आवारागर्द/५-चिट्ठी की दोस्ती

आवारागर्द
आचार्य चतुरसेन शास्त्री
५ चिठ्ठी की दोस्ती

दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ ६२ से – ७३ तक

 

 

 

चिट्ठी की दोस्ती

मिस्टर लाल ने इसी उम्र में तमाम दुनिया खूँद मारी थी। इसी साल वे वैरिस्टर हो कर विलायत आये थे। घर के रईस, दिल के बादशाह, तबीयत के आज़ाद आदमी थे। तीन साल के लम्बे अर्से के बाद जो वे आये तो देखते ही तबीयत हरी हो गई। आते ही उन्होंने जो बातों का रङ्ग बाँधा, देश विदेश की आप बीती सुनानी शुरू की, एक से एक बढ़ कर बातें, कहाँ वे बेवकूफ बने, कहाँ ठगे गये, कहाँ तिकड़म भिड़ाई, कहाँ फँसे आदि जो बातें उन्होंने बयान कीं, तो सुनकर तबीयत फड़क गई। तीन-चार दिन चुटकी बजाते गुज़र गये। मिस्टर लाल का मेरे घर आना और मेरे साथ रहना मेरे लिये गनीमत था। आप तो जानते ही हैं कि मैं अकेला दुनियां भर की सब आशाओं से रहित ऐसा सूखा ठूंठ हूँ जिसका सारा रस सूख गया हो, सारे पत्ते झड़ गये हो, सारी शोभा लुट चुकी हो, न कोई मेरा दोस्त-मुलाकाती, न सगे न सम्बन्धी, दोस्त-मुलाकाती उसके होते हैं, जिससे लोगों के काम सरते हैं, मतलब निकलते हैं, मुझसे किसी का क्या काम सर सकता है। न किसी के लेने में; न देने में, इसलिये मेरे पास कोई क्यों आने लगा? महीनो के महीने बीत जाते हैं, मैं अकेला अपने घर मै उदास, सुस्त बैठा कुछ सोचता रहता हू। सोचने की बहुत-सी बातें नही हैं, सिर्फ यही कि मनुष्य जीता क्यों है? काम-काज के संकट में पिसता क्यों है। पाप-पुण्य के जञ्जाल में उलझता क्यों है? अपनी और पराई दुनिया बनाता क्यों हैं? कोई २५ वर्ष हुए—जब से मन्नू की माँ मरी है, ऐसा मालूम होता है कि संसार मे हमेशा सन्ध्या काल ही रहता है, प्रभात कभी होता ही नहीं, परन्तु एम° ए° फ़ाइनल करने के बाद जब एक ही हफ्ते बाद मुन्ना भी एकाएक चल बसा, तब से रात ही रात नजर आती है, जीवन की इस अंधेरी रात में सूरज और चाँद, टिमटिमाते दिये और इष्टमित्र सब दूर के चम-चम चमकते तारे से प्रतीत होते हैं। मै मशीन की भाँति कालेज से घर और घर से कालेज गत २५ बरस से जाता-आता रहा हूँ। और भी कही दुनिया है, यह मै अब भूलसा गया हूँ।

परन्तु मिस्टर लाल की बात दूसरी है, उनके सीने मे एक धड़कता हुआ हृदय है, जीवन उनके लिये आशा और उल्लास से परिपूर्ण एक ज्योति की लौ है, इसीसे उनके आने से मुझ से भी जैसे जीवन का कुछ स्पन्दन आ गया है, वे जब वाते करते-करते खिलखिला कर हँसते हैं तब मेरे भी सूखे होठों में हँसी की एक अनभ्यस्त रेखा फूट पड़ती है और मेरे गालों की झुर्रियां जैसे मुखरित हो उठती है।

लाल ने जब प्रेम के एक से एक बढ़ कर अनोखे साहसपूर्ण किस्से सुनाये, तो उन्हें सुन-सुन कर मन कैसा कुछ हो उठा। मैने कहा—"मिस्टर लाल, प्रेम इतना सुलभ और जीवन के इतना निकट है, यदि यह मुझे मालूम होता तोॱॱॱॱ?' 'तो?'—

लाल ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा "ओह! आप यदि प्रेम के प्यासे हैं तो अभी भी समय है मिस्टर सिंह, मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ। आप क्या प्रेम-रस चखा चाहते हैं?"

