हवा के घोड़े
सआदत हसन मंटो

नई दिल्ली: नव साहित्य प्रकाशन, पृष्ठ ९ से – २९ तक

 

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वैसे तो सैय्यद पर जुक़ाम का हमला होता ही रहता था। कई बार मोहम्मद गौरी की तरह दुम दबा कर भागने पर भी एक दिन अनोखे ढंग से हमला किया, तो उसने सोचा—मुझे प्यार क्यों नहीं होता? सैय्यद के जितने भी मित्र थे, सब के सब प्यार कर चुके थे। इनमें से कुछ तो अभी तक फँसे हुए थे; परन्तु जिस ढंग से वह प्यार को अपने पास देखना चाहता था, ठीक उसके विपरीत, उसको दूर, बहुत दूर पाता; किन्तु उसको अभी तक किसी से प्यार नहीं हुआ था। जब भी सूनेपन में बैठकर सोचता कि वास्तव में उसका हृदय प्यार से खाली है, तो उसे लज्जा का अनुभव होता और हृदय विदीर्ण हो उठता।

जीवन के बीस वर्ष, जिनमें अधिकतर बचपन की धुँधली रेखाएँ छिपी हुई थीं। कभी-कभी उसके सामने मृतक शरीर के समान ऐंठ जाती। वह सोचता—मेरा जीवन ही निष्प्राण है। प्यार के बिना मनुष्य का जीवन कैसे सफल हो सकता है?

सैय्यद को विश्वास था कि उसका हृदय सरस और इस योग्य है, कि प्यार उसमें निवास करे; परन्तु वह सुन्दर यौवन किस काम का, जिसमें रहने वाला कोई भी न हो; किन्तु उसका हृदय प्यार करने के योग्य है। इसी कारण उसको बहुत दुःख होता कि उसकी धड़कनें व्यर्थ में क्षीण होती जा रही हैं।

उसने लोगों से सुना था कि जीवन में प्यार का अवसर एक बार अवश्य आता है। उसे भी इस बात का कुछ-कुछ ज्ञान था कि मौत की तरह प्यार एक बार अवश्य आयेगा, परन्तु कब...?

काश! उसकी जीवन-पत्री अपनी ही जेब में होती और झट से वह उत्तर देख लेता; किन्तु उस पुस्तक में तो बीती हुई घटनाओं का ही वर्णन दिया जाता है। जब प्यार आएगा, तो स्वयं ही नये पन्ने जुड़ जायेंगे। वह नये पन्नों के लिए कितना बेचैन था।

संसार की प्रत्येक वस्तु को प्राप्त करना उसके लिए कोई कठिन कार्य नही था। जहाँ भी घूमना चाहे, वह घूम सकता, जब चाहे खा सकता, जब चाहे रेडियो पर गाने सुन सकता और शराब भी पी सकता था, जिसके पीने से उसके माथे पर कलंक लग सकता था। जब चाहे उस्तरे से गाल भी जख्मी कर सकता था; परन्तु फिर भी असफल रहा था, प्यार में।

एक बार उसने बाजार में एक युवती को देखा। उसकी छातियां देखकर उसे ऐसा अनुभव हुआ कि दो बड़े-बड़े सलजम उसके जम्फ़र में छुपे हुए हैं। सलजम उसे बहुत अच्छे लगते थे। शीतकाल में मकान की छत पर जब उसकी माँ लाल-लाल सलजम काटकर सुखाने के लिए हार पिरोया करती, तो वह कितने ही कच्चे सलज़म खा जाया करता था। उस युवती को देखकर उसकी जिह्वा पर वैसा ही अनुभव हुआ, जैसा आनन्द सलजम का गुद्दा चबाते समय होता है; परन्तु उसके हृदय में उससे प्रेम करने का विचार उत्पन्न न हो सका। वह उस की गति को ध्यान-पूर्वक देखता रहा, जिस में टेढ़ा-पन था। वैसा ही टेढ़ा-पन जैसा बरसात में खटिया के चारों पायों में कान पड़ जाने के कारण हो जाता है। वह उसके प्यार में स्वयं को न बाँध सका।

बार-बार निराश होने पर भी उसे आशा थी और वह इसी कारण अपनी गली के नुक्कड़ वाली दरियों की दुकान पर जा बैठता था। यह दुकान सैय्यद के दोस्त की थी। जो हाई-स्कूल में पढ़ने वाली एक लड़की से आँखें लड़ा रहा था। उस लड़की से उसका प्यार लुधियाने की एक दरी के कारण हुया था। दरी का मूल्य जो पाँच रुपये था, उस लड़की के कथनानुसार उसकी सलवार के नेफे में से खुलकर गिर पड़ा था। लतीफ़ उसके घर के पास ही रहता था। इस लिये उस लड़की ने अपने चाचा की गालियों से छुटकारा पाने के लिये, उस से दरी उधार माँगी और ... बस दोनों का प्यार हो गया।

शाम के समय बाजार में आने-जाने वालों की भीड़ अधिक होती थी, क्योंकि दरबार-साहब जाने के लिए अकेला वही रास्ता था। इसलिये स्त्रियाँ भी अधिक संख्या में उसकी नज़रों के सामने से चलचित्र की भाँति निकल जातीं। लेकिन जाने क्यों, उसे ऐसा अनुभव होता कि जितने लोग बाज़ार में चलते-फिरते हैं, सब के सब खाली हैं? उसकी आँखें किसी पुरुष या स्त्री पर नहीं ठहरती थीं। लोगों की भीड़-भाड़ को देखकर वह अनुभव करता था कि यह यन्त्र है, केवल देख सकते हैं, कुछ कर नहीं सकते।

