हिंदी निबंधमाला-१/राजा भोज का सपना-राजा शिवप्रसाद
( ३ ) राजा भोज का सपना
वह कौन सा मनुष्य है जिसने महाप्रतापी राजा महाराज भोज का नाम न सुना हो। उसकी महिमा और कीर्त्ति तो सारे जगत् में व्याप रही है। बड़े बड़े महिपाल उसका नाम सुनते ही काँप उठते और बड़े बड़े भूपति उसके पाँव पर अपना सिर नवाते, सेना उसकी समुद्र की तरंगों का नमूना और खजाना उसका सोने चाँदी और रत्नों की खान से भी दूना। उसके दान ने राजा कर्ण को लोगों के जी से भुलाया और उसके न्याय ने विक्रम को भी लजाया। कोई उसके राज्य में भूखा न सोता और न कोई उघाड़ा रहने पाता। जो सत्तू माँगने आता उसे मोतीचूर मिलता और जो गजी चाहता उसे मलमल दी जाती। पैसे की जगह लोगों को अशर्फियाँ बाँटता और मेह की तरह भिखारियों पर मोती बरसाता। एक एक श्लोक के लिये ब्राह्मणों को लाख लाख रुपया उठा देता और सवा लक्ष ब्राह्मणों को षट्रस भोजन कराके तब आप खाने को बैठता। तीर्थयात्रा, स्नान, दान और व्रत उपवास में सदा तत्पर रहता। उसने बड़े बड़े चांद्रायण किए थे और बड़े बड़े जंगल पहाड़ छान डाले थे।
एक दिन शरद् ऋतु में संध्या के समय सुंदर फुलवाड़ी के बीच स्वच्छ पानी के कुंड के तीर, जिसमें कुमुद और कमलों
के बीच जल्ल-पक्षो कल्लोलें कर रहे थे, रत्नजटित सिंहासन पर
कोमल तकिए के सहारे स्वस्थचित्त बैठा हुआ वह महलों की
सुनहरी कलसियाँ लगी हुई संगमर्मर की गुमजियों के पोछे से
उदय होता हुआ पूर्णिमा का चंद्रमा देख रहा था और निर्जन
एकांत होने के कारण मन ही मन में सोचता था कि अहो !
मैंने अपने कुल को ऐमा प्रकाश किया जैसे सूर्य से इन कमलों
का विकास होता है। क्या मनुष्य और क्या जीव जंतु मैंने
अपना सारा जन्म इन्हीं का भला करने में गँवाया और व्रत
उपवास करते करते फूल से शरीर को काँटा बनाया। जितना
मैंने दान किया उतना तो कभी किसी के ध्यान में भी न पाया
होगा । जो मैं ही नहीं तो फिर और कौन हो सकता है ?
मुझे अपने ईश्वर पर दावा है, वह अवश्य मुझे अच्छी गति
देगा। ऐसा कब हो सकता है कि मुझे कुछ दोष लगे?
इसी अर्से में चोबदार ने पुकारा-"चौधरी इंद्रदत्त निगाह
रूबरू !” श्रीमहाराज सलामत भोज ने आँख उठाई, दीवान ने
साष्टांग दंडवत की, फिर सम्मुख जा हाथ जोड़ यों निवेदन
किया-"पृथ्वीनाथ, सड़क पर वे कुएँ जिनके वास्ते आपने
हुक्म दिया था बनकर तैयार हो गए हैं और आम के बाग भी
सब जगह लग गए। जो पानी पीता है आपको असीस देता
है और जो उन पेड़ों की छाया में विश्राम करता आपकी बढ़ती
दौलत मनाता है।" राजा अति प्रसन्न हुआ और बोला कि
"सुन मेरी अमलदारी भर में जहाँ जहाँ सड़कें हैं कोस कोस
पर कुएँ खोदवाके सदाव्रत बैठा दे और दुतरफा पेड़ भी जल्द
लगवा दे ।" इसी अर्से में दानाध्यक्ष ने आकर आशीर्वाद दिया
और निवेदन किया-"धर्मावतार ! वह जो पाँच हजार
ब्राह्मण हर साल जाड़े में रजाई पाते हैं सो डेवढ़ो पर हाजिर
हैं।" राजा ने कहा-"अब पाँच के बदले पचास हजार को
मिला करे और रजाई की जगह शाल दुशाले दिए जावें।"
दानाध्यक्ष दुशालों के लाने वास्ते तोशेखाने में गया। इमारत
के दारोगा ने आकर मुजरा किया और खबर दी कि "महा-
राज ! उस बड़े मंदिर की जिसके जल्द बना देने के वास्ते सर-
कार से हुक्म हुअा है आज नींव खुद गई, पत्थर गढ़े जाते हैं
और लुहार लोहा भी तैयार कर रहे हैं।” महाराज ने तिउ-
रियाँ बदलकर उस दारोगा को खूब घुड़का "अरे मूर्ख, वहाँ
पत्थर और लोहे का क्या काम है ? बिलकुल मंदिर संगमर्मर
और संगमूसा से बनाया जावे और लोहे के बदले उसमें सब
जगह सोना काम में आवे जिसमें भगवान् भी उसे देखकर
प्रसन्न हो जावें और मेरा नाम इस संसार में अतुल कीर्ति पावे।"
