हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल प्रकरण २ लाला श्रीनिवासदास

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लाला श्रीनिवासदास के पिता लाला मंगलीलाल मथुरा के प्रसिद्ध सेठ लक्ष्मीचंद के मुनीम क्या मैनेजर थे जो दिल्ली में रहा करते थे। वहीं श्रीनिवासदास का जन्म संवत् १९०८ में और मृत्यु सं॰ १९४४ में हुई।

भारतेंदु के सम-सामयिक लेखकों में उनका भी एक विशेष स्थान था। उन्होंने कई नाटक लिखे हैं। "प्रह्लाद चरित्र" ११ दृश्यों का एक बड़ा नाटक है, पर उसके संवाद आदि रोचक नहीं हैं। भाषा भी अच्छी नहीं है। "तप्ता-संवरण नाटक" सन् १८७४ के 'हरिश्चंद्र मैगजीन' में छपा था, पीछे सन् १८८३ ई॰ में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। इसमें तप्ता और संवरण की पौराणिक प्रेम कथा है। संवरण ने तप्ता के ध्यान में लीन रहने के कारण गौतम मुनि को प्रणाम नहीं किया। इसपर उन्होंने शाप दिया कि जिसके ध्यान में तुम मग्न हो वह तुम्हें भूल जाय। फिर सदय होकर शाप का यह परिहार उन्होंने बताया कि अंग-स्पर्श होते ही उसे तुम्हारा स्मरण हो जायगा।

लालाजी के "रणधीर और प्रेममोहनी" नाटक की उस समय अधिक चर्चा हुई थी। पहले पहल यह नाटक सं॰ १९३४ में प्रकाशित हुआ था और इसके साथ एक भूमिका थी जिसमें नाटकों के संबंध में कई बातें अँगरेजी [ ४७५ ]नाटकों पर दृष्टि रखकर लिखी गई थीं। यह स्पष्ट जान पड़ता है कि यह नाटक उन्होंने अँगरेजी नाटकों के ढंग पर लिखा था। 'रणधीर और प्रेममोहनी' नाम ही "रोमियो ऐंड जुलियट" की ओर ध्यान ले जाता है। कथा-वस्तु भी इसकी सामान्य प्रथानुसार पौराणिक या ऐतिहासिक न होकर कल्पित है। पर यह वस्तु-कल्पना मध्ययुग के राजकुमार-राजकुमारियो के क्षेत्र के भीतर ही हुई है––पाटन का राजकुमार है और सूरत की राजकुमारी। पर दृश्यों में देशकालानुसार सामाजिक परिस्थिति को ध्यान नहीं रखा गया है। कुछ दृश्य तो आजकल का समाज सामने लाते हैं, कुछ मध्ययुग का और कुछ उस प्राचीन काल का जब स्वयंवर की प्रथा प्रचलित थी। पात्रों के अनुरूप भाषा रखने के प्रयत्न में मुंशी जी की भाषा इतनी घोर उर्दू कर दी गई है कि केवल हिंदी-पढ़ा व्यक्ति एक पंक्ति भी नहीं समझ सकता। कहाँ स्वयंवर, कहाँ ये मुंशी जी!

जैसा ऊपर कहा गया है, यह नाटक अँगरेजी नाटकों के ढंग पर लिखा गया है। इसमें प्रस्तावना नहीं रखी गई है। दूसरी बात यह कि यह दुःखांत है। भारतीय रूपक-क्षेत्र में दुःखांत नाटकों का चलन न था। इसकी अधिक चर्चा का एक कारण यह भी था।

लालाजी की "संयोगता-स्वयंवर" नाटक सबसे पीछे का है। यह पृथ्वीराज द्वारा संयोगता-हरण का प्रचलित प्रवाद लेकर लिखा गया है।

