साहित्यालाप  (1929) 
महावीर प्रसाद द्विवेदी

पटना: खड्‍गविलास प्रेस, पृष्ठ आवरण से – निवेदन तक

 
साहित्यालाप




लेखक---

महावीरप्रसाद द्विवेदी









प्रकाशक

खड्गविलास प्रेस, पटना

१९२९

विषय-सूची।


लेखाङ्क लेख नाम पृष्ठ
देवनागरी लिपि का उत्पत्तिकाल
देवनागरी लिपि के प्रचार का प्रयत्न १३
नई रोमन लिपि के प्रचार का प्रयत्न १८
देशव्यापक भाषा २९
देशव्यापक लिपि ६३
हिन्दी-भाषा और उसका साहित्य ७८
हिन्दी की बर्त्तमान अवस्था १०९
कौंसिल में हिन्दी १४०
भारतीय भाषायें और अंगरेज १६३
१० मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट में हिन्दी उर्दू १७२
११ उर्दू और "आज़ाद" १८६
१२ मर्दुमशुमारी की हिन्दुस्तानी भाषा १९८
१३ विदेशी गवर्नमेंट और स्वदेशी भाषायें २०९
१४ कवि-सम्मेलन २१८
१५ पठानी सिक्कों पर नागरी २३२
१६ वक्तव्य २४७
१७ विचारविपर्य्यय ३१६
१८ आजकल के छायावादी कवि और कविता ३२५

निवेदन

मानवी प्रकृति पर परिस्थिति का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। स्थिति चाहे जितनी ही प्रतिकूल और दोषपूर्ण हो, धीरे धीरे, वह स्वाभाविक सी हो जाती है। स्वाधीनता के सदृश सुख नहीं और पराधीनता के सदृश दुःख नहीं। तथापि, चिरकाल तक पराधीन रहनेवाली जातियां अपनी उस स्थिति में भी सन्तोष मानने लगती हैं। जो मनुष्य दस पाँच वर्ष जेल में रह जाता है, वह, वहां से निकलने पर, फिर वहीं पहुँचने के लिए, कभी कभी, जुर्म कर बैठता है। ऐसों को जगाने उन्हें अपनी दूषित दुर्वासनाओं को छोड़ने—के लिए बहुत प्रयत्न की आवश्यकता होती है।

सुसभ्य, शिक्षित और जागृत देश अपनी स्वाधीनता ही के सदृश अपनी मातृभाषा की भी रक्षा, जी जान से, करते हैं। रक्षा ही नहीं, वे उसकी दैनंदिन उन्नति के लिए भी सदा सचेष्ट रहते हैं। वे जानते हैं कि स्वाधीनता की रक्षा के लिए स्वभाषा की रक्षा और उन्नति अनिवार्य्य है। पर अनेक कारणों से यह बात इस देश के निवासियों के ध्यान में बहुत समय तक नहीं आई। इस त्रुटि या इस विस्मृति का ज्ञान हुए अभी मुश्किल से साठ सत्तर वर्ष हुए होंगे। जिन प्रान्तों में शिक्षा का प्रचार और उसका विस्तार औरों की अपेक्षा अधिक हुआ,

[ २ ]

वहीं के निवासियों का ध्यान, अपनी इस दुर्व्यवस्था की ओर, पहले पहल गया। फल यह हुआ कि वे लोग अपनी अपनी मातृभाषाओं की उन्नति के लिए दत्तचित्त होने लगे। उनका यह काम दिन पर दिन अधिक परिमाण में बढ़ता गया। अब, इस समय, उन प्रान्तों की भाषायें बहुत कुछ श्रीसम्पन्न हो गई हैं।

इस सम्बन्ध में अपना प्रान्त, संयुक्त प्रदेश, कई अन्य प्रान्तों के मुकाबले में बहुत पीछे रह गया। इसके कारणों में से दो को मुख्य समझना चाहिए। एक तो शिक्षा-प्राप्ति में कमी, दूसरे एक के स्थान में दो भाषाओं या बोलियों का अस्तित्व। यहां दो से मतलब हिन्दी और उर्दू से है। इन प्रान्तों के अधिकांश निवासियों की भाषा है तो हिन्दी, पर गवर्नमेंट ने उसे दाद न देकर उर्दू ही को अपने दफ्तरों और अदालतों में जारी रखने की कृपा की। हिन्दी की अनुन्नति का यह भी एक विशेष कारण हुआ। यह सब होने पर भी, अन्य प्रान्तों की देखादेखी, जब अपने प्रान्त के भी कुछ विचारशील सज्जनों के ध्यान में अपनी भाषा की हीनता आई, तब वे भी सजग हो गये। वे भी उसकी उन्नति के साधन में लग गये। यह कोई ४० वर्ष पहले की बात हुई।

आरम्भ में हिन्दी की ओर हिन्दी-भाषा-भाषियों का ध्यान बहुत धीरे धीरे आकृष्ट हुआ। पर उस आकर्षण की मात्रा बढ़ती ही गई। इस वृद्धि को, "सरस्वती" नामक पत्रिका निकाल कर, प्रयाग के इंडियन प्रेस ने, बहुत अधिक

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विशेषता प्रदान कर दी। इस पत्रिका ने हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के प्रचार और उन्नयन के लिए कहां तक चेष्टा की, यह बात, इस संग्रह में सन्निविष्ट लेखों से अच्छी तरह ज्ञात हो सकती है। इसके कुछ लेख बहुत पुराने हैं। उनका प्रकाशन हुए बीस पच्चीस तक वर्ष हो गये। उनसे पाठकों को मालूम हो जायगा कि यह क्षुद्र जन अपनी भाषा और अपनी लिपि के लिए, अपनी अत्यल्प शक्ति के अनुसार, कहां तक और कितना प्रयत्नशील रहा है। वह अल्पज्ञ है, तथापि बहुज्ञों को इस ओर उदासीन सा देख, अपनी अत्यल्प शक्ति के अनुसार, उसने अपने कर्तव्य-पालन में त्रुटि नहीं होने दी। उसने अपनी भाषा और अपनी लिपि के गुणों का भी कीर्तन किया, उनके प्रचार से होनेवाले लाभों का भी निदर्शन किया और यथाशक्ति विरोधियों की उक्तियों का खण्डन भी किया। उसे यह देखकर बहुत सन्तोष हो रहा है कि उसकी आरम्भिक चेष्टायें फलवती हुईं। उससे अधिक योग्य, अधिक कार्य्यकुशल और अधिक शिक्षित सज्जनों ने भी उसके स्वीकृत क्षेत्र में पदार्पण करके उसे विशेष परिष्कृत कर दिया। इन्हीं सुकृती जनों के परिश्रम का यह फल है जो इस समय, अपनी भाषा में, अनेक उत्तमोत्तम समाचारपत्र और सामयिक पुस्तकें निकल रही हैं, भिन्न भिन्न विषयों की अनेक उपादेय पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं और अनेक अध्यवसायशील पुरुष पुस्तकप्रकाशन का व्यवसाय करके बहुत कुछ धनोपार्जन कर रहे हैं।

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