हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण ३ गुमान मिश्र

[ ३६१ ] (२२) गुमान मिश्र––ये महोबे के रहनेवाले गोपालमणि के पुत्र थे। इनके तीन भाई और थे। दीपसाहि, सुमान और अमान। गुमान ने पिहानी के राजा अकबरअली-खाँ के आश्रय में संवत् १८०० में श्रीहर्षकृत नैषध काव्य का पद्यानुवाद नाना छंदों में किया। यही ग्रंथ इनका प्रसिद्ध है और प्रकाशित भी हो चुकी है। इसके अतिरिक्त खोज से इनके दो ग्रंथ और मिले हैं––कृष्णचंद्रिका और छंदाटवी (पिंगल)। कृष्णचंद्रिका का निर्माण-काल संवत् १८३८ है। अतः इनका कविताकाल संवत् १८०० से संवत् १८४० तक माना जा सकता है। इन तीन ग्रंथों के अतिरिक्त रस, नायिकाभेद, अलंकार आदि कई और ग्रंथ सुने जाते हैं।

यहाँ केवल इनके नैषध के संबंध में ही कुछ कहा जा सकता हैं। इस ग्रंथ में इन्होंने बहुत से छंदों का प्रयोग किया है और बहुत जल्दी जल्दी छंद बदले है। इंद्रवज्रा, वंशस्थ, मंदाक्राता, शार्दूलविक्रीड़ित आदि कठिन वर्णवृत्तों से [ ३६२ ]लेकर दोहा चौपाई तक मौजूद हैं। ग्रंथारंभ में अकबरअली खाँ की प्रशंसा में जो बहुत से कवित्त इन्होंने कहे हैं, उनसे इनकी चमत्कार-प्रियता स्पष्ट प्रकट होती है। उनमें परिसंख्या अलंकार की भरमार है। गुमानजी अच्छे साहित्यमर्मज्ञ कलाकुशल थे, इसमें कोई संदेह नहीं। भाषा पर भी इनका अधिकार था। जिन श्लोकों के भाव जटिल नहीं है उनका अनुवाद बहुत ही सरस और सुंदर हैं। वह स्वतंत्र रचना के रूप में प्रतीत होता है पर जहाँ कुछ जटिलता है वहाँ की वाक्यविली उलझी हुई और अर्थ अस्पष्ट है। बिना मूल श्लोक सामने आए ऐसे स्थलों का स्पष्ट अर्थ निकालना कठिन ही है। अतः सारी पुस्तक के सबंध में यही कहना चाहिए कि अनुवाद में वैसी सफलता नहीं हुई है। संस्कृत के भावो के सम्यक् अवतरण में यह सफलता गुमान ही के सिर नहीं मढ़ी जा सकती। रीतिकाल के जिन जिन कवियों ने संस्कृत से अनुवाद करने का प्रयत्न किया है उनमें से बहुत से असफल हुए हैं। ऐसा जान पड़ता है कि इस काल में जिस मधुर रूप में ब्रजभाषा का विकास हुआ वह सरल रसव्यंजना के तो बहुत ही अनुकून हुआ पर जटिल भावों और विचारों के प्रकाशन में वैसा समर्थ नहीं हुआ। कुलपति मिश्र ने अपने "रसरहस्य" में काव्यप्रकाश का जो अनुवाद किया हैं उसमें भी जगह जगह इसी प्रकार की अस्पष्टता है।

गुमानजी उत्तम श्रेणी के कवि थे, इसमें संदेह नहीं। जहाँ वे जटिल भाव भरने की उलझन में नहीं पड़े हैं वहाँ की रचना अत्यंत मनोहारिणी हुई है। कुछ पद्य उद्धृत किए जाते हैं––

दुर्जन की हानि, बिरधापनोई करै पीर,
गुन लोप होत एक मोतिन के हार ही।
टूटै मनिमालै निरगुन गाय ताल लिखै,
पोथिन ही अंक, मन कलह विचार ही॥
संकर बरन पसु पच्छिन में पाइयत,
अलक ही पारैं असभंग निरधार ही।
चिर चिर राजौ राज अली अकबर, सुरराज,
के समाज जाके राज पर बारही॥


