राजा और प्रजा/३ अपमानका प्रतिकार

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अपमानका प्रतिकार।

एक बार किसी ऊँचे पदपर काम करनेवाले बंगाली सरकारी कर्मचारीके घर किसी कालेजके अँगरेज प्रिंसिपल साहब निमंत्रित होकर गए थे। उन दिनों जूरीकी प्रथा उठा देनेके लिये एक बिल पेश होने- वाला था और उसी बिलके सम्बन्धमें सारे देशमें आन्दोलन हो रहा था।

भोजनके उपरान्त जब निमंत्रित स्त्रियाँ उठकर बगलवाले कमरेमें चली गई तब बातों ही बातोंमें जूरीकी प्रथाकी चर्चा उठी। अँगरेज प्रोफे- सरने कहा कि जिस देशके लोग अर्द्धसभ्य और अर्द्धशिक्षित हो और जिनकी धर्मनीतिका आदर्श उन्नत न हो उनके हाथमें जूरीके अधिकार सौंपनेका फल सदा बुरा ही होता है ।

यह बात सुनकर हमने मनमें सोचा कि अंगरेज इतने अधिक सभ्य हो गए हैं कि हम लोगोंके साथ व्यवहार करते समय सभ्यताका ध्यान रखना अनावश्यक समझते हैं। हम यह तो नहीं जानते कि हम लोगोंका नैतिक आदर्श कहाँतक ऊपर उठा है अथवा कहाँतक नीचे गिरा है, लेकिन इतना अवश्य जानते हैं कि हम जिसका आतिथ्य भोग करते हों उसकी जातिके लोगोंके विषयमें कठोर वाक्य कहते हुए उनकी अवमानना करना हम लोगोंकी शिष्टनीतिके आदर्शक बहुत बाहर है।

अध्यापक महाशयने और भी एक बात कही थी। वह बात केवल कड़वी और भद्दी ही नहीं बल्कि ऐसी थी कि अँगरेजोंके मुँहसे उसका निकलना बहुत ही असंगत जान पड़ता था। उन्होंने कहा था [ ५८ ] कि जीवनकी पवित्रता अर्थात् जीवनमें हस्तक्षेप करने (हत्या करने अथवा हत्याकी चेष्टा करने) की परम दूषणीयताके सम्बन्धमें भारतवा- सियोंकी धारणा अँगरेजोंके मुकाबलेमें बहुत ही परिमित और कम है। इसीलिये भारतवासी जूरियोंके मनमें किसी हत्या करनेवालेके प्रति यथोचित विद्वेष उत्पन्न नहीं होता।

जो लोग मांस खानेवाली जातिके हैं और जिन्होंने बड़े बड़े रोमाञ्च- कारी हत्याकाण्ड करके पृथ्वीके दो नए आविष्कृत महादेशों में अपने रहनेके लिये स्थान साफ कर लिया है और जो इस समय तलवारके जोरसे तीसरे महादेशकी भी प्रच्छन्न छातीको धीरे धीरे फाड़ करके उसकी कुछ फस- लको सुखसे खानेके उद्योगमें लगे हुए हैं, वे ही यदि निमन्त्रण-सभामें मजेमें और अहंकार करते हुए नैतिक आदर्शके ऊँचे दण्डपर चढ़ बैठे और उसीपरसे जीवनकी पवित्रता और प्राणहिंसाकी अकर्त्तव्यताके सम्बन्धमें अहिंसक भारतवर्षको उपदेश देने लगें तब केवल 'अहिंसा परमो धर्मः' इस शास्त्रवाक्यका स्मरण करके ही चुप रह जाना पड़ता है।

यह बात आजसे प्रायः दो वर्ष पहलेकी है ।★ सभी लोग जानते हैं कि इस घटनाके बाद अबतक इन दो वर्षोंमें अंगरेजोंके हाथों बहु- तसे भारतवासियोंकी अपमृत्यु हुई है और अँगरेजी अदालतोंमें इन सब हत्याओंमें एक अँगरेजका भी दोष प्रमाणित नहीं हुआ। समा- चारपत्रोंमें इस सम्बन्धमें बराबर समाचार देखने में आते हैं और जब कोई ऐसा समाचार देखनेमें आता है तब हमें भारतवासियोंके प्रति उसी मुंँड़ी हुई मोछ और दाढ़ी तथा लम्बी नाकवाले अध्यापककी