यह सुनकर सारा दरबार पुकार उठा कि "धन्य महाराज! क्यों न हो ? जब ऐसे हो तब तो ऐसे हो। आपने इस कलि- काल को सतयुग बना दिया, मानों धर्म का उद्धार करने को इस जगत् में अवतार लिया। प्राज आपसे बढ़कर और दूसरा कौन ईश्वर का प्यारा है, हमने तो पहले ही से आपको साक्षात् धर्मराज विचारा है।" व्यासजी ने कथा आरंभ की, भजन कीर्तन होने लगा। चाँद सिर पर चढ़ पाया। घड़ि- याली ने निवेदन किया कि "महाराज ! आधी रात के निकट है।” राजा की आँखों में नींद आ रही थी; व्यास कथा कहते थे पर राजा को ऊँघ आती थी वह उठकर रनवास में गया।
जड़ाऊ पलँग और फूलों की सेज पर सोया । रानियाँ पैर
दाबने लगीं। राजा की प्रॉख झप गई तो स्वप्न में क्या देखता
है कि वह बड़ा संगमर्मर का मंदिर बनकर बिलकुल तैयार हो
गया, जहाँ कहीं उस पर नक्काशी का काम किया है वहाँ उसने
बारीकी और सफाई में हाथीदांत को भी मात कर दिया है,
जहाँ कहीं पञ्चीकारी का हुनर दिखलाया है वहा जवाहिरों को
पत्थरों में जड़कर तसवीर का नमूना बना दिया है। कहीं
लालों के गुल्लालों पर नीलम की बुलबुलें बैठी हैं और प्रोस
की जगह हीरों के लोलक लटकाए हैं, कहीं पुखराजों की डंडियों
से पन्ने के पत्ते निकालकर मोतियों के भुट्टे लगाए हैं। सोने
की चाबों पर शामियाने और उनके नीचे बिल्लौर के हौजों में
गुलाब और केवड़े के फुहार छूट रहे हैं। मनों धूप जल रहा
है, सैकड़ों कपूर के दीपक बल रहे हैं। राजा देखते ही मारे
घमंड के फूलकर मशक बन गया कभी नीचे कभी ऊपर,
कभी दाहने कभी बाएँ निगाह करता और मन में सोचता कि
अब इतने पर भी मुझे क्या कोई स्वर्ग में घुसने से रोकेगा या
पवित्र पुण्यात्मा न कहेगा ? मुझे अपने कर्मो का भरोसा है,
दूसरे किसी से क्या काम पड़ेगा।
इसी अर्से में वह राजा उस सपने के मंदिर में खड़ा खड़ा
क्या देखता है कि एक ज्योति सी उसके सामने आसमान से
उतरी चली आती है उसका प्रकाश तो हजारों सूर्य से भी
अधिक है परंतु जैसे सूर्य को बादल घेर लेता है उस प्रकार
उसने मुँह पर घूँघट सा डाल लिया है, नहीं तो राजा की,
आँखें कब उस पर ठहर सकती थीं; इस चूंघट पर भी वे मारे
चकाचौंध के झपकी चली जाती थीं। राजा उसे देखते ही
काँप उठा और लड़खड़ाती सी जबान से बोला कि हे महा-
राज ! आप कौन हैं और मेरे पास किस प्रयोजन से
आए उस पुरुष ने बादल की गरज के समान गंभीर उत्तर दिया कि
मैं सत्य हूँ, अंधों की आँखें खोलता हूँ, मैं उनके आगे से
धोखे की टट्टी हटाता हूँ, मैं मृगतृष्णा के भटके हुओं का भ्रम
मिटाता हूँ और सपने के भूले हुओं को नींद से जगाता हूँ।
हे भोज ! अगर कुछ हिम्मत रखता है तो आ हमारे साथ आ
और हमारे तेज के प्रभाव से मनुष्यों के मन के मंदिरों का भेद
ले, इस समय हम तेरे ही मन को जाँच रहे हैं। राजा के जी
पर एक अजब दहशत सी छा गई। नीची निगाह करके वह
गर्दन खुजाने लगा। सत्य बोला, भोज ! तू डरता है, तुझे
अपने मन का हाल जानने में भी भय लगता है ? भोज ने कहा-
नहीं, इस बात से तो नहीं डरता क्योंकि जिसने अपने तई
नहीं जाना उसने फिर क्या जाना ? सिवाय इसके मैं तो आप
चाहता हूँ कि कोई मेरे मन की थाह लेवे और अच्छी तरह
से जाँचे। मारे व्रत और उपवासों के मैंने अपना फूल सा
शरीर काँटा बनाया, ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देते देते लारा
खजाना खाली कर डाला, कोई तीर्थ बाकी न रखा, कोई नदी
या तालाब नहाने से न छोड़ा, ऐसा कोई आदमी नहीं कि
जिसकी निगाह में मैं पवित्र पुण्यात्मा न ठहरूँ। सत्य बोला,
"ठीक, पर भोज, यह तो बतला कि तू ईश्वर की निगाह में
क्या है ? क्या हवा में बिना धूप त्रसरेणु कभी दिखलाई देते
हैं ? पर सूर्य की किरण पड़ते ही कैसे अनगिनत चमकने लग
जाते हैं ? क्या कपड़े से छाने हुए मैले पानी में किसी को
कीड़े मालूम पड़ते हैं ? पर जब खुर्दबीन शीशे को लगाकर
देखा तो एक एक बूंद में हजारों ही जीव सूझने लग जाते
हैं । जो तू उस बात के जानने से जिसे अवश्य जानना चाहिए
डरता नहीं तो आ मेरे साथ श्रा, मैं तेरी आँखें खोलूंगा।"
निदान सत्य यह कह राजा को उस बड़े मंदिर के ऊँचे
हर्वाजे पर चढ़ा ले गया जहाँ से सारा बाग दिखलाई देता था
और फिर वह उससे यों कहने लगा कि भोज, मैं अभी तेरे
