दो बहनें
रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनुवादक हजारी प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: विश्वभारती ग्रंथालय, पृष्ठ १ से – २४ तक

 
शर्मिला

स्त्रियाँ दो जाति की होती हैं, ऐसा मैंने किसी-किसी पंडित से सुना है।

एक जाति प्रधानतया माँ होती है, दूसरी प्रिया।

ऋतुओं के साथ यदि तुलना की जाय तो माँ होगी वर्षाऋतु यह जल देती है, फल देती है, ताप शमन करती है, ऊर्ध्वलोक से अपने आपको विगलित कर देती है, शुष्कता को दूर करती है, अभावों को भर देती है।

और प्रिया है वसन्तऋतु। गभीर है उसका रहस्य, मधुर है उसका मायामंत्र। चञ्चलता उसकी रक्त में तरङ्ग लहरा देती है और चित्त के उस मणिकोष्ठ में पहुँचती है जहाँ सोने की वीणा में एक निभृत तार चुपचाप, झंकार की प्रतीक्षा में, पड़ा हुआ है; झंकार-जिससे समस्त देह और मन में अनिर्वचनीय की वाणी झंकृत हो उठती है।

शशांक की स्त्री शर्मिला 'माँ' जाति की है। बड़ी-बड़ी हैं उसकी शान्त आँखें, धीर-गंभीर चितवन। सजल श्यामल नवीन मेघ के समान कमनीय है उसकी स्निग्ध और साँवली कान्ति; माँग में सदा सिंदूर की अरुण रेखा शोभती रहती है, साड़ी की किनारी काली और चौड़ी, दोनों हाथों में मगर के मुँहवाले मोटे-मोटे कंगन–जो साज-सिंगार की भाषा कम बोलते हैं, सोहाग की अधिक।

पति के जीवन-लोक में ऐसा कोई सीमान्त प्रदेश नहीं जहाँ उसके साम्राज्य का प्रभाव शिथिल हो। स्त्री के अति लालन की छाया में पति का मन भुलक्कड़ बन गया है। यदि किसी मामूली पलखत में फ़ाउन्टेन पेन मेज़ के किसी ऐसे हिस्से में पल भर के लिये ग़ायब हो गया, जो ज़रा कठिनाई से दिखाई देता है, तो इसके पुनराविष्कार का भार स्त्री पर है। स्नान करते समय कलाई की घड़ी कहाँ रख दी, शशांक को यह बात एकाएक याद नहीं आती, लेकिन स्त्री की नज़र ज़रूर उसपर पड़ती है। विभिन्न रंग के दो जोड़े मोज़ों में से एक-एक को पहनकर जब वह बाहर जाने के लिये तैयार होता है, उस समय स्त्री ही आकर उसकी ग़लती सुधार देती है। शशांक देसी महीने के साथ अंगरेज़ी तारीख जोड़कर जब मित्रों को निमंत्रण देता है और अप्रत्याशित अतिथियों का दल आ उपस्थित होता है तो उसे सँभालने की आकस्मिक जिम्मेदारी स्त्री की होती है। शशांक निश्चित रूप से जानता है कि दिनचर्या में कहीं कोई ग़लती रहेगी तो स्त्री के हाथों उसका सुधार अवश्य हो ही जायगा।इसीलिये ग़लती करना उसका स्वभाव बन गया है। स्त्री सस्नेह तिरस्कार के साथ कहती, 'अब मुझसे नहीं होता, तुम क्या कभी कुछ नहीं खीखोगे!' लेकिन यदि वह सीख ही जाता तो शर्मिला के दिन ग़ैरआबाद ज़मीन की तरह अनुर्वर हो जाते।

मान लीजिए शशांक दोस्तों के घर दावत खाने गया है। रात के ग्यारह बज गए या दोपहर हो आई। ब्रिज के दाँव चल रहे हैं। अचानक मित्रलोग हँस पड़े: 'उठो दोस्त, वह समन लेकर प्यादा आ गया, अब ज्यादा नहीं रुक सकते।

वही चिर-परिचित नौकर महेश है। मूछों के बाल पक गए हैं, सिर के बाल कच्चे ही हैं, पहनावे में मिरजई है, कंधे पर चारख़ाने का गमछा, और बगल में बाँस की लाठी। माईजी ने पुछवाया है कि बाबू यहाँ हैं या नहीं। माईजी को डर है कि कहीं लौटते समय अँधेरी रात में कुछ दुर्घटना न घट बैठे। साथ में एक लालटेन भी दी है।

