राजा और प्रजा/४ सुविचारका अधिकार
सुविचारका अधिकार।
समाचारपत्रोंके पाठकोंको यह बात मालूम है कि थोड़े ही दिन हुए, सितारा जिलेके बाई नामक नगरमें तेरह भले आदमी हिन्दू जेल भेजे गए थे। उन लोगोंने कोई अपराध किया होगा और कानूनके अनुसार भी सम्भव है कि वे दण्ड पानेके योग्य हों, किन्तु इस घटनासे समस्त हिन्दुओंके हृदयपर भारी चोट पहुँची है और इस चोट पहुँचनेका उचित कारण भी है।
उक्त नगरमें मुसलमानोंकी अपेक्षा हिंदुओंकी संख्या बहुत अधिक है और आजतक उन दोनोंमें कभी किसी विरोधके लक्षण नहीं दिखाई दिए। न्यायालयमें एक मुसलमान गवाहने भी कहा था कि यहाँ हिन्दुओंके साथ मुसलमानोंका कोई झगड़ा नहीं है-झगड़ा है हिन्दुओंके साथ सरकारका।
मजिस्ट्रेटने अकस्मात् किसी अशान्तिकी आशंकासे एक पूजाके अवसरपर हिन्दुओंको बाजा बन्द करनेकी आज्ञा दे दी। हिन्दुओंने हतबुद्धि होकर राजाज्ञा और देवसम्मान दोनोंकी रक्षा करनी चाही, पर वे दोनोंमेंसे एककी भी रक्षा न कर सके। बहुत दिनोंसे वहाँ जिस प्रकारके बाजे बजानेकी प्रथा थी उन बाजोंको बन्द करके केवल एक साधारण बाजा बजाकर उन्होंने किसी प्रकार अपना उत्सव कर लिया। यह तो मालूम नहीं कि इससे देवता संतुष्ट हुए या नहीं, पर मुसलमान लोग असन्तुष्ट नहीं हुए। लेकिन फिर भी मजिस्ट्रेटने रुद्रमूर्ति धारण की। उन्होंने नगरके तेरह भले आदमी हिन्दुओंको जेल भेज दिया।
हाकिम बहुत जबरदस्त हैं, कानून बहुत कठिन है, और शासन बहुत कड़ा है, लेकिन इसमें सन्देह है कि इन सब बातोंसे स्थायी शान्ति हो सकती है या नहीं। जिस स्थानपर विरोध नहीं होता उस स्थानपर ऐसी बातोंसे विरोध उठ खड़ा होता है, जहाँ विद्वेषका बीज भी नहीं होता वहाँ विद्वेषके अंकुर और पल्लव निकल आते हैं। प्रबल प्रतापसे यदि शान्ति स्थापित करनेका प्रयत्न किया जाय तो उससे अशान्ति उठ खड़ी होती है।
यह बात सभी लोग जानते हैं कि बहुतसी असभ्य जातियोंमें और किसी प्रकारकी चिकित्सा नहीं होती केवल भूतों और प्रेतोंकी झाड़फूँक होती है। वे लोग गरज गरजकर नाचते हैं और रोगीको धरपकड़कर प्रलय उपस्थित कर देते हैं। यदि अँगरेज लोग हिन्दुओं और मुसलमानोंके विरोधरूपी रोगकी उसी आदिम प्रणालीसे चिकित्सा करना आरम्भ कर दें तो उससे रोगीकी मृत्युतक हो सकती है, परन्तु रोगके शमनकी कोई सम्भावना नहीं हो सकती। और फिर ओझा लोग जिस भूतको झाड़कर उतार लाते हैं उस भूतको: शान्त करना बहुत कठिन हो जाता है।
बहुतसे हिन्दुओंका यह विश्वास है कि सरकारका आन्तरिक अभिप्राय यह नहीं है कि विरोध मिटा दिया जाय। सरकार केवल इसी लिये दोनों सम्प्रदायोंमें धार्मिक विद्वेष बनाए रखना चाहती है कि जिसमें पीछेसे कांग्रेस आदिकी चेष्टासे हिन्दू और मुसलमान क्रमशः एकताके मार्गमें आगे न बढ़ने लग जायँ और वह मुसलमानों के द्वारा हिन्दुओंका अभिमान तोड़कर मुसलमानोंको सन्तुष्ट और हिन्दुओंको दबाए रखना चाहती है।