श्रीनिवासदास ने "परीक्षागुरु" नाम का एक शिक्षाप्रद उपन्यास भी लिखा। वे खड़ी बोली की बोलचाल के शब्द और मुहावरे अच्छे लाते थे। उपर्युक्त चारों लेखकों में प्रतिभाशालियों को मनमौजीपन था, पर लाला श्रीनिवासदास व्यवहार में दक्ष और संसार का ऊँचा-नीचा समझने वाले पुरुष थे। अतः उनकी भाषा संयत और साफ-सुथरी तथा रचना बहुत कुछ सोद्देश्य होती थी। 'परीक्षा-गुरु' से कुछ अंश नीचे दिया जाता है––

"मुझे आपकी यह बात बिलकुल अनोखी मालूम होती है। भला, परोपकारादि शुभ कामों का परिमाण कैसे बुरा हो सकता है?" पंडित पुरुषोत्तमदास ने कहा।

"जैसे अन्न प्राणाधार है, परंतु अति भोजन से रोग उत्पन्न होता है" लाला ब्रजकिशोर [ ४७६ ]कहने लगे "देखिए परोपकार की इच्छा अत्यंत उपकारी है परंतु हद से आगे बढ़ने पर वह भी फिजूलखर्ची समझी जायगी और अपने कुटुंब परिवारादि का सुख नष्ट हो जायगा। जो आलसी अथवा अधर्मियों की सहायता की, तो उससे संसार में अलस्य और पाप की वृद्धि होगी। इसी तरह कुपात्र में भक्ति होने से लोक परलोक दोनों नष्ट हो जायँगे। न्यायपरता यद्यपि सब वृत्तियों को समान रखनेवाली है, परंतु इसकी अधिकता से भी मनुष्य के स्वभाव में मिलनसारी नहीं रहती, क्षमा नहीं रहती। जब बुद्धिवृत्ति के कारण किसी वस्तु के विचार में मन अत्यंत लग जायगा तो और जानने लायक पदार्थों की अज्ञानता बनी रहेगी। आनुषांगिक प्रवृत्ति के प्रबल होने से जैसा संग होगा वैसा रंग तुरंत लग जाया करेगा।"

ऊपर उद्धरण में अँगरेजी उपन्यासों के ढंग पर भाषण के बीच में या अत में "अमुक ने कहा", "अमुक कहने लगे" ध्यान देने योग्य है। खैरियत हुई कि इस प्रथा का अनुसरण हिंदी के उपन्यासों में नहीं हुआ।

भारतेंदुजी के मित्रों में कई बातों में उन्हीं की-सी तबीयत रखनेवाले विजयराघवगढ़ (मध्य प्रदेश) के राजकुमार ठाकुर जगमोहनसिंह थे। उनका जन्म श्रावण शुक्ल १४ सं॰ १९१४ को और मृत्यु सं॰ १९५६ (मार्च सन् १८९९) में हुई। वे शिक्षा के लिये कुछ दिन काशी में रखे गए थे जहाँ उनका भारतेंदु के साथ मेल-जोल हुआ। वे संस्कृत साहित्य और अँगरेजी के अच्छे जानकार तथा हिंदी के एक प्रेम-पथिक कवि और माधुर्यपूर्ण गद्य लेखक थे। प्राचीन संस्कृत-साहित्य के अभ्यास और विंध्याटवी के रमणीय प्रदेश में निवास के कारण विविध-भावमयी प्रकृति के रूप-माधुर्य की जैसी सच्ची परख, जैसी सच्ची अनुभूति, उनमे थी वैसी उस काल के किसी हिंदी कवि या लेखक में नहीं पाई जाती। अब तक जिन लेखकों की चर्चा हुई उनके हृदय में इस भूखंड की रूपमाधुरी के प्रति कोई सच्चा प्रेम-संस्कार न था। परंपरा पालन के लिये चाहे प्रकृति का वर्णन उन्होंने किया हो पर वहाँ उनका हृदय नहीं मिलता। अपने हृदय पर अंकित भारतीय ग्राम्य जीवन के माधुर्य का जो संस्कार ठाकुर साहब ने अपने "श्यामा-स्वप्न" में व्यक्त किया है। उसकी सरसता निराली है। बाबू हरिश्चंद्र, पंडित प्रतापनारायण आदि कवियों [ ४७७ ]और लेखकों की दृष्टि और हृदय की पहुँच मानव-क्षेत्र तक ही थी, प्रकृति के ऊपर क्षेत्रों तक नहीं। पर ठाकुर जगमोहनसिंहजी ने नरक्षेत्र के सौंदर्य को प्रकृति के और क्षेत्रों के सौंदर्य के मेल में देखा है। प्राचीन संस्कृत साहित्य के रुचि-संस्कार के साथ भारतभूमि की प्यारी रूप रेखा को मन में बसानेवाले पहले हिदी लेखक थे, यहाँ पर बस इतना ही कहकर हम उनके "श्यामास्वप्न" का एक दृश्य-खंड नीचे देते हैं––