शशांक कुड़मुड़ाकर ताश फेंककर उठ खड़ा होता। दोस्त फ़िक़रा कसते-'आहा, बेचारा अकेला बेहिफ़ाज़त मर्द जो ठहरा!' घर आकर शशांक स्त्री के साथ जो वार्तालाप शुरू करता वह न तो स्निग्ध भाषा में होता, न शान्त शैली में। शर्मिला चुपचाप सारी फटकार सुन लेती। क्या करे, ख़ामोश रहते भी तो नहीं बनता। अपने मन से वह इस आशंका को एकदम दूर भी नहीं कर सकती कि उसकी अनुपस्थिति में सब तरह की असम्भव विपत्तियाँ उसके पति के विरुद्ध षड़यंत्र रचती रहती हैं।

बाहर कोई आया है, शायद किसी काम से। इधर छिन-छिन में अन्तःपुर से काग़ज़ के चिरकुट आ रहे हैं, 'याद है न, कल तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं थी, आज सबेरे-सबेरे खा लो।' शशांक ग़ुस्सा करता है और फिर हार भी मानता है। बड़े दुःख के साथ एक बार स्त्री से कहा था, 'दुहाई है, चक्रवर्ती परिवार की गृहिणी की तरह किसी ठाकुर देवता का सहारा लो। तुम्हारी इतनी फ़िकिरमंदी मुझ अकेले के लिये बहुत अधिक है। देवता के साथ साझा रहने से वह सहज हो जायगी। चाहे जितनी भी ज़्यादती करो, देवता को कोई एतराज़ नहीं होगा लेकिन मनुष्य तो कमज़ोर जीव है।'

शर्मिला ने कहा, 'हाय हाय, एक बार काकाजी के साथ जब मैं हरिद्वार गई थी उस समय तुम्हारी क्या दशा हो गई थी, याद है?'

दशा अत्यन्त शोचनीय हो गई थी, यह बात शशांक ने ही ख़ूब नमक-मिर्च मिलाकर स्त्री को सुनाई थी। वह जानता था कि इस अत्युक्ति से शर्मिला को जितना अनुताप होगा उतना ही आनंद भी होगा। उस दिन के अमितभाषण का प्रतिवाद भला कौन मुँह लेकर करे! चुपचाप मान जाना पड़ा, सिर्फ़ इतना ही नहीं, उसी दिन सुबह उसे ज़रा सर्दी-सी लगी जान पड़ी, शर्मिला को इस कल्पना के अनुसार उसे दस ग्रेन कुनैन खानी पड़ी, ऊपर से तुलसी के पत्तों की रसवाली चाय भी पीनी पड़ी। आपत्ति करने का उपाय नहीं था क्योंकि एक बार ऐसी ही अवस्था में आपत्ति करके उसने कुनैन नहीं खाई थी और बुखार भोगना पड़ा था। यह घटना शशांक के इतिहास में अमिट अक्षरों में लिख गई है।

घर में आरोग्य और आराम के लिये जिस प्रकार शर्मिला की ऐसी सस्नेह व्यग्रता थी, बाहर शशांक की सम्मान-रक्षा के लिये भी उसकी सतर्कता उतनी ही सतेज थी। एक दृष्टान्त याद आ रहा है।

एक बार शशांक और उसकी स्त्री घूमने के लिये नैनीताल गए थे। पहले से ही उनका कम्पार्टमेंट सारे रास्ते के लिये रिज़र्व था। जंक्शन पर आकर गाड़ी बदलकर शशांक कुछ खाने-पीने की सामग्री लाने के लिये बाहर गया, लौटकर देखता है कि वर्दीधारी एक दुर्जनमूर्ति उन्हें बेदख़ल करने को उद्यत है। स्टेशनमास्टर ने आकर एक जगद्विख्यात जेनेरल का नाम लेकर बताया कि कम्पार्टमेंट असल में उसके लिये ही था, गलती से दूसरा नाम चिपका दिया गया था। शशांक ने आँखें फाड़कर देखा और जब संभ्रमपूर्वक दूसरे कम्पार्टमेंट में जाने की तैयारी करने लगा, तो शर्मिला गाड़ी में चढ़कर दरवाज़ा रोककर खड़ी हो गई; गरजकर बोली, 'देखती हूँ कौन आकर मुझे उतारता है, बुला लाओ अपने जेनेरल को!' शशांक उस समय तक सरकारी नौकर था, ऊपरवाले अफ़सर के जातिभाई से बचबचकर ख़तरे से दूर रहकर चलने का ही यह आदी था। हड़बड़ाकर बोला—'अरे भई, झमेला बढ़ाने से क्या फ़ायदा, गाड़ी में और भी तो जगह है।' शर्मिला ने इस बात पर कान ही नहीं दिया। आख़िरकार जेनेरल साहेब जब रिफ़्रेशमेंट रूम से नाश्ता-पानी ख़त्म करके मुँह में चुरुट दबाए बाहर आए तो स्त्री-मूर्ति की उग्रता देखकर चुपचाप हट गए। शशांक ने स्त्री से पूछा—'जानती हो कितना बड़ा आदमी है?' स्त्री जवाब दिया 'जानने की ग़रज़ नहीं। जो डिब्बा हमारा है उसमें वह तुमसे बड़ा नहीं।'