पापकर्मों की कुछ भी चर्चा नहीं करता। क्योंकि तूने अपने
तई निरा निष्पाप समझ रखा है, पर यह तो बतला कि तूने
पुण्य-कर्म कौन कौन से किए हैं कि जिनसे सर्वशक्तिमान् जग-
दीश्वर संतुष्ट होगा। राजा यह सुनके अत्यंत प्रसन्न हुआ।
यह तो मानों उसके मन की बात थी। पुण्य कर्म के नाम ने
उसके चित्त को कमल सा खिला दिया। उसे निश्चय था कि
पाप तो मैंने चाहे किया हो चाहे न किया हो, पर पुण्य मैंने
इतना किया है कि भारी से भारी पाप भी उसके पासंग में न
ठहरेगा । राजा को वहाँ उस समय सपने में तीन पेड़ बड़े ऊँचे
अपनी आँख के सामने दिखाई दिए। फलों से वे इतने लदे
थे कि मारे बोझ के उनकी टहनियाँ धरती तक झुक गई
थीं। राजा उन्हें देखते ही हरा हो गया और बोला कि
सत्य, यह ईश्वर की भक्ति और जीवों की दया अर्थात् ईश्वर और
मनुष्य दोनों की प्रोति के पेड़ हैं, देख फलों के बोझ से ये
धरती पर नए हैं । ये तीनों मेरे ही लगाए हैं। पहले में तो वे
सब लाल लाल फल मेरे दान से लगे हैं और दूसरे में वे पीले
पीले मेरे न्याय से और तीसरे में ये सब सफेद फल मेरे तप
का प्रभाव दिखाते हैं। मानों उस समय यह ध्वनि चारों ओर
से राजा के कानों में चली आती थी कि धन्य हो ! आज तुम
सा पुण्यात्मा दूसरा कोई नहीं, तुम साक्षात् धर्म के अवतार
हो, इस लोक में भी तुमने बड़ा पद पाया है और उस लोक में
भी इससे अधिक मिलेगा, तुम मनुष्य और ईश्वर दोनों की
आँखों में निर्दोष और निष्पाप हो। सूर्य के मंडल में लोग
कलंक बतलाते हैं पर तुम पर एक छीटा भी नहीं लगाते ।
सत्य बोला कि “भोज, जब मैं इन पेड़ों के पास था जिन्हें
तू ईश्वर की भक्ति और जीवों की दया के बतलाता है तब तो
इनमें फल फूल कुछ भी नहीं थे, ये निरे ठूँठ से खड़े थे। ये
लाल, पीले और सफेद फल कहाँ से आ गए ? ये सचमुच
उन पेड़ों में फल लगे हैं या तुझे फुसलाने और वश करने को
किसी ने उनकी टहनियों से लटका दिए हैं ? चल, उन पेड़ों
के पास चलकर देखें तो सही। मेरी समझ में तो
लाल फल जिन्हें तू अपने दान के प्रभाव से लगे बतलाता है यश
और कीर्ति फैलाने की चाह अर्थात् प्रशंसा पाने की इच्छा ने
इल पेड़ में लगाए हैं।" निदान ज्योंही सत्य ने उस पेड़ के
छूने को हाथ बढ़ाया राजा सपने में क्या देखता है कि वे सारे
आस्मान से ओले गिरते हैं एक आन की आन में
धरती पर गिर पड़े। धरती सारी लाल हो गई; पेड़ों पर सिवाय
पत्तों के और कुछ न रहा । सत्य ने कहा कि "राजा जैसे कोई
किसी चीज को मोम से चिपकाता है उसी तरह तूने अपने
भुलाने को प्रशंसा की इच्छा से ये फल इस पेड़ पर लगा लिए
थे सत्य के तेज से यह मोम गल गया, पेड़ ठूँठ का ठूँठ
रह गया । जो तूने दिया और किया सब दुनिया के दिखलाने
और मनुष्यों से प्रशंसा पाने के लिये, केवल ईश्वर की भक्ति और
जीवों की दया से तो कुछ भी नहीं दिया । यदि कुछ दिया हो
या किया हो तो तू ही क्यों नहीं बतलाता। मूर्ख, इसी के
भरोसे पर तू फूला हुआ स्वर्ग में जाने को तैयार हुआ था।"
भोज ने एक ठंढी सॉस ली। उसने तो औरों को भूला
समझा था पर वह सबसे अधिक भूला हुआ निकला। सत्य
ने उस पेड़ की तरफ हाथ बढ़ाया जो सोने की तरह चमकते
हुए पीले पीले फलों से लदा हुआ था। सत्य बोला. "राजा
ये फल तूने अपने भुलाने को, स्वर्ग की स्वार्थसिद्धि करने की
इच्छा से लगा लिए थे। कहनेवाले ने ठीक कहा है कि मनुष्य
मनुष्य के कर्मों से उसके मन की भावना का विचार करता है
और ईश्वर मनुष्य के मन की भावना के अनुसार उसके कर्मों
का हिसाबलेता है । तू अच्छी तरह जानता है कि यही न्याय
तेरे राज्य की जड़ है। जो न्याय न करे तो फिर यह राज्य तेरे
हाथ में क्योंकर रह सके। जिस राज्य में न्याय नहीं वह तो
बे-नीव का घर है, बुढ़िया के दाँतों की तरह हिलता है,
गिरा तब गिरा। मूर्ख, तू ही क्यों नहीं बतलाता कि यह
तेरा न्याय स्वार्थ सिद्ध करने और सांसारिक सुख पाने की
इच्छा से है अथवा ईश्वर की भक्ति और जीवों की दया से ?