"नर्मदा के दक्षिण दंडकारण्य का एक देश दक्षिण कोशल नाम से प्रसिद्ध है––

याही मग है, कै गए दंढकवन श्री राम।
तासों पावन देस वह विंध्याटवी ललाम॥

मैं कहाँ तक इस सुंदर देश का वर्णन करूँ?... ... जहाँ की निर्झरिणी––जिनके तीर वानीर से भिरे, मदकल-कूंजित विहंगमों से शोभित हैं, जिनके मूल से स्वच्छ और शीतल जलधारा बहती है और जिनके किनारे के श्याम जबू के निकुंज फलभार से नमित जनाते हैं––शब्दायमान होकर झरती है। × × × जहाँ के शल्लकी-वृक्षों की छाल, में हाथी अपना बदन रगड़ रगड़ खुजली मिटाते हैं और उनमें से निकला क्षीर सब वन के शीतल समीर को सुरभित करता है। मंजु वंजुलकी लता और नील निचुल के निकुंज जिनके पत्ते ऐसे सघन जो सूर्य की किरनो की भी नहीं निकलने देते, इस नदी के तट पर शोभित हैं।

ऐसे दंडकारण्य के प्रदेश में भगवती चित्रोत्पला जो नीलोत्पलो की झाड़ियों और मनोहर पहाड़ियों के बीच होकर बहती है, ककगृद्ध नामक पर्वत से निकले अनेक दुर्गम विषम और असम भूमि के ऊपर से, बहुत से, तीर्थों और नगरों को अपने पुण्य-जल से पावन करती, पूर्व समुद्र में गिरती है।

इस नदी के तीर अनेक जगली गाँव बसे हैं। मेरा ग्राम इन सभी से उत्कृष्ट और शिष्ट जनों से पूरित है। इसके नाम ही को सुनकर तुम जानोगे कि यह कैसा सुंदर ग्राम है। × × × × इस पावन अभिराम ग्राम का नाम श्यामापुर है। यहाँ आम के आराम पथिके और पवित्र यात्रियों को विश्राम और आराम देते हैं। × × × × पुराने टूटे-फूटे देवाले इस ग्राम की प्राचीनता के साक्षी हैं। ग्राम के सीमात के झाड, जहाँ झुंड के झुंड कौवै और बगुले बसेरा लेते हैं, गवँई की शोभा बताते हैं। पौ फटते [ ४७८ ]और गोधूली के समय गैयों के खुरों से उड़ी धूल ऐसी गलियों में छा जाती है मानों कुहिरा गिरता हो। × × × × ऐसा सुंदर ग्राम, जिसमें शयामसुंदर स्वयं विराजमान हैं, मेरा जन्म-स्थान था।"