★ यह निबंध सन् १३०१ फसलीमें अर्थात् आजसे प्रायः २५ वर्षे पहले लिखा गया था।-अनुवादक। [ ५९ ] तीव्र घृणायुक्त बात और जीवनहत्याके सम्बन्धमें उसके नैतिक आद- र्शकी श्रेष्ठताका अभिमान याद आ जाता है । पर इस बातको याद करके हमारे हृदयको कुछ भी शान्ति नहीं मिलती।

भारतवासियों के प्राण और अँगरेजोंके प्राण फाँसीवाली लकड़ीके अटल तराजूपर रखकर एक ही बाँटसे तौले जाते हैं, जान पड़ता है कि अँगरेज लोग इसे मन ही मन राजनैतिक कुदृष्टान्त स्वरूप समझते हैं।

अँगरेज लोग अपने मनमें यह बात समझ सकते हैं कि हम थोड़ेसे प्रवासी जो पचीस करोड़ विदेशियोंपर शासन कर रहे हैं सो यह शासन किसके बलसे हो रहा है ? केवल अस्त्रके ही बलसे नहीं बल्कि नामके बलसे भी । इसीलिये सदा विदेशियोंके मनमें इस बातकी धारणा बनाए रखना आवश्यक है कि तुम लोगोंकी अपेक्षा हम पचीस करोड़ गुना अधिक श्रेष्ट हैं | यदि हम इस धारणाका लेश मात्र भी उत्पन्न होने दें कि हम और तुम बराबर हैं तो इससे हमारा बल नष्ट होता है। दोनोंके बीचमें एक बहुत बड़ा परदा है। अधीन जातिके मनमें कुछ अनिर्दिष्ट आशंका और अकारण भय सैकड़ों हजारों सैनि- कोंका काम करता है। भारतवासी जब यह देखते हैं कि आजतक न्यायालयमें हमारे प्राणोंके बदलेमें कभी किसी अँगरेजको प्राणत्याग नहीं करना पड़ा तब उनका वह सम्भ्रम और भी दृढ हो जाता है। वे मनमें समझते हैं कि हमारे प्राणों और किसी अँगरेजके प्राणोंमें बहुत अंतर है और इसीलिये असह्य अपमान अथवा नितान्त आत्मरक्षाके अवसरपर भी किसी अँगरेजके शरीरपर हाथ छोड़नेमें उन्हें बहुत आगा-पीछा करना पड़ता है।

यह बात जोर देकर कहना कठिन है कि अँगरेजोंके मनमें इस पालि- सीका ध्यान स्पष्ट अथवा अस्पष्ट रूपसे है या नहीं। लेकिन इस बातका [ ६० ] बहुत कुछ निश्चयपूर्वक अनुमान किया जा सकता है कि वे अपने मन ही मन अपने जातिभाइयोंके प्राणोंकी पवित्रता बहुत अधिक समझते हैं। यदि कोई अँगरेज किसी भारतवासीको हत्या कर डाले तो अवश्य ही वह इस हत्यासे बहुत दुखी होता है। उसे वह अपने मनमें एक 'ग्रेट मिस्टेक' ( बहुत बड़ी भूल ) यहाँतक कि 'ग्रेट शेम' (बहुत लज्जाकी बात ) की बात भी समझ सकता है। लेकिन इसके बदलेमें दंडवरूप किसी युरोपियनके प्राण लेना कभी समुचित नहीं समझा जाता । यदि कानूनमें फाँसीकी अपेक्षा कोई और छोटा दंड निर्दिष्ट होता तो भारतवासीकी हत्याके अपराधमें अँगरेजको दंड मिल- नेकी बहुत अधिक संभावना होती। जिस जातिको अपनी अपेक्षा बहुत अधिक निकृष्ट समझा जाता हो उस जातिके सम्बन्धमें कानू- नकी धाराओंमें पक्षपातहीनताका विधान भले ही हुआ करे लेकिन हाकिमके अन्त:करणमें पक्षपातहीनताके भावका रक्षित रहना कठिन हो जाता है। उस अवसरपर प्रमाणकी साधारण त्रुटि, गवाहकी सामान्य भूल और कानूनकी भाषाका तिलमात्र छिद्र भी स्वभावतः बढ़कर इतना बड़ा हो जाता है कि अँगरेज अपराधी अनायास ही उसमेंसे निकलकर बाहर जा सकता है ।

