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रीतिकाल के अन्य कवि

पार्वतीजी के चरणों का वर्णन अत्यंत रुचिर और अनूठे ढंग से किया गया है। इस वर्णन से अलौकिक सुषमा, विभूति, शक्ति और शांति फूटी पड़ती है। उपास्य के एक अंग में अनंत ऐश्वर्य की भावना भक्ति की चरम भावुकता के भीतर ही संभव हैं। भाषा लाक्षणिक और पांडित्यपूर्ण है। कुछ और अधिक न कहकर इनके दो कवित्त ही सामने रख देना ठीक है––

नूपुर बजत मानि मृग से अधीन होत,
मीन होत जानि चरनामृत-झरनि को।
खंजन से नचैं देखि सुषमा सरद की सी,
सचैं मधुकर से पराग केसरनि को॥
रीझि रीझि तेरी पदछबि पै तिलोचन के,
लोचन ये अब धारैं केतिक धरनि को।
फूलत कुमुद से मयंक से निरखि नख,
पंकज से खिलैं लखि तरवा-तरनि को॥


मानिए करींद्र जो हरींद्र को सरोष हर,
मानिए तिमिर घेरै भानु किरनन को।
मानिए चटक बाज जुर्रा को पटकि मारै,
मानिए भटकि डारै भेक भुजगन को॥
मानिए कहै जो वारिधार पै दवारि औ
अंगार बरसाइबो बतावै बारिदन को।
मानिए अनेक विपरीत की प्रतीत, पै न
भीति आई मानिए भवानी-सेवकन को॥

(३१) मंचित––ये मऊ (बुँदेलखंड) के रहनेवाले ब्राह्मण थे और संवत् १८३६ में वर्तमान थे। इन्होंने कृष्ण-चरित संबधी दो पुस्तकें लिखी हैं––सुरभी-दानलीला और कृष्णायन। सुरभी-दानलीला में बाललीला, यमलार्जुन-पतन और दान-लीला का विस्तृत वर्णन सार छंद में किया गया है। इसमें श्रीकृष्ण का नखशिख भी बहुत अच्छा कहा गया है। कृष्णायन