अब यहां पर इतनाही कहना शेष रह गया है कि एक दिन हमीदा के साथ निहालसिंह का और कुसीदा के साथ मेरा विवाह होगया और हमदोनो प्रेमियों ने अपने अपने स्वभाव के अनुसार रूपवती, गुणवती, शीलवती, और प्रेमवती प्रणयिनी को पाकर अपना अपना भाग्य सराहा।
निहालसिंह ने बड़ी कठिनाई से हमीदा और कुसीदा के हृदय से मुहम्मदी धर्म की जड़ उखाड़ी थी और उन दोनों के हृदय में यह पौधा रोप दिया था कि,-" स्त्रियों का स्वतंत्र धर्म कोई नहीं है। बस उन्हें वही धर्म मानना चाहिए, जिस धर्म में उनका पति दीक्षित हो।" इसके अनुसार हमीदा ने लिक्खधर्म का अवलंबन किया और कुसीदा ने ब्राह्ममत का।
कुछ दिनों तक और वहीं रहकर निहालसिंह हमीदा को लेकर अपने देश को चले गए और मैं कुसीदा के साथ अपने घर लौट आया। घर आकर मैने देखा कि मेरे सत्यनिष्ठ मैनेजर ने मेरे ष्टेट का बहुत ही अच्छा प्रबंध किया है।
फिर तो कभी कुसीदा को लेकर मैं निहालसिंह के घर जाता और कभी वे हमीदा को लेकर मेरे पाहुने बनते। योहीं दोसाल के अनन्तर ठीक समय पर हमीदा और कुसीदा, दोनोही पुत्रवती हुई और उन दोनों की गोदी भरी पूरी हुई। जगदीश्वर! तू संसार में सभों को ऐसाही विमल आनन्द प्रदान किया कर।