उसकी आँखें किस ओर थीं? यह न आँखों को याद है, न सैय्यद को। उसकी आँखें दूर, बहुत दूर सामने चूने और मिट्टी के बने हुए मकानों को छेदते हुए निकल जाती, न जाने कहाँ और स्वयं ही कह घूम-घाम कर उसके हृदय में समा जातीं। बिल्कुल उन बच्चों की तरह जो अपनी माँ की छाती पर औंधे मुँह लेटे नाक, कान और बालों से खेल-खाल कर अपने ही मुलायम हाथों को आश्चर्य-जनक दृष्टि से देखते-देखते नींद के कोमल कपोलों में धँस जाते हैं।

लतीफ़ की दुकान पर ग्राहक बहुत कम आते थे। इसी कारण वह उसकी उपस्थिति से लाभ उठाते हुए उससे कई प्रकार की बातें किया करता था; परन्तु वह सामने लटकी हुई दरी की ओर निहारता रहता, जिसमें 'रंग-बिरंगे' अनगिनत धागों के उलझाव ने डिज़ाइन बना दिया। लतीफ़ के अधर काँपते रहते और वह सोचता रहता कि उसके दिमाग़ का नक़्शा दरी के डिजाइन से किस तरह मेल खाता है? कभी-कभी तो वह सोचा करता कि उसके अपने भाव ही बाहर निकल कर इस दरी पर कीड़े के समान रेंग रहे हैं।

इस दरी में और सैय्यद के दिमाग़ में कोई अन्तर न था और था भी तो केवल इतना ही अन्तर कि रंग-बिरंगे धागों के उलझाव ने, उसके सामने, दरी का रूप धारण कर लिया। किन्तु उसके विचारों की उलझनें ऐसा रूप न धारण कर सकीं, जिसको वह दरी के समान अपने सामने बिछा कर या लटका कर देख सकता।

लतीफ़ में अशिष्टता कूट-कूट कर भरी थी। किसी से बात-चीत करने की उसे तमीज़ नहीं थी। किसी वस्तु में उसको सौन्दर्य ढूँढ़ने के लिये कहा जाता, तो वह निकम्मा और असभ्य ही साबित होता था। उसके हृदय में वह बात ही नहीं उत्पन्न हो सकी थी, जो एक कलाकार में होती है। इन सब दुर्गुणों के होते हुए भी एक लड़की उससे प्रेम करती थी, उसको पत्र लिखती थी। जिनको लतीफ़ इस ढंग से पढ़ता था, जैसे किसी तीसरे दर्जे के अखबार में युद्ध के समाचार पढ़ रहा हो। इन पत्रों में वह कँपकँपाहट उसे दीख न पड़ती थी, जो प्रत्येक शब्द में होनी चाहिये। वह शब्दों के मर्म भावों से अनभिज्ञ था। यदि उससे कहा जाता, कि लतीफ़ यह पढ़ो, लिखती है, "मेरी फूफी ने कल मुझ से कहा, क्या हुआ है तेरी भूख को? तूने खाना-पीना क्यों छोड़ दिया है? जब मैंने सुना तो पता चला कि सचमुच मैं आज कल बहुत कम खाती हूँ। देखो! मेरे लिये कल शाहबुद्दीन की दुकान से खीर लेते आना...जितनी लाओगे सब की सब चट कर जाऊँगी, अगली पिछली कसर निकाल दूँगी...।" कुछ मालूम हुआ, इन पंक्तियों में क्या है?...तुम शाहबुद्दीन की दुकान से खीर का एक बहुत बड़ा दोना लेकर जाओगे, किन्तु लोगों की निगाहों से बच-बचाकर ड्योढ़ी में जब तुम उसे यह तोफ़ा दोगे, तो इस विचार से प्रसन्न न होना कि वह सारी खीर खा जायेगी। वह कभी भी नहीं खा सकेगी ..पेट भर कर वह कुछ खा ही नहीं सकती। जब दिमाग़ में विचारों की कांग्रेस का जल्सा हो रहा हो, तो पेट स्वयं ही भर जाता है, लेकिन यह उलझन उसकी ताकत से बाहर थी। वह कैसे समझ सकता। वह तो समझने समझाने से कोसों दूर भागता था। जहाँ तक शाहबुद्दीन की दुकान से चार आने की खीर और एक आने की रबड़ी और खुशबू मोल लेने का प्रश्न था, वहाँ तक लतीफ़ बिल्कुल ठीक था। खीर के लिये क्यों लिखा? और इसी भूख का प्रश्न किन विचारों के कारण उसकी प्रेमिका के दिमाग़ में उत्पन्न हुआ? इससे लतीफ़ को कोई सरोकार न था। और सच पूछो तो वह इस योग्य ही नहीं था कि इन बारीकियों की जड़ तक पहुँच सके। वह मोटे दिमाग़ का मालिक था, जो कि लोहे के ज़ंग लगे हुए गज़ से दरियाँ अनोखे ढंग से मापता था और शायद इस प्रकार के भौंड़े ग़ज से अपने विचारों को मापता होगा।

परन्तु यह सच है कि एक लड़की उससे प्यार करती थी, जो हर चीज़ में उससे बहुत ऊँची दीख पड़ती थी। लतीफ़ और उसमें केवल इतना ही अन्तर था, जितना कि लुधियाने की दरी और कश्मीर के गद्देदार ग़ालीचे में...।

सैय्यद की समझ में न आता था कि प्रेम किस प्रकार होता है, अपितु कैसे कहा जाये कि हो सकता है? वह जिस समय भी चाहे, शोक में डूब जाये और जब चाहे स्वयं खुश भी कर सकता था। आह! वह प्यार नहीं कर सकता था, जिसके लिये वह बेचैन था।

