आवारागर्द
आचार्य चतुरसेन शास्त्री
७ तेरह बरस बाद

दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ ८२ से – ९० तक

 

 

 

तेरह बरस बाद

आम कहावत हैं कि दूसरी पत्नी पति को अधिक प्यारी होती है। कदाचित् इसलिये कि उसमें उल्लास और वेदना एक ही लक्ष्य-बिदु पर संघात खाती है। पति की गदह-पचीसी रफू चक्कर हो जाती है। जीवन की एक असाधारण ठोकर उसे कल्पना, स्वप्न और बाहरी रंगों की दुनिया से उठाकर भीतरी जगत् के सत्यालोक मे पहुंचा देती हैं। वह पत्नी को प्रेयसी समझने की शायद बेबकूफ़ी फिर नहीं कर सकता। जीवन-संगिनी का सच्चा अर्थ टीका और भाष्य-सहित उसकी समझ में आ जाता है। खटपट, मान व्याज-कोप, ऊधम और तमाम चंचल वृत्तियों के प्रोग्राम स्थागित हो जाते हैं, और वह सावधान, गंभीर, स्थिर, केंद्रित और उत्तरदायित्व पूर्ण हो जाता है।

परंतु संगीत में एक साथ मिलकर बजने वाले विविध वाद्य जब तक एक सम पर आकर संघात नहीं खाते, तब तक संगीत का समा नहीं बँधता। सितार और सारंगी, तबला और हारमोनियम, सब के ठाठ जुदा तो हैं, पर उन्हें स्वरलहरी और ताल के साथ विवस होकर मिलकर ही चलना पड़ेगा, तभी तो रसोदय होगा। ठीक उसी प्रकार दांपत्य में भी रसोदय तो तभी होता हैं, जब पति-पत्नी जीवन की प्रत्येक सुक्ष्म और स्थूल क्रियाओं में एकीभूत हों, प्रत्येक सम पर दोनों अभिन्न हो जायँ—सुर से भी और ताल से भी।

उदय और अमला पति-पत्नी थे। जीवन की संगीत-लहरी दोनोंकी हृदय-वीणा के तारों को प्रकपित करती थी, परंतु सम पर आकर दोनो बेसुरे हो जाते थे। ताल-सुर का मेल नहीं खाता था। इससे, सब कुछ ठीक होने पर भी, उस छोटे से दांपत्य-संगीत में रसोदय नहीं हो पाता था। क्यों? सो कहता हूँ। उदय की आयु ३२ साल की थी, और अमला की १८ वर्ष। अमला से उदय का ब्याह हुए केवल १॥ वर्ष बीता था। अमला उदय की दूसरी पत्नी थी।

२८ साल की आयु मे उदय की प्रथम पत्नी का अकस्मात्दे हांत हुआ। प्रमोन्माद की मूच्छितावस्था मे ही जैसे किसी ने उसका सब कुछ अपहरण कर लिया हो। पत्नी की मृत्यु के बाद तुरत ही वह उन्माद उतर गया, और फिर उसने अपने संसार को छिन्न-भिन्न दुर्गम और असह्य पाया। अकस्मात् और असमय की मनोवेदना उसका श्रदीर्घदर्शी जीवन न सह सका, वह वेदना मे विकल हो हाहाकार करने लगा। परंतु जगत् में अंधकार हो या उजाला, उसमे जितनी भी चीजे हैं, वे तो रहती ही हैं। अमला भी जगत् में थीं, वह अदृष्ट-बल से उदय से आ टकराई। और, जब दोनों पति-पत्नी हुए, तो हठात् जीवन की सारी ही विचार-धारा बदल गई। वह भी केवल उदय ही की नहीं, अमला की भी।

अमला सोचती थी, पति एक प्रतिमा हैं; उसमे बहुत से रग भरे हुये हैं। वह एक झूला हैं; अमला जब उसे प्राप्त करेगी, वह उसके सहारे लटक जायगी। अपनी यौवन-भरी ठोकर आघात से पैंग ले-ले झूलेगी। आशा के हरे-भरे सावन मे प्रेम की रिमझिम वर्षा होगी; वह झूलेगी, गावेगी, हँसेगी और विहार करेगी। वह एक बार अपने यौवन, जीवन और स्त्रीत्व को पाने के अर्पण करेगी। और, वह उसे अपने पौरुष, दर्प, प्रेम और आत्मार्पण मे लीन करके उसके नारीत्व को सार्थक करेगा।

