हिंदी निबंधमाला-१/क्रोध-श्रीयुत रामचंद्र शुक्ल
क्रोध दुःख के कारण के साक्षात्कार वा अनुमान से उत्पन्न होता है साक्षात्कार के समय दुःख और उसके कारण के संबंध का परिज्ञान आवश्यक है। जैसे तीन चार महीने के बच्चे को कोई हाथ उठाकर मार दे तो उसने हाथ उठाते तो देखा है पर अपनी पीड़ा और उस हाथ उठाने से क्या संबंध है यह वह नहीं जानता है। अतः वह केवल रोकर अपना दुःख मात्र प्रकट कर देता है। दुःख के कारण के साक्षात्कार के निश्चय के बिना क्रोध का उदय नहीं हो सकता। दुःख के सज्ञान हेतु पर प्रबल प्रभाव डालने में प्रवृत्त करने की मानसिक क्रिया होने के कारण क्रोध का आविर्भाव बहुत पहले देखा जाता है। शिशु अपनी माता की आकृति से अभ्यस्त हो ज्योंही यह जान जाता है कि दूध इसी से मिलता है भूखा होने पर वह उसकी आहट पा रोने में कुछ क्रोध के चिह्न दिखाने लगता है।
सामाजिक जीवन के लिये क्रोध की बड़ी आवश्यकता है। यदि क्रोध न हो तो जीव बहुत से दुःखों की चिर निवृत्ति के लिये यत्न ही न करे। कोई मनुष्य किसी दुष्ट के नित्य प्रहार सहता है। यदि उसमें क्रोध का विकास नहीं हुआ है तो वह केवल 'आह ऊह' करेगा जिसका उस दुष्ट पर कोई प्रभाव
नहीं पड़ता।
के
हृदय
में दया आदि उत्पन्न करने
में बड़ी देर लगेगी। प्रकृति किसी को इतना समय ऐसे छोटे
छोटे कामों के लिये नहीं दे सकती। भय के
द्वारा
भी प्राणी
अपनी रक्षा करता है पर समाज में इस प्रकार की दुःख-
निवृत्ति चिरस्थायिनी नहीं होती। मेरे कहने का यह अभि-
प्राय नहीं कि क्रोध के समय क्रोधकर्ता के हृदय में भावी दुःख
से बचने वा बचाने की इच्छा रहती है बल्कि चेतन प्रकृति के
भीतर क्रोध इसी लिये है।
ऊपर कहा जा चुका है कि क्रोध दुःख के कारण के परि-
ज्ञान वा साक्षात्कार से होता है। अतः एक तो जहाँ इस
ज्ञान में त्रुटि हुई वहाँ क्रोध धोखा देता है। दूसरी बात यह
है कि क्रोध जिस ओर से दुःख आता है उसी ओर देखता है
अपने धारणकर्ता की ओर नहीं। जिससे दुःख पहुँचा है वा
पहुँचेगा उसका नाश हो वा उसे दुःख पहुँचे यही क्रोध का
लक्ष्य है, क्रोध करनेवाले का फिर क्या होगा इससे उसे कुछ
सरोकार नहीं। इसी से एक तो मनोवेग ही एक दूसरे को
परिमित किया करते हैं, दूसरे विचारशक्ति भी उन पर अंकुश
रखती है। यदि क्रोध इतना उग्र हुआ कि हृदय में दुःख के
कारण की अवरोध-शक्ति के रूप और परिमाण के निश्चय,
दया, भय आदि और विकारों के संचार तथा उचित अनुचित
के विचार के लिये जगह ही न रही तो बहुत हानि पहुँच जाती
है। जैसे कोई सुने कि उसका शत्रु बीस आदमी लेकर उसे
मारने आ रहा है और वह चट क्रोध से व्याकुल होकर बिना
की शक्ति का विचार वा भय किए उसे मारने के लिये
अकेला दौड़े तो उसके मारे जाने में बहुत कम संदेह है
अतः कारण के यथार्थ निश्चय के उपरांत आवश्यक मात्रा में.