लेकिन लार्ड लैन्सडाउनसे लेकर लार्ड हैरिस तक सभी लोग कहते हैं कि जो व्यक्ति ऐसी बात मुँहपर लावे वह पाखण्डी और झूठा है। अँगरेज सरकार हिन्दुओंकी अपेक्षा मुसलमानोंके प्रति अधिक पक्षपात प्रकट करती है इस अपवादको भी वे लोग बिलकुल निर्मूल बतलाते और इसका तिरस्कार करते हैं।
हम भी उन लोगोंकी बातोंका अविश्वास नहीं करते। कांग्रेसके प्रति सरकारकी गहरी प्रीति न हो और यह भी पूर्ण रूपसे सम्भव है कि उन लोगोंकी यह भी इच्छा हो कि मुसलमान लोग हिन्दुओंके साथ मिलकर कांग्रेसको बलवान् न कर दें, लेकिन फिर भी राज्यके दो प्रधान सम्प्रदायोंकी अनेकताको विरोधमें परिणत कर देना किसी परिणामदर्शी और विवेचक सरकारका अभिप्राय नहीं हो सकता। अनेकता बनी रहे, अच्छी बात है, लेकिन सरकारके सुशासनमें उसे शान्तमूर्ति धारण करके रहना चाहिए। सरकारके मनमें इस अभिप्रायका होना भी असम्भव नहीं है कि जिस प्रकार हमारे बारूदखाने में बारूद शीतल होकर पड़ी रहती है और फिर भी उसकी दाहक शक्ति नष्ट नहीं हो जाती, हमारी राजनैतिक शस्त्रशालामें हिन्दुओं और मुसलमानोंका आन्तरिक असद्भाव भी उसी प्रकार शीतल भावसे रक्षित रहना चाहिए।
इसी लिये हमारी सरकार हिन्दुओं और मुसलमानोंके गाली-गलौजका दृश्य देखनेके लिये भी व्याकुलता नहीं प्रकट करती और मारपीटके दृश्यको भी सुशासनके लिये हानिकारक समझकर उससे विरक्त रहती है। यह बात सदा देखनेमें आती है कि जब दो पक्षों में विरोध होता है और शान्तिभंगकी आशंका उपस्थित होती है तब मजिस्ट्रेट सूक्ष्म विचारकी ओर नहीं जाते और दोनों ही पक्षोंको समान भावसे दबा रखनेकी चेष्टा करते हैं। क्योंकि साधारण नियम यही है कि एक हाथसे कभी ताली नहीं बजती। लेकिन हिन्दुओं और मुसलमानोंके विरोधके सम्बन्धमे सर्व साधारणका यह विश्वास दृढ़ हो गया है कि दमन अधिकांश हिन्दुओंका ही होता है और आश्रय अधिकांश मुसलमानोंको ही मिलता है। इस प्रकारके विश्वासके उत्पन्न हो जानेसे दोनों सम्प्रदायोंमें ईर्ष्याकी आग और भी अधिक भड़क उठती है और जिस स्थानपर कभी किसी प्रकारका विरोध नहीं होता उस स्थानपर भी शासक लोग सबसे पहले निर्मूल आशंकाकी कल्पना करके एक पक्षका बहुत दिनोंका अधिकार छीनकर दूसरे पक्षका साहस और हौसला बढ़ा देते हैं और इस प्रकार बहुत दिनोंतक चलनेवाले विरोधका बीज बो दिया जाता है।