उसका एक मित्र, जो बड़ा ही जल्दबाज़ था। वह मूँगफली और चनें, केवल उस अवस्था में खा सकता था, यदि उनके छिलके उतरे हुए हों। अपने मुहल्ले की एक हसीन लड़की से आँखें लड़ा रहा था। हर समय उसके हुसन की प्रशंसा अलापने में लीन रहता। यदि उससे पूछा जाता—यह सौन्दर्य तुम्हारी प्रेमिका में कहाँ से शुरू होता है, तो निश्चित ही वह खाली दिमाग़ हो जाता। हुसन का मतलब वह न समझ सकता था। कालेज में पढ़ने के इलावा भी उसके दिमाग़ की नींव घटिया रखी गई थी; परन्तु उसके प्यार की कहानी इतनी लम्बी थी कि कालीदास के ग्रन्थ से भी बड़ा ग्रन्थ बन सकता था। आखिर इन लोगों को...इन असभ्यता के प्रेमियों को प्रेम करने का क्या अधिकार है? ...कई बार यह प्रश्न सैय्यद के दिमाग़ में उत्पन्न हुआ और घबराहट बढ़ गई; परन्तु कुछ समय विचारों के समुद्र में डूबकर उससे बाहर निकला और कहने लगा-"प्रेम करने का सबको अधिकार, है, चाहे कोई सभ्य हो या असभ्य......"

किसी अन्य को प्यार करते देख कर, वास्तव में उसका हृदय ज्वाला-मुखी के समान फटने लगता। यह जानते हुए भी कि यह नीचता है; परन्तु वह असमर्थ था, क्योंकि प्यार करने की लालसा उसके दिमाग़ पर छाई रहती। कभी-कभी तो कई बार वह प्यार करने वालों को गन्दी-गन्दी गालियाँ भी देने लगता और गालियों के पश्चात् स्वयं को भी कोसता कि व्यर्थ में उसने दूसरों को गालियाँ दीं। यदि संसार के सभी प्राणी एक दूसरे से प्यार करने लग जायें, तो इसमें मेरे बाबा का क्या बिगड़ता है? मुझे तो केवल अपने काम से काम है। यदि मैं किसी के प्यार में स्वयं को न बाँध सका, तो इसमें किसी का क्या दोष? किसी हद तक ठीक है कि मैं इस योग्य ही नहीं हूँ। क्या पता है कि बेवकूफ और बेअक़्ल होना ही प्यार करने वाले के लिये जरूरी है। वह स्वयं से ऐसे-ऐसे प्रश्न करता, जैसे वह कहीं 'इन्टरव्यू' पर गया हुआ हो।

एक दिन सोचता-सोचता वह इस निष्कर्श पर पहुँचा कि प्यार एक-दम नहीं होता। वह झूठे हैं, जो कहते हैं प्यार एक-दम हो जाता है। यदि ऐसा होता तो मालूम है कि उसके हृदय में बहुत पहले से किसी के साथ प्यार हो गया होता। बहुत सी लड़कियाँ उसकी निगाहों से अब तक गुजर चुकी थीं। यदि एक-दम प्रेम हो सकता, तो इनमें से किसी एक के साथ प्यार की दुनिया बसा लेता। किसी लड़की को एक या दो बार देख लेने से भी प्यार हो जाया करता है, यह वह न जान सका।

कुछ दिन पहले उसके मित्र ने कहा कि कम्पनी-बाग़ में आज मैंने एक लड़की को देखा और एक ही नज़र में जख्मी कर दिया। उसका मन दुःख से चिल्ला उठता और इस प्रकार के शब्द उसको उल्टे दीख पड़ते। एक ही नज़र में उसने मुझे जख्मी कर दिया, लाहौल-बि-ललाह... विचारों को किस भद्दे ढंग से व्यक्त किया गया है।

जब वह इस प्रकार के झूठे और 'थर्ड क्लास' के शब्दों को सुनता, तो उसे ऐसा अनुभव होता कि उसके कानों में कोई पिघला हुआ शीशा डाल रहा हो।

परन्तु यह उल्टे दिमाग़ और लँगड़े मज़ाक के इन्सान उससे अधिक खुश थे। वह व्यक्ति जो प्यार से बिल्कुल अनभिज्ञ थे। उससे बहुत अच्छा आराम और शान्ति का जीवन व्यतीत कर रहे थे।

प्यार और जिन्दगी एम॰ असलम की निगाहों से देखने वाले खुश थे। सैय्यद, जो प्यार और जिन्दगी को अपनी खाली आँखों से देखता था, दुःखी था...बहुत दुःखी...।

एम॰ असलम से उसे घृणा थी। इतना गन्दा और छिछोरा प्रेमी, तो उसकी नजरों से कभी न गुज़रा था। उसकी कहानियाँ पढ़कर उसका विचार कटरा धनियाँ की खिड़कियाँ देखने को दौड़ता, जिनमें रात को लाल रंग से रंगे हुए गाल दीख पड़ते। आश्चर्य है कि प्रायः लड़के और लड़कियों में इन्हीं की कहानियाँ दीख पड़ती हैं।

जो प्यार एम॰ असलम की कहानियाँ उत्पन्न करती हैं, किस प्रकार का प्यार होगा, जब वह कुछ देर विचार करता, तो इस प्यार में उसे एक बहुरूपिया दीख पड़ता। जिसने दिखावे के लिये अच्छे-अच्छे वस्त्र पहन रखे हों, एक पर एक...।

एम॰ असलम के विषय में उसका मन चाहे कुछ भी हो; परन्तु आधुनिक लड़कियाँ छिप-छिप कर पढ़ती थीं। जब प्रेम की आग बाहर निकलने लगती तो वह उसी आदमी से प्यार करने लग जातीं, जो सब से पहले इनकी निगाहों में आया हो। इसी प्रकार "बदज़ाद" जिसकी कवितायें भारत की जनता और बाई रात को अपने चौबारे पर गाती हैं। आज कल के युवकों और युवतियों में लोकप्रिय था, क्यों? यह उसकी समझ से बाहर था।

बदज़ाद की वह पंक्ति......

"दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे" जिसे प्रत्येक व्यक्ति गाता दीख पड़ता। उसके अपने घर में उसकी नौकरानी जो गधा-पच्चीसी से भी बीस जूते आगे थी, बर्तन साफ करते समय हमेशा धीमे स्वर मे गुनगुनाया करती थी—

"दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे।"

इस कविता की पंक्ति ने उसे दीवाना बना दिया था। जिधर जाओ, उधर से यही सुनाई देता? "दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे" आखिर यह क्या बला है? ऊपर कोठे पर चढ़ो, तो काना इस्मायल अपनी एक आँख से कबूतरों को देखकर ऊँचे स्वर से गा रहा है। "दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे," दरियों की दुकान पर बैठो, तो बगल की दुकान में ला° किशोरी मल बजाज अपने मोटे-मोटे चूतडों की गद्दियों पर आराम से बैठकर बड़े भद्दे ढंग से "तानसेन्" की तरह गाना शुरू कर देता—"दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे" दरियों की दुकान से उठो और बैठक में जाकर रेडियो लगाओ तो अखतरी बाई फैजाबादी गा रही है—

"दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे।"

क्या बेहूदगी है? वह यही सोचता रहता परन्तु; एक दिन, जब वह खाली दिमाग़ था और पान बनाने के लिये छालियाँ काट रहा था तो उसने स्वयं बिना विचार के गाना शुरू कर दिया—

"दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे।"

वह स्वयं ही लज्जित हो उठा और अपने पर उसे बहुत गुस्सा आया; किन्तु एक-दम खिलखिला कर हँसने के बाद उसने जान बूझ कर ऊँचे स्वर में गाना शुरू कर दिया। "दीवाना बनाना...।" इस प्रकार गाते हुए "बदजाद" की सारी कविता उसने एक हँसी के नीचे दबा दी और मन ही मन में खुश हुआ।

कई बार उसके मन में आया कि वह भी एम° असलम की कहानियां और बदज़ाद की कविताओं का दीवाना बन जाये और इस प्रकार किसी से प्यार करने में सफलता प्राप्त करे; परन्तु चाहने पर भी वह एम० असलम का उपन्यास पूरा न पढ़ सका और न "बदज़ाद" की कविता में अनोखा-पन देख सका। एक दिन उसने अपने हृदय में प्रण कर लिया, चाहे कुछ भी हो, मैं एम० असलम और बदज़ाद के बिना ही सफलता प्राप्त करूँगा। जो विचार मेरे दिमाग़ में है, मैं इन सब के साथ किसी एक लड़की से प्यार करूँगा---यही होगा कि असफल रहूँगा; परन्तु इन डुगडुगी बजाने वालों से तो अच्छा है। उस दिन से उसके मन में प्रेम करने का विचार और भी प्रबल हो उठा और उसने प्रति-दिन बिना जलपान किये, रेल के फाटक पर जाना शुरू कर दिया, जहाँ से बहुत सी लड़कियाँ 'हाई स्कूल' की ओर जाया करती थीं।

फाटक के दोनों तरफ लोहे के बहुत बड़े तवे लगा कर लाल रोग़न किया गया था। दूर से जब वह इन लाल तवों को एक-दूसरे के पीछे देखता, तो उसे मालूम हो जाता कि 'जनता मेल' आ रही है। जब फाटक के समीप पहुँचता, तो मुसाफिरों से लदी हुई जनता मेल आती और दनदनाती हुई स्टेशन की ओर निकल जाती।

फाटक खुलता और वह...लड़कियों की प्रतीक्षा में खड़ा हो जाता। पहले दिन इधर से पच्चीस नहीं, छब्बीस लड़कियों को आते देखा। अपने समय पर इधर से लोहे की पटरियों को पार करके, कम्पनी-बाग़ के साथ वाली सड़क पर चली जाती, जिधर उनका स्कूल होता था। इन छब्बीस लड़कियों को जिनमें दस हिन्दू लड़कियों को देख सका, सोलह मुसलमान लड़कियों का सारा शरीर तो बुर्कों में छिपा रहता था।

दस दिन तक लगातार फाटक पर जाता रहा। दो तीन दिन इन बुर्के और बग़ैर बुर्के वाली लड़कियों की ओर देखता रहा। पूरे दसों


१८]

हवा के घोड़े

दिन सवेरे की स्वच्छ ठंडी वायु चल रही थी, जिसमें कम्पनी-बाग़ के सभी पुष्पों की गंध बसी हुई थी। उसने एकदम अपने आपको लड़कियों की जगह उन वृक्षों को देखते पाया, जिन में अनगिनत चिड़ियाँ अपनी-अपनी बोलियाँ बोल रही थीं। खुमार से भरी हुई प्रातःकाल की चुप्पी कितनी भली लगती है? किन्तु जब उसने देखा तो उसे पता चला कि वह एक सप्ताह से लड़कियों के स्थान पर जनता-मेल की मौत जैसी अट्टल मौत के आने से दिल-बहलाव करता रहा।

प्यार करने के लिये उसने बहुत प्रयत्न किये; परन्तु असफल रहा। अन्त में उसने विचार किया, क्यों न अपने ही मुहल्ले में प्यार की नींव रखी जावे। एक दिन उसने उन लड़कियों की सूची बनाई, जिनसे प्यार किया जा सकता था। सूची बन गई और केवल नौ लड़कियाँ ही उसमें आ सकीं।

नं० १ हमीदा, नं० २ सगरा, नं० ३ नग़मा, नं० ४ पुष्पा, नं० ५ कमलेश, नं० ६ राजकुमारी, नं० ७ फ़ात्मा उर्फ फत्तो, नं० ८ ज़विदा उर्फ जिदा।

नं० ९, उसका नाम इसको मालूम नहीं था। यह लड़की पशमीने के सौदागरों के यहाँ नौकरी करती थी। अब उसने नम्बर वार विचार करना प्रारम्भ किया।