शशांक ने सवाल किया—"यदि अपमान करता तो?"

स्त्री ने जवाब दिया—"तो तुम किसलिये हो?"

शशांक शिवपुर का पासशुदा इंजीनियर है। घर की ज़िंदगी में शशांक की ढिलाई कितनी भी क्यों न हो, नौकरी में वह पक्का है। प्रधान कारण यह है कि उसके कर्मस्थान में जिस ऊँचे ग्रह की दृष्टि पड़ी थी वह वही वस्तु है जिसे चलती ज़बान में 'बड़ा साहब' कहते हैं। वह स्त्री-ग्रह नहीं। शशांक जिस समय एक्टिंग डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर के पद पर काम कर रहा था उस समय आनेवाली तरक्की का चक्का एकाएक दूसरी ओर घूम गया। उसकी योग्यता को लाँघकर कच्ची जानकारी होते हुए भी जिस भोगी मसोंवाले अंग्रेज़ युवक ने उसका आसन दख़ल किया, उसका अचिन्तनीय आविर्भाव अधिकारियों के सबसे बड़े अफ़सर के संपर्क और सिफ़ारिश के बल पर हुआ था।

शशांक ने समझ लिया कि इस अर्वाचीन को ऊपर के आसन पर बिठाकर ख़ुद नीचे बैठकर उसे ही सारा कामकाज सँभालना पड़ेगा। अधिकारियों ने पीठ ठोंककर कहा, 'व्हेरी सारी मजुमदार, जितनी जल्दी होगा तुम्हारे लिये उपयुक्त स्थान जुटा देंगे।' दरअसल वे दोनों ही एक ही 'फ्रामेसन् लाज' के अन्तर्गत थे।

तथापि आश्वासन और सान्त्वना के होते हुए भी सारा मामला मजुमदार के लिये अत्यंत नीरस हो उठा। घर आकर उसने छोटी-बड़ी सभी बातों में खटर-पटर करना शुरू किया। अचानक उसकी नज़रों में आफ़िस-घर के कोने में पड़ा हुआ मकड़ी का जाला पड़ गया, चौकी पर पड़ा हुआ हरे रंग का पर्दा उसे बिल्कुल पसंद नहीं आता, यह भी अचानक याद आ गया। नौकर बरामदे में झाड़ दे रहा था, धूल उड़ रही है कहकर उसे ज़ोर की फटकार बताई। धूल ज़रूरी है, रोज़ ही उड़ती है परन्तु फटकार एकदम नई चीज़ थी।

इस असम्मान की ख़बर उसने स्त्री को नहीं बताई। सोचा, यदि उसके कानों तक बात जाएगी तो नौकरी के इस जाल में एक और उलझन पैदा कर देगी,—खूब संभव है बड़े अफसर से कड़वी भाषा में झगड़ा हो कर आवे। विशेष करके उस डोनाल्डसन पर तो उसे बहुत अधिक गुस्सा है। एक बार वह सर्किट-हाउस के बागीचे में बन्दरों का उत्पात दमन करने गया था और छर्रों से शशांक की सोला टोपी में छेद कर दिया था। कोई दुर्घटना नहीं हुई किन्तु होते कितनी देर लगती! लोग कहते हैं दोष शशांक का ही था, यह सुनकर शर्मिला का ग़ुस्सा और भी बढ़ उठा—डोनाल्ड्सन के ऊपर ही। ग़ुस्से का सबसे बड़ा कारण यह है कि बन्दर को निशाना बनाकर जो गोली दागी गई थी वह शशांक के ऊपर आ पड़ी, दुश्मनों ने इन दो बाताों का समीकरण करके खूब मख़ौल उड़ाया था।

शशांक के पद-लाघव को खधर उसकी पत्नी ने स्वयं आविष्कार की। पति का रँगढँग देखकर उसने समझ लिया था कि गिरस्ती में किसी ओर से कोई एक कांटा ऊपर उठ आया है। इसके बाद कारण मालूम करने में उसे देर नहीं लगी। कान्स्टिट्यूशनल एजीटेशन—वैधानिक आन्दोलन के रास्ते वह नहीं गई, गई सेल्फ डिटरमिनेशन--आत्म-निर्णय--के रास्ते। पति से बोली, "अब और नहीं, फौरन काम छोड़ दो!"

