साहित्यालाप/१२—मर्दुमशुमारी की हिन्दुस्तानी भाषा

साहित्यालाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

पटना: खड्‍गविलास प्रेस, पृष्ठ १९८ से – २०८ तक

 

१२----मर्दुमशुमारी की "हिन्दुस्तानी" भाषा!

अपनी भाषा सभीको प्यारी होती है। भाषा अच्छी हो या बुरी, उन्नत हो या अनुन्नत, शब्दश्री-सम्पन्न हो या शब्दश्री- हीन, बिना उसके सांसारिक व्यवहार नहीं चल सकता। पशु-पक्षियों की भी भाषा होती है और उसके द्वारा वे भी सुख और दुःख, हर्ष और विषाद, भय और शोक प्रकट करते हैं। परन्तु अपनी भाषा के पूर्ण महत्त्व को सभ्य और शिक्षित जातियाँ ही समझती हैं। वे जानती हैं कि जिनकी भाषा,जिनका धर्म, जिनका आचार और जिनका वस्त्र-परिच्छद एक सा नहीं वे कभी अपनी जातीयता अक्षुप्ण नहीं रख सकतीं। यही बातें हैं जो मनुष्यों के समुदाय का दृढ़तापूर्वक एक ही बन्धन से बद्ध सा कर देती हैं। इनके अस्तित्व के आधार पर ही एकता, देश-भक्ति, पारस्परिक सहानुभूति आदि की सृष्टि होती है और वह उत्तरोत्तर बढ़ती भी है। जिनकी भाषा भिन्न है, जिनका धर्म भिन्न है, जिनका वस्त्राच्छादन भिन्न है उनसे दूसरों का मन अच्छी तरह नहीं मिल सकता; उनमें परस्पर भ्रातृभाव नहीं उत्पन्न हो सकता; हजार प्रयत्न करने पर भी वे एक नहीं हो सकते । इसीसे दूरदर्शी जन और जन-समुदाय अपनी भाषा का इतना आदर करते हैं । और देशों की बातें जाने दीजिए । अपने ही देश के दो एक उदाहरणों

पर विचार कीजिए । आठ नौ सौ वर्ष हुए जब पहले पहल मुसलमानों ने इस देश में क़दम रक्खा था। धीरे धीरे वे इस देश के अधीश्वर हो गये। उस समय इस देश के निवासी न गूंगे थे और न बिना भाषा ही के थे। उनकी भी अपनी निज की भाषा थी। अथवा यों कहना चाहिए कि प्रत्येक प्रान्त में एक एक प्रधान भाषा बोली जाती थी और इन भाषाओं के बोलनेवालों की संख्या भी करोड़ों थीं । उधर मुसलमान उनके मुक़ाबले में बहुत ही थोड़े थे। फ़ी एक लाख भारतवासियों के पीछे मुसलमान शायद एक सौ से भी कम ही रहे होंगे। अतएव एक लाख के सुभीते के लिए एक सौ को चाहिए था कि वे उन एक लाख मनुष्यों की भाषा और लिपि सीखते और उन्हीं का प्रचार करते । परन्तु उन्हें अपनी भाषा इतनी प्यारी थी कि उन्होंने उसे न छोड़ा। उलटा यहां के लाखों आदमियों को अपनी भाषा और अपनी लिपि सीखने के लिए मजबूर किया ।

यही हाल अँगरेज़ों का भी है। उनकी संख्या तो मुसल्मानों से भी कम है---वे तो केवल मुट्ठी भर हैं। पर उन्होंने भी यहां की भाषाओं को प्रधानता न दी। जहाँ तक उनसे हो सका उन्होंने उलटा यहाँवालों ही को अपनी भाषा सिखाई । यहाँ-वालों की भाषा या बोली उन्होंने मजबूरन सीखी भी तो बस काम चलाने भर को, अधिक नहीं। कचहरियों और दफ्तरों में, यहाँ प्रान्तिक भाषाओं में काम होता है वहाँ भी, वे, यदि उनका बस चलता तो, अपनी ही भाषा प्रचलित कर देते, पर

उतने अँगरेज़ीदाँ पाते कहाँ से । इसी से विवश होकर उन्हें यहाँ को भाषा से ही काम लेना पड़ा ।

जातीयता, एकता, सहानुभूति और पारस्परिक भ्रातृभावना की उत्पत्ति, रक्षा और वृद्धि के लिए जिस भाषा की इतनी आवश्यकता है उसके विषय में अवहेलना या भेदनीति से काम लिया जाता देख किस विवेकशील सजन को सन्ताप न होगा?