बहुत दिन बाद मै एकाएक हँस पड़ा। हँसने की बात ही थी, अब ५० साल जीवन के पार करने पर मै प्रेम का रस चख सकता हूँ? यह तो बड़ी ही अजीब बात है।

मेरे हँसने का मतलब मिस्टर लाल समझ गये। उन्होंने कहा 'प्रोफेसर, आप क्या मेरी बात को असम्भव समझते हैं?'

'ओह! बिल्कुल असम्भव, मिस्टर लाल।'

'परन्तु मै शर्त लगाता हूँ।'

'अब मुझे बनाओ मत भाई।'

'ओह! आपको एक बात का पता नही है, प्रोफेसर।'

'कौन-सी बात का?'

'आप यूरोप कभी गये या नहीं?'

'नहीं गया।'

'तभी! यूरोप में कुछ ऐसी संस्थाएँ हैं, जो पत्र-व्यवहार से दोस्ती करा देती हैं। उन्हें कुछ फ़ीस दे देनी पड़ती है और लिख देना पड़ता है कि इस प्रकार के आदमी से हमें दोस्ती करनी है। बस, वे आनन-फानन सब बन्दोबस्त कर देते हैं।'

मैने सुन कर अचरज से कहा—'यह तुम कह क्या रहे हो, मिस्टर लाल।'

'आप सुनिए तो। मेरी डायरी में ऐसी संस्थाओं के कुछ पते हैं। ठहरो, देखता हूँ।' यह कह कर उन्होने अपनी डायरी लेकर उलट-पलट करनी शुरू की। थोड़ी देर में बोले—'मिल गया। अभी लिखो, कहिए आप कैसे आदमी से दोस्ती किया चाहते हैं?'

मुझे जैसे रस की एक बूँद मिली। मैने हँस कर कहा 'आदमी से याॱॱॱॱॱ।'

'अजी औरत से सही, आप जैसी चाहें?'

'मै जैसी चाहूँ? खूब कही, मिस्टर लाल।' और मै बड़े ज़ोर से हँस पड़ा।

झुंझला कर मिस्टर लाल ने कहा 'खुदा के लिये कहिये भी कुछ?'

मेरी सारी संजीदगी जैसे गायब होगई। मैने कहा—फर्ज करो, एक राजकुमारी से, जिसकी अच्छी खासी जायदाद होॱॱॱॱॱ'

लाल ने नोट करते हुए कहा 'उम्र कितनी हो?'

'यही १९ या २० साल अत्यन्त सुन्दरी, खुश-मिजाज, औरॱॱ' मैं फिर अपने को काबू में न रख सका, और जोर से हंस पड़ा।

मिस्टर लाल हँसे नहीं। वे कुछ लिखते हुए बोले—'हाँ,

एक बात बताइये? आपका सर्व-प्रिय विषय क्या है, प्रोफेसर?

'पुरातत्व, इसमें मैने पदक प्राप्त किये हैं।'

"ठीक है, मिस्टर लाल ने एक पत्र लिख डाला। लिख चुकने पर पत्र मुझे दिखाया, उसमें लिखा था—'एक प्रख्यात पुरातत्वविद्भा रतीय विद्वान प्रोफेसर यूरोप की एक ऐसी राजकुमारी से मित्रता किया चाहते हैं, जो खूब धनी, खुश मिजाज, सुन्दरी और मृतुल स्वभाव की हो।' उसने पत्र और संस्था की फीस उसी दिन अमेरिका के शिकागो शहर को भेज की। वह शाम, एक मजे की दिलचस्प शाम गुजर गई।

(२)

कोई डेढ़ महीने बाद शिकागो से एक पत्र आया। पत्र मे मुझे संस्था का सभ्य बनने के लिए मुबारकबादी दी गई थी। और लिखा था-संस्था के अनेक सदस्य एक भारतीय पुरातत्वविद से परिचय प्राप्त करने के इच्छुक हैं। इसके बाद लिखा था 'स्पेन की राजकुमारी सोफि़या जो अतुल सम्पिति की उत्तरा-धिकारणी हैं और जो शिकागो युनिवर्सिटी की ग्रेजुएट है, अपने को आपका मित्र समझ कर गौरवान्वित समझती है। राजकुमारी अभी १९ ही वर्प की है, उसकी प्रार्थना है कि आप उन्हें सीधा पत्र लिख कर उनकी प्रतिष्ठा बढ़ाये।'