हिन्दुओंके प्रति सरकारका किसी विशेष प्रकारका विराग न होना ही सम्भव है लेकिन केवल सरकारकी पालिसीके द्वारा ही उसका सारा काम नहीं चल सकता। प्राकृतिक नियम भी कोई चीज है। स्वर्गराज्यके पवन देवका किसी प्रकारका असाधु उद्देश्य नहीं हो सकता, लेकिन फिर भी उत्तापके नियमके अधीन होकर उनके मर्त्यराज्यके अनुचर उनचास वायु यहाँ अनेक अवसरोंपर एकाएक प्रबल आँधी चला देते हैं। हम लोग सरकारके स्वर्गलोकका ठीक ठीक हाल नहीं कह सकते, वह हाल लार्ड लैन्सडाउन और लार्ड हैरिस ही जानते हैं; किन्तु हम लोग अपनी चारों ओरकी हवामें कुछ गड़बड़ी अवश्य देखते हैं। स्वर्गधामसे 'मा भैः मा भैः' की आवाज आती है लेकिन हमलोगोंके आसपास जो देवचर लोग हैं उनमें कुछ अधिक गरमीके लक्षण दिखाई देते हैं। मुसलमान लोग भी जानते हैं कि हमारे लिये विष्णुके दूत खड़े हुए आसरा देख रहे हैं और हम लोग भी मन ही मन काँपते हुए इस बातका अनुभव करते हैं कि हम लोगोंके लिये दरवाजेके पास हाथमें गदा लिए हुए यमके दूत बैठे हुए हैं और ऊपरसे उन यमदूतोंकी खोराकी हमें अपने पल्लेसे देनी पड़ेगी।
इस बातपर भी विश्वास नहीं होता कि हम लोग हवाकी गतिका जिस रूपमें अनुभव करते हैं वह बिलकुल ही निर्मूलक है। थोड़े ही दिन हुए स्टेट्समैन नामक समाचारपत्रमें गवर्नमेन्टके उच्च उपाधिधारी किसी श्रद्धेय अँगरेज सिविलियनने यह बात प्रकाशित कराई थी कि आजकल भारतमें रहनेवाले साधारण अँगरेजोंके मनमें हिन्दुओंके प्रति विद्वेषका कुछ भाव व्याप्त हो रहा है और मुसलमान जातिके प्रति उनमें एक आकस्मिक वात्सल्य रसका उद्रेक दिखाई देता है। यदि हमारे मुसलमान भाइयोंके लिये अँगरेजोंके स्तनोंमें दूध उतरता हो तो यह बात हमारे लिये आनन्दकी ही है, लेकिन हम लोगोंके लिये यदि केवल पित्तका ही संचार होता हो तो निष्कपट भावसे उस आनन्दको बनाए रखना कठिन हो जाता है।
यह बात नहीं है कि केवल राग या द्वेषके कारण ही पक्षपात अथवा अविचार हुआ करता हो, भयके कारण भी न्यायपरताके तराजूका काँटा बहुत कुछ काँपने लगता है। हम लोगोंको इस बातका सन्देह होता है कि अँगरेज लोग मुसलमानोंसे मन ही मन कुछ डरते हैं। इसीलिये राजदण्ड मुसलमानोंके शरीरसे छूता हुआ हिन्दुओंके ठीक सिरपर कुछ जोरके साथ गिरता है।
इसी राजनीतिको कहते हैं-"दाईको मारकर बहूको सिखाना।" यदि दाईको कुछ अन्यायपूर्वक भी मारा जाय तो वह सह लेती है। लेकिन बहू ठहरी पराए घरकी लड़की। यदि न्यायपूर्वक भी कोई उसपर हाथ छोड़ना चाहे तो सम्भव है कि वह उसे न सहे; और फिर न्याय-विचारका काम एक दमसे बन्द भी नहीं किया जा सकता। यह बात विज्ञानसम्मत है कि जहाँ बाधा बहुत ही कम होती है वहाँ यदि शक्तिका प्रयोग किया जाय तो शीघ्र ही फल प्राप्त होता है। इसलिये यदि हिन्दू मुसलमानोंके झगड़ोंमें शान्तप्रकृति, एकताके बन्धनसे रहित और कानूनी वेकानूनी सभी बातें चुपचाप सहनेवाले हिन्दुओंको दबा दिया जाय तो सहजमें ही मीमांसा हो जाती है। हम यह नहीं कहते कि गवर्नमेन्टकी पालिसी ही यही है। लेकिन इतना अवश्य है कि कार्य्यविधि स्वभावतः और यहाँतक कि अज्ञानतः भी इसी पथका अवलम्बन कर सकती है। यह बात ठीक उसी प्रकार हो सकती है जिस प्रकार नदीका स्रोत कड़ी मिट्टीको छोड़कर आपसे आप ही मुलायम मिट्टीको काटता हुआ चला जाता है।
