राजा और प्रजा/२ राजनीतिके दो रुख

राजा और प्रजा
रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनुवादक रामचंद्र वर्मा

बंबई: हिंदी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, पृष्ठ ४६ से – ५६ तक

 



राजनीतिके दो रुख।

साधारणत: न्यायपरता दया आदि अनेक बड़े बड़े गुणोंका जितना अधिक विकास अपनी बराबरीके लोगोंमें होता है उतना अधिक विकास असमान लोगोंके बीचमें नहीं होता । यह बात प्रायः देखी जाती है कि जो लोग अपनी बराबरी वालोंमें घरमें पले हुए हिरणके बच्चेकी तरह कोमल स्वभाववाले होते हैं, वे ही लोग छोटी श्रेणीवालोंके लिये जंगलके वाग, पानीके मगर अथवा आकाशके श्येन- पक्षीकी तरह होते हैं।

अबतक इस बातके अनेक प्रमाण पाए गए हैं कि युरोपकी जातियाँ युरोपमें जितनी सभ्य, जितनी सदय और जितनी न्यायपरायण होती हैं उतनी युरोपसे बाहर निकलनेपर नहीं रह जाती। जो लोग ईसाइयोंके सामने ईसाइयोंकी ही तरह रहते हैं, अर्थात् जो एक गालपर थप्पड़ खाकर समय पड़नेपर दूसरा गाल भी उसके सामने कर देनेके लिये बाध्य होते हैं वे ही लोग दूसरे स्थानोंमें जाकर ईसाइयोंसे भिन्न दूसरी जाति के लोगोंके एक गालपर थप्पड़ मारकर उसे दूसरा गाल भी अपने सामने कर देनेके लिये कहते हैं और यदि ईसाईसे भिन्न जातिका वह मनुष्य अपनी मूर्खताके कारण उनका उक्त अनुरोध पालन कर- नेमें कुछ आगा पीछा करता है तो वे ईसाई तुरन्त ही उसका कान पकड़कर घरसे बाहर निकाल देते हैं और उसके घरमें अपना टेबुल, कुरसी और पलंग ला रखते हैं; उसके खेतमेंसे फसल काट लेते हैं, उसकी सोनेकी खानमेंसे सोना निकाल लेते हैं, उसकी गौओंका दूध दुह लेते हैं और उसके बछड़ोंको काटकर अपने बावर्चीखानेमें भेज देते हैं। सच्चे ईसाइयोंने अमेरिकामें जिस प्रकार प्रलय और आस्ट्रेलियामें जिस प्रकार दारुण लोकसंहार उपस्थित कर दिया था उस अपेक्षाकृत पुरानी बातको इस समय उठानेकी आवश्यकता नहीं दिखाई देती। दक्षिण आफ्रिकामें जो मेटाविली युद्ध हुआ था यदि उसका वृत्तान्त अच्छी तरह देखा सुना जाय तो यह बात बहुत कुछ समझमें आ सकती है कि ईसाईसे भिन्न जातिके लोगोंके गालोंपर ईसाइयोंका जो थप्पड़ लगता है वह कैसा होता है।

उस युद्धका पूरा पूरा हाल नहीं मिलता लेकिन जो कुछ हाल मिलता है उसके भी पूर्ण रूपसे सत्य होनेमें बहुत कुछ सन्देह है, क्योंकि युद्ध के समाचारोंकी तारकी खबरें लिखना भी उन्हीं ईसाइयोंके हाथमें रहता है। हम अपने पाठकोंसे उन कई पत्रों और प्रबन्धोंके पढनेका अनुरोध करते हैं जो इस युद्धके सम्बन्धमें ट्रुथ ( Truth ) नामक प्रसिद्ध अँगरेजी साप्ताहिक पत्रमें प्रकाशित हुए