[ ३६३ ]

दिग्गज दबत दबकत दिगपाल भूरि,
धुरि की धुँधेरी सौं अँधेरी आभा भान की।
धाम और धरा को, माल बाल अबला को अरि,
तजत परान राह चाहत परान की॥
सैयद समर्थ भूप अली अकबर-दल,
चलत बजाय मारू दुंदुभी धुकान की।
फिरि फिरि फननि फनीस उलटतु ऐसे,
चोली खोलि ढोली ज्यों तमोली पाके पान की॥


न्हाती वहाँ सुनयना नित बावली में,
छूटे उरोजतल कुंकुम नीर ही में।
श्रीखंड चित्र दृश-अंजन संग साजै।
मानौ त्रिबेनि नित ही घर ही बिराजै॥


हाटक-हंस चल्यो उडिंकै नभ में, दुगनी तन-ज्योति भई।
लीक सी खैंचि गयो छन में, छहराय रही छवि सोनमई॥
नैनन सों निरख्यो न बनायके, कै उपमा मन माहिं लई।
स्यामल चीर मनौ पसरयो, तेहि पै कल कंचन बेलि नई॥

(२३) सरजूराम पंडित––इन्होंने "जैमिनि पुराण भाषा" नामक एक कथात्मक ग्रंथ संवत् १८०५ में बनाकर तैयार किया। इन्होंने अपना कुछ भी परिचय अपने ग्रंथ में नहीं दिया है। जैमिनी पुराण दोहों चौपाइयों में तथा और कई छंदों में लिखा गया है और ३६ अध्यायों में समाप्त हुआ है। इसमें बहुत सी कथाएँ आई हैं; जैसे युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ, संक्षित रामायण, सीतात्याग, लवकुश-युद्व, मयूरध्वज, चंद्रहास आदि राजाओं की कथाएँ। चौपाइयों का ढंग "रामचरिमानस" का सा हैं। कविता इनकी अच्छी हुई है। उसमें गांभीर्य है। नमूने के लिये कुछ पद्य नीचे दिए जाते हैं–– [ ३६४ ]

गुरुपद पंकज पावन रेनू। कहा कलपतरु का सुरधेनू॥
गुरुपद-रज अज इरिहर धामा। त्रिभुवन-विभव, विस्व विश्रामा॥
तब लगि जग जड़ जीव भुलाना। परम तत्व गुरु जिथ नहिं जाना
श्रीगुरु पंकज पाँव पसाऊ। स्रवत सुधामय तीरथराऊ॥
सुमिरत होत हृदय असनाना। मिटत मोहमय मन-मल नाना॥

(२४) भगवंतराय खीची––ये असोथर (जिला फतहपुर) के एक बड़े गुणग्राही राजा थे जिनके यहाँ बराबर अच्छे कवियों का सत्कार होता रहता था। शिवसिंह सरोज में लिखा है कि इन्होंने सातों कांड रामायण बड़े सुंदर कवित्तों में बनाई है। यह रामायण तो इनकी नहीं मिलती पर हनुमानजी की प्रशंसा के ५० कवित्त इनके अवश्य पाए गए हैं जो संभव है रामायण के ही अंश हो। खोज में जो इनकी "हनुमत् पचीसी" मिली है उसमें निर्माणकाल १८१७ दिया है। इनकी कविता बड़ी ही उत्साहपूर्ण और ओजस्विनी है। एक कवित्त देखिए––

विदित विसाल ढाल भालु-कपि-जाल की है,
ओट सुरपाल की है तेज के तुमार की।
जाहीं सों चपेटि कै गिराए गिरि गढ, जासों,
कठिन कपाट तोरे, लंकिनी सों मार की॥
भनै भगवंत जासों लागि भेंटे प्रभु,
जाके त्रास लखन को छुभिता खुमार की।
ओढ़े ब्रह्म अस्त्र की अवाती महाताती, वंदौं,
युद्ध-मद-माती छाती पवन-कुमार की॥