हमारे देशके लोगोंकी पर्यवेक्षण शक्ति और घटना-स्मृति वैसी अच्छी और प्रबल नहीं है। हमें अपना यह दोष स्वीकृत करना ही पड़ेगा कि हम लोगोंके स्वभावमें मानसिक शिथिलता और कल्पनाकी उच्छृखलता है। यदि हम किसी घटनाके समय ठीक उसी जगह उपस्थित रहें तो भी आदिसे अन्ततक उस घटनाकी सारी बातें क्रमानुसार हमें याद नहीं रह सकती। इसीलिये हम लोगोंके वर्ण- नमें असंगति और संशय रहा करता है और भयके कारण अथवा [ ६१ ] तर्कके सामने परिचित सत्य घटनाका सूत्र भी हम खा बैठते हैं। इसी लिये हम लोगोंके गवाहोंके सच और झूठका सूक्ष्मरूपसे निर्धारण करना विदेशी विचारकोंके लिये सदा ही कठिन होता है । और तिसपर अभियुक्त जन उन्हींके देशका होता है तब यह कठिनता सौगुनी बल्कि हजार गुनी हो जाती है । और फिर विशेषतः जब स्वभावसे ही अँगरेजोंके सामने कम पहननेवाले, कम खानेवाले, कम प्रतिष्ठावाले और कम बलवाले भारतवासीके 'प्राणकी पवित्रता' उनके देशभाइयोंके मुकाबलेमें बहुत ही कम और परिमित होती है तब भारतवासियों के लिये यथोचित प्रमाण संग्रह करना एक प्रकारसे बिलकुल असंभव हो जाता है । इस तरह एक तो हम लोगोंके गवाह ही दुर्बल होते हैं और फिर हमारे तिल्ली आदि शरीर-मंत्र बहुत कुछ त्रुटिपूर्ण बतलाये जाते हैं, इस लिये हम लोग बहुत ही सहजमें मर भी जाते हैं और इस संबंधमें न्यायालयसे उचित विचार कराना भी हम लोगोंके लिये दुस्साध्य होता है।

लज्जा और दुःखके साथ हमें इन सब दुर्बलताओंको स्वीकृत करना पड़ता है, लेकिन उसके साथ ही साथ इस सत्य बातको भी प्रका- शित कर देना उचित जान पड़ता है कि इस प्रकारकी घटनाओंके लगातार होनेके कारण इस देशके लोगोंका चित्त बहुत अधिक क्षुब्ध होता जाता है। साधारण लोग कानून और प्रमाणोंका सूक्ष्म विचार नहीं कर सकते। यह बात बार बार और बहुत ही थोड़े थोड़े समयपर देख- नेमें आती है कि भारतवासीकी हत्या करनेपर कभी किसी अँगरेजको प्राणदण्ड नहीं दिया जाता और इस बातको देखते तथा समझते हुए भारतवासियोंके मनमें अँगरेजोंकी निष्पक्ष न्यायपरताके सम्बन्धमें बहुत बड़ा सन्देह उत्पन्न होता है । [ ६२ ]हम साधारण मनुष्योंकी मूढ़ताको क्यों दोष दें, स्वयं सरकार ही उपयुक्त और अनुरूप अवसर पाकर क्या करती है ? जब सरकार देखती है कि कोई डिपुटी मजिस्ट्रेट अधिकांश असामियोंको छोड़ देता है तब गवर्नमेण्ट यह नहीं सोचती कि संभवतः यह डिपुटी मजिस्ट्रेट दूसरे मजिस्ट्रेटोंकी अपेक्षा अधिकतर न्यायशील है, इसी लिये यह गवाहोंके सच और झूठका बिना सूक्ष्म रूपसे और किए असामीको दंड देनेमें संकोच करता है। अतः इसकी इस सचे- तन धर्मबुद्धि और सतर्क न्यायपरताके लिये जल्दी ही इसकी पदवृद्धि कर देना कर्तव्य है । अथवा यदि सरकार देखती है कि किसी पुलिस कर्मचारीके इलाकेमें जितने अपराध होते हैं उनकी अपेक्षा बहुत कम अपराधी पकड़े जाते हैं अथवा वह यह देखती है कि चलान किए हुए असामियों से बहुतसे असामी छूट जाते हैं, तब वह अपने मनमें यह नहीं सोचती कि संभवतः यह पुलिस कर्मचारी दूसरे पुलिस कर्म- चारियोंकी अपेक्षा अधिक सत्प्रकृतिका मनुष्य है । यह भले आदमि- योंका चोरीमें चलान नहीं करता अथवा स्वयं झूठी गवाहियाँ तैयार करके मुकदमेकी सब कमजोरियोंको दूर नहीं कर देता, अतः पुरस्कार स्वरूप जल्दी ही इसके ग्रेडकी वृद्धि कर देना उचित है। हमने जो इन दो आनुमानिक दृष्टान्तोंका उल्लेख किया है ये दोनों ही संभवत: न्याय और धर्मकी ओर ही अधिक हैं। लेकिन यह बात किसीसे छिपी नहीं है कि सरकारके हाथों इस प्रकारके अभागे भले आदमियोंका कभी सम्मान या तरक्की नहीं होती।