और उपयुक्त स्थिति में भी क्रोध वह काम दे सकता है जिसके
लिये उसका विकास होता है।
कभी कभी लोग अपने कुटुंबियों वा स्नेहियों से झगड़कर उन्हें पीछे से दुःख पहुँचाने के लिये अपना सिर तक पटक देते यह सिर पटकना अपने को दुःख पहुँचाने के अभिप्राय से नहीं होता क्योंकि बिलकुल बेगानों के साथ कोई ऐसा नहीं करता। जब किसी को क्रोध में सिर पटकते देखे तब समझ लेना चाहिए कि उसका क्रोध ऐसे व्यक्ति के ऊपर है जिसे उसके सिर पटकने की परवा है अर्थात् जिसे उसके सिर फूटने से यदि उस समय नहीं तो आगे चलकर दुःख पहुँचेगा।
क्रोध का वेग इतना प्रबल होता है कि कभी कभी मनुष्य
यह विचार नहीं करता कि जिसने दुःख पहुँचाया है उसमें
दुःख पहुँचाने की इच्छा थी या नहीं। इसी से कभी तो वह
पैर
कुचल
जाने पर किसी को मार बैठता है और
कभी ठोकर खाकर कंकड़ पत्थर तोड़ने लगता है। चाणक्य
ब्राह्मण अपना विवाह करने जाता था । मार्ग में कुश उसके पैर
में चुभे। वह चट मट्ठा और कुदाली लेकर पहुंचा और
कुशों को उखाड़ उखाडकर उनकी जड़ों में मट्ठा देने लगा।
अचानक
मैंने देखा कि एक ब्राह्मण देवता चूल्हा फूंकते फूंकते थक गए ।
जब आग नहीं जली तब उस पर कोप करके चूल्हे में पानी
डाल किनारे हो गए। इस प्रकार का क्रोध असंस्कृत है।
यात्रियों ने बहुत से ऐसे जंगलियों का हाल लिखा है जो रास्ते
में पत्थर की ठोकर लगने पर बिना उसको चूर चूर किए आगे
नहीं बढ़ते । इस प्रकार का क्रोध अपने दूसरे भाइयों के स्थान
अधिक अभ्यास के कारण यदि कोई
मनोवेग अधिक प्रबल पड़ गया तो वह अंतःकरण में अव्यवस्था
उत्पन्न कर मनुष्य को फिर बचपन से मिलती जुलती अवस्था
में ले जाकर पटक देता है
जिससे एक बार दुःख पहुँचा, पर उसके दोहराए जाने
की संभावना कुछ भी नहीं है उसको जो कष्ट पहुँचाया जाता
है वह प्रतिकार कहलाता है। एक दूसरे से अपरिचित दो
आदमी रेल पर चले जाते हैं। इनमें से एक को आगे ही के
स्टेशन पर उतरना है । स्टेशन तक पहुँचते पहुँचते बात ही
बात में एक ने दूसरे को एक तमाचा जड़ दिया और उतर
की तैयारी करने लगा। अब दूसरा मनुष्य भी यदि उतरते
उतरते उसको एक तमाचा लगा दे तो यह उसका प्रतिकार
वा बदला कहा जायगा क्योंकि उसे फिर उसी व्यक्ति से तमाचे
खाने की संभावना का कुछ भी निश्चय नहीं था। जहाँ
और दुःख पहुँचने की कुछ भी संभावना होगी वहाँ शुद्ध
प्रतिकार नहीं होगा। हमारा पड़ोसी कई दिनों नित्य आकर
हमें दो चार टेढ़ी सीधी सुना जाता है। यदि हम उसको
एक दिन पकड़कर पीट दे तो हमारा यह कर्म शुद्ध प्रतिकार
नहीं कहलाएगा क्योकि नित्य गाली सुनने के दुःख से बचने
के परिणाम की ओर भी हमारी दृष्टि रही। इन दोनों अव-
स्थाओं को ध्यानपूर्वक देखने से पता लगेगा कि दुःख से उद्विग्न
होकर दु:खदाता को कष्ट पहुँचाने की प्रवृत्ति दोनों में है। पर
एक में वह परिणाम आदि के विचार को बिलकुल छोड़े हुए
है और दूसरे में कुछ लिए हुए। इनमें से पहले प्रकार का
क्रोध निष्फल समझा जाता है। पर थोड़े धैर्य के साथ
सोचने से जान पड़ेगा कि इस प्रकार के क्रोध से स्वार्थसाधन
तो नहीं होता पर परोक्ष रूप में कुछ लोकहित-साधन अवश्य
हो जाता है। दुःख पहुँचानेवाले से हमें फिर दुःख पहुँचने
का डर न सही पर समाज को ता है। इससे उसे उचित दंड
दे देने से पहले तो उसकी शिक्षा वा भलाई हो जाती है, फिर
समाज के और लोगों का भो बचाव हो जाता है। क्रोधकर्ता
की दृष्टि तो इन परिणामों की ओर नहीं रहती है पर सृष्टि-विधान
में इस प्रकार के क्रोध की नियुक्ति है इन्हों परिणामों के लिये।