हम इस प्रकारकी कोई आशा नहीं दिला सकते कि उन पत्रों और प्रबन्धोंको पढ़कर किसीको विशेष सन्तोष या आनन्द होगा । लेकिन हम इतना कह सकते हैं कि उन्हें पढ़कर लोग यह अवश्य समझ सकेंगे कि सभ्य जाति जिसे अपनी अपेक्षा कम सभ्य समझती है उसके सामने वह अपनी सभ्यताका और उसके साथ ही साथ उस असभ्यजातिका भी बलिदान कर देनेमें तनिक भी संकोच नहीं करती । उन्नीस सौ वर्षों की चिरसंचित सभ्यनीतिका युरोपीय आलो- कित नाट्यशालाके बाहर अन्धकारपूर्ण नेपथ्य देशमें थोड़ी देरके लिये बनाया हुआ नकली वेश उतर जाता है और उसके स्थानपर जो आदिम नंगा मनुष्य निकल आता है उसकी अपेक्षा नंगे मेटाविली अधिक निकृष्ट नहीं होते। हमने कुछ संकोचके साथ कहा है कि अधिक निकृष्ट नहीं होते, यदि हम निर्भय होकर सच कहना चाहें तो हमें यही कहना पड़ेगा कि वे जंगली इन सभ्योंसे बहुतसे अंशोंमें कहीं श्रेष्ठ हैं। यह बात स्वयं अँगरेजोंके पत्रमें प्रकाशित हुई है कि जंगली लवेंग्युलाने अँगरे- जोंके साथ बरताव करते हुए जिस उदारता और उन्नत वीर हृदयका परिचय दिया है उसके सामने अँगरेजोंका क्रूर व्यवहार लज्जाके मारे म्लान हो गया है।

कोई कोई अँगरेज जो इस बातको स्वीकार करते हैं, बहुतसे लोग केवल इस स्वीकार करनको ही अपने मनमें अँगरेजोंके गौरवकी बात समझेंगे और हम भी ऐसा ही समझते हैं, लेकिन आजकल अँगरेजोंमें बहुतसे लोग ऐसे हैं जो इसमें अपना गौरव नहीं समझते ।

वे लोग यही समझते हैं कि आजकल धर्मनीति बहुत ही सूक्ष्म होती जा रही है। बात बातपर इतना अधिक असन्तोष प्रकाश करनेसे काम नहीं चलता। जिस समय अँगरेजोंके गौरवका मध्याह्न था उस समय वे नीतिको सूक्ष्म परिधियोंको एक ही कुदानमें लाँघ सकते थे। जब आवश्यकता होती है तब अन्याय करना ही पड़ता है। जिन दिनों नारमन जातिके डाकू समुद्रोंमें डाके डालते फिरते थे उस समय वे लोग स्वस्थ और सबल थे। आजकल उनके जो अँगरेज वंशधर दूसरी जातियोंपर बलप्रयोग करनेमें संकुचित होते हैं वे दुर्बल और रुग्ण- प्रकृतिके हैं। कैसे मेटावेली और कहाँका लवेंग्युला, हम अँगरेज तुम्हारी सोनेकी खानें और तुम्हारे चौपायोंके झुण्ड लूटना चाहते हैं, इसके लिये इतने दाव-पेच और छल-कपटकी क्या आवश्यकता है ? हम झूठी खबरें क्यों गढ़ने जायें ! अगर इसी तरहकी हमारी और भी दो एक जबरदस्तियाँ पकड़ी जायँ तो उसके लिये समाचारपत्रों में इतने जोरोंसे पश्चात्ताप करने क्यों बैठे ?

लेकिन बाल्यावस्थामें जो बात अच्छी मालूम होती है बड़े होनेपर वह बात अच्छी नहीं मालूम होती। कोई एक दुष्ट लालची बालक अपनेसे किसी छोटे और दुर्बल बालकके हाथमें मिठाई देखकर जबर- दस्ती उससे छीन लेता है और क्षणभरमें ही अपने मुँहमें रख लेता है। उस असहाय बालकको रोते हुए देखकर भी उसके मनमें जरा भी पछ- तावा नहीं होता बल्कि यहाँतक कि वह उस दुर्बल बालकके गालपर एक तमाचा लगाकर जबरदस्ती उसका रोना बन्द करनेकी चेष्टी करता है और उसे देखकर दूसरे बालक भी मन ही मन उसके बाहुबल और दृढ़संकल्पकी प्रशंसा करते हैं।

यदि उस बलवान् बालकको बड़े होनेपर भी लोभ रह जाता है तो फिर वह थप्पड़ मारकर दूसरेकी मिठाई नहीं छीनता बल्कि छल करके उससे ले लेता है और यदि वह पकड़ा जाय तो कुछ लज्जित और अप्रतिभ भी होता है । उस समय वह अपने परिचित पड़ोसीपर हाथ साफ करनेका साहस नहीं करता । अपने गाँवसे दूरके किसी दरिद्र गाँवकी असभ्य माताके नंगे बालकके हाथमें जब वह एक समयका एक मात्र खाद्य पदार्थ देखता है, तब वह चारों ओर देखकर चुपचाप झपटकर उस पदार्थको ले लेता है और जब वह बच्चा जोर जोरसे चिल्लाने लगता है तब वह अपनी जातिके आनेजानेवाले पथिकोंसे आँखका इशारा करके कहता है कि इस असभ्य काले बालकको मैंने अच्छी तरह दंड देकर ठीक कर दिया है ! लेकिन वह यह नहीं स्वीकार करता कि मुझे भूख लगी थी इस लिये मैंने उसके हाथका भोजन छीनकर खा लिया है।