सर्वसाधारण भी सरकारकी अपेक्षा अधिक सूक्ष्मबुद्धिवाले नहीं हैं। वे भी खूब मोटे हिसाबसे हर एक बातका विचार करते हैं। वे कहते है कि हम इतने आईन कानून और गवाह-सबूत कुछ नहीं समझते । [ ६३ ] भला यह कैसी बात है कि किसी भारतवासीकी हत्याके अपराधमें आजतक एक अँगरेजको भी उपयुक्त दण्ड नहीं मिला !

यदि बार बार चोट लगनेके कारण साधारण प्रजाके हृदयमें कोई भारी घाव हो गया हो तो उस घावको चुपचाप छिपा रखना राज- भक्ति नहीं है। इसीलिये हम लोगोंकी तरफसे बाबू कहलानेवाले लोग इन सब बातोंको प्रकट रूपसे कह देना ही अपना कर्त्तव्य समझते हैं। हम लोग भारतवर्षको चलानेवाले भाफके इंजिनमें लगे हुए ताप- मानयंत्र मात्र हैं। हम लोगोंकी निजकी कोई शक्ति नहीं है। हम लोग लोहेके छोटे और बड़े विचित्र चक्करोंको चलानेकी कोई शक्ति नहीं रखते। केवल वैज्ञानिक गूढ नियमके अनुसार समय समयपर हम लोगोंका चंचल पारा अचानक ऊपरकी ओर चढ़ जाता है, लेकिन इसके लिये इंजीनियरका यह कर्त्तव्य नहीं है कि वह हमसे नाराज हो जाय । अगर वह धीरेसे एक भी मुक्का मार दे तो यह क्षुद्र क्षणभंगुर पदार्थ टूट जाय और इसका सारा पारा इधर उधर छितराकर नष्ट हो जाय। लेकिन इंजिनके बायलरमें जो ताप होता है उसके परिमाणका निर्णय करना यंत्र चलानेके कामका एक प्रधान अंग है । अँगरेज लोग प्राय: उग्रमूर्ति धारण करके कहा करते हैं कि सर्व साधारणके नाम- पर अपना परिचय देने और बोलनेवाले तुम कौन होते हो? तुम लोग तो हमारे ही स्कूलोंसे निकले हुए थोड़ेसे बातें बनानेवाले अँगरेजीदाँ हो न ?

