आवारागर्द/४-मरम्मत
मरम्मत
"दशहरे की छुट्टियों मे भैया घर आ रहे हैं, उनके साथ उनके एक मित्र भी हैं, जब से यह सूचना मिली है घर भर मे आफत मची है। कल दिन भर नौकर-चाकरों की कौन कहे, घर के किसी भी आदमी को चैन नही पड़ा। दीना की माँ को चार दिन से बुखार आ रहा था, पर उस बेचारी पर भी आफत का पहाड़ टूट पड़ा। दिन भर ग़रीब चूल्हे पर बैठी रही। कितने पकवान बनाये गये, कितनी जिन्स तैयार की गई है बापरे। भैया न हुए भीमसेन हुए। दुलारी उनके लिए और उनके उन निखट्ट दोस्त के लिए कमरा झाड़ रही है , रामू और रग्घू वहाँ रूमाल, तौलिए, सुराही, चाय के सेट, चादर, बिछौने और न जाने क्या-क्या सरंजाम जुटाते रहे। रात भर खट-खट रही। अभी दिन भी नहीं निकला और बाबू जी ऑगन मे खड़े गर्ज रहे हैं। सईस को गालियां सुनाई जा रही हैं, 'अभी तक गाड़ी स्टेशन पर नही गई। फिटिन भी जानी चाहिए और विक्टोरिया भी। कहो जी, अकेला सईस दो दो गाड़ियां कैसे ले जायगा, फिर भैया ऐसे कहां के लाट साहेब हैं, एक गाड़ी क्या काफी नहीं? उनके वे दोस्त भी कोई आवारागर्द मालुम देते हैं, छुट्टियों में अपने घर न जा कर पराए घर आ रहे हैं, ईश्वर जाने उनका घर है भी या नहीं।"
रजनी आप ही आप बड़बड़ा रही थी। सूरज निकल आया था, धूप फैल गई थी, पर वह अभी बिछौने ही पर पड़ी थी। उसके कमरे मे कोई नौकर-नौकरानी नहीं आई थी, इसी से वह बहुत नाराज हो रही थी। एक हल्की फीरोजी ओढ़नी उसके सुनहरे शरीर पर अस्त-व्यस्त पड़ी थी, चिकने और घूंघर वाले बाल चाँदी के समान मस्तक पर बिखर रहे थे। बड़ी बड़ी आंखे भरपूर नींद का सुख लूट कर थोड़ी लाल हो रही थी। गुस्से से उसके होठ सम्पुटित थे, भौहो मे बल थे, वह पलग पर औधी पड़ी थीं। एक मासिक पत्रिका उसके हाथों में थी। वह तकिये पर छाती रक्खे अनमने भाव से उसके पन्ने उलट रही थी।
रजनी की माँ का नाम सुनन्दा था। खूब मोटी ताजी, गुद-गुढ़ी ठिगनी स्त्री थी। जब वे फुर्ती से काम करतीं तो उनका गेढ़ की तरह लुढ़कना एक अजब बहार दिखाता था। वह एक अच्छी सुगृहिणी थी, दिन भर काम मे लगी रहती थी। उनके हाथ बेसन में भरे थे और पल्ला धरती मे लटक रहा था। उन्होंने जल्दी-जल्दी आकर कहा "वाह री रानी बेटी तेरे ढङ्ग तो खूब हैं| भैया घर मे आरहे हैं, दस काम अटके पड़े है और रानी जी पलंङ्ग पर पड़ी किताब पढ़ रही हैं। उठो जरा, रमिया हरामजादी आज अभी तक नही आई। जरा गुसलखाने मे धोती, गमछा, साबुन सब सामान ठिकाने से रख दो—भैया आकर स्नान करेंगे। उठ तो बेटी। अरी पराये घर तेरी कैसे पटेगी?"
रजनी ने सुनकर भी माँ की बात नहीं सुनी, वह उसी भाँति चुपचाप पड़ी रही। गृहिणी जाती-जाती फिर रुक गई। उसने कहा "रजनी सुनती नहीं, मै क्या कह रहीं हूँ। भैयाॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱ
रजनी गर्ज उठी "भैया—जब देखो भैया, भैया आ रहे हैं। तो मै क्या करू? छत से कूद पड़ूँ? या पागल होकर बाल नोंच डालूँ? भैया आरहे हैं या गाँव मे शेर घुस आया है। घर भर ने जैसे धतूरा खा लिया हो। भैया आते हैं तो आवे? इतनी आफ़त क्यों मचा रखी है।"
क्षण भर को गृहिणी अवाक हो रही, उसने सोचा भी न था कि रजनी भैया के प्रति इतना विद्रोह रखती है। भैया तो हर बार ही पत्र में रजनी की बात पूछता है। आने पर वह अधिक देर तक उसी के पास रहता है, बाते करता है, प्यार करता है। उसने क्रुद्ध दृष्टि से पुत्री की ओर देख कर कहा "भैया का आना इतना दुख रहा है रजनी!"
"भैया का आना तो नही, तुम लोगों की यह हाय-हाय जरूर दुख रही है।"
"क्यों दुख रही है री?"
"भैया घर में आ रहे हैं तो इतनी उछल कूद क्यों हो रही है?"
"भैया घर में आरहे हैं, तो हो नही? क्या मेरे दस-पाँच हैं? एक ही मेरी आँखों का तारा है। छः महीने में आरहा है। परदेस मे क्या खाता-पीता होगा, कौन जाने। उसे बड़ियाँ बहुत भाती हैं, मेरे हाथ की कढ़ी बिना उसे रसोई सूनी लगती है, आलू की कचौरी का उसे बहुत शौक है, यह सब इसी से तो बना रही हूँ। फिर इस बार आ रहे हैं, उनके कोई दोस्त। किसी रईस के बेटे होंगे। उनकी खातिर न करू?"
"करो फिर। मेरा सिर क्यों खाती हो?”
में सिर खाती हूँ, अरी तेरा सिर तो इन किताबों के ही खा डाला। मां को ऐसे ज़वाब देती है। दोपहर होगया, पंलग से नीचे पैर नही देती। भैया के आने से पहिले माथे पर बल पड़ गये हैं।"
रजनी ने वक्र दृष्टि से माँ की ओर देखकर गुस्से में आकर छाती के नीचे का तकिया दीवार मे दे मारा, मासिक पत्रिका फेक दी। उसने तीखी वाणी से कहा—"मै भी तो आई थी छः महीने मे, तब तो इतनी धूम नही हुई थी।"
"तू बेटी की जात है—बेटी-बेटा क्या बराबर हैं?"