रा०४ पुराने जमानेकी डकैती और आज कलकी चोरीमें बहुत अन्तर है। आजकलके अपहरणमें प्राचीन कालका वह निर्लज्ज असंकोच और बलका अभिमान रही नहीं सकता। आजकल अपने कार्यके सम्बन्धमें अपना ज्ञान उत्पन्न हो गया है, इस लिये आजकल प्रत्येक कार्यके लिये न्याय-विचारके सामने उत्तरदायी होना पड़ता है। इससे काम भी पहलेकी तरह सहजमें पूरा नहीं उतरता और गालियाँ भी खानी पड़ती हैं। यदि कोई पुराना डाकू दुर्भाग्यवश इस बीसवीं शताब्दीमें जन्म ग्रहण कर ले तो उसका अविर्भाव बहुत ही असामायिक हो जायगा ।

समाजमें इस प्रकारका असामयिक आविर्भाव सदा हुआ ही करता है। डाकू तो बहुतसे उत्पन्न होते हैं परन्तु वे सहसा पहचाने नहीं जाते। अनुपयुक्त समय और अनुपयुक्त स्थानमें पड़कर बहुतसे अवसरोंपर वे स्वयं अपने आपको ही नहीं पहचानते । इधर वे गाडीपर चढ़कर घूमते हैं, समाचारपत्र पढ़ते हैं, स्त्रीसमाजमें मीठी मीठी बातें करते हैं। कोई इस बातका सन्देह ही नहीं करता कि इस सफेद कमीज या काले कुर्ते राबिन हुडका नया अवतार धूम रहा है ।

युरोपके बाहर निकलकर ये लोग सहसा अपनी पूर्ण शक्तिसे प्रका- शित हो जाते हैं । धर्मनीतिक आवरणसे मुक्त उस उत्कट रुद्रमूर्तिकी बात हम पहले ही कह चुके हैं। लेकिन युरोपके समाजमें ही जो राखसे ढके हुए बहुतसे अंँगारे हैं उनका ताप भी कुछ कम नहीं हैं।

यही लोग आजकल कहते हैं कि बलनीतिके साथ यदि प्रेमनीति भी मिला दी जाय तो उससे नीतिका नीतित्व तो बढ़ सकता है परन्तु बलका बलत्व घट जाता है। प्रेम और दया आदिकी बातें सुननेमें तो बहुत अच्छी जान पड़ती है लेकिन जिस जगह हम लोगोंने रक्तपात करके अपना प्रभुत्व स्थापित किया है उस जगह जब नीतिदुर्बल नई शताब्दिका सुकुमारहृदय बालक सेन्टिमेन्ट ( Sentiment ) के आँसू बहाता हुआ आ पहुँचता है तब उसके साथ हम लोग हृदयसे घृणा करते हैं। यहाँ तो संगीत, साहित्य, शिल्पकला और शिष्टाचार और वहाँ नंगी तलवार और संकोचरहित एकाधिपत्य ।

इसीलिये आजकल हम लोगोंको अपनी शासक जातिके लोगोंमें दो तरहका सुर सुनाई पड़ता है। एक दल तो प्रबलताका पक्षपाती है और दूसरा दल संसारमें प्रेम, शान्ति और सुविचारका विस्तार करना चाहता है।

जब जातिका हृदय इस प्रकार विभक्त हो जाता है तब उसका बल टूट जाता है-अपना ही अपनेको बाधा देने लगता है। आज- कलके भारत में रहनेवाले अँगरेज इसी बातको लेकर बहुत बड़ा कटाक्ष करते हैं। वे लोग कहते हैं कि हम लोग कुछ जबरदस्ती करके जो काम करना चाहते हैं उस काममें हमारे इंग्लैण्डवाले भाई वाधा देते हैं। हमें सभी बातोंमें नैतिक कैफियत देनी पड़ती है। जिन दिनों डाकू लोग कृष्ण समुद्र में दिग्विजय करते हुए घूमते थे, अथवा जिन दिनों क्लाइबने भारत भूमिपर अंगरेजी झंडा खड़ा किया था, यदि उन दिनों उन लोगोंको नैतिक कैफियत देनी पड़ती तो अँगरेजोंको अपने घरके बाहर एक अंगुलभर भी जमीन न मिलती।

