साहित्यालाप/१४—कवि सम्मेलन

पटना: खड्‍गविलास प्रेस, पृष्ठ २१८ से – २३१ तक

 


१४- कवि सम्मेलन।

कवित्व शक्ति की प्राप्ति, प्रकृति या परमेश्वर की कृपा ही से होती है । उसे उसका अलौकिक दान कहना चाहिए । आचार्यों ने कवि को द्वितीय ब्रह्मदेव माना है। ब्रह्मा के सदृश ही कवि भी अपनी एक जुदा ही सृष्टि की रचना कर सकता है और करता है। वह चाहे तो क्षुद्र जनों के स्वल्प यशःसौरभ‌ को भी सर्वत्र फैला दे और प्रतापियों की प्रताप-राशि पर भी कलङ्क की कालिमा लगा दे। वह अपनी कवित्व-शक्ति के बल पर राज राजेश्वरों को भी कुछ नहीं समझता। राजे-और चक्रवर्ती राजे-कुछ सृष्टि-रचना तो कर सकते नहीं। कुछही समय तक वे अपने बल और वैभव, यश और प्रताप की कला का चमत्कार दिखाकर इस लोक से तिरोहित हो जाते हैं। और कवि? कवि की कीर्ति तो अनन्त काल तक बनी रहती है। नद, नदी, देश, महादेश और गगनचुम्बी पर्वत नष्ट होजाते हैं; परन्तु वह नष्ट नहीं होती। हां, वह अनुकूलता की प्राप्ति की मुखापेक्षिणी ज़रूर होती है।

कवि को शक्ति और प्रभुता की इयत्ता नहीं । प्रकृत कवि क्या नहीं कर सकता ? वह रोते हुओं को हँसा सकता है और हँसते हुओं को रुला सकता है। कायरों की रगों में वह वीरता का सञ्चार कर सकता है, सोते हुओं को जगा सकता है, देश-

द्रोहियों को देशभक्त बना सकता है । और मार्गभ्रष्टों को सुमार्ग में ला सकता है। जो मदोन्मत्त नर या नरेश किसी को कुछ समझते ही नहीं उनके दर्प को कवि ही चूर्ण कर सकता है। वह चाहे तो जगद्विजयो भूपालों के कोर्तिकलाप को कलङ्कित कर दे । वह चाहे तो अज्ञात या अल्प-प्रसिद्ध नरपालों के यशः- शरीर को सदा के लिए नहीं तो चिरकाल के लिए अवश्य ही अमर कर दे। ऐसे विश्ववन्ध कवि की महत्ता को सभी बुधवर स्वीकार करते हैं।

सत्कविता की प्राप्ति बड़े पुण्य से होती है। हृदय में कवित्व-बीज होने ही से मनुष्य सत्कवि हो सकता है। उस बीज की प्राप्ति पूर्व-जन्म के संस्कार और परमेश्वर की कृपा-विशेष ही से होती है। बीज होने से, थोड़े ही परिश्रम और शिक्षा की बदौलत, वह अङकुरित हो उठता है। फिर उस अङकुर को बढ़ते और अपनी पूर्णमर्यादा तक पहुंचते देर नहीं लगती। जिनको यह सौभाग्य प्राप्त होता है वही सुकवि या महाकवि की पदवी पाते हैं और संसार में अपना नाम ही नहीं अमर कर जाते किन्तु समाज को बहुत कुछ लाभान्वित भी कर जाते हैं । तथापि, इससे यह मतलब नहीं कि अन्य जन कवि हो ही नहीं सकते। जिनके हृदय में कवित्व का बीज नहीं वे भी परिश्रम, अध्ययन, अभ्यास और सत्सङ्ग की कृपा से कुछ न कुछ कवित्वशक्ति अवश्य ही प्राप्त कर लेते हैं। इसी से आचार्य्य दण्डी लिख गये हैं-

श्रुतेन यत्न न च वागुपासिता

ध्रु वं करोत्येव कमप्यनुग्रहा

परन्तु एक बात है। वह यह कि ये बने हुए कवि प्रकृत कवि की समकक्षता नहीं कर सकते। प्रकृत कवि थोड़े ही परिश्रम और परिशीलन से अपनी कवित्व-शक्ति को विकसित कर सकता है; बना हुआ कबि बहुन परिश्रम और परिशीलन से भी थोड़ी ही कवित्व-शक्ति प्राप्त कर सकता है। पर श्रम, शिक्षा और अध्ययन की आवश्यकता दोनों ही के लिए होती है । बिना इन बातों के प्रकृत कवि के हृदय का बीज अच्छी तरह अङ्कुरित नहीं होता और अप्रकृत कवि को साधारण कविता करने की भी स्फूर्ति नहीं प्राप्त होती।

