याक़ूती तख़्ती/ परिच्छेद १४
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तेरहवां परिच्छेद
प्रातःकाल उठकर मैंने शीघ्रही अपने नित्यनेम को समाप्त किया और अच्छे कपड़े पहनकर मैं निहालसिंह की बाट जोहने लगा। उस समय मुझे एक एक पल, एक एक युग के समान बीतने लगे और मैं मनही मन निहालसिंह को कोसने लगा! कई बार मेरे मन में यह धुन उठी कि मैं स्वयं निहालसिंह के डेरे पर चलूं और जैसे बने जल्दी ही कुसीदा को भपने हृदय से लगालूं, किन्तु उस समय मेरे चित्त की सब वृत्तियां इतनी अचल होगई थीं कि कई बार उठनेपर भी मैं अपने डेरे के दरवाजे से बाहर एक पग भी न निकल सका। योही राह तकते तकते जब मैं एक प्रकार से दशम दशा को पहुंच गया था, तब मानों प्राणदाता धन्वन्तरि के समान ठीक दस बजे निहालसिंह मेरे सामने आ खड़े हुए। उन्हें देखतेही मैं इस तेज़ी के साथ उठ खड़ा हुआ, जैसे प्राण के लौट आने पर मुर्दा उठ खड़ा होता है।
निदान, मैंने बड़े तपाक से निहालसिंह से हाथ मिलाया और कहा,-'आह, मित्र! तुमने तो राह दिखलाते दिखलाते मेरी जान ले डाली।"
यह सुनकर निहालसिंह हंस पड़े और कहने लगे,-"यदि मैं जानता कि तुम कुसीदा के लिये इतने पागल हो उठे हो तो मैं और भी देर करके आता, क्योंकि ऐसी उन्मत्तावस्था में मैं तुम्हें उन सुन्दरियों के पास लेजाना उचित नहीं समझता, इसलिये कि यदि तुम कहीं ऐसी चंचलता में कुछ अनुचित कर बैठो तो फिर बना बनाया सारा खेल चौपट होजायगा। अतएव, तुम आज अपने चित्त के उद्वेग को शान्त करके अच्छे खासे मनुष्य बनलो, फिर कल तुम्हें लेजाकर कुसीदा से मिलाऊंगा।"
निहालसिंह की जहरीली बातें सुनकर मेरे सारे बदन में आग लग गई और मैंने अपनी भरी हुई पिस्तौल को हाथ में लेकर कहा,-"निहाल सिंह। सचमुच में इस समय पागल होरहा हूं। अतएव यदि ऐसी अवस्था में तुम मुझसे ठठा करोगे तो मैं अभी गोली मारकर अपनी जान देदूंगा।" किन्तु मेरी बात पूरी भी न होने पाई थी कि न जाने किस ढंग से निहालसिंह ने मेरे हाथ से पिस्तौल छीन ली और उसकी गोली आकाश में छोड़ कर कहा,-"वाह, भई! तुमतो केवल कुसीदा का वर्णन ही सुन कर इतने बहक गए! तो फिर उसके देखने पर तुम्हारी क्या अवस्था होगी!"
मैंनेकहा,-"निहालसिंह! मैं तुम्हारी बिनती करता हूं, कृपाकर तुम इस समय मेरे हृदय की मेगज़ीन में आग न लगाओ।"
यह सुनकर निहालसिंह खूब ज़ोर से हंसपढ़े और कहने लगे,'अस्तु, चलो! कल रात को मैंने तुम्हारा सारा हाल हमीदा और कुलीदा से कहा था, जिसे सुनकर दोनों बहिनें बहुत ही प्रसन्न हुई और मुझे आशा है कि तुम्हें देखकर, जैसी कि उनकी इच्छा है, दोनो बहुत ही खुश होगी और कुलीदा तुम्हें अपना हृदय समर्पण करेगी।"
यह सुन कर मैं बहुतही प्रसन्न हुआ और निहालसिंह के साथ उनके डेरे पर पहुंचा। वहां पहुंचने पर उनदोनों बहिनों ने उठकर मेरी अगवानी की और बड़े आदर से मुझे एक बढ़ियां गलीचे पर ला बैठाया। उस समय निहालसिंह किसी दूसरे कमरे में चले गए थे, इसलिये कि जिसमें मुझे कुसीदा के साथ बात चीत करने का अवसर मिले।
मैं उन दोनों बहिनों को देखकर बहुत ही चकित हुआ! यदि उनदोनो के गालों के तिल का वृत्तात मैंने निहालसिंह से न सुना होता तो मैं यह कभी न जान सकता कि इन दोनो बहिनों की सूरत शकल या रूपरंग में क्या अन्तर है! किन्तु उस तिल के रहस्य के जानने के कारण मैंने मन ही मन यह बात जान ली कि इन दोनो में कौन हमीदा है और कौनसी कुलीदा!
