान चढीं धटा जोवति हैं।
सुचिती ह्वै सुनै धुनि मोरन की, रसमाती सँयोग सँजोवति हैं॥
कवि ठाकुर वै पिय दूरि बसैं, हम आँसुन सो तन धोवति हैं।
धनि वै धनि पावस की रतियाँ पति की छतियाँ लगि सोवति हैं॥


बौरे रसालन की चढ़ि डारन कूकत क्वैलिया मौन गहै ना।
ठाकुर कुंजन कुंजन, गुंजत भौंरन भीर चुपैबो चहै ना॥
सीतल मंद सुगंधित, बीर समीर लगे तन धीर रहै ना।
व्याकुल कीन्हो बसंत बनाय कै, जाय कै कंत सों कोऊ कहै ना॥

असनीवाले दूसरे ठाकुर

ये ऋषिनाथ कवि के पुत्र और सेवक कवि के पितामह थे। सेवक के भतीजे श्रीकृष्ण ने अपने पूर्वजों का जो वर्णन लिखा है उसके अनुसार ऋषिनाथजी के पूर्वज देवकीनंदन मिश्र गोरखपुर जिले के एक कुलीन सरयूपारी ब्राह्मण––पयासी के मिश्र––थे और अच्छी कविता करते थे। एक बार मँझौली के राजा [ ३८२ ]के यहाँ विवाह के अवसर पर देवकीनंदनजी ने भाटो की तरह कुछ कवित्त पढ़ें और पुरस्कार लिया। इसपर उनके भाई-बंधुओं ने उन्हें जातिच्युत कर दिया और वे असनी के भाट नरहर कवि की कन्या के साथ अपना विवाह करके असनी में जा रहे और भाट हो गए। उन्हीं देवकीनंदन के वंश में ठाकुर के पिता ऋषिनाथ कवि हुए।

ठाकुर ने संवत् १८६१ में "सतसई वरनार्थ" नाम की "बिहारी सतसई" की एक टीका (देवकीनंदन टीका) बनाई। अतः इनका कविता-काल संवत् १८६० के इधर उधर माना जा सकता है। ये काशिराज के संबंधी काशी के नामी रईस (जिनकी हवेली अब तक प्रसिद्ध हैं) बाबू देवकीनंदन के आश्रित थे। इनका विशेष वृत्तात स्व॰ पंडित अंबिकादत्त व्यास ने अपने, "बिहारी बिहार" की भूमिका में, दिया है। ये ठाकुर भी बड़ी सरस कविता करते थे। इनके पद्य मे भाव या दृश्य का निर्वाह अबोध रूप में पाया जाता है। दो उदाहरण लीजिए––

कारे लाल करहे पलासन के पुंज तिन्हैं
अपने झकोरन झुलावन लगी है री।
ताही को ससेटी तृन-पत्रन-लपेटि धरा-
धाम तें अकास धूरि धावन लगी है री॥
ठाकुर कहत सुचि सौरभ प्रकासन भों
आछी भाँति रुचि उपजावन लगी है री।
ताती सीरी बैहर वियोग वा संयोगवारी,
आवनि बसंत की जनावन लगी है री॥


प्रान झुकामुकि भेष छपाथ कै गागर लै घर तें निकरी ती।
जानि परी न कितीक अबार है, जाय परी जहँ होरी धरी ती॥
ठाकुर दौरि परे मोंहि देखि कै, भागि बची री, बड़ी सुघरी ती।
बीर की सौं जौ किवार न देउँ तौ मैं होरिहारन हाथ परी ती॥

[ ३८३ ]

तीसरे ठाकुर बुँदेलखंडी

ये जाति के कायस्थ थे और इनका पूरा नाम लाला ठाकुरदास था। इनके पूर्वज काकोरी (जिला लखनऊ) के रहनेवाले थे और इनके पितामह खङ्गरायजी बड़े भारी मंसबदार थे। उनके पुत्र गुलाबराय का विवाह बड़ी धूमधाम से ओरछे (बुंदेलखंड) के रावराजा (जो महाराज ओरछा के मुसाहब थे) की पुत्री के साथ हुआ था। ये ही गुलाबराय ठाकुर कवि के पिता थे। किसी कारण से गुलाबराय अपनी ससुराल ओरछे में ही आ बसे जहाँ संवत् १८२३ में ठाकुर का जन्म हुआ। शिक्षा समाप्त होने पर ठाकुर अच्छे कवि निकले और जैतपुर में सम्मान पाकर रहने लगे। उस समय जैतपुर के राजा केसरीसिंहजी थे। ठाकुर के कुल के कुछ लोग बिजावर में भी जा बसे थे। इससे ये कभी कभी वहाँ भी रहा करते थे। बिजावर के राजा ने भी एक गाँव देकर ठाकुर का सम्मान किया। जैतपुर-नरेश राजा केसरीसिंह के उपरांत जब उनके पुत्र राजा पारीछत गद्दी पर बैठे तब ठाकुर उनको सभा के रत्न हुए। ठाकुर की ख्याति उसी समय से फैलने लगी और वे बुंदेलखंड के दूसरे राज दरबारों में कभी आने जाने लगे। बाँदे के हिम्मतबहादुर गोसाईं के दरबार में कभी कभी पद्माकरजी के साथ ठाकुर की कुछ नोक झोंक की बाते हो जाया करती थीं। एक बार पद्माकरजी ने कहा "ठाकुर कविता तो अच्छी करते है पर पद कुछ हलके पड़ते हैं।" इस पर ठाकुर बोले "तभी तो हमारी कविता उड़ी-उड़ी फिरती हैं।"