(२५) सूदन––ये मथुरा के रहनेवाले माथुर चौबे थे। इनके पिता का नाम बसंत था। सूदन भरतपुर के महाराज बदनसिंह के पुत्र सुजानसिंह उपनाम सूरजमल के यहाँ रहते थे। उन्हीं के पराक्रमपूर्ण चरित्र का वर्णन इन्होंने "सुजानचरित्र" नामक प्रबंधकाव्य में किया है। मोगल-सम्राज्य के गिरे दिनों में भरतपुर के जाट राजाओं का कितना प्रभाव बढ़ा था यह इतिहास में प्रसिद्ध है। उन्होंने शाही महलों और खजानों को कई बार लूटा था। पानीपत की अंतिम [ ३६५ ]लड़ाई के संबध में इतिहासज्ञों की यह धारणा है कि यदि पेशवा की सेना का संचालन भरतपुर के अनुभवी महाराज के कथनानुसार हुआ होता और वे रूठकर न लौट आए होते तो मरहठों की हार कभी न होती। इतने ही से भरतपुरवालों के आतंक और प्रभाव का अनुमान हो सकता है। अतः सूदन को एक सच्चा वीर चरित्रनायक मिल गया।

'सुजानचरित्र' बहुत बड़ा ग्रंथ है। इसमें संवत् १८०२ से लेकर १८१० तक की घटनाओं का वर्णन है। अतः इसकी समाप्ति १८१० के दस पंद्रह वर्ष पीछे मानी जा सकती है। इस हिसाब से इनका कविता-काल संवत् १८२० के आसपास माना जा सकता है। सूरजमल की वीरता की जो घटनाएँ कवि ने वर्णित की हैं वे कपोलकल्पित नहीं, ऐतिहासिक हैं। जैसे अहमदशाह बादशाह के सेनापति असदखाँ के फसहअली पर चढ़ाई करने पर सूरजमल का फतअली के पक्ष में होकर असदखाँ का ससैन्य नाश करना, मेवाड़, माँडौगढ़ आदि जीतना, संवत् १८०४ में जयपुर की ओर होकर मरहठों को हटाना, संवत् १८०५ में बादशाही सेनापति सलाबतखाँ बख्शी को परास्त करना, संवत् १८०६ में शाही वजीर सफदरजंग मंसूर की सेना से मिलकर बंगश पठानों पर चढ़ाई करना, बादशाह से लड़कर दिल्ली लुटना, इत्यादि। इन सब बातों के विचार से 'सुजानचरित्र' का ऐतिहासिक महत्त्व भी बहुत कुछ है।

इस काव्य की रचना के संबंध में सबसे पहली बात जिसपर ध्यान जाता है वह वर्णनों का अत्यधिक विस्तार और प्रचुरता है। वस्तुओं की गिनती गिनाने की प्रणाली का इस कवि ने बहुत अधिक अवलंबन किया है, जिससे पाठकों को बहुत से स्थलों पर अरुचि हो जाती है। कहीं घोड़ों की जातियों के नाम ही नाम गिनाते चले गए हैं, कहीं अस्त्रों और वस्त्रों की सूची की भरमार है, कहीं भिन्न भिन्न देशवासियो और जातियो की फिहरिस्त चल रही है। इस कवि को साहित्यिक मर्यादा का ध्यान बहुत ही कम था। भिन्न भिन्न भाषाओं और बोलियों को लेकर कहीं कहीं इन्होंने पूरा खेलवाड़ किया है। ऐसे चरित्र को लेकर जो गाभीर्य कवि में होना चाहिए वह इनमें नहीं पाया जाता। पद्य में व्यक्तियों और वस्तुओं के नाम भरने की निपुणता इस कवि की एक विशेषता [ ३६६ ]समझिए। ग्रंथारम्भ में ही १७५ कवियों के नाम गिनाए गए हैं। सूदन में युद्ध, उत्साहपूर्ण भाषण, चित्त की उमंग आदि वर्णन करने की पूरी प्रतिभा थी पर उक्त त्रुटियों के कारण उनके ग्रंथ का साहित्यिक महत्त्व बहुत कुछ घटा हुआ है। प्रगल्भता और प्रचुरता का प्रदर्शन सीमा का अतिक्रमण कर जाने के कारण जगह जगह खटकता है। भाषा के साथ भी सूदनजी ने पूरी मनमानी की है। पंजाबी, खड़ी बोली, सब का पुट मिलता है। न जाने कितने गढ़त के और तोड़े मरोडें शब्द लाए गए हैं। जो स्थल-इन सब दोषों से मुक्त हैं वे अवश्य मनोहर हैं पर अधिकतर शब्दों की तड़ातड़ भडाभड़ से जी ऊबने लगता है। यह वीर-रसात्मक ग्रंथ है और इसमें भिन्न भिन्न युद्धों का ही वर्णन है इससे अध्यायों का नाम जग रखा गया है। सात जगों में ग्रंथ समाप्त हुआ। छंद बहुत से प्रयुक्त हुए हैं। कुछ पद्य नीचे उद्धृत किए जाते हैं––

