साहित्यालाप/१३ विदेशी गवर्नमेंट और स्वदेशी भाषायें

साहित्यालाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

पटना: खड्‍गविलास प्रेस, पृष्ठ २०९ से – २१७ तक

 


१३ विदेशी गवर्नमेंट और स्वदेशी भाषायें ।

यदि कोई जाति या देश किसी अन्य जाति या देश पर अधिकार कर ले और उसे अपने शासन में रखना चाहे तो उसे चाहिए कि वह शासित देश पर की शासित जाति में दूध मिश्री की तरह मिल जाय । तभी उसका अधिकार उस देश पर स्थायी या बहुकाल व्यापी हो सकेगा, अन्यथा नहीं । क्योंकि किसी देश पर किसी अन्य देश का शासन सर्वथा अस्वाभाविक है। और अस्वाभाविकता कभी चिरस्थायिनी नहीं हो सकती इससे विदेशी शासकों को स्वाभाविकता की ओर यथा शक्ति खिचना चाहिए और भेद-भावको दूर करने की चेष्टा करनी चाहिये। उन्हें चाहिए कि शासित देश की भाषा, लिपि, धर्म, सामाजिक व्यवहार, और रोति-रवाज आदि से यथेष्ट परिचित हो जाय और परिचय प्राप्त करके शासित देश की आत्मा, संस्कार और प्रचलित प्रथा के प्रतिकूल कोई काम न करे ! तभी शासकों और शासितो में सद्भाव की उत्पत्ति होगी और तभी शासित देश के निवासी शासकों का शासन किसी तरह सहन कर सकेंगे।

खेद है, इस प्रकार का सद्भाव भारत में नहीं। यहां के शासक अंग्रेज अपने देश से नौजवान अंँग्रेजों को बड़े बड़े उहदों पर नियत करके इस देश को भेजते हैं। वे यहां की प्राय: सभी बा- नों से अनभिज्ञ रहते हैं। फल यह होता है कि उन्हें पद पद

पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। शासितों के कष्ट बढ़ते हैं, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती। इस कारण द्वेष की नहीं तो औदासीन्य और अप्रीति की उत्पत्ति और वृद्धि होती है, जो शासकों के लिए बहुत ही हानिकारक है।

इस देश के भिन्न भिन्न प्रांतों में भिन्न भिन्न भाषायें प्रचलित हैं । शासक शुरू शुरू में उनसे प्रायः सवथा अनभिन्न रहते हैं। फल इसका बहुत ही विषमय होता है । बड़े बड़े अधिकारियों की बात जाने दीजिए छोटे छोटे अधिकारी भी तो हम लोगों की लिपि, भाषा, भावभङ्गी जानने का यत्न नहीं करते। इस कारण हम लोगों की दृष्टि में वे अपनेको उपहास का पात्र बनाते हैं । पर अपने अधिकार के मद में मत्त होने अथवा अपनी जाति की श्रेष्ठता के नशे से बेहोश रहने के कारण वे उस उपहास की परवा नहीं करते। परन्तु क्या इससे उनकी कुछ हानि नहीं होती? हानि होती है और बहुत होती है, जिसका अनुभव समय आने पर, इन्हें जरूर ही होता है।

हमारी भाषा और लिपि का काफी शान सम्पादन न करने के कारण ही हमारे नगरों, कसबों, गांवों, डाकखानों और स्टेशनों के नामों की जो दुर्दशा अधिकारियों ने की है और कर रहे हैं देखकर बहुत परिताप होता है। देहली या दिल्ली का डेलही,लखनऊ का लकनौ और मथुरा का मटरा कर डालनेवालों यही सुजान-शिरोमणि हैं। स्टेशनों पर तीसरे दरजे के मुसाफिरों के लिए बनाये गये पाखानों का नाम निर्देश कहीं कहीं केवल अंगरेजी भाषा में रहता है और रेल के तीसरे दरजे के डब्बों के