कवियों के पुराने प्यार की बोली से देश की दृश्यावली को सामने रखने का मूक समर्थन तो इन्होंने किया ही है, साथ ही भाव-प्रबलता से प्रेरित कल्पना के विप्लव और विक्षेप अंकित करनेवाली एक प्रकार की प्रलापशैली भी इन्होंने निकाली जिसमे रूपविधान का वैलक्षण्य प्रधान था, न कि शब्दविधान का। क्या अच्छा होता यदि इस शैली का हिंदी में स्वतंत्र रूप से विकास होता। तब तो बंग-साहित्य में प्रचलति इस शैली का शब्दप्रधान रूप, जो हिंदी पर कुछ काल से चढ़ाई कर रहा है और अब काव्यक्षेत्र का अतिक्रमण कर कभी कभी विषय-निरूपक निबंधों तक का अर्थग्रास करने दौड़ता है, शायद जगह न पाता।

बाबू तोताराम––ये जाति के कायस्थ थे। इनका जन्म सं॰ १९०४ में और मृत्यु दिसंबर १९०२ में हुई। बी॰ ए॰ पास करके ये हेडमास्टर हुए पर अंत में नौकरी छोड़कर अलीगढ़ में प्रेस खोलकर 'भारतबंधु' पत्र निकालने लगे। हिंदी को हर एक प्रकार से हितसाधन करने के लिये जब भारतेंदुजी खड़े हुए थे उस समय उनका साथ देनेवालों में ये भी थे। इन्होंने "भाषासंवर्द्धिनी" नाम की एक सभा स्थापित की थी। ये हरिश्चंद्र-चंद्रिका के लेखको में से थे। उसमें 'कीर्तिकेतु' नाम का इनका एक नाटक भी निकला था। ये जब तक रहे, हिंदी के प्रचार और उन्नति में लगे रहे। इन्होंने कई पुस्तकें लिखकर अपनी सभा के सहायतार्थ अर्पित की थीं––जैसे "केटोकृतात नाटक" (अँगरेजी का अनुवाद), स्त्रीसुबोधिनी। भाषा इनकी साधारण अर्थात् विशेषतारहित है। इनके 'कीर्तिकेतु' नाटक का एक भाषण देखिए––

"यह कौन नहीं जानता? परंतु इस नीच संसार के आगे कीर्तिकेतु बिचारे की क्या चलती है? जो पराधीन होने ही से प्रसन्न रहता है और सिसुमार की सरन जा गिरने का जिसे चाव है, हमारा पिता अत्रिपुर में बैठा हुआ वृथा रमावती नगरी की नाम मात्र प्रतिष्ठा बनाए है। नवपुर की निर्बल सेना और एक रीती थोथी, सभी जो निष्फल बुद्धों से शेष रह गई है, वह उसके संग है। हे ईश्वर!" [ ४७९ ]भारतेंदु के साथ हिंदी की उन्नति में योग देनेवालों में नीचे लिखे महानुभाव भी विशेष उल्लेख योग्य हैं––

पं॰ केशवराम भट्ट महाराष्ट्र ब्राहाण थे जिनके पूर्वज बिहार में बस गए थे। उनका जन्म सं॰ १९११ और मृत्यु सं॰ १९६१ में हुई। उनका संबंध शिक्षा-विभाग से था। कुछ स्कूली पुस्तकों के अतिरिक्त उन्होंने 'सज्जाद-सुंबुल' और 'शमशाद-सौसन' नामक दो नाटक भी लिखे जिनकी भाषा उर्दू ही समझिए। इन दोनों नाटकों की विशेषता यह है कि ये वर्तमान जीवन को लेकर लिखे गए हैं। इनमे हिंदू, मुसलमान, अँगरेज, लुटेरे, लफंगे मुकदमेबाज, मारपीट करनेवाले, रुपया हजम करनेवाले इत्यादि अनेक ढंग के पात्र आए हैं। सं॰ १९२९ में उन्होंने 'विहारबंधु' निकाला था और १९३१ में 'विहारबंधु प्रेस' खोला था।