पत्र पढ़ कर मेरी नशों मे खून नाचने लगा। मै समझ ही न सका कि आया यह सत्य है या गोरख-धन्धा। मुझे संसार सुन्दर सा प्रतीत होने लगा और ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे रूखे-सूखे जीवन म रस-वर्पण हुआ है।

मिस्टर लाल को मैने सब हकीकत लिख कर राय पूछी कि अब क्या करना चाहिये। तीसरे दिन उनका पत्र मिला। लिखा था—पौवारह हैं; प्रोफेसर! पत्र का ड्राफ्ट भेज रहा हूँ, इसे खूब बढ़िया कागज पर टाइप करके भेज दो। ड्राफ्ट का अभिप्राय यह था—

"प्रिय राजकुमारी,

आपका परिचय और मैत्री प्राप्त करके मै अपने को संसार का सबसे अधिक भाग्यवान् पुरुष हूँ। ईश्वर करे हमारी यह मैत्री दिन-दिन गम्भीर और सुखद होती जाय। राजकुमारी, यद्यपि हम लोगों को परस्पर दर्शनों का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ है; पर हिन्दू फिलाँसफी के विश्वास पर मै यह कहने का साहस कर सकता हूँ कि हम लोग पिछले जन्मके मित्र हैं। प्रिय राजकुमारी, विदा! मै आपके बहुमूल्य पत्र और मैत्री के किसी प्रिय चिन्ह प्राप्ति की आशा में हूँ।

आपका,

........."

काँपते हाथों से मैने पत्र लिखा। टाइप करना मैंने पसन्द नहीं किया। पत्र लिखते समय मेरे हृदय की धड़कन बढ़ रही थी, मुझे ऐसा प्रतीत होता था, जैसे जीवन में रस का भर-भर झरना भरने लगा। स्वय ही मैंने पत्र को पोस्ट कर दिया।

[३]

यथासमय जवाब मिल गया। लिफाफे को देखते ही मन मयूर नाचने लगा। भीतर सुगन्धित पत्र किन्ही दिव्य हाथों से लिखा हुआ था। अक्षर मोती से थे और पत्र के एक कौने पर सुनेहरा मोनोग्राम था। पत्र के साथ ही प्रेपिका का एक छोटा-सा, किन्तु अप्रतिम चित्र था। कोई भारतीय पुष्प उसकी समता नही कर सकता। गुलाब और कमल प्रगल्भ है, उनमें वह नजाकत और नाजुकपन कहाँ? उन आँखों में जो आवाहन, होठों मे जो जीवन, सारी मुखाकृति मे जो माधुर्य था, उसकी न समता हो सकती है, न वर्णन। चित्र देखने मे मैं इतना तन्मय हुआ कि पत्र पढ़ने का ध्यान ही न रहा। चित्र जैसे बोल उठेगा, वे होठ जैसे हिलने लगे, आखे जैसे हँसने लगी और मैं जैसे उस चित्र मे खो गया।

कुछ देर बाद पत्र का ध्यान आया। पत्र मे लिखा था—"प्यारे प्रोफेसर,

तुमसे मित्रता प्राप्त कर मै अत्यन्त आनन्दित हूँ। जब कभी भी हम मिलेंगे, यह आनन्द कितना अधिक बढ़ जायगा। ओह! मै तुम्हारे रहस्यमय देश को और उससे भी अधिक तुम्हें देखने को कितनी आतुर हूँ, परन्तु जब तक हम मिलते नही, तब तक अपने विस्तृत हालात लिखो, जिससे मैं तुम्हें, अपने घनिष्ठ मित्र को, भली भाति जान सकूँ। और अपना एक फोटो भी भेजो। देखना विलम्ब न करना।