भोज की पेशानी पर पसीना हो पाया, उसने आँखें नीची
कर लो, उससे जवाब कुछ न बन पड़ा। तीसरे पेड़ की बारी
आई । सत्य का हाथ लगते ही उसकी भी वही हालत हुई।
राजा अत्यंत लज्जित हुआ। सत्य ने कहा कि "मूर्ख ! ये तेरे
तप के फल कदापि नहीं, इनको तो इस पेड़ पर तेरे अहंकार
ने लगा रखा था। वह कौन सा व्रत व तीर्थयात्रा है जो
तूने निरहंकार केवल ईश्वर की भक्ति और जीवों की दया से
तूने यह तप केवल इसी वास्ते किया कि जिसमें तू
अपने तई औरों से अच्छा और बढ़कर विचारे । ऐसे ही तप पर
गोबर-गनेस, तू स्वर्ग मिलने की उम्मेद रखता है ? पर यह तो
बतला कि मंदिर के उन मुंडेरों पर वे जानवर से क्या दिख
लाई देते हैं; कैसे सुंदर और प्यारे मालूम होते हैं। पर तो
उनके पन्ने के हैं और गर्दन फीरोजे की, दुम में सारे किस्म के
जवाहिरात जड़ दिए हैं।" राजा के जी में धर्मड की चिड़िया
ने फिर फुरफुरी ली। मानों बुझते हुए दीये की तरह वह
जगमगा उठा। जल्दी से उसने जवाब दिया कि "हे सत्य,
यह जो कुछ तू मंदिर की मुंडेरों पर देखता है मेरे संध्यावंदन
का प्रभाव है मैंने जो रातों जाग जागकर और माथा रग-
ड़ते रगड़ते इस मंदिर की देहली को घिसकर ईश्वर की स्तुति
वंदना और विनती प्रार्थना की है वे ही अब चिड़ियों की तरह
पंख फैलाकर आकाश को जाती हैं, मानों ईश्वर के सामने
पहुँचकर अब मुझे स्वर्ग का राजा बनाती हैं ।" सत्य ने कहा
कि राजा, दीनबंधु करुणासागर श्रीजगन्नाथ जगदीश्वर अपने
भक्तों की बिनती सदा सुनता रहता है और जो मनुष्य शुद्ध-
और निष्कपट होकर नम्रता और श्रद्धा के साथ अपने
दुष्कमों का पश्चात्ताप अथवा उनके क्षमा होने का टुक भी निवे-
दन करता है वह उसका निवेदन उसी दम सूर्य चाँद को
बेधकर पार हो जाता है, फिर क्या कारण कि ये सब अब तक
मंदिर के अँडेरे पर बैठे रहे ? प्राचल, देखें तो सही हम
लोगों के पास जाने पर आकाश को उड़ जाते हैं या उसी
जगह पर परकटे कबूतरों की तरह फड़फड़ाया करते हैं।
भोज डरा लेकिन उसने सत्य का साथ न छोड़ा। जब वह
मुँडेरे पर पहुँचा तो क्या देखता है कि वे सारे जानवर जो दूर
से ऐसे सुंदर दिखलाई देते थे मरे हुए पड़े हैं; पंख नुचे खुचे
और बहुतेरे बिलकुल सड़े हुए, यहाँ तक कि मारे बदबू के राजा
का सिर भिन्ना उठा। दो एक ने, जिनमें कुछ दम बाकी था,
जो उड़ने का इरादा भी किया तो उनका पंख पारे की तरह
भारी हो गया और उसने उन्हें उसी ठौर दबा रखा। वे तड़फा
जरूर किए, पर उड़ जरा भी न सके। सत्य बोला "भोज,
बस यही तेरे पुण्यकर्म हैं, इसी स्तुति वंदना और विनती
प्रार्थना के भरोसे पर तू स्वर्ग में जाया चाहता है। सूरत तो
इनकी बहुत अच्छी है पर जान बिलकुल नहीं। तूने जो कुछ
किया केवल लोगों के दिखलाने को, जी से कुछ भी नहीं।"
जो तू एक बार भी जी से पुकारा होता कि "दीनबंधु दीना-
नाथ दीनहितकारी ! मुझ पापी महा अपराधी डूबते हुए को
बचा और कृपादृष्टि कर" तो वह तेरी पुकार तीर की तरह तारों
से पार पहुँची होती। राजा ने सिर नीचा कर लिया, उससे
उत्तर कुछ न बन पाया। सत्य ने कहा कि भोज ! अब
आ, फिर इस मंदिर के अंदर चलें और वहाँ तेरे मन के मंदिर
को जाँचें। यद्यपि मनुष्य के मन के मंदिर में ऐसे ऐसे अँधेरे
तहखाने और तलघरे पड़े हुए हैं कि उनको सिवाय सर्वदर्शी
घट घट अंतर्यामी सकल जगत्स्वामी के और कोई भी नहीं देख