ये सब बाते अमला ठीक इसी भाँति सोचती हो, सो नही ये तो बड़ी गहरी बाते हैं। अमला तो जैसे जीवन-पथ पर उछलती चलती थी, वह तो इन सब बातों को ऊपर ही ऊपर सोचती थी। जैसे भूखा आदमी भूख तो अनुभव करता है, पर उसके शरीर में जो भीतर उद्वेग पैदा होता हैं, जिसके कारण भूख लगती हैं, उसे नहीं समझता, उसी तरह अमला अपने मन की उस उमग को तो समझती थी, जो उसके यौवन के प्रभात में पति के सस्मरण से तरंगित होती थी, परतु उसके मूल कारण को नही।

[२]

विवाह के बाद अमला जब ससुराल आई, तो उसे ऐसा मालूम हुआ कि जिस वस्तु के संस्मरण से उसके मन में इतनी उमंगे उठती थी, वह कुछ उतनी प्रिय, आकर्षक और उसके उतनी निकट नहीं हैं, जितनी उसे होना चाहिए था। वह क्षणभर ही में अपने को उस अपरिचित घर में कुछ अपरिचित-सी देखने लगी। पति को देखकर वह कुछ सहम सी गई। उसने देखा, वह कुछ उल्लसित नहीं हैं। अमला की चंचलता और उमंग को उद्रेक करने की उनकी कुछ भी चेष्टा नहीं हैं उनकी आँखों में प्यार की वह छलछलाती चमक नहीं। उनमें एक विचार धारा-सी, एक विस्मृति-सी है। जैसे अमला को हिफ़ाज़त से अपने घर में धरकर वह कुछ निश्चित से हो गए हैं। रह-रहकर अमला के मन में यह होता था कि वह उसके पति नहीं हैं। पति का नाम मन में उदय होते ही जो रोमांचकारी परिवर्तन उसके शरीर में होता था, वह उन्हें देखकर नही होता था।

घर में और भी औरतें थीं। दो ननँदे थीं—एक विधवा, एक कुँआरी। एक जिठानी थी, एक सास। इन के सिवा कुछ दिन तो पास-पड़ोसिनों का तोता बँधा रहा। उन सब ने बारीक नज़र से अमला को देखा, जैसे कोई भूली चीज़ पहचानी जा रही हो—चोरी के माल की शिनाख्त हो रही हो। अमला को यह सब बहुत बुरा लगा। उसे देख-देख कर जो औरते चुपचाप संकेत का एकाध वाक्य कहती थी, पास-पड़ोसिने उसकी सास को जिन शब्दों में बधाई देती थीं, उन सबसे तो खीझकर अमला रोने लगी। उसने सोचा, जैसे मैं मोल खरीदा वर्तन हूँ, हर कोई ठोक-बजाकर देखता हैं कि ठीक है या नही? तब इस सब अप्रिय वातावरण में एक प्रिय वस्तु थी, वह उसकी कुमारी छोटी ननँद कुंद। वही सब से पहले पालकी में अमला के पास घुस बैठी थी। वही अमला का घूँघट हटाकर हँसी थी। वही उसका आँचल पकड़ घर मे खींच लाई थी। वही दिन-भर अमला के पास रहकर पल-पल में उसे खाने-पीने, सोने-बैठने को पूछ रहीं थी। वह एक प्यारी-सी तितली थी। अमला ने देखा, जैसे वह कुछ उसी का ज़रा गोरा एक संस्करण है। अभी दो दिन पहले पिता के घर में अमला ऐसी ही तो थी। जो हो, अमला की सबसे प्रथम घनिष्ठता कुंद से हुई। कुंद का आसरा लेकर अमला उस घर मे रहने लगी। धीरे-धीरे सब कुछ सात्म्य हो गया। सब कुछ सम हो गया। अमला ने सास की सुजन मूर्ति को समझ लिया, पति के सौजन्य को भी जान लिया। पति-पत्नी आशातीत ढग से झटपट ही पुराने होने लगे। उनके जीवन मे गदह-पचीसी के विनोद, भूले, मान-मनौवल, रूठना, विवाद बहुत कम आते। अमला ने पति के शुद्ध, गंभीर प्रेम को पहचान लिया। पति को देखकर लाज से सिकुड़ना झटपट ही समाप्त हो गया। हास-विनोद का अध्याय बहुत कम पढ़ा गया। वह जैसे कुछ महीनों ही गृहिणी बन गई। अब वह पति को देखते ही उनकी आवश्यकताओं का ध्यान करने लगी। वह दिन-भर खटपट में लगी रहती। बातचीत जब दोनों की होती, किसी-न-किसी कार्य -वश।

