यहाँ तक कि इस मतभेद को राजनीतिक स्वरूप दे दिया गया है और
हम इस प्रश्न पर शान्त चित्त और शान्त मस्तिष्क से विचार करने के
अयोग्य हो गये है।
लेकिन इन सब रुकावटो के होते हुए भी यदि हम भारतीय राष्ट्रीयता के लक्ष्य तक पहुँचना और उसकी सिद्धि करना असम्भव समझकर हिम्मत न हार बैठे तो फिर हमारे लिए इस प्रश्न की किसी न किसी प्रकार मीमासा करना आवश्यक हो जाता है।
देश मे ऐसे आदमियो की संख्या कम नहीं है जो उर्दू और हिन्दी की अलग-अलग और स्वतन्त्र उन्नति और विकास के मार्ग मे बाधक नही होना चाहते । उन्होने यह मान लिया है कि प्रारम्भ मे इन दोनो के स्वरूपो मे चाहे जो कुछ एकता और समानता रही हो, लेकिन फिर भी इस समय दोनो को दोनो जिस रास्ते पर जा रही है, उसे देखते हुए इन दोनो मे मेल और एकता होना असम्भव ही है। प्रत्येक भाषा की एक प्राकृतिक प्रवृत्ति होती है । उर्दू का फारसी और अरबी के साथ स्वाभाविक सम्पन्ध है । और हिन्दी का सस्कृत तथा प्राकृत के साथ उसी प्रकार का सम्बन्ध है । उनको यह प्रवृत्ति हम किसी शक्ति से रोक नही सकते । फिर इन दोनों को आपस मे मिलाने का प्रयत्न करके हम क्यो व्यर्थ इन दोनो को हानि पहुँचावे ?
यदि उर्दू और हिन्दी दोनो अपने-आपको अपने जन्म स्थान और
प्रचार-क्षेत्र तक ही परिमित रखे तो हमे इनकी प्राकृतिक वृद्धि और
विकास के सम्बन्ध मे कोई आपत्ति न हो । बॅगला, मराठी, गुजरात,
तामिल, तेलगू और कन्नडी आदि प्रान्तीय भाषाओ के सम्बन्ध मे हमे
किसी प्रकार की चिन्ता नहीं है । उन्हे अधिकार है कि वे अपने अन्दर
चाहे जितनी सस्कृत, अरबी या लैटिन आदि भरती चले । उन भाषाओ
के लेखक आदि स्वयं ही इस बात का निर्णय कर सकते है; परन्तु उर्दू
और हिन्दी की बात इन सबसे अलग है । यहाँ तो दोनो ही भारतवर्ष
की राष्ट्रीय भाषा कहलाने का दावा करती है । परन्तु वे अपने व्यक्तिगत