"बराबर क्यों नही हैं?"
"अब मै तुझसे मुँहजोरी करू कि काम?"
"काम करो। बेटियां पेट से थोड़ी पैदा होती हैं। घूरे पर से उठा कर लाई जाती हैं। उनकी प्रतिष्ठा क्या, इज्ज़त क्या, जीवन क्या? मर्द दुनियां मे बड़ी चीज है। उनका सर्वत्र स्वागत है।" रजनी रूठ कर शाल को अच्छी तरह लपेट कर दूसरी ओर मुंह करके पड़ रही, गृहिणी बकझक करती चली गई।
(२)
उनका नाम था राजेन्द्र और उनके मित्र का दिलीप। दोनों मित्र एम° ए° फ़ाइनल में पढ़ रहे थे। ९ बजते-बजते दोनों मित्रों को लेकर फिटिन द्वार पर आ लगी। घर मे जो दौड़-धूप थी वह और भी बढ़ गई। पिता को प्रणाम कर राजेन्द्र मित्र के साथ घर मे आये। माता ने देखा तो दौड़ कर ऐसी लपकी जैसे गाय बच्चे को देख कर लपकती है। अपने पुत्र को छाती से लगा अश्रु मोचन किया। मुख, सिर, पीठ पर हाथ फेरा। पत्र न भेजने के, अम्मा को भूल जाने के दो चार उलाहने दिये। राजेन्द्र ने सब के बदले में हँस कर कहा "देखो अम्मा, इस बार मैने खूब दूध मलाई खाई है, मै कितना तगड़ा हो आया हूँ। इस दिलीप को तो मै योंही उठा कर फेक सकता हूँ।
गृहिणी ने इतनी देर बाद पुत्र के मित्र को देखा। दिलीप ने प्रणाम किया, गृहिणी ने आशीर्वाद दिया। इसके बाद उसने कहा, 'बैठक मे चल कर थोड़ा पानी पी लो, पीछे और बाते होंगी।' राजेन्द्र ने पूछा "वह लोमड़ी कहाँ है—रजनी?" वह ठहाका मारकर हँस दिया। "वह अपने कमरे मे होगी।" माता ने उदासी से कहा। "आओ दिलीप मै तुम्हें लोमड़ी दिखाऊँ।" कह कर उसने मित्र का हाथ खीच लिया, दोनों जीने पर चढ़ गये। गृहिणी रसोई में चली गई।
राजेन्द्र ने रजनी की कोठरी के द्वार पर खडे होकर देखा, मुँह फुलाये कुर्सी पर बैठी है। घर के आनन्द-कोलाहल से उसे जो, विरक्ति हो रही थी वह अभी भी उसके मुख पर थीं। अब एका-एक भाई और उसके मित्र को भीतर आते देख कर वह उठ खड़ी हुई। उसने मुस्कराकर भाई को प्रणाम किया।
राजेन्द्र ने आगे बढ़ कर उसके दोनों कंधे झकझोर डाले, फिर दिलीप से कहा—"दिलीप, यही हमारी लोमडी है। इसके सब गुण तुमको भी मालूम नही। सोने मे कुम्भकरण, खाने मे भीमसेन, लड़ने से सूर्पनखा, और पढ़ने में बण्टाढ़ार। पर न जाने कैसे बी° ए° में पहुँच गई। इस साल यह बी° ए° फ़ाइनल में जा रही है। क्लास में सदा प्रथम होकर प्रोमोशन पाती रही है।"
दिलीप ने देखा एक चम्पक वर्णी सुकुमार किशोरी बालिका जिसका अल्हड़पन उसके अस्त-व्यस्त वस्त्रों और बालों से स्पष्ट हो रहा है, राजेन्द्र ने कैसी कदर्य व्याख्या की है। भाई बहिन का दुलार भी बड़ा दुर्गम है। वह शायद गाली-गुफ्ता धौल-धप्पा से ही ठीक ठीक अमल में लाया जा सकता है।
दिलीप आश्चर्य चकित होकर रजनी को देख कर मुस्करा रहे थे। उन्हें कुछ भी बोलने की सुविधा न देकर राजेन्द्र ने रजनी की ओर देख कर कहा—"और यह महाशय, मेरे सहपाठी, कहना चाहिये मेरे शिष्य हैं, रसगुल्ला खिलाने और रसगुल्ले से भी मीठी गप्पे उड़ाने में एक है। जैसी तू पक्की लोमड़ी है वैसे ही यह पक्के गधे हैं। मगर यूनीवर्सिटी की डिगरी तो लिये ही जाते हैं खाने-पीने मे पूरे राक्षस हैं। ज़रा बन्दोवस्त ठीक ठीक रखना।"
राजेन्द्र ही-ही कर हँसने लगा। फिर उसने दिलीप के कंधे पर हाथ रख कर कहा—"दिलीप, रज्जी हम लोगो की बहिन है, ज्यादा शिष्टाचार की जरूरत नही, बैठो और बेतकल्लुफ 'तुम' कह कर बातचीत करो।"
जब तक राजेन्द्र कहता रहा रजनी चुप चाप सिर नीचा किये सुनती रही, एकाध बार वह मुस्कराई भी, पर एक अपरचित युवक के सामने इतनी घनिष्टता पसंद नही आई।
दिलीप ने कहना शुरू किया—"रज्जी, तुम्हारा परिचय पाकर मुझे बड़ा आनन्द हुआ। राजेन्द्र ने बार-बार तुम्हारी मुक्त कण्ठ से प्रशंशा की थी। अब मुझे यहाँ खींच भी लाये। बड़े हर्ष की बात है कि तुम अपने कालेज में प्रथम रहती रही हो तुम नारी-रत्न हो, मैं तुम्हें देखकर बहुत प्रभावित हुआ हूँ।"
रजनी ने उनका उत्तर न देकर केवल मुस्करा भर दिया, फिर उसने भैया से कहा "जलपान नहीं हुआ न, यही ले आऊँ?" वह जाने लगी तभी दुलारी ने आकर कहा—"भैया, जलपान बैठक मे तैयार है।"
राजेन्द्र ने कहा—"यहीं ले आ। तुम ठहरो रजनी, दुलारी ले आवेगी।"
तीनों के बैठ जाने पर राजेन्द्र ने कहा—"रजनी अभी तक तुम अपने कमरे में क्या कर रही थीं?"