इस लिये, चाहे गवर्नमेन्टकी हजार दोहाई दी जाय लेकिन हम इस बातपर विश्वास नहीं करते कि सरकार इसका कुछ प्रतिकार कर सकती है। हम लोग कांग्रेसमें सम्मिलित होते हैं, विलायतमें आन्दोलन करते हैं, अखबारोंमें प्रबन्ध लिखते हैं, भारतवर्षके बड़ेसे लेकर छोटे सभी अँगरेज कर्मचारियोंके कामकी स्वाधीनतापूर्वक समालोचना करते हैं, बहुतसे अवसरोंपर उन्हें अपने पदसे हटा देनेमें कृतकार्य्य होते हैं और इंग्लैण्डनिवासी निष्पक्ष अँगरेजोंकी सहायता लेकर भारतीय शासकोंके विरुद्ध बहुतसे राजविधानोंका संशोधन करानेमें भी समर्थ होते हैं। इन सब व्यवहारोंसे अँगरेज लोग इतना अधिक जल गए हैं कि भारत-राजतंत्रके बड़े बड़े पहाड़ोंकी चोटियोंसे भी राजनीतिसम्मत मौनको फाड़कर बीच बीच में आगकी लपटें निकलने लगती हैं। दूसरी ओर मुसलमान लोग राजभक्तिके मारे अवनतप्राय होकर कांग्रेसके उद्देश्यमार्गमें बाधास्वरूप खड़े हो गए हैं। इन्हीं सब कारणोंसे अँगरेजोंके मनमें एक प्रकारका विकार हो गया है-सरकारका इसमें कोई हाथ नहीं है।
केवल इतना ही नहीं है बल्कि अँगरेजोंके मनमें कांग्रेसकी अपेक्षा गोरक्षिणी सभाओंने और भी अधिक खलबली डाल दी थी। वे लोग जानते हैं कि इतिहासके प्रारम्भकालसे ही जो हिन्दू जाति आत्मरक्षाके लिये कभी एकत्र नहीं हो सकती वही जाति गोरक्षाके लिये तुरन्त एकत्र हो सकती है। इसलिये, जब इसी गोरक्षाके कारण हिन्दुओं और मुसलमानोंके विरोधका आरम्भ हुआ तब स्वभावतः ही मुसलमानोंके साथ अंगरेजोंकी सहानुभूति बढ़ गई थी। उस समय अविचलित चित्त और निष्पक्ष भावसे इस बातका विचार करनेकी शक्ति बहुत ही थोड़े अँगरेजोंमें थी कि इस समय कौन पक्ष अधिक अपराधी है अथवा दोनों ही पक्ष थोड़े बहुत अपराधी हैं या नहीं। उस समय वे डरते हुए सबसे अधिक इसी बातका विचार किया करते थे कि यह राजनीतिक संकट किस प्रकार दूर किया जा सकता है। हमने साधनाके तीसरे खंडमें 'अँगरेजोंका आतंक' नामक प्रबन्धमें सन्थालोंके दमनका उदाहरण देकर दिखलाया है कि जब आदमी डर जाता है तब उसमें सुविचार करनेका धैर्य नहीं रह जाता और जो लोग जानबूझकर अथवा बिना जानेवूझे डरका कारण होते हैं उन लोगोंके प्रति मनमें एक निष्ठुर हिंस्रभाव उत्पन्न हो जाता है। इसी लिये, गवर्नमेन्ट नामक यंत्र चाहे जितना निरपेक्ष रहे लेकिन फिर भी, चाहे यह बात बार बार अस्वीकृत कर दी जाय, इस बातके लक्षण स्पष्ट रूपसे पहले भी दिखलाई देते थे और अब भी दिखलाई देते हैं कि गवर्नमेन्टके छोटे बड़े सभी यंत्री आदिसे अन्त तक बिलकुल घबरा गए थे। और जब साधारण भारतीय अंगरेजोंके मनमें तरह तरहके स्वाभाविक कारणोंसे एक बार इस प्रकारका विकार उत्पन्न हो गया है, तब उसका जो फल है वह बराबर फलता ही रहेगा। राजा कैन्यूट जिस प्रकार समुद्रकी तरंगोंको रोक नहीं सका था उसी प्रकार गवर्नमेन्ट भी इस स्वाभाविक नियममें बाधा नहीं दे सकती।