छोड़ देने से अपमान की जोंक छाती से खिसक पड़ती, लेकिन ध्यान-दृष्टि के सामने फैला हुआ था बँधी तनख्वाह का अन्नक्षेत्र, और उसके पश्चिमी दिगंत में दीख रही थी पेन्शन की अविचलित स्वर्णोज्ज्वल रेखा।

शशांकमौलि जिस वर्ष एम. एस-सी. डिग्री के सर्वोच्च शिखर पर हाल ही में अधिरूढ़ हुआ था, उसी साल उसके श्वसुर ने शुभकर्म में विलंब करना उचित नहीं समझा–--शशांक के साथ शर्मिला का विवाह हो गया। धनी ससुर की सहायता से ही उसने इन्जानियरिंग पास की। उसके बाद नौकरी में शीघ्र उन्नति का लक्षण देखकर राजारामबाबू जामाता की भावी सफलताओं के क्रम-विकास का निर्णय करके आश्वस्त हो गए। लड़की ने भी आज तक अनुभव नहीं किया कि उसकी दुनिया बदल गई है। सिर्फ़ यहाँ अभाव नहीं है यही बात नहीं, बल्कि पिता के घर की चाल-चलन भी यहाँ ज्यों को त्यों मौजूद थी। कारण यह है कि इस पारिवारिक दो-अमली शासन की व्यवस्था-विधि शर्मिला के अधिकार में ही थी। उसके सन्तान नहीं हुई, होने की आशा भी शायद छोड़ दी गई है। पति की सारी कमाई ज्यों की त्यों उसके हाथ में आ जाती है। यदि विशेष ज़रूरत हुई तो घर की अन्नपूर्णा से दुबारा भिक्षा माँगने के सिवाय शशांक के लिये दूसरा उपाय नहीं। यदि माँगने का दावा अनुचित साबित हुआ तो अर्जो नामंजूर होती है। शशांक मान लेता है सिर खुजलाकर। किसी ओर से मधुर रस पाकर नैराश्य का अभाव पूर्ण भी हो जाता है।

शशांक बोला, "नौकरी छोड़ देना मेरे लिये कुछ भी नहीं है। तुम्हारे लिये ही सोचता हूँ, तक़लीफ तो तुम्हें ही होगी!"

शर्मिला बोलो, "उससे भी बड़ी तकलीफ़ तब होगी जब अन्याय को निगलते समय वह गले में अटक जायगा।"

शशांक ने कहा, "कुछ करना तो होगा ही। निश्चित को छोड़कर अनिश्चित के लिये किस गली की खाक़ छानता फिरुँ"?

"वह गली तुम्हें नहीं दीखती। तुम नौकरी के बाहर की दुनिया को कुछ समझते ही नहीं।"

"समझता ही नहीं! क्या कहती हो तुम! यह विश्व-ब्रह्मांड बड़ा भारी है। उसके राह-घाट की सर्वे करने जायगा कौन? और इतनी बड़ी दूरबीन ही किस बाज़ार में मिलेगी?"

"बड़ी दूरबीन की तुम्हें ज़रूरत नहीं होगी। हमारे रिश्ते के मथुरा भैया कलकत्ते में बड़े कन्ट्राक्टर हैं। उनके साथ साझे में कारबार करने से दिन कट जाएँगे।"

"साझा बज़न में बराबरी का नहीं होगा। इधर के बटखरे में कमी पड़ेगी। लँगड़ी शराकत से पद-मर्यादा भी नहीं रहेगी।"

"इस ओर भी किसी प्रकार की कमी नहीं पड़ेगी। तुम जानते हो, पिताजी मेरे नाम से जो रुपया बैंक में रख गए थे वह आज सूद से बढ़ गया है। साझीदार के निकट तुम्हें छोटा नहीं होना पड़ेगा।"

"ऐसा भी कहीं होता है! यह रुपया तो तुम्हारा है"--कहकर शशांक उठ पड़ा। बाहर कोई इन्तेज़ार कर रहा था।

शर्मिला ने पति का कपड़ा खींचकर बैठा लिया, बोली, "मैं भी तो तुम्हारी ही हूँ।"