सरकार, हम लोग कोई नहीं हैं। लेकिन तुम्हारी बेढब विरक्ति और क्रोधके कारण हम अनुमान करते हैं कि हम लोगोंको तुम बहुत ही सामान्य नहीं समझते और फिर हमें सामान्य समझना तुम्हारे लिये उचित भी नहीं है । यद्यपि हम शिक्षित लोग संख्यामें बहुत ही थोड़े हैं तो भी विच्छिन्न-समाज भारतवर्षमें केवल शिक्षित सम्प्रदायमें [ ६४ ] ही कुछ शिक्षा और हृदयकी एकता है और यही शिक्षित लोग ही भारतवासियोंके हृदयकी वेदना स्पष्ट रूपसे प्रकट कर सकते हैं और अनेक उपायोंसे उस वेदनाको संचारित भी कर सकते हैं। सरकारकी राजनीतिका यह एक प्रधान अंग होना चाहिए कि वह बराबर मनोयोगपूर्वक इस बातकी आलोचना करती रहे कि इस शिक्षित सम्प्रदायके हृदयपर कब और किस प्रकारका आघात, अभिघात होता है । लक्षणोंसे जहाँतक मालूम होता है वहाँतक यही पता चलता है कि सरकार इस विषयमें बिलकुल उदासीन नहीं है।

हम जिस घटनाकी आलोचना कर रहे हैं वह दो कारणोंसे हमारे हृदयपर चोट पहुँचाती है । पहला कारण यह है कि जब कभी अत्या- चारकी कोई बात सुनाई पड़ती है तब उस अत्याचारके लिये उपयुक्त दण्डकी आशासे चित्त व्यग्र हो जाता है और चाहे जिस लिये हो लेकिन जब अपराधी दण्डसे बच जाता है तब हृदय बहुत क्षुब्ध होता है । दूसरा कारण यह है कि इन सब घटनाओंसे यह पता चलता है कि हम लोगोंका बहुत बड़ा जातीय अपमान हुआ है, इसलिये हम लोग बहुत मर्माहत होते हैं।

अपराधीका छूट जाना भले ही बुरा हो लेकिन अदृष्टवादी भारत- वर्ष न्यायालयके विचारके सामने कुछ भी असंभव नहीं समझता । कानून इतना जटिल है, गवाहियाँ इतनी फिसल जानेवाली हैं और ममत्व- हीन अवज्ञाकारी विदेशियोंके लिये इस देशके लोगोंका चरित्रज्ञान इतना दुर्लभ है कि मुकदमा, जिसका परिणाम बहुत अनिश्चित होता है, बिलकुल जूएके खेलकी तरह जान पड़ता है। इसीलिये जिस प्रकार जूएके खेलमें एक प्रकारका मोहकारी उत्तेजन होता है उसी प्रकार हमारे देशमें बहुतसे लोगोंको मुकदमेबाजीका एक नशासा हो जाता है। इसलिये [ ६५ ] जब कि सर्वसाधारणको इस प्रकारकी एक धारणा हो गई है कि मुक- दमेका परिणाम बिलकुल अनिश्चित होता है और जब इस विषयमें उस अनिश्चिततासे उत्पन्न हुआ हम लोगोंका स्वभावदोष भी बहुत कुछ उत्तरदायी है तब बीच बीचमें निर्दोषका पीड़न और दोषीका छुटकारा शोचनीय परन्तु अवश्यम्भावी मालूम होता है ।

लेकिन जब बार बार यही देखा जाता है कि युरोपीय अपराधी छूट जाते हैं और इस सम्बन्धमें शासक लोग बिलकुल उदासीन रहते हैं तब इससे यही पता चलता है कि अँगरेज लोग भारतवासियों के साथ हृदयसे लापरवाहीका व्यवहार करते हैं । इसी अपमानका धिक्कार हृद- यमें काँटेकी तरह स्थायी रूपसे चुभा रहता है ।

यदि इससे बिलकुल उलटी घटनायें होतीं, यदि थोड़े ही समयमें भारतवासियोंके द्वारा बहुतसे युरोपियन मारे जाते और विचार होनेपर प्रत्येक अभियुक्त छूट जाता तो इस प्रकारकी दुर्घटनाओंकी सारी संभावना नष्ट करनेके लिये हजारों तरह के उपाय सोचे जाते । लेकिन जब प्राच्य भारतवासी व्यर्थ गोलियाँ और लाठियाँ खाकर मरते हैं तब पाश्चात्य शासकोंमें किसी प्रकारको दुर्भावनाके लक्षण नहीं दिखाई देते। यह भी नहीं सुननेमें आता कि कहीं इस प्रकारका कोई प्रश्न उठा है कि ये सब उपद्रव किस प्रकार दूर किए जा सकते हैं ?