इस प्रकारकी बात कहकर चाहे जितना प्रलाप करो लेकिन अखंड दुर्दमनीय बलकी वह अवस्था किसी प्रकार लौटकर नहीं आ सकती। आज यदि कोई अत्याचारका काम करने बैठी तो सारे देशमें दो प्रका- रके मत फैल जायेंगे। इस समय यदि कोई पीड़ित व्यक्ति न्यायवि- चारकी प्रार्थना करे तो स्वार्थहानिकी संभावना होनेपर भी विवश होकर कुछ लोग उसका सद्विचार करनेके लिये तैयार हो जायेंगे । यदि इस समय कोई व्यक्ति न्यायकी दोहाई देकर उठ खड़ा हो तो या तो स्वार्थपरता ही लजाके कारण कुछ संकुचित हो जायगी और नहीं तो न्याय ही छद्मवेश धारण करनेकी चेष्टा करेगा । जिन दिनों अन्याय और अनीति बलके साथ नि:संकोच भावसे अपना प्रकाश करती थी उन दिनों बलके अतिरिक्त उसका सामना करनेवाला और कोई न होता था, लेकिन आजकल जब कि वह स्वयं ही अपने आपको छिपानेकी चेष्टा करती है और बलके साथ अपना सम्बन्ध अस्वीकृत करके न्यायको अपनी ओर खींचती हुई बलवान् होना चाहती है तब वह आप ही अपने साथ शत्रुता करने लग जाती है । इसीलिये आज- कल विदेशमें अँगरेज लोग कुछ दुर्बल हो रहे हैं और इसके लिये वे सदा बेचैनी दिखलाते हैं।

इसी लिये हम लोग भी जब अँगरेजोंका कोई दोष देख पाते हैं तब उन्हें दोषी कहनेका साहस कर बैठते हैं। इसके लिये हमारे अँगरेज प्रभू कुछ नाराज होते हैं। वे कहते हैं कि नवाब जब स्वेच्छाचार करते थे, मराठे सैनिक जब लूट-पाट करते थे, ठग जब गला घोंट- कर लोगोंको मार डालते थे तब तुम्हारे कांग्रेसके सभापति और समाचारपत्रोंके सम्पादक कहाँ थे ! हम कहते हैं कि तब वे कहीं नहीं थे और यदि वे रहते भी तो उनके रहनेका कोई फल न होता । उस समय गुप्तरूपसे विद्रोह करनेवाले लोग थे, मराठे और राजपूत थे। उन दिनों बलके विरुद्ध बलके सिवा और कोई उपाय ही न था। उन दिनों चोरके सामने धर्मको कथा उठानेका विचार किसीके मनमें आता ही न था।

आज कांग्रेस और समाचारपत्रोंका जो यह अभ्युदय हुआ है उसका कारण यही है कि अँगरेजोंमें अखंड बलका प्रादुर्भाव नहीं है। आज यदि चोरके सामने धर्मकी बात उठाई जाय तो चाहे वह उसे न माने, पर फिर भी वह उसका कुछ धर्मसंगत उत्तर देनेकी चेष्टा करता है । और यदि वह अच्छा उत्तर न दे सके तो वह उतने बलके साथ अपना काम नहीं कर सकता । इस लिये जो अँगरेज भारतीय सभा-समितियों और समाचारपत्रोंकी अधिकता और विस्तारपर आक्षेप करते हैं वे यथार्थतः अपने देशवासियोंकी जातीय प्रकृतिमें धर्म- बुद्धिके अस्तित्वसे दुःखी होते हैं। वे लोग जो वयःप्राप्त हो गए हैं, वे लोग अपनी त्रुटिके लिये जो आप ही लज्जित होना सीख गए हैं इसीको वे लोग शोचनीय समझते हैं।