इसके बाद बोली "अपनी जेब से फ़ाउन्टेन पेन निकालो। यह रहा काग़ज़। इस्तीफ़ा लिख दो। जब तक वह डाक में नहीं चला जाता तब तक मुझे शान्ति नहीं।"

"जान पड़ता है मुझे भी शान्ति नहीं मिलेगी।' लिख दिया उसने इस्तीफ़ा।

दूसरे ही दिन शर्मिला कलकत्ते चली गई और मथुरा भैया के घर जा पहुँची। अभिमान के साथ बोली, "किसी दिन भी तो बहन की ख़बर नहीं ली तुमने!" प्रतिद्वन्द्वी अगर स्त्री होती तो कहती, "तुमने भी तो नहीं ली।" लेकिन पुरुष के दिमाग़ में यह जवाब नहीं आ सका। उसने अपराध स्वीकार कर लिया। बोला, "साँस लेने को तो फुर्सत नहीं है। खुद ही जीवित हूँ कि नहीं इसीमें भूल हो जाती है। इसके सिवा तुमलोग भी तो दूर ही दूर घूमते रहते हो।"

शर्मिला बोली, "अख़बार में देखा कि मयूरभञ्ज या मथुरगंज में कहीं कोई पुल तैयार करने का काम तुम्हें मिला है। पढ़कर कितनी खुश हुई! उसी समय मन में आया कि मथुरा भैया को खुद जाकर कंग्रैचुलेट कर आऊँ।"

"ज़रा सब्र करो बहन, अभी भी समय नहीं हुआ।"

मामला यों था; नक़द रुपया लगाने की ज़रूरत थी। किसी धनी मारवाड़ी के साथ साझे में काम करने की बात थी। आख़िरकार मालूम हुआ कि जैसी शर्त हैं उससे भीतर का गूदेवाला हिस्सा मारवाड़ी के और छिलकेवाला हिस्सा उसके भाग्य में जुटेगा, इसीलिये पीछे लौटने की चेष्टा हो रही थी।

शर्मिला व्यस्त होकर बोल उठी, "यह कभी नहीं होगा। साझे का काम करना ही हो तो हमारे साथ करो। ऐसा काम तुम्हारे हाथ से निकल गया तो भारी अन्याय होगा। मेरे रहते यह नहीं होने पाएगा---तुम चाहे जो कहो।"

इसके बाद लिखा पढ़ी में भी देर नहीं हुई; मथुरा भैया का हृदय भी विगलित हुआ।

रोज़गार बड़ी तेज़ी से चल निकला। इसके पहले शशांक नौकरी के लिये काम करता था। उस ज़िम्मेदारी की सीमा परिमित थी। मालिक था अपने से बाहर, दावा और देय दोनों समान वज़न मिलाकर चला करते थे। अब अपना प्रभुत्व अपनेको ही चलाने लगा। दावी और देय एक जगह मिल गए। अब दिन छुट्टी और काम के ताने-बाने से बुने हुए जाल की तरह नहीं रहे, ठोस हो गए। जो जवाबदेही मन के ऊपर खुद लाद ली गई होती है उसे इच्छा करते ही छोड़ दिया जा सकता है, इसीलिये उसका ज़ोर इतना कड़ा होता है। और कुछ नहीं, स्त्री का ऋण तो पहले चुकाना ही होगा, फिर धीरे-धीरे चलने का समय निकाला जा सकेगा। बाएँ हाथ की कलाई पर घड़ी, सिर पर सोले की टोपी, आस्तीन चढ़ी हुई, ख़ाक़ी पैन्ट पर चमड़े का कमरबन्द कसा हुआ, मोटे तल्लेवाला जूता, धूप से बचाने के लिये आँखों पर रङ्गीन चश्मा--शशांक कमर कसकर काम में लग गया। स्त्री का ऋण जब प्रायः चुकने आया तब भी स्टीम का दम कम नहीं हुआ। मन तब तक गर्म हो उठा था।