क्रोध सब मनोविकारों से फुरतीला है इसी से अवसर
पड़ने पर यह और दूसरे मनोविकारों का भी साथ देकर उनकी
सहायता करता है। कभी वह दया के साथ कूदता है, कभी
घृणा के । एक क्रूर कुमार्गी किसी अनाथ अबला पर अत्याचार
कर रहा है। हमारे हृदय में उस अनाथ अबला के प्रति दया
उमड़ रही है। पर दया की पहुँच तो आत ही तक है। यदि
वह स्त्री भूखी होती तो हम उसे कुछ रुपया पैसा देकर अपने
दया के वेग को शांत कर लेते। पर यहाँ तो उस दुःख का
हेतु मूर्त्तिमान् तथा अपने विरुद्ध प्रयत्नों को ज्ञानपूर्वक व्यर्थ
करने की शक्ति रखनेवाला है। ऐसी अवस्था में क्रोध ही उस
अत्याचारी के दमन के लिये उत्तेजित करता है जिसके बिना
हमारी दया ही व्यर्थ जाती है। क्रोध अपनी इस सहायता
के बदले में दया की वाहवाही को नहीं बँटोता।काम क्रोध
करता है पर नाम दया का ही होता है। लोग यही कहते हैं
"उसने दया करके बचा लिया;" यह कोई नहीं कहता कि
"क्रोध करके बचा लिया": ऐसे अवसरों पर यदि क्रोध
दया का साथ न दे तो दया अपने अनुकूल परिणाम उपस्थित
ही नहीं कर सकती। एक अघोरी हमारे सामने मक्खियाँ
मार मारकर खा रहा है और हमें घिन लग रही है। हम
उससे नम्रतापूर्वक हटने के लिये कह रहे हैं और वह नहीं सुन
रहा है। चट हमें क्रोध आ जाता है और हम उसे बलात
हटाने में प्रवृत्त हो जाते हैं।
क्रोध के निरोध का उपदेश अर्थपरायण और धर्मपरायण
दोनों देते हैं। पर दोनों में जिसे अति से अधिक सावधान
रहना चाहिए वही कुछ भी नहीं रहता। बाकी रुपया वसूल
करने का ढंग बतानेवाला चाहे कड़े पड़ने की शिक्षा दे भी दे
पर धज के साथ धर्म की ध्वजा लेकर चलनेवाला धोखे में भी
क्रोध को पाप का बाप ही कहेगा। क्रोध रोकने का अभ्यास
ठगों और स्वार्थियों को सिद्धों और साधकों से कम नहीं होता।
जिससे कुछ स्वार्थ निकालना रहता है, जिसे बातों में फँसाकर
ठगना रहता है उसकी कठोर से कठोर और अनुचित से अनु-
चित बातों पर न जाने कितने लोग जरा भी क्रोध नहीं करते।
पर उनका यह अक्रोध न धर्म का लक्षण है न साधन ।
बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है। जिससे हमें दुःख
पहुँचा है उस पर हमने जो क्रोध किया वह यदि हमारे हृदय
में बहुत दिनों तक टिका रहा तो वह बैर कहलाता है। इस
स्थायी रूप में टिक जाने के कारण क्रोध की क्षिप्रता और हड़-
बड़ी तो कम हो जाती है पर वह और धैर्य, विचार और
युक्ति के साथ लक्ष्य को पीड़ित करने की प्रेरणा बराबर बहुत
काल तक किया करता है। क्रोध अपना बचाव करते हुए
शत्रु को पीड़ित करने की युक्ति आदि सोचने का समय नहीं
देता पर बैर इसके लिये बहुत समय देता है। वास्तव में क्रोध
और बैर में केवल कालभेद है। दुःख पहुँचने के साथ ही
दुःखदाता को पीड़ित करने की प्रेरणा क्रोध और कुछ काल
बीत जाने पर बैर है। किसी ने हमें गाली दी। यदि हमने उसी
समय उसे मार दिया तो हमने क्रोध किया। मान लीजिए
कि वह गाली देकर भाग गया और दो महीने बाद हमें कहीं
अब यदि उससे बिना फिर गाली सुने हमने उसे
मिलने के साथ ही मार दिया तो यह हमारा बैर निकालना
हुआ। इस विवरण से स्पष्ट है कि बैर उन्हीं प्राणियों में
होता है जिनमें धारणा अर्थात् भावों के संचय की शक्ति होती
है। पशु और बच्चे किसी से बैर नहीं मानते। वे क्रोध
करते हैं और थोड़ी देर के बाद भूल जाते हैं। क्रोध का यह
स्थायी रूप भी आपदाओं की पहिचान कराकर उनसे बहुत
काल तक बचाए रखने के लिये दिया गया है।
——रामचंद्र शुक्ल
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