जैसे पाल में झटपट पकाए फलों का स्वाद डाल से टूटे ताज़े फलों-जैसा न होकर कुछ कृत्रिमसा होता है, वैसे ही असमय में इस पति-पत्नी की दायित्व पूर्ण घनिष्ठता ने अमला को अस्वाभाविक गंभीर और अपनी समस्त आयु और स्थिति से कहीं बहुत अधिक कृत्रिम बना दिया। इसका सबसे बड़ा असर अमला ही पर पड़ा। उसके शरीर और मन दोनों ही का विकास रुक गया। पति के घर में रहने को, उसे अपना मानने को जैसे, उसे विवश किया गया हो। वहाँ की दीवारे, कमरे, सामान, बिछौने, कपड़े, सभी कुछ अपरिचित से उसे प्रतीत होने लगे। सास, ससुर, देवर और पति भी जैसे उसे कर्तव्य-वश अपने समझने पड़े।

उदय की परिस्थिति कुछ और ही थी। जैसे फाँसी की आज्ञा पाने पर कोई अपील में छूट जाय, ठीक उसी भाँति अमला को फिर से पत्नी रूप में पाकर वह केवल संतोष की एक गहरी साँस ले सके थे। अमला के प्रारंभिक उल्लास और नवीन जीवन की ओर उन्होने दृष्टि-पात ही नहीं किया। और, इसी से, बिना खाद-पानी के पौदे की भाँति, वह मुर्झाकर सुख भी गया। परन्तु उदय के लिये मानो सब एकरस था। अमला की यह परिवर्तित, फीकी मनोवृत्ति जैसे उनके लिये सात्म्य हो गई थी। फिर भी अमला के प्रति एक उत्सुकता, प्रेम और सहानुभूतिमयी भावना उदय के मन में थीं। अमला को किसी भाँति की कोई तकलीफ न रहने पावे, इस संबंध में उदय खूब ही सचेष्ट थे।

विवाह के डेढ़ वर्ष बाद अमला ने एक पुत्री प्रसव की। कन्या अतीव सुँदरी, सुमुखी और आकर्षक थी। उसके जन्म से अमला और उदय दोनों ही बहुत प्रसन्न हुए। यह नन्ही सी बच्ची अपने छोटे-से दूध के समान स्वच्छ पालने पर पड़ी चुपचाप अंगूठा चूसती, छू देने से हँसती, और पास जाने पर निर्मल नेत्रों से देखती रहती। वह अपनी अज्ञात भाषा मे अपने पास आनेवालों से कुछ बातचीत भी किया करती। देखते-देखते वह बड़ी होने लगी।

नन्ही की पहली वर्ष-गाँठ का दिन था। उदय उन आदमियो मैं न थे, जो कन्या जन्म को पुत्र-जन्म से कम समझते हैं। उन्होंने बड़ी धूम-धाम से उसकी प्रथम वर्ष गाँठ मनाई। मित्रों और परिजनों से घर भर गया। भाँति-भाँति के भोजनों और मनोविनोद के सामानों से आगंतुकों का स्वागत किया गया। अपनी-अपनी भेट और बच्ची हो आशीर्वाद देकर जब मेहमान बिदा हो गए, तो उदय बहुत-सी सटर-पटर चींजे नन्ही के लिए खरीदकर, हँसते हुए, घर आए। उनकी आँखों में हँसी थी, और दिल में चुहल। अमला के नव-वधू होकर घर आने पर भी वह चुहल उदय के मन में नहीं उदय हुई थी। अमला उन उल्लासयुक्त आँखों को देखती ही रह गई। परन्तु उदय की दृष्टि अमला की ओर नहीं थी। वह नन्ही की ओर उत्साह से देख रहे थे। अकस्मात् नन्ही के सिरहाने रक्खी एक गुड़िया पर उनकी दृष्टि पड़ी। वह भौंचक-से उस गुड़िया की ओर एकटक कुछ देर देखते उस गुड़िया की ओर पागल की तरह ताकते देख अमला से न रहा गया। उसने पूछा—"इसे इस तरह क्यों तक रहे हो?"