लेकिन हम लोगोंके प्रति शासकोंकी जो यह अवज्ञा है, उसके लिये प्रधानतः हम ही लोग धिक्कारके योग्य हैं क्योंकि हम लोगोंको यह बात किसी प्रकार भूल न जानी चाहिए कि सम्मान कभी कानू- नकी सहायतासे प्राप्त नहीं किया जा सकता । सम्मान सदा अपने हाथमें ही होता है। हम लोगोंने जिस प्रकार गिड़गिड़ा कर अदा[ ६६ ] लतोंमें फरियाद करना आरम्भ किया है उससे हम लोगोंकी आत्म- मर्यादा बहुत ही घटती जा रही है।

उदाहरणके लिये हम उस घटनाका उल्लेख कर सकते हैं जिसमें खुलनाके मजिस्ट्रेटने अपने मुहर्रिरको मारा था। लेकिन यह बात पहले से ही बतला देना आवश्यक है कि डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट बेल साहब बहुत ही दयालु उन्नत विचारके और सहृदय मनुष्य हैं और उनमें भार- तवासियोंके प्रति उदासीनता या अवज्ञा नहीं है। हमारा विश्वास है कि उन्होंने जो मुहर्रिरको मारा था उससे केवल दुर्द्धर्ष अँगरेजोंके स्वभावकी हठकारिता ही प्रकट होती है बंगालियोंके प्रति घृणा नहीं। जिस समय जठरानल प्रज्वलित होता है उस समय बहुत ही साधा- रण कारणसे भी क्रोधानल भड़क उठता है। यह बात भारतवासि- योंमें भी होती है और अँगरेजोंमें भी, इस लिये इस घटनाके सम्ब- न्धमें विजातिद्वेषका प्रश्न उठाना उचित नहीं है ।

लेकिन बादीकी ओरके बंगाली बैरिस्टर महाशयने इस मुकदमेके समय कई बार कहा था कि मुहर्रिरोंको मारना अँगरेजोंके लिये उचित नहीं है। क्योंकि वेल साहब यह बात जानते थे अथवा उन्हें यह जानना चाहिए था कि मुहर्रिर उलटकर हमें मार नहीं सकता है

यदि यह बात सच हो तो यथार्थ लज्जा उसी मुहर्रिर और उस मुहर्रिरकी जातिके लोगोंको होनी चाहिए। क्योंकि अचानक क्रोधमें आकर किसीको मार बैठना मनुष्यकी दुर्बलता है । लेकिन मार खाकर बिना उसका बदला चुकाए रोने लगना कायरकी दुर्बलता है । हम यह बात कह सकते हैं कि मुहर्रिर यदि उलटकर बेल साहबको मार बैठता तो सच्चे अंगरेजकी तरह वे भी मन ही मन उसपर श्रद्धा करते। हमें सच्चाईसे और प्रसन्नतापूर्वक स्वीकृत करना चाहिए कि यह बात [ ६७ ] बिलकुल ध्रुव है कि बहुत अधिक अपमानित होने पर भी एक मुह- र्रिर किसी अँगरेजको उलट कर मार नहीं सकता और हमारी समझमें केवल इसीलिये अँगरेजोंको अधिक दोषी ठहराना बहुत ही अनावश्यक और लज्जाजनक है।

