आवारागर्द/३-डाक्टर साहब की घड़ी

आवारागर्द
आचार्य चतुरसेन शास्त्री
३ डाक्टर साहब की घड़ी

दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ २८ से – ३७ तक

 

 

 

डाक्टर साहब की घड़ी

 

• डाक्टर बेदी एम° डी° रियासत के पुराने और प्रख्यात डाक्टर हैं। अपने गत पचास वर्ष के लम्बे जीवन मे उन्होंने बडे-बडे मार्के के इलाज किये है। सिर्फ अपनी ही रियासत मे नही, रियासत से बाहर भी अनेक राजपरिवारों मे उनकी वैसी ही प्रतिष्ठा और धूमधाम है। उन्होने बहुत धन कमाया, एक से एक बढ़ कर अनूठी चीजे रईसो से इनामों और भेटो मे ली। उनका ड्राइगरूम उन चीज़ों से ठसाठस भरा हुआ है। वे फुरसत के वक्त अक्सर इसी ड्राइंगरूम में बैठ कर अपने दोस्तो को उन भेटों मे पाई हुई चीजों के सम्बन्ध मे एक से एक बढ़कर अद्भुत बाते सुनाया करते हैं। कोई-कोई बात तो बड़ी ही सनसनी भरी, आश्चर्यजनक और अत्यन्त प्रभावशाली होती है। अब वे प्रेक्टिस नही करते, यों कोई पुराना प्रेमी घसीट ले जाय तो बात जुदी है। आने जाने वालो का तो उनके यहाॅ ताँता ही लगा रहता है, क्योंकि वे मिलनसार, खुशमिजाज, उदार और 'नेकी कर कुये मे डाल' वाली कहावत को चरितार्थ करने वाले पुरुष हैं। उनका लम्बा-चौड़ा डील-डौल, साढ़े तेरह इञ्च की बड़ी मछे मोटी और भरी हुई भौंहें, तेज़ नुकीली नाक और मर्मभेदिनी दृष्टि असाधारण हैं। छोटे से बड़े तक पर उनका रुआब है, पर वे छोटे-बड़े सब पर प्रेम-भाव रखते हैं। वे वास्तव मे एक सहृदय और दयावान् पुरुष है, भाग्यवान् भी कहना चाहिये। उनका जीवन सदा मजे मे कटा और अब भी मजे मे ही कट रहा है। वे सब प्रकार के शोक, सन्ताप, चिन्ता और वेदना से मुक्त आनन्दी पुरुष की भाँति रहते है। बूढे भी उनके दोस्त है और जवान भी ; बालक भी दोस्त है। अपने पास आते ही वे सब को निर्भय कर देते है, ऐसा ही उनका सरल स्वभाव है।