इसके पहले गृहस्थी में आय और व्यय की धारा एक ही नाले में बहती थी। अब इसमें दो शाखाएँ हो गईं। एक गई बैंक की ओर और दूसरी घर की ओर। शर्मिला का पावना पहले की तरह ही है। वहाँ के लेन-देन का रहस्य शशांक को नहीं मालूम। उधर व्यवसाय का वह चमड़े से बँधा हुआ खाता शर्मिला के लिये भी एक दुर्गम दुर्ग के समान है। इसमें कोई नुकसान नहीं, किन्तु पति के व्यावसायिक जीवन का कक्ष-पथ उसके संसार-चक्र से बाहर पड़ जाने से उस ओर से उसका विधि-विधान उपेक्षित होता रहता है। गिड़गिड़ाकर कहती, "बहुत-ज्यादती मत करो, शरीर टूट जायगा।" किन्तु कोई उधर व्यवसाय का फल नहीं होता और आश्चर्य यह है कि शरीर भी नहीं टूटता। स्वास्थ्य का उद्वेग, विश्राम के अभाव का आक्षेप, आराम की तफ़सील की व्यस्तता इत्यादि नाना प्रकार की दांपत्यिक उत्कंठाओं की ज़बर्दस्ती उपेक्षा करके शशांक तड़के उठता है, सेकंडहैंड फ़ोर्ड गाड़ी को खुद हाँकता हुआ भोंपू बजाता निकल पड़ता है। कोई दो-ढाई बज घर लौटता है, डाँट खाता है और उसके साथ ही साथ बाक़ी खाने को भी जल्दी जल्दी हाथ चलाकर ख़त्म करता है।

एक दिन उसकी मोटर गाड़ी दूसरी गाड़ी से लड़ गई। खुद तो बच गया लेकिन गाड़ी को चोट आई। उसे मरम्मत के लिये भेज दिया। शर्मिला चिन्तित हो उठी। भर्राए हुए गले से बोली, "आज से तुम खुद गाड़ी नहीं चला सकोगे।"

शशांक ने हँसकर उड़ा दिया, कहा, “दूसरे के हाथ का ख़तरा भी एक ही जाति का दुश्मन है।"

एक दिन मरम्मत के काम की जाँच करते समय जूते को छेदकर टूटे पैकिंग बाक्स का कोई कीला उसके पैर में घुस गया, अस्पताल जाकर बैंडेज बँधाया और धनुष्टंकार का टीका लिया। उस दिन रो-धोकर शर्मिला ने कहा, "कुछ दिन आराम करो।"

शशांक अत्यंत संक्षेप में बोला, "काम।" इससे अधिक संक्षेप करके वाक्य नहीं कहा जा सकता।

शर्मिला बोली, "किन्तु"-इस बार बिना बोले ही शशांक बैंडेज-समेत काम पर चला गया।

ज़ोर-ज़बर्दस्ती की हिम्मत अब नहीं रही। अपने निज के क्षेत्र में अब पुरुष का ज़ोर दिखाई पड़ा है। युक्ति, तर्कं, आरज़ू-मिन्नत सबके बाहर एकमात्र बात रह गई है, "काम है।" शर्मिला बेकार उद्विग्न होकर बैठी रहती। देर होते ही सोचती, मोटर लड़ गई होगी। धूप लगने से जब पति का मुँह लाल हो गया होता है तो सोचती, ज़रूर इन्फ्लुएंज़ा हुआ है। डरती-डरती डाक्टर की बात उठाती है-लेकिन पति का भाव देखकर वहीं रुक जाती है। दिल खोलकर उद्वेग प्रकट करने का भी आजकल साहस नहीं होता।

शशांक देखते देखते धूप में झुलस गया है और चिड़चिड़ा हो गया है। छोटी कसी हुई धोती, वैसी ही छोटी कसी हुई फ़ुर्सत, चाल-ढाल तेज़, बातचीत चिनगारी की तरह संक्षिप्त। शर्मिला की सेवा इस द्रुत लय के साथ ताल मिलाकर चलने की कोशिश करती है। स्टोव के पास कुछ खाना हमेशा गर्म रखना पड़ता है, क्योंकि कब अचानक पति कह उठेंगे, "चला! लौटने में देर होगी"। मोटर गाड़ी में सोडा-वाटर और एक छोटे टीन के बक्से में खाने की सूखी चीज़ें रखी रहती हैं। एक यूडीकोलोन की शीशी विशेष दृष्टिगोचर करके ही रखी जाती है--कदाचित् सिर में दर्द हो आए। गाड़ी लौटने पर परीक्षा करके देखती है तो कोई भी वस्तु व्यवहार में लाई गई नहीं होती। उदास हो जाती साफ़ कपड़ा सोने के घर में प्रतिदिन प्रकाश्य रूप में सजाकर रखा रहता है, फिर भी कम-से-कम सप्ताह में चार दिन शशांक को धोती बदलने का अवकाश भी नहीं मिलता। घर-गृहस्थी का परामर्श खूब संक्षेप में उपस्थित करना होता है, ज़रूरी टेलिग्राम की ठोकरमार भाषा के ढंग पर, वह भी चलते-चलते, पीछे से पुकारते यह कहते-कहते "अजी सुनते हो, एक ज़रा सी बात है।" उसके व्यवसाय में शर्मिला का जो थोड़ा सा सम्बन्ध था वह भी कट गया, उसका रुपया सूद-मूर समेत लौट आया। सूद भी दिया है माप-जोख करके हिसाब से, बदस्तूर रसीद लेकर। शर्मिला कहती, "बाप रे, प्रेम में भी पुरुष अपने को पूरा नहीं मिला पाता। थोड़ा-सा जगह ख़ाली छोड़ देता है। वहीं उसके पौरुष का अभिमान रहता है।"

