हवा के घोड़े  (1956) 
द्वारा सआदत हसन मंटो

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हवा के घोड़े




सआदत हसन ‘मन्टो’






नव साहित्य प्रकाशन नई दिल्ली-१
[ प्रकाशक ]
प्रथमावृति
जुलाई १९५६




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दो रुपया चार आना






नव-साहित्य-प्रकाशन, ९२७६ मुलतानी ढ़ौड़ा, नई दिल्ली-१ द्वारा प्रकाशित तथा सूरज मल, ८३६३ सब्जी मण्डी, दिल्ली द्वारा कम्पोज होकर

श्री लक्ष्मी प्रिंटिंग प्रेस, सब्जी मण्डी, दिल्ली से मुद्रित।
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बहुत नहीं : थोड़ा

प्यार और जीवन!

जीवन और प्यार!

ये दोनों रथ के पहिये के समान मानवी ढांचे के साथ पुरातन से ही चले आ रहे हैं। दोनों की चाल-ढाल, क्रम सब एक सा है। किसकी महत्ता अधिक है? यह कोई न समझ सका है और न समझ सकेगा। दुनिया के हर कोने में प्यार-प्यार की पुकार हो रही है; पर आज तक कोई भी इस प्यार का लक्षण निर्धारित नहीं कर सका। सुना जाता है, कि यौवन के सागर में प्यार ही पतवार बनकर जीवन की नौका को पार लगाता है, कैसे और क्यों? यह एक पहेली है और पहेली ही बनी रहेगी। मानव-मानवी का पारस्परिक आकर्षण हो इस प्यार के महल की नींव रही है और सदा ही यह समाज के थपेड़ों का सामना करता हुआ खड़ा रहेगा। इन महलों में बैठकर कितने ही पोथे रचे

हवा के घोड़े
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गथे, कितनी ही कहानियाँ सुनाई गई? सर्वसाधारण ने सुना, गाया और देखा!

उन्माद और प्यार!

इन दोनों के बिना जीवन निराशा से परिपूर्ण है। ऐसे युवक जो सदैव अपने यौवन काल में प्यार के भूखे ही रहे हैं; उन्हें अभागे के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है?

यहाँ तक तो सभी का विश्वास है, कि प्यार होना चाहिए अवश्य ही; लेकिन प्रश्न उठता है, कि वह किससे होना चाहिए? कैसा होना चाहिए? किस प्रकार आरम्भ होना चाहिए? और उसका स्वरूप क्या है?

लेखक ने इस पुस्तक में इन्ही गूढ़ प्रश्नों की अप्रत्यक्ष रूप में विवेचना की है। उनका नायक सैय्यद ऐसा ही एक अभागा बीस वर्ष का नवयुवक है, जिसका हृदय अभी तक प्यार से सूना है; लेकिन पड़ोसी मित्रों की प्रेम कहानियाँ उससे छिपी न थी, उसका प्रत्येक साथी किसी न किसी लड़की के प्यार का शिकार हुआ था और आश्चर्य यह है, कि इनका प्यार हो गया―पहली नज़र मिलते ही― एकदम; किन्तु सैय्यद इन सबको झूठा समझता है। उसके दृष्टिकोण में एक नज़र का प्यार घुने हुए चने के बराबर है, शायद उसमें स्थायित्व न हो; परन्तु चारा भी क्या है? जब ये ऐसी कहानियाँँ पढ़ेगे, चित्र देखेंगे, तो क्यों न इन देखी हुई बातों को अपने जीवन में उतारेगे; किन्तु सैय्यद ऐसी झूठी रूमानी दुनिया में नहीं जाना चाहता, वह तो अपने भावों की दुनिया के अनुसार ही लड़की से प्यार करेगा, भले ही असफल हो जाए। कितना वास्तविक चित्रण है और है तीखा व्यंग उन थोथे प्यारों पर, जो चलते-फिरते सड़कों पर हो जाते हैं, जो इस रूमानी दुनिया के फरेब में आकर जीवन को दूभर बना लेते

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हवा के घोड़ें
 
[  ]हैं--केवल भावनाओं के अधीन हो कर, वह भी झूठी भावनाओं के!