और और प्रान्तों में प्राय: एक ही एक देशी भाषा का प्राधान्य है । मद्रास में अलबते कई देशी भाषायें प्रचलित हैं। पर उन सबके क्षेत्र जुदा जुदा हैं--तामील, तेलगू, मलयालम अपने ही अपने जिलों में बोली जाती हैं । उनकी खिचड़ी नहीं पकती। जहां कनारी है वहां उसी की मुख्यता है: जहां तामील है वहां उसी की। यही हाल कुछ अन्य भाषाओं का भी है। गुजरात में गुजराती, महाराष्ट्र में मराठी और बङ्गाल में बंँगला भाषा बोली जाती है। लिखने और बोलने की भाषायें वहां वही हैं। इसी तरह मध्यप्रदेश और बिहार में हिन्दी का प्रचार है। इन दोनों प्रान्तों की शासन-रिपोर्टों और मर्दुमशुमारी की भी रिपोर्ट्स में वहां की भाषा बोलने वाले हिन्दी-भाषा-भाषी ही माने गये हैं और अब भी माने जाते हैं। परन्तु आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि यदि बिहार और मध्यप्रान्त के दो चार हजार---इतने ही क्यों, लाख दो लाख भी---आदमी संयुक्त-प्रान्त में मर्दुमशुमारी के दिन, काशी, प्रयाग, हरद्वार या और कहीं ठहरे मिले तो उनकी बोली हिन्दी के बदले “हिन्दुस्तानी" हो जाय। इस अघटनशील घटना का गुरुत्व या महत्त्व थोड़ा

न समझिए। इसकी गुरुता वही अच्छी तरह समझ सकेंगे जो अपनी भाषा के महत्त्व को जानते हैं।

इन प्रान्तों में दो भाषायें बोली जाती हैं। एक उर्दू, दूसरी हिन्दी। शहरों और क्सबों में रहनेवाले मुसल्मानों, कुछ कायस्थों और काश्मीरियों, और कचहरियों तथा सरकारी दफ्त़रों के मुलाज़िमों को छोड़कर अन्य सभी की भाषा या बोली हिन्दी है। इन के सिवा यदि और भी कुछ लोग उर्दू बोलनेवाले होंगे तो उनकी, कथा जिनका नामनिर्देश यहां पर किया गया उन सब की, सम्मिलित सख्या हिन्दी बोलनेवालों के मुक़ाबले में शायद फ़ी सदी बीस पच्चीस से अधिक न होगी। पर सरकार इस अकेले प्रान्त में एक के बदले दो भाषाओं से बहुत घबराती सी है। मदरास में तीन तीन चार २ बोलियां या भाषा-बोली जाती हैं; परन्तु वहां की गवर्नमेंट उन सब का लेखा-जोखा रखने का झंझट उठा लेती है। बम्बई की गवर्नमेंट भी मराठी और गुजराती भाषा बोलनेवालों का हिसाब अलग अलग रखती है। ऐसा करने में यदि किसी को कुछ तकलीफ़,झंझट या सङ्कोच होता है तो संयुक्त-प्रान्त की गवर्नमेंट को। वह चाहती है कि भाषा-विषयक द्वैधीभाव यहां न रहे। इसी से वह, दो एक दफे, मदरसों के छोटे छोटे दरजों की पाठ्य पुस्तकों की भाषा एक कर डालने की चेष्टा भी कर चुकी है। उसकी इस भाषा या बोली का नाम कुछ लोगों ने सरकारी बोली रक्खा है। मगर उसकी यह चेष्टा अभी तक पूर्णरूप से सफ़ल नहीं हुई। ख़ैर । मदरसों की पुस्तकों की भाषा एक कर डालने की चेष्टा में सरकार को यद्यपि पूरी सफलता नहीं हुई, तथापि वह अपनी उद्देश-सिद्धि के लिये बराबर यत्न करती ही चली जा रही है---उसकी रगड़ बराबर जारी है। अब तक मर्दुमशुमारी के काग़ज़ात में हिन्दी और उर्दू, दोनों ही भाषायें बोलनेवालों की संख्या जुदा जुदा बताई जाती रही है। पर इस दफ़े, पिछली मनुष्य-गणना के समय, उसने इस भेद-भाव को एक-दम ही दूर कर दिया है। उसने हिन्दी को भी अद्धचन्द्र दे दिया है और उर्दू को भी। उन दोनों की जगह उसने “हिन्दुस्तानी" को दे दी है। सो अब सब लोगों को यह कल्पना कर लेनी चाहिए कि न इन प्रान्तों में कोई हिन्दी ही बोलनेवाला है और न उर्द ही बोलनेवाला । जो भापा या बोली यहां बोली जाती है वह"हिन्दुस्तानी" है । हिन्दुओं को अब हिन्दी भूल जाना चाहिए और मुसल्मानों को उर्दू । सरकार के लिए तो यह बहुत बड़े सुभीते की बात हुई, पर जो साहब समस्त भारत की मनुष्य-गणना पर आलोचनात्मक रिपोर्ट लिखेंगे या लिखी होगी उन पर क्या गुज़री होगी या गुज़रेगी, यह हमें अब तक नहीं मालूम हुआ; क्योंकि उनकी रिपोर्ट अब तक हमारे देखने में नहीं आई । बात यह है कि अन्य प्रान्तों की--विशेष करके बिहार और मध्य-प्रदेश---की मनुष्य-गणना के अध्यक्ष अपने अपने नक्शों में ज़रूर ही हिन्दी बोलने वालों की संख्या दिखावेंगे। क्योंकि अन्य सभी प्रान्तों में थोड़े बहुत हिन्दी बोलनेवाले ज़रूर ही निकलेंगे। इस दशा में उन सबका लेखा ज़रूर ही