तुम्हारी सच्ची,

सूफ़िया

पत्र का क्या जवाब दूँ, कुछ भी समझ न पाया। पत्र किसी भाँति लिखा जा सकता है, पर फोटो का क्या किया जाय? क्या इस अनिन्द्य सुन्दरी को मै अपने उजड़े हुए वेदनाओं और निराशाओं की रेखाओं से भरे मुख का चित्र भेजूँ? इसे देख कर क्या उसका कोमल भावुक विश्वस्त हृदय टुकड़े-टुकड़े न हो जायगा? क्या उसकी उल्लासपूर्ण आशा का तार न टूट जायगा? मैंने किसी प्रकार पार पाने में असमर्थ होकर मिस्टर लाल को एक दिन के लिए चले आने का तार भेज दिया। मिस्टर लाल आये और पत्र को देख कर हँसने लगे। उनके हँसने से चिढ़ कर मैने कहा—'आपने एक अत्यन्त अपमानजनक परिस्थिति में मुझे डाल दिया है, अब कहिए क्या किया जाय? यह फोटो का मामला सबसे अधिक कठिन है, मै अपना फोटो किसी हालत में उसे नही भेज सकता।' मिस्टर लाल ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा—'तो फिर फ़ोटो के लिए कोई बहाना बना दिया जाय? अभी सिर्फ एक बढ़िया-सा प्रेम भरा पत्र ही भेज दिया जाय?' मिस्टर लाल की यह तजबीज़ मुझे बिलकुल नहीं रुची। भला फ़ोटो के लिए कौन-सा बहाना ढूँढ़ा जा सकता है, फिर उस बहाने से फायदा? वहाँ से फिर भाग आयेगी? इसके सिवा जो यह अद्भुत मैत्री सम्बन्ध जोड़ा गया है, वह टाल-टूल करने के लिए नहीं, प्रगाढ़ प्रेम के लिए।

मिस्टर लाल ने अन्त में सोच-विचार कर एक तजबीज़ पेश की और मेरे मन में न जाने कैसा कुछ नटखटपन समाया कि मैंने वह स्वीकार कर ली। एक बढ़िया फ़ोटोग्राफ़र से मिस्टर लाल का फोटो उतरवाया और अपनी सारी सहृदयता खर्च करके मैंने एक पत्र लिखा। फ़ोटो के नीचे कांपते हाथों से मैंने अपना नाम लिख दिया। पत्र और वह फोटो रजिस्ट्री द्वारा भेज दिया गया।

ठीक समय पर जवाब आगया। सेण्ट की भीनी मन-मोहक सुगन्ध से वह पत्र शराबोर था। उसमें जैसे किसी उन्मत्त हृदय ने लिखा था—'अरे! तुम इतने सुन्दर हो प्रिय! न केवल आकृति से ही, प्रत्युत हृदय से भी मै तुम्हारी मोहिनी-छवि और उससे भी अधिक मधुर-भाव, जो तुम्हारे प्रेमी हृदय के कम्पन हैं, पाकर कृतकृत्य होगई हूँ। मेरी आत्मा तृप्त होगई है। मेरे प्रिय मित्र, मेरी धृष्ठता क्षमा करो, मुझे साफ-साफ लिखो, क्या तुम विवाहित हो? क्या तुमने अभी तक किसी स्त्री से प्रेम किया है? क्या तुम कुछ आशान्वित हो या तुम निराश हो चुके हो? मेरे प्यारे प्रोफेसर, मुझे तुम कुछ कटु सत्य भी तो कहने दो, जब मैत्री हुई तब भेद क्या? तुम्हारी ये सुन्दर आँखें और मदभरे होठ जब ग़ौर से देखती हूँ तो मुझे उनसे कुछ भय, कुछ आशङ्का-सी प्रतीत होती है, उनमें कैसा कुछ चोचला छिंपा है। इन नेत्रों में तुमने क्या सच-मुच ही कोई भेद नही छिपा रखा है? परन्तु मै कदाचित् तुम्हारे साथ अन्याय कर रही हूँ। तुम साधारण पुरुष तो नहीं हो। एक वैज्ञानिक, एक अन्वेषक और एक प्रोफेसर हो। ओह! मै नहीं जानती कि तुम मुझे कैसे क्षमा कर सकोगे, परन्तु मै सिर्फ यह चाहती हूँ कि मै शीघ्र से शीघ्र तुम्हारे हृदय के निकट आऊँ, परन्तु ये आखे? जाने दो मुझे तुम पर विश्वास करना चाहिए, मैं तुम पर विश्वास करती हूँ। मेरे प्यारे प्रोफेसर। बिदा, परन्तु चिरकाल के लिए नहीं। मै तुम्हें शीघ्र ही दूसरा पत्र लिखूँगी, परन्तु तुम उसकी प्रतीक्षा मत करना, जल्द से जल्द पत्र लिखना, अपने रिसर्च की फ़ाइलें भी भेजो, मै उनका अध्ययन किया चाहती हूँ।

तुम्हारी,

सूफ़िया"