"मै विद्रोह कर रही थी।" रजनी ने तिरछी नजर से भाई को घूर कर और ओठों पर वैसी ही मुस्कान भर कर कहा।
"बाप रे, विद्रोह, जरा सोच समझ कर कोई बात कहना, दिलीप के पिता सी° आई° डी° के डिप्टी सुपरिटेण्डेण्ट है।"
"मै तो खुला विद्रोह करती हूँ, गुप्त षडयन्त्र नहीं।"
"किसके विरुद्ध यह खुला विद्रोह है?"
"तुम्हारे विरुद्ध।"
"मेरे विरुद्ध? मैंने क्या किया है।"
"तुम पुरुष हो न?"
"इस मे मेरा क्या अपराध है, मुझे रजनी बनने में कोई उज्र नही, यदि तुम राजू बन जा सको।"
"मै पुरुष नहीं बनना चाहती, पुरुषो के विरुद्ध विद्रोह किया चाहती हूँ।"
"किसलिये?"
"इसलिये कि पुरुष क्यों सब बातों में सर्व-श्रेष्ठ बनते हैं, स्त्रियां क्यों उनसे हीन समझी जाती हैं?"
दिलीप अब तक चुप बैठा था, अब वह जोश में आकर हथेली पर मुक्का मार कर बोला "ब्रेवो, रज्जी मै तुम्हारे साथ हूँ।"
"मगर मै तुम दोनों का मुकाबिला करने को तैयार हूँ।"
"पुरुष श्रेष्ठ हैं और श्रेष्ठ रहेंगे।" राजेन्द्र ने पैंतरा बदल कर नकली क्रोध और गम्भीरता से कहा। फिर उसने जरा हँस कर कहा "मगर यह विद्रोह उठा कैसे रजनी?"
रज्जी ने नथुने फुला और भौहों मे बल डाल कर कहा—"कल से अम्माँ ने और बाबू जी ने घर भर को सिर पर उठा रक्खा है। पचास तो पकवान बनाये हैं, रात भर खट-खट, खट-खट रही। नौकर-चाकरों के नाक में दम। भैया आ रहे हैं, भैया आ रहे हैं। मै भी तो आती हूँ, तब तो कोई कुछ नही करता। तुम पुरुष लोगों की सब जगह प्रधानता है, सब जगह इज्जत। मै इसे नहीं सहन करूँगी।" रजनी ने खूब जोश और उबाल में आकर ये बातें कहीं।
सब कैफियत सुनकर राजेन्द्र हँसते हँसते लोट-पोट हो गये। उन्होंने कहा, ठहर, मे अभी तेरा विद्रोह दमन करता हूँ। वे दौड़ कर नीचे गये और क्षण भर ही मे एक बड़ा सा बण्डल ला उसे खोल उसमे से साड़ियाँ, कड़े, लेवेन्टर, सेन्ट, क्रीम और न जाने क्या-क्या निकाल-निकाल कर रजनी पर फेकने लगे। यह सब देख रजनी खिलखिला कर हँस पड़ी। विद्रोह दमन होगया।
दुलारी जलपान ले आई। तीनो बैठकर खाने लगे। राजेन्द्र ने कहा—"कहो विद्रोह कैसे मजे मे दमन हुआ?"
"वह फिर भड़क उठेगा।"
"वह फिर दमन कर दिया जायगा।"
"पर इस दमन मे कितना गोला बारूद खर्च होता है?"
"दमन करके शान भी कितनी बनती है।"
एक बार फिर तीनों प्राणी ठहाका मार हँस दिये। जलपान समाप्त हो गया।
(३)
"दिलीप बाबू और रजनी मे बड़ी जल्दी पट गई। राजेन्द्र बाबू तो दिन भर गाँव का, जि़मीदारी का, खेतों का मटरगश्त लगाते और दिलीप महाशय लाइब्रेरी मे आराम-कुर्शी पर रजनी की प्रतीक्षा मे पड़े रहते। अवकाश पाते ही रजनी वहाँ पहुंच जाती। उसके पहुँचते ही बडे जोर-शोर से किसी सामाजिक विषय पर विवाद छिड़ जाता, पर सब से प्रधान विषय तो होता था स्त्री-स्वतन्त्रता। इस विषय पर दिलीप महाशय रजनी का विरोध नहीं करते थे, प्रश्रय देते थे और यदि बीच मे राजेन्द्र आ पड़ते तो उनसे जब रजनी का प्रबल वाग्युद्ध छिड़ता तो दिलीप सदैव रजनी ही को बढ़ावा देते रहते। तब क्या राजेन्द्र दकियानूसी विचारों के थे? नहीं, वे तो केवल विवाद के लिए विवाद करते थे। भाई बहिन से प्रगाढ़ प्रेम था। रजनी को राजेन्द्र प्राण से बढ़कर मानते। यह बात दिलीप के मन में घर कर गई। राजेन्द्र एक सच्चे, उदार और पवित्र विचारों के युवक थे, और रजनी एक चरित्रवती-सतेज बालिका थी। शिक्षा से उसका हृदय उत्फुल्ल था, उसके उज्जवल मस्तक पर प्रतिभा का तेज या, वह जैसे भाई के सामने निस्संकोस भाव से आती जाती, हँसती, रूठती, भागती, दौड़ती, बहस करती और बिगड़ती थी, उसी भाँति दिलीप के सामने भी। वह यह बात भूल गई थी कि दिलीप कोई बाहर का आदमी है।
परन्तु दिलीप के रक्त की उष्णता बढ़ रही थी। उसकी आँखों में गुलाबी रङ्ग रहा था। वह अधिक से अधिक रजनी के निकट रहना, उसे देखना और उसकी बाते सुनना चाहता था। उसकी यह अनुराग और आसक्ति रजनी पर तुरन्त ही प्रकट हो गई। वह चौकन्नी हो गई। वह एक योद्धा-प्रकृति की लड़की थी। ज्योंही उसे यह पता चला कि भैया के यह लम्पट मित्र प्रेम की लहर से आ गये हैं, उसने उन्हें जरा ठीक तौर पर पाठ पढ़ाने का निश्चय कर लिया। काँलेज और बोर्डिङ्ग में रहने वाले छात्रों की लोलुप और कामुक प्रकृति का उसे काफ़ी ज्ञान था। वह स्त्री-जाति की रक्षा के प्रश्न पर उसकी स्वाधीनता के प्रश्न पर विचार कर चुकी थी। वह इस निर्णय पर पहुँच चुकी थी कि स्त्रियों को अपने सम्मान की रक्षा के लिए सर्दों का आसरा नहीं तकना चाहिए। वह जब भाई से इस विषय पर जोर-शोर से विवाद करती थी, तब आवेश मे उसका मुँह लाल हो जाता था। राजेन्द्र को तो उसे इस प्रकार उत्तेजित करने मे आनन्द आता था, किन्तु दिलीप महाशय अकारण ही उसका समर्थन करते-करते कभी-कभी तो अपना व्यक्तित्व ही खो बैठते थे।