हमीदा सुन्दर थी, बड़ी भोली-भाली लड़की। जिसकी आयु लगभग पन्द्रह की होगी। सदा प्रसन्न रहने वाली थी। इस नाजुक कली को देखकर ऐसा लगता, जैसे कोई सफेद शक्कर की पुतली और भुर-भरी है। यदि ज़रा भी हाथ लग जाये तो इसके शरीर का मानो कोई अंग गिर जाने का डर रहता। छोटे से सीने पर छातियों का उभरा-पन ऐसे दीख पड़ता था, जैसे मन्द-राग में किसी ने दो स्वर ऊँचे कर दिए हों।

हवा के घोड़े

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यदि इससे वह कहता, "हमीदा मैं तुम से प्यार करना चाहता हूँ,

तो अवश्य ही इसके मन की धड़कन वाली आवाज बन्द हो जाती। वह इसे सीढ़ियों में ही ऐसा कह सकता था। कल्पना में वह हमीदा से उसी स्थान पर मिला..वह ऊपर से तेजी के साथ जा रही थी और उसने उसे रोका और ध्यान से देखने लगा। उसका छोटा-सा दिल हृदय में इस प्रकार फड़फड़ाया, जैसे तेज वायु के झोंके से दीपक की लौ। वह कुछ न कर सका।"

हमीदा से वह कुछ नहीं कह सकता था। वह इरा योग्य ही नहीं थी, जिससे प्यार किया जा सके। वह केवल विवाह योग्य थी। कोई भी पति इसके लिये ठीक हो सकता था। उसका प्रत्येक अंग, स्त्री बनने योग्य था। उसकी गिनती उन लड़कियों में हो सकती थी, जिनका समस्त जीवन विवाह के पश्चात् घर में सिमट के रह जाता है। जो बच्चे पैदा करती रहती हैं। कुछ ही वर्षों में अपना यौवन नष्ट-भ्रष्ट कर बैठतीं और रंग-रूप खोकर भी जिनको अपने में कुछ भी अन्तर नहीं दीख पड़ता।

इस प्रकार की लड़कियों से प्यार का नाम सुनकर तो यह समझे कि अचानक बड़ा भारी पाप हो गया है। वह प्यार नहीं कर सकता था। उसे विश्वास था, यदि वह किसी दिन ग़ालिब की एक भी पंक्ति उसे सुना देता, तो कई दिनों तक नमाज के साथ-साथ क्षमा याचना माँग कर भी वह यह समझती कि उसकी ग़लती क्षमा नहीं हुई... अपनी माँ से उसने तुरन्त सारी बात कह सुनाई होती और उस पर वो उधम मचते के विचार आते ही सैय्यद काँप उठता। स्पष्ट है कि सभी उसको दोषी ठहराते और जीवन-भर उसके माथे पर एक ऐसा दाग़ लग जाता। जिस के कारण उसकी कोई बात भी न सुनने के लिये तैयार होता; परन्तु वह ऊँची चट्टानों से टकराने का विचार रखता था।

२०]

हवा के घोड़े

नं० २ सगरा, नं० ३ नग़मा इनके विषय में विचार करना ही व्यर्थ था, क्योंकि वे एक कहार मौलवी की लड़कियाँ थीं। इनका विचार करते ही उसके सामने उस मस्जिद की चट्टाइयाँ आगईं, जिन पर मौलवी गर्दत्तल्ला साहब लोगों को नमाज़ पढ़ाने और बाँग देने में लगे रहते थे। मौलवी की दोनों लड़कियाँ जवानी में पदार्पण कर चुकी थीं। वे जवान और सुन्दर थीं; किन्तु यह अनोखी बात है कि उनके मुख, जैसे दरवाजे के आगे दीवार बनी होती है, इस प्रकार के थे। जब सैय्यद अपने घर में बैठा उनकी आवाज़ सुनता तो वह अनुभव करता कि आदत के अनुसार कोई धीमे-धीमे स्वरों में प्रार्थना कर रहा है। इस प्रकार की प्रार्थना, जिसका अभिप्रायः वह स्वयं भी न जानता था। इनको केवल खुदा से प्रेम करना सिखाया गया था, मनुष्य से नहीं। इसलिये सैय्यद इनसे प्रेम नहीं करना चाहता था।

वह इन्सान था, इन्सान को प्यार भरा हृदय देना चाहता था। सगरा और नग़मा को इस प्रकार से सिखाया जा रहा था, कि इस संसार में नहीं, बल्कि दूसरे संसार में उन भले-मानस व्यक्तियों के काम आ सकें।

जब सैय्यद ने उनके विषय में सोचा, तो अपने आपसे कहा---"भई नहीं इनसे प्रेम नहीं किया जा सकता, क्योंकि अन्त में यह लड़कियाँ कुछ दिनों पश्चात् किसी और के हवाले कर दी जायेंगी। मुझे संसार में गुनाह भी करने है। इसलिये मैं यह जुआ नहीं खेलना चाहता। मुझसे यह न देखा जायेगा कि मैं, जिससे प्रेम करूँ और वह कुछ दिनों बाद किसी अन्य पुरुप को दे दी जावे।"

इसलिये उसने सगरा और नग़मा का नाम सूची से काट दिया।

नं० ४ पुष्पा, नं० ५ कमलेश, नं० ६ राजकुमारी, जिनका आपस में, भगवान ही जानता है कि क्या सम्बन्ध होगा? सामने वाले मकान में

हवा के घोड़े

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रहती थीं। पुष्पा के विषय में विचार ही करना व्यर्थ था। क्योंकि

उसका विवाह एक बजाज से होने वाला था, जिसका नाम इतना ही बदसूरत था, जितना पुष्पा का सुन्दर। वह कभी-कभी उसे छेड़ा भी करता था और खिड़की में खड़े होकर अपनी काली अचकन दिखा कर कहा करता था-"पुष्पा बताओ तो मेरी इस अचकन का रंग कैसा है?" पुष्पा के कपोलों पर क्षण भर के लिये गुलाब की पत्तियाँ सी थरथरा जातीं और वह बहादुरी से उत्तर देती "नीला"।

उसके होने वाले पति का नाम कालूमल था। लाहौल-बि-ललाह "किस प्रकार का यह भद्दा सा नाम" उसका नाम रखते हुए उसके माता-पिता ने कुछ भी नहीं सोचा।

जब वह पुष्पा और कालू के विषय में सोचता, तो अपने हृदय में कहा करता। यदि इनका विवाह किसी भी कारण से नहीं रुक सकता, तो केवल इसी कारण से विवाह रोक देना चाहिये कि उसके बनने वाले पति का नाम बेहूदा है।...कालूमल...एक कालू और इस पर "मल" धिक्कार है...इसका क्या तात्पर्य है?