अथवा जाँच सकता, तो भी तेरा परिश्रम व्यर्थ न जायगा।
राजा सत्य के पीछे खिंचा खिंचा फिर मंदिर के अंदर
घुसा, पर अब तो उसका हाल ही कुछ से कुछ हो गया।
सचमुच सपने का खेल सा दिखलाई दिया। चाँदी की सारी
चमक जाती रही, सोने की बिलकुल दमक उड़ गई, सोने में
लोहे की तरह मोर्चा लगा हुआ जहाँ जहाँ से मुलम्मा उड़
गया था भीतर का ईट पत्थर कैसा बुरा दिखलाई देता था।
जवाहिरों की जगह केवल काले काले दाग रह गए थे, और
संगमर्मर की चट्टानों में हाथ हाथ भर गहरे गढ़े पड़ गए थे।
राजा यह देखकर भौचक्का सा रह गया, अासान जाते रहे,
हक्काबका बन गया। उसने धीमी अवाज से पूछा कि ये
टिड्डीदल की तरह इतने दाग इस मंदिर में कहाँ से आए ?
जिधर मैं निगाह उठाता हूँ सिवाय काले काले दागों के और
कुछ भी नहीं दिखलाई देता! ऐसा तो छोपी छोट भो नहीं
छापेगा और न शीतला से बिगड़ा किसी का चेहरा ही देख
पड़ेगा। सत्य बोला कि "राजा ये दाग जो तुझे इस मंदिर में
दिखलाई देते हैं दुर्वचन हैं जो दिन रात तेरे मुख से निकला
किए हैं। याद तो कर, तूने क्रोध में आकर कैसी कड़ा कड़ो
बातें लोगों को सुनाई हैं। क्या खेल में और क्या अपना अथवा
दूसरे का चित्त प्रसन्न करने को, क्या रुपया बचाने अथवा
अधिक लाभ पाने को और दूसरं का देश अपने हाथ में लाने
अथवा किसी बराबरवाले से अपना मतलब निकालने और
दुश्मनों को नीचा दिखलाने को तैने कितना झूठ बोला है। अपने
ऐब छिपाने और दूसरे की आँखों में अच्छा मालूम होने अथवा
भूठी तारीफ पाने के लिये तैने कैसी कैसी शेखियाँ हाँकी हैं
और अपने को औरों से अच्छा और औरों को अपने से बुरा
दिखलाने को कहाँ तक बातें बनाई हैं सो क्या अब कुछ भी
याद न रहा, बिलकुल एकबारगी भूल गया ? पर वहाँ तो वे
तेरे मुँह से निकलते ही बही में दर्ज हुई। तू इन दागों के
गिनने में असमर्थ है पर उस घट-घट-निवासी अनंत अविनाशी
को एक एक बात जो तेरे मुंह से निकली है याद है और याद
रहेगी। उनके निकट भूत और भविष्य वर्तमान सा है।"
आज ने सिर न उठाया पर उसी दबो जबान से इतना मुँह
से और निकाला कि दाग तो दाग पर ये हाथ हाथ भर के
गढ़े क्योंकर पड़ गए, सोने चाँदी में मोर्चा लगकर ये ईट
पत्थर कहाँ से दिखलाई देने लगे ? सत्य ने कहा कि "राजा
क्या तूने कभी किसी को कोई लगती हुई बात नहीं कहो अथवा
बोली ठोली नहीं मारी ? अरे नादान, यह बोली ठोली तो गोली
से अधिक काम कर जाती है, तू तो इन गढ़ों ही को देखकर
राता है पर तेरे ताने तो बहुतों की छातियों से पार हो गए।
जब अहंकार का मोर्चा लगा तो फिर यह देखलावे का मुलम्मा
कब तक ठहर सकता है ! स्वार्थ और अश्रद्धा का ईट पत्थर
प्रकट हो गया ।" राजा को इस अर्से में चिमगादड़ों ने बहुत
तंग कर रखा था। मारे बू के सिर फटा जाता था। भुनगाँ
और पतंगों से सारा मकान भर गया था, बीच बाच में पंख-
वाले सॉप और बिच्छू भी दिखलाई देते थे। राजा घबराकर
चिल्ला उठा कि यह मैं किस आफत पड़ा, इन कमबख्तों को
यहाँ किसने आने दिया ? सत्य बोला “राजा सिवाय तेरे
इनको यहाँ और कौन आने देगा ? तू ही तो इन सबको लाया।
ये सब तेरे मन की बुरी वासनाएँ हैं। तूने समझा था कि जैसे
समुद्र में लहरें उठा और मिटा करती हैं उसी तरह मनुष्य के
मन में भी संकल्प की मौजें उठकर मिट जाती हैं। पर रे मूढ़!