रजनी ने उन महाशय को प्रेम का खरा सबक सिखाने का पक्का इरादा कर लिया। ये स्कूल काँलेज के गुण्डे लड़कियो कों मिठाई से ज्यादा कुछ समझते ही नही। देखते ही उनकी लार टपक पड़ती है, वे निर्लज्ज की भाँति उनकी मिलनसारी, उदारता और कोमलता से लाभ उठाते हैं। रजनी होठ काटकर यह सोचने लगी कि आखिर ये पुरुष स्त्रियों के अपमान का ऐसा साहस ही किस लिये करते है। स्त्रियों के सामने जमनास्टिक की कसरत सी करना तो इन लफग्ड़ों का केवल नाटक है। रजनी देख चुकी थी कि उसे अपने कालेज जीवन मे इन उद्दण्ड युवकों से कितना कष्ट भोगना पड़ा था—वे पीठ पीछे लड़कियों के विषय मे कितनी मनमानी अपमान-जनक वाते किया करते है। उनकी मनोवृत्तियाँ कितनी गन्दी होती हैं। उसने पहचान लिया कि भैया के मित्र भी उसी टाइप के है। और उनकी अच्छी तरह मरम्मत करके उनके इस टपकते हुए प्रेम को हवा कर देने की उसने प्रतिज्ञा कर ली। उसने अपनी सहायता के लिए घर की युवती दासी दुलारी को मिलाकर सब प्रोग्राम ठीक-ठाक कर लिया।
(४)
उस दिन राजेन्द्र पिता के साथ देहात में जमींदारी की कुछ जरूरी झंझट सुलझाने गये थे। घर मे गृहिणी, नौकर-नौकरानी ही थीं, गृहिणी पुत्री को इतना स्वतन्त्र देखकर बड़बड़ाती तो थी, पर कुछ रोक-टोक नहीं करती थी। दिलीप के साथ रजनी निस्सङ्कोच बाते करती है, बैठी रहती हैं, ताश खेलती है, चाय पीती है, इन सब बातों को उसका मन सहन कर गया था। वह साधारण पढ़ी-लिखी स्त्री थी, पर पुत्री ने कालेज की शिक्षा पाई है यह वह जानती थी, डरती भी थी। फिर रजनी सुनती किसकी थी।
दिलीप को राजेन्द्र ने साथ ले जाने की बहुत जिद की थीं, पर वे बहाने बनाकर नहीं गये। जब वे बहाने बना कर असमर्थता दिखा रहे थे तब रजनी उनकी ओर तिरछी दृष्टि करके मुस्कुरा रही थी। उसका कुछ दूसरा ही अर्थ समझ कर दिलीप महाशय आनन्द-विभोर हो रहे थे। प्रगल्भा रजनी अपनी इस विजय पर मन ही मन हँस रही थी।
दिन भर मिस्टर दिलीप ने बेचैनी मे व्यतीत किया। उस दिन उन्होंने अनेक पुस्तकों को उलट-पुलट डाला। मन के उद्वेग को शमन करने और सयत रहने के लिए उन्होंने बड़ा ही प्रयास किया। अन्ततः उन्होने खूब सोच-समझ कर रजनी को एक पत्र लिखा।
रजनी उस दिन उनका दिल जलाने को दो-चार बार उनके कमरे में घूम गई। एकाध बार वचन-वारण भी मारे, मुस्कुराई भी। बिल्ली जिस प्रकार अपने शिकार को मारने से प्रथम खिलाती है, उसी भाँति रजनी ने भी महाशय जी को खिलाना शुरू कर दिया।
दुलारी बड़ी मुँहफट और ढीठ औरत थी। रजनी का सङ्केत पा वह जब-तब चाहे जिस बहाने उनके कमरे में जा एकाध फुलझड़ी छोड़ आती। एक बार उसने कहा—"आज भैया नहीं हैं, इसलिए जीजी ने कहा है आपकी खातिरदारी का भार उन पर है। सो आप सङ्कोच न करे जिस चीज़ की आवश्यकता हो कहिए मै हाज़िर करूँ, जीजी का यही हुक्म है।"
मिस्टर दिलीप ने मुस्कुरा कर कहा—"तुम्हारी जीजी इस तुच्छ परदेशी का इतना ख्याल करती है—इसके लिए उन्हे धन्यवाद देना।"
दुलारी ने हँसकर और साड़ी का छोर आगे बढ़ाकर कहा "बाबू जी हम गॅवार दासी यह बात नही जानतीं, यह तो आप ही लोग जानें—कहिए तो मै जीजी को बुला लाऊँ आप उन्हें जो कहना हो कहिए।"
दिलीप हँस पड़े। उन्होंने कहा—"तुम बड़ी सुघड़ औरत हो।"
दुलारी ने साहस पाकर कहा—"बाबूजी आप हमे अपने घर ले चलिए, बहूजी की खिदमत करके दिन काट दूँगी।"
दिलीप महाशय ने ज़ोर से हँसकर कहा—"मगर बहूरानी भी तो हों, अभी तो हम ही अकेले हैं।" इस पर दुलारी ने कपार पर मौहें चढ़ाकर कहा—बाप रे, ग़जव है, आप बड़े लोंगो की भी कैसी बुद्धि है। भैया भी क्वॉरे, जीजी भी क्वॉरी, आप भी क्वांरे।"
भूमिका आगे नही चली। गृहिणी ने दुलारी को बुला लिया। रजनी ने सब सुना तो मुस्कुरा दिया।