एक हिसाबसे इसमें और भी बहुत कुछ शोचनीयता है। एक ओर तो भूखकी ज्वाला भी शान्त नहीं होती और दूसरी तरफ परा- एके हाथका अन्न भी नहीं ले सकते। यह एक बड़ा भारी संकट है ! जातिके लिये अपने जीवनकी रक्षा करना भी परम आवश्यक है और धर्मकी रक्षा करना भी। दूसरेके साथ यदि अन्यायका आचरण किया जाय तो उससे केवल दूसरेकी हानि ही नहीं होती बल्कि अपने धर्मका आदर्श भी क्रमश: आधारहीन होता जाता है। गुलामोंपर जो लोग अत्याचार करते हैं वे स्वयं अपना चरित्र भी ध्वंस करते हैं। यदि धर्मको सब प्रकारका प्रयत्न करके बलवान् न बना रहने दिया जाय तो अपना जातीय बंधन भी क्रमशः शिथिल होता जाता है और फिर दूसरी ओर भरपेट खानेको भी चाहिए ही। क्रमश: वंश- वृद्धि और स्थानाभाव होता जाता है और सभ्यताकी उन्नतिके साथ साथ जीवनके आवश्यक उपकरण भी बहुत बढ़ते जा रहे हैं।

इसलिये पचीस करोड़ भारतवासियोंके भाग्यमें जो कुछ बदा हो सो दुआ करे लेकिन बड़ी तनख्वाहवाले अँगरेज कर्मचारियोंको एक्सचेञ्जकी क्षतिपूर्तिके रूपमें ढेरके ढेर रुपए देने ही पड़ेंगे। यदि इस कामके लिये सरकारी खजानेमें रुपएकी कमी हो तो बिक्रीकी चीजोपर नया महसूल लगाना आवश्यक होगा। लेकिन यदि इसमें लंकाशायरवालोंको जरा भी अड़चन या कठिनता हो तो फिर रुई पर मह- सूल लगाया जा सकता है। बल्कि इसके बदलेमें पब्लिकवर्क्सका काम भी कुछ कम किया जा सकता है और दुर्भिक्ष फण्डको रोककर काम चलाया जा सकता है।

एक ओर तो कर्मचारियोंका कष्ट आँखोंसे नहीं देखा जाता और दूसरी ओर लंकाशायरवालोंकी हानि भी नहीं देखी जा सकती । और फिर यह बात भी नहीं है कि पचीस करोड़ अभागे भारतवासियोंके लिये भी कुछ भी दुःख न होता हो । धर्मनीति मनुष्यको इसी प्रका- रके संकटमें डाल देती है !

समाचारपत्रोंमें खूब आन्दोलन होने लगता है। आहत-नांड पक्षियों के झुंडकी तरह सभास्थलमें कानोंके परदे फाड़नेवाली चिल्लाहट मचने लगती है और अँगरेज लोग बहुत बिगड़ उठते हैं।

जिस समय मन यह कहता हो कि यह काम न्यायसंगत नहीं हो रहा है और विना उस कामको किए भी गुजारा न होता हो, उस समय यदि कोई धर्मकी दोहाई देने लगे तो बहुत क्रोध आता है। उस समय कोई युक्तिका अस्त्र तो रह ही नहीं जाता, खाली हाथ घूंसा मारनेको जी चाहता है। उस समय केवल मनुष्यपर ही नहीं बल्कि धर्मशास्त्रपर भी तबीयत खिजला उठती है।

भारतमंत्रीकी सभाके सभापति तथा दूसरे कई मातबर सभासदोंने इशारेसे कई बार कहा है कि यदि केवल भारतवर्षका ही नहीं बल्कि सारे साम्राज्यका ध्यान रखकर कोई कानून बनाया जायगा तो केवल स्थानीय न्याय और अन्यायका विचार करनेसे काम न चलेगा और यदि ऐसे न्याय और अन्यायका विचार किया जायगा तो वह विचार ठहरेगा भी नहीं। परन्तु लंकाशायर कोई स्वप्नकी चीज नहीं है। भारतव- र्षका दुःख जिस प्रकार सत्य है लंकाशायरका लाभ भी ठीक उसी प्रकार सत्य है, बल्कि लंकाशायरके लाभका बल कुछ अधिक ही है ! मान लो कि हमने भारतमंत्रीकी सभामें लंकाशायरवालोंके हानि-लाभका ध्यान छोड़कर कोई कानून पास कर लिया, लेकिन लंकाशायरवाले हमें क्यों छोड़ने लगे? बाबाजी तो कमलीको भले ही छोड़ दें लेकिन कम- ली ही बाबाजीको नहीं छोड़ती और फिर विशेषत: इस कमलीमें तो बहुत अधिक जोर है।

