हिंदी निबंधमाला-१/मित्र-लाभ-श्रीयुत गणपत जानकीराम दूबे

प्रयाग: इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ १८ से – २७ तक

 

( २ ) मित्र-लाभ

जिन लोगों ने ग्रंथ-महिमा का बखान किया है उनमें से अधिकतर लोगों ने ग्रंथों की मित्रों से उपमा दी है, क्योंकि ग्रंथों की श्रेष्ठता पूरी तरह से ध्यान में आने के लिये मित्र के समान अन्य उत्तम उपमा उन्हें नहीं सूझी। सुकरात का कहना है कि "सब लोग घोड़े, कुत्ते, संपत्ति, मान, सम्मान इत्यादि की हवस करके उनके पाने के लिये परिश्रम करते हैं, परंतु मुझे किसी मित्र के समागम का लाभ होने से जितना संतोष होगा उतना उन सब चीजों के मिलकर प्राप्त होने पर भी नहीं होगा।" जिनके पास अतुल संपत्ति है उन्हें इसका कुछ न कुछ तो अंदाज होता ही है कि हमारे पास क्या माल मता है, परंतु उनके मित्र चाहे थोड़े ही क्यों न हों पर वे कितने हैं, इसका ज्ञान उन्हें नहीं होता। किसी ने अगर प्रश्न किया और उन्होंने मित्रों की गिनती करने का यत्न भी किया तो भी वे अपने मित्रों के विषय में इतने उदासीन होते हैं कि जिन्हें कभी उन्होंने पहले मित्रों में गिना था उन्हें छोड़ देते हैं। परंतु यदि अपनी मालियत से मित्रों की तुलना की जाय तो क्या वे अधिक कीमती नहीं साबित होंगे? सब चीजों के मूल्य के विषय में बहुधा सबमें मतभेद होता है परंतु मित्रों के मूल्य के विषय में सबका एक ही मत होता है। अपने पास बहुत सा
धन,अधिकार और सब सुखों के साधन प्राप्त होने से हमारा जो गौरव है उसके द्वारा हम घोड़े, नौकर, चाकर, कीमती वन इत्यादि खरीद सकते हैं, परंतु इस जीवन में अत्यंत मूल्य- वान् और हितकारी मित्र रूपी वस्तु का संग्रह नहीं करते, यह कितनी नासमझी की बात है ? अगर एक पशु मोल लेना हो तो हम बड़ी सावधानी के साथ उसकी प्रवृत्ति, उसकी पुष्टता और स्वभाव की परीक्षा करते हैं परंतु जिस मित्र के समागम से हमारी जीवन-यात्रा के कुछ न कुछ भले या बुरे होने की संभावना अवश्य रहती है उसका चुनाव केवल संयोग-वश ही हम कर लेते हैं

"जिस समय हमें मनुष्य की आवश्यकता होती है उस समय को छोड़ अन्य समय में दूसरे का समीप होना हमें पसंद नहीं होता" यह बात सच है, क्योंकि सर्वदा दूसरों की संगति का मुहताज रहना अज्ञान की अवस्था का दर्शक है। जिन विचारशून्य लोगों को संतोषपूर्वक एकांत-वास करना नहीं आता उन्हें यदि दूसरों का संग न मिला तो वे कारागार का सा दुःख भोगते हैं । परंतु जो विचारवान् और उद्योगशील हैं वे अकेले में रहते हुए भी बहुजन-समाज की भीड़ में रहने के समान सुखी और आनंदमग्न रहते हैं।

इमरसन का कथन है -"दो मनुष्यों के एकत्र होते ही उनका महत्त्व कम हो जाता है।" इसमें कुछ अर्थ दिखाई नहीं देता। एक जगह उसी ने और भी कहा है-"जहाँ

एक दूसरे का समागम हुआ कि हर एक व्यक्ति के सुंदर गुणे का थोड़ा बहुत लोप कर सुस्वभाव की मंजरी झड़ जाती है और परिमल नष्ट हो जाता है। क्या यह बात सत्य हो सकती है ? अगर ऐसा है तो फिर मित्रता से क्योंकर लाभ हो सकता है ? हमारी समझ में तो मित्र-मिलन से इसका विरुद्ध परिणाम होता है। सुस्वभाव रूपी कोमल कमल संकुचित न होकर मित्र-संग के सुख से अधिक विकसित होता है और उसका रंग अधिक चटकीला हो जाता है।