हॉ, तो मै यह कह रहा था कि उन्होने बड़े-बड़े मार्के के इलाज किये है और बड़े-बड़े इनाम इकराम और भेटे प्राप्त की हैं और इनाम और भेटो की ये सब अनोखी चीजे उनके ड्राइगरूम मे सजी हुई है। बड़ी-बड़ी शेरो और चीतलों की खाले, मगर के ढाँचे, असाधारण लम्बे पशुओ के सीग, बहूमूल्य कालीन, अलभ्य कारीगरी की चीजे, दुर्लभ चित्र और भारी-भारी मूल्य की रत्न-जटित अँगूठियाँ, पिने और कलमे। परन्तु इन सब में अधिक आश्चर्यजनक और बहुमूल्य वस्तु एक घड़ी है। यह घड़ी उन्हें एक इलाज के सिलसिले मे नैपाल जाने पर वहाँ के दरबार से मिली थी। इसका आकार एक बडे नींबू के समान है और यह नींबू के ही समान गोल है। उसमे कही भी घण्टे या मिनट की सुई नही, न अक ही अंकित है। सारी घड़ी कीमती प्लाटिनय की महीन कारीगरी से कटी बूटियों से परिपूर्ण है। और उसमे उज्ज्वल असल ब्रेजील के हीरे जड़े है। सिर्फ दो हीरे, जो सब से बड़े हैं और जिनमे एक बहुत हलकी नीली आभा झलकती है, ऐसे मनोमोहक और कीमती हैं कि उन्हीं से एक छोटी-मोटी रियासत खरीद ली जा सकती है। उनमे जो बड़ा और तेजस्वी हीरा है उस पर उँगली की पोर का एक हलके से स्पर्श का दबाव पड़ते ही घड़ी अत्यन्त मोहक सुरीली तान में घंटा, मिनट, सैकिड सब बजा देती है उस तान की गूंज समाप्त होते होते ऐसा मालूम देता है मानो अभी-अभी यहाँ कोई स्वर्गीय वातावरण छाया रहा हो। दूसरे हीरे को तनिक दबा देने से दिन, तिथि, तारीख-पक्ष, मास, संवत् सब ध्वनित हो जाते हैं। यही नही, घड़ी में हज़ार वर्ष का कैलेण्डर भी निहित है; हज़ार वर्ष पहिले और आगे के चाहे भी जिस सन् का दिन, मास और तारीख आप मालूम कर सकते हैं। ऐसी ही वह आश्चर्य जनक घड़ी है, जिसे डाक्टर साहब अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते हैं। कहते हैं—एक बार हुजूर आलीजाह महाराज ने पचास हज़ार रुपये इस घड़ी का डाक्टर साहब को देना चाहा था, तिस पर डाक्टर साहब ने घड़ी महाराज के चरणों मे डाल कर कहा था—'अन्न- दाता, मेरा तन, मन, धन, सब आपका है, फिर घड़ी की क्या औकात है; पर इसे मै बेच तो सकता ही नहीं।' और महाराज हँसते हुये चले गये थे। यह घड़ी स्वीडन के एक नामी कलाकार से नैपाल के लोक-विख्यात महाराज चन्द्र शमशेर जङ्गबहादुर ने, जब वे विलायत गये थे, मुँह माँगा दाम देकर खरीदी थी और अपने इकलौते पुत्र के प्राण बचाने पर सन्तुष्ट होकर उन्होने वह डाक्टर को दे डाली थी। वह घड़ी वास्तव मे नैपाल के उत्तराधिकारी के प्राणों के मूल्य की थी। कमरे के बीचो-बीच बिल्लौर की एक गोल मेज़ थी। यह मेज ठोस बिल्लौर की थी, उसका सारा ढाँचा ही बिल्लौर का था। सर्पाकार एक पाये के ऊपर मेज रक्खी थी। यह मेज़ खास इसी मकसद के लिये डाक्टर साहब ने खास लण्डन से खरीदी थी। उस मेज पर इटली की बनी एक अति भव्य मार्वल की स्त्री-मूर्ति थी। यह मूर्ति रोमन कला की प्रतीक रूप थी, जिसे डाक्टर साहब ने बड़ी खोज-जॉच से खरीद कर उसके हाथ में एक चतुर कारीगर से एक स्प्रिंग लगवाया था, जिसकी ऐसी व्यवस्था थी कि घड़ी हमेशा उस पुतली के उसी हाथ में रक्खी रहती थी। ठीक समय पर घड़ी के हीरे पर स्प्रिङ्ग का दबाव पड़ता तो घड़ी मे ताल स्वर युक्त मधुर सङ्गीत की ध्वनि निकलती। उस समय जैसे वह प्रस्तर मूर्ति ही मुखरित हो उठती थी। मित्रगण घड़ी को यह चमत्कार देख, जब आश्चर्य-सागर मे गोते खाने लगते तो डाक्टर गर्वोन्नत नेत्रों से कभी घड़ी को और कभी मित्रों को घूर घूर कर मन्द मन्द मुसकराया करते थे।

(२)

सावन का महीना था। रिमझिम वर्षा हो रही थी। ठण्डी हवा बह रही थी। काले-काले मेघ आकाश से छा रहे थे, बीच-बीच मे गंभीर गर्जन हो रहा था। चारो ओर हरियाली अपनी छटा दिखा रही थी। दिन का तीसरा प्रहर था। डाक्टर साहब अपने तीन घनिष्ट मित्रों के साथ उसी ड्राइंगरूम से बैठे आनन्द से धीरे-धीरे वार्तालाप कर रहे थे। उन मित्रों मे एक मेजर भार्गव थे, दूसरे दीवान पारख थे और तीसरे एक नवयुवक मिस्टर चक्रवर्ती आई° सी° एस° थे। एका-एक घड़ी मे से मधुर गूँज उठी। मित्र-मंडली चकित होकर घड़ी की ओर देखने लगी डाक्टर साहब आँखे बन्द किये सोफे पर ओढ़क कर उस मधुर स्वर-लहरी को जैसे कानों से पीने लगे। जब घड़ी का संगीत बन्द हुआ तो मिस्टर चक्रवती ने कपाल पर आँखे चढ़ाकर कहा—"अद्भुत घड़ी है यह आप की डाक्टर साहब।" यह तो मानो घड़ी की कुछ तारीफ ही न थी। डाक्टर ने सिर्फ मुस्करा दिया। मेजर साहब ने कहा—"अद्भुत? अजी, इस घडी का तो एक इतिहास है।" फिर उन्होंने डाक्टर की ओर मुह कर के कहा—"वह सूबेदार साहब वाली घटना तो इसी घड़ी से सम्बन्ध रखती है न?"