दरजे का निर्देश तो प्राय: सर्वत्रही अंगरेजी में रहता है । जैसे तीसरे दरजे के सभी मुसाफिर अंगरेजों ही के टापू के रहने- वाले हों और अपनी अपनी मातृभाषायें भूल कर सबके सब एकदम-अंगरेजीदां हो गये हों ! इसका एक मात्र कारण इन लोगों का अविवेक, बेपरवाही और भारतवासियोंके सुभीतेकी ओर दुर्लक्ष्य करना ही है ! अगर ये चाहें तो जरा से ही प्रयत्न से ये दोष दूर हो सकते हैं । पर वे हमलोगों के सुभीते के लिए इतना भी नहीं करना चाहते । अथवा, सम्भव है, वे इसे दोष ही न समझते हों, वे अपने मनमें यह सोचते हों कि इससे हम लोगों को कुछ भी कष्ट नहीं, हमारी कुछ भी हानि नहीं । पर हमारा निवेदन तो यह है कि यदि ये लोग हमारी भाषा और हमारी लिपि से जानकारी रखते तो ये त्रुटियां कभी इनसे होतीं ही नहीं। पर इनका मूलमन्त्र तो यह जान पड़ता है कि हम ३२ करोड़ भारतवासी इन कुछ थोड़े से अधिकारियों के सुभीते के लिये इनकी भाषा के तो पण्डित बन जाय,पर ये मुट्ठीभर होकर भी हम करोड़ों के सुभीते के लिए हमारी भाषा न सीखें।

इनका यह उसूल यहीं तक सीमाबद्ध नहीं। वह और भी बहुत दूरतक व्याप्त है । यदि ये लोग हमारी भाषा सीखते तो हम बिना विशेष परिश्रम और ख़र्च के अपनी ही भाषा द्वारा विशेष ज्ञान सम्पादन करके शासन सम्बन्धी बहुत कुछ काम कर सकते । परन्तु ये ऐसा नहीं करते । ये प्रायः सारे शासन-कार्य अपनी अंग्रेजी ही भाषा में करते हैं । इसीसे कचहरियों,दफ्तरों, स्कूलों और कालेजों आदि में नौकरी पाने के उद्देश से

हमें भी अंग्रेजी भाषा पढ़नी पड़ती है। इससे इन्हींका सुभीता है। हमारा नहीं, इस सुभीते की माया का ओर छोर नहीं। सिविल सरविस, डाक्टरी, बरिस्टरी, एजिनियरो, जङ्गलात आदि के महकमे में ऊंचे ऊंचे पद पाने की इच्छा रखनेवालों को विशेष विशेष प्रकार की शिक्षा प्रात्त करनी पड़ती है। वैसी शिक्षा देने के लिए जो कालेज हैं उन सब में भी अंग्रेजी भाग के ही द्वारा शिक्षा दी जाती है। पर बात यहीं तक नहीं; यह नहीं कि वैसी शिक्षा यहीं इस देश में मिल जाय। वे कालेज प्रायः सबके सब विलायत में हैं । सो यदि हम लोग सो शिक्षा प्राप्त करना चाहें तो पहले तो दस पन्द्रह वर्ष यहां अंग्रेजी पढ़ने में सिरखपी करें; फिर अनेक विन्ववाधाओं नाधानों को पार करके सात समुद्र पार विलायत पधारें । तब कहीं तक बैरिस्टर, बड़े डाक्टर या बड़े एजिनियर हाने का सोभाग्य प्राप्त कर सके। ये है विदेशो गवर्नमेंट की नियामतें।

योरप के बेलजियन, डेनमार्क, हालैंड, स्पेन, पोर्चुगाल,स्वीडन, और नार्वे आदि देश-हिन्दुस्तान के केवल एक एक सूबे के बराबर हैं । पर वे सर प्रकार के पेशों, विधाओं, विज्ञानी और व्यवसायों की ऊंची से ऊंची शिक्षा देने के लिये समस्त सावन रखते हैं। हर विषयको शिक्षा देने के लिए वहां कालेज है। वहां- वालोंके लिए न लन्दन जाना पड़ता न डाले, न आलकर्ड और न केम्ब्रिज । पर इतने बड़े देश हिन्दोस्तान में ऐसे कालेज नहीं । करोड़ों रुपये खर्च करके सरकार अपने मन के काम कर डालेगी, चार ही पाँच वर्षों में फोज का खच दूना करके

