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परिच्छेद]
(७६)
यमज-सहोदरा


तेरहवां परिच्छेद

प्रातःकाल उठकर मैंने शीघ्रही अपने नित्यनेम को समाप्त किया और अच्छे कपड़े पहनकर मैं निहालसिंह की बाट जोहने लगा। उस समय मुझे एक एक पल, एक एक युग के समान बीतने लगे और मैं मनही मन निहालसिंह को कोसने लगा! कई बार मेरे मन में यह धुन उठी कि मैं स्वयं निहालसिंह के डेरे पर चलूं और जैसे बने जल्दी ही कुसीदा को भपने हृदय से लगालूं, किन्तु उस समय मेरे चित्त की सब वृत्तियां इतनी अचल होगई थीं कि कई बार उठनेपर भी मैं अपने डेरे के दरवाजे से बाहर एक पग भी न निकल सका। योही राह तकते तकते जब मैं एक प्रकार से दशम दशा को पहुंच गया था, तब मानों प्राणदाता धन्वन्तरि के समान ठीक दस बजे निहालसिंह मेरे सामने आ खड़े हुए। उन्हें देखतेही मैं इस तेज़ी के साथ उठ खड़ा हुआ, जैसे प्राण के लौट आने पर मुर्दा उठ खड़ा होता है।

निदान, मैंने बड़े तपाक से निहालसिंह से हाथ मिलाया और कहा,-'आह, मित्र! तुमने तो राह दिखलाते दिखलाते मेरी जान ले डाली।"

यह सुनकर निहालसिंह हंस पड़े और कहने लगे,-"यदि मैं जानता कि तुम कुसीदा के लिये इतने पागल हो उठे हो तो मैं और भी देर करके आता, क्योंकि ऐसी उन्मत्तावस्था में मैं तुम्हें उन सुन्दरियों के पास लेजाना उचित नहीं समझता, इसलिये कि यदि तुम कहीं ऐसी चंचलता में कुछ अनुचित कर बैठो तो फिर बना बनाया सारा खेल चौपट होजायगा। अतएव, तुम आज अपने चित्त के उद्वेग को शान्त करके अच्छे खासे मनुष्य बनलो, फिर कल तुम्हें लेजाकर कुसीदा से मिलाऊंगा।"

निहालसिंह की जहरीली बातें सुनकर मेरे सारे बदन में आग लग गई और मैंने अपनी भरी हुई पिस्तौल को हाथ में लेकर कहा,-"निहाल सिंह। सचमुच में इस समय पागल होरहा हूं। अतएव यदि ऐसी अवस्था में तुम मुझसे ठठा करोगे तो मैं अभी गोली मारकर अपनी जान देदूंगा।"