प्रकाशित करना पड़ेगा। हिन्दू-उर्दू बोलने वालों को अनस्तित्व का पता यदि कहीं के नक्शों में मिलेगा तो परम सुधारक संयुक्त-प्रदेश ही के नक्शों में मिलेगा । सो इस प्रदेश की विशेषता की रक्षा के लिए भाषा-विषयक नक्शे या नक़्शों में एक ख़ाना "हिन्दुस्तानी" का भी रखना पड़ेगा । सो जहां और अनेक भाषायें या बोलियां इस देश में प्रचलित हैं वहाँ एक काल्पनिक भाषा “हिन्दुस्तानी" भी बढ़ानी पड़ेगी।

अच्छा, यह हिन्दुस्तानी भाषा है क्या चीज़ ? इसका नाम कुछ ही समय से सुन पड़ने लगा है ; यह कोई नई भाषा तो है नहीं। जो लोग हिन्दी या उर्दू अच्छी तरह नहीं बोल सकते---उदाहरणार्थ मदरासी, महाराष्ट्र और सबसे अधिक हमारे साहब लोग---उन्हीं की भ्रष्ट भाषा यदि हिन्दुस्तानी कही जा सके तो कही जा सकती है। यही लोग टूटीफूटी हिन्दी बोल कर किसी तरह अपना काम चलाते हैं। इसी अर्थ में "हिन्दुस्तानी" आख्या चरितार्थ हो सकती है । इसी अर्थ में वह सारे हिन्दुस्तान की भाषा हो सकती है । पर भ्रष्ट, अपभ्रष्ट या गलत-सलत भाषा बोलने से क्या किसी नई भाषा की सृष्टि भी हो सकती है ? यदि इंँगलैंड में रहनेवाले जापानी लस्टमपस्टम अँगरेजी बोले तो संयुक्त-प्रान्त की मनुष्य-गणना के बड़े साहब उनकी उस अँगरेज़ी को क्या कोई नया नाम देने को तैयार होंगे ? परन्तु तर्क, युक्ति और औचित्य को यहां पूछता कौन है और उनकी कदर करता कौन है ? मर्दुमशुमारी के साहब ने इन प्रान्तों की सरकार से सिफारिश कर दी कि हिन्दी-उर्दू

का झमेला ठीक नहीं; दोनों की जगह "हिन्दुस्तानी" को दे दी जाय । बस सरकार ने "तथास्तु" कह दिया और कलम के एक ही स्वल्प सञ्चालन से हिन्दी और उर्दू दोनों ही उड़ गई । “हिन्दुस्तानी" पर तो सरकार पहले ही से फिदा है । उसकी पसन्द की हुई स्कूली किताबें, उसके मुतरज्जिमों की तर्जुमा की हुई कानून की किताबें, उसके गैज़टों और इश्तहारों की बहुत ही चुस्त और दुरुस्त इबारतें उसके हिन्दुस्तानी प्रेम का पूरा प्रमाण है।