मैंने बारम्बार पत्र लिखा, सूफ़िया की कोमल भावुक मूर्ति हूबहू जैसे मेरी आँखों के आगे आ खड़ी हुई। मिस्टर लाल ने कई बार लिख कर मुझसे पूछा कि क्या जवाब आया है? पर मैंने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया। इस सरला-तरला बालिका को ठगने का मन मे बड़ा अनुताप हो रहा था। परन्तु जो हो गया सो हो गया। मैंने यह भेद किसी से नहीं कहा।

[४]

दिन बीतते चले गये। महीने और वर्ष बीत गये। हम लोगों की मित्रता गम्भीर प्रेम मे परिवर्तित हो गई। सूफ़िया मुझसे मिलने को विकल रहने लगी। उसने अनेक बार मुझे यूरोप की यात्रा करने का आमन्त्रण दिया। खर्च के सम्बन्ध मे निश्चित रहने का भी सङ्केत किया; पर हाय, मैं अपने शरीर और चेहरे को कहाँ छिपाऊँ? उसके साथ जो मैंने यह प्रवञ्चना की थी, वह जैसे दिन पर दिन मेरे ऊपर बोझ होकर लदने लगी। उसका बोझ बढ़ता ही गया और जैसे मै उसके नीचे पिसता गया। मिस्टर लाल से कई बार मुलाकात हुई; उन्होंने मुझसे अनेक बार सूफ़िया के सम्बन्ध मे पूछा; पर हमेशा मैंने उन्हें टाल दिया। सूफ़िया और अपने बीच किसी को आने देना मुझे सहन न था। 'मेरी ईर्षा और क्रोध के सब से बड़े भाजन मिस्टर लाल ही थे। उनकी ही मोहक और वासनामयी मूर्ति सूफ़िया के हृदय मेरा प्रतिनिधित्व करती थी। हाय, आप हीं कहिए कि मैं इसे कैसे सहन कर सकता था? लाल अब मुझे फूटी आँखों भी नहीं सुहाते थे, वे ही मेरे सब से अधिक प्रतिस्पर्धी हैं। सूफ़िया को मैं जो पत्र लिखता था, उसमे मैं अपनी आयु मर्यादा को भूल जाता था। हम दोनों अब एक अटूट प्रेमी थे। हम दोनों ही अब परस्पर मिलने के लिए अत्यन्त व्याकुल थे, मैं इस बात को मानो भूलने-सा लगा था कि जब हम मिलेगे, हमारा स्वप्न टूट जायगा। सम्भव हैं कि सूफ़िया मुझे घृणापूर्वक वञ्चक, ठग कह कर तिरस्कार कर दे, और मेरा सारा संसार अँधेरा हो जाय, आह! फिर मैं क्या जीवित रह सकूँगा? मुझे निश्चय अपने प्राण त्याग करने पड़ेंगे। परन्तु असल बात तो यह हैं कि मैं उसे मुँह नही दिखा सकता। उसके सन्मुख आने से प्रथम ही मरना होगा। दिन बीतते जाते थे और मेरे मन की विकलता बढ़ती जाती थी। एक दिन एकाएक तार मिला, सूफ़िया का था। वह दूसरे ही दिन बम्बई पहुँच रही थी, पढ़ कर पैरों तले से ज़मीन निकल गई। कुछ करते-धरते न बन पड़ा। संसार घूमता-सा नज़र आने लगा! अब क्या होगा? और कोई भी चारा न मैंने मिस्टर लाल को तार देकर तुरन्त बुलाया। वे आये, तार देख कर वे भी जरा चकराये; किन्तु अब तो एक ही मार्ग था कि मैं अपनी जगह मिस्टर लाल को दूँ। मैं सूफ़िया को लाल के हवाले कर दूँ और आप लोहू का घूट पीकर बैठ जाऊं या जान दे दूँ। परन्तु यह एक मात्र मार्ग भी निरापद न था। इतने लम्बे अर्से तक जो पत्र-व्यवहार हुआ है, परस्पर के हृदय का जो विनिमय हुआ है, हम दोनों जो एक दूसरे के इतने निकट आ गये हैं, इसका क्या होगा? क्या मिस्टर लाल मेरा सच्चा स्थान ग्रहण कर सकेंगे? इसकी कोई सम्भावना नहीं दीखती, परन्तु अब तो और कोई उपाय नहीं है, यह तो सम्भव ही नहीं हो सकता कि मै सूफ़िया पर अपना भेद खोल दूँ। अपना मनहूस चेहरा लेकर उसके सामने जा खड़ा होऊं। मैने सब बातें समझा-बुझा कर मिस्टर लाल को सूफ़िया के पास भेज दिया और कह दिया कि जैसे बने वैसे जल्द से जल्द उसे वापस भेज देना। मिलन-क्षण की प्रतीक्षा ही रही और बिदा की व्यवस्था हो गई। वाह! ऐसा प्रेम भी दुनिया में किसी ने न किया होगा!