किन्तु वह सोचता यदि पुष्पा का विवाह कालूमल से न हुआ तो किसी घसीटाराम हलवाई, या किसी करोड़ीमल सर्राफ़ से हो जायेगा। वह उस दशा में उससे प्यार नहीं कर सकता था। यदि वह करता तो उसे हिन्दू मुस्लिम दंगे का डर था। मुसलमान और एक हिन्दू लड़की से प्यार करे..प्रथम तो प्यार करना वैसे ही अपराध है और फिर मुसलमान और हिन्दू लड़की को प्यार करे..."एक करेला दूसरा नीम चढ़ा" वाली बात।

नगर में कई बार हिन्दू मुस्लिम फ़साद हो चुके थे, किन्तु जिस मुहल्ले में सैय्यद रहता था, न मालूम किस वजह से बचा हुआ था। यदि वह पुष्पा, कमलेश और राजकुमारी से प्यार करने का विचार

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हवा के घोड़े

करता, तो स्पष्ट है कि संसार की सभी गाएँ और सूअर मुहल्ले में डेरा लगा लेते। हिन्दू मुस्लिम फसाद से सैय्यद को घृणा थी। इसलिये नहीं कि एक दूसरे का सर फोड़ देते और खून के छीटे उड़ाते, नहीं इसलिए कि सिर बड़े भद्दे ढ़ग से बखेरे जाते थे।

राजकुमारी जो उन दोनो मे छोटी थी। वह उसको पसन्द थी उसके अधर स्वॉस की कमी के कारगा थोडे़ से खुले रहते थे, जो उसे बहुत पसन्द थे। इनको देखकर इसे हमेशा यही विचार आता कि एक चुम्बन इनको छूकर आगे निकल गया है। एक बार उसने राजकुमारी को जो अभी चोदहवी मंजिल को पार कर रही थी। अपने घर की तीसरी छत के गुसलखाने में स्नान करते सैय्यद ने अपने घर के झरोखों से जब उसकी ओर देखा तो उसे ऐसा अनुभव हुआ कि इसके गन्दे विचार दिमाग से निकल कर सामने आ खड़े होगे। सूर्य की मोटी-मोटी किरणे जिन में से अनगिनत सोने-चाँदी की तारे छिड़काव सा करती हुई उसके नग्न शरीर पर फिसल रही थी। इन किरणो ने उसके गोरे-बदन पर सोने-चाँदी के मानो पतरे चढ़ा दिये हो। बाल्टी मे से जब उसने गड़वा निकाला और खड़ी होकर अपने शरीर पर पानी डाला तो वह सैय्यद को सोने की पुतली-सी जान पड़ी। पानी की मोटी-मोटी बूँदे उसके शरीर से लुढक कर गिर रही थी। जैसे सोना पिघल कर गिर रहा हो।

राजकुमारी, पुष्पा और कमलेश से चतुर थी। इसकी पतली-पतली उँगलियाँ इस ढ़ग से हिलती रहती कि वह कोई बड़ी भारी फिलासफर हो। उसे बहुत पसन्द थी। इन उँगलियो में खिचाव था। इस खिचाव का प्रमाण करोशिया और सूई के काम से मिलता था, जिसे वह कई बार देख चुका था।

हवा के घोड़े

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एक दिन उसने राजकुमारी के कोमल हाथों से बुना हुआ मेज़-पोश देखा। "उसे विचार आया" कि उसने हृदय की अनगिनत धड़कनें भी उसकी छोटी-छोटी डब्बियों में गूँथ दी हों। एक बार जब वह उसके समीप ही खड़ा था, उसके हृदय में प्यार करने का विचार उत्पन्न हुआ; किन्तु जैसे ही उसने राजकुमारी की ओर देखा, तो वह मन्दिर के रूप में दीख पड़ी, जिसके साथ बनी मस्ज़िद के समान वह खड़ा था.."मस्ज़िद और मन्दिर में क्या प्यार हो सकता है?"

मुहल्ले की सभी लड़कियों से यह हिन्दू लड़की बुद्धिमान थी। इसके माथे पर एक पतली-सी रेखा अपने पाँव जमाने की चेष्टा निया करती थी, जो इसे बहुत अच्छी दीख पड़ती थी। इसके माथे को देख कर वह मन ही मन में कहा करता कि जब भूमिका इतनी सुन्दर और आकर्षक है तो मालूम नहीं पुस्तक कितनी आकर्षक होगी...मगर... पाह...ये मगर...इसके जीवन में यह मगर शब्द सच-मुच का मगर बन कर रह गया था, जो उसे डुबकी लगाने से सदा रोके रखता था।

नं० ७ फात्मा उर्फ फत्तो, खाली नहीं थी। इसके दोनों हाथ प्यार में डूबे हुए थे। एक अमजद से जो लोहे का काम किसी वर्कशाप में करता था, दूसरा उसके चाचा के बेटे से, जो दो बच्चों का बाप था, उससे प्रेम करती थी। फ़ात्मा उर्फ फत्तो इन दोनों भाईयों से प्यार कर रही थी। मानो एक पतंग से दो पेवें लड़ा रही हो। एक पतंग में जब दो और पतंग उलझ जावें तो अधिक दिलचस्पी पैदा हो जाती है; परन्तु यदि इस तिगड़े में एक और पेंच की वृद्धि हो जाये, तब यह उलझाव एक भूल-भुलइया का रूप धारण कर लेगा। इस प्रकार का उलझाव सैय्यद को अच्छा नहीं लगता था। इस के अतिरिक्त फत्तो जिस प्रकार के प्रेममय जीवन में फँस चुकी थी, वह प्रेम निकृष्टता का रूप था। सैय्यद जब इस प्रकार के प्रेम का विचार करता तो प्रेममय

