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रीतिकाल के अन्य कवि

वा निरमोहिनि रुप की रासि जऊ उर हेतु न ठानति ह्वै है।
बारहि बार बिलोकि घरी घरी सूरति तौं पहिचानति ह्वै है॥
ठाकुर या मन की परतीति है, जो पै सनेह न मानति ह्वै है।
आवत हैं नित मेरे लिये, इतनो तौ विशेष कै ज्ञानति ह्वै है॥


यह चारहु ओर उदौ मुखचंद की चाँदनी चारू निहारि लै री।
बलि जौ पै अधीन भयो पिय, प्यारी! तौ एतौ बिचारी बिचारि लै री॥
कवि ठाकुर चूकि गयो जो गोपाल तो तैं बिगरी कौ सँभारि लै री।
अब रैहै न रैहै यहै समयो, बहती नदी पायँ पाखारि लै री॥


पावस तें परदेश तें आय मिले पिय औ मनभाई भई है।
दादुर मोर पपीहरा बोलत, ता पर आनि घटा उनई है॥
ठाकुर वा सुखकारी सुहावनी दामिनि कौंधि कितैं को गई है।
री अब तौ घनघोर घटा गरजौ बरसौ तुम्हैं धूर दई है॥


पिय प्यार करैं जेहि पै सजनी तेहि की सब भाँतिन सैयत है।
मन मान करौं तौ परौं भ्रम में, फिर पाछे परे पछितैयत है॥
कवि ठाकुर कौन की कासौं कहौ? दिन देखि दसा बिसरैयत है।
अपने अटके सुन ए री भट्ट? निज सौत के मायके जैयत है॥

(३८) ललकदास––बेनी कवि के भँडौवा से ये लखनऊ के कोई कंठीघारी महंत जान पड़ते है जो अपनी शिष्य मंडली के साथ इधर उधर फिरा करते। अतः संवत् १८६० और १८८० के बीच इनको वर्तमान रहना अनुमान किया जा सकता है। इन्होंने "सत्योपाख्यान" नामक एक बड़ा वर्णनात्मक ग्रंथ लिखा है जिसमें रामचंद्र के जन्म से लेकर विवाह तक की कथा बड़े विस्तार के साथ वर्णित हैं। इस ग्रंथ का उद्देश्य कौशल के साथ कथा चलाने का नहीं, बल्कि जन्म की बधाई, बाललीला, होली, जलक्रीड़ा, झूला, विवाहोत्सव आदि का बड़े व्योरे और विस्तार के साथ वर्णन करने का है। जो उद्देश्य

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