कुछ उदाहरण लीजिए । लखनऊ के हरिविलास रस्तोगी,फर्रुख़ाबाद के गणेशप्रसाद हलवाई और बनारसी नामक लावनी-बाज़ की रचनाओं को देखिए। वे सरस और कवित्वपूर्ण हैं । परन्तु यथेष्ट शिक्षा और परिशीलन के अभाव में इन प्रकृत कवियों की कवित्व-शक्ति यों ही कुछ थोड़ी सी उन्मिषित हो कर रह गई । वह अच्छी तरह बढ़ न सकी। इसके विपरीत अप्रकृत, पर शिक्षित और अभ्यासशील, कवियों के नाम देने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि उससे विवाद बढ़ने का डर है। जिन लोगों की रचनायें आजकल समाचार-पत्रों और मासिक पुस्तकों में प्राय: निकलती हैं उनमें से कई ऐसे निकलेंगे जिनकी उक्तियां, एक निर्दिष्ट सीमा तक सरस और कवित्व-व्यज्जक ज़रूर हैं। पर उनमें वह भावप्रवणता और कल्पनाओं

का वह उड्डान नहीं जो प्रकृति कवि की रचनाओं में प्रायः सर्वत्र पाया जाता है।

अतएव शिक्षा और अभ्यास की बदौलत कवित्व-बीजविर-हित जन भी थोड़ी-बहुत कविता कर सकते हैं। इस दशा में,आज-कल, कवियों की वृद्धि देख कर घबड़ाने की ज़रूरत नहीं। जो सुकवि होंगे वे कुछ कर दिखावेंगे। उनकी रचनाओं का आदर होगा। जो " हठादाकृष्टानां कतिपयपदानां रचयिता "होंगे वे कुछ ही दिनों में थक कर आप ही चुप हो जायँगे और उनकी रचना भी शीघ्र ही लोप को प्राप्त हो जायगी।

कोई २० वर्ष पहले समस्यापूरक कवियों पर कुछ लोग व्यड़्गय वाक्यों की बौछार करते थे। समस्यापूर्तियों से भरी हुई मासिक पुस्तकों की भी हँसी उड़ाई जाती थी। पर अब उर्दू के कवियों और मुशायरों की देखादेखी हिन्दी के भी कवियों के खूब सम्मेलन हो रहे हैं और समस्यापूर्तियों का भी तूफ़ान सा आ रहा है । कालेजों और स्कूलों के सालाना जलसों में, छात्रालयों में, नुमायशों में, डिस्ट्रिक्ट बोर्डों और कहीं कहीं म्यूनीसिपैलिटियों के अधिवेशनों तक मैं कवियों की कविताधारा प्रवाहित की जाती है । साहित्य-सम्बन्धिनी सभाओं और कवियों के स्वनिर्मित मण्डलों तथा परिषदों में तो कविता-पाठ और समस्यापूर्ति के बहाने भगवती वाग्देवी इतना प्रबल पराक्रम दिखाती हुई पधारती हैं कि प्रलयकाल की आंधी का जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है । उपहार और पुरस्कार का लालच इस झंझावात के वेग को और भी बढ़ा देता है । वह और भी बहुत कुछ करता है । वह विवाद बढ़ाता है, वैमनस्य उत्पत्र

करता है, ईर्ष्याद्धष का बीज बोता है, दलबन्दी का अस्तित्व में लाता है और विकराल कलह की उत्पत्ति का कारण होता है। यह सब होता है सही, पर कविता बेचारी उसके असर से साफ़ बच जाती है। उसकी कुछ भी हानि नहीं होती। कविता को न सही, पद्य-रचना को तो इससे स्फूर्ति ही मिलती है ! कवि, सुकवि और कुकवि सभी लोग और भी अधिक उत्साह और श्रमपूर्वक अपनी अपनी रचना में लग जाते हैं । इस दफ़े न सही, अगली दफ़े पुरस्कार ज़रूर मिलेगा, यह आशा उन्हें अपने काम में पहले की भी अपेक्षा अधिक दृढ़ता और मनोयोग से नियुक्त करती है । उपहार न सही, अच्छी रचना होने से शाबाशी मिलने से भी तो कवियों का उपकार ही होता है । यदि यह भी न हो तो भी रचना का अभ्यास करते रहने से छन्दःशास्त्र में अधिकाधिक प्रवेश होता जाता है, ढूंढते रहने से नये नये शब्द अवगत होते जाते हैं, मनोभावों को चुस्त-दुरुस्त भाषा में व्यक्त करने की शक्ति बढ़ती रहती है और मन की बात को थोड़े में कहने की आदत पड़ जाती है । इस दशा में कवियों की संख्या बढ़ने से कविता में कुछ विशेष उन्नति यदि न भी हो तो भी साहित्य को थोड़ा-बहुत लाभ पहुँचने की अवश्य ही सम्भावना रहती है। अतएव कवि-सम्मेलनों और समस्यापूर्तियों की वृद्धि व्यर्थ अथवा साहित्य को हानि पहुँचानेवाली नहीं कही जा सकती।