इतिहास में प्रसिद्ध है कि हिम्मतबहादुर कभी अपनी सेना के साथ अँगरेजो का कार्यसाधन करते और कभी लखनऊ के नवाब के पक्ष में लड़ते। एक बार हिम्मतबहादुर ने राजा पारीछत के साथ कुछ धोखा करने के लिये उन्हे बाँदे बुलाया। राजा पारीछत वहाँ जा रहे थे कि मार्ग में ठाकुर कवि मिले और दो ऐसे संकेत भरे सवैए पढ़े कि राजा पारीछत लौट गए। एक सवैया यह है––

कैसे सुचित भए निकसौं बिहँसौं बिलसौं हरि दै गलबाहीं।
ये छल छिद्रन की बतियाँ छलती छिन एक घरी पल मही॥

[ ३८४ ]

ठाकुर वै जुरि एक भई, रचिहैं परपंच कछू ब्रज माहीं।
हाल चवाइन की दुहचाल की लाल तुम्हैं है दिखात कि नाहीं॥

कहते है कि यह हाल सुनकर हिम्मतबहादुर ने ठाकुर को अपने दरबार में बुला भेजा। बुलाने का कारण समझकर भी ठाकुर बेधड़क चले गए। जब हिम्मतवहादुर इन पर झल्लाने लगे तब इन्होंने यह कवित्त पढ़ा––

वेई नर निर्णय निदान में सराहे जात,
सुखन अघात प्याला प्रेम को पिए रहैं।
हरि-रस चंदन चढाय अंग अंगन में,
नीति को तिलक, बेंदी जस की दिए रहैं॥
ठाकुर कहत मंजु कंजु तें मृदुल मन,
मोहनी सरूप, धारे, हिम्मत हिए रहैं।
भेंट भए समये असमये, अचाहे चाहे,
और लौं निबाहैं, आँखें एकसी किए हैं॥

इस पर हिम्मतबहादुर ने जब कुछ और कटु वचन कहा तब सुना जाता है कि ठाकुर ने म्यान से तलवार निकाल ली और बोले––

सेवक सिपाही हम उन राजपूतन के,
दान जुद्ध जुरिबे में नेकु जे न मुरकें।
नीत देनवारे हैं मही के महिपालन को,
हिए के विरुद्ध हैं, सनेही साँचे उर के॥
ठाकुर कहत हम बैरी बेवकूफन के,
जालिम दमाद हैं अदानियाँ ससुर के।
चोजिन के चोजी महा, मौजिन के महाराज,
हम कविराज हैं, पै चाकर चतुर के॥

हिम्मतबहादुर यह सुनते ही चुप हो गए। फिर मुस्कराते हुए बोले––"कविजी बस! मैं तो यही देखना चाहता था कि आप कोरे कवि ही है या पुरखों की हिम्मत भी आप में है।" इस पर ठाकुरजी ने बड़ी चतुराई से उत्तर दिया––महाराज! हिम्मत तो हमारे ऊपर सदा अनूप रूप से बलिहार रही है, [ ३८५ ]आज हिम्मत कैसे गिर जायगी?" (गोसाईं हिम्मत गिरि का असल नाम अनूप गिरि था; हिम्मतबहादुर शाही खिताब था।)

ठाकुर कवि की परलोकवास संवत् १८८० के लगभग हुआ। अतः इनका कविता-काल संवत् १८५० से १८८० तक माना जाता हैं। इनकी कविता का एक अच्छा संग्रह "ठाकुर-ठसक" के नाम से श्रीयुत लाला भगवानदीनजी ने निकाला है। पर इसमें भी दूसरे दो ठाकुर की कविताएँ मिली हुई हैं। इस संग्रह में विशेषता यह है कि कवि का जीवन-वृत्त भी बहुत कुछ दे दिया गया हैं। ठाकुर के पुत्र दरियावसिंह (चातुर) और पौत्र शंकरप्रसाद भी कवि थे।