डाक्टर साहब जैसे चौक पड़े। एक वेदना का भाव उनके ओठों पर आया और उन्होने धीमे स्वर से कहा "जी हॉ, वह दुखदाई घटना इसी घड़ी से सम्वन्ध रखती है।"

मित्र गण चौकन्ने हो गये। मिस्टर चक्रवती वोल उठे "क्या मै इस घटना का वर्णन सुन सकता हूँ?"

डाक्टर ने उदास होकर कहा "जाने दीजिये मिस्टर चक्रवर्ती, उस दारुण घटना को भूल जाना ही अच्छा है, खास कर जब उसका सम्बन्ध मेरी इस परम प्यारी घड़ी से है।"

परन्तु मिस्टर चक्रवर्ती नही माने, उन्होंने कहा "यह तो अत्यन्त कौतूहल की बात मालूम होती है। यदि कष्ट न हो तो कृपा कर अवश्य सुनाइये। यह जरूर कोई असाधारण घटना रही होगी, तभी उससे आप ऐसे विचलित होगये हैं।"

"असाधारण तो है ही।" कह कर कुछ देर डाक्टर चुप रहे फिर उन्होंने एक-एक करके प्रत्येक मित्र के मुख पर दृष्टि डाली। सब कोई सन्नाटा बाँधे डाक्टर के मुँह की ओर देख रहे थे। सब के मुख पर से उनकी दृष्टि हट कर घड़ी पर अटक गई। वे बड़ी देर तक एक टक घड़ी को देखते रहे, फिर एक ठण्डी सॉस लेकर वोले—"आपका ऐसा ही आग्रह हैं, तो सुनिये।"

(३)

धीरे धीरे डाक्टर ने कहना शुरू किया—"चौदह साल पुरानी बात है। सूबेदार कर्नल ठाकुर शार्दूलसिंह मेरे बड़े मुरब्बी और पुराने दोस्त थे। वे महाराज के रिश्तेदारो मे होते थे। उनका रियासत में बड़ा नाम और दरबार मे प्रतिष्ठा थी। उनकी अपनी एक अच्छी जागीर भी थी। वह देखिये, सामने जो लाल हवेली चमक रही है, वह उन्ही की है। बड़े ठाट और रुआब के आदमी थे, अपने ठाकुरपने का उन्हें बड़ा घमण्ड था। उनके बाप-दादों ने मराठों की लड़ाई में कैसी-कैसी वीरता दिखाई थी—वे सब बड़ी दिल-चस्पी से सुनाया करते थे। वे बहुत कम लोगों से मिलते थे, सिर्फ मुझी पर उनकी भारी कृपा दृष्टि थी। जब भी वे अवकाश पाते आ बैठते थे। बहुधा शिकार को साथ ले जाते थे। और हफ्ते मे एक बार तो बिना उनके यहां भोजन किये जान छुटती ही न थी। उनके परिवार मे मै ही इलाज किया करता था। मैं तो मित्रता का नाता निबाहना चाहता था और उनसे कुछ नही लेना चाहता था, पर वे बिना दिये कभी न रहते थे। वे हमेशा मुझे अपनी औकात और मेरे मिहनताने से अधिक देते रहे। मेरे ऊपर उन्होंने और भी बहुत अहसान किये थे, यहां तक कि रियासत मे मेरी नौकरी उन्होंने लगवाई थी और महाराज आलीजाह की कृपा दृष्टि भी उन्ही की बदौलत मुझ पर थी।

"एक दिन सदा की भाँति वे इसी बैठकखाने में मेरे पास बैठे थे। हम लोग बडे प्रेम से धीरे-धीरे बाते कर रहे थे। वास्तव मे बात यह थी कि मैं उनका बहुत अदब करता था, उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था, फिर मुझ पर तो उनके बहुत से अहसान थे। एकाएक मुझे जरूरी 'कॉल' आ गई। पहले तो सूबेदार साहब को छोड़कर जाना मुझे नहीं रुचा परन्तु जब उन्होंने कहा कि कोई हर्ज नही, आप मरीज को देख आइये, मैं यहा बैठा हूँ तब मैने कहा—'इसी शर्त पर जा सकता हूँ कि आप जायँ नहीं।' तो उन्होंने हँस कर मंजूर किया—और पैर फैलाकर मजे में बैठ गये।