दोपहर की डाक आई। दुलारी ने पूछा, जीजी की कोई चिट्ठी है। दिलीप ने साहस पूर्वक मासिक पत्रिकाओं तथा चिट्ठियों के के साथ अपनी चिट्ठी भी मिला कर दुलारी के हाथ भीतर भेज दीं और श्रव वह धड़कते कलेजे से परिणाम की प्रतीक्षा करने लगे।
(५)
पत्र को पढ़कर रजनी पहिले तो तनिक हँसी। फिर तुरन्त हीं क्रोध से थर थर कांपने लगी। पत्र मे कवित्व पूर्ण भाषा मे प्रेम के ज्वार का वर्णन किया गया था। एकाएक उनके मन में जो प्रेम रजनी के लिये उदय हुआ और वे रजनी के प्रति कितने आकृष्ट हुए यह सब उसमे लिखा था। वे रजनी के बिना जीवित नही रह सकेंगे। विरक्त हो जायंगे या जहर खा लेगे, यह भी लिखा था। अन्त मे हाथ जोड़ कर सब बाते गोपनीय रखने की प्रार्थना भी की थी।
पत्र पढ़ने पर रजनी के होठ घृणा से सिकुड़ गये। वह सोचने लगी—यह पुरुष जाति जो अपने को स्त्रियों से जन्मत-श्रेष्ठ समझती है, कितनी पतित है। इन पढ़े लिखे लोगों मे भी आत्म-सम्मान नहीं। यह अपनी ही दृष्टि मे गिरे हुए हैं। रजनी ने पत्र को फेक दिया! वह पलङ्ग पर लेट कर चुप-चाप बहुत सी बातों पर विचार करने लगी।
सन्ध्या होने पर दिलीप महाशय आसामी मूँगे का कुर्ता पहिन घूमने को निकले। रजनी ने देखा उनका मुह सूख रहा है, और आँखे ऊपर नही उठ रहीं हैं। वे अपराधी की भांति चुपचाप खिसक जाना चाह रहे हैं।
रजनी ने पुकार कर कहा "कहां चले दिलीप बाबू, अभी तो बहुत धूप है संध्या को ज़रा जल्दी लौटियेगा, हम लोग सिनेमा चलेगे।"
रजनी की बात सुनकर ये रजनी के भाई के मित्र एम° ए° पास सभ्य महाशय ऐसे हरे होगये जैसे वर्षा के छींटे पड़ने से मुर्झाए हुए पौधे खिल जाते है। उन्होंने एक बांकी अदां से खड़े होकर ताकते हुए कुछ कहा। उसे रजनी ने सुना नही, वह अपना तीर फेंक कर चली गई।
(६)
रजनी ने विषम साहस का काम किया। दिलीप महाशय झटपट ही लौट आये। आकर उन्होंने उत्साहपूर्ण वाणी से रजनी से कहा रज्जी, मै रिज़र्व बॉक्स के दो टिकट खरीद लाया हूँ, रजनी ने घृणा के भाव को दबा कर हँस दिया।
भोजन के बाद रजनी और दिलीप दोनों ही सिनेमा देखने चल दिये। गृहिणी ने कुछ भी विरोध न किया। सिनेमाघर निकट ही था, अतः पैदल ही रजनी चल दी। रास्ते मे बातचीत नही हुई, मालूम होता है दोनो ही योद्धा अपने-अपने पैतरे सोच रहे थे। रजनी इस उद्धत युवक को ठीक कर देना चाहती थी और दिलीप प्रेम के दलदल में बुरी तरह फँसे थे। रात भर और दिन भर में जो-जो बाते उन्होंने सोची थी वे अब याद नहीं आ रही थी। कैसे कहाँ से शुरू किया जाय, यही प्रश्न सम्मुख था। पत्र पढ़कर भी रजनी बिगड़ी नही, भण्डा फोड़ भी नही किया, उल्टे अकेली सिनेमा देखने आई है। अब फिर सन्देह क्या और सोच क्या, अब तो सारा प्रेम उँडेल देना चाहिये। सुविधा यह थी कि रजनी अङ्गरेगी पढ़ी स्त्री थी। शेक्सपियर, गेटे टेनीसन और वायरन के भावपूर्ण सभी प्रेम सन्दर्भों को समझा सकती थी। पर कठिनाई तो यह थी कि शुरू कैसे और कहाँ से किया जाय।
रजनी ने कनखियों से देखा, दिलीप महाशय का मुँह सूख रहा है, पैर लड़खड़ा रहे हैं। रजनी ने मुस्करा कर कहा "क्या आपको बुखार चढ़ रहा है मिस्टर दिलीप? आपके पैर डगमगा रहे हैं, मुँह सूख रहा है।" दिलीप ने बड़ी कठिनता से हँस कर कहा "नहीं-नही, मै तो बहुत अच्छा हूँ।"
"अच्छी बात है।" कह कर रजनी ने लम्बे-लम्बे डग बढ़ाये। बॉक्स में बैठ कर भी कुछ देर दोनो चुप रहे, खेल शुरू होगया था, शायद खेल कोई प्रसिद्ध न था, इस लिये भीड़-भाड़ बिल्कुल न थी। बॉक्स और रिजर्व की तमाम सीटें खाली पड़ी थीं। अपने चारों ओर सन्नाटा देख कर पहले तो रजनी जरा घबराई, परन्तु फिर साहस कर के वह अपनी कुर्सी जरा आगे खींच कर बैठ गई। कौन खेल है दोनों कुछ क्षण इसी मे डूबे रहे, परन्तु थोड़ी ही देर में दोनों को अपना-अपना उद्देश्य याद आगया। खेल से मन हटा कर दोनों, दोनों को कनखियों से देखने लगे। एकाध बार तो नजर बचा गये, पर कब तक? अन्त मे एक बार रजनी खिलखिला कर हँस पड़ी। उसे हँसी देख दिलीप भी हँस पडे, परन्तु उसकी हँसी मे फीकापन था।
रजनी तुरन्त ही सम्हल गई। उसने कहा —"क्यों हँसे मिस्टर दिलीप?"
"और तुम क्यों हँसी रज्जी?"
दिलीप ने ज़रा साहस करके कुर्सी आगे खिसकाई। रजनी सम्हल कर बैठ गई। उसने स्थिर अकम्पित वाणी में कहा "मै तो यह सोच कर हँसी कि तुम मन मे क्या सोच रहे हो वह मै जान गई?"