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पुरानी कहानियों की 'बड़ी चट्टनी' पीले काग़जों के ढेर से उठ कर उसकी आँखों के सामने लाठी टेकती हुई आ जाती और उसकी ओर इम प्रकार देखती जैसे कहना चाहती है कि मैं उस नीलपटी पर बिखरे तारों को ला सकती हूँ। बता तेरी नज़र किस लड़की पर है, ऐसे चुटकियों में तुझसे मिलाप करा दूगी।

उस बुढ़िया का विचार आते ही वह 'पाईबाग़' के विषय में सोचता। वह जाहरापीर और दाता गंज बख्श की समाधि उसकी आँखों के सामने आ खड़ी हो जाती। जहाँ वह बुढ़िया, उसकी प्रेमिका को किसी बहाने से ला सकती थी?...उस विचार के उठते ही उसका प्रेम मुकड़ जाता और एक ऐसी समाधि का रूप धारण कर लेता; जिस पर हरे रंग का ग़लाफ चढ़ा कर, अनगिनत हार उस पर बिखेरे गये हों..।

कभी-कभी उसे यह ख्याल भी आता। यदि 'चट्टनी' असफल रही, तो कुछ ही दिनों के पश्चात् इस मुहल्ले से मेरा जनाज़ा ही निकलेगा और दूसरे मुहल्ले से मेरी उस प्रेमिका की अर्थी निकलेगी जो यौवन में पदार्पण कर चुकी थी। यह दोनों अर्थी और जनाज़ा एक दूसरे मुहल्ले से निकलते हुए टकरा जाएँगे तो फिर दोनों अर्थियाँ एक अर्थी का रूप धारण कर लेंगी या प्रेममय कहानियों की तरह जब मुझे और मेरी प्रेमिका को दफ़न किया जाएगा, तब एक नीहारिका प्रगट होगी पौर दोनों समाधियाँ मिल कर एक बन जायेंगी। वह यह भी सोचता यदि उसकी मृत्यु भी हो गई और उसकी प्रेमिका किसी कारणवश आत्म-हत्या न भी कर सकी, तब आये वीरवार को उसकी समाधि पर कोमल हाथ, उसकी याद में फूल चढ़ाया करेंगे और दीपक भी जलाया करेंगे। अपने काले और लम्बे केशों की लटाएँ खोलकर अपना सिर (माथा) समाधि से फोड़ा करेंगी और समाज एक तस्वीर और बना

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देगा, जिसके ऊपर यह लिखा होगा।

'हाय! इस ज़दो पशेमां का पशेमा होना'

या कोई कवि दूसरा गीत लिख देगा। एक ज़माने तक तमाशबीन, जिसे कोठों पर तबले की थाप के साथ सुनते रहेंगे। यह गीत इस दंगा के होंगे--

मेरी लहद पे कोई पर्दा पोश आता है

चिराग़े गोरे-गरेबाँ सुबा बुझा देना।

इस प्रकार के गीत जब वह किसी गद्य में देखता, तो इस नतीजे पर पहुँचता कि प्रेम गौर-कंकन है, जो हर समय कंधे पर कुदाल रखे, प्रेमियों के लिये कब्रें खोदने के लिये, हर समय तैयार रहता है। इस प्रेम से वह उस प्रेम की तुलना करता, जिसकी कल्पना उसके दिमाग़ में थी; परन्तु जब उनमें धरती और आकाश-सा अन्तर पाता तो वह विचार करता कि या तो उसका दिमाग खराब है या वह नजाम ही खराब है; जिसमें वह स्वांस ले रहा है।

सँय्यद यदि कभी दुकान खोलता, तो उसे ऐसा अनुभव होता कि वह किसी कसाई की दुकान में दाखिल हो गया हो। प्रत्येक गीत की पंक्ति इसे बगैर खाल का बकरा दीख पड़ती; जिसका गोश्त चरबी के समेत बू पैदा कर रहा हो। प्रत्येक बात उसकी जबान पर एक खासमजा उत्पन्न होने का अनुभव करती, जब वह कोई गीत पढ़ता, तो उसकी जबान को वही अनुभव होता जो कुर्बानी का गोश्त खाते समय अनुभव होता था।

वह सोचा करता कि जिस प्रान्त में जनसंख्या का चौथा भाग कवि है, वह इस प्रकार के ही गीत लिखते है। प्यार सदा वहाँ पर गोश्ता के लोथड़ों के नीचे फँसा रहेगा। उस प्रकार की उदासी एक दो दिन

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के पश्चात् स्वयं ही समाप्त हो जाती और फिर नई ताज़गी के साथ

