आवारागर्द
आवारागर्द
[ मनोवैज्ञानिक कहानी सग्रह ]
लेखक
आचार्य श्री चतुरसेन शास्त्री
प्रभात–प्रकाशन
दरीबा कलां–दिल्ली
१ आवारागर्द | ……… | ५ |
२ तिकड़म | ……… | १८ |
३ डाक्टर साहब की घड़ी | ……… | २८ |
४ मरम्मत | ……… | ३८ |
५ चिठ्ठी की दोस्ती | ……… | ६२ |
६ तसवीर | ……… | ७४ |
७ तेरह बरस बाद | ……… | ८८ |
८ जापानी दासी | ……… | ९१ |
९ हेर फेर | ……… | ९९ |
१० वह कहे तो | ……… | १११ |
मूल्य डेढ़ रुपया मात्र
प्रकाशक | प्रथमवार | मुद्रक |
नेमचन्द जैन 'अग्र' प्रभात प्रकाशन के लिए साहित्य मंडल दिल्ली द्वारा प्रकाशित |
मई १९४६ |
जय्यद प्रेस, बल्लीमारान, दिल्ली |
आचार्य श्री चतुरसेन शास्त्री हिन्दी साहित्य के सिद्धहस्तः कलाकार हैं। आपकी देन हिन्दी भारती मे अमर है। आपने हमसे बराबर लिख कर देने का वादा किया है। और आपकी लेखनी रोज नवीन रचना रत्न प्रसूत कर रही है। जो रचना आचार्य अब दे रहे है, वह है एक अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक उपन्यास 'ईदो'। जिसमे जापान के शाही वैभव और सुभाष बोस तथा आइ° एन° ए° व गत् महायुद्ध की कूटनैनिक बातों का रहस्य भरा है। इसके लिए आचार्य ने गत् नव वर्ष तक दुनिया की गतिविधि का अध्ययन किया है। यह रचना हम पाठकों को जुलाई तक देने के सब सम्भव प्रयत्न करेंगे।
प्रस्तुत कहानी संग्रह में आचार्य की मनोवैज्ञानिक कहानियां हैं। जो समाज से उपेक्षितों के जीवन पर लिखी गई हैं। आप इन्हें पढ़ कर सोचेगे यह क्या है? क्यों है? और इस समस्या का हल क्या है?
हमे विश्वास है ये कहानियां आपको अध्ययन, मनोरंजन और मनन का साधन प्रस्तुत करेगी।
विनीत
नेमचंद जैन 'अग्र'
"साहित्य कलाका चरम विकास है और समाज का मेरुदण्ड। धर्म और राजनीति का वह प्राण है, इस लिए इसमें दो गुण होने, अनिवार्य हैं, एक यह कि वह आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करे और दूसरे, वह मानवता के धरातल को ऊंचा करे।
सामर्थ्यवान्काल-जैसे जगत के सब तत्त्वों को दूषित करता है, उसी भांति उसने साहित्य को दूषित किया है। इसी से साहित्य ने मानव का हनन किया। उसी भांति, जैसे विज्ञान ने मानव प्राणों का। और यही कारण है कि साहित्य और विज्ञान के इस उद्ग्रीव युग में मानव भौतिक और, आधिभौतिक विभूतियों का रहस्यविद् होने पर भी अपने चिरजीवन में सर्वाधिक असहाय और भयभीत है।
साहित्य और विज्ञान ही उसे अभयदान कर आप्यायित "कर सकता है, यदि वह अपना लक्ष्य मानवता के धरातल को ऊंचा करना बनाले।
मानव विश्व की सब से बड़ी इकाई है। परन्तु साहित्यकार मानव नहीं, क्योंकि वह अति-मानव का निर्माण करता है। वास्तव मे साहित्यकार महामानव है!
इसलिए उसका कोई अपना देश, धर्म राष्ट्र, समाज और स्वार्थ नहीं है और इन सबके प्रति उसका कोई कर्तव्य नहीं है।
उसका काम है निरंतर अतिमानवों का निर्माण करना और मानव आदर्श के लक्ष्य बिन्दु पर उनकी स्थापना करना। यह करने ही से वह मानवता के धरातल को ऊंचा करने में समर्थ हो सकता है।"
चतुरसेन
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