"मैने झटपट कपडे पहिने, स्टेथेस्कोप हाथ में लिया और रोगी देखने चला गया। रोगी का घर दूर न था। झटपट ही उससे निपट कर चला आया। देखा तो सुबेदार साहब सोफे पर पर बैठे मजे से ऊँघ रहे हैं। मैने हँस कर कहा—'वाह, आपने तो अच्छी खासी झपकी लेली।' सूबेदार भी हँसने लगे। हम लोग फिर बैठ कर गपशप उड़ाने लगे।

उसी दिन पाँच बजे मुझे महलों में जाना था। एकाएक मुझे यह बात याद हो आई और मैने अभ्यास के अनुसार मेज़ पर घड़ी को टटोला। तब यह बिल्लौर मेज़ मैने नहीं खरीदी थी, वह जो मेरी आफिस टेबिल है, उसी पर एक जगह यह घड़ी मेरी आँखों के सामने रक्खी रहती थी। परन्तु उस समय जो देखता हूँ तो घड़ी का कहीं पता न था। कलेजा धक से होगया। अपनी बेबकूफी पर पछताने लगा कि इतनी कीमती घड़ी ऐसी अरिक्षत जगह रक्खी ही क्यो? मै तनिक व्यस्त होकर घड़ी को ढूँढने लगा, मेरी घड़ी कितनी बहुमूल्य हैं, यह तो आप जानते ही हैं। सूबेदार साहब भी घबड़ा गये, वे भी व्यस्त होकर मेरे साथ घड़ी ढूँढ़ने मे लग गये। बीच से भांति भांति के प्रश्न करते जाते थे। परन्तु यह निश्चय था कि थोड़ी ही देर पहले जब मै बाहर गया था, घड़ीं वहाँ रक्खीं थी। मैने उसे भली भांति अपनी आँखों से देखा था। पर यह बात मैं साफ साफ सूबेदार साहब से नहीं कह सकता था, क्यों कि वे तो तब से अब तक यही बैठे थे। कहीं वे यह न समझने लगे हमीं पर शक किया जा रहा है। खैर, घड़ी वहाँ न थीं, वह नहीं मिलनीं थी और नहीं मिलीं। मे निराश होकर धम्म से सोफे पर बैठ गया पर ऐसी बहुमूल्य घड़ी गुमा देना और सब्र कर बैठना आसान न था। भांति भांति के कुलावे बांधने लगा। सूबेदार साहब भीं पास आ वैठे और आश्चर्य तथा चिन्ता प्रकट करने लगे। उन्होंने पुलिस से भी खबर करने की सलाह दीं, नौकर चाकरों की भीं छान-बीन की।

परन्तु मेरा सिर्फ एक ही नौकर था। वह बहुत पुराना और विश्वासी नौकर था। गत पन्द्रह वर्षो से वह मेरे पास था, तब से एक बार भी शिकायत का मौका नहीं दिया। फिर इतनी असाधारण चोरी वह करने का साहस कैसे कर सकता था? पर सूबेदार साहब उससे बराबर जिरह कर रहे थे और वह बराबर मेज पर उँगली टेक-टेक कर कह रहा था 'यहाँ उसने झाड़-पोंछ कर घड़ी अपने हाथ से सुबह रक्खी है।' मैं आँखे छत पर लगाये सोच रहा था कि घडी आखिर गई तो कहाँ गई?