"यह गुड़िया यहाँ आई कहाँ से?"

"कहीं से आई, तुम्हें मतलब?"

"मतलब बहुत हैं। इस गुड़िया को मैं पहचानता हूँ।"

"तुम?"

"हाँ, यही वह गुड़िया हैं। तुम्हारे पास कहाँ से आई?"

"मेरे पास यह बहुत दिन से हैं।"

"कितने दिन से?"

"जब मैं बहुत नन्ही थी, तब से।"

"कहाँ से आई?"

"एक बहुत अच्छे आदमी थे, उन्होंने दी थी।"

"तुम्हें दी थी—अमला? तुम क्या कह रही हो?"

"मुझे याद हैं, उन दिनों मै बहुत छोटी थीं।"

"तुम?"

"हाँ, वह मुझे गोद में खिलाते थे। पेट पर उछालते थे। मेला दिखाने ले जाते थे। अंधा घोड़ा बनते थे। वह बहुत अच्छे थे?"

"अमला!" उदय उन्मत्त हो रहे थे, उन्होंने कहा—"कहाँ की बात है यह?"

"मेरे नाना के घर की।"

"तुम्हारे पिता तो लाहौर में हैं?"

"पर मै बचपन मे नाना के घर बहुत दिन रही थी—वह इंजीनियर थे, और जंगल मे नहर पर रहते थे।"

"अमला, तुम मुझे पागल कर दोगी। तो वह अच्छे आदमी कौन थे?"

"यह याद नहीं। नाना के पास आते थे। मेरे लिये मिठाई लाते थे। एक दिन वह यह गुड़िया लाये थे, फिर नहीं आए। मैं पिताजी के यहाँ चली आई।"

"ओह, वह नन्ही-सी नटखट लड़की तुम हो अमला! तब तो तुम बहुत ही हँसती थीं। उन्होंने अमला के दोनो हाथ पकड़कर पास खींच लिया।"

अमला अचरज भरी दृष्टि से देखने लगी। उदय ने कहा—"उन अच्छे आदमी को तुमने कभी याद नहीं किया अमला?" अमला कुछ-कुछ समझ गई थी। यह आँखे फाड़-फाड़कर पति की आँखों में छिपी उस विस्मृत, चिर-परिचित दृष्टि को पहचानने की चेष्टा कर रही थी। उसने प्रकंपित स्वर मे कहा—"तो क्या सचमुच.."

"अमला, तुमने तो खूब ढूँढ़ लिया मैं सोचता रहता था कि वह बालिका भी अब बड़ी हो गई होगी, अपने घर-बार की होगी। सो तुम बड़ी हो गई। अपने घर-बार की हो गई। तुम्हारे खेलने की यह सजीव गुड़िया तुम्हें मिल गई, सो तुमने अपनी बचपन की गुड़िया इसे दे डाली।"

दोनो चुपचाप कुछ देर अवसन्न खड़े रहे। तेरह वरस पूर्व की विस्मृत-सी बातें वे खूब ध्यान से याद कर रहे थे। उदय सोच रहे थे, कैसी विचित्र बात हैं कि जिस बालिका को मैंने घुटनों पर खिलाया, वही व मेरी अर्धाङ्गिनी और जीवनसंगिनी हैं। अमला सोच रही थी, वाह! यह तो खूब रही। जब मैं नन्ही सी बच्ची थी, तब यह इतने बड़े थे, अब मैं इनके बराबर हो गई।

समय और परिस्थिति ने क्या घटना उपस्थित कर दी। दोनो सोचने लगे। दोनो की दृष्टि उस बालिका पर पड़ी, जो पालने में अँगूठा चूस रही थी। एक बार दोनो ने एक दूसरे को देखा, और फिर हँस दिए।

इस बार फिर दोनो भली भांति एक हुए। न मालूम क्यों? समाज और धर्म के विधान पति-पत्नी होने पर भी उन्हें उतना निकट न ला सके थे, जितना वे अब मधुर, किंतु विस्मृत और असम बाल्य-स्मृति से निकट आ गए।