ऊपर ही ऊपर देखने से तो “हिन्दुस्तानी" का प्रयोग हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं के पृष्ठपोषकों की दृष्टि से एकसा हानिकारक है; क्योंकि इस नये नाम ने उन दोनों भाषाओं के नाम को उड़ा दिया है । पर इसके भीतर एक रहस्य है । कुछ समय से साहब लोगों तथा कुछ और भी दूरदर्शी महात्माओं ने हिन्दुस्तानी को उर्दू ही का वाचक मान रक्खा है। अतएव ऐसे लोग यदि समझे कि इन प्रान्तों में एक भी हिन्दी बोलनेवाला नहीं, समस्त प्रान्त हिन्दुस्तानी उर्फ़ उर्दू ही बोलता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। यह धारणा हो जाने पर भविष्यत् में क्या क्या गुल खिल सकते हैं, और हिन्दी को आच्छादित कर लेने के लिए उस पर कैसी कैसी भ्रमोत्पादक घटायें घिर सकती हैं, इसका अनुमान अच्छी तरह किया जा सकता है।

बात ज़रा दर तक विचार करने की है। देहात के निवासी जानते हैं कि एक ही ज़िले में, दो दो चार चार कोस पर भी,बोली में कुछ न कुछ अन्तर पड़ जाता है। लखनऊ ज़िले के

लोगों की बोली इलाहाबाद जिले के लोगों की बोली से और भी अधिक दूर हो जाती है। इसी तरह सहारनपुर और बलिया या गाजीपुर की बोली में तो सैकड़ों शब्द ऐसे पाये जाते हैं जो दोनों जिलों में एक से नहीं बोले जाते । पर क्या इस भेद-भाव के कारण भाषा ही बदल जाती है ? यदि बदल जाय तो कहीं कहीं हर जिले में दो दो तीन तीन बोलियों या भाषाओं की कल्पना करनी पड़े। बोली में जैले यहाँ, थोड़ी थोड़ी दूर पर, अन्तर हो गया है वैसे ही इंँगलैंड में भी हो गया है। यह बात मर्दुमशुमारो के सुपरिंटेंडेंट स्वयं भी स्वीकार करते हैं। पर वहाँ अँगरेज़ों की अँगरेज़ी ही बनी हुई है। उसमें भेद-कल्पना नहीं की गई। तथापि इस देश की सरकार के द्वारा नियत किये गये डाक्टर ग्रियर्सन ने यहाँ की भाषाओं की नाप-जोख करके संयुक्तप्रान्त की भाषा को चार भागों में बाँट दिया है---(१) माध्यमिक पहाड़ी (२) पश्चिमी हिन्दी (३) पूर्वी हिन्दी और (४) बिहारी । आपका वह बाँट-छूट वैज्ञानिक कहा जाता है और इसी के अनुसार श्रापकी लिखी दुई भाषा-विषयक ( LuguisticSurvey ) रिपोर्ट में बड़े बड़े व्याख्यानों,विवरणों और विवेचनों के अनन्तर इन चारों भागों के भेद समझाये गये हैं। पर भेद-भाव के इतने बड़े भक्त डाक्टर ग्रियसेन ने भी इस प्रान्त में "हिन्दुस्तानी" नाम की एक भी भाषा को प्रधानता नहीं दी।

ज़रा दिल्लगी तो देखिए । उधर तो सरकार ही के एक बहुत बड़े कर्मचारी, डाक्टर ग्रियर्सन, जो भाषाओं के तत्वदर्शी

समझे जाते हैं, एक के बदले यहाँ चार चार भाषाओं का अस्तित्व स्वीकार करते हैं । इधर सरकार ही के अन्यतम कर्म-चारी, मर्दुमशुमारी के सुपरिंटेंडेंट, एडी साहब, हिन्दी और उर्दू, इन दो भाषाओं का भी भेद दूर करके एक "हिन्दुस्तानी" ही रखना चाहते हैं । अब किसकी बात ठीक मानी जाय या किसकी तारीफ़ की जाय ? डाक्टर साहब की या एडी साहब की?