"सच, रज्जी, तो तुमने मुझे क्षमा कर दिया?" वे आवेश मे आकर खड़े होकर रजनी की कुर्सी पर झुके। उन्हें वहीं रोक कर रजनी ने कहा "क्षमा करने मे तो कुछ हर्ज नहीं है दिलीप बाबू, मगर यह तो कहो कि क्या तुम उसी खत की बात सोच रहे हो? सच कहो, तुमने जो आज खत में लिखा है क्या वह सच है?"
दिलीप घुटनों के बल धरती पर बैठ गये, जैसा कि वे बहुधा सिनेमा मे देख चुके थे। उन्होंने भावपूर्ण ढङ्ग से दोनों हाथ पसार कर कहा—"सचमुच, रज्जी, मै तुम्हें प्राणों से बढ़ कर प्यार करता हूँ।"
"प्राणों से बढ़ कर? यह तो बडे ही आश्चर्य की बात है दिलीप बाबू । इस पर विश्वास करने को जी नहीं चाहता।"
"रज्जी विश्वास करो, तुम कहो तो मैं अभी यहाँ से कूदकर अपनी जान दे दूँ।"
"इससे क्या फ़ायदा होगा सिस्टर दिलीप, उल्टे पुलिस मुझे हत्या करने के जुर्म में गिरफ्तार कर लेगी। परन्तु मुझे तो यह ताज्जुब है कि तुम दो ही दिन मे मुझे इतना प्रेम कैसे करने लग गये?"
"मै तो पहली नजर ही से तुम पर मर मिटा था।"
"तुमने क्या किसी और स्त्री को भी प्यार किया है?"
"नहीं-नहीं, कभी नही, इस जीवन मे सिर्फ तुम्हें।"
"क्यों, क्या तुम्हें कोई स्त्री मिली ही नही?"
"तुम सी एक नहीं, रज्जी,।”
"यह तो और भी आश्चर्य की बात है, कलकत्ते मे, बनारस मे, इलाहाबाद मे, लखनऊ मे, पटने मे, कही भी मुझ सी कोई स्त्री है ही नहीं?"
"नहीं-नही, रज्जी, तुम स्त्री-रत्न हो।"
"जापान मे, चीन मे, इङ्गलेण्ड मे, जर्मनी में, अमेरिका में, अरे। तुम तो सब देश की स्त्रियों से वाकिफ होंगे"
"रज्जी, तुम सब मे अद्वितीय हो।"
मुझे इसमे बहुत शक है मिस्टर दिलीप; एक काम करो। अभी यह प्रेम मुल्तवी रहे। तुम एक बार हिन्दुस्तान के सब शहरों में घूम फिर कर ज़रा अच्छी तरह देख-भाल आओ। मेरा तो ख्याल है कि तुम्हें मुझसे अच्छी कई लड़कियां मिल जावेगी । दिलीप महाशय ने ज़रा जोश मे आकर कहा—"रज्जी, तुम्हारे सामने दुनिया की स्त्री मिट्टी हैं।"
"मगर यह तुम्हारा अपना वाक्य नहीं मालूम देता, यह तो पेटेन्ट वाक्य है। देखो मै हीं तुम्हे दो-तीन लड़कियों के पते
४ बताती हूँ। एक तो इलाहाबाद के क्रास्थवेट मे मेरी सहेली है। दूसरीॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱ।"
दिलीप ने बात काटते हुए कहा "प्यारी रज्जी, क्यों दिल को जलाती हो, इस दास पर रहम करो। मै तुम्हारा बेदास का चाकर हूँ। अपने नाजुक और कोमल हाथों काॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱ।"
कहते कहते उन्होंने रजनी के हाथ पकड़ने को हाथ बढ़ाया। इसी बीच रजनी ने तड़ाक से एक तमाचा जो महाशय के मुँह पर जड़ा तो उजाला हो गया पैरों की ज़मीन निकल गई। वे मुँह बाये वैसे ही बैठे रह गये।
रजनी ने स्थिर गम्भीर स्वर मे कहा "मिस्टर दिलीप, मै तुम्हारी गलती सुधारना शुरू करती हूँ। देखो, अब तो तुम समझ गये कि ये हाथ उतने नाजुक और कोमल नहीं है जितने तुम समझे बैठे हो। कहो तुम्हारी आंख बची या फूटी? मैने जरा बचा कर ही तमाचा जड़ा था। अब दूसरी गलती भी मै सुधारती हूँ। देखो सामने जो वह यूरोपियन लड़की बैठी है वह मुझसे हज़ार दर्जे अच्छी है या नही। तुम दुनिया की कहते हो, मै तुम्हें यही दिखाये देती हूँ; कहो, है या नही?
मिस्टर दिलीप की सिट्टी गुम हो रही थी, वे चेष्टा करने पर भी नहीं बोल सके। रजनी ने, धीमे किन्तु कठोर स्वर में कहा—"बोल रे अधम, वञ्चक, लम्पट, पढ़े-लिखे गधे, मेरी बात का जवाब दे, वरना अभी चिल्ला कर सब आदमियों को मै इकट्ठा करती हूँ।"
दिलीप ने हाथ जोड़ धीमे स्वर मे कहा—"मुझे माफ़ कीजिये श्रीमती रजनी देवी, मुझे माफ कीजिये।"
रजनी ने घृणा से होठ सिकोड़ कर कहा—"अरे, तुम्हारा तो स्वर ही बदल गया, और टोन भी। अब तुम मुझे 'तुम' कह कर नहीं पुकारोगे? 'रज्जी' नहीं कहोगे? बदमाश, तुम मित्र की बहिन की प्रतिष्ठा नही रख सके? तुम जैसे जानवर किसी भले घर मे जाने योग्य, किसी की बहू-बेटी से खुल कर मिलने योग्य हो सकते हैं?" रजनी ने यह कह कर दिलीप के दोनो कान पकड़ कर खींच लिये और तड़ातड़ ५-७ तमाचे उसके मुँह पर रसीद करके कहा "कहो, प्रेम अब कहां है? मुझ सी लड़की कहीं दुनिया में है या नहीं?"
"रजनी देवी, मै आप की शरण हूँ।"
"अच्छा, अच्छा! मगर तुम तो शायद मेरे बिना जी भी नहीं सकोगे! जाओ, कुये, नदी मे डूब मरो। क्या तुम भैया को मुँह दिखा सकोगे?" दिलीप चुपचाप धरती पर बैठे रहे।
रजनी ने लात मार कर कहा "बोल रे बदमाश वोल!"