पं॰ राधाचरण गोस्वामी का जन्म वृंदावन में सं॰ १९१५ में हुआ और मृत्यु सं॰ १९८२ (दिसंबर सन् १९२५) में हुई। ये संस्कृत के बहुत अच्छे विद्वान् थे। 'हरिश्चंद्र मैगजीन' को देखते देखते इनमें देशभक्ति और समाज सुधार के भाव जगे थे। साहित्य-सेवा के विचार से इन्होंने 'भारतेंदु' नाम का एक पत्र कुछ दिनों तक वृंदावन से निकाला था। अनेक सभा-समाजों में संमिलित होने और समाज-सुधार का उत्साह रखने के कारण ये कुछ ब्रह्मसमाज की ओर आकर्षित हुए थे, और उसके पक्ष में 'हिंदू बाधव' में कई लेख भी लिखे थे। भाषा इनकी गठी हुई होती थी।

इन्होंने कई बहुत ही अच्छे मौलिक नाटक लिखे हैं जैसे, सुदामा नाटक, सती चंद्रावली, अमरसिंह राठौर, तन-मन-धन श्री गोसाईंजी के अर्पण। इनमें से 'सती चंद्रावली' और 'अमरसिंह राठौर' बड़े नाटक हैं। 'सतीचंद्रावली' की कथावस्तु औरंगजेब के समय हिंदुओं पर होनेवाले, अत्याचारों का चित्र खींचने के लिये बड़ी निपुणता के साथ कल्पित की गई है। अमरसिंह राठौर ऐतिहासिक है। नाटकों के अतिरिक्त इन्होंने 'विरजा', 'जावित्री' और 'मृण्मयी' नामक उपन्यासो के अनुवाद भी बंगभाषा से किए हैं।

पंडित अंबिकादत्त व्यास का जन्म सं॰ १९१५ और मृत्यु सं॰ १९५७ [ ४८० ]में हुई। ये संस्कृत के प्रतिभाशाली विद्वान्, हिंदी के अच्छे कवि और सनातन धर्म के बड़े उत्साही उपदेशक थे। इनके धर्म-संबंधी व्याख्यानों की धूम रहा करती थी। "अवतार-मीमांसा" आदि धर्म-संबंधी पुस्तकों के अतिरिक्त इन्होंने बिहारी के दोहों के भाव को विस्तृत करने के लिये "बिहारी-विहार" नाम का एक बड़ा काव्य-ग्रंथ लिखा। पद्य-रचना का भी विवेचन इन्होंने अच्छा किया हैं। पुरानी चाल की कविता (जैसे, पावस-पचासा) के अतिरिक्त इन्होंने 'गद्य-काव्य मीमांसा' आदि अनेक गद्य की पुस्तकें भी लिखीं। 'इन्होंने', 'उन्होंने' के स्थान पर ये 'इनने', 'उनने' लिखते थे।

ब्रजभाषा की अच्छी कविता ये बाल्यावस्था से ही करते थे जिससे बहुत शीघ्र रचना करने का इन्हे अभ्यास हुआ। कृष्णलीला को लेकर इन्होंने ब्रजभाषा में 'ललिता नाटिका' लिखी थी। भारतेंदु के कहने से इन्होंने 'गो-संकट नाटक' लिखा जिसमे हिंदुओं के बीच असंतोष फैलने पर अकबर द्वारा गोवध बंद किए जाने की कथावस्तु रखी गई है।

पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या––इन्होंने गिरती दशा में "हरिश्चंद्रचंद्रिका" को सँभाला था और उसमें अपना नाम भी जोड़ा था। इनके रंग ढंग से लोग इन्हें इतिहास का अच्छा जानकर और विद्वान् समझते थे। कविराजा श्यामलदानजी ने जब अपने "पृथ्वीराज-चरित्र" ग्रंथ में "पृथ्वीराजरासो" को जाली ठहराया था तब इन्होंने "रासो-संरक्षा" लिखकर उसको असल सिद्ध करने का प्रयत्न किया था।