किसी किसी का यह कहना है-'मित्र कभी न कभी शत्रु होगा और शत्रु मित्र होगा, यह समझकर उनसे जितना उचित हो उतना ही बर्ताव रखना चाहिए।' इसमें पहली बात के विषय में किसी का कुछ भी मत हो परंतु दूसरे विधान में बहुत कुछ दूरदर्शिता और सामंजस्य है। कितने ही लोग मित्रों की प्राप्ति करने की अपेक्षा शत्रुओं से शत्रुता मिटाने में अधिक परिश्रम करते हैं और उसमें आनंद मानते हैं पियागोरस सबको यह उपदेश करता है-"बहुत लोगों से मित्रता न करो," परंतु यदि हम योग्य मनुष्य का स्नेह संपादन करने में सावधान हैं तो इस उपदेश का कुछ भी महत्त्व नहीं रहता।

सहस सुहृद जो होंइ तउ, एकहु तजत बनै न ।

किंतु शत्रुजन एकहू, सालत हिय दिन रैन ॥

सचमुच ही इस संसार में दुर्भाग्यवश उदारचित्त मित्र थोड़े हैं और एक भी क्षुद्र शत्रु हुआ तो वह हमारी हानि करने

के लिये बहुत है।यह बात नहीं है कि हम जिन जिन मनुष्यों से मिलते हैं वे सब के सभी स्वभावतः दुष्ट होते हैं या जान- बूझकर हमें कुमार्ग में लगानेवाले होते हैं कितु बात यह है कि वे लोग इस बात पर ध्यान नहीं देते कि हम दूसरों से क्या बोलते हैं, क्या नहीं बोलते । स्वयं अपने अंत करण की ओर ध्यान न देकर हमें वे योग्य शिक्षा नहीं देते । अपनी बोलचाल में लड़कपन की बातें और गप शप किया करते हैं। वे यह समझने का प्रयत्न ही नहीं करते कि यदि वे थोड़ा सा परिश्रम भी करें तो उनकी बातचीत थोथी न होकर बोधजनक और आनंदजनक हो सकती है, नीरस और निष्फल न होगी।

हर एक मनुष्य से उसके योग्यतानुसार कुछ न कुछ शिक्षा प्राप्त होती ही है, ऐसी शिक्षा प्राप्त कर लेने की इच्छा भर चाहिए। ऐसे सजनों ने चाहे प्रत्यक्ष रूप में हमें कुछ न सिखाया हो तथापि वे अन्य रूप में हमें कुछ न कुछ जताते ही हैं, और स्नेह-भाव के साथ हमारी सहायता करते ही हैं अगर उन्होंने इनमें से कुछ भी न किया तो उनका समागम केवल समय खाना ही है। ऐसे लोगों की मित्रता तो क्या, उनसे जान पहचान भी न हो तो अच्छा है।

अपने मित्रों और संगी साथियों का चुनाव जितनी बुद्धि- मानी और दूरदर्शिता के साथ हम करेंगे उतनी ही हमारी जीवन-यात्रा सुखमय और सदाचारपूर्ण होगी। अगर हम दुर्जनों का संग करेंगे तो वे हमें खींचकर अपनी नीचता तक

पहुँचा देंगे। सज्जनों का संग करने से सर्वथा हमारा उत्कर्ष ही होगा।

गुणी जनन के संग में, लहत बड़ाई नीच ।

सुमन संग ज्यों चढ़त है, सूत देहरा बीच ।।

मित्र-संग्रह के विषय में बहुधा लोग नदी-नाव संयोग की प्रथा पर चलते हैं। इसमें संदेह नहीं कि जो कोई हमें मिल जाय उसके साथ सुजनता और सभ्यता के साथ बर्ताव करना हितकारी है परंतु सभी को सच्चा मित्र समझ लेना उचित नहीं है। कोई हमारे पड़ोस में रहता है, कोई समव्यवसायी है अथवा कोई प्रवास का साथी है तो केवल ऐसे क्षुद्र कारण वश ही उसे अपना मित्र कहना बड़ी भूल है। प्लूटार्क का कथन है कि "ये सब मित्रता की मूर्तियाँ और खिलाने हैं, सच्चे मित्र नहीं।"

दर्शने स्पर्शने वापि श्रवणे भाषणेऽपि वा।

यत्र द्रवत्यंतरंगं स स्नेह इति कथ्यते ॥ -सुभाषित

अर्थात् जहाँ दरस, परस, श्रवण वा कथन से अंतःकरण द्रवीभूत हो जाता है, वही स्नेह है।

