साहित्य का उद्देश्य
प्रेमचंद

पृष्ठ २६५ से – २६६ तक

 

साहित्यिक उदासीनता

 

हिन्दी साहित्य में आजकल जो शिथिलता-सी छाई हुई है, उसे देखकर साहित्य प्रेमियों को हताश होना पड़ता है। आज हिन्दी में एक भी ऐसा सफल प्रकाशक नहीं, जो साल भर में दो चार पुस्तकों से अधिक निकाल सकता हो। प्रत्येक प्रकाशक के कार्यालय में हस्त-लिखित पुस्तकों का ढेर लगा पड़ा है; पर प्रकाशकों को साहस नहीं होता कि उन्हें प्रकाशित कर सके। दो-चार इने गिने लेखकों की पुस्तकें ही छपती हैं; पर वहाँ भी पुस्तकों की निकासी नहीं होती। दो हजार का एडीशन बिकते-बिकते कम-से-कम तीन साल लग जाते हैं। अधिकांश पुस्तकों की तो दससाल में अगर दो हजार प्रतियाँ निकल जायँ, तो गनीमत समझी जाती है। जब पुस्तकों की बिक्री का यह हाल है, तो प्रकाशक पुरस्कार कहाँ से दे और दें भी तो वह पत्र-पुष्प से अधिक नहीं हो सकता। पत्र-पुष्प से लेखक को क्या संतोष हो सकता है क्योंकि वह भी आदमी है और उसे भी जरूरत होती ही हैं। इसका फल यह है, कि लेखक अलग उत्साहहीन होते जाते हैं, प्रकाशक अलग कंधा डालते जाते हैं और साहित्य की जो उन्नति होनी चाहिए, वह नहीं होने पाती। लेखक को अच्छा पुरस्कार मिलने की आशा हो तो वह तन-मन से रचना में प्रवृत्त हो सकता है, और प्रकाशक को यदि अच्छी बिक्री की आशा हो तो वह रुपये लगाने को भी तैयार है। लेकिन सारा दारमदार पुस्तकों की बिक्री पर है और जब तक हिन्दी-पाठक पुस्तकें खरीदना अपना कर्तव्य न समझने लगेंगे, यह शिथिलता ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। कितने खेद की बात है, कि बड़ी बड़ी अामदनी रखनेवाले सजन भी हिन्दी की पुस्तके मॉगकर पढने मे सकोच नहीं करते । शायद वह हिन्दी-पुस्तके पढना ही हिन्दी पर कोई एहसान समझते हैं। इस विषय मे उर्दूवाले क्या कर रहे है, उसकी चर्चा हम यहाँ कर देना चाहते है। लाहौर मे, जो उर्दू का केंद्र है, कुछ लोगो ने एक समिति बना ली है और उनका काम है शहर- शहर और कस्बे-कस्बे घूमकर पाठको से अपनी आय का शताश उर्दू पुस्तके खरीदने मे खर्च करने का अनुरोध करना । पाठक जो पुस्तक चाहे अपनी रुचि के अनुसार खरीदे, पर ख़रीदे जरूर । पाठको से एक प्रतिज्ञा कराई जाती है और सुनते है कि समिति को इस सदुद्योग मे खासी सफलता हो रही है । बहुत से पाठक तो केवल इसलिए पुस्तकें नहीं खरीदते कि उन्हें खबर नही कौन कौन सी अच्छी पुस्तके निकलती हैं । उनका इस तरफ ध्यान ही नहीं जाता।जरूरत की चीजे तो उन्हें झक मारकर लेनी पड़ती हैं। स्त्री लडके सभी आग्रह करते है। लेकिन पुस्तको के लिए ऐसा आग्रह अभी नही होता । केवल पाठ्य पुस्तके तो खरीद ली जाती है, अन्य पुस्तको का ख़रीदना अनावश्यक या फ़िजूल- खर्ची समझी जाती है । मगर जब समिति ने पबलिक का ध्यान इस ओर खींचा, तो लोग बडे हर्प से उसके साथ सहयोग करने को तैयार हो गये। कितने ही सजनो ने तो पुस्तको के चुनाव का भार भी समिति के सिर रख दिया। जिसकी वार्षिक प्राय बाहर सौ रुपये है, वह साल-भर मे बारह रुपये की पुस्तकें खरीदने का यदि प्रण कर ले, तो हमे विश्वास है, कि थोडे ही दिनों मे हिन्दी-साहित्य का बड़ा कल्याण हो सकता है। ऐसे सजनो की कमी नहीं है, केवल साहित्य-प्रेमियों को उनके कर्तव्य की याद दिलाने की ज़रूरत है । अगर उर्दू मे ऐसी समिति बन सकती है, तो हिन्दी मे भी अवश्य बन सकती है। अगर हमारी हिन्दी सभाएँ इस तरफ ध्यान दे, तो साहित्य का बहुत उपकार हो सकता है।

---