दिलीप ने गिड़गिड़ा कर कहा "धीरे, रजनी देवी, लोग सुन लेंगे तो यहाँ भीड़ हो जायगी।"
रजनी ने कहना शुरू किया "कुछ पर्वाह नहीं। हाँ, तुम क्या चाहते हो कि स्त्रियों को तुम इसी प्रकार फुसलाओ। वे या तो पढ़ें मे घुग्घू बनी बैठी रहें, और यदि स्वाधीन वायु में जीना चाहें तो तुम्हारे जैसे साँपों से वे डसी जायँ? क्यों? भैया के साथ विवाद मे तुम सदा मेरा पक्ष लेते थे सो इसी लिये? कहो? तुम समझते हो भैया अनुदार हैं, नहीं जानते उन्होंने मेरा, मेरी आत्मा का निर्माण किया है। यह उन्हीं का साहस था कि तुम्हें अकपट भाव से उसी भाँति मेरे सम्मुख उपस्थित किया जिस भाँति वे स्वयं मेरे सम्मुख आते हैं। पर तुम नीच लम्पट दो दिन मे ही वहिन के समान अपने मित्र की बहिन से प्रेम करने लगे? कहो, तुम्हारे घर कोई बहिन है या नही? इसी भाँति तुम उसे पृथ्वी की अद्वितीय स्त्री कहते हो?"
दिलीप महाशय के शरीर में रक्त की गति रुक रही थी, बोल नहीं निकलता था। उन्होंने रजनी के पैर छूकर कहा—"आह, चुप रहो, कोई सुन लेगाॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱॱ।"
रजनी क्रुद्ध सर्पिणी की भाँति कहती ही गई—
"अरे जब तक तुम जैसे अपवित्र लुच्चे युवक हैं स्त्रियाँ कभी निर्भय नहीं हो सकती। कहो—क्या हमें संसार मे हँसने, बोलने, घूमने, फिरने, अमोद-प्रमोद करने की जगह ही नहीं, हम चोर की भाँति लुक-छिपकर, पापी की भाँति मुँह ढँककर दुनिया मे जीऐ। और यदि ज़रा भी आगे बढ़े तो तुम जैसे लफंगे उसका ग़लत अर्थ लगा कर अपनी वासनाएं प्रकट करे? याद रक्खो, स्त्रियों को निर्भय रहने के लिये तुम जैसे खतरनाक नर-पशुओं का न रहना ही अच्छा है। जानते हो—जब मनुष्यों ने वनो को साफ करके सभ्यता विस्तार की थी तब वनचर खूँखार पशुओं को सवंश नाश कर दिया था—उनके रहते वे निर्भय नही रह सकते थे। सच्ची सभ्यता वह है जहाँ स्त्रियाँ निर्भय हैं—वनचर खूंख्वार जानवरों के रहते मनुष्य निर्भय नही रह सकते थे और नगरचर गुण्डो के रहते स्त्रियाँ निर्भय नही रह सकतीं। इसलिये मै तुम्हारे साथ वही सलूक किया चाहती हूँ जो मनुष्यों ने वनचर पशुओं के साथ किया था।"
इतना कहकर रजनी ने एकाएक एक बड़ा सा छुरा निकाल लिया।
छुरे को देखते ही दिलीप की घिग्घी बँध गई। वह न चिल्ला 'सकते थे, न भाग सकते थे, उनकी शक्ति तो जैसे मर गई थी। उन्होंने रजनी के पैरों में सिर डाल कर मुर्दे के से स्वर मे कहा—"क्षमा कीजिये देवी, आप इस बार इस पशु को क्षमा कीजिये।"
रजनी ने धीरे गम्भीर स्वर मे कहा—"क्षमा मै तुम्हें कर सकती हूँ परन्तु तुम एक खतरनाक जानवर हो, जिन्दा रहोगे तो जाने कितनी बहिनों को खतरे मे डालोगे।"
"मै प्रतिज्ञा करता हॅँ कि मै जीवन मे प्रत्येक स्त्री को बहिन के समान समझूगा।"
"तुम्हारी प्रतिज्ञा पर मुझे विश्वास नही।"
"मै कसम खाता हूँ।"
"किसकी?"
"आपके चरणों की।"
"धुत् खबरदार। इतना साहस न करना।"
"परमेश्वर की।"
"नास्तिक। तुम्हारे परमेश्वर का भरोसा।"
"अपनी माता की, पिता की।"
"नहीं, मै नही विश्वास करती कि तुम माता-पिता की इज्जत करते होगे।"
"आह देवीं, इतना पतित न समझो।"
"तुम बड़े पतित हो।"
"तब जिसकी कहो उसकी कसम खाऊँ।"
"अपने प्राणों की कसम खाओ।"
"मैं अपने प्राणों की कसम खाता हूँ कि भविष्य में मैं बहिनों के प्रति कभी अपवित्र भाव नही आने दूंगा।"
"अच्छी बात है, फिलहाल मै तुम्हें क्षमा करती हूँ, कुर्सी पर बैठ जाओ।" रजनी ने कंठिनाई से अपने होठों की कोर मे उमड़ती हँसी को रोका।
जान बची लाखों पाये, दिलीप महाशय धम से कुर्सी पर बैठ गये। खेल चल रहा था, बाजे बज रहे थे, कोई गाना हो रहा था, स्क्रीन में धमा चौकड़ी हो रही थी, इस धूम-धाम ने और पीछे की सीट के सन्नाटे ने इस 'रजनी काण्ड' की ओर किसी का भी ध्यान आकृष्ट नही होने दिया। थोड़ी देर मे इन्टरवेल हो गया, बत्तियाँ जल गईं। प्रकाश हो गया।
रजनी ने कहा—"मै घर जाना चाहती हूँ, दिलीप बाबू, आप चाहें तो यही ठहर सकते हैं।"
दिलीप ने आज्ञाकारी नौकर की भाँति खडे होकर कहा—
"चलिये फिर।"
रजनी चुपचाप चल दी।
(७)
दूसरे दिन तमाम दिन मिस्टर दिलीप कमरे से बाहर नहीं निकले, सिर दर्द का बहाना करने पड़े रहे। भोजन भी नहीं किया। अभी उन्हें यह भय बना हुआ था कि उस वाधिनी ने यदि राजेन्द्र से कह दिया तो गजब हो जायगा।