पिछले नवम्बर में एक कवि-सम्मेलन, साहित्य-सम्मेलन के साथ, वृन्दावन में हुआ । सुनते हैं, उसमें कवियों का अच्छा

जमघट रहा । कविवर ठाकुर गोपालशरणसिंहजी उसके सभापति थे । आप बोलचाल की भाषा में कविता करते हैं और सुकवि हैं । आपकी कवितासरस और प्रसाद्गुणपूर्ण होती है। कवि-समेल्लन में आपने जो प्रारम्भिक भाषण किया था वह अनति-विस्तृत होकर भी बड़े महत्त्व का है। व्रजभाषा और बोल- चाल की भाषा में की जानेवाली कविता के सम्बन्ध के विचार जो आपने उसमें व्यक्त किये हैं वे बड़ी खूबी से किये हैं। आपने सच बात भी कह दी है, और प्रकट विरोध-भाव को बचा भी दिया है । पर, सुनते हैं,उनके इस सौजन्य को भी कुछ अहंमानी जनों ने दाद न दी। उन्होंने बोलचाल की भाषा की कविता पर आक्षेप कर डाले और कुछ आदरणीय कवियों पर कटाक्ष भी किये । सभापति ठाकुर साहब ने सम्मेलन ही के मञ्च से अपनी "ब्रज-वर्णन" नामक जो रसवती और हृदयाह्लादकारिणी कविता सुनायी थी वह बोलचाल ही की भाषा में थी। अक्षेपकारियों के आक्षेपों का सबसे बढ़िया उत्तर और सबसे अच्छा समाधान उसीका पाठ था। परन्तु, खेद है, उससे भी उन्हें सन्तोष नहीं हुआ । इस कारण ठाकुर साहब को, अपने अन्तिम भाषण में, उनके कटाक्षों का उत्तर देना और उनकी तर्कत्यक्त उक्तियों का खण्डन करना पड़ा।

व्रजभाषा की कविता के पक्षपातियों को जानना चाहिए कि अब उसका समय गया। उसका तिरोभाव अवश्यम्भावी है। अब वह पुरानी प्राकृत भाषाओं के काव्य और साहित्य को तरह केवल पुस्तकों ही में पायी जायगी । समय को उसकी

चाह नहीं। यह बात हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं। सौ में कठिनता से कहीं दस कवितायें अब ब्रजभाषा में लिखी जाती होंगी। उष:काल के तारों के सदृश जो अल्पसंख्यक कवि अब भी उसे अपनाये हुए हैं उनका भी लोप होने ही वाला है । समय-प्रवाह किसी के रोके नहीं रुक सकता। उसके वेग के सामने हठ, दुराग्रह, अन्धभक्ति नहीं ठहर सकती। सभी समझदार मनुष्य इस बात को हृदयङ्गम कर सकते हैं । अतएव दो-चार या दस-पाँच सज्जनों के प्रयत्न से ब्रजभाषा की शिक्षा के लिए यदि स्कूल और कालेज खुलें भी तो वे बहुत दिनों तक टिकने के नहीं । यदि व्रजमंडल में वहाँ की भाषा या बोली सिखाने और उसके साहित्य की शिक्षा देने के लिए स्कूल, कालेज या विश्वविद्यालय खोला जाय तो अन्यान्य प्रान्त या मंडल भी वैसा ही कोई शिक्षालय खोलने का आग्रह क्यों न करें ? तब तो बुंँदेलखन्ड के लिए बंदेलखन्डी भाषा का, बैसवारे के लिए बैसवारी का, मारवाड़ के लिए मारवाड़ी का और मिथिला के लिए मैथिली का भी एक स्कूल, कालेज या विश्वविद्यालय खुलना चाहिए । तब तो ख़ू ब तरक्की होगी। भिन्न भिन्न भाषाओं के प्रचाराधिक्य से एकता और एकराष्टीयता की वृद्धि भी खूब ही होगी!