क्षण-क्षण पर मैं मिस्टर लाल के पत्र की प्रतीक्षा कर रहा था, रह-रह कर हृदय कांप उठता था। क्या परिणाम होगा, समझ 'नहीं पड़ता था। एक दिन सुबह अपने कमरे में बैठा मै सूफ़िया के चित्र को निराश भाव से देख रहा था। मन कैसा कुछ हो रहा था। सोच रहा था एक अनोखा खेल खेला| खेल ही खेल में अलभ्य निधि पाई और खो दी। मुझे मालूम हुआ धीरे से द्वार खुला। सोचा, नौकर आया होगा। कालेज का समय हो रहा था। वह शायद भोजन के लिये बुलाने आया होगा। मैंने बिना ही उस ओर देखे कहा—'ठहरो गोपाल, मै अभी आता हूं।' पर कमरे में जैसे कुछ सौरभ-सा फैल गया। मैं आँख उठा कर देखने लिए विवश हो गया। देखा, जीती जागती सूफ़िया थी। मैंने कुर्सी से खड़ा होना चाहा, पर लड़खड़ा कर गिर गया। परन्तु दूसरे ही क्षण सूफ़िया मेरी गोद में थी। वह मेरी छाती में सिर दिये सिसक-सिसक कर रो रही थी। मैं जैसे ब्रह्माण्ड को फोड़ कर एक अगम लोक में उठा जा रहा था।

अंत में मैंने अपने होश-हवाश कायम किये। मैंने साहस बटोर कर कहा—'सूफ़िया राजकुमारी' तुमने अचानक ही मुझे गिरफ्तार कर लिया। मुझे मरने का अवसर नहीं दिया, जो मेरी इस प्रवञ्चना का सच्चा दण्ड था!'

सूफ़िया ने शिथिल बाहें फिर मेरे गले मे डाल दीं। उसने नील-आकाश की भाँति स्वच्छ आँखों से मेरी ओर देर तक ताकते रहने के बाद कहा—"प्यारे, तुम पूरे ठग और भयानक जादूगर निकले। तुमने पहले मुझ पर जादू किया और फिर मुझे ठग लिया।'

उसने उसी भाँति मेरी गोद में लेटे-लेटे सब बाते कहीं। उसने बताया कि उसे मेरा छल तो बहुत दिन हुए मालूम हो गया था। मेरा असली चित्र भी एक वैज्ञानिक पत्रिका से मिल गया था। इतने पर भी उसका प्रेम प्रगाढ़ होता गया। उसने कहा—'प्रेम तो आत्मा की वस्तु है, शरीर और वासना से उसका क्या सम्बन्ध?' वह कहती गई—'उसने वह प्रेम पा लिया जो स्त्री-जाति के जीवन का सहारा हैं। धन्यवाद हैं ईश्वर का कि तुम्हारी आँखों और होठों में वह अप्रियभाव नहीं छिपा है, जो तुम्हारी भेजी हुई तुम्हारे मित्र की तस्वीर में था। जो, वे जब मुझे बम्बई में मिले—भली भाँति अनुभव करने में आया।'

बड़ी देर तक मैं बोल ही सहीं सका। पर उस अद्भुत लड़की ने मेरा सारा सङ्कोच भगा दिया। फिर तो दिनो-रात हमारी बाते हुई। सूफ़िया ने मिस्टर लाल को जैसा बनाया, जैसी उनकी गति बनी, उसे सुन कर हँसना रुका नहीं; मिस्टर लाल फिर मुझे मिले भी नही। सूफ़िया ने नहीं माना और मैने कॉलेज से इस्तीफा देकर सूफ़िया के साथ यूरोप की यात्रा की। इस के बाद सूफ़िया के प्रथम ही से किए गये प्रबन्ध के अनुसार मुझे स्पेन की यूनीवर्सिटी में एक अच्छी जगह मिली और अपने विशाल बन्धु-बान्धवों को आश्चर्य-चकित करके सूफ़िया ने मुझे विवाह-सूत्र मे बाँध लिया।