याद रख, कि आदमी के चित्त में ऐसा सोच विचार कोई नहीं
आता जो जगकर्ता प्राणदाता परमेश्वर के सामने प्रत्यक्ष नहीं
हो जाता। ये चिमगादड़ और भुनगे और साँप बिच्छू और
कड़े मकोड़े जो तुझे दिखलाई देते हैं वे सब काम, क्रोध, लोभ,
मोह, मत्सर, अभिमान, मद, ईर्षा के संकल्प विकल्प हैं जो दिन
रात तेरे अंतःकरण में उठा किए और इन्हीं चिमगादड़ और
भुनगों और साँप बिच्छू और कीड़े मकोड़ों की तरह तेरे हृदय
के आकाश में उड़ते रहे। क्या कभी तेरे जी में किसी राजा
की ओर से कुछ द्वेष नहीं रहा या उसके मुल्क माल पर लोभ
नहीं आया या अपनी बड़ाई का अभिमान नहीं हुआ या दूसरे
की सुंदर स्त्री देखकर उस पर दिल न चला ?"
राजा ने एक बड़ी लंबी ठंडी साँस ली और अत्यंत निराश
होके यह बात कही कि इस संसार में ऐसा कोई मनुष्य नहीं
है जो कह सके कि मेरा हृदय शुद्ध और मन में कुछ भी पाप
नहीं। इस संसार में निष्पाप रहना बड़ा ही कठिन है। जो
पुण्य करना चाहते हैं उनमें भी पाप निकल पाता है। इस
संसार में पाप से रहित कोई भी नहीं, ईश्वर के सामने पवित्र
पुण्यात्मा कोई भी नहीं। सारा मंदिर वरन् सारी धरती
आकाश गूँज उठा "कोई भी नहीं, कोई भी नहीं।"
जो आँख उठाकर उस मंदिर की एक दीवार की ओर देखा
तो उसी दम संगमर्मर से आईना बन गया। उसने राजा से
कहा कि अब टुक इस आईने का भी तमाशा देख और जो कर्तव्य
कर्मों के न करने से तुझे पाप लगे हैं उनका भी हिसाब ले।
राजा उस आईने में क्या देखता है कि जिस प्रकार बरसात
की बढ़ी हुई किसी नदी में जल के प्रवाह बहे जाते हैं उसी
प्रकार अनगिनत सूरतें एक ओर से निकलती और दूसरी
ओर अलोप होती चली जाती हैं। कभो तो राजा को वे
सब भूखे और नंगे इस आईने में दिखलाई देते जिन्हें राजा
खाने पहनने को दे सकता था पर न देकर दान का रुपया
उन्हीं हट्टे कट्टे मोटे मुसंड खाते पीतों को देता रहा, जो
उसकी खुशामद करते थे या किसी की सिफारिश ले आते थे
या उसके कारदारों को घूस देकर मिला लेते थे था सवारी के
समय माँगते माँगते और शोर गुल मचाते मचाते उसे तंग कर
डालते थे या दर्बार में आकर उसे लज्जा के भवर में गिरा देते थे
या झूठा छापा तिलक लगाकर उसे मक्र के जाल में फंसा लेते थे
या जन्मपत्र के भले बुरे ग्रह बतलाकर कुछ धमकी भी दिखला
देते थे या सुंदर कवित्त और श्लोक पढ़कर उसके चित्त को
लुभाते थे। कभी वे दीन दुखी दिखलाई देने जिन पर राजा
के कारदार जुल्म किया करते थे और उसने कुछ भी उसकी
तहकीकात और उपाय न किया। कभी उन बीमारों को
देखता जिनका चंगा करा देना राजा के इख्तियार में कभी
वे व्यथा के जले और विपत्ति के मारे दिखलाई देते जिनका जी
राजा के दो बात कहने से ठंढा और संतुष्ट हो सकता था।
कभी अपने लड़के लड़कियों को देखता था जिन्हें वह पढ़ा
लिखाकर अच्छी अच्छी बाते सिखाकर बड़े बड़े पापों से बचा
कभी उन गाँव और इलाकों को देखता जिनमें
कुएँ तालाब और किसानों को मदद देने और उन्हें खेती बारी
की नई नई तर्कीबें बतलाने से हजारों गरीबों का भला कर सकता
था। कभी उन टूटे हुए पुल और रास्तों को देखता जिन्हें दुरुस्त
करने से वह लाखों मुसाफिरों को पाराम पहुँचा सकता था ।
राजा से अधिक देखा न जा सका, थोड़ी देर में घबड़ाकर
हाथों से उसने अपनी आँखें ढॉप लीं। वह अपने धर्मड में उन