उसे कोई ६० करोड़ सालाना कर देगी। पर ऐसे कालेज जिनमें बारिस्टरी, ऊंचे दर्जकी डाक्टरी आदि सिखाई जाय न खोलेगी अथवा न खोल सकेगी। इसका कारण खर्च की कमी बताई जा सकती है। परन्तु सम्भव है, असल बात कुछ और हो हो। यदि इन सब विषयों और विद्याओं की शिक्षा का प्रबन्ध यहीं इसी देश में हो जाता तो भिन्न भिन्न सरकारी महकमों में इस समय बड़े बड़े उहदों पर हिन्दुस्तानी ही हिन्दुस्तानी देख पड़ते। पर दृश्य बिलकुल ही इसका उलटा है। इस देश में अंग्रेजी राज्य का आरम्भ हुए वाई १५० वर्ष हुए । तथापि यहां पशु-चिकित्सा तक की उच्च शिक्षा देनेके लिए कोई कालेज नहीं। ऐसी शिक्षा प्राप्तकरके ठेठविलायत से ही अबतक विलायतवासी यहां आते रहे हैं और आते जाते हैं । वही यहां देवोपम सुख-समृद्धि का उपयोग करते हुए हमारे घोड़ों, गधा, गायों और भैसों आदि पशुओंँ का इलाज करते हैं।

इन पदों की प्राप्तिक लिए अबतक तो सरकार ने कोई विशेष बात हम लोगों के सुभीते की न की थी। पर अब न मालूम क्या समझकर उसने एक घोषणापत्र हाल ही में निकाला है। उसका सारांश नीचे दिखलाता है:-

गवर्नमेंट चाहती है कि कुछ भारतवासी युवक विलायत जायं और वहां पशु चिकित्सक शास्त्र का अध्ययन करें। जो लोग वहां इस शास्त्र का अध्ययन करके सर्टिफिकेट प्राप्त करेंगे उन्हें गवर्नमेंट अपने मुल्की पशुचिकित्सा-विभाग (सिविल वेटेरिनरी डिपार्टमेंट में ) जगह देगी। प्रारम्भ में उन्हें ३५०) मासिक

वेतन मिलेगा। आठ वर्ष में वह ६५०) मासिक तक बढ़ाया जा सकेगा। इसके आगे भी वेतन वृद्धि हो सकेगी; पर उन्हीं लोगों को जो विशेष योग्यता दिखावेंगे । २१ वर्ष तक कामकर चुकने पर इन विशेष योग्यतावाले कर्मचारियों का वेतन धीरे धीरे १२५०) मासिक तक हो सकेगा। इनमें से भी कुछ लोगों का वेतन १५०० मासिक तक बढ़ सकेगा। इतना वेतन उन्हीं को दिया जायगा जो बहुत अधिक योग्य समझे जायंगे और जो इतने वेतन के पदों के लिये चुन लिये जायंगे। वेतन के ये निख उन्हीं के लिये हैं जो भारतवासी हैं-जिनकी जन्मभूमि भारत है-औरों के, अर्थात् जो भारतवासी नहीं हैं उनके वेतन का निर्ख कुछ और ही होगा। बात यह है कि जितना वेतन हिन्दुस्तानियों को मिलेगा उससे अधिक वेतन उन लोगों को मिलेगा जो योरप के निवासी हैं । सो हिन्दुस्तानियों के लिये जो नियम बनाये गये हैं वे योरप वालों के विषय में चरितार्थ नहीं। उनकी पदप्राप्ति और वेतन-भोग के नियम कुछ और ही होंगे और होने ही चाहिये, क्योंकि यह भेद भाव प्रायः सभी महकमों में रक्खा गया है।

जो भारतवासी युवक पशुचिकित्सा शास्त्र का अध्ययन करने के लिए इङ्गलैंड जाना चाहें उनकी उम्र १९ वर्ष से कम और २३ वर्ष से अधिक न होनी चाहिए। उनके लिये यह लाजमी होगा कि उन्होंने किसी भारतीय विश्वविद्यालय की वैज्ञानिक डिगरी (बी. एस. सी. एम. एस. सी. आदि) नामवरीके साथ प्राप्त की हो। वे योरपवासी भी अध्ययन के लिए भेजे जा सकेंगे
जो हिन्दुस्तान में सदा के लिए बस गये हैं। उम्मेदवारों को चाहिए कि वे २० जून सन् १९२१ तक अपनी दरखास्त-

