साहित्य का उद्देश्य/29
अबकी बिहार का प्रांतीय साहित्य सम्मेलन २२-२३ फरवरी को पूर्णिया में हुआ। श्री बाबू यशोदानन्दन जी ने, जो हिन्दी के वयोवृद्ध साहित्य-सेवी हैं, सभापति का आसन ग्रहण किया था। इस जीर्णावस्था में भी उन्होंने यह दायित्व स्वीकार किया, यह उनके प्रौढ़ साहित्यानुराग का प्रमाण है। प्रान्त के हरेक भाग से प्रतिनिधि आये हुए थे और खूब उत्साह था। मेहमानों के आदर-सत्कार में स्वागताध्यक्ष श्री बाबू रघुवंशसिह के सुप्रबन्ध से कोई कमी नहीं हुई। सभापति महोदय ने अपने भाषण में हिंदी भाषा, साहित्य, देव नागरी लिपि आदि विषयों का विस्तार से उल्लेख किया और बिहार में हिन्दी के प्रचार और प्रगति की जो चर्चा की, वह बिहार के लिए गौरव की वस्तु है। हमें नही मालूम था कि कविता में खड़ी बोली के व्यवहार की प्रेरणा पहले बिहार में हुई, और हिन्दी साहित्य-सम्मेलन की कल्पना भी बिहार की ही ऋणी है। मुसलमानी शासन-काल में हिन्दी की वृद्धि क्योंकर हुई, इस पर आपने निष्पक्ष प्रकाश डाला। आप उर्दू को कोई स्वतंत्र भाषा नहीं मानते, बल्कि उसे हिन्दी का ही एक रूप कहते हैं। आपने कहा-
"मुसलमानी-शासन ने हिन्दी-भाषा के प्रसार और प्रचार के मार्ग में बड़ी सहायता पहुँचाई है। उसी काल में हिन्दी के तीन रूप हो गये थे। एक नागरी लिपि में व्यक्त ठेठ हिन्दी, जिसे लोग अधिकांश में 'भाषा' या 'देव-नागरी' या 'नागरी' कहते थे, दूसरा उर्दू यानी फारसी लिपि में लिखी हुई फारसी मिश्रित हिन्दी, अर्थात् उर्दू और तीसरी पद्य हिन्दी यानी ब्रज-भाषा। जो हिन्दी आज राष्ट्र-भाषा के सिंहासन पर अभिषिक्त होने की अधिकारिणी है, वह देव नागरी है। यह और उर्दू वस्तुतः एक ही है और दिल्ली प्रांत की बोली है।' कवि हैं और जीवन मे कविता का स्थान क्या है, यह खूब जानते हैं। आपने बहुत ठीक कहा, कि कविता केवल मनोरंजन की वस्तु नही और न गा-गाकर सुनाने की चीज है । वह तो हमारे हृदय मे प्रेरणाओं की डालने वाली, हमारे अवसाद-ग्रस्त मन मे अानन्दमय स्फूर्ति का सचार करने वाली, हममे कोमल भावनाओ को जगाने वाली ( स्त्रैण भावनात्रो को नहीं) वस्तु है । कविता मे अगर जागृति पैदा करने की शक्ति नहीं है, तो वह बेजान है । आप हाला बॉधे, या तन्त्री के तार, या बुलबुल और कफस, उसमें जीवन को तड़पाने वाली शक्ति होनी चाहिए । प्रेमि- कात्रो के सामने बैठकर ऑसू बहाने का यह जमाना नहीं है। उस व्यापार मे हमने कई सदियों खो दी, विरह का रोना रोते-रोते हम कहीं के न रहे । अब हमे ऐसे कवि चाहिए, जो हज़रते इकबाल की तरह हमारी मरी हुई हड्डियो मे जान डाले। देखिए, इस कवि ने लेनिन को खुदा के सामने ले जाकर क्या फ़रियाद कराई है और उसका खुदा पर इतना असर होता है कि वह अपने फरिश्तो को हुक्म देता है-
उहो, मेरी दुनिया के गरीबो को जगा दो,
काखे' उमरा के दरो- दीवार हिला दो।
गरमाअो गुलामो का लहू सोज़े यकीं से,
कुंजिश्कर फरोमाया को शाही से लड़ा दो।
सुलतानिये' जमहूर' का आता है ज़माना,
जो नक्शे कोहन' तुमको नज़र आये मिटा दो ।
जिस खेत से दहकों को मयस्सर नही रोटी,
उस खेत के हर खोशए गदुम को जला दो।
क्यो खालिको मखलूक ११ मे हायल रहे परदे,
पीराने कलीसा को कलीसा'३ से उठा दो।
(१) महल (२) चिड़ा (३) तुच्छ (४) शिका (५-६) प्रजा-राज्य (७) पुराना (८) किसान (8) गेहूँ की बाल (१०) स्रष्टा (११) सृष्टि. (१२) मठधारी (१३) गिरजे ।