ठाकुर बहुत ही सच्ची उमंग के कवि थे। इनमें कृत्रिमता का लेश नहीं। न तो कहीं व्यर्थ का शब्दाडंवर है, न कल्पना की झूठी उड़ान और न अनुभूति के विरुद्ध भावों का उत्कर्ष। जैसे भावो का जिस ढंग से मनुष्य मात्र अनुभव करते है वैसे भावों को उसी ढंग से वह कवि अपनी स्वाभाविक भाषा में उतार देता है। बोलचाल की चलती भाषा में भाव का ज्यों का त्यों सामने रख देना इस की का लक्ष्य रहा है। ब्रजभाषा की शृंगारी कविताएँ प्रायः स्त्री-पात्रो के ही मुख की वाणी होती हैं अतः स्थान स्थान पर लोकोक्तियों का जो मनोहर विधान इस कवि ने किया उससे उक्तियो में और भी स्वाभाविकता आ गई। है। यह एक अनुभूत बात है कि स्त्रियाँ बात बात में कहावतें कहा करती हैं। उनके हृदय के भावों की भरपूर व्यजना के लिये ये कहावतें मानो एक संचित वाङ्गमय हैं। लोकोक्तियों का जैसा मधुर उपयोग ठाकुर ने किया है वैसा और किसी कवि ने नहीं। इन कहावतों में से कुछ तो सर्वत्र प्रचलित हैं और कुछ खास बुंदेलखंड की है। ठाकुर सच्चे उदार, भावुक और हृदय के पारखी कवि थे इसी से इनकी कविताएँ विशेषतः सवैए इतने लोकप्रिय हुए। ऐसा स्वच्छंद कवि किसी क्रम से बद्ध होकर कविता करना भला कहाँ पसंद करता? जब जिस विषय पर जी में आया कुछ कहा।

ठाकुर प्रधानतः प्रेमनिरूपक होने पर भी लोकव्यापार के अनेकांगदर्शी कवि थे। इसी से प्रेमभाव की अपनी स्वाभाविक तन्मयता के अतिरिक्त कभी तो ये अखती, फाग, वसंत, होली, हिंडोरा आदि उत्सवों के उल्लास में मग्न [ ३८६ ]दिखाई पड़ते हैं; कभी लोगों की क्षुद्रता, कुटिलता, दुःशीलता आदि पर क्षोभ प्रकट करते पाए जाते है और कभी काल की गति पर खिन्न, और उदास देखे जाते है। कविकर्म को ये कठिन समझते थे। रूढ़ि के अनुसार शब्दों की लडी जोड़ चलने को ये कविता नहीं कहते थे। नमूने के लिये वहाँ इनके थोड़े ही से पद्य दिए जा सकते है––

सीखि लीन्हौं मीन मृग खंजन कमल नैन,
सीखि लीन्हौं जस औ, प्रताप को कहानो है।
सीखि लीन्हों कल्पवृक्ष कामधेनु चिंतामनि, ्
सीखि लीन्हों मेरु औ कुबेर गिरि आनो है॥
ठाकुर कहत याकी बड़ी है कठिन बात,
याको नहिं भूलि कहूँ बाँधियत बानो है।
ढेंल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच,
लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है॥


दस बार, बीस बार बरजि दई है जाहि,
एतै पै न मानै जौ तौ जरन बरन देव।
कैसो कहा कीजै कछू आपनो करो न होय,
जाके जैसे दिन ताहि तैसेई भरन देव॥
ठाकुर कहत मन आपनो मगन राखौ,
प्रेम निहसंक रस-रंग बिहरन देव।
बिधि के बनाए जीव जेते हैं जहाँ के तहाँ,
खेलते फिरत तिन्हैं खेलन फिरन देव॥


अपने अपने सुठि गेहन में चढे दोऊ सनैह की नाव पै री।
अँगनान में भींजत प्रेम भरे, समयो लखि मैं बलि जावँ पै री॥
कहैं ठाकुर दोउन की रुचि सो रंग ह्वै उमड़े तोउ ठावँ पै री।
सखी, कारी घटा बरसै बरसाने पै, गोरी घटा नँदगाँव पै री॥


[ ३८७ ]

वा निरमोहिनि रुप की रासि जऊ उर हेतु न ठानति ह्वै है।
बारहि बार बिलोकि घरी घरी सूरति तौं पहिचानति ह्वै है॥
ठाकुर या मन की परतीति है, जो पै सनेह न मानति ह्वै है।
आवत हैं नित मेरे लिये, इतनो तौ विशेष कै ज्ञानति ह्वै है॥


