साहित्य का उद्देश्य
प्रेमचंद

पृष्ठ २६१ से – २६४ तक

 

अतीत का मुर्दा बोझ

 

२१, २२ सितम्बर को पटना ने अपने साहित्य परिषद् का कई बरसों के बाद आने वाला वार्षिकोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया। हिन्दी के शब्द जादूगर श्री माखनलाल जी चतुर्वेदी सभापति थे और साहित्यकारों का अच्छा जमघट था। हम तो अपने दुर्भाग्य से उसमें सम्मिलित होने का गौरव न पा सके। शुक्रवार की सन्ध्या समय से ही हमें ज्वर हो आया और वह सोमवार को उतरा। हम छटपटा कर रह गये। रविवार को भी हम यही आशा करते रहे कि आज ज्वर उतर जायगा और हम चले जायंगे, लेकिन ज्वर ने उस वक्त गला छोड़ा, जब परिषद् का उत्सव समाप्त हो चुका था। पटने जाकर खाट पर सोने से काशी में खाट पर पड़े रहना और ज्यादा सुखद था, और यों भी बीमारी के समय, चाहे वह हलकी ही क्यों न हो, बुजुर्गों के मतानुसार, और धर्मशास्त्रों के आदेशानुसार, काशी के समीप ही रहना ज्यादा कल्याणकारी होता है ...लौकिक और पारलौकिक दोनो दृष्टियों से! अतएव हमें आशा है कि हमारे साहित्यिक बन्धुओं ने हमारी गैरहाजिरी मुआफ कर दी होगी। इस ज्वर ने ऐसा अच्छा अवसर हमसे छीन लिया, इसका बदला हम उससे अवश्य लेंगे, चाहे हमे अहिंसा नीति तोड़नी क्यों न पड़े। सभापति का जो भाषण छपकर बासी भात के रूप में मिला है, वह गर्म गर्म कितना स्वादिष्ट होगा...यह सोचता हूँ तो यही जी चाहता है कि ज्वर महोदय कहीं फिर दिखें, लेकिन उनका कहीं पता भी नहीं। इस भाषण मे जीवन है, आदेश है, मार्ग निर्देशन है और साहित्यसेवियों के लिये आदर्श है, मगर आपने पूर्वजों का बोझा मस्तक पर लादने की जो बात कही, वह हमारी समझ में न आई। हमारा ख्याल है कि हम पूर्वजों का बोझ जरूरत से ज्यादा लादे हुए हैं, और उसके बोझ के नीचे दबे जा रहे है। हम अतीत में रहने के इतने आदी हो गये हैं कि वर्तमान और भविष्य की जैसे हमें चिन्ता ही नहीं रही। यूरोप और पश्चिमी जग इसीलिए हमारी उपेक्षा करता है कि वह हमें पाच हजार साल पहले के जन्तु समझता है, जिसके लिए अजायबघरों और पिंजरापोलो में ही स्थान है। वह हमारे भोजपत्रों और ताम्र लेखों को लाद लादकर इसलिए नहीं ले जाता कि उनसे ज्ञान का अर्जन करे, बल्कि इसलिए कि उन्हे अपने संग्रहालयों मे सुरक्षित रखकर अपने विजय गर्व को तुष्टि दे, उसी तरह जैसे पुराने जमाने में विजय की लूट के साथ नर नारियों की भी लूट होती थी और जुलूसों में उनका प्रदर्शन किया जाता था। प्राचीन अगर हमें आदर्श और मार्ग देता है, तो उसके साथ ही रूढ़ियाँ और अन्ध विश्वास भी देता है। चुनाचे आज राम और कृष्ण राम लीला और रास लीला की वस्तु बनकर रह गये हैं और बुद्ध और महावीर ईश्वर बना दिये गये हैं। यह प्राचीन का भार नहीं तो और क्या है कि आज भी असंख्य प्राणी, जिसमें अच्छे खासे पढे़ लिखे आदमियों की संख्या है, नदियों में नहाकर अपना मन शुद्ध कर लिया करते हैं? प्राचीन, उन राष्ट्रों और जातियों के लिए गर्व की वस्तु होगी और होनी चाहिए जो अपने पूर्वजों के पुरुषार्थ और उनकी साधनाओं से आज मालामाल हो रहे हैं। जिस जाति को पूर्वजों से पराजय का अपमान और रूढियों का तौक ही विरासत में मिला, वे प्राचीन के नाम को क्यों रोयें। ऐसे दर्शन को क्या हम लेकर चाटें, जिसने हमारे पूर्वजों को इतना अकर्मण्य बना दिया कि जब बख्तियार खिलजी ने बिहार विजय किया, तो पता चला कि सारा नगर और किला एक विशाल वाचनालय था। विद्वान लोग मजे से राज्य का आश्रय पाते थे और अपनी कुटिया मे बैठे हुए प्राचीन शास्त्रो मे डूबे रहते थे।
उनके इर्द गिर्द क्या हो रहा है, दुनिया किस गति से बढी जा रही है, उन्हे इसकी खबर न थी। और शायद वस्तियार उन विद्वानो से मुजाहिम न होता और उनकी वृत्ति ज्यो की त्यो बनी रहती, न वे उसी बेफिक्री से अपना शास्त्र पढे जाते और आध्यात्मिक विचारों के आनन्द लूटते रहते और अमर जीवन की मंजिल नापते चले जाते। उधर पश्चिम के नाविक समुद्र के तूफान का मुकाबला करके ससार विजय कर रहे थे और हमारे बाबा दादा बैठे मुक्ति का मार्ग ढूँढ रहे थे। पश्चिम ने जिस वस्तु के लिए तपस्या की, उसे वह वस्तु मिली। हमारे पूर्वजो ने जिस वस्तु की तपस्या की, वह उन्हे मिली या मिलेगी इसके बारे मे अभी कुछ कहना कठिन है। जिसके लिए ससार मिथ्या हो, और दुःख का घर हो, उसकी यदि संसार उपेक्षा करे, तो उन्हें शिकायत का क्या मौका है ? हमे स्वर्ग की ओर से निश्चिन्त रहना चाहिए, वह हमे मिलेगा और जरूर मिलेगा । चतुर्वेदी जी के ही शब्दो में 'ग्रन्थो के बन्धनो के आदी हम स्वामी राम के कथन मे भी मुक्ति का गीत हूँढने के बजाय वेदान्त का बन्धन हूँढने लगे। और क्यो न हूँढते ? बन्धनो के सिवा, और ग्रन्थो के सिवा हमारे पास और क्या था ? पडित लोग पढते थे और योद्धा लोग लड़ते थे और एक दूसरे की बेइज्जती करते थे और लड़ाई से फुरसत मिलती थी तो व्यभिचार करते थे। यह हमारो व्यावहारिक सस्कृति थी। पुस्तको मे वह जितनी ही ऊची और पवित्र थी, व्यवहार मे उतनी ही निन्द्य और निकृष्ट ।