बखत बिलंद तेरी दुंदुभी धुकारने सों,
दुंद दबि जात देस देस सुख जाही के।
दिन दिन दूनो महिमंडल प्रताप होत,
सूदन दुनी में ऐसे बखत न काही के॥
उद्धत सुजान सुत बुद्धि बलवान सुनि,
दिल्ली के दरनि बाजैं आवज उछाही के।
जाही के भरोसे अब तखत उमाही करैं,
पाही से खरे हैं जो सिपाही पातमाही के॥


दुहुँ ओर बंदूक जहँ चलत बेचूक,
रव होत धुकधूक, किलकार कहुँ कूक।
कहूँ धनुषटंकार जिहि बान झंकार,
भट देत हुंकार संकार मुँह सूक॥
कहूँ देखि दपटंत, गज बाजि झपटंत,
अरिब्यूह लपटंत रपटंत कहुँ चूक।

[ ३६७ ]

समसेर सटकंत, सर सेल फटकंत,
कहूँ जात हटकत, लटकत लगि झूक॥


दब्बत लुत्थिनु अब्बत इक्क सुखब्बत से।
चब्बत लोह, अचब्बत सोनित गब्बत से॥
चुट्टित खुट्टिन केस सुलुट्टिन इक्क, मही।
जुट्टित फुट्टित सीस, सुखुट्टित तंग गही॥
कुट्टित घुट्टीत काय बिछुट्टित प्रान सही।
छुट्टित आयुध, हुट्टित गुट्टित देह दही॥


धड़धद्धर, धड़धद्धर, भड़भब्भरं भड़भब्भरं।
तड्तत्तर तड्तत्तर कड़कक्ऱ कड़कक्करं॥
घड्घग्घर घड्घग्घर झड्झज्झर झड़झज्झरं।
अररर्ररं अररर्ररं, सररर्ररं सररर्ररं॥


सोनित अरघ ढारि, लुत्थ जुत्थ पाँवड़े दै,
दारूधूम धूपदीप, रजक की ज्वालिका।
चरबी को चंदन, पुहुप पल टूकन के,
अच्छत अखंड गोला गोलिन की चालिका॥
नैवेद्य नीको साहि सहित दिली को दल,
कामना विचारी मनसूर-पन-पालिका।
कोटरा के विकट बिकट जंग जारि सूजा,
भलो विधि पूजा कै प्रसन्न कीन्हीं कालिका॥


इसी गल्ल धरि कन्न में बकसी मुसक्याना।
हमनूँ बूझत हौं तुसी 'क्यों किया पयाना'॥
'असी आवन भेदनूं तुने नहिं जाना।
साह अहम्मद ने तुझे अपना करि माना'॥


[ ३६८ ]

