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हिंदी-साहित्य का इतिहास

संयोगिता स्वयंवर पर नाटक लिखा गया तो इसमें कोई दृश्य स्वयंवर का न रखना मानो इस कविता का नाश कर डालना है, क्योंकि यही इसमें वर्णनीय विषय है।

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नाटक के प्रबंध का कुछ कहना ही नहीं, एक गँवार भी जानता होगा कि स्थान परिवर्तन के कारण गर्भांक की आवश्यकता होती है, अर्थात् स्थान के बदलने में परदा बदला जाता है और इसी पर्दे के बदलने को दूसरा गर्भांक मानते हैं, सो आपने एक ही गर्भांक में तीन स्थान बदल डाले।

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गर्जे कि इस सफहे की कुल स्पीचें 'मरचेंट आफ वेनिस' से ली गईं। पहिले तो मैं यह पूछता हूँ कि विवाह में मुद्रिका परिवर्त्तन की रीति इस देश की नहीं, बल्कि यूरोप की (है)। मैंने माना कि आप शकुंतला को दुष्यंत के मुद्रिका देने का प्रमाण देंगे, पर वो तो परिवर्त्तन न था किंतु महाराज ने अपना स्मारक-चिह्न दिया था।


लाला श्रीनिवासदास के पिता लाला मंगलीलाल मथुरा के प्रसिद्ध सेठ लक्ष्मीचंद के मुनीम क्या मैनेजर थे जो दिल्ली में रहा करते थे। वहीं श्रीनिवासदास का जन्म संवत् १९०८ में और मृत्यु सं॰ १९४४ में हुई।

भारतेंदु के सम-सामयिक लेखकों में उनका भी एक विशेष स्थान था। उन्होंने कई नाटक लिखे हैं। "प्रह्लाद चरित्र" ११ दृश्यों का एक बड़ा नाटक है, पर उसके संवाद आदि रोचक नहीं हैं। भाषा भी अच्छी नहीं है। "तप्ता-संवरण नाटक" सन् १८७४ के 'हरिश्चंद्र मैगजीन' में छपा था, पीछे सन् १८८३ ई॰ में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। इसमें तप्ता और संवरण की पौराणिक प्रेम कथा है। संवरण ने तप्ता के ध्यान में लीन रहने के कारण गौतम मुनि को प्रणाम नहीं किया। इसपर उन्होंने शाप दिया कि जिसके ध्यान में तुम मग्न हो वह तुम्हें भूल जाय। फिर सदय होकर शाप का यह परिहार उन्होंने बताया कि अंग-स्पर्श होते ही उसे तुम्हारा स्मरण हो जायगा।

लालाजी के "रणधीर और प्रेममोहनी" नाटक की उस समय अधिक चर्चा हुई थी। पहले पहल यह नाटक सं॰ १९३४ में प्रकाशित हुआ था और इसके साथ एक भूमिका थी जिसमें नाटकों के संबंध में कई बातें अँगरेजी