यह चारहु ओर उदौ मुखचंद की चाँदनी चारू निहारि लै री।
बलि जौ पै अधीन भयो पिय, प्यारी! तौ एतौ बिचारी बिचारि लै री॥
कवि ठाकुर चूकि गयो जो गोपाल तो तैं बिगरी कौ सँभारि लै री।
अब रैहै न रैहै यहै समयो, बहती नदी पायँ पाखारि लै री॥


पावस तें परदेश तें आय मिले पिय औ मनभाई भई है।
दादुर मोर पपीहरा बोलत, ता पर आनि घटा उनई है॥
ठाकुर वा सुखकारी सुहावनी दामिनि कौंधि कितैं को गई है।
री अब तौ घनघोर घटा गरजौ बरसौ तुम्हैं धूर दई है॥


पिय प्यार करैं जेहि पै सजनी तेहि की सब भाँतिन सैयत है।
मन मान करौं तौ परौं भ्रम में, फिर पाछे परे पछितैयत है॥
कवि ठाकुर कौन की कासौं कहौ? दिन देखि दसा बिसरैयत है।
अपने अटके सुन ए री भट्ट? निज सौत के मायके जैयत है॥

(३८) ललकदास––बेनी कवि के भँडौवा से ये लखनऊ के कोई कंठीघारी महंत जान पड़ते है जो अपनी शिष्य मंडली के साथ इधर उधर फिरा करते। अतः संवत् १८६० और १८८० के बीच इनको वर्तमान रहना अनुमान किया जा सकता है। इन्होंने "सत्योपाख्यान" नामक एक बड़ा वर्णनात्मक ग्रंथ लिखा है जिसमें रामचंद्र के जन्म से लेकर विवाह तक की कथा बड़े विस्तार के साथ वर्णित हैं। इस ग्रंथ का उद्देश्य कौशल के साथ कथा चलाने का नहीं, बल्कि जन्म की बधाई, बाललीला, होली, जलक्रीड़ा, झूला, विवाहोत्सव आदि का बड़े व्योरे और विस्तार के साथ वर्णन करने का है। जो उद्देश्य [ ३८८ ]महाराज रघुराजसिंह के रामस्वयंवर का है वही इसका भी समझिए। पर इसमें सादगी हैं और यह केवल दोहे चौपाइयों में लिखा गया है। वर्णन करने में ललकदासजी ने भाषा के कवियों के भाव तो इकट्ठे ही किए है; संस्कृत कवियों के भाव भी कहीं कहीं रखे है। रचना अच्छी जान पड़ती है। कुछ चौपाइयाँ देखिए––

धरि निज अंक राम को माता। लख्यो मोद लखि मुख मृदु गाता॥
दंत कुद मुकुता सम सोहै। बंधु जीव सम जीभ बिमोहै॥
किसलय सधर अधर छबि छाजै। इंद्रनील सम गंड बिराजै॥
सुंदर चिबुक नासिका सोहैं। कुंकुम तिलक चिलक मन मोहै॥
काम चाप सम भ्रकुटि बिराजै। अलक-कलित मुख अति छबि छाजै॥
यहि विधि सकल राम के अंगा। लखि चूमति जननी सुख संगा॥

(३९) खुमान––ये बंदीजन थे और चरखारी (बुंदेलखंड) के महाराज विक्रमसाहि के यहाँ रहते थे। इनके बनाए इन ग्रंथों का पता है––

अमरप्रकाश (सं॰ १८३६), अष्टयाम (सं॰ १८५२), लक्ष्मणशतक (सं॰ १८५५) हनुमान नखशिख, हनुमान पंचक, हनुमान पचीसी, नीतिविधान, समरसार (युद्ध-यात्रा के मुहूर्त आदि का विचार), नृसिंह-चरित्र (सं॰ १८७९), नृसिंह-पचीसी।

इस सूची के अनुसार इनका कविता-काल सं॰ १८३० से १८८० तक माना जा सकता है "लक्ष्मणशतक" में लक्ष्मण और मेघनाद का युद्ध बड़े फड़कते हुए शब्दो में कहा गया। खुमान कविता में अपना उपनाम 'मान' रखते थे। नीचे एक कवित्त दिया जाता है––

आयो इंद्रजीत दसकंथ को निबंध बंध,
बोल्यो रामबंधु सों प्रबंध किरवान को।
को है अंसुमाल, को है काल विकराल,
मेरे सामुहें भए न रहै मान महेसान को॥
तू तौ सुकुमार यार लखन कुमार! मेरी
मार बेसुमार को सहैया घमासान को?

[ ३८९ ]

बीर न चितैया, रनमंडल रितैया, काल
कहर बितैया हौं जितैया मघवान को॥