एकाएक सूवेदार साहब का हाथ उनकी पगड़ी पर जा पड़ा उसकी एक लट ढीली सी हो गई थी, वे उसी को शायद ठीक करने लगे थे। परन्तु कैसे आर्श्वय की बात है, पगडी के छूते ही वहीं मधुर तान पगड़ी मे से निकलने लगी। पहिले तो मै कुछ समझ ही न पाया। नौकर भी हक्का-बक्का होकर इधर-उधर देखने लगा। सूबेदार साहब के चेहरे पर घबराहट के चिन्ह साफ दीख पड़ने लगे। क्षण भर बाद ही नौकर ने चीते की भाँति छलाँग मारकर सूबेदार साहब के सिर पर से पगड़ी उतार लीं और उससे घड़ी निकाल कर हथेली पर रखकर कहा—'यह रही हजूर आपकी घड़ी। अब आप ही इन्साफ कीजिए कि चोर कौन है?' उसके चेहरे क नसें उत्साह से उमड़ आई थीं और आँखे आग बरसा रही थी। वह जैसे सूबेदार साहब को निगल जाने के लिये मेरी आज्ञा माँग रहा था। सब माजरा मैं भी समझ गया। सूबेदार साहब का चेहरा सफेद मिट्टी की माफिक हो गया था और वे मुर्दे की भाँति आँखे फाड़-फाड़ कर मेरी तरफ देख रहे थे। कुछ ही क्षणों में मैं स्थिर हो गया। मैंने लपक कर खूँटी से चाबुक उतारा और एकाएक पाँच-सात नौकर की पीठ पर जमा दिये। घड़ी उसके हाथ से मैंने छीन ली। इसके बाद जितना क्रुद्ध स्वर बनाया जा सकता था उतना क्रुद्ध होकर मैने कहा—सुअर, इतने दिन मेरे पास रह कर तूने अभी यह नहीं सीखा कि बड़े आदमी का अब कैसे किया जा जा सकता है, क्या दुनिया मे एक मेरे ही पास घड़ी है, सूबेदार साहब के पास वैसी पच्चीस घड़ी हो सकती हैं।

नौकर गाली और मार खाकर चुपचाप मेरा मुँह ताकता रहा। मेरा यह व्यवहार उसके लिये सर्वथा अतकित था। वह एक शब्द भी नही वोला।

इसके बाद मै सूबेदार साहब के पास गया। उनका चेहरा सफेद, मुर्दे के समान हो रहा था, वे आँखे फाड़ फाड़ कर मेरी ओर ताक रहे थे, मैने नम्रता से उनसे कहा, सूबेदार साहब, मेरे नौकर ने जो आपके साथ बेअदबी की है वह उसका कसूरनही है, मेरा है परन्तु पुराने ताल्लुकात और उन कृपाओं का ख्याल करके जो आपने हमेशा मेरे ऊपर की है, मैं आपसे क्षमा की आशा करता हूँ।" यह कहकर मैंने घड़ी उनके हाथ पर रख दी।

सूबेदार साहब ने चुपचाप घड़ी ले ली। और वे यन्त्र चालित से उठकर चुपचाप ही अपने घर को चल दिये। मैं द्वार तक उनके पीछे दौड़ा परन्तु उन्होंने फिर मेरी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा।

मेरा मन कैसा कुछ होगया था कह नही सकता। परन्तु मुझे सहल अवश्य जाना था। और ५ बजने में अब देर नही थी मैंने झटपट कपड़े पहिने और घर से निकला। अभी मैंने गाड़ी मे पैर ही किया था कि सूबेदार साहब का आदमी हांपता हुआ बदहवास सा आया उसने कहा जल्दी चलिए डॉक्टर साहब। सूबेदार साहब ने ज़हर खा लिया है और उनकी हालत बहुत खराब है।"

मैं घबराकर सीधा उनके घर पहुँचा। एक कोहराम मचा था। भीड़ को पार करके मै सूबेदार साहब के पलग के पास गया। अभी वे होश में थे। मुझे देखकर टूटते स्वर मे उन्होंने कहा "घड़ी मैंने आपकी चुराई थी डॉक्टर साहब, परन्तु मेरी इज्जत बचाकर जीवन भर मे जो कुछ मैंने आपकी भलाई की थी उसका पूरा बदला आपने चुका दिया। लीजिए मेरे हाथ से अपनी घड़ी ले जाइये। अब मै जिन्दा नही रह सकता। परन्तु आप इस चोर सूबेदार को भूलियेगा नही। और उसे माफ कर देने की कोशिश कीजिएगा।"

सूबेदार साहब की आँखे उल्टी-सीधी होने लगी। अब वास्तव में कुछ भी नहीं हो सकता था। मैंने चुपके से घडी जेब में डालली, और सब की नजर बचाकर आँखे पोंछ ली। कुछ मिनटों में ही सूबेदार ने दम तोड़ा और मैं जैसे तैसे उनके घरवालों को दम दिलासा देकर डाॅक्टरी गम्भीरता बनाये अपने घर आ गया।

डॉक्टर ने एक गहरी सांस ली और एक बार मित्रों की ओर, और फिर उस घड़ी की ओर देखा। सभी मित्रों की आँखे गीली थीं। और देर तक किसी के मुँह से आवाज़ नहीं निकली।