प्रश्न हो सकता है कि तब फिर क्यों व्यर्थ ही यह आन्दोलन किया जाता है अथवा हमारे इस प्रबन्ध लिखनेकी ही क्या आवश्यकता थी? हम यह बात एक बार नहीं हजार बार मानते हैं कि सकरुण अथवा साभिमान स्वरमें गवर्नमेन्टके सामने निवेदन या शिकायत करनेके लिये प्रबन्ध लिखनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। हमारा यह प्रबन्ध केवल अपने जातिभाइयोंके लिये है। हम लोगोंपर जो अन्याय होता है अथवा हम लोगोंके साथ जो अविचार होता है उसके प्रतिकारका सामर्थ्य स्वयं हम लोगोंको छोड़कर और किसीमें नहीं है।
कैन्यूटने समुद्रको तरंगोंको जिस स्थानपर रुकनेके लिये कहा था समुद्रकी तरंगें उस स्थानपर नहीं रुकीं-उन्होंने जड़ शक्तिके नियमानुसार चलकर ठीक स्थानपर आघात किया था। कैन्यूट मुँहसे कहकर अथवा मंत्रोंका उच्चारण करके उन तरंगोंको नहीं रोक सकता था लेकिन बाँध बाँधकर उन्हें अवश्य रोक सकता था। स्वाभाविक नियमके अनुसार, यदि हम आघात-परम्पराको आधे रास्तेमें ही रोकना चाहें तो, हम लोगोंको भी बाँध बाँधना पड़ेगा, सब लोगोंको मिलकर एक होना पड़ेगा, सबको समहृदय होकर समवेदनाका अनुभव करना पड़ेगा। हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि हम लोग दल बाँधकर विप्लव करें और फिर हम लोगों में विप्लव करनेकी शक्ति भी नहीं है। लेकिन दल बाँधनेपर जो एक बृहत्त्व और बल आ जाता है उसपर लोग बिना श्रद्धा किए नहीं रह सकते। और जबतक कोई व्यक्ति या समाज अपनी ओर श्रद्धा आकृष्ट न कर सके तब तक उसके लिये सुविचार आकृष्ट करना बहुत ही कठिन होता है।
लेकिन बालूका बाँध क्योंकर बाँधा जा सकता है? जो लोग अनेक बार मारे पीटे जा चुके हैं फिर भी जिन्होंने कभी आजतक एका करना सीखा ही नहीं, जिन लोगोंके समाजमें फूटके हजारों विष-बीज छिपे हुए हैं वे लोग कैसे एक किए जा सकते हैं? आजकल उत्तरसे लेकर दक्षिणतक और पूर्वसे लेकर पश्चिमतक सारी हिन्दू जातिका हृदय दिन पर दिन अलक्षित भावसे केवल इसी विश्वासके कारण ही परस्पर निकट खिंचता आ रहा है कि अँगरेज लोग हम लोगोंके हृदयकी वेदनाका अनुभव नहीं कर सकते और वे औषधोंके द्वारा हमारी चिकित्सा न करके उलटे हमारे हृदयपर कड़ी चोट पहुँचाते और हमारे हृदयकी व्यथाको चौगुना बढ़ानेके लिये उद्योग करते हैं। लेकिन केवल इतनेसे ही कुछ नहीं हो सकता। हम लोगोंकी जाति अब भी हमारे जातिभाइयोंके लिए ध्रुव आश्रयभूमि नहीं बन पाई है। इसीलिये हम लोगोंको बाहरकी आँधीका उतना डर नहीं है जितना कि स्वयं अपने घरकी बालूकी दीवारका भय हैं। तेज बहनेवाली नदीके बीचके प्रवाहकी अपेक्षा उसके किनारेकी शिथिल बन्धन और खिसलनेवाली जमीनको बचाकर चलना होता है।