निदान, फिर तो हमीदा मुझसे कुछ इधर उधर की दो चार बातें कर के यह कह कर उठ गई कि,-'मैं आपके लिये शर्बत लाती हूं;' और मैं कुसीदा के साथ अकेला रह गया। उस समय कुसीदा यद्यपि मेरे सामने थी, पर वह लज्जावन्ती लता के सामन बिलकुल सकुची हुई थी और हमीदा के जाने पर मेरा भी शरीर कुछ कांपने लग गया था। सो उसी अवस्था में-उस कांपते हुए हाथ से ही मैंने कुसीदा का हाथ थाम्ह लिया और उसकी अंगुली में एक बहुमूल्य हीरे की अंगूठी पहिना दी। उस अंगूठी को देख कर वह ज़रा सा मुस्कुराई और अपने गले में से एक वैसी ही 'याकूतीतख्ती' उतार कर, जैसी कि हमीदा ने निहालसिंह को दी थी मेरे गले में डाल दी।
मैंने फिर उसके हाथ को अपने हाथ में ले कर कहा,-"प्यारी, कुसीदा! आज सत्य की साक्षी मान कर मैं अपना हृदय तुम्हारे समर्पण करता हूं और तुम्हे अपनी गृहस्वामिनी बनाता हूं।"
यह सुन कर कुसीदा ने मेरे हाथ को चूम लिया और मुझसे
आंखे मिला कर और फिर उन्हें नीचे कर के कहा, "मैं आपकी लौंडी हूँ।"
इतने ही में किसी तरह का कोई खटका हुआ जिसे सुन कर कुसीदा ने मेरे हाथ में से अपना हाथ खैंच लिया, और मैं भी कुछ सावधान हो गया, पर कोई यहां पर आया नहीं। थोड़ी देर तक तो हम दोनो चुपचाप थे, पर जब मैंने यह समझ लिया कि अभी यहां कोई न आवेगा तो मैंने प्रेमान्ध होकर कुसीदा को अपनी ओर खैंच कर उसे अपने हृदय से लगा लिया और उसके गालो को चूम कर कहा,-'प्यारी! मुझे न भूलना।"
कुसीदा ने भी मेरे ओठों को चूम कर अपने सच्चे प्रेम का परिचय मुझे दिया और कहा,-"मैं तो अब आपकी लौंडी हूं, इसलिये यह बात तो मुझे कहनी चाहिए कि आप मुझ पर हमेशः मिहरवानी रक्खेंगे और मुझे कभी भूल न जायंगे।"
अहा! एक यह भी प्रेम है! और एक कलकत्ते वाली उस ब्राह्मभगिनी कुलटा का भी प्रेम था!!! अब पाठक इस पर स्वयं विचार करलें कि सच्चा प्रेम कौन है और स्वर्ग के सच्चे सुख का अनुभव कौन कराता है!!!