डोलती डरानी खतरानी बतरानी बेबे,
कुडिंए न बेखी अणी भी गुरून पावाँ हाँ।
कित्थे जला पेऊँ, कित्थे उज्जले भिड़ाऊँ असी,
तुसी की लै गीवा असी जिंदगी बचावा हाँ॥
भट्टररा साहि हुआ चंदला वजीर बेखो,
एहा हाल कीता, वाह गुरूनूँ मनावा हाँ।
जावाँ कित्थे जावाँ अम्मा बाबै केही पावाँजली,
एही गल्ल अक्खैं लक्खौं लक्खौं गली जावाँ हाँ॥

(२६) हरनारायण––इन्होंने 'माधवानल कामकंदला' और 'बैताल पच्चीसी' नामक दो कथात्मक काव्य लिखे हैं। 'माधवानल कामकंदला' का रचनाकाल स॰ १८१२ है। इनकी कविता अनुप्रास आदि से अलंकृत है। एक कवित्त दिया जाता है––

सोहै मुंड चंद सों, त्रिपुंड सों विराजै भाल,
तुंड राजै रदन उदंड के मिलने तें।
पाप-रूप-पानिए विघन-जल जीवन के
कुंड सोखि सृजन बचावैं अखिलन तें॥
ऐसे गिरिनंदिनो के नंदन को ध्यान ही में
कीबे छाडि सकल अपानहि दिलन तें।
भुगुति मुकति ताके तुंड तें निकसि तापै,
कुंढ बांधि कढ़ती भुसुंड के विलन तें॥

(२७) ब्रजवासी दास––ये वृंदावन के रहने वाले और वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी थे। इन्होंने संवत् १८२७ में 'ब्रजविलास' नामक प्रबंधकाव्य तुलसीदासजी के अनुकरण पर दोहों चौपाइयों में बनाया। इसके अतिरिक्त इन्होंने 'प्रबोधचंद्रोदय' नाटक का अनुवाद भी विविध छंदों में किया है। पर इनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'ब्रज विलास' ही हैं जिसका प्रचार साधारण श्रेणी के पाठको में हैं। इस ग्रंथ में कथा भी सूरसागर के क्रम से ली गई है और बहुत से स्थलों [ ३६९ ]पर सूर के शब्द और भाव भी चौपाइयों में करके रख दिए गए हैं। इस बात को ग्रंथकार ने स्वीकार भी किया है––

यामें कछुक बुद्धि नहीं मेरी। उक्ति युक्ति सब सूरहिं केरी॥

इन्होंने तुलसी का छंद:क्रम ही लिया है, भाषा शुद्ध ब्रजभाषा ही है। उसमे कहीं अवधी या बैसवाडी का नाम तक नहीं है। जिनको भाषा की पहचान तक नहीं, जो वीररस वर्णन-परिपाटी के अनुसार किसी पद्य में वणों को द्वित्व देख उसे प्राकृत भाषा कहते है, वे चाहे जो कहे। ब्रजविलास में कृष्ण की भिन्न भिन्न लीलाओं का जन्म से लेकर मथुरा-गमन तक का वर्णन किया गया है। भाषा सीधी-सादी, सुव्यवस्थित और चलती हुई है। व्यर्थ शब्दों की भरती न होने से उसमें सफाई हैं। यह सब होने पर भी इसमें वह बात नहीं है जिसके बल से गोस्वामीजी के रामचरितमानस का इतना देशव्यापी प्रचार हुआ। जीवन की परिस्थितियों की वह अनेकरूपता, गंभीरता और मर्मस्पशिता इसमें कहाँ जो रामचरित और तुलसी की वाणी में है? इसमें तो अधिकतर क्रीड़ामय जीवन का ही चित्रण है। फिर भी साधारण श्रेणी के कृष्णभक्त पाठकों में इसका प्रचार है। आगे कुछ पद्य दिए जाते हैं––