पंडित भीमसेन शर्मा––ये पहले स्वामी दयानंदजी के दहने हाथ थे। संवत् १९४० और १९४२ के बीच इन्होंने धर्म-संबंधी कई पुस्तके हिंदी में लिखीं और कई संस्कृत ग्रंथों के हिंदी भाष्य भी निकाले। इन्होंने "आर्य सिद्धांत" नामक एक मासिक पत्र भी निकाला था। भाषा के संबंध में इनका विलक्षण मत था। "संस्कृत भाषा की अद्भुत शक्ति" नाम का एक लेख लिखकर इन्होंने अरबी फारसी शब्दों को भी संस्कृत बना डालने की राय बड़े जोर शोर से दी थी––जैसे दुश्मन को "दुःशमन" सिफारिश को "क्षिप्राशिष", चश्मा को "चक्ष्मा", शिकायत को "शिक्षायत्र" इत्यादि। [ ४८१ ]काशीनाथ खत्री––इनका जन्म संवत् १९०६ में अगरे के माईथान मुहल्ले में और परलोकवास सिरसा (जिला इलाहाबाद) में जहाँ ये पहले अध्यापक रह चुके थे और अंतिम दिनों में आकर बस गए थे, सं॰ १९४८ (९ जनवरी १८९१) में हुआ। कुछ दिन गवर्नमेंट वर्नाक्यूलर रिपोर्टर का काम करके पीछे ये लाट साहब के दफ्तर के पुस्तकाध्यक्ष नियुक्त हो गए थे। ये मातृभाषा के सच्चे सेवक थे। नीति, कर्तव्यपालन, स्वदेशहित ऐसे विषयो पर ही लेख और पुस्तकें लिखने की ओर इनकी रुचि थी। शुद्ध-साहित्य कोटि में आनेवाली रचनाएँ इनकी बहुत कम हैं। ये तीन पुस्तकें उल्लेख योग्य हैं––(१) ग्राम-पाठशाला और निकृष्ट नौकरी नाटक, (२) तीन इतिहासिक (?) रूपक और (३) बाल-विधवा संताप नाटक।

तीन ऐतिहासिक रूपकों में पहला तो हैं "सिंधुदेश की राजकुमारियाँ" जो सिंध में अरबों की चढ़ाई वाली घटना लेकर लिखा गया; दूसरा है 'गुन्नौर की रानी' जिसमें भुपाल के मुसलमानी राज्य के संस्थापक द्वारा पराजित गुन्नौर के हिंदू राजा की विधवा रानी का वृत्त है; तीसरा है 'लव जी का स्वप्न' जो रघुवंश की एक कथा के आधार पर है।

काशीनाथ खत्री वास्तव में एक अत्यंत अभ्यस्त अनुवादक थे। इन्होंने कई अँगरेजी पुस्तकों, लेखों और व्याख्यानों के अनुवाद प्रस्तुत किए, जैसे––शेक्सपियर के मनोहर नाटकों के अख्थिानों (लैंब कृत) का अनुवाद; नीत्युपदेश (ब्लैकी के Self Culture का अनुवाद); इंडियन नेशनल-कांग्रेस (ह्यूम के व्याख्यान का अनुवाद); देश की दरिद्रता और अँगरेजी राजनीति (दादाभाई नौरोजी के व्याख्यान का अनुवाद); भारत त्रिकालिक दशा (कर्नल अलकाट के व्याख्यान का अनुवाद) इत्यादि। अनुवादों के अतिरिक्त इन्होंने 'भारतवर्ष की विख्यात स्त्रियों के चरित्र', 'यूरोपियन धर्मशीला स्त्रियों के चरित्र', 'मातृभाषा की उन्नति किस विधि करना, योग्य है' इत्यादि अनेक छोटी छोटी पुस्तकें और लेख लिखे।