कविता सभी भाषाओं और सभी बोलियों में हो सकती है। देहात में अपढ़, अशिक्षित और गँवार आदमियों के मुंँह से, उनकी बोली में, कविता सुनने को मिलती है । कभी कभी उनके गीतों में कवित्व की झलक और सुन्दर भावों का
संमिश्रण देख या सुनकर हृदय आनन्द से पुलकित हो जाता है। जब सभी भाषाओं और बोलियों में कविता हो सकती है और होती भी है तब ब्रजभाषा अपवाद नहीं। जिसकी इच्छा हो वह उसी भाषा या बोली में कविता लिखे और ब्रजवासियों ही को विशेषतया प्रसन्न करे । पर जो कवि बोलचाल की हिन्दी को व्यापक भाषा समझता होगा और जो यह चाहता होगा कि उसकी रचना बहुसंख्यक लोगों को पढ़ने को मिले और अन्यान्य प्रान्तों के निवासी भी उससे लाभ उठावें वह उसी में अपने हृदयोद्गार प्रकट करेगा । उसकी निन्दा या कुत्सा करनेवाले, जन-समुदाय के इजलास में, स्वयं ही निन्दा और कुत्सा के पात्र समझे जायँगे।

कई समाचार-पत्रों में पढ़ा कि वृन्दावन के कवि-सम्मेलन में किसीने कोई अश्लील कविता पढ़ दी जिससे कुछ श्रोता उद्विग्न हो उठे और उपस्थित महिलायें सभास्थल छोड़कर चली गयीं। विश्वास नहीं होता कि इतने बड़े सभ्यसमाज में कोई कवि अश्लील कवितायें सुनाने का साहस करेगा, फिर चाहे उसकी रुचि कितनी ही बुरी क्यों न हो । कवियों में आज-कल दलबन्दियाँ खुबही हो रही हैं। सम्भव है, किसी विपक्षी दल के एक या अनेक कवियों ने किसी शृङ्गाररसपूर्ण कविता को अश्लील कह दिया हो, जिसे सुनकर महिलायें उठ गई हों । उठकर उनके चले जाने के और भी तो कारण हो सकते हैं । सम्भव है, कवितायें उनकी समझ ही में न आती हो अथवा कोई कुरुचिपूर्ण उक्ति सुन कर उन्हें सङ्गोच हुआ

हो । अश्लीलता के समाचार तो लोगों ने उड़ा दिये, पर किसी ने उस अश्लील कविता या उसके भावों का प्रकाशन इशारे से भी नहीं किया। उसका विषय क्या था और वह रचना किसकी थी, तथा अधिकांश श्रोताओं ने उसे कैसा समझा, यह भी तो बताने की किसी ने कृपा नहीं की।

अश्लीलता उसे कहते हैं जिसे सुनकर श्रोता के हृदय में जुगुप्सा, घृणा और विशेष सङ्गोच के भावों का उदय हो । सभ्य समाज में जिस तरह की बातें करना मना है वैसी ही बातों से जुगुप्सा की उत्पत्ति होती है-जैसे लखनऊ के "चिरकीन" नामक शायर की उक्तियों से। पर क्या हिन्दी के कवियों में कोई इतने भी जघन्य कवि हैं जो घृणित बातों का उल्लेख अपनी कविता में--सो भी हज़ारों आदमियों के सामने-करें? विश्वास तो नहीं होता। अतएव अश्लीता-विषयक आरोप में और कुछ नहीं तो अतिरजना ज़रूर ही मालूम होती है।