अपना शत्रु कितना ही क्षुद्र क्यों न हो, वह बड़ी से बड़ी हानि पहुँचा सकता है। उसी तरह जिसने दूसरे पर प्रेम किया है उसी के हृदय में सब के लिये प्रेम उपजेगा, ये दोनों बातें चिंतनीय हैं। हर एक व्यक्ति में कुछ न कुछ गुण अवश्य होता है। स्मिथ ने लिखा है-"मैंने लोगों को यह कहते
हुए सुना है कि यह जगत् स्वार्थ और कृतन्नता से भरा है, अनुभव में यह बात नहीं आई। यह कदाचित मेरा सुदैव होगा।" विचार करके देखा जाय तो बहुधा यही अनुभव औरों को भी होगा।

इमरसन की उक्ति है-"इस संसार में हम अकेले हैं। जो लोग यह कहा करते हैं कि इस लोक में हमे अपने मनभाए मित्र मिलेंगे वे मानों स्वप्न देखते हैं। अपने से प्रेम रखने- वाली और अपनी प्रीतिपान जो आत्माएँ हैं वे सांप्रत परलोक में निवास करती हैं, यह आशा करते हुए हमें अपने हृदय को शांति देनी चाहिए।

मित्रं प्रीतिरसायनं नयनयोरानंदनं चेतसः ।

पात्रं यत्सुखदुःखयोः सह भवेन्मित्रेण तत् दुर्लभम् ।। -हितोपदेश

भावार्थ-मित्र नयनों के लिये आनंददायक प्रोति रसायन है, अंतःकरण को आह्लाद देनेवाली वस्तु है; पर जो सुख और मे एक सा साथ देवे ऐसा मित्र बिरला होता है।

मित्रों के समागम मे हम अपना जीवन सुख और आनंद में व्यतीत करते हैं, इस विषय में एक मत है इसमें संदेह नहीं, तथापि इस पर सर्वथा अवलंब करते नहीं बनता। सच पूछिए तो-

"आत्मैव आत्मनो बंधुः, प्रात्मैव रिपुरात्मनः ।"

हम आप ही अपने मित्र हैं और आप ही अपने शत्रु भी हैं; यही विश्वास करके बर्तना चाहिए । "इस जगत् में सच्ची मैत्री नहीं है और समान स्थिति के लोगों में जो मैत्री दिखाई देती है उसका मूल्य असलियत से ज्यादा समझने की रीति पड़ गई है। अगर सच्चो मैत्रो कहीं हो भी तो ऐसे उच्च नीच स्थिति के मनुष्यों में होगी जिसमें एक के वश में दूसरा रहता हो।" यह बात जो बेकन ने कही है इसके विरुद्ध उसी ने यह भी कहा है-

"हमारा यदि कोई सच्चा मित्र न हो तो यह जगत् निर्जन वन के समान प्रतीत होगा और हमारा जीवन एकांतवास में व्यतीत होने के कारण दुःखदायी होगा। परंतु जब अपनी चित्तवृत्ति और विचारों में उधेड़बुन होने लगती है उस समय मन किं-कर्तव्य- विमूढ़ हो जाता है और हम अँधेरे में जिस प्रकार टटोल टटोल- कर चलते हैं उसी तरह बर्ताव में भी चलते हैं। ऐसे समय मित्रों के समागम से हमें उजाला मिल जाता है और सीवा मार्ग दिखाई पड़ने लगता है; विपत्ति के समय हमारा मन प्रसन्न रहता उनके साथ वार्तालाप करने से अपने विचार एक से जारी रहते और अच्छो प्रणाली मिलती है। वे विचार अगर लिखे जायँ तो कैसे होंगे, यह मालूम हो जाता है और अपने आप उनका मनन करने से जितना ज्ञान होता है उतना ज्ञान मित्रों के साथ एक घड़ो भर वार्तालाप करने से हो जाता है और हम अधिकाधिक चतुर और बुद्धिमान बनते चले जाते हैं।"

मित्रों के साथ निरर्थक विषयों पर वार्तालाप नहीं करना चाहिए। इसके बारे में इपिक्टेटस ऐसा उपदेश करते हैं
"घोड़े, कुत्ते, कसरत, खाना पीना इत्यादि क्षुद्र विषयों पर बातचीत न करो। परनिदा अथवा स्तुति-पाठ न करो।" मार्कस पारीलियस ने कहा है-"जिस समय तुम्हें अपना मनोरंजन करना हो उस समय अपने सहवास में रहनेवालों के सद्गुणों का चितन करो। वह तीक्ष्ण बुद्धिवाला है, वह सभ्य प्राचारवाला है, वह उदारहृदय है, इस पर ध्यान दो। इसका कारण यह है कि जो लोग अपने संग रहकर हमेशा आँखों के सामने आते हैं उनके अच्छे गुणों का आदर्श सम्मुख रखकर उस का अनुसरण करने में जैसा आनंद होता है वैसा किसी और तरह से नहीं होता।" परंतु इसके अनुसार बर्ताव करते नहीं बनता । जिन्हें हम अपना मित्र समझते हैं, उनके चेहरे तथा भाषा ही का हमें परिचय होता है कितु उनके अंत:- और शील का हमें बहुधा ज्ञान ही नहीं होता।