सुपरिटेंडेंट साहब की शिकायत है कि १९२१ ईस्वी को मर्दुमशुमारी में, भाषा-विषयक विवाद ने बड़ा उग्ररूप धारण किया था। शुमारकुनिन्दा लोगों को भुलावे दिये गये थे; उन्होंने खुद भी, जिसकी जैसी मौज थी या जो जिस भाषा का पक्षपाती था, उसीको नक्शों में दर्ज किया था। इससे भाषा के सम्बन्ध में मनुष्य-गणना ठीक ठीक नहीं हुई। इसी दोष को दूर करने के लिए इस दफ़ आपने यह "हिन्दुस्तानी" तोड़ निकाली है। नतीजा यह हुआ कि इस प्रान्त में फ़ी दस हज़ार आदमियों में से ९ , ९७४ मनुष्य हिन्दुस्तानी बोलनेवाले निकल आये हैं और इस लेखे में रत्ती, बादाम, छदाम की भी भूल नहीं।

सुपरिटेंडेंट साहब को भाषा-विषयक वाद-विवाद इसलिए भी पसन्द नहीं कि उर्दू और हिन्दी के हामी इस पर धार्मिक रङ्ग चढ़ा दिया करते हैं । आपका यह कथन किसी हद तक ठीक भी है। पर इस रङ्ग को आप कहां कहां धोते फिरेंगे। इसने तो सारे भारत को ही सराबोर कर दिया है। जब आप मुसल्मानों के लिए शिक्षा का अलग प्रबन्ध करते हैं, जब आप उनके और
हिन्दुओं के लिए कौंसिलों में कुर्सियों की संख्या अलग अलग निर्दिष्ट करते हैं, जब आप डिपटी कलकरी के उम्मेदवारों में भी धार्मिक बांट-बूट किया करते हैं तब आप भाषा-विषयक विवाद से क्यों इतना घबराते हैं ? एक विषय में तो एकाकार, अन्य विषयों में विभेद-योजना ! आपकी यह नीति साधारण जनों की समझ में तो आती नहीं, असाधारणों की समझ में चाहे भले ही आ जाय।

रही यह बात कि १९११ की मर्दुमशुमारी के अङ्क सही नहीं थे, क्योंकि हिन्दी-उर्दू के पक्षपातियों ने पक्षपात से काम लिया था। सो इसके उत्तर में हमारा निवेदन है कि आपको इससे क्या ? जो अपनी भाषा हिन्दी बतावे उसे आप हिन्दी भाषी समझे; जो अपनी भाषा उर्दू बतावे उसे उर्दू भाषी । वह सच ,कहता है या नहीं, इसके पीछे आप इतने हैरान क्यों ? यह बात आप बतानेवाले के दीनो-ईमान पर क्यों न छोड़ दें ? कोई टैक्स तो आपको वसूल करना नहीं, जो सच बात न कहने से टके कम मिलेंगे। अच्छा, आपही कहिए, आपने मर्दुमशुमारी के नक् शों में उम्र के हिसाब से यहां के निवासियों की जो गिनती की है वह क्या लोगों के जन्मपत्र या बैतिस्मे के रजिस्टर देख कर की है ? जिसने अपनी उम्र ५० वर्ष की बताई उसकी सचाई जांचने की कसोटी भी कोई आपने रक्खी ? वह सच कह रहा है या नहीं, इसकी शहादत भी आपने उससे मांगी ? नहीं मांगी और उसकी बात पर ही विश्वास कर लिया तो भाषा-विषयक उक्तियों पर क्यों न विश्वास किया जाय ? इस विषय पर जितना ही अधिक विचार किया जायगा उतना ही अधिक विरोध केलिए जगह निकलती आवेगी । सरकार ने हिन्दी और उर्दू दोनों को निकाल कर उनके आसन पर जो "हिन्दुस्तानी" को बिठा दिया है, यह बात इस प्रान्त के प्रत्येक विवेकशील मनुष्य के हृदय में खटक पैदा करनेवाली है। बड़े ही परिताप की बात है कि इस इतने महत्त्व की घटना या दुर्घटना पर, जहाँ तक हम जानते हैं, किसी ने अब तक चूँ तक नहीं किया। हाँ, एक मासिक पत्रिका में दो चार सतरें ज़रूर देखी गई हैं।

नवम्बर १९२३

-----