इस बातकी ओर हम लोगोंका ध्यान रखना उचित हो सकता है कि मार खानेवाले मुहर्रिरको कानूनके अनुसार जो कुछ प्रतिकार मिल सकता हो उस प्रतिकारसे वह तनिक भी वंचित न हो, लेकिन हमें इस बातका कोई कारण नहीं दिखलाई देता कि जब वह मार खाकर और अपमानित होकर रोता गाता है तब सारे देशके लोग मिलकर खूब हो-हल्ला करें और केवल विदेशीको ही गाली गलौज दें। बेल साहबका व्यवहार प्रशंसनीय नहीं था। लेकिन मुहर्रिर और उसके पास रहनेवाले दूसरे आदमियोंका आचरण भी हेय था और खुलनाके बंगाली डिपुटी मजिस्ट्रेटके आचरणने तो हीनता और अन्यायको एकत्र मिलाकर सबसे अधिक वीभत्सपूर्ण कर दिया है।

थोड़े ही दिन हुए इसी प्रकारकी एक घटना पबनामें हुई थी। वहाँ म्युनिसिपैलिटीके घाटपरके एक ब्राह्मण कर्मचारीने पुलिसके साहबके परवाकुलीसे वाजिब महसूल लेना चाहा था, इसपर पुलिसके साहबने उस ब्राह्मण कर्मचारीको अपने घर ले जाकर उसकी बहुत अधिक दुर्दशा की । बंगाली मजिस्ट्रेट ने उस अपराधी अँगरेजको तो बिना किसी प्रकारका दंड दिए ही केवल सचेत करके छोड़ दिया परन्तु जब उस पंखाकुलीने उक्त ब्राह्मणके नाम दंगा करनेकी नालिश की तब ब्राह्मणको बिना जुरमाना किए न छोड़ा !

जिस कारणसे बंगाली मजिस्ट्रेटने प्रबल अँगरेज अपराधीको केवल सचेत करके छोड़ दिया और असमर्थ बंगाली आभियुक्तका जुर[ ६८ ] माना कर दिया वही कारण हम लोगोंकी जातिकी नसनसमें घुसा हुआ है। हम स्वयं ही अपने हाथों अपनी जातिके लोगोंका जो सम्मान करना नहीं जानते, हम लोग आशा करते हैं कि अँगरेज हम लोगोंका वहीं सम्मान आपसे आप करेंगे!

एक भारतवासी जब चुपचाप मार खाता है और दूसरा भारतवासी उस दृश्यको कुतूहलपूर्वक देखता है और जब बिना किसी प्रकारकी लज्जाके भारतवासी यह बात स्वीकृत करते हैं कि किसी भारतवासीके हाथसे इस अपमानके प्रतिकारकी आशा नहीं की जा सकती, तब यही समझना चाहिए कि अँगरेजोंके द्वारा हत और आहत होनेका मूल और प्रधान कारण स्वयं हम लोगोंके स्वभावमें ही है और इस कारणको सरकार किसी प्रकारके कानून अथवा विचारके द्वारा कभी दूर नहीं कर सकती।

हम लोग जब यह सुनते हैं कि किसी अँगरेजने एक भारतवासीका अपमान किया है तब चट आक्षेप करते हुए कह बैठते हैं कि वह अँगरेज किसी दूसरे अँगरेजके ही साथ कभी ऐसा व्यवहार न करता। खैर, यह मान लिया कि वह किसी दूसरे अँगरेजके साथ ऐसा व्यव- हार न करता लेकिन अँगरेजके ऊपर क्रोध करनेकी अपेक्षा यदि हम स्वयं अपने ही ऊपर क्रोध करें तो इससे कुछ अधिक फल हो सकता है। जिन जिन कारणोंसे एक अँगरेज सहसा किसी दूसरे अँगरेजपर हाथ छोड़नेका साहस नहीं करता यदि वे ही सब कारण उसे हमपर हाथ छोड़ते समय नजर आने लगें तो हमारे साथ भी वैसा ही अनुकूल आचरण हो और हम लोगोंको इस प्रकार गिड़गिड़ाकर रोना गाना न पड़े।