सब कामों को तो सदा याद रखता था और उनकी चर्चा किया
करता जिन्हें वह अपनी समझ में पुण्य के निमित्त किए हुए
सकता था, पर उसने उन कर्त्तव्य कामों का कभी टुक सोच
न किया जिन्हें अपनी उन्मत्तता से अचेत होकर छोड़ दिया
सत्य बोला 'राजा अभी से क्यों घबरा गया ?आ
इधर आ, इस दूसरे आईने में तुझे अब उन पापों को दिख-
लाता हूँ जो तूने अपनी उमर में किए हैं।" राजा ने हाथ
जोड़ा और पुकारा कि बस महाराज, बस कीजिए, जो कुछ
देखा उसी में मैं तो मिट्टी हो गया, कुछ भी बाकी न रहा,अब
आगे क्षमा कीजिए ।पर यह बतलाइए कि आपने यहाँ आकर
मेरे शर्बत में क्यों जहर घोला और पकी पकाई खीर में साँप
का विष उगला और मेरे आनंद को इस मंदिर में आकर नाश
में मिलाया जिसे मैंने सर्वशक्तिमान भगवान् के अर्पण किया
है ? चाहे जैसा यह बुरा और अशुद्ध क्यों न हो पर मैंने तो
उसी के निमित्त बनाया है। सत्य ने कहा "ठीक, पर यह तो
बतला कि भगवान इस मंदिर में बैठा है ? यदि तूने भगवान्
को इस मंदिर में बिठाया होता तो फिर वह अशुद्ध क्यों
रहता ? जरा आँख उठाकर उस मूर्ति को तो देख जिसे तू
जन्म भर पूजता रहा है।"
राजा ने जो आँख उठाई तो क्या देखता है कि वहाँ उस
बड़ी ऊँची बेदी पर उसी की मूति पत्थर की गढ़ी हुई रखो है
और अभिमान की पगड़ो बाँधे हुए है। सत्य ने कहा कि "मूर्ख
तूने जो काम किए केवल अपनी प्रतिष्ठा के लिये । इसी प्रतिष्ठा
के प्राप्त होने की तेरी भावना रही है और इसी प्रतिष्ठा के
लिये तूने अपनी आप पूजा की । रे मूर्ख, सकल जगत्स्वामी घट
घट अंतर्यामी क्या ऐसे मनरूपी मंदिरों में भी अपना सिंहासन
'बिछने देता है, जो अभिमान और प्रतिष्ठाप्राप्ति की इच्छा
इत्यादि से भरा है ? यह तो उसकी बिजली पड़ने के योग्य
है।" सत्य का इतना कहना था कि सारी पृथिवी एकबारगी
काँप उठी, मानों उसी दम टुकड़ा टुकड़ा हुआ चाहती थी,
अाकाश में ऐसा शब्द हुआ कि जैसे प्रलयकाल का मेघ
गरजा। मंदिर की दीवारें चारों ओर से अड़गड़ाकर गिर
पड़ी, मानों उस पापी राजा को दबा ही लेना चाहती थीं।
उस अहंकार की मूति पर एक ऐसी बिजली गिरी कि वह
धरती पर औंधे मुँह आ पड़ी। 'त्राहि माम् , त्राहि माम् ,
मैं डूबा,'कहके भोज जो चिल्लाया तो आँख उसकी खुल गई
और सपना सपना हो गया।
इस असें में रात बीतकर आसमान के किनारों पर लाली
दौड़ आई थी, चिड़ियाँ चहचहा रही थीं, एक अोर से शीतल
मंद सुगंध पवन चली आती थो, दूसरी ओर से बीन और
मृदंग की ध्वनि । बंदीगन राजा का यश गाने लगे, हर्कारे हर
तरफ काम को दौड़े, कमल खिले, कुमुद कुम्हलाए।राजा
पलँग से उठा पर जी भारी, माथा थामे हुए, न हवा अच्छी
लगती थी, न गाने बजाने की कुछ सुध बुध थी। उठते ही
पहले उसने यह हुक्म दिया कि "इस नगर में जो अच्छे से
अच्छे पंडित हो जल्द उनको मेरे पास लाओ। मैंने एक सपना
देखा है कि जिसके आगे अब यह सारा खटराग सपना मालूम
होता है। उस सपने के स्मरण ही से मेरे रोंगटे खड़े हुए जाते
है । राजा मुख से हुक्म निकलने की देर थी चोबदारों ने
तीन पंडितों को जो उस समय वसिष्ठ, याज्ञवल्क्य और बृह-
स्पति के समान प्रख्यात थे, बात की बात में राजा के सामने
ला खड़ा किया। राजा का मुँह पीला पड़ गया था, माथे पर
पसीना हो आया था। उसने पूछा कि “वह कौन सा उपाय
है जिससे यह पापी मनुष्य ईश्वर के कोप से छुटकारा पावे?"