राधाकृष्णदास भारतेंदु हरिश्चंद्र के, फुफेरे भाई थे। इनका जन्म सं॰ १९२२ और मृत्यु सं॰ १९६४ में हुई। इन्होंने भारतेंदु को अधूरा छोड़ा हुआ नाटक 'सती प्रताप' पूरा किया था। इन्होंने पहले पहल 'दुःखिनी बाला' [ ४८२ ]नामक एक छोटा सा रूपक लिखा था जो 'हरिश्चंद्र-चंद्रिका' और 'मोहन चंद्रिका' में प्रकाशित हुआ था। इसमें जन्मपत्री-मिलान, बालविवाह, अपव्यय आदि कुरीतियों का दुष्परिणाम दिखाया गया है। इनका दूसरा नाटक है 'महारानी पद्मावती अथवा मेवाड़-कमलिनी' जिसकी रचना चित्तौड़ पर अलाउद्दीन की चढ़ाई के समय की पद्मिनी-वाली घटना को लेकर हुई है। इनका सबसे उत्कृष्ट और बड़ा नाटक 'महाराणा प्रताप' (या-राजस्थान केसरी) है, जो सं॰ १९५४ में समाप्त हुआ था। यह नाटक बहुत ही लोकप्रिय हुआ और इसको अभिनय कई बार कई जगह हुआ।

भारतीय प्रथा के अनुसार इसके सब पात्र भी आदर्श के साँचो में ढले हुए हैं। कथोपकथन यद्यपि चमत्कारपूर्ण नहीं, पर पात्र और अवसर के सर्वथा उपयुक्त है; उनमें कहीं कहीं ओज भी पूरा है। वस्तु योजना बहुत ही व्यवस्थित है। इस नाटक में अकबर का हिंदुओं के प्रति सद्भाव उसकी कुटनीति के रूप में प्रदर्शित है। यह बात चाहे कुछ लोगो को पसंद न हो।

नाटकों के अतिरिक्त इन्होंने "निस्सहाय हिंदू" नामक एक छोटा सा उपन्यास भी लिखा था। बँगला, के कई उपन्यासों के अनुवाद इन्होंने किए हैं––जैसे रवर्णलता, मरता क्या न मरता।

कार्तिकप्रसाद खत्री––(जन्म सं॰ १९०८, मृत्यु १९६१) ये आसाम, बँगाल आदि कई स्थानों में रहे। हिंदी का प्रेम इनमें इतना अधिक था, कि २० वर्ष की अवस्था में ही इन्होंने कलकत्ते से हिंदी की पत्र-पत्रिकाएँ निकालने का उद्योग किया था। इनका "रेल का विकट-खेल" नाम का एक नाटक १५ अप्रैल सन् १८७४ ई॰ की संख्या से 'हरिश्चंद्र मैगजीन' में छपने लगा था, पर पूरा न हुआ। 'इला', 'प्रमीला', 'जया', 'मधुमालती' इत्यादि अनेक बँगला उपन्यासों के इनके किए हुए अनुवाद काशी के 'भारत जीवन' प्रेस से निकले।

फ्रेडरिक पिन्काट का उल्लेख पहले हो चुका है और यह कहा जा चुका है कि वे इँगलैंड में बैठे बैठे हिंदी में लेख और पुस्तकें लिखते और हिंदी लेखकों के साथ पत्रव्यवहार भी हिंदी में ही करते थे। उन्होंने दो पुस्तकें हिंदी में लिखी है–– [ ४८३ ]१ बालदीपक ४ भाग (नागरी और कैथी अक्षरों में), २ विक्टोरिया-चरित्र। ये दोनों पुस्तकें खड्गविलास प्रेस, बाँकीपुर में छपी थीं। 'बालदीपक' बिहार के स्कूलों में पढ़ाई जाती थी। उसके एक पाठ का कुछ अंश भाषा के नमूने के लिये दिया जाता है––

"हे लडको! तुमको चाहिए कि अपनी पोथी को बहुत सँभाल कर रखो। मैली न होने पावे, बिगड़े नहीं और जब उसे खोलो चौकसाई से खोलो कि उसका पन्ना अँगुली के तले दबकर फट न जावे।"