कहति जसोदा कौन विधि, समझाऊँ अब कान्ह।
भूलि दिखायो चंद मैं, ताहि कहत हरि खान॥

यहै देत नित माखन मोकों। छिन छिन देति तात सो तोकों॥
जो तुम स्याम चंद कौ खैहौ। बहुरो फिर माखन कहू पैहौं?
देखत रहौ खिलौना चंदा। हठ नहिं कीजै बालगोविंदा॥
पा लागौं हठ अधिक न कीजै। मैं बलि, रिसहि रिसहि तन छीजै॥
जसुमति कहति कहा धौं कीजै। माँगत चंद कहाँ तें दीजै॥
तब जसुमति इक जलपुट लीनो। कर मैं लै तेहि ऊँचो कीनो॥
ऐसे कहि श्यामै बहरावै। आव चंद! तोहि लाल बुलावै॥
हाथ लिए तेहि खेलत रहिए। नैकु नहीं धरनी पै धरिए॥

(२८) गोकुलनाथ, गोपीनाथ और मणिदेव––इन तीनों महानुभावों ने मिलकर हिंदी-साहित्य में बड़ा भारी काम किया है। इन्होंने समग्र महाभारत [ ३७० ]और हरिवंश (जो महाभारत का ही परिशिष्ट माना जाता है) का अनुवाद अत्यत मनोहर विविध छंदो में पूर्ण कवित्व के साथ किया है। कथा प्रबंध का इतना बड़ा काव्य हिंदीसाहित्य में दूसरा नहीं बना। यह लगभग दो हजार पृष्ठों में समाप्त हुआ है। इतना बड़ा ग्रंथ होने पर भी न तो इसमें कहीं शिथिलता आई है और न रोचकता और काव्यगुण में कमी हुई है। छंदों का विधान इन्होंने ठीक उसी रीति से किया है, जिस रीति से इतने बड़े ग्रंथ में होना चाहिए। जो छंद उठाया है उसका कुछ दूर तक निर्वाह किया है। केशवदास की तरह छंदो का तमाशा नहीं दिखाया है। छंदों का चुनाव भी बहुत उत्तम हुआ है। रूपमाला, घनाक्षरी, सवैया आदि मधुर छंद अधिक रखे गए है; बीच बीच में दोहे और चौपाइयाँ भी हैं। भाषा प्रांजल और सुव्यवस्थित है। अनुप्रास आदि का अधिक आग्रह न होने पर भी आवश्यक विधान है। रचना सब प्रकार से साहित्यिक और मनोहर है और लेखको की काव्यकुशलता का परिचय देती है। इस ग्रंथ के बनने में भी ५० वर्ष के ऊपर लगे है। अनुमानतः इसका आरंभ संवत् १८३० में हो चुका था और यह संवत् १८८४ में जाकर समाप्त हुआ है। इसकी रचना काशीनरेश महाराज उदितनारायणसिंह की आज्ञा से हुई जिन्होंने इसके लिये लाखों रुपए व्यय किए। इस बड़े भारी साहित्यिक यज्ञ के अनुष्ठान के लिये हिंदी-प्रेमी उक्त महाराज के सदा कृतज्ञ रहेगे।

गोकुलनाथ और गोपीनाथ प्रसिद्ध कवि रघुनाथ बंदीजन के पुत्र और पौत्र थे। मणिदेव बंदीजन भरतपुर राज्य के जहानपुर नामक गाँव के रहनेवाले थे और अपनी विमाता के दुर्व्यव्हार से रुष्ट होकर काशी चले आए थे। काशी में वे गोकुलनाथजी के यहाँ ही रहते थे। और स्थानों पर उनका बहुत मान हुआ था। जीवन के अंतिम दिनों में वे कभी कभी विक्षिप्त भी हो जाया करते थे। उनका परलोकवास संवत् १९२० में हुआ।

गोकुलनाथ ने इस महाभारत के अतिरिक्त निम्नलिखित और भी ग्रंथ लिखे है––

चेतचंद्रिका, गोविंद-सुखदविहार, राधाकृष्ण-विलास (सं॰ १८५८) 'राधा [ ३७१ ]नखशिख, नामरत्नमाला (कोश) (सं॰ १८७०), सीताराम-गुणार्णव, अमरकोष भाषा (सं॰ १८७०), कविमुखमंडन।