सन्ध्या समय रजनी ने उनके कमरे मे जाकर देखा कि वे सिर से पैर तक चादर लपेटे पड़े हैं। रजनी ने सामने की खिड़की खोल दी और एक कुर्सी खीच ली। उस पर बैठते हुये उसने कहा—"उठिये मिस्टर दिलीप, दिन कब का निकल चुका और अब छिप रहा है।"
दिलीप ने सर निकाला—उनकी आँखे लाल हो रही थीं, मालूम होता था, खूब रोये हैं। उन्होंने भर्राए हुए गले से कहा— "मैं आपको मुँह नही दिखा सकता, मैं अपनी प्रतिष्ठा की चर्चा करने का साहस नही कर सकता पर आप अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिये वचन दीजिये कि आप घर मे किसी से भी यह बात नहीं कहेंगीं।"
"मै तो तुम्हें क्षमा कर चुकी दिलीप।"
"यह कहिए किसी से भी नही कहेंगीं।"
"अच्छा, नही कहूँगी, उठो।"
"किसी से भी नही।"
"किसी से भी नही।"
"भैया से भी नही।"
"अच्छा, अच्छा, भैया से भी नहीं।"
"और उस दुष्टा दुलारी से भी नहीं।"
रजनी हँस पड़ी, बोली—"अच्छा, उससे भी नही। अब उठो।"
"वह जब मुझे देखती है मुँह फेर कर हँस देती है।"
"वह शायद समझती है, तुम जैसा पुरुष पृथ्वी पर और नही हैं। "
"अब जब आप क्षमा कर चुकीं, फिर ऐसी बात क्यों कहती हैं।"
रजनी हँस कर चल दी।
दूसरे दिन राजेन्द्र ने आने पर देखा कि दिलीप अपना बोरिया-बसता बाँधे जाने को तैयार बैठे है। मुँह उतरा हुआ है, और वे बुरी तरह घबराये हुए हैं। राजेन्द्र ने हँस कर कहा—"मामला क्या है? बुरी तरह परेशान हो रहे हो।"
"तार आया है माता जी सख्त वीमार हैं। जाना पड़ रहा है।"
"देखे कैसा तार है। अभी तो २-४ दिन भी नहीं हुये।"
दिलीप तार के लिये टाल-टूल करके घड़ी देखने लगे। बोले—"अभी ४० मिनिट हैं गाड़ी मिल जायगी।"
दिलीप के जाने की एकाएक तैयारी देखकर राजेन्द्र परेशान से हो गये। उन्हें दिलीप की टाल-टूल से सन्देह हुआ कि शायद घर मे कोई कुछ अप्रिय घटना हुई है।
उन्होंने रजनी को बुलाकर कहा—"रजनी, दिलीप जा रहे हैं मामला क्या है?"
रजनी ने आकर सिर से पैर तक दिलीप को देखकर कहा "कह नही सकती, दुलारी को बुलाती हूँ उसे शायद कुछ पता हो।"
दिलीप ने नेत्रों में भिक्षा याचना भरकर रजनी की ओर देखा। उसे देखकर रजनी का दिल पसीज गया। उसने आगे बढ़कर कहा "क्यों जाते हो दिलीप बाबू।"
दिलीप की आँखे भर आई। उन्होने झुककर रजनी के पैर छुए और कहा "जीजी, सम्भव हुआ तो मै फिर जल्द ही आऊँगा।" उन्होने घड़ी निकाली और राजेन्द्र से कहा "जरा एक ताँगा मँगा दो।"
राजेन्द्र ने कहा "तब जाओगे ही।" वे ताँगे के लिये कहने बाहर चले गये। रजनी कुछ क्षण चुप खड़ी रही, फिर उसने कहा "दिलीप बाबू, कहिये मुझसी कोई स्त्री दुनिया में है या नहीं"
दिलीप ने एक बार सिर से पैर तक रजनी को देखा, फिर उससे कहा "तुम मुझे चाहे मार ही डालो, पर रज्जी तुम सी एक भी औरत दुनिया मे न होगी।"
इस बार फिर से 'तुम' और 'रज्जी' का घनिष्ट सम्बोधन पाकर रजनी की आँखों से टप टप दो बूंद ऑसू गिर गये। वह जल्दी से वहाँ से घर के भीतर चली गई।
ताँगा आ गया। सामान रख दिया। गृहिणी के पैर छूकर ज्योंही दिलीप बाबू ड्योढ़ी पर पहुँचे तो देखते क्या हैं कि रजनी टीके का सामान थाल में धरे रास्ता रोके खड़ी है। दिलीप और राजेन्द्र रुक कर रजनी की ओर देखने लगे। रजनी के पास ही दुलरिया भी अपनी गहरी, लाल रङ्ग की टसरी साड़ी पहने खड़ी थी। उसके हाथ मे थाल देकर रजनी ने दिलीप के माथे पर रोरी-दही का टीका लगाया, चावल सिर पर बखेरे और दो तीन दाने चने चबाने को दिये। इसके बाद उसने मुट्ठी भर बताशे दिलीप के मुख मे भर दिये और वह खिलखिला कर हँस पड़ी।
दिलीप न हँस सके। उन्होंने उमड़ते हुए आँसुओं के वेग को रोककर फिर झुककर रजनी के पैर छुए। इसके बाद मनीबेग निकाल कर थाल मे डाल दिया।
राजेन्द्र ने कहा "अरे दिलीप, तुम रजनी की इस ठगविद्या में आगये। मुझे भी यह इसी तरह ठगा करती है।"
दिलीप ने कहा "बकवाद मत करो, चुपचाप टिकिट और ताँगे के पैसे निकालो।"
इसी बीच दुलरिया ने जल से भरा लोटा आगे बढ़ाकर कहा "भैया, सवा रुपया इसमे भी तो डालो।"
क्षण भर दिलीप सकपका गए। उन्होंने अपनी अँगूठी उतार जलपात्र में डाल दी। दुलरिया ने मृदुमन्द मुस्कान होठों पर बखेर कर कहा—"हम का लेचलो भैया, दुलहिन की सेवा करेगी।
दिलीप कुछ जवाब न देकर झपट कर भागे और राजेन्द्र का हाथ पकड़ कर तांगे में जा बैठे।
दुलारी ने एक बार हँसती आँखो से रजनी को देखा, वह रो रही थी।