जब सैय्यद अपने मोहल्ले की लड़कियों का विश्लेषण करता है, लो उसे स्पष्ट दीख पड़ता है, कि उसने इस समाज की बुराइयों को उभारकर सामने रखा है। सग़रा और नग़मा प्रतिनिधि उन लड़कियों के जिनके माता-पिता, धर्म के ठेकेदार उन्हें इंसान से प्यार करना नहीं सिखाते। पुष्पा से वह प्यार इसलिए नहीं कर सकता, कि उसके दो अपराध हो जायेंगे। पहला प्यार और वह भी एक मुसलमान का हिन्दू लड़की से। भले ही लड़कियों को ऐसे पुरुषों को सोंपनी पड़े, जहाँ उनका जीवन नरक हो; परन्तु जाति बन्धन अटूट ही रहेगा। जब तक यह जाति और धर्म के बन्धन हमारे समाज में रहेंगे, यह पवित्रता के प्रशंसक समाज में होने वाले कुकर्मो को रोक नहीं सकते और न ही सैय्यद फत्तो के प्यार जैसे उलझाव में फँसना चाहता है, प्यार के वह इस विभुज का एक शीर्प नहीं बनना चाहता, जो आज हरेक कहानी, फिल्म द्वारा प्रेरित सड़कों और मकानों में मिलता है।

न ही सैय्यद प्यार में असफल होकर अपने जनाजे को निकालना चाहता है। वह इस तेज़ रंग वाली तस्वीर को पसंद नहीं करता; जिनके रंग तो भड़कीले हैं; किन्तु हैं शीघ्र ही हल्के पड़ने वाले। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है, या तो उसका दिमाग खराब है या वह नजाम ही खराब है, जिसमें वह सांस ले रहा है। नित्य प्रति होने वाले व्यभिचारों को यदि रोकना है, तो समाज को बदलना होगा यदि आप चाहते है, कि चार सौदागर भाइयों की बारी-बारी से सेवा करने वाली अपनी जरूरत से मजबूर राजो इस समाज में न हो, तो इस समाज के ढांचे में आमूल चूल परिवर्तन करना होगा। आज का समाज ऐसी औरतों को अपनाने और प्यार करने की आज्ञा कैसे दे सकता है, इस समाज में तो उनके प्रति हमदर्दी का तात्पर्य कुछ ओर ही निकालते है। [  ]इस समाज में जीवन बनावटी है, प्यार बनावटी है, आँसू दो प्रकार के होते हैं और अट्टहास भी दो प्रकार के। सैय्यद राजो से प्यार तो करता है; किन्तु डरता है समाज से। प्यार निम्न वर्ग की राजो से कैसे हो सकता है? लेकिन हृदय से उसका प्यार कैसे निकाले? वह किसी भी ढंग से उसे भूल जाना चाहता था? इसलिए घर छोड़ा। उसके प्यार के ही कारण वह अब्बास जैसे साथी की सलाह पर भी फरिया से शारीरिक प्यार नहीं करना चाहता। वह तो समझता है, प्यार हर इंसान के अन्दर नई उमंगें लेकर पैदा होता है।

'मुहब्बत यार की इंसाँ बना देती है इंसाँ को'


परन्तु यह समाज सैय्यद को 'दुखी जीवन' ही दे सकेगा। वह तो अब्बास के शब्दों में आजीवन धन जोड़ता रहेगा और प्यार से जीवन में प्रकाश नहीं होगा। उस प्रकाश को जीवन में लाने के लिए आवश्यकता है---समाज के ढांचे में परिवर्तन की! क्रान्ति की!!

प्रस्तुत पुस्तक प्यार के आचार्य स्वर्गीय श्री सआदत हसन मन्टो के एक मात्र उपन्यास 'बगै़र अनवान के' का अनुवाद है; परन्तु इस अनुवाद को 'बिना शीर्षक' न रख, 'हवा के घोड़े' नाम दे दिया गया है, जो इस विचार से उपयुक्त है, कि पूरा उपन्यास सैय्यद की दिमाग़ी उलझन से ही भरा पड़ा है, अपने मस्तिष्क के विचारों को ही वह पाठकों के सामने रख रहा है। आशा है कि पाठकगण इसका स्वागत करेंगे।

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