आगे चलकर सभापति जी ने हमारी वर्तमान साहित्यिक मनोवृत्ति का जो चित्र खींचा है, उसका एक एक शब्द यथार्थ है :

'हम अपनी इस आदत को क्या करे ? यदि किसी के दोष सुनता हूँ तो तुरन्त मान लेता हूँ और उस अद्रव्य को पेट मे लेकर फिर बाहर लाता हूँ और अपनी साहित्यिक पीढी को उस निन्द्य निधि की खैरात बाटता हूँ । संसार के दोषो का मैं बिना प्रमाण सरल विश्वासी होता हूँ और यह चाहता हूँ कि मेरी ही तरह मेरा पाठक भी मेरी
लोक निन्दा पर विश्वास करे । किन्तु यदि किसी के गुण, किसी की मौलिकता, किसी की उच्चता की चर्चा सुनता हूँ, तब मै उसके लिए प्रमाण वसूल करने के इजहार लेना चाहता हूँ।'

और भाषण के अन्तिम शब्द तो बड़े ही मर्मस्पर्शी है :

'हम बडे हों या छोटे, हमने घर घर या व्यक्ति व्यक्ति मे मरने का डर बोया है । हमारे लिए मार डालना ही गुनाह नहीं, मर जाना गुनाह हो गया है......आज के साहित्यिक चिन्तक पर जिम्मेवारी है कि वह पुरुषार्थ को दोनो हाथों मे लेकर जीने का खतरा और मरने का स्वाद अपनी पीढ़ी मे बोये । यह पुरुषार्थ शस्त्रधरो से नहीं हो सकता, यह तो कलम के धनियों ही के करने का काम है।'

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