अनुमान यही कहता है कि जिस कविता या रचना पर आक्षप किया गया है वह कुछ अधिक शृङ्गारिक रही होगी। सम्भव है, वह कुरुचि की सीमा तक पहुंँच गई हो । यदि वह ऐसी ही रही हो तो परिमार्जित रुचि रखनेवाले समाज में वह न पढ़ी जाती तो अच्छा ही था। तथापि यदि वह पढ़ी ही गई थी तो वैसी अन्य कविताओं का पढ़ा जाना रोक दिया जा सकता था । इतना हो-हल्ला मचाने की क्या ज़रूरत थी ? कवियों को कुछ नोटिस तो पहले से दे ही न दी गई थी कि
अमुक ही अमुक विषय या रस की कवितायें पढ़ी जायँगी। फिर रुचि-वैचित्र्य का भी तो ध्यान रखना चाहिए । सबकी रुचि एक सी नहीं होती । देवदत्त जिसे कुरुचिपूर्ण समझेगा,भवदत्त शायद उसे वैसा न समझे। एक बात और भी है। कविताओं में अनेक रसों की योजना हो सकती है। महिलाओं से क्या कह दिया गया था कि शृङ्गाररस की कवितायें न पढ़ी जायँगी ? स्त्रियाँ स्वभाव ही से लज्जालु होती हैं, पुरुषों के सामने और भी अधिक । ऐसी दशा में शृङ्गार की उक्ति सुनकर यदि उन्हें सङ्गोच मालूम हो तो आश्चर्य नहीं। अतएव कवि-सम्मेलनों में उन्हें जाना ही न चाहिए । कुछ भी हो, कवियों का मुंँह नहीं बन्द किया जा सकता। "कवयः किन जल्पन्ति"। जिसकी खुशी हो उनकी कविता सुने; जिसकी न हो, न सुने।

शृङ्गाररस होने ही से कविता अश्लील नहीं हो जाती। यदि ऐसा होता तो कालिदास की क्या गति होती ? उनके तो प्राय: सभी काव्य और सभी नाटक पढ़ने योग्य न समझे जाते । उनमें तो बीच बीच, वीर, शान्त और करुणरस के प्रवाह में भी, शृङ्गाररस के भंँवर उठा करते हैं, यथा--

ततः प्रियोपात्तरसेऽधरोष्ठे

निवेश्य दध्मौ जलजं कुमारः।

फिर भला श्रीकृष्ण की लोला-भूमि, वृन्दावन, मै शृङ्गार-रस की कविता के श्रवण से यदि किसीको उद्घग होगा तो श्रीमदभागवत् को कथा किसका आश्रय लेगी? वह तो मध्य
निम्ब, चैतन्य और बल्लभ आदि सभी सम्प्रदायों के वैष्णवों की सजीवन-मूरि है। आशा नहीं, विश्वास है, मथुरा और वृन्दावन के गोस्वामिवर्य्य भी उसे बड़े ही आदर की वस्तु समझते होंगे। इसी श्रीमद्भागवत में व्यासजी ने वृन्दावनवासिनी न सही, व्रजवासिनी महिलाओं के मुख से, श्रीकृष्ण को सम्बोधन करके कहलाया है—

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु
भीताः शनै: प्रिय दधीमहि कर्कशेषु।
तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिभ्रमति धीर्भवदायुषां नः॥

श्रीमदभागवत में तो व्यासजी ने यहां तक कहने की कृपा की है—

कृष्णं निरीत्य वनितोत्सवरूपवेशं
श्रुत्वा च तत्क्वणितवेणुविचित्रगीतम्।
देव्यो विमानगतय: स्मरनुन्नसारा
भ्रश्यत्प्रसूनकबरा मुमुहुर्विनीव्यः॥

साहित्य सम्मेलन के कार्यकर्त्ता गोस्वामी महोदय यदि इन उक्तियों को अश्लील न समझें, और यदि कवि-सम्मेलन में पढ़ी गई कोई शृङ्गार-रस-परिप्लुत उक्ति सुनकर ही कुछ उदाराशय सज्जनों ने उसपर अश्लीलता का दोष आरोपित कर दिया हो, तो उनकी काव्यमर्मज्ञता की बलिहारी!