निदान, एक घंटे तक मैं कुसीदा के साथ प्रेम की बातें करता रहा, इसके अनन्तर एक लौंडी ने आकर हमीदा के आने की खबर दी और उसके दूसरेहीक्षण हाथ में शर्बत का प्याला लिए हुई हमीदा आ पहुंची। उसने प्याला कुलीदा के हाथ में देकर कहा,-"इसे इन्हें पिलाओ;" और मेरी ओर देखकर कहा,- "आज आप को हमलोगो के साथ खाना, खाना होगा।"
इतना कह और मेरा उत्तर बिना सुनेही हमीदा वहांसे चली गई और उसके जानेपर कुसीदा ने बड़े प्यार से मेरे गले में बाहें डालकर शर्बत का प्याला मेरे मुहं से लगा दिया। फिर तो थोड़ा सा शर्बत मैंने पीया और थोड़ासा अपने हाथ से कुसीदा को पिलाया और फिर एकान्त में उसके साथ प्रेम की बातें करनी प्रारंभ की। इन्हीं दो घटों में ही मैंने यह बात जानली कि कुसीदा गुणों की खान, प्रेम की सरिता, स्वभाव की सुधा और वसुधा में साक्षात् स्वर्गीया नारी है।
निदान, फिर तो मैंने, निहालसिंह ने, हमीदा ने और कुलीदा ने एक साथ बैठकर बहुतही सुस्वादु भोजन किया और भोजन करने के बाद पान के साथही कुसीदा के अधरोष्ठ के अमृत का पान करके मैं अपने डेरे पर लौट आया, उस समय भी निहालसिंह मेरे साथ आए थे और मुझे पहुंचा कर पुनः लौट गए थे।
दोनों याकूतीतख्तियों में फारसी भाषा की जो शेरे खुदी हुई थीं, उनके भाव से मिलते जुलते एक श्लोक को नीचे लिख कर हम इस परिच्छेद को पूरा करते हैं,
"प्रेम एव परो धर्मः,
प्रेम एव परं तपः।
प्रेम एव परं ज्ञानं,
प्रेम एव परा गतिः॥"
अब यहां पर इतनाही कहना शेष रह गया है कि एक दिन हमीदा के साथ निहालसिंह का और कुसीदा के साथ मेरा विवाह होगया और हमदोनो प्रेमियों ने अपने अपने स्वभाव के अनुसार रूपवती, गुणवती, शीलवती, और प्रेमवती प्रणयिनी को पाकर अपना अपना भाग्य सराहा।
निहालसिंह ने बड़ी कठिनाई से हमीदा और कुसीदा के हृदय से मुहम्मदी धर्म की जड़ उखाड़ी थी और उन दोनों के हृदय में यह पौधा रोप दिया था कि,-" स्त्रियों का स्वतंत्र धर्म कोई नहीं है। बस उन्हें वही धर्म मानना चाहिए, जिस धर्म में उनका पति दीक्षित हो।" इसके अनुसार हमीदा ने लिक्खधर्म का अवलंबन किया और कुसीदा ने ब्राह्ममत का।
कुछ दिनों तक और वहीं रहकर निहालसिंह हमीदा को लेकर अपने देश को चले गए और मैं कुसीदा के साथ अपने घर लौट आया। घर आकर मैने देखा कि मेरे सत्यनिष्ठ मैनेजर ने मेरे ष्टेट का बहुत ही अच्छा प्रबंध किया है।
फिर तो कभी कुसीदा को लेकर मैं निहालसिंह के घर जाता और कभी वे हमीदा को लेकर मेरे पाहुने बनते। योहीं दोसाल के अनन्तर ठीक समय पर हमीदा और कुसीदा, दोनोही पुत्रवती हुई और उन दोनों की गोदी भरी पूरी हुई। जगदीश्वर! तू संसार में सभों को ऐसाही विमल आनन्द प्रदान किया कर।
कृतज्ञता स्वीकार ।
बंगाली-लेखक बाबू दीनेन्द्रकुमार राय के " हमीदा " नामक उपन्यास की छाया पर यह उपन्यास लिखा गया है, इसलिये हम शुद्धान्तःकरण से उक्त बाबूसाहब की कृतज्ञता स्वीकार करते हैं।
" हमीदा" वियोगान्त उपन्यास है, पर हमने इसे संयोगान्त बनाया है। जो बंगला जानते हैं। वे इसके साथ बंगला के उपन्यास को पढ़कर यह बात भली भांति जान लेंगे कि हमारा यह उपन्यास " हमीदा" का अनुवाद नहीं है, वरन इसे हमने अपने ढंगपर पूरी स्वाधीनता से लिखा है, किन्तु जिसकी छाया पर यह लिखा गया है,उसकी कृतज्ञता स्वीकार करने के लिये इतना लिखना हमने उचित समझा।
विनीत-
ग्रन्थकार ।
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