जितनी चिंता करके हम मित्र प्राप्त करते हैं उतनी ही चिंता के साथ जुड़ी हुई मित्रता की रक्षा करनी चाहिए। पास्कल का कहना है-"एक के पीठ पीछे दूसरा उसके विषय में क्या कहता है, यह अगर सबको मालूम हो जाय तो संसार में चार मित्रों का भी मिलना कठिन होगा।" यह कदाचित् व्यंग की अत्युक्ति हो इससे उन चारों में से स्वयं एक होने की इच्छा रखो। जिस किसी को तुमने एक बार मित्र कहा उसकी रक्षा करो, सदा उससे मिलने जाओ, क्योंकि जिस मार्ग से कभी कोई जाता आता नहीं है उसमें घास

और काँटे पैदा होकर उस मार्ग का नाम निशान तक नहीं रहने देते। अपने मित्रों के पास आ जाकर उनसे मिल मिला- कर यदि प्रीति रक्षित न रखी जाय तो वह नष्ट हो जाती है। आज यहाँ तो कल वहाँ, इस प्रकार का अस्थिर प्रेम व्यर्थ है।

ऐसा बर्ताव करने का किसी को अधिकार नहीं है जिससे मित्रता के नाते किसी को जरा भी असंतोष पैदा हो जाय । कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जब तक उनके मित्रों की मित्रता नष्ट होने से वे मित्र ही नहीं रह जाते तब तक उनकी असली योग्यता का ज्ञान उन्हें नहीं होता। ऐसे मित्रों का पोछे सम्मान करना निष्फल है। "मृत मनुष्य के आदर के हेतु उसके लिये बड़ो कीमती छतरी बनाई जाय तो पत्थर, चूने में धन का व्यय करने के सिवा और क्या लाभ होगा?"

"अपने मृत मित्र की चिता के पास खड़ा रहकर जो मनुष्य उसके समागम-सुख का विचार करेगा और यह देखेगा कि अब मैं प्रेमाकुल होकर चाहे जितना रोऊँ पर अपने मित्र की स्तब्ध नाड़ी को सचेत नहीं कर सकता या उसकी काया को छोड़ जानेवाली आत्मा के सामने मैं दिए हुए दुःख का पश्चात्ताप करके तमा नहीं माँग सकता तो वह निश्चय कर लेगा कि अपने मित्र को इस प्रकार का मर्मभेदी दुःख देने का पातक अब मैं न करूंगा।"

मृत्यु से मित्रता का नाश नहीं होता। सिसिरो ने लिखा है--"अपने मित्र चाहे दूर भी हो तथापि वे निकट ही रहने

के समान हैं। वे विपद्ग्रस्त हो तो भी संपत्तिमान हैं। शक्ति- हीन हो तो भी सामर्थ्यवान् हैं और मृत हो तो भी जीवित हैं।" यह कहना बहुतों को पहेली की तरह कठिन मालुम होगा परंतु जिन महात्मा ने यह बात कही है उन्हीं ने इसका स्पष्टीकरण भी कर दिया है। "सीपियो यद्यपि मृत हो गया है तथापि वह मेरे लिये जीवित है और सर्वदा वह जीवित ही रहेगा, क्योंकि उसके सद्गुण मुझे अत्यंत प्रिय हैं और उसकी श्रेष्ठता अभी तक नष्ट नहीं हुई। मेरे भाग्य से संयोगवश जो बड़प्पन मुझे प्राप्त हुआ है वह सीपियों की मैत्री की तौलbमें पसंगे के बराबर भी नहीं है।"

यदि हम अपने मित्रों का चुनाव उनकी संपत्ति की तरफ न देखकर उनकी योग्यता की तरफ देखकर करें और यदि हम मित्रलाभ के, जो संसार का एक बड़ा प्रसाद है, उपयुक्त पात्र हो तो हमें उनके समागम का सुख सर्वदा मिलेगा। वे दूर हो तो भो निकट के तुल्य होंगे और उनके इस लोक से चले जाने पर भी उनका सुखकर स्मरण हमें रहेगा।


——गणपत जानकीराम दूबे