कांग्रेस के सप्ताह में कानपुर में दो कवि-सम्मेलन होनेवाले हैं। "होनेवाले", इसलिए कि यह नोट दिसम्बर के पहले ही सप्ताह में लिखा जा रहा है। इसके प्रकाशन के पहले ही वे सम्मेलन हो चुकेंगे। एक ही सप्ताह या एक ही समय में दो सम्मेलन होने का कारण यह है कि कानपुर में कवियों के दो दल या दो टाट होगये हैं। वे एक दूसरे से मिलना नहीं चाहते; वे परस्पर एक दूसरे को अछूत सा समझ रहे हैं। जान पड़ता है किसीने अपने किसी प्रतिस्पर्धी कवि की शान का बाल बांका कर दिया है। भला कहीं कवि भी ऐसे अपमान को सकता है? और फिर कानपुर का कवि! व्यास और वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति, भास और गुणाढ्य आदि कवियों की कृतियों की आलोचना हो सकती है, उनके दोष दिखाये जा सकते हैं, उनमें से कौन बड़ा और कौन छोटा है, इसका भी विवेचन हो सकता है। पर कानपुर के लोकातिशयी कवियों के विषय में किसीको कुछ कहने का अधिकार नहीं; उनकी कविताओं में से किसीको उत्तम, किसीको मध्यम, किसी को अधम बताने की भी आज्ञा किसीको नहीं। किसीको पुरस्कार देने और किसीको न देने का कानून भी वहां के कवियों के पिनल कोड या सिविल प्रोसिडियोर कोड में नहीं। दुनिया हँसे, हँसा करे। कवियों को दलबन्दी को विवेकशील जन निन्द्य समझें, समझा करें। कुछ भी क्यों न हो जाय; पर कवियों की शान में फरक़ न पड़े। दलबन्दी भारत के भाग्य ही में लिख सी गई है। देखिए न लिबरल, इंडिपेंडेंट, स्वराजिस्ट सभी आपस में दलबन्दी कर रहे हैं। दल के भीतर दल पैदा हो रहे हैं। फिर कवि यदि अपने फिरके अलग अलग बनावें तो क्या आश्चर्य्य? कानपुर के कवियों का एक दल अखिल-भारतवर्षीय कविसम्मेलन करने जा रहा है। अर्थात् उसके दङ्गल में सभी प्रान्तों के कवि-मल्ल अपना कर्तव्य दिखायेंगे। कांग्रेस के दिन हैं। मदरास तक के निवासी, और किसी काम से न सही, सैर-सपाटे ही के लिए ज़रूर ही कानपुर आवेंगे। यदि यहां के कुछ कवि भी आगये और सम्मेलन में अपनी कविता सुनाने लगे तो बड़ा मज़ा आवेगा। जिस समय तामील, तेलगू, मलयाली और कनारी भाषाओं की कविताओं का पाठ होगा उस समय अन्यप्रान्तों के उपस्थित श्रोता मुँह बाये बैठे रहेंगे। घड़े में कङ्कड़ भर कर ज़ोर से हिलाने पर जैसी ध्वनि निकलती है वैसी ही ध्वनि उस कविता-पाठ के समय होती सुनकर श्रोतृसमूह यदि सम्मेलन के कार्यकर्ताओं पर पुष्पवृष्टि न करेगा तो उन्हें शतशः और सहस्त्रश: धन्यवाद दिये बिना तो कदापि न रहेगा।

इसके जवाब में दूसरे दल को भी अपने सम्मेलन में कुछ नवीनता लाने की चेष्टा ज़रूर करनी चाहिए। इस दफ़े न सही, फिर कभी सही। हिन्दी-भाषा से सम्बद्ध जितनी बोलियाँ हैं उन सबके कवियों को भी उसे एक बार अपने सम्मेलन में आमन्त्रित करना चाहिए। यदि ऐसे कवि विद्यमान न हों तो छन्दशास्त्र और काव्यशास्त्र की शिक्षा देकर उन्हें तैयार करना चाहिए। उनकी कवितायें सचमुच ही अश्रुतपूर्व अत्यन्त ही रोचक होगी। जिस समय ब्रज, बांगडू, मारवाड़ी, मालवी, बुँदेलखन्डी, बैसवारी, मिर्ज़ापुरी, बिहारी और मैथिली आदि बोलियों की कवितायें पढ़ी जायँगी उस समय अन्तरिक्ष में देवगण भी शायद अपने अपने विमानों में बैठे हुए कविता-श्रवण करते दिखाई देंगे। अस्तु।

कवियों की महिमा अचिन्त्य और अनिर्वचनीय है। वे क्या नहीं कर सकते? वे सर्वगामी, सर्वज्ञ, सर्वसमर्थ और सर्वकार्य्यपटु होते हैं। अतएव प्रतिभाशाली और अप्रतिभ, उद्भट और अनुद्भट अश्लीलताद्वेषी और शृङ्गाररसपोषी, सदल और निर्दल—सभी कवियों को इस किङ्कर का साज्जलिवद्ध प्रणाम। कवि कोई ऐसी वैसी चीज़ नहीं। उसे तो एक लोकोत्तर विभूति समझना चाहिए। राजतरङ्गिणीकार कल्हण की उक्ति है—

कोऽन्यः कालमतिक्रान्तं नेतुं प्रत्यक्षतां क्षमः
कवि-प्रजापतींस्त्यक्त्वा रम्यनिर्म्माणशालिनः

जनवरी १९२६