पहले तो हमें अच्छी तरह यही देखना चाहिए कि एक भारत- वासीके साथ दूसरा भारतवासी कैसा व्यवहार करता है। क्योंकि हम [ ६९ ] लोगोंकी सारी शिक्षा इसीपर निर्भर है। क्या हम लोग अपने नौक- रोंको नहीं मारते ? क्या हम लोग अपने अधीनस्थ लोगोंके साथ उद्दंड- ताका व्यवहार नहीं करते और निम्नश्रेणीके लोगोंके प्रति सदा असम्मान प्रकट नहीं करते ? हम लोगोंका समाज जगह जगह उच्च और नीचमें विभक्त है। जो व्यक्ति कुछ भी उच्च होता है वह नीच जातिवाले व्यक्तिसे अपरिमित अधीनताको आशा करता है। यदि कोई निम्नवी मनुष्य तनिक भी स्वतंत्रता प्रकट करता है तो ऊपरवालोंको उसका वह स्वतंत्रता प्रकट करना असह्य जान पड़ता है। भले आदमी तो यही सम- झते हैं कि देहाती और गँवार किसान मनुष्यों में गिने जानेके योग्य ही नहीं हैं। यदि किसी सशक्त मनुष्यके सामने कोई अशक्त मनुष्य पूरी तरहसे दबकर न रहे तो उसे जबरदस्ती अच्छी तरह दबा देनेकी चेष्टा की जाती है । यह तो बराबर देखा ही जाता है कि चौकीदारके ऊपर कान्स्टेबुल और कान्स्टेबुलके ऊपर दारोगा केवल सरकारी काम ही नहीं लेते, वे केवल अपने उच्चतर पदका उचित सम्मान प्राप्त करके ही सन्तुष्ट नहीं होते बल्कि उसके साथ साथ अपने अधी- नस्थ कर्मचारियोंसे गुलामी करानेका भी दावा रखते हैं। चौकीदारके लिये कान्स्टेबुल एक यथेच्छाचारी राजा होता है और कान्स्टेबुलके लिये दारोगा भी वैसा ही अत्याचारी राजा होता है । इस प्रकार हमारे समाजमें सभी जगह छोटोंको बड़े लोग जिस प्रकार अपने नीचे दबाए रखना चाहते हैं उसकी कोई सीमा ही नहीं है । समाजमें जगह जगह प्रभुत्वका भार पड़ा हुआ है जिससे हमारी नसनसमें दासत्व और भय घुसा रहता है। जन्मसे हम लोगोंका जो नियत अभ्यास होता है वह हम लोगोंको अन्धवाध्यताके लिये पूरी तरहसे तैयार कर रखता है। उसीसे हम लोग अपने अधीनस्थ लोगोंके प्रति [ ७० ] अत्याचारी, अपनी बराबरीके लोगोंके प्रति ईर्ष्यान्वित और ऊपरवाले लोगोंके सामने बिके हुए गुलाम बनना सीखते हैं। हम लोगोंकी हरदमकी उसी शिक्षामें हम लोगोंके सारे व्यक्तिगत और जातीय अपमानोंका मूल छिपा हुआ है। गुरुके प्रति भक्ति करके, प्रभुकी सेवा करके और अन्य मान्य लोगोंका यथोचित सम्मान करके भी मनुष्यमात्रमें जो एक मनुष्योचित आत्ममर्यादा रहनी चाहिए उसकी रक्षा की जा सकती है। लेकिन यदि हमारे गुरु, हमारे प्रभु, हमारे राजा या हमारे मान्य लोग उस आत्ममर्य्यादाका भी अपहरण कर लें तो उससे मनुष्यत्वमें बड़ा भारी हस्तक्षेप होता है। इन्हीं सब कारणोंसे हम लोग सचमुच ही मनुष्यत्वसे बिलकुल हीन हो गए हैं और इन्हीं कारणोंसे एक अँगरेज दूसरे अँगरेजके साथ जैसा व्यवहार करता है उस प्रकार वह हमारे साथ व्यवहार नहीं करता।

घर और समाजकी शिक्षासे जब हम उस मनुष्यत्वका उपार्जन कर सकेंगे तभी अँगरेज हम लोगोंके प्रति श्रद्धा करनेको बाध्य होंगे और हमारा अपमान करनेका साहस न करेंगे। अँगरेज सरकारसे हम लोग बहुत कुछ आशा कर सकते हैं लेकिन स्वाभाविक नियमको बदलना उसके लिये भी सम्भव नहीं है। और संसारका यह एक स्वाभाविक नियम है कि हीनताके प्रति आघात और अवमानना होती ही है।