चेतचंद्रिका अलंकार का ग्रंथ है जिसमें काशिराज की वंशावली भी दी हुई है। 'राधाकृष्ण-विलास' रस संबंधी ग्रंथ है और 'जगतविनोद' के बराबर है। 'सीताराम-गुणार्णव' अध्यात्मरामायण का अनुवाद है जिसमें पूरी रामकथा वर्णित है। 'कविमुखमडन' भी अलकार संबंधी ग्रंथ है। गोकुलनाथ का कविता काल संवत् १८४० से १८७० तक माना जा सकता है। ग्रंथों की सूची से हो स्पष्ट है कि ये कितने निपुण कवि थे। रीति और प्रबंध दोनों ओर इन्होंने प्रचुर रचना की है। इतने अधिक परिमाण में और इतने प्रकार की रचना वहीं कर सकता है जो पूर्ण साहित्यमर्मज्ञ, काव्यकला में सिद्धहस्त और भाषा पर पूर्ण अधिकार रखनेवाला हो। अतः महाभारत के तीनों अनुवादको में तो ये श्रेष्ठ हैं। ही, साहित्य क्षेत्र में भी ये बहुत ही ऊँचे-पद के अधिकारी हैं। रीतिग्रंथ-रचना और प्रबंध-रचना दोनों में समान रूप से कुशल और कोई दूसरा कवि रीतिकाल के भीतर नहीं पाया जाता।

महाभारत के जिस-जिस अंश का अनुवाद जिसने-जिसने किया है उस-उस अंश में उनका नाम दिया हुआ है। नीचे तीनों कवियों की रचना के कुछ उदाहरण दिए जाते है––

गोकुलनाथ––

सखिन के श्रुति में उकुति कल कोकिल की
गुरुजन हू पै पुनि लाज के कथान की।
गोकुल अरुन चरनांबुज पै गुंजपुंन
धुनि सी चढ़ति चंचरीक चरचान की॥
पीतम के श्रवन समीप ही जुगुति होति
मैन-मंत्र-तंत्र के बरन गुनगान की।
सौतिन के कानन में इलाहल ह्वै हलति,
एरी सुखदानि! तौ बजनि बिलुवान की॥

(राधाकृष्ण विलास)


[ ३७२ ]


दुर्ग अतिही महत् रक्षित भटन सों चहुँ ओर।
ताहि घेरयो शाल्व भूपति सेन लै अति घोर॥
एक मानुष निकसिबे की रही कतहुँ न राह।
परी सेना शाल्व नृप की भरी जुद्ध-उछाह॥



लहि सुदेष्णा की सुआज्ञा नीच कीचक जौन।
जाय सिंहिनि पास जंबुक तथा कीनो गौन॥
लग्यो कृष्ण सों कहन या भाँति सस्मित बैन।
यहाँ आई कहाँ तें? तुम कौन हौ छबि-ऐन?



नहीं तुम सी लखी भू पर भरी-सुषमा बाम।
देवि, जच्छिनि, किन्नरी, कै श्री, सची अभिराम॥
कांति सों अति भरो तुम्हरो लखत बदन अनूप।
करैगो नहिं स्वबस काको महा मन्मथ भूप॥

(महाभारत)


गोपीनाथ––


सर्वदिसि में फिरत भीषम को सुरथ मन-मान।
लखे सब कोउ तहाँ भूप अलातचक्र समान॥
सर्व थर सब रथिन सों तेहिं समय नृप सब ओर।
एक भीषम सहस सम रन जुरो हो तहँ जोर॥


मणिदेव––


वचन यह सुनि कहत भो चक्रांत हंस उदार।
उड़ौगे मम संग किमि तुम कहहु सो उपचार॥
खाय जुठो पुष्ट, गर्वित काग सुनि ये बैन।
कह्यो जानत उड़न की शत रीति हम बलऐन॥