प्रेम-समस्या को सुलझाने का प्रयत्न करता था।

नं० ८ जुविदा उर्फ जिंदा मोटे-मोटे हाय-पाँव वाली लड़की थी? यदि उसे दूर से कभी देख लेता तो गुँथे हुए मैदे के समान ढेर दीख पड़ती थी। मुहल्ले के एक नवयुवक ने एक बार उसको आँख मारी, प्रेम की प्रथम सीढ़ी पर चढ़ने के लिये; परन्तु उस बेचारे को लेने के देने पड़ गये। उस लड़की ने अपनी माँ से सब कुछ जा सुनाया और उसकी माँ ने अपने बड़े लड़के से खुफिया ढंग से बात-चीत की और उसको फटकारा। परिणाम इसका यह हुआ कि आँख मारने के दूसरे ही दिन सायंकाल के समय जब अब्दुलगनी साहब हिकमत सीख कर घर आए, तो उनकी दोनों आँखें सूझी हुई थीं। सुनते हैं, जुविदा उर्फ जिदा चिक में से यह तमाशा देखकर बहुत ही प्रसन्न हुई। सैय्यद को चूँकि अपनी आँखें बहुत प्यारी थीं, इसलिये वह जुविदा के विषय में क्षण-भर के लिये भी सोचने को तैयार न था। अब्दुलगनी ने आँख के द्वारा प्यार का श्री-गणेश करना चाहा था। सैय्यद को यह ढंग बाज़ारी जान पड़ता था। यदि वह इसको अपना प्यार-भरा सन्देश देना चाहता तो अपनी जबान को हिलाता, जो दूसरे दिन ही काट दी जाती। मरहम पट्टी करने से पहले जुविदा का भाई कभी न पूछता कि क्या बात है ? बस, वह लज्जा के नाम पर छुरी चला देता, उसको इसका कभी विचार न आता कि वह छः लड़कियों का जीवन नष्ट कर चुका है, जिनकी कहानियाँ बड़े मज़े के सरथ अपने मित्रों को सुनाया करता था।

नं० ९ जिसका नाम उसको भी पता न था; परन्तु वह पश्मीने के व्यापारियों के यहाँ नौकरी करती थी। एक बहुत बड़ा घर था, जिसमें चारों भाई रहते थे। यह लड़की जो कश्मीर की पैदावार थी, इन चार

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भाइयों के लिये सर्द-ऋतु का शाल बन कर इनको आनन्द प्रदान करती

थी। ग्रीष्म ऋतु में वे सब से सब कश्मीर चले जाते और वह अपनी दूर की बिरादरी में किसी स्त्री के पास चली जाती थी? यह लड़की जो अब स्त्री का रूप धारण कर चुकी थी, दिन में एक दो वार अवश्य ही उसकी नज़रों से गुजरती थी। इस लड़की को देखकर वह सदा यही विचार करता कि उसने एक नहीं, तीन चार स्त्रियाँ इकट्ठी देखी हैं। इस लड़की के विषय में जिसके विवाह के लिये चारों भाई चिन्ता कर रहे थे। उसने कई बार सोचा! वह इसके फुर्तीलेपन पर बहुत ही रीझ चुका था! वह घर का सारा काम-काज स्वयं ही संभालती थी। वह इन चार सौदागर भाइयों की बारी-बारी सेवा भी करती थी।

वह देखने में प्रसन्न दीख पड़ती थी। इन चार सौदागरों को; जिनके साथ इसके शरीर का सम्बन्ध था, वह एक ही दृष्टि से देखती थी। इस लड़की का जीवन जैसा कि दीख पड़ता है, एक आश्चर्य जनक खेल था, जिस खेल में चार व्यक्ति भाग ले रहे थे। उन चार व्यक्तियों में से प्रत्येक को यही समझना पड़ता था कि वह तीनों भाई मूर्ख है। जब इस लड़की के साथ उनमें से कोई मिल जाता तो वह दोनों मिलकर यह सोचते या समझते होंगे कि घर में जितने आदमी रहते हैं, सब के सब अन्धे हैं; किन्तु क्या वह स्वयं अन्धी नहीं थी? इस प्रश्न का उत्तर सैय्यद को नहीं मिलता था। यदि वह अन्धी होती तो एक ही समय में चार व्यक्तियों से सम्बन्ध पैदा न करती, हो सकता है वह इन चारों को एक ही समझती हो...क्योंकि स्त्री और पुरुष का शारीरिक सम्बन्ध एक जैसा ही होता है।

वह अपने जीवन की सुनेहली घड़ियाँ आनन्दमय व्यतीत कर रही थी। चार सौदागर भाई छुप-छुप कर कुछ न कुछ अवश्य ही देते होंगे; चूँकि जब पुरुष किसी भी स्त्री के साथ कुछ क्षण आनन्दमय व्यतीत करता है, तो उसके हृदय में उसका मूल्य चुकाने का विचार अवश्य ही

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उत्पन्न होता है; क्योंकि यह विचार एकान्त स्थान में पहुँचने से पूर्व ही

उत्पन्न होता है, इसलिये अधिक लाभप्रद होता है।

सैय्यद इसको प्रायः बाज़ार में शहाबुद्दीन हलवाई की दुकान पर खीर खाते या भाई केमरसिंह फलों वाले की दुकान के पास फल खाते देखता था। उसे इन वस्तुओं की आवश्यकता थी। फिर वह जिस स्वतन्त्रता-पूर्वक फल और खीर खाती थी, इससे पता चलता है कि वह इनका एक-एक अंश हज़म करने का विचार रखती है।

एक बार सैय्यद शहाबुद्दीन की दुकान पर फालूदा पी रहा था और सोच रहा था कि इतनी सुन्दर चीज़ को, किस प्रकार हज़म कर सकेगा? वह आई और चार आने की खीर में एक पाने की रबड़ी डलवा कर दो ही मिन्ट में सारी प्लेट चट कर गई। सैय्यद को यह देख कर मन में ईर्ष्या हुई। जब वह चली गई तब शहाबुद्दीन के मैले अधरों पर मैली मुस्कान की रेखाएँ उत्पन्न हुई और उसने किसी को भी जो सुन ले पुकारते हुए कहा--"साली मजे कर रही है।"

यह सुनकर उसने उस लड़की की ओर देखा जो आँखें मटकाती हुई फलों की दुकान के समीप पहुँच चुकी थी। भाई केसर सिंह की दाढ़ी का मज़ाक उड़ा रही थी। वह सदा खुश रहती और सैय्यद को यह देख कर अत्यन्त खेद होता। भगवान् जाने क्यों? उसके हृदय में अद्भुत और गदले विचार उत्पन्न होते कि वह सदा प्रसन्न न रहे।

सन् तीस के प्रारम्भ तक वह इस लड़की के बारे में यही निर्णय करता रहा कि इससे प्यार नहीं किया जा सकता।