यदि चारों ओरकी अवस्थाओंकी उपेक्षा करके चटपट कोई कानून पास कर दिया जाय और फिर अन्तमें विवश होकर उसी कानूनको रद करना पड़े तो इसमें प्रतिष्ठा भी नहीं रह जाती और फिर इस ओरकी कैफियत भी कुछ वैसी सुविधाजनक नहीं है । नवाबोंकी तरह यह नहीं कहा जा सकता कि यदि हमें किसी बातकी कमी होगी तो हमारा जिस तरह जी चाहेगा उस तरह हम उसकी पूर्ति कर लेंगे। और दूसरी और न्यायबुद्धिसे जो कुछ कहा जाता है उसे सम्पन्न करनेमें भी बहुतसे ऐसे विघ्न पड़ते हैं जो किसी प्रकार दूर ही नहीं किए जा सकते। और फिर सबसे बढ़कर शोचनीय बात तो यह है कि सर्वसाधारणके निकट अपनी यह संकटपूर्ण अवस्था बतलानेमें भी लज्जा जान पड़ती है।

ऐसे ही समयपर जब हम लोग देशी सभाओं और देशी समाचार- पत्रोंमें उपद्रव करना आरम्भ कर देते हैं तब साहब लोग बीच बीचमें हम लोगोंको दंड देते हैं और गवर्नमेन्ट चाहे भले ही हम लोगोंपर हाथ छोड़नेमें कुछ संकोच करे लेकिन छोटे छोटे कर्मचारी जब किसी अवसरपर हम लोगोंको अपने हाथमें पा जाते हैं तब फिर वे हमें छोड़ना नहीं चाहते । और भारतवर्षीय अँगरेजोंके बड़े बड़े समाचार पत्र सिक्कड़ोंमें बँधे हुए कुत्तोंकी तरह दाँत निकालकर हम लोगोंपर बराबर भूंकते रहते हैं। अच्छा तो लो हम ही चुप हो जाते हैं, लेकिन देखें तो सही जरा तुम लोग भी चुप हो जाओ। तुम लोगोंमेंसे जो अपने स्वार्थकी उपेक्षा करके हाथमें धर्मका झंडा लेकर खड़े होते हैं उन्हें देशनिकालेका दण्ड दो और तुम लोगोंकी जातीय प्रकृतिमें न्यायपर- ताका जो आदर्श है उसे ठठेमें उड़ाकर म्लान कर दो।

लेकिन यह बात किसी प्रकार हो ही नहीं सकती। तुम लोगोंकी राजनीतिमें धर्मबुद्धि सचमुच कोई चीज है । कभी तो उस धर्मबुद्धिकी जीत हो जाती है और कभी उसकी हार हो जाती है। लेकिन उस धर्मबुद्धिको छोड़कर कोई काम नहीं किया जा सकता । आयर्लैंण्ड जिस समय ब्रिटानियासे किसी अधिकारको प्रार्थना करता है तब वह जिस प्रकार एक ओर खूनकी छुरीपर सान देता रहता है उसी प्रकार दूसरी ओर इंग्लैण्डकी धर्मबुद्धिको भी अपनी ओर मिलानेकी चेष्टा करता रहता है। भारतवर्ष जिस समय अपने विदेशी स्वामीके द्वार- पर जाकर अपना दुःख निवेदन करनेका साहस करता है तब वह भी अँगरेजोंकी धर्मबुद्धिसे अपनी सहायता करानेके लिये व्यग्र हो उठता है और बीचमें अँगरेजोंके राजकार्यमें बहुतसी झंझटें बढ़ जाती हैं।

लेकिन जब तक अँगरेजोंके स्वभावपर इस सचेतन धर्मबुद्धिका कुछ भी प्रभाव रहेगा, जबतक उन्हींके शरीरके अन्दर उनके निजके अच्छे और बुरे कार्योंका विचार करनेवाला वर्तमान रहेगा, तबतक हमारी सभा समितियाँ बराबर बढ़ती ही जायेंगी और हमारे समाचार- पत्रोंका भी प्रचार होता रहेगा। इससे हम लोगोंके बलवान् अँगरेज लोग व्यर्थ कुढ़कर जितने ही अधीर होंगे हमारे उत्साह और उद्यमकी आव- श्यकता भी बराबर उतनी ही बढ़ती जायगी।

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