उनमें से एक बड़े बूढ़े पंडित ने आशीर्वाद देकर निवेदन किया
कि "धर्मराज धर्मावतार ! यह भय तो आपके शत्रुओं को होना
चाहिए, आपसे पवित्र पुण्यात्मा के जी में ऐसा संदेह क्यों
उत्पन्न हुआ ? आप अपने पुण्य के प्रभाव का जामा पहनके
बेखटके परमेश्वर के सामने जाइए, न तो वह कहों से फटा
कटा है और न किसी जगह से मैला कुचैला है।" राजा क्रोध
करके बोला कि 'बस अधिक अपनी वाणी को परिश्रम न
दीजिए और इसी दम अपने घर की राह लीजिए। क्यों आप
फिर उस पर्दे को डाला चाहते हैं जो सत्य ने मेरे सामने से
हटाया है ? बुद्धि की आँखों को बंद किया चाहते हैं जिन्हें
सत्य ने खोला है ? उस पवित्र परमात्मा के सामने अन्याय
कभी नहीं ठहर सकता। मेरे पुण्य का जामा उसके आगे
निरा चीथड़ा है। यदि वह मेरे कामों पर निगाह करेगा तो
नाश हो जाऊँगा, मेरा कहीं पता भी न लगेगा।"
इतने में दूसरा पंडित बोल उठा कि "महाराज परब्रह्म
परमात्मा जो आनंदस्वरूप है उसकी दया के सागर का कब
किसी ने वारा पार पाया है, वह क्या हमारे इन छोटे छोटे
कामों पर निगाह किया करता है, वह कृपादृष्टि से सारा बेड़ा
पार लगा देता है।" राजा ने आँखें दिखला के कहा कि'महा-
राज! आप भी अपने घर को सिधारिए । आपने ईश्वर को
ऐसा अन्यायो ठहरा दिया है कि वह किसी पापी को सजा
नहीं देता,सब धान बाईस पसेरी तोलता है,मानों हरभोगपुर
का राज करता है। इसी संसार में क्यों नहीं देख लेते जो
आम बोता है वह आम खाता है और जो बबूल लगाता है वह
कॉटे चुनता क्या उस लोक में जो जैसा करेगा सर्वदर्शी
घट-घट अंतर्यामी से उसका बदला वैसा ही न पावेगा? सारी
सृष्टि पुकारे कहती है, और हमारा अंत:करण भी इस बात की
गवाही देता है कि ईश्वर अन्याय कभी नहीं करेगा; जो जैसा
करेगा वैसा ही उससे उसका बदला पावेगा।"
तब तीसरा पंडित आगे बढ़ा और उसने यो जबान खोलो
कि "महाराज! परमेश्वर के यहाँ हम लोगों को वैसा ही
बदला मिलेगा कि जैसा हम लोग काम करते हैं। इसमें कुछ
भी संदेह नहीं, आप बहुत यथार्थ फर्माते हैं । परमेश्वर अन्याय
कभी नहीं करेगा, पर वे इतने प्रायश्चित्त और होम और यज्ञ
और जप, तप, तीर्थयात्रा किसलिये बनाए गए हैं ? वे इसी
लिये हैं कि जिस में परमेश्वर हम लोगों का अपराध क्षमा करे
और वैकुंठ में अपने पास रहने की ठौर देवे " राजा ने कहा
"देवताजी, कल तक तो मैं आपकी सब बात मान सकता
था लेकिन अब तो मुझे इन कामों में भी ऐसा कोई दिखलाई
नहीं देता जिसके करने से यह पापी मनुष्य पवित्र पुण्यात्मा
हो जावे। वह कौन सा जप, तप, तीर्थयात्रा, होम, यज्ञ और
प्रायश्चित्त है जिसके करने से हृदय शुद्ध हो और अभिमान न
आ जावे ? आदमी का फुसला लेना तो सहज है पर उस घट
घट के अंतर्यामी को क्योंकर फुसलावे। जब मनुष्य का
मन ही पाप से भरा हुआ है तो फिर उससे पुण्यकर्म कोई
कहाँ से बन आवे। पहले आप उस स्वप्न को सुनिए जो मैंने
रात को देखा है तब फिर पीछे वह उपाय बतलाइए जिससे
पापी मनुष्य ईश्वर के कोप से छुटकारा पाता है।"
निदान राजा ने जो कुछ स्वप्न में रात को देखा था सब ज्यों का त्यों उस पंडित को कह सुनाया। पंडितजी तो सुनते ही अवाक हो गए, उन्होंने सिर झुका लिया। राजा ने निराश होकर चाहा कि तुषानल में जल मरे पर एक पर- देसी आदमी सा जो उन पंडितों के साथ बिना बुलाए घुस आया था सोचता विचारता उठकर खड़ा हुआ और धीरे से यो निवेदन करने लगा "महाराज, हम लोगों का कर्ता ऐसा दीनबंधु कृपासिंधु है कि अपने मिलने की राह आप ही बतला देता है, आप निराश न हूजिए पर उस राह को ढूँढ़िए । आप इन पंडितों के कहने में न आइए पर उसी से उस राह पाने की सच्चे जी से मदद माँगिए ।" हे पाठक जनो ! क्या तुम भी भोज की तरह ढूँढ़ते हो और भगवान् से उसके मिलने की प्रार्थना करते हो ? भगवान् तुम्हें शीघ्र ऐसी बुद्धि दे और अपनी राह पर चलावे, यही हमारे अन्तःकरण का आशीर्वाद है।
जिन ढूँढा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ ।
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