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दो बहनें

किसी धनी मारवाड़ी के साथ साझे में काम करने की बात थी। आख़िरकार मालूम हुआ कि जैसी शर्त हैं उससे भीतर का गूदेवाला हिस्सा मारवाड़ी के और छिलकेवाला हिस्सा उसके भाग्य में जुटेगा, इसीलिये पीछे लौटने की चेष्टा हो रही थी।

शर्मिला व्यस्त होकर बोल उठी, "यह कभी नहीं होगा। साझे का काम करना ही हो तो हमारे साथ करो। ऐसा काम तुम्हारे हाथ से निकल गया तो भारी अन्याय होगा। मेरे रहते यह नहीं होने पाएगा---तुम चाहे जो कहो।"

इसके बाद लिखा पढ़ी में भी देर नहीं हुई; मथुरा भैया का हृदय भी विगलित हुआ।

रोज़गार बड़ी तेज़ी से चल निकला। इसके पहले शशांक नौकरी के लिये काम करता था। उस ज़िम्मेदारी की सीमा परिमित थी। मालिक था अपने से बाहर, दावा और देय दोनों समान वज़न मिलाकर चला करते थे। अब अपना प्रभुत्व अपनेको ही चलाने लगा। दावी और देय एक जगह मिल गए। अब दिन छुट्टी और काम के ताने-बाने से बुने हुए जाल की तरह नहीं रहे, ठोस हो गए। जो जवाबदेही मन के ऊपर खुद लाद ली गई होती है उसे इच्छा करते ही छोड़ दिया जा सकता है, इसीलिये उसका

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