सेक्रेटरा टू दि गवर्नमेंट आफ इण्डिया, डिपार्टमेंट आव् रेवेन्यू ऐण्ड ऐग्रीकलचर, शिमला, को भेजें । सरकार ने गैज़ेट आव् इरिडया में एक फार्म छापा है। उसी फार्म को भरकर भेजना चाहिए । दरखास्त का नमूना वही है । उसके साथ ही सिविल सर्जन का एक सर्टिफिकेट भेजना चाहिए कि उम्मेदवार की तन्दुरुस्ती अच्छी है और वह पशुचिकित्सा-विभाग में काम करने योग्य है । जिन लोगों की दरखास्तों से यह मालूम हो जायगा कि वे काफी योग्यता रखते हैं उनकी डाक्टरी बड़ी बारीकी से होगी। यदि डाक्टर लोग कह देंगे कि, हाँ यह उम्मेदवार खूब तन्दुरुस्त है, तब गवर्नमेंट के कुछ अधिकारी उसका मुलाहजा करेंगे। मुलाहजे में ठीक उतरने पर उम्मेदवार के जिले के हाकिमों से उसकी योग्यता आदि के विषय में पूछ पाछ की जायगी। उसका फल भी यदि सन्तोषजनक होगा तो वह सरकारी खर्च से विलायत भेजा जायगा। वहां उसे ४ वर्ष तक पढ़ना पड़ेगा। छात्रवृत्ति के रूप में गवर्नमेंट उसे २५० पौंड सालाना खर्च देगी। मगर उसे अपने पास से भी कोई १०० पौंड सालाना खर्च करना पड़ेगा,क्योंकि ३५० पौंड से कम में वहां का खर्च नहीं चल सकता । अगले सितम्बर में उसे विलायत के लिये रवाना हो जाना पड़ेगा। इतने महाभारत के बाद उम्मेदवार जब विलायत पहुंचेगा तब उसे अपने अध्ययन और अपने चालचलन से सेक्रेटरी आव स्टेटको सन्तुष्ट करना पड़ेगा। जी लगाकर अध्ययन न करने, चालचलन ठीक न होने, नियमों की पाबन्दी न करने और परीक्षा में पास न होने पर छात्रवृत्ति का रुपया लाटा देना पड़ेगा। इस दशा में उसे अपना सा मुंह लेकर भारत लोट आना पड़ेगा और पशुचिकित्सा- विभाग में नौकरी पाने से वञ्चित रहना पड़ेगा। सब वातें ठीक होने और परीक्षा पास कर लेने पर उम्मेदवार को एक दस्तावेज लिखकर कितनी ही शर्तों से अपने को जकड़ लेना पड़ेगा। तब कहीं पशुओं को चिकित्सा करने का दुर्लभ पद उसे मिल सकेगा।

भला इतनी कड़ी परीक्षा और इतनी शर्तों की पाबन्दी कराने पर यदि उम्मेदवारों को अपनी ही भाषा में इस शास्त्र का अध्ययन करने का सुभीता होता तो भो विशेष न खलता । यह न सही अपने देश में ही यह शास्त्र सीखने का प्रबन्ध हो जाता-अपनी भाषा में न सही, अङ्गरेजी में ही सही। परन्तु वह भी नहीं । पहिले १०, १५ वर्ष तक अड़्गरेजी पढ़ो, हजारों रुपये फूंक तापो, फिर विलायत जाओ। तब इस योग्य हो कि तुम घोड़ों और खञ्चरों का इलाज करो। इस प्रकार की अस्वाभाविकता क्या पृथ्वी की पीठ पर और भी किसी देश में है ? जब अंग्रेजी राज्य न था तब क्या यहां बीमार पशुओं का इलाज न होता था ? अथवा जिन देशों में अंग्रेज़ी राज्य नहीं या जहां अंग्रेज़ी भाषा प्रचलित नहीं वहां क्या पशुओं को चिकित्सा

होती ही नहीं। राजा का कर्तव्य है कि वह प्रजा के लिए सब तरह के सुभीते करदे । फिर क्यों नहीं सरकार सब तरह की शिक्षा का प्रबन्ध यहीं करती ? क्यों वह मुठ्ठीभर अधिकारियों के सुभीते के लिए करोड़ों भारतवासियों को अंग्रेजी पढ़ने के लिए लाचार करती है ? अधिकारियों को चाहिए कि वही खुद हमारी भाषायें सीखें और हमारी ही भाषाओं में हमें सब प्रकार की शिक्षा देने की योजना करें। यदि वे किसी कारण से ऐसा नहीं कर सकते तो हमें अपना काम आपहा करने के लिए मैदान साफ कर दें। हर बात के लिए हम कब तक विलायत की दौड़ लगाते रहेंगे?

जुलाई १९२१