'विक्टोरिया-चरित्र' १३६ पृष्ठों की पुस्तक है। इसकी भाषा उनके पत्रों की भाषा की अपेक्षा अधिक मुहावरेदार है।

उनके विचार उनके लंबे लंबे पत्रो में मिलते हैं। बाबू कार्तिकप्रसाद खत्री को सं॰ १९४३ के लगभग अपने एक पत्र में वे लिखते हैं––

"आपका सुखद पत्र मुझको मिला और उससे मुझको परम आनंद हुआ।

आपकी समझ में हिंदी भाषा का प्रचलित होना उत्तर-पश्चिम-वासियों के लिये सबसे भारी बात है। मैं भी संपूर्ण रूप से जानता हूँ कि जब तक किसी देश में निज भाषा और अक्षर सरकारी और व्यवहार सबधी कामों में नहीं प्रवृत्त होते हैं तब तक उस देश का परम सौभाग्य हो नहीं सकता। इसलिये मैंने बार बार हिंदी भाषा के प्रचलित करने का उद्योग किया है।

देखो, अस्सी बरस हुए बंगाली भापा निरी अपभ्रंश भाषा थी। पहले पहल थोड़ी-थोड़ी संस्कृत बाते उसमें मिली थी। परंतु अब क्रम करके सँवारने से निपट अच्छी भाषा हो गई। इसी तरह चाहिए कि इन दिनों में पंडित लोग हिंदी भाषा में थोड़ी-थोड़ी संस्कृत बाते मिलावें। इस पर भी स्मरण कीजिए कि उत्तर-पश्चिम में हजार बरस तक फारसी बोलनेवाले लोग राज करते थे। इसी कारण उस देश के लोग बहुत फारसी बातों को जानते हैं। उन फारसी बातों को भाषा से निकाल देना असंभव है। इसलिये उनको निकाल देने का उद्योग मूर्खता का काम है।"

हिंदुस्तानी पुलिस की करतूतों को सुनकर आपने बा॰ कार्तिकप्रसाद को लिखा था––

"कुछ दिन हुए कि मेरे एक हिंदुस्तानी दोस्त ने हिंदुस्तान के पुलिस के जुल्म की [ ४८४ ]ऐसी तस्वीर खैंची कि मैं हैरान हो गया। मैंने एक चिट्ठी लाहौर नगर के 'ट्रीव्यून' नामी समाचार पत्र को लिखी। उस चिट्ठी के छपते ही मेरे पास बहुत से लोगों ने चिट्ठियाँ भेजीं जिनसे प्रकाशित हुआ कि पुलिस का जुल्म उससे भी ज्यादा है जितना मैंने सुना था। अब मैंने पक्का इरादा कर लिया है कि जब तक हिंदुस्तान की पुलिस वैसी ही न हो जावे जैसे कि हमारे इँगलिस्तान में है, मैं इस बात का पीछा न छोड़ूँगा।"

भारतेंदु हरिश्चंद्र को एक चिट्ठी पिन्काट साहब ने ब्रजभाषा पद्य में लिखी थी जो नीचे दी जाती है––

"वैस-बस-अवतंस, श्रीबाबू हरिचंद जू।
छीर नीर कलहस, टुक उत्तर लिखि दैव मोहि॥

पर उपकार में उदार अवनी में एक, भाषत अनेक यह राजा हरिचंद है। विभव बड़ाई वपु वसन विलास लखि कहत यहाँ के लोग बाबू हरिचंद है। चंद वैसो अमिय अनदकर आरत को कहत कविंद यह भारत को चंद हैं। कैसे अब देखैं, को बतावै, कहाँ पावैं? होय, कैसे वहाँ आवैं हम कोई मतिमंद हैं।

श्रीयुत सकल-कविंद-कुल-नुत बाबू हरिचंद।
भारत-हृदय-सतार-तभ उदय रहो जनु चंद॥"