सप्तसरोज
लेखक––
सेवासदन, प्रेमपचीसी, शेखसादी, प्रेमाश्रम, संग्राम,
प्रेमपूर्णिमा आदिके रचयिता
"स्व० प्रेमचन्द"
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प्रकाशक––
हिन्दी पुस्तक एजेंसी
श्री बैजनाथ केडिया
हिन्दी पुस्तक एजेन्सी,
ज्ञानवापी-काशी।
शाखाएँ––
२०३ हरिसन रोड कलकत्ता
गनपत रोड लाहौर
दरीबाकलां दिल्ली
बांकीपुर पटना
मुद्रक––
रामशरण सिंह यादव
वणिक प्रेस,
साक्षीविनायक, काशी।
उर्दू-संसारके हिन्दू-महारथियोंमे प्रेमचन्दजीका स्थान बहुत ऊँचा है। अनेक नामोंसे आपकी पुस्तकें उर्दू-संसारकी शोभा बढ़ा रही हैं। उर्दू-पत्रोंने आपकी रचनाओंकी मुक्तकंठसे प्रशंसा की हैं।
हर्षकी बात है कि मातृभाषा हिन्दीने कुछ दिनों से आपके चित्तको आकर्षित किया है। प्रेमचन्दजीने पूजनार्थ नागरी-मन्दिर में प्रवेश किया है और माता ने हृदय लगाकर अपने इस यशशाली प्रेमपुत्र को अपनाया है। इन प्रतिभाशाली लेखक महानुभाव ने इतनी जल्दी हिन्दी संसार में इतना नाम कर लिया है कि आश्चर्य होता है। आपकी कहानियां हिन्दी संसार में अनूठी चीज है। हिन्दी की पत्र पत्रिकाएं आपके लेखों के लिये लालायित रहती हैं।
कुछ लोगों का विचार है कि आपकी गल्पें साहित्यमार्तण्ड रवीन्द्र बाबूकी रचना से टक्कर लेती हैं। ऐसे विद्वान और प्रसिद्ध लेखकके विषय में विशेष कुछ लिखना अनावश्यक और अनुचित होगा।
अहरौला, आजमगढ़ ८वीं जून, १९१७ ई० |
मन्नन द्विवेदी गजपुरी |
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आज हम "सप्तसरोज" का सोलहवां संस्करण हिन्दी संसारके सम्मुख रख रहे हैं। हमें यह कहते हर्ष होता है कि हिंदी-प्रेमी पाठकोंने इसकी कहानियाँ बहुत पसन्द कीं। पत्र पत्रिकाओंके सम्पादक और अन्य हिन्दीके विद्वानोंने भी इसकी बहुत सराहना की। अंगरेजी 'माडर्न रिव्यू' और 'लीडर' सरीखे पत्रोंने भी तारीफ करनेमें कसर नहीं की, लेकिन इस पुस्तकपर हमें सबसे अधिक महत्वकी सम्मति——निष्पक्ष सम्मति——श्रीमान् शरच्चन्द्र चट्टोपाध्याय महोदयसे मिली है। उस सम्मतिपर सभी हिन्दी-प्रेमियोंको गर्व होना चाहिये।
हमें इस सत्यके स्वीकार करनेमें कोई आपत्ति न होनी चाहिये कि हिन्दीमें अधिकांश उपन्यास और गल्पकी पुस्तके बंगभाषाकी जूठन हैं। हिन्दीके गल्प-ससारमें कोई ऐसी महत्वशाली रचना नहीं थी, जिसे बंगभाषाका एक इतना महान् और प्रतिभाशाली विद्वान सराह सके। अब हम थोड़ेमें आपको शरत् बाबूका परिचय कराकर सप्तसरोजपर उनकी सम्मतिका भावार्थ सुना देते हैं। इस समय शरत् बाबू बंगभाषाके उपन्यास और गल्प संसारमें सर्वश्रेष्ठ गिने जाते हैं। सर जगदीशचन्द्र बोस, और सर रवीन्द्रनाथ ठाकुर सरीखे विद्वानोंने आपकी रचनाओं की असीम प्रशंसा की है। अबतक वङ्गभाषामें आपकी कितनी ही पुस्तकें निकली हैं और निरन्तर निकलती जा रही हैं। आपके ग्रन्थोंके पाठकोंकी संख्या बहुत अधिक है। अब आपकी सम्मतिका भावार्थ सुनिये——
"गल्पें सचमुच बहुत उत्तम और भावपूर्ण हैं। रवीन्द्र बाबू के साथ इनकी तुलना करना अन्याय और अनुचित साहस है, पर और कोई भी बँगला लेखक इतनी अच्छी गल्पें लिख सकता है या नहीं, इसमें सन्देह है।"
एक सम्मति और उल्लेख-योग्य जान पडती है। अनेक पूर्वीय भाषाओंके धुरन्धर विद्वान् मि॰ आर॰पी॰ ड्यूहर्स्ट एम॰ए॰, एफ॰आर॰जी॰एस॰, आई॰सी॰एस॰, डिस्ट्रिक्ट सेशन्स जज, गोंडा लिखते हैं——
"प्रेमचन्दकी कितनी ही कहानियाँ पढ़कर मैंने विशेष आनन्द प्राप्त किया है। अवश्य ही उनमें कहानियाँ लिखनेकी ईश्वरीय शक्ति है।"
हिन्दीके विद्वानोंकी प्रशंसापूर्ण सम्मतियोंका उल्लेख हम यहां इसलिये नहीं करना चाहते कि उनके तो यह घरकी चोरी है, उनकी की हुई प्रशंसामें दूसरोंको पक्षपातकी गन्ध आ सकती है।
हमें यू॰ पी॰ की टेक्स्ट-बुक कमिटीको भी धन्यवाद देना चाहिये कि उसने इस पुस्तकको पुरस्कारके लिये नियत कर इसका गौरव बढ़ाया। आशा है कि अन्य प्रान्तकी टेक्स्ट बुक कमिटियां तथा हिन्दी प्रेमीगण सप्तसरोजके इस सोलहवें संस्करणका यथोचित आदर कर हमें कृतार्थ करेंगे।
——प्रकाशक
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