लाभ के रुपये से शशांक ने भवानीपुर में मन-माफ़िक एक बड़ा मकान खड़ा किया है। वह उसके शौक़ की चीज़ है। स्वास्थ्य, आराम, श्रृङ्खला के नये-नये प्लैन उसके दिमाग़ में आते हैं। कोशिश है शर्मिला को अचरज में डाल देने की। शर्मिला भी बाकायदा चकित होने में कोई कसर नहीं रखती। इंजीनियर ने एक कपड़े धोनेवाली कल स्थापित की। शर्मिला ने घूम-फिरकर देखा और खूब तारीफ़ की। मन ही मन बोली, "कपड़े आज भी जिस तरह धोबी के घर जाते हैं, कल भी जाएँगे। मैले कपड़ों के गर्दभवाहन को तो समझ गई हूँ किन्तु उसके विज्ञान-वाहन को नहीं समझती।" आलू के छिलके छुड़ानेवाले यंत्र को देखकर यह अचरज से ठक रह गई, बोली, "आलू की रसीली सब्ज़ी बनाने की बारह आना तकलीफ़ इससे जाती रहेगी।" बाद में सुना गया कि वह यंत्र फूटी डेकची, टुटी केटली आदि के साथ एक विस्मृति-शय्या पर नैष्कर्म्य पा गया है।

मकान बनकर जब तयार हो गया तो उस स्थावर पदार्थ के प्रति शर्मिला के रूद्ध स्नेह का उद्यम पिल पड़ा। सुभीता यह था कि ईंट-काठ के शरीर में धैर्य अटल बना रहता है। साजने-संवारने के महा उद्यम में दो दो नौकर हाँफ उठे। एक तो भाग ही खड़ा हुआ। कमरों की सजावट शशांक को मन में रखकर होने लगी। बैठकखाने में वह आजकल अक्सर बैठता ही नहीं, फिर भी उसीकी थकी पीठ की रीढ़ के लिये नये फ़ैशन के कुशन सजाए गए; फूलदानी एक-आध नहीं अनेकों; तिपाई पर, टेबुल पर, फूल-कढ़े झालरदार आवरण। सोने के कमरे में आजकल दिन को शशांक का आना एकदम बंद है, क्योंकि उसके आधुनिक पत्रे में रविवार भी सोमवार का जुड़वाँ भाई है। दूसरी छुट्टियों में भी जब काम बंद रहता है तो भी वह कोई न कोई छिटफुट कार्य खोज ही निकालता है, आफ़िसवाले कमरे में प्लैन बनानेवाला तेलहा काग़ज़ या बही-खाता लेकर बैठ जाता है। फिर भी पुराना नियम चल रहा है। मोटी गद्दीवाले सोफ़ा के सामने रेशमी चप्पलों के जोड़े तैयार रहते हैं। वहाँ पहले के समान ही पनबट्टे में पान सजा रहता है। आले पर पर पतले सिल्क का कुर्ता टँगा रहता है, चुनी हुई धोती लटकती रहती है। आफ़िस के कमरे में हस्तक्षेप करने में हिम्मत की ज़रूरत थी, तो भी जब शशांक वहाँ नहीं रहता उस समय शर्मिला हाथ में झाड़न लेकर प्रवेश करती है। वहाँ की रक्षणीय और वर्जनीय वस्तुओं में सजावट और श्रृंखला का समन्वय करने में उसका अध्यवसाय तनिक भी प्रतिहत नहीं होता।

शर्मिला सेवा करती है, किन्तु आजकल उस सेवा का बहुत बड़ा हिस्सा शशांक की दृष्टि के अगोचर ही रहता है। पहले उसका जो आत्मनिवेदन प्रत्यक्ष के निकट था अब उसीका प्रयोग प्रतीक के प्रति चल रहा है,--घर-द्वार सजाने में, फूल-पत्ता लगाने में, शशांक की बैठनेवाली कुर्सी को रेशम से ढँकने में, तकियों के पर्दों पर फूल काढ़ने में, आफ़िसवाले टेबुल के कोने में नील स्फटिक की फूलदानी को रजनीगन्धा के गुच्छों से सजाने में।