हम जानते हैं कि बहुत दिनों तक पराधीन रहनेके कारण हम लोगोंका जातीय मनुष्यत्व और साहस पिसकर चूर चूर हो गया है। हम जानते हैं कि यदि हम अन्यायके विरुद्ध खड़े होना चाहें तो हमें सबसे अधिक डर अपनी जातिका ही होगा। जिसके लिये हम अपने प्राण देनेको तैयार होंगे वही हमारी विपत्तिका प्रधान कारण होगा। हम लोग जिसकी सहायता करने जायँगे वहीं हमारी सहायता न करेगा। कायर लोग सत्य बातको स्वीकार न करेंगे। जो पीड़ित होंगे वे अपने कष्टको छिपा रखेंगे। कानून अपना वज्रके समान मुक्का उठावेगा और जेलखाना अपना लोहेका मुँह फैलाकर हम लोगोंको निगलने आवेगा। लेकिन फिर भी सच्चे महत्त्व और स्वाभाविक न्यायप्रियताके कारण हम लोगों से दो चार आदमी भी जब अंत तक अटल रह सकेंगे तब हम लोगोंके जातीय बंधनका सूत्रपात हो जायगा और तब हम लोग न्याययुक्त विचार करानेके अधिकारी होंगे।
हिन्दुओं और मुसलमानोंके विरोध अथवा भारतवासियों और अँगरेजोंके संघर्षके विषयमें हम जो कुछ अनुमान और अनुभव करते हैं, हम नहीं कह सकते कि हमारा वह अनुमान और अनुभव ठीक है या नहीं। और न हम यही जानते हैं कि हम जिस अविचारकी आशंका करते हैं उसका कोई आधार है या नहीं, लेकिन इतना अवश्य जानते हैं कि यदि मनुष्य केवल विचारकके अनुग्रह और कर्त्तव्य-ज्ञानपर ही विचारका सारा भार छोड़ दे तो इतनेसे ही वह सुविचारका अधिकारी नहीं हो सकता। राजतंत्र चाहे कितना ही उन्नत क्यों न हो, परन्तु यदि उसकी प्रजाकी अवस्था बिलकुल ही गई बीती हो तो वह राजतंत्र कभी अपने आपको उस उच्चस्थानपर स्थित नहीं रख सकता। क्योंकि राज्य मनुष्यके हीद्वारा चलता है। न तो वह यंत्रोके द्वारा चलता है और न देवताओं के द्वारा। जब उन मनुष्योंके सामने हम इस बातका प्रमाण देगें कि हम भी आदमी हैं तब वे लोग सभी अवसरोंपर हम लोगोंके साथ मनुष्योचित व्यवहार करेंगे। जिस समय भारतवर्ष में ऐसे थोड़े बहुत लोग भी उठ खड़े होंगे जो हम लोगोंमें अटल सत्यप्रियता और निर्भीक न्यायपरताका उन्नत आदर्श स्थापित करेंगे, जब अंगरेज लोग अपने हृदयमें इस बातका अनुभव करेंगे कि भारतवर्ष अब न्यायविचारको निश्चेष्ट भावसे ग्रहण नहीं करता, उसके लिये सचेष्ट भावसे प्रार्थना करता है और अन्याय दूर करनेके लिये अपने प्राणतक देनेको तैयार है, तब वे लोग कभी भूलसे भी हम लोगोंकी अवहेला न करेंगे और हम लोगोंके प्रति न्यायविचारमें शिथिलता करनेकी ओर स्वभावतः ही उन लोगोंकी प्रवृत्ति न होगी।