उसे अपने अर्ध्य को पूजा-वेदी से दूर स्थापित करना पड़ा, लेकिन बड़े कष्ट से। अभी कुछ दिन पहिले ही जो आघात लगा था उसका चिन्ह निर्जन में आँख के पानी से पोंछना पड़ा। उस दिन कार्तिक की उन्नीसवीं तारीख़ थी, यही शशांक का जन्मदिन है। शर्मिला के जीवन में यह सबसे बड़ा पर्व है। नियमानुसार बन्धु-बांधुवों का निमंत्रण किया गया। घर-द्वार विशेष भाव से फूल पत्तों से सजाया गया।

प्रातःकाल काम खत्म करके शशांक घर लौटकर बोला, "मामला क्या है, गुड़ियों का व्याह है क्या?"

"हाय रे भाग्य, आज तुम्हारा जन्मदिन है, यह भी भूल गए? कुछ भी कहो, आज शाम को तुम बाहर नहीं जा सकते।"

"बिज़िनेस मृत्यु-दिन के अतिरिक्त और किसी दिन के सामने सिर नहीं झुकाता।"

"फिर कभी नहीं कहूँगी, आज लोगों को निमंत्रण दे चुकी हूँ।"

"देखो शर्मिला, तुम मुझे खिलौना बनाकर दुनिया भर के लोगों को बुलाकर खिलवाड़ करने की कोशिश मत करो।" इतना कहकर शशांक तेज़ी से चला गया। शर्मिला सोनेवाले कमरे का द्वार बन्दकर थोड़ी देर तक रोती रही।

शाम को निमन्त्रित लोग आए। बिज़िनेस के सर्वोच्च दावे को सभी ने सहज ही स्वीकार कर लिया। यह यदि कालिदास का जन्मदिन होता और उन्होंने शकुन्तला का तृतीय अंक लिखने की उज्र पेश की होती तो सभीने उसे निश्चय ही एक अत्यन्त बेकार बहाना समझा होता। लेकिन बिजिनेस! आमोद-प्रमोद पर्याप्त हुए। नीलूबाबू ने थियेटर की नक़ल करके सबको खूब हँसाया। शर्मिला ने भी इस हँसी में योग दिया। शशांक-रहित शशांक के जन्मदिन ने शशांक-अधिष्ठित बिज़िनेस को साष्टांग प्रणिपात किया।

दुःख काफ़ी हुआ, तथापि शर्मिला के मन ने भी दूर से ही शशांक के इस धायमान कर्म-रक्ष की ध्वजा को प्रणिपात किया। उसके पास वह दुरधिगम्य कार्य है जो किसीकी ख़ातिर नहीं रुकता, किसीको नहीं मानता, स्त्री की विनती को भी नहीं, मित्रों के निमन्त्रण को भी नहीं, खुद के आराम को भी नहीं। कार्य के प्रति इस श्रद्धा के द्वारा पुरुष अपने आपको श्रद्धा करता है, यह है उसका अपनी शक्ति के निकट अपने-आपका निवेदन। शर्मिला गृहस्थी की रोज़-रोज़ की कर्मधारा के इस पार खड़ी होकर संभ्रम के साथ देखती रही है दूसरे किनारे पर चलनेवाले शशांक के कार्य को। उसकी सत्ता बहुव्यापक है, घर की सीमा छोड़कर दूर देश को चली जाती है—सुदूर समुद्र के पार, जाने-अनजाने कितने ही लोगों को वह अपने शासन-जाल में खींच लाती है। पुरुष अपने अदृष्ट के साथ नित्य जूझता रहता है, उसके कठोर मार्ग में यदि स्त्रियों का कोमल बाहुबन्धन विघ्न उपस्थित करने आवे तो निश्चय ही वह उसे निर्मम भाव से छिन्न कर देगा! इस निर्ममता को शर्मिला ने भक्ति-पूर्वक स्वीकार कर लिया। फिर भी बीच-बीच में उससे रहा नहीं जाता। जहाँ हृदय के आकर्षण को कोई अधिकार नहीं, वहाँ भी वह अपनी करुण उत्कण्ठा ले जाती, चोट खाती, परन्तु इस चोट को प्राप्य समझकर व्यथित चित्त से रास्ता छोड़कर लौट आती। जहाँ उसकी अपनी गति-विधि अवरुद्ध थी वहाँ देवता को पुकारकर कहती, 'तुम अपनी दृष्टि रखना।'